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स्कंदगुप्त ‘क्रमादित्य’
कुमारगुप्त की मृत्यु के बाद गुप्त शासन की बागडोर उसके सुयोग्य पुत्र स्कंदगुप्त ने सँभाली। जूनागढ़ लेख में उसके शासन की प्रथम तिथि गुप्त संवत् 136 (455 ई.) उत्कीर्ण मिलती है। गढ़वा अभिलेख तथा रजत सिक्कों में उसकी अंतिम तिथि गुप्त संवत् 148 (467 ईस्वी) प्राप्त होती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि स्कंदगुप्त ने 455 से 467 ई. तक (लगभग बारह वर्ष) तक शासन किया। राजनीतिक घटनाओं की दृष्टि से स्कंदगुप्त का शासनकाल व्यापक उथल-पुथल का काल था।
ऐतिहासिक स्रोत
स्कंदगुप्त के राज्यकाल के अनेक अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिनसे उसके शासनकाल की घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है।
जूनागढ़ प्रशस्ति
स्कंदगुप्तकालीन अभिलेखों में सौराष्ट्र (गुजरात) से प्राप्त जूनागढ़ प्रशस्ति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें इसके शासनकाल की प्रथम तिथि गुप्त संवत् 136 (455 ई.) उत्कीर्ण है। प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि स्कंदगुप्त ने हूणों को पराजित कर सुराष्ट्र प्रांत में पर्णदत्त को अपना राज्यपाल (गोप्ता) नियुक्त किया था। उसके गिरनार नगर के पुरपति चक्रपालित (पर्णदत्त का पुत्र) ने सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण करवाया था। इसी प्रशस्ति से पता चलता है कि उस समय काल-गणना गुप्त संवत् में की जाती थी (गुप्तप्रकाले गणना विधाय)।
भितरी स्तंभलेख
यह लेख गाजीपुर जिले (उत्तर प्रदेश) की सैदपुर तहसील में भितरी नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। इसमें पुष्यमित्रों और हूणों के साथ स्कंदगुप्त के युद्ध का वर्णन मिलता है।
सुपिया स्तंभ-लेख
गुप्त संवत् 141 (460 ई.) का सुपिया अभिलेख रीवा जिले (मध्य प्रदेश) के सुपिया नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। इस लेख में गुप्तवंशावली घटोत्कच के समय से प्रारंभ होती है और गुप्तवंश को ‘घटोत्कचवंश’ कहा गया है।
कहौम (कहांव) स्तंभ-लेख
यह लेख देवरिया (उत्तर प्रदेश) के कहौम नामक स्थान से मिला है। इसमें गुप्त संवत् 141 (460 ई.) की तिथि अंकित है। इस लेख में स्कंदगुप्त को ‘शक्रोपन’ कहा गया है। लेख से ज्ञात होता है कि मद्र नामक किसी व्यक्ति ने पाँच जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का निर्माण करवाया था।
इंदौर ताम्र-लेख
बुलंदशहर (उ.प्र.) के इंदौर नामक स्थान से गुप्त संवत् 146 (465 ई.) का एक ताम्र-लेख प्रकाश में आया है जिसमें सूर्य की पूजा एवं सूर्यमंदिर में दीपक जलाये जाने हेतु धन दान किये जाने का वर्णन मिलता है।
बिहार स्तंभ-लेख
पटना (बिहार राज्य) के निकट बिहार नामक स्थान से एक तिथिविहीन लेख मिला है जिसमें स्कंदगुप्त के समय तक के गुप्त शासकों तथा कुछ पदाधिकारियों का नाम मिलता है।
