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बादामी का चालुक्य वंश
ईसा की छठीं शताब्दी के मध्य से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्य तक दक्षिणापथ पर चालुक्य वंश की जिस मूल शाखा का आधिपत्य रहा, उसका उदय और विकास वर्तमान कर्नाटक में बागलकोट जिले के बादामी (वातापी) में हुआ था। इसलिए चालुक्यों की इस शाखा को ‘वातापी या बादामी का चालुक्य’ कहा जाता है। इस राजवंश के प्रतिभाशाली नरेशों ने संपूर्ण दक्षिणापथ को राजनैतिक एकता के सूत्र में आबद्ध किया और उत्तर भारत के प्रसिद्ध शासक हर्षवर्धन तथा दक्षिण के पल्लव शासकों के प्रबल विरोध के बावजूद लगभग दो शताब्दियों तक दक्षिण भारत पर अपने आधिपत्य को बनाये रखा।
चालुक्यों का नामकरण और उत्पत्ति
चालुक्य वंश के नामकरण और उत्पत्ति के विषय में कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती है। चालुक्यों के लेखों में इन्हें चलुक्य, चल्का, चलुक्की, चलेक्य, चलिक्य, चलुक्कि इत्यादि अनेक नामों से संबोधित किया गया है। इन्हीं अभिधानों से बाद में इस वंश के लिए चालुक्य तथा चौलुक्य नाम प्रचलित हुए। एस.सी. नंदिमथ इसका प्रारंभिक वंश-नाम ‘चल्कि’, ‘शल्कि’ अथवा ‘चलुकी’ मानते हैं जो कन्नडभाषा में कृषि के उपकरण के नाम हैं। इससे अनुमान किया जाता है कि चालुक्य वंश के मूल संस्थापक संभवतः मूलतः कर्नाटक प्रदेश के कृषक थे, जो अपनी प्रतिभा एवं पौरुष के बल पर बाद में कदंब-नरेशों की कृपा प्राप्त करके धीरे-धीरे उनके सामंत शासक बन गये। अपने सामरिक शक्ति तथा लोकप्रिय शासन के कारण अवांतर काल में इन्हीं चालुक्यों ने वातापि को केंद्र बनाकर स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।
यद्यपि वातापि के चालुक्य नरेशों के किसी भी अभिलेख में इस वंश की उत्पत्ति एवं जाति का उल्लेख नहीं मिलता है, तथापि परवर्ती कल्याणी तथा वेंगी शाखा के चालुक्य शासकों के कतिपय अभिलेखों में उन्हें मानव्यगोत्रीय हारित का पुत्र एवं चंद्रवंशी क्षत्रिय उद्घोषित किया गया है। चालुक्यों की जाति के संबंध में ह्वेनसांग का विवरण विशेष महत्वपूर्ण है जिसने पुलकेशिन् द्वितीय को स्पष्ट रूप से क्षत्रिय बताया है। अतः चालुक्यों शासकों को क्षत्रिय जाति से संबंधित माना जा सकता है।
बादामी के चालुक्य वंश के आरंभिक शासक
जयसिंह
602 ई. के महाकूट के स्तंभ-लेख से लगता है कि जयसिंह वातापी के चालुक्य वंश का प्रथम ऐतिहासिक शासक था। उसका उल्लेख 472-73 ई. के कैरा ताम्रपत्रों में उसकी उपाधि ‘वल्लभ’, ‘श्रीवल्लभ’ तथा ‘वल्लभेंद्र’ मिलती है और उसकी तुलना कुबेर तथा इंद्र से की गई है।
