औपनिवेशिक भारत में शहरीकरण: मद्रास, बंबई और कलकत्ता (Urbanization in Colonial India: Madras, Bombay and Calcutta)

औपनिवेशिक भारत में शहरीकरण

इस आलेख में औपनिवेशिक भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया, औपनिवेशिक शहरों की चारित्रिक विशिष्टताओं और तीन बड़े शहरों- मद्रास, कलकत्ता तथा बंबई के विकासक्रम की जाँच-पड़ताल करने का प्रयास किया गया है। तीनों शहर मूलतः मत्स्य-ग्रहण तथा बुनाई के गाँव थे। वे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक गतिविधियों के कारण व्यापार के महत्वपूर्ण केंद्र बन गये। कंपनी ने इन तीनों बस्तियों में अपने व्यापरिक तथा प्रशासनिक कार्यालय स्थापित किये। यद्यपि मद्रास, कलकत्ता और बंबई तीनों औपनिवेशिक शहर पहले के भारतीय कस्बों और शहरों से अलग थे, किंतु उनमें कुछ साझे तत्व भी थे और उनके भीतर कुछ नई विशिष्टताएँ भी उत्पन्न हो चुकी थीं।

तीव्र नगरीय विकास एक नूतन परिघटना है। कुछ समय पूर्व तक बहुत ही कम बस्तियाँ कुछ हजार से अधिक निवासियों वाली थी। नगर अपने चारों ओर के क्षेत्रों से प्रकार्यात्मक रूप में जुड़ा हुआ होता है। अतः वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय कई बार प्रत्यक्ष रूप से और कई बार मण्डी, शहरों और नगरों की श्रृंखला के माध्यम से सम्पन्न होता है। इस प्रकार नगर गाँवों से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से जुड़े होते हैं और वे परस्पर भी जुड़े हुए होते हैं। 1800 ई. में विश्व की केवल 3 प्रतिशत जनसंख्या नगरीय बस्तियों में निवास करती थी जबकि वर्तमान समय में 48 प्रतिशत जनसंख्या नगरों में निवास करती है। प्रथम नगरीय बस्ती लंदन नगर की जनसंख्या लगभग 1810 ई. तक दस लाख हो गई थी।

भारत में नगरों का अभ्युदय प्रागैतिहासिक काल से हुआ है और सिंधुघाटी सभ्यता के युग में हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, लोथल जैसे नगर अस्तित्व में थे। आधुनिक नगर-नियोजन की शुरुआत कमोवेश इन्हीं औपनिवेशिक शहरों से हुई। कंपनी ने अपनी व्यापारिक गतिविधियों का केंद्र सबसे पहले पश्चिमी तट पर सूरत के सुस्थापित बंदरगाह को बनाया था। तटीय स्थानों पर अपने पैर जमाते हुए उन्होंने 1623 ई. सूरत, भड़ौच, अहमदाबाद, आगरा और मसुलीपट्टम में अपनी फैक्ट्ररियाँ स्थापित कर ली थीं। सूरत में व्यापारिक केंद्र मजबूत हो जाने के बाद मद्रास, कोलकाता और मुंबई की अंग्रेजी बस्तियाँ अस्तित्व में आईं। 1757 ई. तक परिस्थितियों के अनुकूल न होने के कारण अंग्रेजी कंपनी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ पूरी नहीं हुईं, किंतु चापलूसी और विनम्रता के बल पर उसका व्यापार पहले से अधिक फला-फूला। भारत से इंग्लैंड में होने वाला प्रतिवर्ष आयात 1708 ई. में 5,00,000 पौंड का था जो 1740 ई. तक 1,795,000 पौंड का हो गया। मद्रास, मुंबई और कोलकाता की अंग्रेज बस्तियाँ विकसित हो रहे नगरों का केंद्र बन गईं। बड़ी संख्या में भारतीय व्यापारी और बैंकर इन नगरों की ओर आकर्षित हुए। ऐसा अंशतः इन नगरों में उपलब्ध नये व्यापारिक अवसरों के कारण था और अंशतः इस कारण कि मुगल साम्राज्य के बिखरने से इन नगरों के बाहर अनिश्चित और असुरक्षा की परिस्थितियाँ थीं। 18वीं सदी के मध्य तक मद्रास की जनसंख्या बढ़कर तीन लाख, कलकत्ता की दो लाख और बंबई की सत्तर हजार हो चुकी थी।

जैसे-जैसे ब्रिटिश साम्राज्य फैला, अंग्रेज कलकत्ता, बंबई और मद्रास जैसे शहरों को शानदार शाही राजधानियों में बदलने की कोशिश करने लगे। उनकी सोच से ऐसा लगता था मानो शहरों की भव्यता से ही शाही सत्ता की ताकत प्रतिबिंबित होती है। आधुनिक नगर-नियोजन में ऐसी हर चीज को शामिल किया गया जिसके प्रति अंग्रेज अपनेपन का दावा करते थे- तर्कसंगत क्रम-व्यवस्था, सटीक क्रियान्वयन, पश्चिमी सौंदर्यात्मक आदर्श। शहरों का साफ और व्यवस्थित, नियोजित और सुंदर होना आवश्यक था। सुरक्षा कारणों से अंग्रेजों ने भूमि-उपयोग और भवन-निर्माण के नियमन के जरिये न केवल शहर के स्वरूप को परिभाषित किया, अपितु शहरों में लोगों के जीवन को नियंत्रित करना आरंभ कर दिया।