गढ़वा शिलालेख
इलाहाबाद (उ.प्र.) के करछना में स्थित गढ़वा नामक स्थान से स्कंदगुप्त के शासनकाल का अंतिम अभिलेख मिला है जिसमें गुप्त संवत् 148 (467 ई.) अंकित है। इससे लगता है कि उसने कम से कम 467 ई. तक शासन किया था।
मुद्राएँ
स्कंदगुप्तकालीन कुछ स्वर्ण और रजत की मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं। उसकी स्वर्ण मुद्राओं के मुख भाग पर धनुष-बाण लिए राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर पद्मासन में बैठी लक्ष्मी के साथ ‘श्रीस्कंदगुप्त’ उत्कीर्ण है। कुछ मुद्राओं के ऊपर गरुड़ध्वज तथा उसकी उपाधि ‘क्रमादित्य’ मिलती है। रजत मुद्राएँ पहले जैसे ही हैं। मुख भाग पर वक्ष तक राजा का चित्र तथा पृष्ठ भाग पर गरुड़, नंदी अथवा वेदी का अंकन है।
चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’
उत्तराधिकार-युद्ध
कुमारगुप्त की पटरानी का नाम महादेवी अनंतदेवी था जिसका पुत्र पुरुगुप्त था। स्कंदगुप्त की माता संभवतः पटरानी या महादेवी नहीं थी। रमेशचंद्र मजूमदार का अनुमान है कि कुमारगुप्त की मृत्यु के बाद पुरुगुप्त गुप्तवंश का शासक हुआ। स्कंदगुप्त ने राजगद्दी के इस उत्तराधिकर युद्ध में पुरुगुप्त को पराजित कर गुप्त राजसत्ता पर अधिकार किया। स्कंदगुप्त के भितरी स्तंभ-लेख के एक श्लोक से भी पता चलता है कि गुप्तवंश की राजलक्ष्मी चंचल हो गई थीं जिसे स्कंदगुप्त ने अपने बाहुबल से प्रतिष्ठित किया। वे शत्रु का नाशकर अपनी माता देवकी के पास उसी प्रकार गये, जिस प्रकार शत्रुओं का नाश करके कृष्ण अपनी माता देवकी के पास गये थे-
पितरि दिवमुपेते विलुप्ता वंशलक्ष्मीं भुजबलविजितारिर्यः प्रतिष्ठाय भूयः।
जितमिव परितोषान् मातरं साश्रुनेत्रां, हतरिपुरिव कृष्णो देवकीमभ्युपेतः।।
जूनागढ़ लेख से पता चलता है कि सभी राजकुमारों का परित्याग कर लक्ष्मी ने स्वयं उसका वरण किया था (व्यपेत्य सर्वान् मनुजेंद्रपुत्रान् लक्ष्मी स्वयं यं वरयांचकार)। स्कंदगुप्त की लक्ष्मीप्रकार की स्वर्ण मुद्राओं पर भी इस दृश्य का अंकन मिलता है, जिसके मुख भाग पर दायें तरफ लक्ष्मी और बांयें तरफ राजा का चित्र है। लक्ष्मी राजा को कोई वस्तु प्रदान करती हुई चित्रित की गई हैं।
किंतु इन उल्लेखों से ऐसा नहीं लगता कि स्कंदगुप्त को किसी गृहयुद्ध का सामना करना पड़ा था। भितरी लेख से स्पष्ट है कि उसके पिता के शासनकाल में पुष्यमित्रों का विद्रोह इतना भयंकर रूप धारण कर चुका था कि गुप्तकाल की कुललक्ष्मी विचलित हो गई थी और उसे पुनःस्थापित करने के लिए स्कंदगुप्त को कई रातें जमीन पर सोकर बितानी पड़ी थी। जिस प्रकार कृष्ण शत्रुओं को परास्त कर अपनी माता देवकी के पास गये थे, उसी प्रकार स्कंदगुप्त भी शत्रुवर्ग को नष्ट कर अपनी माता के पास गया और उसकी माता की आँखों में आँसू छलक आये थे। राज्यश्री ने स्वयं ही स्कंदगुप्त को स्थायी रूप में वरण किया था। इस प्रकार पुष्यमित्रों को पराजित करके स्कंदगुप्त ने अपनी अपूर्व प्रतिभा और वीरता का परिचय दिया था।