602 ई. के महाकूट के स्तंभ-लेख से लगता है कि जयसिंह वातापी के चालुक्य वंश का प्रथम ऐतिहासिक शासक था। उसका उल्लेख 472-73 ई. के कैरा ताम्रपत्रों में उसकी उपाधि ‘वल्लभ’, ‘श्रीवल्लभ’ तथा ‘वल्लभेंद्र’ मिलती है और उसकी तुलना कुबेर तथा इंद्र से की गई है।
चालुक्य वंश के प्रारंभिक लेखों में जयसिंह की किसी भी उपलब्धि का उल्लेख नहीं है, किंतु बाद के कुछ लेख इसका अतिरंजित विवरण देते हैं। जगदेकमल्ल के दौलताबाद अभिलेख में कहा गया है कि जयसिंह ने कदंबों के ऐश्वर्य को नष्ट कर दिया। कल्याणी के चालुक्यों के कौथेम लेख के अनुसार उसने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय एवं उसके पुत्र इंद्र तृतीय को पराजित किया था, किंतु ये सारे विवरण अनैतिहासिक एवं अलंकारिक हैं। लगता है कि जयसिंह बनवासी के कदंबों का सामंत था। उसने संभवतः छठी शताब्दी के प्रथम चरण में शासन किया होगा।
रणराग
जयसिंह का पुत्र एवं उत्तराधिकारी रणराग (520-540 ई.) था, किंतु इसके संबंध में भी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। इसका कोई अभिलेख भी नहीं मिला है। येवूर अभिलेख में इसे एक ‘वीर शासक’ कहा गया है। लगता है कि रणराग भी अपने पिता के समान कदंबों के अधीन कोई स्थानीय सामंत रहा होगा।
पुलकेशिन् प्रथम (540-567 ई.)
बादामी के चालुक्य वंश का वास्तविक संस्थापक रणराग का पुत्र एवं उत्तराधिकारी पुलकेशिन् प्रथम (540-567 ई.) था। इसके राज्यकाल से ही चालुक्य वंश की महानता का युग प्रारंभ होता है। इसको पोलेकेशिन्, पोलिकैशिन् तथा पुलिकैशिन् आदि अभिधानों से संबोधित किया गया है। फ्लीट एवं डी.सी. सरकार ‘पुलकेशिन्’ शब्द को संस्कृत एवं कन्नड़ भाषाओं का मिश्रित शब्द मानते हैं, जिसका अर्थ है- बाघ के जैसे बालों वाला। इसके विपरीत नीलकंठ शास्त्री का विचार है कि यह शुद्ध संस्कृत का शब्द है जिसमें ‘पुल’ का अर्थ ‘महान्’ होता है और केशिन् का अर्थ ‘सिंह’। इस प्रकार पुलकेशिन् का अर्थ होता है–‘महान् व्याघ्र’। अभिलेखों में पुलकेशिन् के लिए मात्र ‘महाराज’ की उपाधि का प्रयोग किया है जिससे पता चलता है कि इसी के समय में चालुक्यों की स्वतंत्र सत्ता स्थापित हुई।
पुलकेशिन प्रथम की उपलब्धियाँ
चालुक्य वंश के इस प्रथम स्वतंत्र शासक पुलकेशिन् प्रथम का उल्लेख यद्यपि कई अभिलेखों में किया गया है, किंतु इनमें मात्र उसके शौर्य की प्रशंसा करते हुए उसके निर्माण एवं धार्मिक कार्यों का ही वृतांत मिलता है।
