प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918)
प्रथम विश्वयुद्ध, जो मुख्य रूप से यूरोप में केंद्रित था लेकिन वैश्विक स्तर पर फैला एक महायुद्ध था, 28 जुलाई 1914 से शुरू होकर 11 नवंबर 1918 तक चला। इसकी कुल अवधि लगभग चार वर्ष, तीन महीने और चौदह दिन की थी, जिसमें लगभग 70 मिलियन सैनिकों ने भाग लिया। इसे ‘सभी युद्धों को समाप्त करने वाला युद्ध’ या ‘महायुद्ध’ के रूप में जाना जाता था, क्योंकि समकालीन लोगों को विष्वास था कि यह युद्ध मानव इतिहास के सभी संघर्षों का अंत कर देगा और भविष्य में ऐसी तबाही को रोक देगा। इससे पूर्व के युद्ध, जैसे नेपोलियन युद्ध (1803-1815) या क्रीमिया युद्ध (1853-1856) मुख्यतः क्षेत्रीय स्तर पर लड़े गए थे या दो-तीन देशों तक सीमित रहते थे, जैसे फ्रांस-प्रशा युद्ध (1870-71)। प्रथम विश्वयुद्ध पहला ऐसा युद्ध था, जिसमें विश्व के लगभग सभी प्रमुख देश उलझे हुए थे। विभिन्न देश किसी न किसी पक्ष का समर्थन कर रहे थे, जिससे यह एक वैश्विक संघर्ष बन गया। मित्र राष्ट्रों में ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, इटली (1915 से), संयुक्त राज्य अमेरिका (1917 से), जापान, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, भारत (ब्रिटिश उपनिवेश) और अन्य देश शामिल थे, जबकि केंद्रीय शक्तियों में जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, उस्मानी साम्राज्य (तुर्की), बुल्गारिया और कुछ छोटे सहयोगी प्रमुख थे। इस युद्ध में पहली बार विभिन्न नस्लों-गोरी (यूरोपीय), पीली (एशियाई, जैसे जापानी, चीनी और भारतीय सैनिक), काली (अफ्रीकी औपनिवेशिक सैनिक, जैसे सेनेगली और दक्षिण अफ्रीकी) तथा भूरी (मध्य पूर्वी, जैसे अरब और तुर्की) के लोग एक-दूसरे के विरुद्ध हथियार उठाने को मजबूर हुए, जो औपनिवेशिक सेनाओं के व्यापक उपयोग के कारण संभव हुआ। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि युद्ध की लपटें पूरब से पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिम तक और भूमि से लेकर जल और आकाश तक फैल गईं। इस युद्ध में बड़े पैमाने पर नरसंहार और आतंक फैलाने वाले नए युद्ध तरीकों का आविष्कार और उपयोग हुआ, जैसे रासायनिक हथियार, टैंक, विमान, पनडुब्बियाँ और मशीन गन। परंपरागत प्रत्यक्ष आक्रमण-प्रत्याक्रमण की युद्ध-प्रणाली का स्थान नई सैन्य प्रौद्योगिकी और खंदक युद्ध ने ले लिया, जिसमें में लाखों सैनिक वर्षों तक कीचड़, चूहों, रोगों और निरंतर गोलाबारी से भरे खंदकों में फँसे रहे, जहाँ सैनिकों को कभी-कभी महीनों तक एक ही स्थान पर रहना पड़ता था। इस युद्ध में लगभग 16 मिलियन सैनिक और असैनिक मारे गए, जिसमें 9 से 11 मिलियन सैनिक और 6 से 13 मिलियन असैनिक शामिल थे। इसके अतिरिक्त, लगभग 21 मिलियन लोग घायल हुए और 7 मिलियन स्थायी रूप से विकलांग हो गए। आर्थिक क्षति भी अपार थी- दोनों पक्षों ने लगभग एक खरब छियासी अरब डॉलर (1.86 ट्रिलियन डॉलर) खर्च किए और संपत्ति का विनाश एक खरब डॉलर से अधिक था, जिसमें फ्रांस की 25 प्रतिशत भूमि और बेल्जियम की 50 प्रतिशत अर्थव्यवस्था नष्ट हो गई। यह युद्ध न केवल मानवीय हानि का प्रतीक था, बल्कि आधुनिक युद्ध की क्रूरता और प्रौद्योगिकी का भी उदाहरण था।
प्रथम विश्वयुद्ध के कारण
विश्वयुद्ध की आशंका 19वीं सदी के अंत से ही मंडरा रही थी। जर्मन चांसलर ओटो वॉन बिस्मार्क ने 1898 ई. में बर्लिन में इसकी भविष्यवाणी की थी: “मैं विश्वयुद्ध नहीं देखूँगा, पर तुम देखोगे और यह पश्चिमी एशिया में प्रारंभ होगा।” यद्यपि बिस्मार्क ने 1878 ई. की बर्लिन कांग्रेस में ऑस्ट्रिया का पक्ष लेकर रूस के साथ विष्वासघात किया था, फिर भी जब तक वह सत्ता में रहा, उसने फ्रांस और रूस के बीच मित्रता नहीं होने दिया। बिस्मार्क के बाद जर्मनी में कोई ऐसा दूरदर्षी राजनीतिज्ञ नहीं हुआ, जो बिगड़ती परिस्थितियों को सुधार पाता। विश्वयुद्ध वास्तव में 1909 ई. में ही शुरू हो सकता था, यदि बोस्निया और हर्जेगोविना के प्रश्न पर रूस ने ऑस्ट्रिया का सामना करने का निर्णय लिया होता। लेकिन उस समय 1904-05 के रूस-जापान युद्ध में हार के बाद रूस की स्थिति अच्छी नहीं थी, इसलिए युद्ध टल गया। प्रथम विश्वयुद्ध के प्रारंभ होने के कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-
साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाएँ
प्रथम विश्वयुद्ध के कारण बहुत स्पष्ट थे- पहले व्यापार और बाद में औद्योगिक क्रांति के कारण यूरोपीय देशों की साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। जर्मनी में जब तक बिस्मार्क सत्ता में रहा, उसने इंग्लैंड से इस संबंध में प्रतिस्पर्धा करने का कोई प्रयत्न नहीं किया, किंतु बिस्मार्क के बाद जर्मनी ने भी अपने उपनिवेश स्थापित करने के प्रयास किए। 19वीं सदी का अंत होते-होते नए उपनिवेशों की संभावना समाप्त हो गई थी, जिसके कारण साम्राज्यवादी देशों में आपस में उपनिवेशों की छीना-झपटी शुरू हो गई और युद्ध अपरिहार्य दिखने लगा।
इसके अलावा, कुछ परंपरागत साम्राज्यवादी इच्छाएँ भी थीं, जैसे फ्रांस मोरक्को पर अधिकार करना चाहता था, रूस ईरान, कांस्टेंटिनोपल सहित उस्मानी साम्राज्य के अन्य क्षेत्रों पर अधिकार करना चाहता था। इससे जर्मनी के साथ उसके हितों का टकराव हुआ और ब्रिटेन को भी अपने एशियाई उपनिवेशों के लिए खतरा महसूस हुआ। ऑस्ट्रिया भी इस मामले में रुचि ले रहा था। इन सबका सम्मिलित प्रभाव यह हुआ कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में एक जबर्दस्त प्रतियोगिता आरंभ हो गई, जिससे ब्रिटेन सबसे अधिक चिंतित हो गया। जब जर्मनी ने उस्मानी साम्राज्य की अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण करना चाहा और इसके लिए उसने बर्लिन से बगदाद तक रेल-लाइन बिछाने की योजना बनाई, तो जर्मनी की इस योजना से ब्रिटेन, फ्रांस और रूस आतंकित हो गए।
राजनीतिक संधियाँ और गुटबंदी
प्रथम विश्वयुद्ध का एक प्रमुख कारण राजनीतिक संधियाँ और गुटबंदी था। 19वीं सदी के अंत से ही यूरोप दो सैनिक दलों में विभक्त होने लगा था। सबसे पहले 1879 ई. में जर्मनी ने ऑस्ट्रिया-हंगरी के साथ द्वि-राष्ट्र संधि की और शीघ्र ही 1882 ई. में इटली भी इसमें शामिल हो गया और एक ‘त्रिराष्ट्र संघ’ की स्थापना हुई। इस समय जर्मनी में बिस्मार्क अपने शक्ति के शिखर पर था और उसकी वैदेशिक नीति का एक प्रमुख उद्देश्य फ्रांस को अलग-थलग रखना था। लेकिन 1890 ई. में बिस्मार्क के पतन के बाद 1894 ई. में फ्रांस और रूस में संधि हो गई। इंग्लैंड अभी तक शानदार पृथक्ता की नीति पर चल रहा था, किंतु इस समय उसे यह सोचने पर विवश होना पड़ा कि यूरोप की शक्तियों में केवल वही एक ऐसा देश है जो अकेला है और ऐसी स्थिति में यदि किसी देश से युद्ध छिड़ गया तो स्थिति शोचनीय हो जाएगी। इसलिए इंग्लैंड ने भी अपनी पृथक्तावादी नीति का परित्याग करते हुए 1902 ई. में जापान के साथ संधि कर लिया। इसके बाद 1904 ई. में इंग्लैंड और फ्रांस में भी संधि हो गई। इसी प्रकार त्रिराष्ट्र संघ के विरोध में 1907 ई. में फ्रांस, रूस और ब्रिटेन ने एक ‘हार्दिक त्रिदेशीय मैत्री संघ’ बना लिया और इस प्रकार पूरा यूरोप दो सैनिक गुटों में बँट गया। एक ओर त्रिराष्ट्र संघ में जर्मनी, ऑस्ट्रिया और इटली थे, तो दूसरी ओर हार्दिक मैत्री संघ में फ्रांस, इंग्लैंड और रूस थे। विश्वयुद्ध शुरू होने के बाद इटली ने मित्र राष्ट्रों की विजय सुनिश्चित देखकर अपना पाला बदल लिया और मित्र देशों के प्रलोभन पर 1915 ई. में त्रिगुट के विरुद्ध महायुद्ध में शामिल हो गया। इस तरह की गुटबंदी से स्पष्ट हो गया था कि अब छोटा-सा विवाद भी विश्वयुद्ध का रूप ले सकता है।
सैन्यवाद का प्रसार
20वीं सदी के आरंभ से ही यूरोपीय देशों में हथियारों की होड़ आरंभ हो गई थी। यूरोप के बाहर औपनिवेशिक एवं व्यापारिक वर्चस्व बनाए रखने और यूरोप के अंदर जातीय ध्रुवीकरण, पारंपरिक शत्रुता आदि के कारण यूरोपीय देशों में हथियारों की होड़ शुरू हो गई और सैनिक गतिविधियाँ तेज हो गई थीं। बड़े पैमाने पर सैनिकों की भर्ती, घातक हथियारों का बड़े पैमाने पर निर्माण और युद्धों को महिमामंडित करने वाले बौद्धिक प्रयासों ने पूरे यूरोप में जैसे युद्ध की मानसिकता ही बना दी थी। ट्रॉट्स्की ने अपनी रचना ‘पॉलिटिक्स’ में ‘शक्ति ही अधिकार है’ के सिद्धांत की सराहना की। फ्रांस में भी दार्शनिकों ने इसी प्रकार की सैन्यवादी भावना को प्रोत्साहित किया। इस प्रकार सैनिकवाद की उग्र भावना यूरोपीय राष्ट्रों को निरंतर युद्ध की ओर ढकेल रही थी।
इसके अलावा, विभिन्न देशों के प्रकाशित होने वाले समाचारपत्रों ने भी युद्ध को आरंभ होने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे जनता की भावनाएँ भड़कती गई और स्थिति पर नियंत्रण करना असंभव हो गया। इस प्रकार युद्ध का एक कारण सभी बड़े देशों में समाचारपत्रों के द्वारा जनता की विचारधारा को दूषित करना भी था।