बंगाल में अपने शासन के शुरू से ही उन्होंने नगर-नियोजन का कार्यभार अपने हाथों में ले लिया था। अपनी प्रभाविता को प्रत्यक्ष रूप से अथवा रजवाड़ों पर नियंत्रण के माध्यम से तेजी से बढ़ाते हुए उन्होंने प्रशासनिक केंद्रों को ग्रीष्मकालीन विश्राम-स्थलों के रूप में पर्वतीय नगरों को स्थापित किया और उन्हें सिविल, प्रशासनिक और सैन्य-क्षेत्रों सेे जोड़ दिया। 1850 ई. के बाद आधुनिक उद्योगों पर आधारित नगरों का भी जन्म हुआ। जमशेदपुर इसका एक उदाहरण है।

कर्नाटक में आंग्ल-फ्रांसीसी प्रतिद्वंद्विता 

मद्रास (चेन्नई)

अंग्रेजों ने दक्षिण में अपनी पहली फैक्टरी मसुलीपट्टम में 1611 ई. में स्थापित की, किंतु 1640 ई. में उनकी गतिविधियों का केंद्र मद्रास हो गया जिसका पट्टा 1639 ई. में वहाँ के स्थानीय राजा ने कंपनी के प्रतिनिधि फ्रांसिस डेविस को दे दिया था। मद्रास के स्थान पर प्राचीन समय में चेनापट्टनम नामक ग्राम बसा हुआ था। राजा अपने इलाके मे व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ाना चाहता था, इसलिए उसने उनको उस जगह की किलेबंदी करने, सिक्के ढालने और उसका प्रशासन चलाने का अधिकार इस शर्त पर दे दिया कि बंदरगाह से प्राप्त होने वाले राजस्व का आधा भाग राजा को दिया जायेगा। यहाँ अंग्रेजों ने अपनी फैकटरी के इर्द-गिर्द एक छोटा-सा किला बनाया जिसका नाम फोर्ट सेंटजॉर्ज रखा गया। फैक्टरी के कारण कुछ ही वर्षों में वहाँ विकास दिखाई देने लगा। अगस्त, 1683 ई. को इंग्लैंड के सम्राट चार्ल्स द्वितीय द्वारा जारी चार्टर के आधार पर मद्रास में 10 जुलाई, 1686 ई. को पहला नौकाधिकरण स्थापित किया गया। इसके बाद 29 सितंबर, 1688 ई. को मद्रास के पहले नगर निगम की स्थापना हुई।

व्हाइट टाउन एवं ब्लैक टाउन

अंग्रेजों को 1744 ई. से 1763 ई. अर्थात् लगभग 20 वर्षों तक भारतीय व्यापार, संपत्ति और क्षेत्र पर अधिकार को लेकर फ्रांसीसियों की प्रतिद्वंद्विता का सामना करना पड़ा जिसके कारण उन्हें मद्रास की किलेबंदी करनी पड़ी। 1763 ई. में फ्रांसीसियों की निर्णायक हार के कारण मद्रास सुरक्षित हो गया और उसका एक महत्त्वपूर्ण व्यावसायिक शहर के रूप में विकास होने लगा। यह क्षेत्र दो भागों में बँटा हुआ था। पहला, फैक्ट्री के अंदर का भाग फोर्ट सेंटजार्ज ‘व्हाइट टाउन’ कहा जाता था, जहाँ ज्यादातर यूरोपीय रहते थे। दीवारों और बुर्जों ने इसे एक खास किस्म की घेरेबंदी का रूप दिया गया था। किले के भीतर रहने का फैसला रंग और धर्म के आधार पर किया जाता था। कंपनी के लोगों को भारतीयों के साथ विवाह करने की इजाजत नहीं थी। यूरोपीय ईसाई होने के कारण डच और पुर्तगालियों को वहाँ रहने की छूट थी। प्रशासकीय और न्यायिक व्यवस्था की संरचना भी गोरों के पक्ष में थी। संख्या की दृष्टि से कम होते हुए भी यूरोपीय लोग शासक थे और मद्रास का विकास शहर में रहने वाले मुठ्ठीभर गोरों की जरूरतों और सुविधाओं के हिसाब से किया जा रहा था। दूसरा, किले के बाहर का निकटवर्ती क्षेत्र, जहाँ स्थानीय निवासी रहते थे, उसे ‘ब्लैक टाउन’ कहा जाता था। दोनों के एकीकरण से मद्रास नगर बना। इस आबादी को भी सीधी कतारों में बसाया गया था जो कि औपनिवेशिक शहरों की विशिष्टता थी। किंतु अठारहवीं सदी के पहले दशक के मध्य में उसे ढ़हा दिया गया ताकि किले के चारों तरफ एक सुरक्षा-क्षेत्र बनाया जा सके। इसके बाद उत्तर की दिशा में दूर जाकर एक नया ‘ब्लैक टाउन’ बसाया गया। इस बस्ती में बुनकरों, कारीगरों, बिचौलियों और दुभाषियों को रखा गया जो कंपनी के व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। नया ब्लैक टाउन परंपरागत भारतीय शहरों जैसा था। वहाँ मंदिर और बाजार के इर्द-गिर्द रिहाइशी मकान बनाये गये थे।

