विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन (Rise and Fall of Vijayanagara Empire)

विजयनगर साम्राज्य चौदहवीं सदी में दक्षिण भारत में दो बड़े शक्तिशाली साम्राज्यों का उद्भव हुआ—एक […]

विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन (Rise and Fall of Vijayanagara Empire)

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विजयनगर साम्राज्य

चौदहवीं सदी में दक्षिण भारत में दो बड़े शक्तिशाली साम्राज्यों का उद्भव हुआ—एक था विजयनगर साम्राज्य और दूसरा था बहमनी साम्राज्य। दक्कन क्षेत्र दिल्ली सल्तनत के प्रांतीय प्रशासन का भाग था। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना दक्षिण भारत के आधुनिक कर्नाटक राज्य में तुंगभद्रा नदी के तट पर हुई थी। इसका वास्तविक नाम कर्नाट साम्राज्य था, जिसे पुर्तगालियों ने ‘बिसनागर’ साम्राज्य कहा।

परंपरा और अभिलेखीय साक्ष्यों के अनुसार इस साम्राज्य की स्थापना पाँच भाइयों (हरिहर, कम्पा प्रथम, बुक्का प्रथम, मारप्पा तथा मदुप्पा) के परिवार के दो सदस्यों—हरिहर प्रथम और बुक्का प्रथम ने 1336 ई. में की थी। इस साम्राज्य की प्रारंभिक राजधानी अनेगुंडी दुर्ग थी और यही नगर विजयनगर साम्राज्य का उत्पत्ति-स्थान था। दक्षिण का यह महान साम्राज्य अपनी स्थापना काल से लेकर लगभग सवा दो सौ वर्षों तक दक्षिण की राजनीति का प्रमुख केंद्र बना रहा। अपने उत्कर्ष काल में यह साम्राज्य उत्तर में कृष्णा नदी से लेकर प्रायद्वीप के सुदूर दक्षिण तक फैला हुआ था। यद्यपि 1565 ई. में तालीकोटा के युद्ध में इस साम्राज्य की भारी पराजय हुई और इसकी वैभवशाली राजधानी विजयनगर को लूटकर भस्मीभूत कर दिया गया, किंतु इस महान संकट के बाद भी यह साम्राज्य लगभग 70 वर्षों तक अस्तित्व में बना रहा।

यह सही है कि विजयनगर के शासकों को उर्वर नदी घाटियों, विशेषकर रायचूर दोआब तथा लाभकारी विदेशी व्यापार से उत्पन्न संपदा पर अधिकार करने के लिए अपने समकालीन राजाओं, जैसे दक्कन के सुल्तानों और उड़ीसा के गजपतियों के साथ निरंतर संघर्ष करना पड़ा। फिर भी, इस साम्राज्य के प्रतिभाशाली शासकों के काल में राजनीति के साथ-साथ शासन, समाज, अर्थव्यवस्था, धर्म, कला-स्थापत्य एवं साहित्य के क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति हुई।

ऐतिहासिक स्रोत

विजयनगर साम्राज्य के इतिहास-निर्माण में मौखिक परंपराओं, तमाम अभिलेखों एवं साहित्यिक ग्रंथों के साथ-साथ समय-समय पर इस साम्राज्य की यात्रा करने वाले विभिन्न विदेशी यात्रियों के विवरणों से सहायता मिलती है।

पुरातात्त्विक स्रोत

यद्यपि सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी तक विजयनगर पूरी तरह विनष्ट हो गया था, फिर भी यह साम्राज्य कृष्णा-तुंगभद्रा दोआब क्षेत्र की मौखिक परंपराओं में हम्पी साम्राज्य के नाम से जीवित रहा। इस साम्राज्य के भग्नावशेष पहली बार 1800 ई. में एक अभियंता तथा पुराविद् कर्नल कॉलिन मैकेंजी द्वारा आधुनिक कर्नाटक राज्य के हम्पी से ही प्रकाश में लाए गए थे।

अभिलेखीय साक्ष्यों में बागपल्ली ताम्रपत्र (1336 ई.) और बिट्रगुंट्ट अनुदान पत्र (1356 ई.) विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनमें संगम वंश के प्रारंभिक शासकों की सूची मिलती है। हरिहर द्वितीय के चन्नस्यपट्टन अभिलेख (1378 ई.) से पता चलता है कि बुक्का प्रथम ने विजयनगर को अपनी राजधानी बनाया था। इनके अतिरिक्त, देवराय द्वितीय के श्रीरंगम अनुदानपत्र (1434 ई.), इम्मादि नरसिंह के देवपल्ली अनुदानपत्र (1504 ई.), कृष्णदेवराय के काँचीपुरम ताम्रपत्रलेख (1528 ई.) तथा छाया चित्रकारों द्वारा संकलित भवनों के चित्र भी विजयनगर के इतिहास-निर्माण में सहायक हैं।

साहित्यिक स्रोत

विजयनगर साम्राज्य के इतिहास-निर्माण में तेलुगु, कन्नड़, तमिल और संस्कृत में लिखी गई अनेक साहित्यिक कृतियाँ, जैसे ‘विद्यारण्यवृत्तांत’, ‘विद्यारण्यकालज्ञान’, ‘मदुराविजयम्’, ‘गंगादेवी प्रतापविलास’ तथा ‘वरदांबिकापरिणय’ उपयोगी हैं। विद्यारण्यवृत्तांत तथा विद्यारण्यकालज्ञान जैसी प्राचीनतम कृतियाँ अपनी संदिग्ध ऐतिहासिकता के बावजूद विजयनगर के प्रारंभिक इतिहास की जानकारी का एक प्रमुख स्रोत हैं। बुक्का द्वितीय के पुत्र कंपन की पत्नी गंगादेवी की अपूर्ण कृति मदुराविजयम् (मधुराविजयम्) में कंपन की मदुरा विजय का वर्णन है। गंगाधर विरचित गंगादेवी प्रतापविलास से मल्लिकार्जुन राय के शासनकाल की सूचना मिलती है। कवयित्री तिरुमलंबाकृत चंपूकाव्य वरदांबिका परिणय में अच्युतदेवराय और वरदांबिका के प्रणय एवं विवाह का वर्णन है।

विजयनगर कालीन इतिहास-निर्माण के महत्त्वपूर्ण स्रोतों में राजा सालुव नरसिंह के जीवन पर डिंडिम का ‘रामाभ्युदयम्’, डिंडिम द्वितीय का ‘अच्युताभ्युदयम्’, तिरुमलंबा का ‘वरदांबिका परिणयम्’, नंजुंडा का ‘कुमाररमणकथे’, कनकदास का ‘मोहनतरंगिणी’, लिंगन्ना का ‘केलादि रिविजयम्’, श्रीनाथ का ‘काशीकांड’, मल्लय्या और सिंगय्या का ‘वाराहपुराणमु’, पेद्दन के ‘मनुचरित्रम्’ और राजा कृष्णदेवराय का ‘अमुक्तमाल्यद’ सूचना के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं।

विदेशी यात्रियों के विवरण

विजयनगर साम्राज्य के इतिहास-लेखन में विदेशी यात्रियों के विवरण भी बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। इस दृष्टि से फारसी इतिहासकार मुहम्मद कासिम फिरिश्ता, मोरक्को के निवासी इब्न बतूता, इटालियन निकोलो दि कोंटी, फारस के सूफी यात्री अब्दुर रज्जाक तथा पुर्तगाल के डोमिंगो पाइस, फर्नाओ नुनिज एवं दुआर्ते बारबोसा के विवरण विशेष उपयोगी हैं।

फिरिश्ता और इब्न बतूता जैसे यात्रियों के विवरणों से बहमनी और विजयनगर राज्यों के आपसी संबंधों पर विशेष प्रकाश पड़ता है। इसके अलावा, समकालीन मुस्लिम लेखक, जिन्होंने बहुमूल्य रचनाएँ छोड़ी हैं, वे हैं—बरनी, इसामी (फुतूह-उस-सालातीन), सैयद अली तबताबाई (बुरहान-ए-मासिर, 1596 ई.), निजामुद्दीन बख्शी, फिरिश्ता (तारीख-ए-फिरिश्ता) और रफीउद्दीन शिराजी (तजकिरत-उल-मुलूक, 1611 ई.)।