शक संवत् 465 (543 ई.) के बादामी शिलालेख से पता चलता है कि चालुक्य ‘वल्लभेश्वर’ ने बादामी के दुर्ग का निर्माण करवाया था। इस वल्लभेश्वर की पहचान पुलकेशिन् प्रथम से की जाती है। पुलकेशिन् द्वितीय के ऐहोल लेख के अनुसार उसने बादामी के दुर्ग का निर्माण किया और उसे अपनी राजधानी बनाई। संभवतः पुलकेशिन् प्रथम ने बादामी का दुर्गीकरण करवाकर तथा उसके आस-पास के क्षेत्र को जीतकर स्वयं को कदंबों की अधीनता से मुक्त कर दिया और अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठान द्वारा अपनी प्रभुसत्ता को घोषित किया।
अपनी महानता के अनुरूप पुलकेशिन् प्रथम ने ‘सत्याश्रय’, ‘रणविक्रम’, ‘श्रीपृथ्वीवल्लभ’ अथवा ‘श्रीवल्लभ’ जैसी उपाधियाँ धारण की थी। इससे लगता है कि वैदिक धर्म में उसकी श्रद्धा थी। बादामी लेख तथा मंगलेश के महाकूट स्तंभलेख में उसे अश्वमेघ एवं वाजपेय के अतिरिक्त अग्निष्टोम, अग्निचयन, पौंडरिक, बहुसुवर्ण तथा हिरण्यगर्भ जैसे यज्ञों का अनुष्ठानकर्त्ता बताया गया है। कल्याणी के चालुक्य शासक सोमेश्वर तृतीय विरचित ‘विक्रमांकाभ्युदय’ के अनुसार उसने अश्वमेघ यज्ञ के अवसर पर 13,000 गाँव पुरोहितों को दान में दिये और उसके विजयी घोड़े ने चारों समुद्रों से घिरी पृथ्वी की परिक्रमा की थी। कुछ चालुक्य लेखों में इसकी तुलना ययाति, दिलीप आदि पौराणिक वीरों से की गई है। महाकूट अभिलेख में इसकी तुलना विष्णु से करते हुए ‘रणविक्रम’ की उपाधि दी गई है। मंगलेश के नेरूर के दानलेख में उसकी मंत्र-बुद्धि की प्रशंसा करते हुए उसे धर्मज्ञ, मनु के समान धर्मशास्त्रविद् तथा पुराण, रामायण, महाभारत एवं इतिहास का ज्ञाता बताया गया है।
पुलकेशिन् प्रथम का विवाह बापुर (बटपुर) वंश की राजकुमारी दुर्लभादेवी के साथ हुआ था। इसके दो पुत्र थे- कीर्तिवर्मन प्रथम और मंगलेश। किंतु मुधोलि अभिलेख में ‘पूगवर्मन्’ नामक शासक का उल्लेख मिलता है जिसे ‘श्रीपृथ्वीवल्लभ महाराज’ का पुत्र बताया गया है। कुछ विद्वान् श्रीपृथ्वीवल्लभ की पहचान पुलकेशिन् प्रथम से करते हुए पूगवर्मन् को पुलकेशिन प्रथम का बड़ा पुत्र मानते हैं। किंतु किसी अन्य साक्ष्य से इसकी पुष्टि नहीं होती है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर इसका शासनकाल 540 ई. से 567 ई. तक माना जा सकता है।
पुलकेशिन् द्वितीय, 610-642 ई. (Pulakeshin II, 610-642 AD)
कीर्तिवर्मन् प्रथम (567-592 ई.)