संभवतः बड़ा पुत्र होने के कारण राजगद्दी पर अधिकार तो पुरुगुप्त का था, किंतु शक्ति और वीरता के कारण राज्यश्री स्वयं स्कंदगुप्त के पास आई थीं। आर्यमंजुश्रीमूलकल्प से भी पता चलता है कि कुमारगुप्त के बाद स्कंदगुप्त गुप्त साम्राज्य की गद्दी पर बैठा था-
समुद्राख्य नृपतिश्चैव, विक्रमाश्चैव कीर्तितः।
महेंद्रनृपवरौ मुख्यः, सकाराद्यं अतःपुरम्।
स्पष्ट है कि यहाँ समुद्र, विक्रम, महेंद्र तथा सकाराद्य क्रमशः समुद्रगुप्त, चंद्र्रगुप्त विक्रमादित्य, कुमारगुप्त तथा स्कंदगुप्त के लिए ही प्रयुक्त किया गया है।
स्कंदगुप्त की उपलब्धियाँ
हूणों की पराजय
स्कंदगुप्त के शासनकाल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना बर्बर हूणों की पराजय थी। हूण मध्य एशिया में निवास करने वाली एक खानाबदोश बर्बर जाति थी। उन्हीं के आक्रमणों के कारण यू-ची लोग अपना प्राचीन निवास स्थान छोड़कर शकस्थान की ओर बढ़ने को बाध्य हुए थे। यूचियों द्वारा खदेड़े जाने पर शक लोग ईरान और भारत की तरफ आ गये थे। हूणों के आक्रमणों का ही परिणाम था कि शक और यू-ची लोग भारत में प्रविष्ट हुए थे। कालांतर में हूणों की दो शाखाएँ हो गईं- पश्चिमी शाखा और पूर्वी शाखा। पश्चिमी शाखा के हूणों ने सुदूर पश्चिम में आक्रमण कर रोमन-साम्राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया। हूण राजा एट्टिला के अत्याचार और बर्बरता के कारण समस्त पाश्चात्य विश्व में त्राहि-त्राहि मच गई थी। पूर्वी शाखा के श्वेत हूणों ने हिंदुकुश पर्वत को पार करके पहले गांधार पर कब्जा किया और फिर गुप्त साम्राज्य को चुनौती देने लगे।
हूणों का प्रथम आक्रमण स्कंदगुप्त के समय में हुआ जिसका नेता संभवतः खुशनेवाज था। हूण आक्रमण का सफल प्रतिरोध कर गुप्त-साम्राज्य की रक्षा करना स्कंदगुप्त के राज्यकाल की सबसे बड़ी घटना है।
भितरी स्तंभ-लेख के अनुसार स्कंदगुप्त की हूणों से इतनी भयंकर मुठभेड़ हुई कि संपूर्ण पृथ्वी काँप उठी (हूणैर्यस्य समागतस्य समरे दोर्भ्यां धरा कम्पिता। भीमावर्त्त करस्य)। किंतु अंत में स्कंदगुप्त की विजय हुई और उसकी इस विजय के कारण उसकी अमल शुभ-कीर्ति कुमारी अंतरीप तक सारे भारत में गाई जाने लगी। बौद्ध ग्रंथ ‘चंद्रगर्भ-परिपृच्छा‘ के अनुसार हूणों के साथ हुए इस युद्ध में गुप्त सेना में सैनिकों की संख्या दो लाख थी और हूणों की सेना तीन लाख थी। तब भी विकट और बर्बर हूणों के मुकाबले में गुप्त सेना की विजय हुई। चंद्रगोमिन् के व्याकरण में भी एक सूत्र मिलता है कि गुप्तों ने हूणों को पराजित किया (अजयत् जर्तो हूणान्) जो स्कंदगुप्त के हूण विजय की ओर संकेत करता है।
सोमदेव के ‘कथासरित्सागर’ से भी पता चलता है कि उज्जयिनी के राजा महेंद्रादित्य के पुत्र विक्रमादित्य ने म्लेच्छों को पराजित किया था-