1420 ई. में विजयनगर आने वाले निकोलो दि कोंटी ने अपने यात्रा-विवरण ट्रेवल्स ऑफ निकोलो कोंटी में विजयनगर के शान-ओ-शौकत की बड़ी प्रशंसा की है। फारस का अब्दुर रज्जाक 1442-43 ई. में विजयनगर आया था। उसने मतला-उस-सदैन वा मजमा-उल-बहरैन में देवराय द्वितीय के काल में विजयनगर की राजधानी की शान-ओ-शौकत, नगर की सुरक्षा, बाजार, रहन-सहन आदि का विस्तृत विवरण दिया है। पुर्तगाली व्यापारी, लेखक और खोजकर्ता डोमिंगो पाइस ने अपने यात्रा-वृत्तांत में विजयनगर साम्राज्य के शासक कृष्णदेवराय के शासनकाल में प्राचीन शहर हम्पी के सभी ऐतिहासिक पहलुओं का विवरण दिया है। दूसरे पुर्तगाली इतिहासकार और घोड़ों के व्यापारी फर्नाओ नुनिज ने 1535 ई. में अच्युतराय के शासनकाल में विजयनगर की यात्रा की थी। उसके विवरणों में भी तत्कालीन विजयनगर (बिश्नागर) का इतिहास वर्णन मिलता है। पुर्तगाल के ही दुआर्ते बारबोसा की पुस्तक एन अकाउंट ऑफ कंट्रीज बॉर्डरिंग द इंडियन ओसियन एंड देयर इनहैबिटेंट्स में कृष्णदेवराय के शासनकालीन विजयनगर की स्थिति का वर्णन मिलता है। इसके अलावा, रूसी यात्री अफानासी निकितिन और वेनिस के मार्को पोलो के यात्रा-विवरण भी विजयनगर के इतिहास-निर्माण में सहायक हैं।

विजयनगर साम्राज्य की उत्पत्ति

विजयनगर साम्राज्य की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न दंतकथाएँ प्रचलित हैं। कन्नड़ साक्ष्यों के आधार पर कुछ इतिहासकारों का दावा है कि विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर तथा बुक्का दोनों प्रारंभ में काकतीय प्रतापरुद्र के यहाँ रहते थे। जब प्रतापरुद्र दिल्ली सुल्तान के सैनिकों द्वारा बंदी बना लिया गया, तो दोनों भाइयों ने भागकर तुंगभद्रा नदी के तट पर होयसल साम्राज्य के पतन के दौरान आचार्य विद्यारण्य की मदद से उत्तरी भागों पर अधिकार कर लिया था।

कुछ विद्वान मानते हैं कि हरिहर तथा बुक्का मूल रूप से कर्नाटक के निवासी थे और उत्तरी भारत से मुस्लिम आक्रमणों को रोकने के लिए होयसल शासक वीर बल्लाल तृतीय के अधीन तुंगभद्रा क्षेत्र में शासन कर रहे थे। वीर बल्लाल तृतीय तथा उनके पुत्र बल्लाल चतुर्थ की मृत्यु के बाद इन्होंने होयसल राज्य पर अधिकार कर लिया और विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की।

परंपराओं, मुस्लिम इतिहासकारों और अभिलेखीय साक्ष्यों के साथ-साथ विद्यारण्यकालज्ञान तथा विद्यारण्यवृत्तांत से पता चलता है कि दोनों भाई—हरिहर और बुक्का वारंगल के काकतीय शासक प्रतापरुद्र के यहाँ राजकीय कोषागार से संबद्ध अधिकारी थे और संभवतः सीमावर्ती क्षेत्रों के प्रशासक थे। दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के सैनिकों ने जब वारंगल पर अधिकार कर प्रतापरुद्र को बंदी बना लिया, तो दोनों भाइयों ने भागकर कंपिलि में शरण ली।

1326 ई. में सुल्तान ने कंपिलि पर अधिकार कर शासक की हत्या कर दी और उसके संगे-संबंधियों के साथ हरिहर और बुक्का को भी बंदी बनाकर दिल्ली ले गया, जहाँ उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। जब सुल्तान के विरुद्ध दक्षिण में विद्रोह हुआ, तो सुल्तान ने उन्हें विद्रोह का दमन करने दक्षिण भेजा।

कहा जाता है कि दक्षिण पहुँचकर हरिहर और बुक्का एक संत माधव विद्यारण्य के संपर्क में आए और इस्लाम का परित्याग कर हिंदू धर्म में दीक्षित हुए। इसके बाद उन्होंने विद्यारण्य (माधवाचार्य) और वेदों के भाष्यकार सायणाचार्य की प्रेरणा से तुंगभद्रा नदी के दक्षिण में विजयनगर शहर और राज्य की नींव डाली, जो कालांतर में विजयनगर साम्राज्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

इस प्रकार उत्पत्ति-संबंधी मतभेद के बावजूद प्रायः सभी इतिहासकार इस बात पर एकमत हैं कि विजयनगर के संस्थापकों को मुस्लिम आक्रमण से लड़ने के लिए दक्षिण भारत के श्रृंगेरी मठ के एक संत विद्यारण्य द्वारा समर्थित और प्रेरित किया गया था।

विजयनगर साम्राज्य की स्थापना

दक्षिण भारत में मुसलमानों का प्रवेश अलाउद्दीन खिलजी के समय हुआ था। उसने तेरहवीं सदी के अंत और चौदहवीं सदी के आरंभ में सुदूर दक्षिण के देवगिरि के यादव, वारंगल के काकतीय, द्वारसमुद्र के होयसल तथा पांड्य राजाओं को पराजित कर उनसे करादि वसूल किया था। मुहम्मद बिन तुगलक के काल में कंपिलि तथा द्वारसमुद्र के होयसल जैसे कुछ प्रमुख राज्यों को छोड़कर दक्षिण भारत का अधिकांश हिस्सा दिल्ली सल्तनत के अधीन था। किंतु दिल्ली के सुल्तान को अकसर दक्षिण भारत में विद्रोहों का सामना करना पड़ता था। कभी-कभी तो उनके अपने अधिकारी भी संकट का कारण बन जाते थे।

इसी श्रृंखला में मुहम्मद बिन तुगलक के समय में एक महत्त्वपूर्ण विद्रोह 1325 ई. में गुलबर्गा (कर्नाटक) के समीप सागर के गवर्नर बहमन शाह और उसके चचेरे भाई बहाउद्दीन गुर्शस्प ने किया। इसमें उन्हें कंपिलि के शासक से भी सहायता मिली थी।

सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने विद्रोहियों के दमन के लिए गुजरात के गवर्नर मलिक जैद तथा देवगिरि के गवर्नर मजिर-अबु-रियाज को दक्षिण भेजा। गोदावरी के तट पर सुल्तान के गवर्नरों से पराजित होकर बहमन शाह भाग गया।

कंपिलि (बेल्लारी, रायचूर तथा धारवाड़ जिले) का राज्य पहले देवगिरि के यादवों की अधीन था। किंतु जब अलाउद्दीन खिलजी ने देवगिरि पर अधिकार किया, तो कंपिलि के शासक ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। कंपिलि के शासक ने अपने शरणार्थी मित्र गुर्शस्प का स्वागत किया। कंपिलि के शासक को दंडित करने के लिए मुहम्मद तुगलक स्वयं सेना लेकर कंपिलि पहुँच गया। कंपिलिदेव ने गुर्शस्प को होयसल शासक के यहाँ भेज दिया और स्वयं सुल्तान की सेना का सामना किया। अंत में, सुल्तान ने कंपिलि के शासक को पराजित कर बंदी बना लिया और संभवतः मार डाला। कंपिलिदेव के पुत्र और तमाम अधिकारी बंदी बनाकर दिल्ली ले जाए गए, जिनमें हरिहर तथा बुक्का नामक दो भाई भी थे। दिल्ली पहुँचकर हरिहर और बुक्का ने इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया। कंपिलि पर अधिकार कर सुल्तान ने उसे एक अलग प्रांत बना दिया और मलिक मुहम्मद को अपना गवर्नर नियुक्त किया।

चूंकि गुर्शस्प ने होयसल शासक वीर बल्लाल तृतीय के यहाँ शरण ली थी, इसलिए कंपिलि पर अधिकार करने के बाद सुल्तान ने होयसल बल्लाल तृतीय पर आक्रमण किया। आरंभिक प्रतिरोध के बाद वीर बल्लाल तृतीय ने गुर्शस्प को मुस्लिम आक्रमणकारियों के हवाले कर दिया और सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर ली। समर्पण के बाद सुल्तान ने वीर बल्लाल को उसके राज्य के कुछ हिस्से पर स्वतंत्रतापूर्वक शासन करने की अनुमति दे दी और दिल्ली लौट गया। किंतु सुल्तान के दक्षिण से हटते ही वीर बल्लाल तृतीय ने अधीनता का जुआ उतार फेंका और दिल्ली सुल्तान द्वारा नियुक्त कंपिलि के शासक मलिक मुहम्मद के विरुद्ध लड़ाई छेड़ दी। तमाम स्थानीय सामंतों और नायकों के सहयोग के कारण इस विद्रोह ने शीघ्र ही भयंकर रूप धारण कर लिया। गवर्नर मलिक मुहम्मद के आग्रह पर दिल्ली के सुल्तान ने विद्रोह के दमन के लिए अपने विश्वासपात्र हरिहर और बुक्का को कर्नाटक का शासक नियुक्त कर सेना सहित दक्षिण भेजा।