राष्ट्रवाद की भावना, उपनिवेश और व्यापार को लेकर यूरोपीय देशों में टकराव तो था ही, कुछ आंतरिक घटक भी बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए। यूरोप में विभिन्न देशों में उग्र राष्ट्रवादी भावनाओं के प्रसार ने न केवल विश्वयुद्ध को शुरू कराने में, बल्कि विश्वयुद्ध के विस्तार में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। रूस ने स्लाव जाति पर आधारित एक ध्रुवीकरण आंदोलन चलाया, जिसमें उस्मानी साम्राज्य के अनेक बाल्कन देशों के रूस में विलय की योजना थी और इसका नेतृत्व सर्बिया को सौंपा गया था। स्लाव जाति के लोग ऑस्ट्रिया-हंगरी में भी रहते थे, इसलिए उसे अधिक खतरा महसूस हुआ। अन्य यूरोपीय शक्तियाँ भी रूस के सर्वस्लाव आंदोलन से चिंतित थीं। रूस के सर्वस्लाव आंदोलन की तरह जर्मनी में भी ‘सर्वजर्मन’ आंदोलन चल रहा था, जिसका उद्देश्य यूरोप के विभिन्न राज्यों में रह रहे जर्मनों को एक महान जर्मनी के अंतर्गत एकजुट करना था। राष्ट्रीयता की इस उग्र भावना के परिणामस्वरूप पूरे यूरोप में राजनीतिक अराजकता उत्पन्न हो गई थी।
प्रादेशिक समस्याएँ
अल्सास और लोरेन प्रांत के कारण फ्रांस और जर्मनी में दीर्घकाल से शत्रुता चली आ रही थी। फ्रांस 1870-71 ई. में जर्मनी के हाथों हुई अपनी पराजय का बदला लेना चाहता था और साथ ही अपने खोए प्रदेशों- अल्सास और लोरेन को भी वापस पाना चाहता था। फ्रांस में अल्सास और लोरेन को लुई चौदहवें की विजय का प्रतीक माना जाता था। इसके अलावा, लोरेन में लोहे की खानों के कारण उसका आर्थिक और औद्योगिक महत्त्व भी था। अल्सास और लोरेन की तरह बोस्निया और हर्जेगोविना की समस्या भी थी। 1878 ई. में बर्लिन की संधि के द्वारा इन दोनों प्रांतों को प्रशासन के लिए ऑस्ट्रिया के अधिकार में दिया गया था, लेकिन ऑस्ट्रिया इन्हें अपने राज्य में नहीं मिला सकता था। किंतु ऑस्ट्रिया ने 1908 ई. में बर्लिन संधि की अवहेलना करते हुए दोनों प्रदेशों को अपने राज्य में मिला लिया। चूंकि बोस्निया और हर्जेगोविना में मुख्यतः स्लाव जाति रहती थी, इसलिए सर्बिया ने ऑस्ट्रिया के इस कार्य का विरोध किया। रूस अभी युद्ध के लिए तैयार नहीं था, नहीं तो विश्वयुद्ध इसी समय आरंभ हो जाता।
विलियम कैसर द्वितीय की महत्त्वाकांक्षा
जर्मनी के शासक कैसर विलियम द्वितीय को प्रथम विश्वयुद्ध का जन्मदाता माना जाता है। जब तक जर्मनी में बिस्मार्क सत्ता में रहा, उसने सदैव फ्रांस को पृथक रखने और इंग्लैंड से प्रतिस्पर्धा न करने की नीति का पालन किया। कैसर विलियम अति महत्त्वाकांक्षी था, जो सैनिक शक्ति के बल पर विश्व-विजेता बनना चाहता था। उसकी थल सेना अत्यंत शक्तिशाली थी, लेकिन इससे वह संतुष्ट नहीं था। वह अपनी जल सेना को भी थल सेना की तरह शक्तिशाली बनाना चाहता था। विलियम की इस नीति से इंग्लैंड का चिंतित होना स्वाभाविक था। विलियम का कहना था: ‘हमारा भविष्य समुद्र पर निर्भर है… मैं उस समय तक चैन नहीं लूँगा, जब तक कि मेरी जल सेना थल सेना के समान शक्तिशाली नहीं हो जाती है।’ एक अन्य स्थान पर उसने कहा: ‘हमको अधिक से अधिक नौसेना, थल सेना तथा बारूद की आवश्यकता है।’ इतना ही नहीं, उसने मित्र राष्ट्रों को धमकाते हुए कहा था: ‘यदि वे युद्ध चाहते हैं तो युद्ध प्रारंभ कर सकते हैं, हम युद्ध से डरते नहीं।’ विलियम के इस प्रकार के भाषणों से यूरोप का वातावरण तनावपूर्ण हो गया था। विलियम की इतनी उग्र और महत्त्वाकांक्षी नीति से उसका इंग्लैंड से युद्ध होना स्वाभाविक था। इंग्लैंड प्रारंभ में जर्मनी से मित्रता करने का इच्छुक था, किंतु कैसर विलियम द्वितीय ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए कहा कि बर्लिन का रास्ता ऑस्ट्रिया होकर आता है। विलियम ने पूरब की ओर विस्तार करना भी आरंभ कर दिया और जब उसने बर्लिन-बगदाद रेलवे लाइन बनाने का प्रस्ताव किया तो इंग्लैंड ने जर्मनी का विरोध किया। इस प्रकार कैसर विलियम की नीतियों के कारण प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ हो गया।