पुलकेशिन् प्रथम की मृत्यु के बाद कीर्तिवर्मन् प्रथम चालुक्य वंश का शासक बना। बादामी गुफालेख शक संवत् 500 (578 ई.) कीर्तिवर्मन् के बारहवें वर्ष का है, इस आधार पर कहा जा सकता है कि वह 567 ई. के लगभग राजगद्दी पर बैठा था।
कीर्तिवर्मन् प्रथम की उपलब्धियाँ
कीर्तिवर्मन् की उपलब्धियों एवं विजयों के संबंध में पुलकेशिन् द्वितीय की ऐहोल प्रशस्ति तथा मंगलेश के महाकूट स्तंभलेख से पर्याप्त सूचनाएँ मिलती हैं। मंगलेश के महाकूट अभिलेख में कीर्तिवर्मन् को कलिंग, मगध, अंग, वंग, मद्रक, केरल, गंग, मूषक, पांड्य, द्रमिल, चोलिय, आलुप तथा वैजयंती के शासकों का विजेता बतलाया गया है। किंतु इतिहासकारों के अनुसार यह विवरण अतिरंजित और अनैतिहासिक है।
ऐहोल प्रशस्ति से पता चलता है कि कीर्तिवर्मन् ने नलों, मौर्यों तथा कदंबों का विनाश किया था। प्रशस्ति के अनुसार ‘कीर्तिवर्मन् नल, मौर्य और कदंब राजाओं के लिए कालरात्रि था। यद्यपि उसने परस्त्री से चित हटा लिया था, फिर भी राजलक्ष्मी ने उसे आकर्षित किया था। उसने अपने पराक्रम से विजयलक्ष्मी प्राप्त की और राजाओं के मदमत्त हाथी के समान कदंब वंस को कदंब वृक्ष के सदृश उखाड़ दिया’–
नलमौर्य कदम्बकालरात्रिस्तनयस्तस्य बभूव कीत्तिवर्मा।
परदारनिवृत्तचिद्धवृत्तेरपिधीर्यस्य रिपुश्रीयानुकृष्टा।।
रणपराक्रमलब्धजयश्रिया सपदि येन विरुग्णमशेषतः।
नृपति गन्धगजेन महौजसा पृथुकदम्बकदम्बकदम्बकम्।।‘
नल वंश के लोग संभवतः नलवाड़ी में शासन करते थे जो आधुनिक वेल्लारी तथा कर्नूल जिलों में फैला था। मौर्य कोंकण प्रदेश के शासक थे और उनकी राजधानी पुरी (एलीफैंटा द्वीप की धारपुरी) को ‘पश्चिमी समुद्र की लक्ष्मी’ कहा गया है। कोंकण विजय के फलस्वरूप कीर्तिवर्मन् का गोवा पर अधिकार हो गया, जिसे उस समय ‘रेवती द्वीप’ कहा जाता था। फ्लीट के अनुसार कोंकण पर विजय प्राप्त करने के बाद उसने ध्रुवराज इंद्र को वहाँ का शासक नियुक्त किया।
किंतु कीर्तिवर्मन् द्वारा पराजित इन तीनों शक्तियों में कदंब मुख्य थे जो कर्नाटक राज्य के उत्तरी कनारा, बेलगाँव, धारवाड़ तथा उसके समीपवर्ती भू-भाग पर शासन करते थे। कीर्तिवर्मन् ने कदंबों की राजधानी वनवासी (वैजयंती) पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया।
महाकूट स्तंभ और ऐहोल लेख दोनों में कीर्तिवर्मन् को कदंबों की विजय का श्रेय दिया गया है। ऐहोल प्रशस्ति बताती है कि कीर्तिवर्मन् ने कदंबों के संघ को भंग कर दिया था। संभवतः इस संघ में कदंबों के प्रधान राजवंश के साथ-साथ इस कुल के कतिपय अन्य कदंब (गंग), सेंद्रक एवं आलुप भी शामिल थे, जिन्हें कीर्तिवर्मन् ने पराजित किया था। संभवत कीर्तिवर्मन् के द्वारा जीता गया कदंब (गंग) शासक कृष्णवर्मा द्वितीय का पुत्र अजयवर्मा था। पुलकेशिन द्वितीय के चिपलुन लेख से पता चलता है कि सेंद्रक वंश के श्रीवल्लभसेनानंद की बहन का विवाह कीर्तिवर्मन् से हुआ था जो बनवासी प्रांत के नागरखंड मंडल का शासक था और पहले कदंबों की अधीनता में था। आलुप दक्षिणी कनारा में शासन कर रहे थे। विनयादित्य के कोल्हापुर लेख में उन्हें चालुक्यों का परंपरागत ‘भृत्य सामंत’ कहा गया है।