उज्जयिन्यां सुतः शूरो महेन्द्रादित्यभूपतेः।
प्रवीरं भूतले यस्तान्म्लेच्छानुत्सादयिष्यति।।
इस प्रकार स्पष्ट है कि स्कंदगुप्त के समय में हूण बुरी तरह पराजित हुए और गांधार से आगे नहीं बढ़ सके। गुप्त साम्राज्य का वैभव स्कंदगुप्त के शासनकाल में प्रायः अक्षुण्ण रहा।
युद्ध-स्थल
स्कंदगुप्त का हूणों से युद्ध किस स्थान पर हुआ था, स्पष्ट नहीं है। भितरी लेख में उल्लिखित ‘श्रोत्रेषु गांगध्वनिः’ के आधार पर वी.पी. सिन्हा का अनुमान है कि यह युद्ध गंगाघाटी में कहीं लड़ा गया था, किंतु यह शब्द युद्धस्थल का सूचक नहीं माना जा सकता है। अत्रेयी विश्वास के अनुसार स्कंदगुप्त और हूणों के मध्य युद्ध गुप्त साम्राज्य की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर हुआ होगा।
उपेंद्र ठाकुर का विचार है कि हूण युद्ध या तो सतलज नदी के तट पर या पश्चिमी भारत के मैदानों में लड़ा गया था। जूनागढ़ लेख से पता चलता है कि स्कंदगुप्त पश्चिमी प्रदेश की सीमा को लेकर चिंतित था और गहन विचार-विमर्श के बाद ही योग्य पर्णदत्त को इस प्रदेश का रक्षक नियुक्त किया था।
इस प्रकार पश्चिमी भारत के किसी भाग को ही युद्ध-स्थल मानना अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है। युद्ध कहीं भी हुआ रहा हो, इतना निश्चित है कि स्कंदगुप्त ने हूणों को पराजित कर गुप्त साम्राज्य को एक भीषण संकट से बचा लिया। इस वीर-कृत्य के कारण वह समुद्रगुप्त एवं चंद्रगुप्त द्वितीय की भाँति ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण करने का अधिकारी हो गया। स्कंदगुप्त ने हूणों को 460 ई. के पूर्व पराजित किया होगा क्योंकि इस तिथि के कहौम लेख से ज्ञात होता है कि उसके राज्य में शांति थी। बाद के इंदौर और गढ़वा लेखों से भी उसके साम्राज्य में शांति और समृद्धि की सूचना मिलती है। इस प्रकार हूण आक्रमण उसके शासन के प्रारंभिक वर्षों में हुआ रहा होगा।
हूणों के आक्रमण के कारण स्कंदगुप्त को भारी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा, जो उसके सिक्कों से स्पष्ट होता है। उसकी स्वर्ण मुद्राओं की संख्या कम है और उनमें मिलावट की मात्रा भी अधिक है।
वाकाटकों से साम्राज्य की रक्षा
मंदसौर शिलालेख से ज्ञात होता है कि स्कंदगुप्त की प्रारंभिक कठिनाइयों का लाभ उठाते हुए वाकाटक शासक नरेंद्रसेन ने मालवा पर अधिकार कर लिया। वाकाटक नरेश नरेंद्रसेन को बालाघाट लेख में कोशल, मेकल तथा मालवा का शासक बताया गया है (कोशल मेकल मालवाधिपतिः अभ्यर्चितशासनः)। किंतु स्कंदगुप्त ने वाकाटक शासक को पराजित कर इस प्रदेश पर अपना अधिकार सुदृढ़ कर लिया।
नागवंश का विनाश
जूनागढ़ अभिलेख में कहा गया है कि स्कंदगुप्त की गरुड़ध्वजांकित राजाज्ञा नागरूपी उन राजाओं का मर्दन करनेवाली थी जो मान और दर्प से अपने फन उठाए रहते थे-
नरपति भुजंगानां मानदर्पोत्फणानाम्।
प्रतिकृति गरुड़ाज्ञां निर्विर्षी चावकर्त्ता।।