यूरोप के बाहर और यूरोप के अंदर भी कई ऐसे अवसर आए जब 1914 ई. से पहले ही विश्वयुद्ध की संभावना नजर आई। सबसे पहले फ्रांस और इंग्लैंड के बीच मोरक्को के संकट को लेकर टकराव हुआ, किंतु 1904 ई. में एक संधि हो गई जिसके तहत मोरक्को में फ्रांस की सत्ता ब्रिटेन ने मान ली और बदले में फ्रांस ने ब्रिटेन को छूट दे दी। इसके विरोध में जब जर्मनी ने मोरक्को में हस्तक्षेप किया, तो 1911 ई. में फ्रांस ने उसे फ्रेंच कार्गाे का एक बड़ा भाग देकर संतुष्ट कर दिया। 1908 ई. में ही ऑस्ट्रिया ने बोस्निया और हर्जेगोविना को हड़प लिया, जिस पर सर्बिया की नजर थी। रूस ने सर्बिया के समर्थन में युद्ध की घोषणा कर दी, किंतु जर्मनी द्वारा ऑस्ट्रिया का समर्थन कर देने के कारण रूस आगे नहीं आया। इससे यूरोप में स्थिति तनावपूर्ण हो गई। बाल्कन प्रायद्वीप के उस्मानी साम्राज्य से नवमुक्त देशों पर नियंत्रण के प्रयासों ने यूरोपीय देशों के बीच तनाव को और बढ़ा दिया।
प्रथम विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण
साराजेवो हत्याकांड
प्रथम विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण साराजेवो हत्याकांड था। 28 जून 1914 को ऑस्ट्रिया-हंगरी के उत्तराधिकारी आर्चड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड और उनकी पत्नी सोफी की बोस्निया की राजधानी साराजेवो में सर्बियाई राष्ट्रवादी गैवरिलो प्रिंसिप ने गोली मारकर हत्या कर दी। गैवरिलो प्रिंसिप ‘यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ स्लाव्स’ का सदस्य था, जो ‘ब्लैक हैंड’ संगठन से संबद्ध था। यह संगठन सर्व-स्लाव आंदोलन का हिस्सा था, जो ऑस्ट्रिया के बोस्निया-हर्जेगोविना पर नियंत्रण का विरोध करता था। ऑस्ट्रिया ने 1908 में इन क्षेत्रों को हड़प लिया था, जबकि सर्बिया इन्हें अपना हिस्सा मानता था। ऑस्ट्रिया ने इस हत्याकांड को सर्बिया का षड्यंत्र बताया और सर्बिया की सरकार को इसके लिए उत्तरदायी ठहराया।

23 जुलाई 1914 को ऑस्ट्रिया ने सर्बिया को कठोर शर्तों वाला एक पत्र भेजा, जिसमें सर्बिया से आतंकवादियों पर कार्रवाई और ऑस्ट्रियाई अधिकारियों को जाँच की अनुमति माँगी गई थी। साथ ही, सर्बिया को इसे स्वीकार करने के लिए 48 घंटे का अल्टीमेटम दिया गया था। सर्बिया के लिए यह अपमानजनक था, फिर भी उसने पत्र की कुछ शर्तों को स्वीकार कर लिया। लेकिन ऑस्ट्रिया सर्बिया के उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ। 5 जुलाई 1914 को जर्मनी ने ऑस्ट्रिया को अपना समर्थन दिया और इसके बाद ऑस्ट्रिया ने 28 जुलाई 1914 को सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इंग्लैंड के विदेश मंत्री सर एडवर्ड ग्रे ने युद्ध को टालने के लिए प्रयास किए, किंतु वे असफल रहे।
युद्ध का विस्तार और आरंभ
सर्बिया के साथ गठबंधन के कारण रूस ने ऑस्ट्रिया के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी, क्योंकि रूस सर्बिया का गठबंधन मित्र था। इसके जवाब में जर्मनी ने 1 अगस्त 1914 को रूस के खिलाफ और 3 अगस्त 1914 को फ्रांस के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। इंग्लैंड अभी तक युद्ध में भाग लेने से हिचकिचा रहा और युद्ध को टालने के प्रयास में लगा था। इंग्लैंड के विदेश मंत्री ग्रे ने फ्रांस के राजदूत से स्पष्ट कह दिया कि इंग्लैंड इस युद्ध में भाग नहीं लेगा। साथ ही, ग्रे ने फ्रांस और जर्मनी से बेल्जियम की तटस्थता स्वीकार करने का आष्वासन माँगा। फ्रांस ने तो इसकी सहमति दे दी, किंतु जर्मनी ने कोई उत्तर नहीं दिया। जब जर्मन सेनाओं ने फ्रांस पर दबाव बनाने के लिए 1839 की लंदन संधि का उल्लंघन करते हुए बेल्जियम में प्रवेश किया, तो ब्रिटेन ने 4 अगस्त 1914 को जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। इस तरह गुटबंदियों के कारण यह विवाद वैश्विक युद्ध में परिवर्तित हो गया और प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ हो गया।
प्रथम विश्वयुद्ध को आरंभ करने के लिए दोनों पक्षों ने एक-दूसरे को उत्तरदायी ठहराया है। जर्मनी के चांसलर वैथमेन ने इंग्लैंड की विदेश नीति को युद्ध का कारण बताया और कहा कि इंग्लैंड की वैदेशिक नीति के कारण ही इस युद्ध का आरंभ हुआ। इसके विपरीत, इंग्लैंड के विदेश मंत्री ग्रे ने जर्मनी को उत्तरदायी ठहराया है। ग्रे के अनुसार बिस्मार्क की मृत्यु के बाद त्रिराष्ट्र संघ के खिलाफ हार्दिक मैत्री संघ की स्थापना हुई और दोनों गुटों के बीच प्रतिद्वंद्विता 1914 के विश्वयुद्ध के अनेक कारणों में से एक बनी। इस युद्ध ने जर्मन साम्राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया। जो भी हो, किसी एक देश या संघ को पूरी तरह महायुद्ध के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता और दोनों गुटों पर विश्वयुद्ध आरंभ करने की जिम्मेदारी साझा रूप से स्वीकार की जानी चाहिए।
प्रथम विश्वयुद्ध की प्रमुख घटनाएँ