इस प्रकार नलों, मौर्यों, आलुपों तथा कदंबों को जीतकर कीर्तिवर्मन् ने चालुक्य सत्ता का चतुर्दिक विस्तार किया जिसमें कर्नाटक के धारवाड़, बेलगाँव, बीजापुर, बेल्लारी तथा शिमोगा जिले, महाराष्ट्र के सीमांत प्रदेश तथा आंध्र प्रदेश के करनूल एवं गुंटूर जिले सम्मिलित थे।
अपनी महानता के अनुरूप कीर्तिवर्मन् प्रथम ने भी ‘सत्याश्रय’, ‘श्रीपृथ्वीवल्लभ महाराज’ ‘पुरुरणपराक्रम’ तथा ‘परमभागवत’ आदि उपाधियाँ धारण की और अग्निष्टोम तथा बहुसुवर्ण यज्ञों का संपादन किया था। शक संवत् 500 (578 ई.) के एक अभिलेख, जो बादामी की एक वैष्णव गुफा के बरामदे के भित्ति-स्तंभ पर उत्कीर्ण है, में कीर्तिवर्मन् द्वारा एक विष्णु मंदिर के बनवाये जाने का उल्लेख है, किंतु इसका निर्माण-कार्य संभवतः उसकी मृत्यु के बाद मंगलेश ने पूरा करवाया और मंदिर में विष्णु-प्रतिमा की स्थापना के अवसर पर लंजीश्वर ग्राम (नंदीकेश्वर ग्राम) दान किया था। कीर्तिवर्मन् का शासनकाल मोटेतौर पर 567 ई. से 592 ई. माना जाना चाहिए।
मंगलेश (592-610 ई.)
कीर्तिवर्मन् प्रथम की मृत्यु के समय उसके पुत्र पुलकेशिन् द्वितीय, विष्णवर्द्धन्, धराश्रय जयसिंह तथा बुद्धवर्ष अल्पवयस्क थे, इसलिए उसके छोटे भाई (संभवतः सौतेला भाई) मंगलेश ने चालुक्य शासन का भार सँभाला। शक संवत 532 (610 ई.) का गोवा अभिलेख मंगलेश के शासनकाल के 20वें वर्ष का है। इससे स्पष्ट है कि मंगलेश का राज्यारोहण शक-संवत् 512 (590 ई.) में राजा हुआ था। मंगलेश ‘मंगलराज’, ‘मंगलीश’, ‘मंगलीश्वर’, ‘मंगलार्णव’, ‘रणविक्रांत’, ‘पृथ्वीवल्लभ’ ‘श्रीपृथ्वीवल्लभ’ तथा ‘उरुरणविक्रांत’ आदि नामों और उपाधियों से जाना जाता था।
मंगलेश की उपलब्धियाँ
मंगलेश अपने पूर्ववर्ती चालुक्य शासकों से अधिक महत्वाकांक्षी था। उसने कीर्तिवर्मन् की भाँति विस्तारवादी नीति का अनुसरण किया। बादामी के चालुक्य अभिलेखों में कीर्तिवर्मन् के पश्चात् पुलकेशिन् द्वितीय के शासनकाल का उल्लेख मिलता है। इसका कारण संभवतः मंगलेश द्वारा पुलकेशिन् द्वितीय के वयस्क होने पर उसके पैतृक राज्य को वापस न करना तथा पुलकेशिन् द्वितीय द्वारा अपने राज्याधिकार के लिए किया गया विद्रोह था। किंतु परवर्ती लेखों, खासकर कल्याणी के चालुक्यों के लेखों में कीर्तिवर्मन् के बाद मंगलेश का ससम्मान उल्लेख किया गया है। मंगलेश की उपलब्धियों का उल्लेख उसके महाकूट स्तंभलेख, ऐहोल लेख, कौथेम लेख, नेरूर लेख तथा गोवा अनुदानपत्र में मिलता है।
कलचुरियों के विरूद्ध अभियान