इस आधार पर फ्लीट जैसे इतिहासकारों का अनुमान है कि स्कंदगुप्त ने नागवंशी राजाओं को पराजित किया था। किंतु इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ कहना असंभव है।
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विद्रोहों का दमन
कुछ इतिहासकारों का विचार है कि गोविंदगुप्त स्कंदगुप्त का छोटा चाचा था, जो मालवा के गवर्नर पद पर नियुक्त था। उसने स्कंदगुप्त के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था और स्कंदगुप्त ने इस विद्रोह का सफलतापूर्वक दमन किया था।
स्कंदगुप्त का साम्राज्य विस्तार एवं शासन-प्रबंध
यद्यपि स्कंदगुप्त ने किसी नये प्रदेश को जीतकर गुप्त साम्राज्य का विस्तार नहीं किया, किंतु अभिलेखों एवं सिक्कों के व्यापक प्रसार से लगता है कि उसके शासनकाल तक गुप्त साम्राज्य पूर्णतया अक्षुण्ण बना रहा। वस्तुतः उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूरब में बंगाल से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक के विस्तृत भूभाग पर शासन करने वाला यह अंतिम ‘आसमुद्राक्षितीश’ गुप्त सम्राट था।
स्कंदगुप्त महान् विजेता होने के साथ-साथ कुशल प्रशासक भी था। अभिलेखों से पता पलता है कि उसका विशाल साम्राज्य प्रांतों में विभाजित था।
प्रांत को देश, अवनी अथवा विषय कहा जाता था। प्रांतीय शासकों को ‘गोप्ता’ कहा जाता था। सुराष्ट्र प्रांत का गोप्ता पर्णदत्त था जिसकी नियुक्ति बहुत सोच-विचार कर की गई थी। अंतर्वेदी (गंगा-यमुना का दोआब) का शासक सर्वनाग था। भीमवर्मन् कोशांबी का राज्यपाल था जिसका उल्लेख वहाँ से प्राप्त एक प्रस्तर-मूर्ति में मिलता है। प्रमुख नगरों में नगर प्रमुख नियुक्त किये जाते थे। गिरनार का नगर प्रशासक पर्णदत्त का पुत्र चक्रपालित था।
मुद्राएँ
स्कंदगुप्त के समय के सोने की मुद्राएँ कम पाई गई हैं। जो सुवर्ण मुद्राएँ मिली हैं, उनमें भी आरंभिक गुप्त मुद्राओं की अपेक्षा सोने की मात्रा कम है। इससे लगता है कि हूणों के साथ युद्धों के कारण गुप्त साम्राज्य की अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई थी।
धर्म और धार्मिक नीति
स्कंदगुप्त धर्मनिष्ठ वैष्णव था और उसकी उपाधि ‘परमभागवत’ थी। उसने भितरी में भगवान् विष्णु की प्रतिमा स्थापित करवाई थी। पर्णदत्त के पुत्र तथा गिरनार के नगरप्रमुख चक्रपालित ने सुदर्शन झील के तट पर विष्णु भगवान के एक मंदिर का निर्माण करवाया था। स्कंदगुप्त की उदार धार्मिक नीति के कारण अन्य अनेक धर्म भी स्वाभाविक रूप से विकसित हो रहे थे। इंदौर लेख में सूर्यपूजा का उल्लेख मिलता है। कहौम लेख से पता चलता है कि मद्र नामक व्यक्ति ने पाँच जैन तीर्थंकरों की पाषाण-प्रतिमाओं का निर्माण करवाया था, जो उस क्षेत्र में जैन परंपरा की लोकप्रियता का प्रमाण है।
लोकोपकारिता के कार्य