प्रारंभ में कंपनी के तहत नौकरी पाने वालों में लगभग सारे वेल्लार होते थे। यह एक स्थानीय ग्रामीण जाति थी जिसने ब्रिटिश शासन के कारण मिले नये मौकों का बढ़िया फायदा उठाया। गरीब कामगार वर्ग में पेरियार और वन्नियार अधिक थे।

मद्रास में विविध समुदायों के लिए अवसर था, इसलिए अनेक प्रकार के आर्थिक कार्य करने वाले कई समुदाय मद्रास में ही आकर बस गये। दुबाश ऐसे भारतीय लोग थे जो स्थानीय भाषा और अंग्रेजी, दोनों को बोलना जानते थे। वे एजेंट और व्यापारी के रूप में काम करते थे और भारतीय समाज व गोरों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाते थे। ब्लैक टाउन में परोपकारी कार्यों और मंदिरों को संरक्षण प्रदान करने से समाज में उनकी स्थिति सुदृढ़ थी।

शहर के बीच से गुजरने वाली आड़ी-टेढ़ी संकरी गलियों में अलग-अलग जातियों के मुहल्ले थे। चिंताद्रीपेठ इलाका केवल बुनकरों के लिए था, वाशरमेनपेट में रंगसाज और धोबी रहते थे और रोयापुरम् में ईसाई मल्लाह रहते थे जो कंपनी के लिए काम करते थे। उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से ब्राह्मण भी शासकीय महकमों में इसी तरह के पदों के लिए जोर लगाने लगे थे। तेलुगू कोमाटी समुदाय एक ताकतवर व्यावसायिक समूह था जिसका शहर के अनाज व्यवसाय पर नियंत्रण था। अठाहरवीं सदी से गुजराती बैंकर भी यहाँ मौजूद थे। सान थोम और वहाँ का गिरजाघर रोमन कैथलिक समुदाय का केंद्र था। ये सभी बस्तियाँ मद्रास शहर का हिस्सा बन गईं।

इस प्रकार बहुत सारे गाँवों को मिला लेने से मद्रास दूर तक फैली अल्पसघन आबादी वाला शहर बन गया। जैसे-जैसे अंग्रेजों की सत्ता मजबूत होती गई, यूरोपीय निवासी किले से बाहर जाने लगे। माउंट रोड और पूनामाली रोड, इन दो सड़कों पर सबसे पहले गार्डन हाउसेज (बगीचों वाले मकान) बनने शुरू हुए। दोनों सड़कें किले से छावनी तक जाती थीं। इस दौरान संपन्न भारतीय भी अंग्रेजों की तरह रहने लगे थे जिसके परिणामस्वरूप मद्रास के इर्द-गिर्द स्थित गाँवों के स्थान पर बहुत सारे नये उपशहरी मुहल्ले बस गये। यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि संपन्न लोग परिवहन सुविधाओं की लागत वहन कर सकते थे। गरीब लोग अपने काम की जगह से नजदीक पड़ने वाले गाँवों में बस गये। मद्रास के बढ़ते शहरीकरण का परिणाम यह हुआ कि इन गाँवों के बीच वाले इलाके शहर के भीतर आ गये जिससे मद्रास एक अर्द्धग्रामीण शहर-सा दिखने लगा।

बंगाल में अंग्रेजी शक्ति की स्थापना 

कलकत्ता (कोलकाता)

बंगाल की खाड़ी के शीर्ष तट से 180 कि.मी. दूर हुगली नदी के बायें किनारे पर स्थित कोलकाता  (पुराना नाम कलकत्ता) पश्चिम बंगाल की राजधानी है। आधिकारिक रूप से इस शहर का नाम कोलकाता 1 जनवरी, 2001 को रखा गया। इसका पूर्व नाम अंग्रेजी में ‘कैलकटा’ था, किंतु बांग्लाभाषी इसे कोलकाता या कोलिकाता के नाम से ही जानते हैं एवं हिंदीभाषी कलकत्ता के नाम से। सम्राट अकबर के चुंगी दस्तावेजों और पंद्रहवी सदी के विप्रदास की कविताओं में इस नाम का बार-बार उल्लेख मिलता है। इस शहर का बहुत-सा भाग एक वृहत नम-भूमि क्षेत्र था, जिसे भराव कर शहर की बढ़ती आबादी को बसाया गया है। अपनी उत्तम अवस्थिति के कारण कोलकाता को ‘पूर्वी भारत का प्रवेश द्वार’ भी कहा जाता है। इस शहर के आधुनिक स्वरूप का विकास अंग्रेजो एवं फ्रांस के उपनिवेशवाद के इतिहास से जुड़ा है। महलों के इस शहर को ‘सिटी आव जॉय’ के नाम से भी जाना जाता है।

1756 ई. में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने कलकत्ता पर हमला किया और अंग्रेज व्यापारियों द्वारा मालगोदाम के तौर पर बनाये गये छोटे किले पर कब्जा कर लिया। उसने इसका नाम ‘अलीनगर’ रखा। सिराजुद्दौला अपनी ताकत का लोहा मनवाना चाहता था, किंतु साल भर के अंदर ही 1757 ई. में प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला की हार हुई जिससे इस शहर पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। 1850 ई. के बाद से इस शहर का तेजी से औद्योगिक विकास होना शुरु हुआ, विशेषकर कपड़ों के उद्योग का विकास नाटकीय रूप से यहाँ बढ़ा, यद्यपि इस विकास का प्रभाव शहर को छोड़कर आसपास के क्षेत्रों में कहीं परिलक्षित नहीं हुआ।