महाकूट स्तंभलेख से पता चलता है कि मंगलेश ने उत्तर भारत की विजय की इच्छा से सबसे पहले कलचुरि नरेश ‘बुद्धराज’ को पराजित कर उसकी संपूर्ण संपत्ति का अधिग्रहण कर लिया। इसके बाद उसने अपनी माँ की अनुमति से महाकूटेश्वरनाथ मंदिर के समक्ष ‘धर्मविजय स्तंभ’ स्थापित करवाया और मंदिर को बहुत -सा दान दिया। मंगलेश की इस सफलता की पुष्टि तिथि-रहित नेरूर दानपत्र और ऐहोल लेख से भी होती है। नेरुर दानपत्र लेख के अनुसार गज-अश्व-पदाति और कोश का स्वामी शंकरगण का पुत्र बुद्धराज मंगलेश से पराजित होकर भाग गया था। ऐहोल लेख के अनुसार ‘मंगलेश ने कलचुरियों पर विजय प्राप्त की, उनकी स्त्रियों के साथ विहार किया उसके अश्वसेना के चलने से उठी धूल पूर्वी एवं पश्चिमी समुद्रों तक फैल गई’–
महाकूट स्तंभलेख से पता चलता है कि मंगलेश ने उत्तर भारत की विजय की इच्छा से सबसे पहले कलचुरि नरेश ‘बुद्धराज’ को पराजित कर उसकी संपूर्ण संपत्ति का अधिग्रहण कर लिया। इसके बाद उसने अपनी माँ की अनुमति से महाकूटेश्वरनाथ मंदिर के समक्ष ‘धर्मविजय स्तंभ’ स्थापित करवाया और मंदिर को बहुत -सा दान दिया। मंगलेश की इस सफलता की पुष्टि तिथि-रहित नेरूर दानपत्र और ऐहोल लेख से भी होती है। नेरुर दानपत्र लेख के अनुसार गज-अश्व-पदाति और कोश का स्वामी शंकरगण का पुत्र बुद्धराज मंगलेश से पराजित होकर भाग गया था। ऐहोल लेख के अनुसार ‘मंगलेश ने कलचुरियों पर विजय प्राप्त की, उनकी स्त्रियों के साथ विहार किया उसके अश्वसेना के चलने से उठी धूल पूर्वी एवं पश्चिमी समुद्रों तक फैल गई’–
तस्मिन्सुरेश्वरविभूतिगताभिलाषे राजाभवत्तदनुजः किल मंगलीशः।
पूर्वपश्चिमसमुद्रतटोषिताश्व, सेनारजः पटविनिर्मित द्विग्वितानः।।
स्फुरन्मयूखैरसि दीपिकाशतैः व्युदस्यमातंगतमिस्र संजयम्।
अवाप्तवान्यो रणरंग मंदिरे, कलचुरि श्रीललना-परिग्रहम्।।
किंतु ऐसा लगता है कि कलचुरियों के विरूद्ध मंगलेश का आक्रमण एक धावा मात्र था। इस विजय में उसे लूट में बहुत-सा धन तो मिला, किंतु चालुक्य राज्य की सीमा में कोई वृद्धि नहीं हुई। बुद्धराज ने पुनः अपनी खोई हुई शक्ति और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली क्योंकि बुद्धराज के 609-610 ई. के लेखों से पता चलता है कि वह इस समय पूर्ण राजकीय ऐश्वर्य एवं वैभव के साथ शासन कर रहा था। वदनेर अनुदानपत्र ये भी ज्ञात होता है कि 608 ई. में नासिक पर कलचुरियों का अधिकार था। संभवतः 609 ई. के बाद मंगलेश कलुचुरियों के कुछ प्रदेशों पर अधिकार करने में सफल हो गया था क्योंकि सरसनवी लेख से पता चलता है कि मंगलेश गुजरात पर अधिकार था। यह युद्ध अनुमानतः 602 ई. के पूर्व हुआ होगा क्योंकि इसका उल्लेख महाकूट स्तंभलेख में मिलता है।
रेवती द्वीप की विजय