प्रथम विश्वयुद्ध 1914 से 1918 तक कई मोर्चों पर लड़ा गया, जिसमें पश्चिमी मोर्चा, पूर्वी मोर्चा, बाल्कन मोर्चा, मध्य पूर्वी मोर्चा और समुद्री व हवाई युद्ध शामिल थे। यह युद्ध अपनी जटिलता, वैश्विक विस्तार और अभूतपूर्व विनाश के लिए जाना जाता है। युद्ध के दौरान कई ऐतिहासिक घटनाएँ घटीं, जिन्होंने न केवल युद्ध के परिणाम को प्रभावित किया, बल्कि विश्व की राजनीति, समाज और तकनीकी विकास को भी बदल दिया।
1914: युद्ध का प्रारंभ और प्रारंभिक आक्रमण
प्रथम विश्वयुद्ध 28 जुलाई 1914 को ऑस्ट्रिया-हंगरी द्वारा सर्बिया के खिलाफ युद्ध की घोषणा के साथ शुरू हुआ। इसके बाद, गुटबंदी के कारण युद्ध तेजी से पूरे यूरोप और विश्व में फैल गया।
जर्मनी का बेल्जियम आक्रमण (श्लिएफेन योजना)
जर्मनी ने युद्ध की शुरुआत में अपनी श्लिएफेन योजना लागू की, जिसका उद्देश्य पश्चिमी मोर्चे पर फ्रांस को त्वरित रूप से हराकर फिर पूर्वी मोर्चे पर रूस का सामना करना था। इस योजना के तहत जर्मनी ने 4 अगस्त 1914 को तटस्थ बेल्जियम पर आक्रमण किया, ताकि फ्रांस की मजबूत सीमा रक्षा (मैजिनो रेखा) को पार (बायपास) किया जा सके। बेल्जियम की तटस्थता 1839 की लंदन संधि द्वारा गारंटीकृत थी और जर्मनी के इस कदम ने ब्रिटेन को युद्ध में शामिल होने के लिए मजबूर कर दिया। जर्मनी ने बेल्जियम के किलों, जैसे लीज को आसानी से जीत लिया, लेकिन बेल्जियनों और ब्रिटिश अभियान बल की प्रतिरोध ने जर्मनी की गति को धीमा कर दिया। इस आक्रमण ने पश्चिमी मोर्चे पर खंदक युद्ध की नींव रखी। प्रथम मार्ने युद्ध (सितंबर 1914)
जर्मनी की सेनाएँ पेरिस के निकट पहुँच गई थीं, लेकिन सितंबर 1914 में फ्रांस और ब्रिटेन की संयुक्त सेनाओं ने प्रथम मार्ने युद्ध में जर्मन सेना को रोक दिया। इस युद्ध में फ्रांसीसी जनरल जोसेफ जोफ्रे ने पेरिस की टैक्सियों का उपयोग कर सैनिकों को मोर्चे पर भेजा, जो युद्ध इतिहास में एक प्रसिद्ध घटना है। इस युद्ध ने जर्मनी की त्वरित विजय की आशा को तोड़ दिया और पश्चिमी मोर्चे पर गतिरोध पैदा हो गया। इसके बाद, दोनों पक्षों ने खंदक युद्ध शुरू किया, जिसमें सैनिक सैकड़ों किलोमीटर लंबी खंदकों में डट गए।
टैननबर्ग युद्ध (अगस्त 1914)
पूर्वी मोर्चे पर जर्मनी ने रूस के खिलाफ एक बड़ी जीत हासिल की। अगस्त 1914 में टैननबर्ग युद्ध में जर्मन जनरलों पॉल वॉन हिंडनबर्ग और एरिच लुडेनडॉर्फ ने रूसी दूसरी सेना को लगभग नष्ट कर दिया। इस युद्ध में रूस के 78,000 सैनिक मारे गए या घायल हुए और 92,000 बंदी बना लिए गए। यह जर्मनी की सबसे बड़ी शुरुआती जीत थी, जिसने रूस की सैन्य कमजोरी को उजागर कर दिया। लेकिन रूस ने पूर्वी मोर्चे पर युद्ध जारी रखा, जिसने जर्मनी दो मोर्चों पर लड़ने के लिए मजबूर हो गया।
जापान का युद्ध में प्रवेश और जर्मन उपनिवेशों पर कब्जा
23 अगस्त 1914 को जापान ने मित्र राष्ट्रों के साथ गठबंधन के तहत जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। जापान ने जर्मन उपनिवेशों, जैसे चीन में किंगदाओ और प्रशांत क्षेत्र के द्वीपों पर कब्जा कर लिया। यह युद्ध का पहला वैश्विक प्रसार था, क्योंकि यह यूरोप से बाहर एशिया तक फैल गया। ब्रिटिश उपनिवेशों, जैसे भारत, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड ने भी सैनिक भेजे, जिससे युद्ध का स्वरूप और वैश्विक हो गया।
खंदक युद्ध की शुरुआत
1914 के अंत तक पश्चिमी मोर्चे पर दोनों पक्षों ने स्विट्जरलैंड से उत्तरी सागर तक खंदकों की एक श्रृंखला बना ली। इस खंदक युद्ध में सैनिक कीचड़, रोग और निरंतर गोलाबारी के बीच जीवित रहने के लिए संघर्ष करते थे। 1914 में ‘क्रिसमस युद्धविराम’ एक उल्लेखनीय घटना थी, जिसमें जर्मन और ब्रिटिश सैनिकों ने पश्चिमी मोर्चे पर कुछ स्थानों पर युद्धविराम कर क्रिसमस मनाया और एक-दूसरे से मिले। यह युद्ध की मानवीयता का एक दुर्लभ क्षण था।
1915: युद्ध का विस्तार और नई रणनीतियाँ
1915 में विश्वयुद्ध में नए देश शामिल हुए और युद्ध की क्रूरता बढ़ी। दोनों पक्षों ने नई रणनीतियाँ और हथियारों का प्रयोग किया।
इटली का मित्र पक्ष में प्रवेश: मई 1915 में इटली ने त्रिराष्ट्र संघ को छोड़ दिया और लंदन संधि के अनुसार मित्र राष्ट्रों के पक्ष में विश्वयुद्ध में शामिल हो गया। इटली को ऑस्ट्रिया-हंगरी से दक्षिणी टायरोल, इस्ट्रिया और डालमाशिया देने का वादा किया गया था। इटली ने ऑस्ट्रिया के खिलाफ आल्प्स में युद्ध शुरू किया, लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों में खंदक युद्ध और ठंड ने दोनों पक्षों को भारी नुकसान पहुँचाया। इटली का प्रवेश मित्रों के लिए रणनीतिक बढ़त थी, क्योंकि इसने ऑस्ट्रिया को एक और मोर्चे पर लड़ने के लिए मजबूर किया।