दक्षिण पहुँचकर हरिहर तथा बुक्का ने कृष्णा के दाहिने तट पर वीर बल्लाल तृतीय की सेना का सामना किया। किंतु बल्लाल तृतीय ने इन्हें पराजित कर दिया। इसके बाद दोनों भाइयों ने अपनी कूटनीति और सूझ-बूझ से दिल्ली सल्तनत की अधीनता में रहने का स्वांग करते हुए अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने में लग गए। संयोग से इसी दौरान उनका संपर्क आचार्य विद्यारण्य से हुआ, जिनके उपदेशों से प्रेरित होकर इन्होंने अपनी शक्ति को सुदृढ़ किया और फिर वीर बल्लाल तृतीय को पराजित कर अनेगुंडी पर अधिकार लिया। विद्यारण्य ने हरिहर को भगवान विरूपाक्ष का प्रतिनिधि घोषित किया और कुछ दिन बाद इन्होंने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। इनके द्वारा स्थापित साम्राज्य विजयनगर (जीत का नगर) के नाम से जाना गया। विद्यारण्य के नाम पर इन्होंने विद्यानगर नामक नगर की स्थापना की।

विजयनगर के राजवंश

विजयनगर साम्राज्य पर कुल चार राजवंशों ने लगभग तीन सौ दस वर्षों तक शासन किया—संगम राजवंश (1336-1485 ई.), सालुव राजवंश (1485-1505 ई.), तुलुव राजवंश (1505-1570 ई.) और अराविदु राजवंश (1570-1646 ई.)।

संगम राजवंश (1336–1485 ई.)

हरिहर और बुक्का के पिता का नाम ‘संगम’ था, जो यादव जाति के एक गौपालक समुदाय के मुखिया थे। इसलिए हरिहर और बुक्का ने विजयनगर में जिस राजवंश की स्थापना की, उसे उनके पिता के नाम पर ‘संगम वंश’ के नाम से जाना जाता है।

हरिहर प्रथम (1336-1356 ई.)

हरिहर प्रथम ‘संगम’ का पुत्र था। उसने अपने भाई बुक्का प्रथम के साथ मिलकर तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी तट पर स्थित अनेगुंडी के आमने-सामने दो नगर—विजयनगर और विद्यानगर बसाए। हरिहर ने 18 अप्रैल 1336 ई. में भगवान विरूपाक्ष को साक्षी मानकर भारतीय परंपरानुसार अपना राज्याभिषेक संपन्न कराया।

हरिहर प्रथम का स्वतंत्र राज्य दक्षिण-पूर्व में नेल्लोर से लेकर उत्तरी कर्नाटक में धारवाड़ तथा बादामी तक का प्रदेश शामिल था। किंतु उसका राज्य चारों ओर से सशक्त प्रतिद्वंद्वियों से घिरा था। इसकी उत्तरी पूर्वी सीमा पर वारंगल का शासक कापाया नायक अपने राज्य के विस्तार में लगा था, जो वीर बल्लाल तृतीय का मित्र था। बल्लाल तृतीय का राज्य उसके राज्य के दक्षिण-पश्चिम स्थित था। उत्तर-पूर्व में देवगिरि का गवर्नर कुतलुग खाँ दिल्ली के सुल्तान की अधीनता में शासन कर रहा था, जो विजयनगर के स्वतंत्र अस्तित्व का विरोधी था।

हरिहर प्रथम की उपलब्धियाँ
प्रशासनिक सुदृढ़ीकरण

हरिहर प्रथम ने सबसे पहले राज्य के आंतरिक सुदृढ़ीकरण की ओर ध्यान दिया। यद्यपि उनकी राजधानी अनेगुंडी तुंगभद्रा के तट पर एक पहाड़ी पर स्थित थी, वह सुरक्षित नहीं थी। इसलिए उन्होंने नदी के दूसरे किनारे विरूपाक्ष मंदिर के समीप हेमकूट, पतंग तथा मालयवंत पहाड़ियों से घिरे एक सुरक्षित स्थान पर विजय अथवा विद्यारण्य नाम से नई राजधानी की नींव डाली। यही बाद में विजयनगर नाम से विख्यात हुई, जिसके ध्वंसावशेष वर्तमान हम्पी में विद्यमान हैं।

आनुश्रुतिक स्रोतों से पता चलता है कि विजयनगर की स्थापना विद्यारण्य की सलाह पर की गई थी। किंतु इतिहासकार फिरिश्ता के अनुसार विजयनगर की स्थापना बल्लाल तृतीय ने की थी। इसके अनुसार बल्लाल तृतीय ने अपने पुत्र बिजेनराय के नाम पर बिजयनगर (विजयनगर) की स्थापना की थी।

इसके अलावा, हरिहर प्रथम ने चालुक्यों की राजधानी बादामी का सुदृढ़ीकरण किया और उदयगिरि दुर्ग का निर्माण करवाकर इसे राज्य के पूर्वी प्रांतों का मुख्यालय बनाया। उन्होंने इस क्षेत्र के प्रशासन की जिम्मेदारी अपने अनुज कम्पन को सौंपी। पश्चिमी सीमा की सुरक्षा के लिए हरिहर ने बुक्का प्रथम को युवराज तथा सहशासक नियुक्त कर गूटी दुर्ग के प्रशासन की जिम्मेदारी दी।

होयसल राज्य की विजय

राज्य विस्तार के क्रम में हरिहर प्रथम ने सर्वप्रथम 1340 ई. में होयसल राज्य पर आक्रमण कर पेनुकोंडा के दुर्ग पर अधिकार कर लिया, क्योंकि होयसल शासक वीर बल्लाल तृतीय मदुरै के विजय अभियान में लगा हुआ था।

बाद में, 1342 ई. में मदुरै के सुल्तान ने बल्लाल तृतीय की हत्या कर दी और बल्लाल चतुर्थ (विरूपाक्ष बल्लाल) होयसल राजगद्दी पर बैठा, जो नितांत दुर्बल तथा अयोग्य था। इस अवसर का लाभ उठाते हुए हरिहर ने 1346 ई. में होयसल बल्लाल चतुर्थ को पराजित कर होयसल राज्य पर अधिकार कर लिया। बल्लाल चतुर्थ ने राज्य छोड़कर संभवतः कदंबों के यहाँ शरण ली। बाद में, 1347 ई. में हरिहर प्रथम के अनुज मारप्पन ने बनवासी के कदंब राज्य पर अधिकार कर लिया।

मदुरै के विरुद्ध अभियान

मदुरै के सुल्तान ने उत्तरी तथा दक्षिणी अर्कोट के शासक राजनारायण संबुवराय को बंदी बनाकर उसके राज्य पर अधिकार कर लिया था। हरिहर ने मदुरै के सुल्तान को पराजित कर न केवल राजनारायण संबुवराय को मुक्त कराया, बल्कि उसे उसके राज्य पर पुनः प्रतिष्ठित किया।

बहमनी से संघर्ष

इसी समय (1346 ई.) रायचूर दोआब पर आधिपत्य को लेकर बहमनी तथा विजयनगर के बीच उस संघर्ष की शुरुआत हुई, जो लगभग 200 वर्षों तक चलता रहा।

प्रशासनिक सुधार

राज्य की आंतरिक तथा बाह्य सुरक्षा सुदृढ़ करने के बाद हरिहर प्रथम ने प्रशासन की ओर ध्यान दिया और संपूर्ण राज्य को काकतीय प्रशासनिक आदर्शों के अनुरूप स्थलों, नाडुओं तथा सीमाओं में विभाजित कर स्थानीय प्रशासन तथा राजस्व-संग्रह के लिए अधिकारियों की नियुक्ति की। उन्होंने राज्य की आर्थिक समृद्धि के लिए किसानों को राजस्व में रियायत देकर जंगलों को साफ कर खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया।

हरिहर प्रथम निःसंतान था। उन्होंने अपने जीवनकाल में ही बुक्का प्रथम को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। हरिहर प्रथम की 1356 ई. में मृत्यु हो गई। उसके बाद उनका अनुज बुक्का प्रथम विजयनगर राजगद्दी पर बैठा।

बुक्का राय प्रथम (1356-1377 ई.)