मंगलेश की दूसरी महत्वपूर्ण सामरिक उपलब्धि कोंकण प्रदेश में रेवती द्वीप की विजय थी। रेवती द्वीप संभवतः कोंकण प्रदेश की राजधानी थी जो पश्चिमी समृद्रतट के निकट कहीं स्थित था। मंगलेश की रेवतीद्वीप के विरूद्ध सफलता की पुष्टि पुलकेशिन् द्वितीय की ऐहोल प्रशस्ति तथा परवर्ती चालुक्य लेखों से भी होती है। पुलकेशिन् द्वितीय के ऐहोल प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि मंगलेश ने रेवती द्वीप पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर लिया। प्रशस्ति में काव्यात्मक ढ़ंग से कहा गया है कि ‘मंगलेश ने पताकाओं से युक्त अपनी सेना द्वारा रेवती द्वीप को विजय की इच्छा से घेर लिया। समुद्र में उसकी सेना की चमकती हुई परछाई ऐसी लगती थी कि मानो उसकी आज्ञा पाकर वरुण की सेना चली आई हो’–
मंगलेश की दूसरी महत्वपूर्ण सामरिक उपलब्धि कोंकण प्रदेश में रेवती द्वीप की विजय थी। रेवती द्वीप संभवतः कोंकण प्रदेश की राजधानी थी जो पश्चिमी समृद्रतट के निकट कहीं स्थित था। मंगलेश की रेवतीद्वीप के विरूद्ध सफलता की पुष्टि पुलकेशिन् द्वितीय की ऐहोल प्रशस्ति तथा परवर्ती चालुक्य लेखों से भी होती है। पुलकेशिन् द्वितीय के ऐहोल प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि मंगलेश ने रेवती द्वीप पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर लिया। प्रशस्ति में काव्यात्मक ढ़ंग से कहा गया है कि ‘मंगलेश ने पताकाओं से युक्त अपनी सेना द्वारा रेवती द्वीप को विजय की इच्छा से घेर लिया। समुद्र में उसकी सेना की चमकती हुई परछाई ऐसी लगती थी कि मानो उसकी आज्ञा पाकर वरुण की सेना चली आई हो’–
पुनरपि च जिघृक्षोस्सैन्याक्रान्त-सालम्।
रुचिर-बहुपताकं रेवती द्वीपमाशु।।
सपदिमहदुदन्वत्तोयसंक्क्रान्तबिम्बम्।
वरुणवलमिवाभूदागतं यस्यवाचा।।
परवर्ती चालुक्य लेखों से पता चलता है कि मंगलेश की सेना अत्यंत विशाल थी और वह समस्त द्वीपों पर अधिकार कर सकने में समर्थ था। उसकी सेना ने नावों का एक पुल पारकर रेवती द्वीप पर आक्रमण किया था। इससे लगता है कि मंगलेश के राज्यकाल तक चालुक्यों ने एक सुदृढ़ नौ सेना संगठित कर ली थी।
इसके पूर्व कीर्तिवर्मन् प्रथम ने कोंकण प्रदेश के मौर्यों को पराजित कर इस क्षेत्र को चालुक्य राज्य में मिलाया था। नेरुर दानपत्र से ज्ञात होता है कि मंगलेश ने चालुक्यवंश के किसी स्वामिराज को, जो अठारह युद्धों का विजेता था, पराजित कर मार डाला था। लगता है कि इस ‘स्वामीराज’ को कीर्तिवर्मन् ने रेवतीद्वीप का उपराजा (गवर्नर) नियुक्त किया था जिसने मंगलेश के राजा बनने पर विद्रोह कर दिया था। फलतः मंगलेश ने कोंकण पर आक्रमण कर विद्रोही शासक स्वामीराज को मार डाला और पुनः ध्रुवराज इंद्रवर्मा को रेवतीद्वीप का उपराजा नियुक्त किया। इस प्रकार मंगलेश के शासनकाल में चालुक्य साम्राज्य में गुजरात, काठियावाड़ तथा महाराष्ट्र के नासिक तथा उत्तरी कोंकण प्रदेश सम्मिलित थे। दक्षिण में उसने उत्तराधिकार मे प्राप्त उत्तरी कर्नाटक एवं आंध्र के कार्नूल क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व बनाये रखा।