पूर्वी भारत में ब्रिटिश कंपनी ने अपनी आरंभिक फैक्टरियों में से एक की स्थापना 1633 ई. में उड़ीसा में की थी। 1651 ई. में उसे बंगाल के हुगली नगर में व्यापार की अनुमति मिल गई। लेकिन कंपनी बंगाल में अपनी एक स्वतंत्र बस्ती चाहती थी। 1988-1698 ई. में कंपनी के एक अधिकारी जॉब चारनॉक ने एक स्थानीय जमींदार परिवार सवर्ण रायचौधरी से तीन गाँव- सुतानाती, कोलिकाता और गोविंदपुर की जमींदारी प्राप्त कर ली और वहाँ अपनी फैक्टरी के इर्द-गिर्द ‘फोर्ट विलियम’ नाम का किला बनाया। यही गाँव बाद में कलकत्ता के रूप में विकसित हुआ।

नवनिर्मित फोर्ट विलियम के इर्द-गिर्द एक विशाल जगह खाली छोड़ दी गई जिसे स्थानीय लोग मैदान या गारेर-मठ कहने लगे थे। खाली मैदान रखने का उद्देश्य यह था कि यदि दुश्मन की सेना किले की तरफ बढ़े तो उस पर किले से बेरोक-टोक गोलीबारी की जा सके। फोर्ट के इर्द-गिर्द की यह खुली जगह कलकत्ता में नगर-नियोजन की दृष्टि से पहला महत्वपूर्ण कार्य था। जब अंग्रेजों को कलकत्ता में अपनी उपस्थिति स्थायी दिखाई देने लगी तो वे फोर्ट से बाहर मैदान के किनारे पर भी आवासीय इमारतें बनाने लगे। कलकत्ता में अंग्रेजों की बस्तियाँ इसी तरह अस्तित्व में आनी शुरू हुईं। 1727 ई. में इंग्लैंड के सम्राट जार्ज द्वितीय के आदेशानुसार यहाँ एक नागरिक न्यायालय की स्थापना की गई और कोलकाता नगर निगम अस्तित्व में आया।

कलकत्ता में नगर-नियोजन का इतिहास मात्र फोर्ट विलियम और मैदान के निर्माण के साथ ही पूरा नहीं हुआ। 1798 ई. में लॉर्ड वेलेजली ने कलकत्ता में अपने लिए गवर्नमेंट हाउस के नाम से एक महल बनवाया जो अंग्रेजों की सत्ता का प्रतीक थी। कलकत्ता शहर के भारतीय आबादी वाले हिस्सों की भीड़-भाड़, अत्यधिक हरियाली, गंदे तालाबों, जल-निकासी की खराब व्यवस्था अंग्रेजों को पसंद नहीं थी क्योंकि उनका मानना था कि दलदली जमीन और ठहरे हुए पानी के तालाबों से जहरीली गैसें निकलती हैं जिनसे बीमारियाँ फैलती हैं। वैसे भी उष्णकटिबंधीय जलवायु को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक और शक्ति का क्षय करने वाला माना जाता था। शहर को स्वास्थ्यपरक बनाने का एक तरीका यह ढूँढ़ा गया कि शहर में खुले स्थान छोड़े जाएँ। 1803 ई. में वेलेजली ने नगर-नियोजन की आवश्यकता पर एक प्रशासकीय आदेश जारी किया और इसके लिए कमेटियों का गठन किया। बहुत सारे बाजारों, घाटों, कब्रिस्तानों और चर्मशोधन इकाइयों को साफ किया गया या हटा दिया गया। वेलेजली के बाद नगर-नियोजन का काम सरकार की मदद से लॉटरी कमेटी (1817 ई.) करती रही। लॉटरी कमेटी का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि नगर-सुधार के लिए पैसे की व्यवस्था जनता के बीच लौटरी बेचकर की जाती थी।

लॉटरी कमेटी ने न वेवल शहर का एक नया नक्शा बनवाया, अपितु शहर के भारतीय आबादी वाले हिस्से में सड़क-निर्माण करवाया और नदी किनारे से अवैध कब्जों को हटवाया। शहर के भारतीय हिस्से को साफ-सुथरा बनाने की मुहिम में कमेटी ने बहुत सारी झोंपड़ियों को साफ कर दिया और मेहनतकश गरीबों को वहाँ से विस्थापित कर कलकत्ता के बाहरी किनारे पर जगह दी गई।