हरिहर प्रथम का उत्तराधिकारी उनका भाई बुक्का राय प्रथम (1356-1377 ई.) हुआ। यह भी अपने भाई के समान महान योद्धा, राजनीतिज्ञ तथा कुशल प्रशासक था। इसने प्रशासनिक व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए सबसे पहले अपने भतीजों के स्थान पर अपने पुत्रों को विभिन्न क्षेत्रों का प्रशासक नियुक्त किया। इसके बाद इसने सैन्य अभियान की योजना बनाई और अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। बुक्का राय प्रथम ने विद्यानगर का नाम परिवर्तित कर विजयनगर कर दिया।

बुक्का राय प्रथम की उपलब्धियाँ
संभुवराय के विरुद्ध सफल अभियान

हरिहर प्रथम ने संभुवराय को मदुरै के सुल्तान के चंगुल से छुड़ाकर उसके पैतृक राज्य पर प्रतिष्ठित किया था। किंतु लगता है कि कुछ समय बाद उसने विद्रोह कर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। फलस्वरूप, बुक्का राय प्रथम ने 1359-60 ई. में संभुवराय पर आक्रमण कर उसके राज्य को विजयनगर में मिला लिया। इस विजय के बाद विजयनगर राज्य की दक्षिणी सीमा दक्षिण पेन्नार तथा कोल्लिडम नदी तक पहुँच गई।

बहमनी के साथ संघर्ष

बुक्का राय प्रथम और बहमनी सुल्तान मुहम्मदशाह प्रथम के बीच 1367 ई. में रायचूर दोआब में स्थित मुद्गल के किले को लेकर युद्ध आरंभ हो गया। किंतु बहमनी के सुल्तान ने अपने बंदूकधारियों तथा अश्वारोहियों की सहायता से बुक्का को पराजित कर खदेड़ दिया। इस युद्ध में संभवतः पहली बार तोपखाने का प्रयोग किया गया था। बाद में मुहम्मदशाह बहमन भी अपनी अस्वस्थता के कारण पीछे हट गया। अंततः दोनों पक्षों में समझौता हो गया और कृष्णा नदी को दोनों राज्यों की सीमा मान लिया गया।

कोंडवीडु की विजय

बहमनी संघर्ष से मुक्त होने के बाद बुक्का राय प्रथम को कोंडवीडु के साथ संघर्ष में उलझना पड़ा। रेड्डि राज्य के संस्थापक प्रोलय वेंमा की 1355 ई. में मृत्यु के बाद उसका बेटा वीर अनपोत रेड्डि राज्याधिकारी बना था। बुक्का प्रथम ने इस पर आक्रमण कर अहोबलम तथा विनुकोंड पर अधिकार कर लिया।

मदुरै विजय

राजनारायण संभुवराय को पराजित करने तथा तोंडैमंडलम पर अपनी सत्ता स्थापित करने के फलस्वरूप बुक्का राय प्रथम का मदुरै के सुल्तान से संघर्ष होना अनिवार्य था, क्योंकि दोनों राज्यों की सीमाएँ समीप आ गई थीं।

बुक्का राय प्रथम के पुत्र कुमार कंपन के नेतृत्व में विजयनगर की सेना ने 1370 ई. में मदुरै पर आक्रमण कर दिया। कुमार कंपन की पत्नी गंगादेवी ने अपनी रचना मदुराविजयम् में कंपन की मदुराविजय का वर्णन किया है। पता चलता है कि इस युद्ध में मदुरै का सुल्तान पराजित हुआ और मारा गया। 1377 ई. में मदुरै को विजयनगर राज्य में मिला लिया। इस प्रकार सेतुबंध रामेश्वरम तक का संपूर्ण दक्षिण भारत विजयनगर साम्राज्य का अंग बन गया। संभवतः इसी विजय के उपलक्ष्य में बुक्का राय प्रथम ने ‘तीनों समुद्रों का स्वामी’ की उपाधि धारण की थी।

यद्यपि बुक्का राय प्रथम वैदिक धर्म का अनुयायी था और ‘वेदमार्ग प्रतिष्ठापक’ की उपाधि धारण की थी, किंतु एक धर्मसहिष्णु शासक के रूप में उसने जैनों और वैष्णवों के साथ-साथ अन्य सभी धर्मावलंबियों को समान रूप से संरक्षण प्रदान किया।

बुक्का राय प्रथम के काल में संस्कृत तथा तेलुगु साहित्य की विशेष उन्नति हुई। विद्यारण्य (माधवाचार्य) तथा सायणाचार्य के संरक्षण में संस्कृत साहित्य और महाकवि नचन सोम के निर्देशन में तेलुगु साहित्य के विकास को प्रोत्साहन मिला। उसके समय के एक अभिलेख में मालागौड़ नामक एक महिला के सती होने का उल्लेख मिलता है। इसने मैत्री-संबंध स्थापित करने के लिए 1374 ई. में चीन में एक दूतमंडल भेजा था।

बुक्का राय प्रथम की फरवरी 1377 ई. में मृत्यु के बाद उनकी गौरांबिका नामक पत्नी से उत्पन्न पुत्र हरिहर द्वितीय विजयनगर की राजगद्दी पर बैठा।

हरिहर द्वितीय (1377–1404 ई.)

बुक्का राय प्रथम का उत्तराधिकारी हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई.) एक महान विजेता था। उसने अपने भाइयों के सहयोग से कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली, काँची, चिंगलपुट आदि प्रदेशों पर अधिकार कर लिया और उत्तरी श्रीलंका पर भी अपनी विजय-पताका फहराई।

सैनिक उपलब्धियाँ

हरिहर द्वितीय को अपने पारंपरिक शत्रु बहमनी सुल्तान से निपटना पड़ा। 1375 ई. में मुहम्मदशाह प्रथम की मृत्यु के बाद उसका बेटा अलाउद्दीन मुजाहिदशाह बहमनी का सुल्तान हुआ। वह अपने राज्य की दक्षिणी सीमा का विस्तार कृष्णा नदी के बजाय तुंगभद्रा नदी तक करना चाहता था। इसके लिए उसने 1377 ई. में विजयनगर पर आक्रमण कर दिया।

बहमनी सुल्तान अपने इस अभियान में असफल रहा और चचेरे भाई दाऊद द्वारा मार दिया गया। इसके बाद बहमनी में अराजकता फैल गई, जिसका लाभ उठाकर हरिहर द्वितीय ने अपने मंत्री माधव की सहायता से उत्तरी कर्नाटक तथा कोंकण पर आक्रमण कर दिया।

विजयनगर की सेना ने बहमनी सेना (तुर्कों) को पराजित कर गोवा बंदरगाह के साथ-साथ चाउल तथा दबोल के महत्त्वपूर्ण दुर्गों पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार दक्कन के संपूर्ण पश्चिमी तट पर विजयनगर की अधिसत्ता स्थापित हो गई।

इसके बाद हरिहर द्वितीय ने 1382-83 ई. में विजयनगर राज्य की सीमा से सटे अड्डण्कि तथा वेलमों के श्रीशैलम प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

1390-91 ई. में वेलम शासक ने बहमनी के सुल्तान मुहम्मदशाह द्वितीय के साथ मिलकर उदयगिरि राज्य पर आक्रमण किया। किंतु विजयनगर की सेना ने आक्रमणकारियों को पराजित कर दिया और इस प्रकार वेलम एवं बहमनी शासकों का यह प्रयास भी व्यर्थ रहा।

बार-बार की पराजय से भी बहमनी के सुल्तान हार मानने वाले नहीं थे। बहमनी के नए सुल्तान ताजुद्दीनशाह (फिरोजशाह) ने, जो मुहम्मदशाह द्वितीय का दामाद था, 1398 ई. में न केवल सागर के दुर्ग पर पुनः अधिकार कर लिया, बल्कि कृष्णा नदी को पार कर विजयनगर को घेर लिया। अंततः हरिहर द्वितीय को 1400 ई. में बहमनी सुल्तान फिरोजशाह से पराजित होना पड़ा और एक अपमानजनक संधि के बाद भारी हर्जाना देना पड़ा।

प्रशासनिक सुधार

हरिहर द्वितीय ने सामान्य प्रशासन में तो कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया, किंतु पश्चिमी तट पर स्थित मंगलोर, बरकुर तथा गोवा जैसे महत्त्वपूर्ण प्रांतों के प्रशासन की जिम्मेदारी अपने विश्वस्त सरदारों को दी और अपने पुत्रों को केवल सुदूरवर्ती तथा पूर्वी तट के प्रांतों के प्रशासन से संबद्ध किया। उन्होंने तमिल देश का प्रशासन विरूपाक्ष प्रथम को, अर्कोट तथा होयसल क्षेत्र का प्रशासन इम्मादि बुक्का (बुक्का द्वितीय) को तथा उदयगिरि का प्रशासन देवराय प्रथम को सौंप दिया। यद्यपि हरिहर द्वितीय के शासनकाल तक यह व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रही, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद विजयनगर राज्य में भी गृहयुद्ध छिड़ गया।

हरिहर द्वितीय व्यक्तिगत रूप से शैव था और शिव के विरूपाक्ष रूप का उपासक था। उन्होंने ‘महाराजाधिराज’ और ‘राजपरमेश्वर’ की उपाधियाँ धारण की थीं। उनके अभिलेखों में विद्यारण्य को ‘सर्वोच्चतम प्रकाश का अवतार’ कहा गया है। हरिहर द्वितीय ने लगभग 1404 ई. तक शासन किया।

विरूपाक्ष प्रथम (1404-1405 ई.)