स्कंदगुप्त उदार, दयालु और प्रजावत्सल सम्राट था। उसके शासनकाल में प्रजा पूर्णरूपेण सुखी और समृद्ध थी। इस लोकोपकारी शासक को अपनी प्रजा के सुख-दुःख की चिंता निरंतर बनी रहती थी। जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि उसके शासनकाल में भारी वर्षा के कारण सुदर्शन झील का बाँध टूट गया था, जिससे प्रजा को बड़ा कष्ट हो रहा था। स्कंदगुप्त के आदेश से सौराष्ट्र (काठियावाड़) के प्रांतीय शासक पर्णदत्त ने दो माह में अतुल धन व्यय करके पत्थरों की जड़ाई द्वारा उस झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवा दिया।
प्रसंगतः, सुदर्शन झील का निर्माण सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में सुराष्ट्र के प्रांतपति वैश्य पुष्यगुप्त ने पेयजल और सिंचाई की सुविधा के लिए करवाया था। बाद में अशोक के समय में प्रांतीय शासक यवन तुषास्प ने इस झील पर एक बाँध का निर्माण करवा दिया था। यह बांध पहली बार शक-महाक्षत्रप रुद्रदामन् (130-150 ई.) के समय में टूट गया था जिसका पुनर्निर्माण उसने अत्यधिक धन व्यय करके अपने राज्यपाल सुविशाख द्वारा करवाया था।
सविनय अवज्ञा आंदोलन और गांधीजी
स्कंदगुप्त महान् विजेता और कुशल प्रशासक था जिसने अपनी वीरता और पराक्रम के बल पर अपने वंश की विचलित राजलक्ष्मी को पुनःप्रतिष्ठित किया। उसकी योग्यता और बुद्धिमत्ता के कारण ही सभी राजकुमारों को छोड़कर लक्ष्मी ने स्वयं उसका वरण किया था (व्यपेत्य सर्वान् मनुजेंद्रपुत्रान् लक्ष्मी स्वयं यं वरयांचकार)। युवराजकाल में ही उसने पुष्यमित्र जैसी भयंकर जाति को पराजित किया और सम्राट बनने पर बर्बर हूणों का मान-मर्दन कर भारत-भूमि की रक्षा की। गुप्तवंश के इस अद्वितीय वीर (गुप्तवंशैक वीरः) की अमल कीर्ति का गान बालक से लेकर प्रौढ़ तक प्रसन्नतापूर्वक सभी दिशाओं में करते थे (चरितयममलकीत्तैः गीयते यस्य शुभ्रं दिशि-दिशि परितुष्टैराकुमारैः मनुष्यैः)। बौद्ध ग्रंथ आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में भी स्कंदगुप्त को श्रेष्ठ, बुद्धिमान् तथा धर्मवत्सल सम्राट कहा गया है।
जूनागढ़ लेख में कहा गया है कि जिस समय वह शासन कर रहा था, उसकी प्रजा में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो धर्मच्युत् हो, दुःखी हो, दरिद्र हो, आपत्तिग्रस्त हो, लोभी हो या दंडनीय होने के कारण अत्यंत सताया गया हो-
तस्मिन्नृपे शासति नैव कश्चिद्, धर्मादपेतो मनुजः प्रजासु।
आत्तो दरिद्रो व्यसनी कदर्य्यो दंड्यौ न वा यो भृशपीड़ितः स्यात्।।
गुप्तवंश के महान् शासकों की शृंखला में स्कंदगुप्त अंतिम था। 467 ई. में उसकी मृत्यु के बाद गुप्त साम्राज्य में विघटन और विभाजन की विविध प्रवृत्तियाँ क्रियाशील हो गईं। धीरे-धीरे गुप्तवंश के ध्वंसावशेषों पर अनेक नये राज्य अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने लगे और अंततः 550 ई. में गुप्त साम्राज्य का पतन हो गया।
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