अगले कुछ दशकों में महामारी की आशंका से नगर-नियोजन की अवधारणा को और बल मिला। 1817 ई. में हैजा और 1896 ई. में प्लेग ने शहर को अपनी चपेट में ले लिया। चिकित्सा विज्ञान को अभी इन बीमारियों का स्पष्ट कारण नहीं पता था। तत्कालीन स्वीकृत सिद्धांत ‘जीवन-परिस्थितियों और बीमारियों के फैलाव के बीच सीध संबंध होता है’, के अनुसार सरकार ने कार्रवाई की और सरकार के इस सिद्धांत का समर्थन द्वारकानाथ टैगोर तथा रुस्तमजी कोवासजी जैसे शहर के प्रसिद्ध भारतीयों ने किया। इन लोगों का मानना था कि कलकत्ता को और ज्यादा स्वास्थ्यकर बनाना आवश्यक है। घनी आबादी वाले इलाकों को अस्वच्छ माना जाता था क्योंकि वहाँ सूरज की रोशनी सीधे नहीं पहुँच पाती थी और हवा के निकास की भी व्यवस्था नहीं थी। इसीलिए मेहनतकश लोगों की झोंपड़ियों या बस्तियों को तेजी से हटाया जाने लगा। मजदूर, फेरीवाले, कारीगर और बेरोजगार, यानी शहर के गरीबों को एक बार फिर दूर वाले इलाकों में ढ़केल दिया गया। बार-बार आग लगने के कारण निर्माण-नियमन में सख्ती करते हुए 1836 ई. में फूस की झोंपड़ियों को अवैध घोषित कर दिया गया और मकानों में ईंटों की छत को अनिवार्य बना दिया गया।

कोलकाता में बहुत-सी इमारतें गोथिक, बरोक, रोमन और इण्डो-इस्लामिक स्थापत्य शैली की हैं। 1814 ई. में बना भारतीय संग्रहालय एशिया का प्राचीनतम् संग्रहालय है। यहाँ भारतीय इतिहास, प्राकृतिक इतिहास और भारतीय कला का विशाल और अद्भुत संग्रह है।

उन्नीसवीं सदी आते-आते शहर में सरकारी हस्तक्षेप और उसके नियम-कायदे ज्यादा सख्त हो गये। अब वह समय खत्म हो गया जब नगर-नियोजन को सरकार और निवासियों दोनों की साझा जिम्मेदारी माना जाता था। वित्त-पोषण सहित नगर-नियोजन के सारे आयामों को सरकार ने अपने हाथों में ले लिया। इस आधार पर और तेजी से झुग्गियों को हटाया जाने लगा और दूसरे इलाकों की कीमत पर ब्रिटिश आबादी वाले हिस्सों को तेजी से विकसित किया जाने लगा जिससे स्वास्थकर और अस्वास्थ्यकर के नये विभेद के सहारे व्हाइट और ब्लैक टाउन वाले नस्ली विभाजन को और बल मिला। नगर निगम में मौजूद भारतीय नुमाइंदों ने शहर के यूरोपीय आबादी वाले इलाकों के विकास पर जरूरत से ज्यादा ध्यान दिये जाने का विरोध किया। इन सरकारी नीतियों के विरुद्ध जनता के प्रतिरोध ने भारतीयों के भीतर उपनिवेशवाद-विरोधी और राष्ट्रवादी भावनाओं को बढ़ावा दिया।

रॉबर्ट क्लाइव और बंगाल में द्वैध शासन

बंबई (मुंबई)

भारत के पश्चिमी तट पर स्थित मुंबई (पूर्व नाम बंबई) का गठन लावा निर्मित सात छोटे-छोटे द्वीपों द्वारा हुआ है एवं यह पुल द्वारा प्रमुख भू-खंड के साथ जुड़ा हुआ है।

मुंबई नाम दो शब्दों से मिलकर बना है, मुंबा और आई। मुंबा देवी हिंदू देवी दुर्गा का रूप हैं, और मराठी में माँ को ‘आई’ कहते हैं अर्थात् मुंबई। पूर्व नाम बाम्ॅबे या बंबई का प्रयोग सोलहवीं शताब्दी से शुरू हुआ जब पुर्तगाली लोग यहां पहले-पहल आये और इसे कई नामों से पुकारा, जिसने अंततः मुंबई का लिखित रूप प्राप्त किया। सत्रहवीं शताब्दी में, ब्रिटिश लोगों ने यहाँ अधिकार करने के बाद, इसके पूर्व नाम का आंग्लीकरण किया, जो बॉम्बे बन गया। किंतु मराठी लोग इसे मुंबई व हिंदीभाषी लोग इसे बंबई ही बुलाते रहे। बॉम्बे नाम मूलतः पुर्तगाली शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है ‘अच्छी खाड़ी’ (गुड बे)। इसका नाम आधिकारिक रूप से 1995 ई. में मुंबई बना। कांदिवली के निकट उत्तरी मुंबई में मिले प्राचीन अवशेष संकेत देते हैं कि यह द्वीप समूह पाषाण युग से बसा हुआ है।

1534 ई. में पुर्तगालियों ने गुजरात के बहादुरशाह से बंबई द्वीप हथिया लिया जो बाद में इंग्लैंड के चार्ल्स द्वितीय को दहेज स्वरूप मिला। चार्ल्स का विवाह कैथरीन डे बर्गैन्जा से हुआ था। 1668 ई. में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने मात्र दस पाउंड प्रतिवर्ष की दर पर बंबई का द्वीप पट्टे पर प्राप्त किया और उसकी तत्काल किलेबंदी कर दी। बंबई के रूप में अंग्रेजों को एक बड़ा और आसानी से रक्षा कर सकने योग्य बंदरगाह प्राप्त हुआ। यहाँ की जनसंख्या 1661 ई. में मात्र दस हजार थी, जो 1675 ई. में बढ़कर साठ हजार हो गई। चूंकि मराठों की उभरती शक्ति अंग्रेजों के लिए व्यापार के लिए खतरे पैदा कर रही थी, इसलिए 1687 ई. में पश्चिमी तट पर कंपनी केे मुख्यालय के रूप में सूरत का स्थान मुंबई ने ले लिया और अंततः यह नगर बंबई प्रेसीडेंसी का मुख्यालय बन गया।