हरिहर द्वितीय की मृत्यु के बाद उनके पुत्रों—विरूपाक्ष प्रथम, इम्मादि बुक्का द्वितीय तथा देवराय प्रथम के बीच राजगद्दी के लिए संघर्ष प्रारंभ हो गया। किंतु विरूपाक्ष प्रथम (1404-1405 ई.) ने अपनी स्थिति मजबूत कर राजगद्दी प्राप्त कर ली और लगभग एक वर्ष शासन किया।

बुक्का द्वितीय (1406 ई.)

विरूपाक्ष प्रथम को अपदस्थ कर हरिहर द्वितीय के दूसरे पुत्र बुक्का द्वितीय ने (1406 ई.) विजयनगर की गद्दी पर अधिकार कर लिया। लेकिन एक वर्ष बाद ही देवराय प्रथम ने बुक्का द्वितीय को अपदस्थ कर विजयनगर का सिंहासन हथिया लिया।

देवराय प्रथम (1406-1422 ई.)

देवराय प्रथम विजयनगर का एक शक्तिशाली शासक था। बहमनी के सुल्तानों, राचकोंड के वेलम सरदारों तथा कोंडवीडु के रेड्डियों से लड़ते रहने के बावजूद वह अपनी सैनिक योग्यता और सूझबूझ के बल पर न केवल विजयनगर राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखने में सफल रहा, बल्कि उनका यथासंभव विस्तार भी किया।

देवराय प्रथम की उपलब्धियाँ
बहमनी से संघर्ष

देवराय प्रथम को बहमनी के आक्रमणों का सामना करना पड़ा। बहमनी के सुल्तान फिरोजशाह ने अपने वेलमों और कोंडवीडु के रेड्डियों को साथ लेकर विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। फिरिश्ता के अनुसार, वह बिना किसी व्यवधान के विजयनगर पहुँच गया। किंतु विजयनगर-बहमनी संघर्ष के स्वरूप तथा परिणाम के संबंध में निश्चितता के साथ कुछ कहना कठिन है।

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि सुल्तान नगर पर अधिकार करने में असफल रहा और अंततः खदेड़ दिया गया। किंतु अधिकांश इतिहासकारों का मत है कि देवराय प्रथम पराजित हुआ और उसने फिरोजशाह से अपनी पुत्री का विवाह करके रायचूर दोआब का बांकापुर क्षेत्र दहेज में दे दिया।

विजयनगर के विरुद्ध फिरोजशाह की अपेक्षा उसके सहायक वेलमों और रेड्डि सरदारों को इस अभियान में अधिक सफलता मिली। रेड्डियों ने कुडप्पा के दक्षिण-पूर्व स्थित पोट्टपिनाडु तथा पुलुगुलनाडु पर अधिकार कर लिया और लगभग सात वर्ष (1413-1414 ई.) तक अपने कब्जे में बनाए रखा।

अपने अंतिम समय में देवराय प्रथम ने फिरोजशाह बहमन को पराजित कर दिया और संपूर्ण कृष्णा-तुंगभद्रा दोआब पर पुनः अपनी सत्ता स्थापित कर ली।

पंगल (नलगोंड, पंगल) दुर्ग पर हरिहर द्वितीय के समय में 1398 ई. से ही विजयनगर का कब्जा था। इस दुर्ग की सामरिक महत्ता के कारण सुल्तान फिरोजशाह ने 1417 ई. में इस पर आक्रमण कर दिया और देवराय प्रथम को पराजित कर दिया।

राजमुंद्री में हस्तक्षेप

कोंडवीडु में कुमारगिरि रेड्डि की 1402 ई. में मृत्यु के बाद उसका भतीजा पेड़कोमति वेंमा राज्याधिकारी हुआ। रेड्डि राज्य के उत्तरी जिलों का प्रशासन कातय वेंमा सँभाल रहा था, जिसकी राजधानी राजमुंद्री थी। पेड़कोमति वेंमा ने वेलमों के साथ मिलकर कातय वेंमा को पदच्युत कर उसकी राजधानी पर कब्जा कर लिया। कातय वेंमा देवराय प्रथम का संबंधी था।

बहमनी से निपटने के बाद देवराय प्रथम ने कातय वेंमा की सहायता की और पेड़कोमति वेंमा को पराजित होकर भागना पड़ा। लेकिन बहमनी सुल्तान फिरोजशाह के अप्रत्याशित सैनिक हस्तक्षेप के कारण कातय वेंमा और विजयनगर की संयुक्त सेनाएँ पराजित हो गईं और कातय वेंमा मारा गया। इस पराजय के बाद देवराय प्रथम ने अतिरिक्त सेना भेजी, जिसने सेनानायक दोदय अल्ल के नेतृत्व में कुछ सफलताएँ प्राप्त की।

देवराय और गजपति शासक

राजमुंद्री में देवराय प्रथम के हस्तक्षेप से नाराज उड़ीसा के गजपति शासक भानुदेव चतुर्थ ने राजमुंद्री पर आक्रमण कर दिया। देवराय प्रथम ने तत्काल अपने मित्र की सहायता के लिए एक सेना भेजी। किंतु दोदय अल्ल की दूरदर्शिता से दोनों पक्षों में समझौता हो गया। हालांकि इस समय युद्ध टल गया, लेकिन इससे दोनों पक्षों में ऐसी दरार पड़ गई कि संपूर्ण पूर्वी तट अगली लगभग एक शताब्दी तक युद्ध में उलझा रहा।

संभवतः देवराय प्रथम की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि उनकी सेना का पुनर्गठन था। सेना में घुड़सवार सैनिकों और प्रशिक्षित तीरंदाजों के महत्त्व को समझते हुए उन्होंने फारस और अरब से बड़े पैमाने पर घोड़ों का आयात किया और पहली बार दस हजार तुर्क धनुर्धारियों की सेना में भर्ती की। इस प्रकार देवराय ने एक ऐसी सेना का निर्माण किया जो रणनीतिक और तकनीकी दृष्टि से खुले मैदानों में युद्ध के लिए पर्याप्त सक्षम थी।

देवराय प्रथम कुशल निर्माता भी था। नुनिज के अनुसार, बुक्का द्वितीय तथा देवराय प्रथम ने नई दीवारें तथा मीनारें बनवाई थीं। देवराय प्रथम ने सिंचाई की सुविधा तथा नगर में जल की आपूर्ति के लिए तुंगभद्रा नदी पर हरिहर बाँध बनवाकर 24 किमी लंबी नहर निकाली, जिससे 3 लाख 50 हजार पेरदा की आमदनी बढ़ गई थी।

देवराय प्रथम के काल में ही 1420 ई. में इटली का यात्री निकोलो कोंटी विजयनगर आया था। उसने इस नगर की बड़ी प्रशंसा की है और विजयनगर में मनाए जाने वाले दीपावली, नवरात्र आदि उत्सवों का भी वर्णन किया है।

धार्मिक दृष्टि से देवराय प्रथम परम शैव था और पंपा देवी का विशेष उपासक था। उनके शासनकाल में विजयनगर राज्य में कई मंदिरों का निर्माण हुआ, जिनके अवशेष आज भी विद्यमान हैं।

देवराय प्रथम निर्माता के साथ-साथ विद्याप्रेमी भी था। उन्होंने अनेक विद्वानों तथा साहित्यकारों को संरक्षण प्रदान किया था। देवराय प्रथम के विषय में कहा गया है कि सम्राट अपने राजप्रासाद के ‘मुक्ता मंडप’ में प्रसिद्ध व्यक्तियों को सम्मानित किया करता था। उन्होंने प्रसिद्ध तेलुगु कवि श्रीनाथ को संरक्षण दिया, जिन्होंने हरिविलासम् नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी। उनके समय में विजयनगर वास्तव में दक्षिण भारत का विद्या का केंद्र (विद्यानगर) बन गया था। देवराय प्रथम का स्वर्णिम शासनकाल 1422 ई. में उनकी मृत्यु के साथ समाप्त हो गया।

रामचंद्र राय (1422 ई.)