गैलीपोली अभियान (फरवरी 1915-जनवरी 1916)
मित्र राष्ट्रों, विशेष रूप से ब्रिटेन और फ्रांस ने उस्मानी साम्राज्य को कमजोर करने के लिए गैलीपोली अभियान शुरू किया। इसका उद्देश्य डार्डानेल्स जलडमरूमध्य पर नियंत्रण करना था, ताकि रूस को काला सागर के रास्ते आपूर्ति भेजी जा सके। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के सैनिक इस अभियान में शामिल थे। मुस्तफा कमाल (बाद में अतातुर्क) के नेतृत्व में तुर्की की सेना ने कड़ा प्रतिरोध किया, जिससे मित्र राष्ट्रों को भारी हानि हुई और जनवरी 1916 में उन्हें पीछे हटना पड़ा। यह मित्र राष्ट्रों की सबसे बड़ी रणनीतिक हार थी, जिसने तुर्की को मजबूत किया। इप्रेस युद्ध और रासायनिक हथियार (अप्रैल-मई 1915)
अप्रैल 1915 में दूसरे इप्रेस युद्ध में जर्मनी ने पहली बार बड़े पैमाने पर रासायनिक हथियार (क्लोरीन गैस) का उपयोग किया। यह गैस सैनिकों के फेफड़ों को नष्ट कर देती थी और बहुत भयावह थी। इस युद्ध में कनाडाई सैनिकों ने पहली बार बड़े पैमाने पर भाग लिया और उनके प्रतिरोध ने मित्र राष्ट्रों को हार से बचा लिया। रासायनिक हथियारों का उपयोग युद्ध की क्रूरता का प्रतीक बन गया और बाद में दोनों पक्षों ने मस्टर्ड गैस जैसे और घातक गैसों का उपयोग शुरू किया।
पनडुब्बी युद्ध की शुरुआत
जर्मनी ने 1915 में पनडुब्बी युद्ध शुरू कर दिया, जिसका उद्देश्य ब्रिटेन की समुद्री आपूर्ति को नष्ट करना था। 7 मई 1915 को जर्मन पनडुब्बी यू-20 ने ब्रिटिश यात्री जहाज लुसितानिया को डुबो दिया, जिसमें 1,198 लोग मर गए, जिनमें 128 अमेरिकी नागरिक भी शामिल थे। इस घटना ने अमेरिका में जर्मनी के खिलाफ जनमत को भड़क दिया और बाद में अमेरिका के युद्ध में प्रवेश का एक कारण बना। मध्य पूर्व में युद्ध उस्मानी साम्राज्य के खिलाफ मित्रों ने मध्य पूर्व में अभियान शुरू किया। मेसोपोटामिया (आधुनिक इराक) में ब्रिटिश सेनाएँ बगदाद की ओर बढ़ीं, लेकिन तुर्की ने कुट-अल-अमारा में ब्रिटिश सेना को घेर लिया, जिसके कारण 1916 में आत्मसमर्पण करना पड़ा। यह मित्र राष्ट्रों की एक और पराजय थी।

1916: युद्ध की चरम क्रूरता
1916 प्रथम विश्वयुद्ध का सबसे रक्तरंजित वर्ष था, जिसमें बड़े पैमाने पर युद्ध हुए और दोनों पक्षों को भारी हानि उठानी पड़ी। यह वर्ष खंदक युद्ध और नई तकनीकों के उपयोग के लिए भी जाना जाता है। इस वर्ष की प्रमुख सैन्य घटनाओं में वर्डन युद्ध, जूटलैंड नौसैनिक युद्ध, सोम्मे युद्ध और ब्रुसिलोव आक्रामक शामिल हैं, जो युद्ध के विनाशकारी स्वरूप के सूचक हैं।
वर्डन वर्दुन युद्ध (फरवरी-दिसंबर 1916)
वर्डन युद्ध जर्मनी की रणनीति का हिस्सा था, जिसका उद्देश्य फ्रांस की सेना को ‘खून बहाकर’ कमजोर करना था। जर्मन जनरल एरिच वॉन फाल्केनहायन ने वर्डन के किलों पर आक्रमण किया, जो फ्रांस का प्रतीकात्मक और रणनीतिक केंद्र था। फ्रांसीसी जनरल फिलिप पेटैन ने ‘वे पास नहीं होंगे’ का नारा देकर अपनी सेना का मनोबल बढ़ाया। यह युद्ध 10 महीने तक चलता रहा, जिसमें दोनों पक्षों के 7 लाख से अधिक सैनिक मारे गए या घायल हुए। यह युद्ध जर्मनी के लिए भी महँगा पड़ा और कोई स्पष्ट विजेता सामने नहीं हुआ।
जूटलैंड नौसैनिक युद्ध (मई-जून 1916)
उत्तरी सागर में जूटलैंड युद्ध प्रथम विश्वयुद्ध का सबसे बड़ा नौसैनिक युद्ध था, जो ब्रिटिश रॉयल नेवी और जर्मन हाई सीज फ्लीट के बीच लड़ा गया। ब्रिटेन ने 14 जहाज और लगभग 6,000 सैनिक खोए, जबकि जर्मनी ने 11 जहाज और करीब 2,500 सैनिक गँवाए। रणनीतिक रूप से ब्रिटेन का समुद्र पर नियंत्रण बना रहा और उसने जर्मनी की नाकाबंदी को और सख्त कर दिया। यह युद्ध जर्मनी की समुद्री महत्त्वाकांक्षाओं को सीमित करने में महत्त्वपूर्ण साबित हुआ।
सोम्मे युद्ध (जुलाई-नवंबर 1916)
मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी पर दबाव बनाने के लिए सोम्मे युद्ध शुरू किया, जो ब्रिटिश सेना के लिए सबसे विनाशकारी साबित हुआ। पहले दिन 1 जुलाई 1916 को, 57,470 ब्रिटिश सैनिक हताहत हुए। इस युद्ध में ब्रिटेन ने 15 सितंबर 1916 को पहली बार टैंक का उपयोग किया, जो युद्ध में तकनीकी नवाचार का प्रतीक था। लेकिन टैंक शुरूआत में अविश्वसनीय थे और युद्ध में कोई बड़ा लाभ नहीं दे सके। सोम्मे युद्ध में कुल मिलाकर 1 मिलियन से अधिक सैनिक हताहत हुए।