औपनिवेशिक भारत की वाणिज्यिक राजधानी बंबई पश्चिमी तट पर एक प्रमुख बंदरगाह होने के कारण अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केंद्र था। उन्नीसवीं सदी के अंत तक भारत का आधा निर्यात और आयात बंबई से ही होता था। इस व्यापार की एक महत्वपूर्ण वस्तु अफीम थी। ईस्ट इंडिया कंपनी यहाँ से चीन को अफीम का निर्यात करती थी। भारतीय व्यापारी और बिचौलिये इस व्यापार में हिस्सेदार थे और उन्होंने बंबई की अर्थव्यवस्था को मालवा, राजस्थान और सिंध जैसे अफीम-उत्पादक क्षेत्रों से जोड़ने में सहायता की। कंपनी के इस गठजोड़ से भारतीय पूँजीपति वर्ग का विकास हुआ। बंबई के पूँजीपति वर्ग में पारसी, मारवाड़ी, कोंकणी मुसलमान, गुजराती बनिये, बोहरा, यहूदी और आर्मीनियाई, विभिन्न समुदायों के लोग शामिल थे।

नगर-नियोजन और भवन-निर्माण

यदि शाही दृष्टि को साकार करने का एक तरीका नगर-नियोजन था तो दूसरा तरीका था कि शहरों में भव्य और विशाल इमारतों का निर्माण। शहरों में बनने वाली इन इमारतों में किले, सरकारी दफ्तर, शैक्षणिक संस्थान, धार्मिक इमारतें, स्मारकीय मीनारें, व्यावसायिक डिपो, गोदियाँ आदि कुछ भी हो सकते थे। यद्यपि ये इमारतें रक्षा, प्रशासन और वाणिज्य जैसी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती थीं, किंतु ये साधारण इमारतें नहीं थीं। प्रायः ये इमारतें शाही सत्ता, राष्ट्रवाद और धार्मिक वैभव जैसे विचारों का प्रतिनिधित्व भी करती थीं, जैसे- शुरुआत में बंबई सात टापुओं का इलाका था, जैसे-जैसे आबादी बढ़ी, इन टापुओं को एक-दूसरे से जोड़ दिया गया ताकि ज्यादा जगह पैदा की जा सके। इस तरह आखिरकार ये टापू एक-दूसरे से जुड़ गये और एक विशाल शहर अस्तित्व में आ गया।

बंगाल में अंग्रेजी शक्ति की स्थापना 

सन् 1817 ई. के बाद नगर को बड़े पैमाने पर सिविल कार्यों द्वारा पुनरुद्धार किया गया। जब 1871 ई. में अमेरिकी गृहयुद्ध शुरू हुआ और अमेरिका के दक्षिणी भाग से आने वाली कपास अंतर्राष्ट्रीय बाजार में आना बंद हो गई तो यह नगर विश्व का प्रमुख सूती व्यवसाय बाजार बन गया, जिससे इसकी अर्थव्यवस्था मजबूत हुई। भारतीय व्यापारियों और बिचौलियों के लिए यह बड़े मुनाफे का अवसर था। 1869 ई. में स्वेज नहर को खोल देने के कारण विश्व अर्थव्यवस्था के साथ बंबई के संबंध और मजबूत हो गये और यह अरब सागर का सबसे बड़ा पत्तन बन गया। अगले तीस वर्षों में नगर एक प्रधान नागरिक केंद्र के रुप में विकसित हुआ।

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक बंबई में भारतीय व्यापारी कॉटन मिल जैसे नये उद्योगों में अपना पैसा लगा रहे थे। जैसे-जैसे बंबई की अर्थव्यवस्था फैली, उन्नीसवीं सदी के मध्य से रेलवे और जहाजरानी के विस्तार तथा प्रशासकीय संरचना विकसित करने की आवश्यकता हुई। उसी समय बहुत सारी नई इमारतें बनाई गईं। इन इमारतों में शासकों की संस्कृति और उनका आत्मविश्वास झलकता था। इनकी स्थापत्य या वास्तु शैली यूरोपीय शैली पर आधारित थी। यूरोपीय शैलियों के इस आयात में शाही दृष्टि कई तरह से दिखाई देती थी। एक तो, इसमें एक अजनबी देश में जाना-पहचाना-सा भूदृश्य रचने की और उपनिवेश में भी घर जैसा महसूस करने की अंग्रेजों की चाह प्रतिबिंबित होती है। दूसरे, अंग्रेजों को लगता था कि यूरोपीय शैली उनकी श्रेष्ठता, अधिकार और सत्ता का प्रतीक है। तीसरे, वे सोचते थे कि यूरोपीय ढंग की दिखने वाली इमारतों से औपनिवेशिक स्वामियों और भारतीय प्रजा के बीच फर्क और फासला स्पष्ट दिखने लगेगा।