देवराय प्रथम के बाद विजयनगर के शासकों का अनुक्रम स्पष्टतः ज्ञात नहीं है। अभिलेखीय साक्ष्यों से पता चलता है कि देवराय प्रथम के बाद 1422 ई. में उनके दो पुत्र रामचंद्र तथा वीर विजय बुक्का राय (बुक्का राय तृतीय या विजय राय) एवं पौत्र देवराय द्वितीय तीनों एक ही समय शासन कर रहे थे।

विद्यारण्यकालज्ञान के अनुसार देवराय प्रथम के बाद ‘रा’ तथा ‘वि’ अक्षरों से प्रारंभ होने वाले नाम के राजाओं ने शासन किया। इससे स्पष्ट है कि देवराय प्रथम के बाद क्रमशः रामचंद्र एवं वीर विजय बुक्का राय ने शासन किया था। किंतु इनकी शासनावधि का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है। संभवतः रामचंद्र ने बहुत कम समय (मात्र छह माह) तक शासन किया।

वीर विजय बुक्का राय (1422-1430 ई.)

वीर विजय बुक्का राय 1422 ई. में विजयनगर साम्राज्य के राजा के रूप में अपने भाई रामचंद्र राय के उत्तराधिकारी बने। उनकी शासनावधि अभिलेखों के आधार पर आठ वर्ष (1422-1430 ई.) मानी जा सकती है। नुनिज के अनुसार, वीर विजय राय के शासनकाल में कोई महत्त्वपूर्ण घटना नहीं हुई, किंतु उनके शासनकाल की दो घटनाएँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। एक तो विजयनगर तथा बहमनी सुल्तान के मध्य संघर्ष, और दूसरी उड़ीसा के गजपति के साथ संघर्ष। इन दोनों में विजयनगर की ओर से मुख्य भूमिका देवराय द्वितीय ने निभाई थी।

वीर विजय बुक्का राय के शासनकाल में फिरोजशाह के भाई अहमदशाह बहमनी ने विजयनगर पर आक्रमण किया। कहा जाता है कि वारंगल के शासक के अचानक युद्ध मैदान में आ जाने के कारण विजयनगर की सेना पराजित हुई। विवश होकर वीर विजय बुक्का को संधि करनी पड़ी और एक बड़ी धनराशि युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में देनी पड़ी। किंतु कनारा जनपद से प्राप्त 1429-30 ई. के एक अभिलेख से पता चलता है कि देवराय द्वितीय ने तुर्कों (मुसलमानों) की शक्तिशाली अश्वारोही सेना को पराजित किया था।

वीर विजय बुक्का के काल में उड़ीसा के चतुर्थ भानुदेव ने वेलम सरदार के साथ मिलकर आंध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्र में रेड्डियों के राजमुंद्री और कोंडवीडु प्रदेश पर अधिकार कर लिया। बहमनी सुल्तान से निपटने के बाद देवराय द्वितीय ने भानुदेव चतुर्थ और उसके सहयोगी वेलमों को पराजित कर रेड्डि राज्य के कोंडवीडु वाले प्रदेश पर अधिकार कर लिया और राजमुंद्री का राज्य रेड्डियों को पुनः वापस दिलाया। इसके बाद देवराय द्वितीय जब तक जीवित रहे, कोंडवीडु पर विजयनगर की प्रभुसत्ता बनी रही।

इस प्रकार वीर विजय बुक्का राय ने अपने पुत्र देवराय द्वितीय के बल पर न केवल बहमनी सुल्तान अहमदशाह को कड़ी टक्कर दी, अपितु उड़ीसा के भानुदेव चतुर्थ और उसके सहयोगी वेलमों की शक्ति को भी नष्ट किया। उन्होंने राजमुंद्री पर वेलम तथा वीरभद्र को पुनर्प्रतिष्ठित कर कोंडवीडु पर अपने अधिकार को बनाए रखा।

वीर विजय बुक्का राय की 1430 ई. में मृत्यु हो गई और उनके पुत्र देवराय द्वितीय ने औपचारिक रूप से विजयनगर राज्य की सत्ता संभाली।

देवराय द्वितीय (1425-1446 ई.)

देवराय द्वितीय की गणना संगम वंश के महानतम शासकों में की जाती है। उन्होंने अपने पिता के जीवनकाल में सहशासक के रूप में बहमनी सुल्तान अहमदशाह और उड़ीसा के गजपति भानुदेव चतुर्थ एवं उसके सहयोगी वेलमों को पराजित कर अपनी योग्यता का परिचय दिया था। उन्होंने इम्मादि देवराय और गजबेटकार (हाथियों का शिकारी) की उपाधियाँ धारण की थीं।

देवराय द्वितीय की उपलब्धियाँ
बहमनी से संघर्ष

देवराय द्वितीय के शासनकाल के आरंभिक वर्षों में विजयनगर में शांति बनी रही। किंतु जब 1436 ई. में बहमनी सुल्तान अहमदशाह की मृत्यु के बाद उसका बेटा अलाउद्दीन अहमदशाह द्वितीय बहमनी की गद्दी पर बैठा, तो विजयनगर और बहमनी में पुनः संघर्ष प्रारंभ हो गया।

मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार, देवराय द्वितीय तथा बहमनी सुल्तान के बीच दो बार लड़ाई हुई। पहली लड़ाई द्वितीय अलाउद्दीन अहमदशाह के राज्य-ग्रहण के बाद लगभग 1436 ई. में और दूसरी इसके सात वर्ष बाद लगभग 1443-44 ई. में। दोनों लड़ाइयाँ मुद्गल तथा रायचूर दुर्ग के आसपास कृष्णा-तुंगभद्रा दोआब में केंद्रित थीं। यद्यपि युद्ध के परिणामों की सही सूचना नहीं है, किंतु लगता है कि 1436 ई. के पहले युद्ध में देवराय द्वितीय ने अहमदशाह प्रथम के हमले को नाकाम कर दिया और मुद्गल किले पर अपना अधिकार बनाए रखने में सफल रहे।

लेकिन 1443 ई. में देवराय द्वितीय को बहमनी सुल्तान के साथ एक अपमानजनक संधि करनी पड़ी और रायचूर दोआब के कुछ क्षेत्रों से हाथ धोना पड़ा। किंतु कुछ इतिहासकार मानते हैं कि बहमनी सुल्तान को विजयनगर के विरुद्ध कोई सफलता नहीं मिली थी और मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा देवराय द्वितीय की पराजय तथा अपमानजनक संधि मानने संबंधी दावा अतिशयोक्तिपूर्ण है।

राजमुंद्री राज्य में हस्तक्षेप

उड़ीसा के गजपति को देवराय द्वितीय ने 1427 ई., 1436 ई. और 1441 ई. में तीन बार पराजित किया। भानुदेव चतुर्थ को पदच्युत कर गजपति कपिलेंद्रदेव ने उड़ीसा की गद्दी पर बैठा था। उसने वेलमों के साथ मिलकर रेड्डियों के राज्य राजमुंद्री पर आक्रमण कर दिया। बहमनी सुल्तान के साथ संघर्ष में व्यस्त रहने के बावजूद देवराय द्वितीय की सेना ने मल्लप्पा उणैयर के नेतृत्व में गजपति कपिलेंद्रदेव और उसके सहयोगी वेलमों को पराजित कर राजमहेंद्रवाड़ी के रेड्डि साम्राज्य को उसकी पूर्वकालिक स्थिति में पुनर्स्थापित किया।

श्रीलंका के विरुद्ध अभियान

देवराय द्वितीय ने केरल की ओर बढ़कर क्विलनों के शासक तथा अन्य क्षेत्रीय सरदारों को पराजित किया। 1438 ई. के आसपास उन्होंने अपने दीवान तथा महादंडनायक लक्कनादेवराय या लक्ष्मण को नौसेना के साथ श्रीलंका के विरुद्ध भेजा। इस अभियान में विजयनगर के सैनिकों ने सिंहलियों को पराजित कर खिराज देने के लिए बाध्य किया। पुर्तगाली यात्री नुनिज ने भी लिखा है कि क्विलन (केरल क्षेत्र), श्रीलंका, पुलीकट (आंध्र), पेगू (बर्मा) और तेनसिरिम (मलाया) के राजा देवराय द्वितीय को भेंट देते थे। इस अभियान के समय अब्दुर रज्जाक (1443 ई.) विजयनगर में उपस्थित था। संभवतः इसी दक्षिणी विजय के कारण ही लक्कनादेवराय को अभिलेखों में ‘दक्षिणी समुद्रों का स्वामी’ कहा गया है।