ब्रुसिलोव आक्रामक (जून-सितंबर 1916)
पूर्वी मोर्चे पर रूस ने ब्रुसिलोव आक्रामक शुरू किया, जो युद्ध का सबसे सफल रूसी अभियान था। जनरल अलेक्सी ब्रुसिलोव ने ऑस्ट्रिया-हंगरी की सेना को भारी नुकसान पहुँचाया, जिसमें 1.5 मिलियन ऑस्ट्रियाई सैनिक हताहत हुए या बंदी बनाए गए। लेकिन रूस को भी 5 लाख सैनिकों की हानि हुई और इस अभियान ने रूस की अर्थव्यवस्था और सेना को कमजोर कर दिया, जो बाद में रूसी क्रांति का एक कारण बना।
1917: युद्ध में परिवर्तन और वैश्विक भागीदारी
1917 में युद्ध में बड़े बदलाव आए, जिसमें अमेरिका का प्रवेश और रूस का बाहर होना शामिल था। यह वर्ष युद्ध के परिणाम को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण था। अमेरिका का युद्ध में प्रवेश 7 मई 1915 को जर्मन पनडुब्बी यू-20 ने ब्रिटिश यात्री जहाज आरएमएस लुसितानिया को डुबो दिया, जिसमें 1,198 लोग मर गए। इन मरने वालों में 128 अमेरिकी नागरिक भी थे। इसके बाद, जर्मनी ने 1917 में असीमित पनडुब्बी युद्ध शुरू किया, जिसमें सभी जहाजों को निशाना बनाया गया। जनवरी 1917 में जर्मन विदेश मंत्री आर्थर जिम्मरमैन ने मेक्सिको को टेलीग्राम भेजा, जिसमें मेक्सिको को अमेरिका के खिलाफ युद्ध में शामिल होने का प्रस्ताव दिया गया था। इस टेलीग्राम को ब्रिटेन ने इंटरसेप्ट किया और अमेरिका को सौंप दिया। इन घटनाओं ने अमेरिकी जनमत को जर्मनी के विरूद्ध कर दिया और 6 अप्रैल 1917 को अमेरिका ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। अमेरिका ने 2 मिलियन सैनिक और आर्थिक संसाधन प्रदान किए, जिसने मित्र राष्ट्रों की जीत को सुनिश्चित कर दिया।
रूसी क्रांति और युद्ध से वापसी रूस में युद्ध के कारण भारी आर्थिक और सामाजिक संकट पैदा हुआ। मार्च 1917 में फरवरी क्रांति ने जार निकोलस द्वितीय को सत्ता से हटा दिया और अस्थायी सरकार ने युद्ध जारी रखा। अक्टूबर 1917 में बोल्शेविक क्रांति में लेनिन के नेतृत्व में साम्यवादियों ने सत्ता हथिया ली और बोल्शेविक सरकार ने 3 मार्च 1918 को ब्रेस्ट-लिटोव्स्क संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत रूस ने युद्ध से वापसी की और पोलैंड, यूक्रेन, बाल्टिक और फिनलैंड जैसे क्षेत्र जर्मनी को सौंप दिए। यह जर्मनी के लिए बड़ी जीत थी, क्योंकि अब वह पश्चिमी मोर्चे पर ध्यान केंद्रित कर सकता था।
पास्केंडेल युद्ध (जुलाई-नवंबर 1917)
तीसरा इप्रेस युद्ध, जिसे पास्केंडेल युद्ध भी कहा जाता है, ब्रिटिश सेना का जर्मन पनडुब्बी ठिकानों पर कब्जे का प्रयास था। भारी बारिश और कीचड़ ने युद्ध को और भयावह बना दिया। दोनों पक्षों को 5 लाख से अधिक की जनहानि हुई, लेकिन मित्र राष्ट्रों को रणनीतिक लाभ नहीं मिल सका। यह युद्ध खंदक युद्ध की क्रूरता का प्रतीक है।
कैपोरेट्टो युद्ध (अक्टूबर-दिसंबर 1917)
इटली और ऑस्ट्रिया के बीच कैपोरेट्टो युद्ध में जर्मन और ऑस्ट्रियाई सेनाओं ने इटली को पराजित कर दिया। इटली के 3 लाख सैनिक हताहत हुए या बंदी बना लिए गए और ऑस्ट्रिया ने इटली के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया, लेकिन मित्र राष्ट्रों ने इटली को समर्थन भेजकर उसे बचा लिया।
1918: युद्ध का अंत और मित्र राष्ट्रों की विजय
1918 में युद्ध अपने अंतिम चरण में पहुँच गया। मित्र राष्ट्रों ने एकजुट होकर जर्मनी को पराजित किया और अन्य कई कारणों सेे युद्ध समाप्त हो गया। 1918 में स्पेनिश फ्लू महामारी फैली, जिसने विश्व भर में 50 मिलियन लोगों को मार डाला, जिसमें सैनिक और असैनिक शामिल थे। यह महामारी ने युद्ध के अंतिम चरण में दोनों पक्षों की सेनाओं को कमजोर कर दिया। सैनिकों की भीड़भाड़ वाली खंदकों में यह तेजी से फैली, जिसने सैन्य अभियानों को प्रभावित किया।
मित्र राष्ट्रों का अंतिम अभियान (अगस्त-नवंबर 1918)
जुलाई 1918 में मित्र राष्ट्रों ने हंड्रेड डेज ऑफेंसिव शुरू किया, जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका और कनाडाई सेनाओं ने संयुक्त आक्रमण किया। दूसरा मार्ने युद्ध और एमिएंस युद्ध में मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी को पीछे धकेल दिया। टैंक, विमान और समन्वित रणनीति ने मित्रों को बढ़त दिलाई। इसके बाद 30 सितंबर को बुल्गारिया, 30 अक्टूबर को उस्मानी साम्राज्य और 3 नवंबर को ऑस्ट्रिया-हंगरी ने आत्मसमर्पण कर दिया।
जर्मन क्रांति