आरंभ में ये इमारतें परंपरागत भारतीय इमारतों की तुलना में अजीब-सी दिखाई देती थीं, किंतु धीरे-धीरे भारतीय भी यूरोपीय स्थापत्य शैली के अभ्यस्त हो गये और इसे अपना भी लिया। दूसरी ओर, अंग्रेजों ने अपनी आवश्यकता के अनुसार कुछ भारतीय शैलियों को अपना लिया। इसे बंबई और पूरे देश में सरकारी अफसरों के लिए बनाये गये बंगलों में देखा जा सकता है जिन्हें फूस से बनाया जाता था। अंग्रेजी का ‘बंगला’ शब्द बंगाल के ‘बंगला’ शब्द से निकला है जो एक परंपरागत फूस की बनी झोपड़ी होती थी। औपनिवेशिक बंगला एक बड़ी जमीन पर बना होता था। उसमें रहने वालों को न केवल प्राइवेसी मिलती थी बल्कि उनके और भारतीय जगत के बीच फासला भी स्पष्ट हो जाता था। परंपरागत ढलुवा छत और चारों तरफ बना बरामदा बंगले को ठंडा रखता था। बंगले के परिसर में घरेलू नौकरों के लिए अलग से कमरे होते थे। सिविल लाइन्स में बने इस तरह के बंगले एक खालिस नस्ली गढ़ बन गये थे जिनमें शासक वर्ग भारतीयों के साथ रोजाना सामाजिक संबंधों के बिना आत्मनिर्भर जीवन जी सकता था।

सार्वजनिक भवनों के लिए मौटेतौर पर तीन स्थापत्य शैलियों का प्रयोग किया गया। दो शैलियाँ उस समय इंग्लैंड में प्रचलित चलन से आयातित थीं। इनमें से एक शैली को ‘नवशास्त्रीय’ या ‘नियोक्लासिकल शैली’ कहा जाता था। बड़े-बड़े स्तंभों के पीछे रेखागणितीय संरचनाओं का निर्माण इस शैली की विशेषता थी। यह शैली मूलरूप से प्राचीन रोम की भवन-निर्माण शैली से निकली थी जो यूरोपीय पुनर्जागरण के दौरान पुनर्जीवित, संशोधित और लोकप्रिय हुई थी। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के लिए उसे खासतौर से अनुकूल माना जाता था। अंग्रेजों को लगता था कि जिस शैली में शाही रोम की भव्यता दिखाई देती थी, उसे शाही भारत के वैभव की अभिव्यक्ति के लिए भी प्रयोग किया जा सकता है। इस स्थापत्य शैली के भूमध्यसागरीय उद्गम के कारण उसे उष्णकटिबंधीय मौसम के अनुकूल भी माना गया। 1833 ई. में बंबई का टाउनहॉल इसी शैली के अनुसार बनाया गया था।

लॉर्ड वेलेजली और सहायक संधि प्रणाली 

1860 के दशक में सूती कपड़ा उद्योग की तेजी के समय बनाई गई बहुत सारी व्यावसायिक इमारतों के समूह को ‘एलफिस्टन सर्कल’ कहा जाता था। बाद में इसका नाम बदलकर ‘हॉर्निमान सर्कल’ रख दिया गया था। यह नाम भारतीय राष्ट्रवादियों की हिमायत करने वाले एक अंग्रेज संपादक के नाम पर पड़ा था। यह इमारत इटली की इमारतों से प्रेरित थी। इसमें पहली मंजिल पर ढ़के हुए तोरणपथ का रचनात्मक ढंग से इस्तेमाल किया गया था। दुकानदारों व पैदल चलने वालों को तेज धूप और बरसात से बचाने के लिए यह सुधार काफी उपयोगी था।

एक और शैली, जिसका काफी प्रयोग किया गया, वह नव-गॉथिक शैली थी। ऊँची उठी हुई छतें, नोकदार मेहराबें और बारीक साज-सज्जा इस शैली की विशेषता होती है। गॉथिक शैली का जन्म इमारतों, विशेषकर गिरजों से हुआ था जो मध्यकाल में उत्तरी यूरोप में बनाये गये थे। नव-गॉथिक शैली को इंग्लैंड में उन्नीसवीं सदी के मध्य में पुनः अपनाया गया। यह वही समय था जब बंबई में सरकार बुनियादी ढाँचे का निर्माण कर रही थी। उसके लिए यही शैली चुनी गई। सचिवालय, बंबई विश्वविद्यालय और उच्च न्यायालय जैसी कई वैभवशाली इमारतें समुद्र किनारे इसी शैली में बनाई गईं। इनमें से कुछ इमारतों के लिए भारतीयों ने पैसा दिया था। यूनिवर्सिटी हॉल के लिए एक अमीर पारसी व्यापारी सर कोवासजी जहाँगीर रेडीमनी ने पैसा दिया था। यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी के घंटाघर का निर्माण प्रेमचंद रायचंद के पैसे से किया गया था और इसका नाम उनकी माँ के नाम पर ‘राजाबाई टावर’ रखा गया था।