इस प्रकार देवराय द्वितीय ने अपनी सैनिक क्षमता के बल पर दक्षिण में एक ऐसा विशाल साम्राज्य स्थापित किया, जो उत्तर में कृष्णा नदी से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक तथा पश्चिम में अरब सागर से लेकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत था।

देवराय द्वितीय एक कुशल सैनिक-संगठनकर्ता भी था। उनकी सेना में एक हजार लड़ाकू हाथी और ग्यारह लाख सैनिक थे। उन्होंने अपनी सैन्य-व्यवस्था को सुदृढ़ करने और अपने सैनिकों को प्रशिक्षित करने के लिए सेना में बड़ी संख्या में मुसलमान तीरंदाजों की भर्ती की और अच्छे अरबी घोड़ों का आयात किया।

राज्य की आर्थिक समृद्धि और वाणिज्य को नियमित करने के लिए देवराय द्वितीय ने लक्कनादेवराय को विदेश-व्यापार का भार सौंपा। उन्होंने राज्य की आमदनी बढ़ाने के लिए अपने राज्य में स्थित बंदरगाहों से कर वसूलने की व्यवस्था की।

देवराय द्वितीय के शासनकाल में कला एवं साहित्य के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति हुई। इसी काल में विजयनगर के प्रसिद्ध विठ्ठलस्वामी मंदिर के निर्माण-कार्य का प्रारंभ हुआ, जो बाद में अच्युतराय के समय आंशिक रूप से पूर्ण हुआ।

देवराय द्वितीय स्वयं विद्वान होने के साथ-साथ अनेक कन्नड़ तथा तेलुगु विद्वानों का आश्रयदाता था। इनमें लक्कनादेवराय, चामराज, जक्कनार्य तथा कुमार व्यास जैसे कन्नड़ कवि और श्रीनाथ जैसे तेलुगु कवि अधिक प्रसिद्ध हैं। तेलुगु कवि श्रीनाथ कुछ समय तक उनके राजकवि थे। कुमार व्यास ने कन्नड़ भाषा का प्रसिद्ध ग्रंथ भारत या कर्नाटभारतकथामंजरी लिखा।

देवराय द्वितीय स्वयं एक विद्वान था और उन्होंने कन्नड़ में सोबागिना सोने (रूमानी कहानियों का संग्रह), संस्कृत में महानाटक सुधानिधि तथा ब्रह्मसूत्र पर एक टीका की रचना की। हाथियों के शिकार की कला में महारत हासिल करने के कारण उन्हें ‘गजबेटेकार’ (हाथियों का शिकारी) कहा गया।

देवराय द्वितीय के काल में ही फारस के प्रसिद्ध यात्री अब्दुर रज्जाक (1443 ई.) ने विजयनगर की यात्रा की थी। उसने देवराय द्वितीय के शासन की बड़ी प्रशंसा की है और विजयनगर के संबंध में लिखा है कि ‘विजयनगर जैसा नगर न इस पृथ्वी पर कहीं देखा था और न सुना था।’ कुल मिलाकर देवराय द्वितीय के शासनकाल में विजयनगर ने आर्थिक और सांस्कृतिक समृद्धि के एक गौरवशाली युग में प्रवेश किया। 1446 ई. में इस महान शासक की मृत्यु हो गई।

विजय राय द्वितीय (1446 ई.)

प्रायः माना जाता है कि देवराय द्वितीय के बाद उनका पुत्र मल्लिकार्जुन राय उत्तराधिकारी बना। किंतु ऐसे साक्ष्य उपलब्ध हैं, जिनसे पता चलता है कि दोनों के बीच थोड़े समय के लिए (1446 ई.) देवराय द्वितीय के छोटे भाई विजय राय द्वितीय अथवा प्रतापदेव राय ने शासन किया था। एन. वेंकटरमणैय्या के अनुसार संभवतः विजय राय ने मल्लिकार्जुन राय से समझौता कर राजगद्दी छोड़ दी तथा पेनुकोंडा चला गया और वहाँ 1455 ई. तक शासन करता रहा।

मल्लिकार्जुन राय (1446–1465 ई.)

विजय राय द्वितीय के सिंहासन-परित्याग के बाद मई 1447 ई. में देवराय द्वितीय का बड़ा पुत्र मल्लिकार्जुन राय राजा बना। अभिलेखों में उन्हें मुम्मादि देवराय (तृतीय) अथवा मुम्मादि प्रौढ़ देवराय (तृतीय) भी कहा गया है।

मल्लिकार्जुन राय सैनिक दृष्टि से अयोग्य था। उनके समय से राज्य की केंद्रीकृत शक्ति में गिरावट आई और संगम वंश के ह्रास एवं पतन की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई। केंद्रीय शक्ति की दुर्बलता का लाभ उठाकर बहमनी सुल्तानों और उड़ीसा के शक्तिशाली गजपति शासक (कपिलेंद्रदेव) ने विजयनगर राज्य के बहुत से क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।

बहमनी सुल्तान ने मल्लिकार्जुन के शासन के प्रारंभ में ही वेलमों की राजधानी राजकोंडा पर कब्जा कर लिया। इसके बाद बहमनी सुल्तान अलाउद्दीन अहमदशाह द्वितीय तथा गजपति कपिलेंद्रदेव ने 1450 ई. में एक साथ विजयनगर पर आक्रमण किया। इस अवसर पर कपिलेंद्रदेव ने मल्लिकार्जुन से भारी जुर्माना वसूल किया। किंतु समसामयिक नाटककार गंगादेव के अनुसार 1454-55 ई. में कोंडवीडु सहित तटीय क्षेत्र मल्लिकार्जुन राय के अधिकार में था।

विजयनगर और उड़ीसा की लड़ाई यहीं समाप्त नहीं हुई। चार वर्ष बाद गजपति कपिलेंद्रदेव ने अपने पुत्र हमवीर के साथ पुनः विजयनगर के विरुद्ध जंग छेड़ दी और 1463 ई. के आसपास उदयगिरि, राजमुंद्री, कोंडवीडु, काँची और तिरुचिरापल्ली के रेड्डि राज्यों को जीत लिया। इन पराजयों से विजयनगर साम्राज्य की प्रतिष्ठा को भारी आघात पहुँचा। कपिलेंद्रदेव के पौत्र प्रतापरुद्रदेव के एक अभिलेख में गजपति राजा को ‘कर्नाटक राजा की भेड़ों के लिए जम्हाई लेने वाला शेर’ बताया गया है।

मल्लिकार्जुन राय की संभवतः जुलाई 1465 ई. में मृत्यु हो गई। वैष्णव ग्रंथ प्रपन्नामृतम् से पता चलता है कि मल्लिकार्जुन के चचेरे भाई विरूपाक्ष द्वितीय ने परिवार सहित उनकी हत्या कर राजगद्दी पर बलात् अधिकार कर लिया था।

विरूपाक्ष राय द्वितीय (1465-1485 ई.)

विरूपाक्ष द्वितीय (1465-1485 ई.) संगम राजवंश का अंतिम ज्ञात शासक है। वे राज्य-ग्रहण के पूर्व कई वर्षों तक पेनुकोंडा के गवर्नर रह चुके थे। किंतु इस दुर्बल और विलासी शासक के राज्यारोहण होते ही विजयनगर साम्राज्य में आंतरिक विद्रोह और बाह्य आक्रमण दोनों तीव्र हो गए।

विजयनगर राज्य की अराजकता का लाभ उठाकर बहमनी सुल्तान मुहम्मदशाह तृतीय के प्रधानमंत्री महमूद गवान ने गोवा पर अधिकार कर लिया। इससे विजयनगर की आर्थिक क्षति तो हुई ही, अच्छी नस्ल के घोड़ों की आमद भी प्रभावित हुई। इसके बाद चाउल तथा दाबोल भी विजयनगर के हाथ से निकल गए। महमूद गवान के सैनिक अभियान के फलस्वरूप विरूपाक्ष द्वितीय ने उत्तरी कोंकण के साथ-साथ उत्तरी कर्नाटक का अधिकांश हिस्सा भी खो दिया।