जर्मनी में युद्ध की हार और आर्थिक संकट के कारण 8 नवंबर 1918 को बर्लिन में क्रांति शुरू हुई। कैसर विलियम द्वितीय को सत्ता छोड़कर नीदरलैंड भागना पड़ा। जर्मनी में वाइमार गणतंत्र की स्थापना हुई।
युद्धविराम (11 नवंबर 1918)
11 नवंबर 1918 को सुबह 11 बजे जर्मनी ने फ्रांस के कॉम्पिएन जंगल में एक रेलवे डिब्बे में युद्धविराम संधि पर हस्ताक्षर किए। इसके तहत जर्मनी ने अपनी सेनाएँ वापस बुलाईं, राइनलैंड को विमुद्रीकृत किया और युद्ध सामग्री सौंप दी। यह युद्ध का औपचारिक अंत था।
पेरिस शांति सम्मेलन
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद शांति स्थापना और भविष्य के लिए नए विश्व व्यवस्था की नींव रखने के उद्देश्य से 18 जनवरी 1919 को पेरिस शांति सम्मेलन का आयोजन फ्रांस की राजधानी पेरिस में हुआ। इस सम्मेलन में 32 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिनमें मित्र राष्ट्रों के प्रमुख नेता शामिल थे, जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन, ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड लॉयड जॉर्ज, फ्रांसीसी प्रधानमंत्री जॉर्ज क्लेमेंसो और इटली के प्रधानमंत्री विटोरियो ओरलैंडो। यह सम्मेलन वर्साय के महल में शुरू हुआ और इसका मुख्य उद्देश्य युद्ध के परिणामों को संबोधित करना, पराजित केंद्रीय शक्तियों पर शर्तें थोपना और वैश्विक शांति के लिए एक ढाँचा तैयार करना था। सम्मेलन में पाँच प्रमुख संधियाँ हुईं, जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण थी वर्साय की संधि, जिस पर 28 जून 1919 को हस्ताक्षर किए गए। इस संधि ने जर्मनी को युद्ध का मुख्य दोषी ठहराया और उस पर कठोर दंड लगाए गए। अन्य संधियों में सेंट जर्मेन (ऑस्ट्रिया, 10 सितंबर 1919), न्युइली (बुल्गारिया, 27 नवंबर 1919), ट्रायनॉन (हंगरी, 4 जून 1920), और सेवर्स (उस्मानी साम्राज्य, 10 अगस्त 1920) शामिल थीं। वर्साय संधि को जर्मनी में ‘आरोपित संधि’ (क्पाजंज) माना गया, क्योंकि जर्मनी को इसमें कोई सहभागिता नहीं दी गई, जिससे अपमान और आर्थिक संकट ने जर्मनी में असंतोष को जन्म दिया।

वुडरो विल्सन के 14 सिद्धांतों, विशेष रूप से राष्ट्रों के आत्मनिर्णय और राष्ट्रसंघ की स्थापना ने सम्मेलन को आकार दिया, लेकिन क्लेमेंसो की प्रतिशोधी नीति और लॉयड जॉर्ज की संतुलित दृष्टिकोण के बीच टकराव ने संधि को विवादास्पद बना दिया। 10 जनवरी 1920 को राष्ट्रसंघ की स्थापना सम्मेलन का सकारात्मक परिणाम था, लेकिन जर्मनी और रूस के बहिष्कार ने इसकी प्रभावशीलता को कमजोर कर दिया। इस प्रकार पेरिस शांति सम्मेलन ने युद्ध को समाप्त किया, लेकिन इसकी कठोर शर्तों ने द्वितीय विश्वयुद्ध की नींव रख दी।
प्रथम विश्वयुद्ध के परिणाम
प्रथम विश्वयुद्ध के परिणाम मानवीय, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक स्तर पर गहरे और दीर्घकालिक थे, जिन्होंने 20वीं सदी की दिशा को बदल दिया। युद्ध में लगभग 16 मिलियन लोग मारे गए, जिसमें 9 से 11 मिलियन सैनिक और 6 से 13 मिलियन असैनिक शामिल थे, जबकि 21 मिलियन घायल और 7 मिलियन स्थायी रूप से विकलांग हो गए; 1918-20 की स्पेनिश फ्लू महामारी ने 50 मिलियन और लोगों की जान ली। युद्ध ने चार प्रमुख साम्राज्यों- जर्मन, ऑस्ट्रिया-हंगरी, उस्मानी और रूसी का अंत कर नए स्वतंत्र राष्ट्रों जैसे पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया, लातविया, लिथुआनिया और एस्टोनिया को जन्म दिया, साथ ही वैश्विक शांति के लिए राष्ट्रसंघ (1920) की स्थापना हुई।
युद्ध ने यूरोप की अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया। दोनों पक्षों ने 1.3 खरब डॉलर खर्च किए और 1 खरब से अधिक संपत्ति का विनाश हुआ। फ्रांस और बेल्जियम की 25-50 प्रतिषत अर्थव्यवस्था नष्ट हो गई। जर्मनी पर भारी हर्जाना, महँगाई और बेरोजगारी ने आर्थिक अस्थिरता पैदा की, जबकि अमेरिका विश्व के राजनीतिक-आर्थिक प्रभाव का केंद्र बन गया। युद्ध ने सामाजिक संरचनाओं को बदल दिया। महिलाओं ने युद्ध के दौरान कारखानों, अस्पतालों और सेना में काम किया, जिससे ब्रिटेन (1918), जर्मनी (1919) और अमेरिका (1920) में मताधिकार आंदोलन को बल मिला। युद्ध की क्रूरता ने युद्ध-विरोधी भावनाओं को जन्म दिया। इसी युद्ध के दौरान 1917 की बोल्शेविक क्रांति ने साम्यवाद को जन्म दिया और रूस में साम्यवादी सरकार की स्थापना हुई। वर्साय संधि के अपमान ने इटली में फासीवाद और जर्मनी में नाज़ीवाद को प्रेरित किया तथा औपनिवेशिक देशों में स्वतंत्रता आंदोलनों को को प्रेरित किया।