भारतीय व्यापारियों को नव-गॉथिक शैली इसलिए पसंद आती थी क्योंकि उनका मानना था कि अंग्रेजों द्वारा लाये गये बहुत सारे विचारों की तरह उनकी भवन-निर्माण शैलियाँ भी प्रगतिशील हैं और इससे बंबई एक आधुनिक शहर बन सकेगा। नव-गॉथिक शैली का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण विक्टोरिया टर्मिनल्स है जो ग्रेट इंडियन पेनिन्स्युलर रेलवे कंपनी का स्टेशन और मुख्यालय था। अंग्रेजों ने शहरों में रेलवे स्टेशनों के डिजाइन और निर्माण में काफी निवेश किया था क्योंकि वे एक अखिल भारतीय रेलवे नेटवर्क के सफल निर्माण को अपनी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानते थे। मध्य बंबई के आसमान पर इन्हीं इमारतों का दबदबा था और उनकी नव-गॉथिक शैली शहर को एक विशिष्ट स्वरूप प्रदान करती थी।

वारेन हेस्टिंग्स के सुधार और नीतियाँ

बीसवीं सदी की शुरुआत में एक नई मिश्रित स्थापत्य शैली विकसित हुई जिसमें भारतीय और यूरोपीय, दोनों ही शैलियों के तत्त्व थे। इस शैली को ‘इंडो-सारासेनिक’ शैली नाम दिया गया था। ‘इंडो’ शब्द हिंदू का संक्षिप्त रूप था जबकि ‘सारासेन’ शब्द का प्रयोग यूरोप के लोग मुसलमानों को संबोधित करने के लिए करते थे। यहाँ की मध्यकालीन इमारतों, गुंबदों, छतरियों, जालियों, मेहराबों से यह शैली काफी प्रभावित थी। सार्वजनिक वास्तुशिल्प में भारतीय शैलियों का समावेश करके अंग्रेज यह प्रदर्शित करना चाहते थे कि वे यहाँ के स्वाभाविक शासक हैं।

राजा जॉर्ज पंचम और उनकी पत्नी मेरी के स्वागत के लिए 2 दिसंबर, 1911 ई. में गेटवे ऑफ इंडिया बनाया गया जो 4 दिसंबर, 1924 ई. को पूरा हुआ। यह परंपरागत गुजराती शैली का प्रसिद्ध उदाहरण है। उद्योगपति जमशेदजी टाटा ने इसी शैली में ताजमहल होटल बनवाया था। यह इमारत न केवल भारतीय उद्यमशीलता का प्रतीक थी बल्कि अंग्रेजों के स्वामित्व और नियंत्रण वाले नस्ली क्लबों और होटलों के लिए एक चुनौती भी थी।

बंबई के अधिकांश भारतीय क्षेत्रों में भवन-निर्माण और साज-सज्जा में परंपरागत शैलियों का ही बोलबाला था। शहर में जगह की कमी और भीड़-भाड़ की वजह से बंबई में खास तरह की इमारतें भी बनीं, जिन्हें ‘चॉल’ कहा गया। ये बहुमंजिला इमारतें होती थीं जिनमें एक-एक कमरेवाली आवासीय इकाइयाँ बनाई जाती थीं। इमारत के सारे कमरों के सामने एक खुला बरामदा या गलियारा होता था और बीच में दालान होता था। इस तरह की इमारतों में बहुत थोड़ी जगह में बहुत सारे परिवार रहते थे जिससे उनमें रहने वालों के बीच मोहल्ले की पहचान और एकजुटता का भाव पैदा हुआ।

स्थापत्य शैलियों से अपने समय के सौंदर्यात्मक आदर्शों और उनमें निहित विविधताओं का पता चलता है। किंतु इमारतें उन लोगों की सोच और दृष्टिकोण को भी बताती हैं जो उन्हें बना रहे थे। इमारतों के द्वारा सभी शासक अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहते हैं। एक विशेष समय की स्थापत्य शैली को देखकर यह आसानी से समझा जा सकता है कि उस समय सत्ता को किस तरह देखा जा रहा था और वह इमारतों और उनकी विशिष्टताओं-ईंट-पत्थर, खंभे और मेहराब, आसमान छूते गुंबद या उभरी हुई छतों के द्वारा किस प्रकार अभिव्यक्त होती थी। स्थापत्य शैलियों से केवल प्रचलित रुचियों का ही पता नहीं चलता। वे उनको बदलती भी हैं। वे नई शैलियों को लोकप्रियता प्रदान करती हैं और संस्कृति की रूपरेखा निश्चित करती हैं।

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यद्यपि बहुत सारे भारतीय भी यूरोपीय स्थापत्य शैलियों को आधुनिकता व सभ्यता का प्रतीक मानकर उन्हें अपनाने लगे थे, किंतु इस संबंध में सबकी राय एक जैसी नहीं थी। अनेक भारतीयों को यूरोपीय आदर्शों से आपत्ति थी और उन्होंने देशी शैलियों को बचाये रखने का प्रयास किया। बहुतों ने पश्चिम के कुछ ऐसे खास तत्त्वों को अपना लिया जो उन्हें आधुनिक दिखाई देते थे और उन्हें स्थानीय परंपराओं के तत्वों में समाहित कर दिया। उन्नीसवीं सदी के आखिर से औपनिवेषिक आदर्शों से भिन्न क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अभिरुचियों को परिभाषित करने का प्रयास दिखाई देता है। इस तरह सांस्कृतिक टकराव की वृहद् प्रक्रियाओं के जरिये विभिन्न शैलियाँ बदलती और विकसित होती गईं। इन स्थापत्य शैलियों को देखकर यह समझा जा सकता है कि शाही और राष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय और क्षेत्रीय के बीच सांस्कृतिक टकराव और राजनीतिक खींचतान किस तरह शक्ल ले रही थी।

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