मंगलेश वैष्णव धर्मानुयायी था और उसकी एक उपाधि ‘परमभागवत्’ भी थी। एक महान् निर्माता के रूप में उसने बादामी के गुहा-मंदिर के निर्माण-कार्य को पूर्ण करवाया, जिसका आरंभ कीर्तिवर्मन् के समय में हुआ था। इसमें भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित की गई थी। लेखों में मंगलेश की दानशीलता, विद्वता एवं चरित्र की बड़ी प्रशंसा की गई है और उसे ‘परदारनिवृत्तचित्तवृत्ति’ वाला कहा गया है। इस प्रकार मंगलेश के शासनकाल में चालुक्यों की शक्ति एवं प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई।
गृह-युद्ध और मंगलेश का अंत
मंगलेश के जीवन का अंत गृह-युद्ध में हुआ। ऐहोल प्रशस्ति से पता चलता है कि ‘पुलकेशिन् नहषु के समान उदार तथा राजलक्ष्मी का प्रिय था, इसलिए मंगलेश उससे ईर्ष्या करता था। फलतः पुलकेशिन् ने देश छोड़ देने का निश्चय किया। किंतु पुलकेशिन् द्वितीय ने अपने मंत्र और उत्साह शक्ति से मंगलेश को दुर्बल कर दिया और मंगलेश को अपने पुत्र को राज्य सौंपने के प्रयत्न, विशाल राज्य तथा अपने जीवन, तीनों से हाथ धोना पड़ा’–
मंगलेश के जीवन का अंत गृह-युद्ध में हुआ। ऐहोल प्रशस्ति से पता चलता है कि ‘पुलकेशिन् नहषु के समान उदार तथा राजलक्ष्मी का प्रिय था, इसलिए मंगलेश उससे ईर्ष्या करता था। फलतः पुलकेशिन् ने देश छोड़ देने का निश्चय किया। किंतु पुलकेशिन् द्वितीय ने अपने मंत्र और उत्साह शक्ति से मंगलेश को दुर्बल कर दिया और मंगलेश को अपने पुत्र को राज्य सौंपने के प्रयत्न, विशाल राज्य तथा अपने जीवन, तीनों से हाथ धोना पड़ा’–
तस्याग्रजस्य तनयो नहुषानुभागे, लक्ष्म्या किलाभिलषिते पोलिके शिनाम्नि।
सासूयमात्मनि भवन्तमत पितृव्यम्, ज्ञात्वापरुद्धचरितव्यवसायबुद्धौ।।
स यदुपचितमंत्रोत्साहशक्तिप्रयोग, क्षपितबलविशेषो मंगलेशस्समन्तात्।
स्वतनयगतराज्यारम्भयत्नेन सार्द्ध, निजमतनु च राज्यञ्जीवितञ्चोज्झति स्म।।
ऐहोल प्रशस्ति से स्पष्ट है कि पुलकेशिन् के वयस्क होने पर भी उसका चाचा मंगलेश उसे शासन-सत्ता सौंपने को तैयार नहीं था और अपने पुत्र को वातापी के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित करना चाहता था। पुलकेशिन् ने अपने चाचा का राज्य छोड़कर अन्यत्र शरण ली और कुछ समय पश्चात् अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर उसने मंगलेश पर आक्रमण कर दिया। इस गृहयुद्ध में मंगलेश मारा गया और पुलकेशिन् द्वितीय ने अपने सभी विरोधियों को पराजित कर 610 ई. के लगभग चालुक्य राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया।
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