इन प्रतिकूल परिस्थितियों में चंद्रगिरि तालुक के प्रांतपति (सामंत) सालुव नरसिंह ने विजयनगर साम्राज्य की रक्षा की और शीघ्र ही वे विजयनगर राज्य के रक्षक के रूप में प्रसिद्ध हो गए। उन्होंने चित्तूर, अर्कोट और कोलार के साथ-साथ कृष्णा नदी के दक्षिण के प्रायः सभी तटीय क्षेत्रों को अपने अधीन कर लिया। सालुव नरसिंह ने गजपति कपिलेंद्रदेव को पराजित कर उदयगिरि पर अधिकार किया, तंजौर से पांड्यों को निकाल बाहर किया और मसुलीपट्टनम बंदरगाह तथा कोंडवीडु किले को जीत लिया। बाद में उन्होंने बहमनी सेना को पराजित कर साम्राज्य के पहले के अधिकांश नुकसानों की भरपाई की।

बाद में बहमनी के महमूद गवान की 1481 ई. में हत्या के बाद सालुव नरसिंह के सेनानायक ईश्वर नायक ने कंदुकुर पर आक्रमण कर इसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और वराहपुराणम् के अनुसार उदयगिरि, नेल्लोर, ओमुरु (चिंगलपुट), कोवेल (श्रीरंगम), कोंगु-धारापुरी, कुंडानि (सलेम), श्रीरंगपट्टनम, नागमंगलम, बंगलोर, पेनुकोंडा (अनंतपुर) तथा गंडिकोट (कुडप्पा) की विजय की। इस प्रकार सालुव नरसिंह एक प्रकार से संपूर्ण विजयनगर राज्य का वास्तविक शासक बन गए।

संगम राजवंश का अवसान

1485 ई. में संगम राजवंश के राजा विरूपाक्ष द्वितीय की हत्या उनके ही पुत्र ने कर दी और प्रौढ़ देवराय विजयनगर की गद्दी पर बैठा। इस समय विजयनगर साम्राज्य में चारों ओर अशांति व अराजकता का वातावरण था। प्रौढ़ देवराय के राज्यारोहण से विघटनकारी शक्तियाँ और प्रबल हो गईं और विजयनगर साम्राज्य में चारों ओर अशांति व अराजकता फैल गई।

नुनिज के विवरण से पता चलता है कि विजयनगर राज्य की रक्षा के लिए सालुव नरसिंह के सेनापति तुलुव ईश्वर नायक ने विजयनगर साम्राज्य पर अधिकार कर लिया और सालुव नरसिंह को राजगद्दी पर बैठने के लिए आमंत्रित किया। भयभीत राजा (प्रौढ़ देवराय) राजधानी छोड़कर भाग गया। इस घटना को विजयनगर साम्राज्य के इतिहास में ‘प्रथम बलोपहार’ कहा जाता है। इस प्रकार प्रौढ़ देवराय के पलायन के साथ संगम राजवंश का अंत हुआ और उसके स्थान पर सालुव राजवंश की स्थापना हुई।

सालुव राजवंश (1485-1505 ई.)

सालुव वंश का संस्थापक सालुव नरसिंह (1485-1491 ई.) था। इसने संगम वंश के अंतिम शासक प्रौढ़ देवराय को पदच्युत कर विजयनगर का सिंहासन ग्रहण किया था। इस राजवंश के प्रमुख शासक सालुव नरसिंह (1485-1491 ई.) और इम्मादि नरसिंह (1491-1505 ई.) थे।

सालुव नरसिंह (1485-1491 ई.)

सालुव नरसिंह चित्तूर जिले के चंद्रगिरि तालुक के सरदार सालुव गुंड का बड़ा पुत्र था। उन्हें मल्लिकार्जुन राय के काल में 1452 ई. में चंद्रगिरि के ‘महामंडलेश्वर’ की उपाधि मिली थी। सालुव नरसिंह ने प्रौढ़ देवराय को अपदस्थ कर विजयनगर साम्राज्य को विघटन से तो बचा लिया, लेकिन उन्हें स्वयं अपने सामंतों तथा सेनानायकों के विरोध का सामना करना पड़ा।

विद्रोही सामंतों के विरुद्ध अभियान

राज्य-ग्रहण करने के बाद सालुव नरसिंह को गोंडिकोट सीमा के पेरनिपाडु के संबेत, उम्मत्तूर तथा तालकाडु के पॉलीगारों तथा कुछ अन्य विद्रोही सामंतों से निपटना पड़ा। संबेत शिवराज अपने तमाम साथियों सहित मारा गया और मड्डिगुंडल दुर्ग पर सालुव नरसिंह का अधिकार हो गया। किंतु सालुव नरसिंह को उम्मत्तूर (मैसूर) तथा संगितपुर (तुलुनाडु) के पॉलीगारों से लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। अपने शासन के अंतिम दिनों में वे तुलुनाडु पर तो अधिकार करने में सफल रहे, किंतु उम्मत्तूर के राज्य पर अधिकार नहीं कर सके।

गजपति के साथ युद्ध

सालुव नरसिंह का गजपति कपिलेंद्रदेव के साथ युद्ध विनाशकारी साबित हुआ। 1489 ई. में उड़ीसा के गजपति शासक पुरुषोत्तमदेव ने विजयनगर पर आक्रमण कर गुंटूर जिले में विनुकोंडा तक तटीय आंध्र देश पर अधिकार कर लिया और उदयगिरि को घेरकर सालुव नरसिंह को बंदी बना लिया। अंततः उदयगिरि का किला तथा आसपास का प्रदेश पुरुषोत्तमदेव को सौंपने के बाद ही उन्हें कैद से मुक्ति मिल सकी। इस प्रकार उदयगिरि उनके हाथ से निकल गया।

पश्चिमी बंदरगाहों पर अधिकार

सालुव नरसिंह कन्नड़ क्षेत्र के मैंगलोर, भटकल, होन्नावर और बरकूर के पश्चिमी बंदरगाहों पर अधिकार करने में सफल रहे। इस सफलता के परिणामस्वरूप उन्होंने अरबों के साथ घोड़ों के व्यापार को पुनः आरंभ किया, जिससे उनकी घुड़सवार सेना और सुदृढ़ हो गई। नुनिज के अनुसार, ‘सालुव नरसिंह ओरमुज तथा अदन से घोड़े मँगवाता था तथा उनके व्यापारियों को मुँहमांगी कीमत अदा करता था।’

वास्तव में सालुव नरसिंह अपने वंश का संस्थापक होने के साथ-साथ इस वंश का सर्वाधिक योग्य शासक भी था। उन्होंने अधिकांश स्थानीय विद्रोह का दमन कर विजयनगर की राजनीतिक प्रतिष्ठा में वृद्धि की और विजयनगर की गरिमा को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने रामाभ्युदयम् के लेखक माधव संत श्रीपदाराय और कन्नड़ कवि लिंग को संरक्षण दिया। विजयनगर के उद्धारक सालुव नरसिंह की 1491 ई. में मृत्यु हो गई।

सालुव नरसिंह के उत्तराधिकारी

सालुव नरसिंह के दो पुत्र—थिम्मा भूपाल और इम्मादि नरसिंह थे। उन्होंने तुलुव ईश्वर के पुत्र एवं अपने विश्वसनीय सेनानायक नरसा नायक को इनका संरक्षक नियुक्त किया था।

थिम्मा भूपाल (1491 ई.)

सालुव नरसिंह की मृत्यु के बाद तुलुव नरसा नायक ने पहले अल्पवयस्क थिम्मा भूपाल (1491 ई.) को, जो पिता के काल में युवराज बना था, विजयनगर की गद्दी पर बैठाया और राज्य का सारा काम-काज स्वयं देखने लगा। किंतु शीघ्र ही नरसा नायक के एक प्रतिद्वंद्वी मंत्री तिम्मरस ने थिम्मा भूपाल की हत्या करवा दी। नरसा नायक ने थिम्मा के बाद उसके अनुज इम्मादि नरसिंह को विजयनगर का राजा बनाया।

इम्मादि नरसिंह राय द्वितीय (1491-1505 ई.)

विजयनगर का नया शासक इम्मादि नरसिंह राय द्वितीय भी अवयस्क था, इसलिए सेनानायक नरसा नायक ने उनकी संरक्षकता के बहाने शासन की सारी शक्ति अपने हाथों में केंद्रित कर ली। किंतु शीघ्र ही नरसा नायक और इम्मादि नरसिंह राय के बीच अनबन हो गई। विवाद इस हद तक बढ़ गया कि जब नरसा ने इम्मादि नरसिंह से तिम्मा भूपाल के हत्यारे मंत्री तिम्मरस को दंडित करने के लिए कहा, तो इम्मादि नरसिंह ने उसे दंड देने के बजाय उससे मित्रता कर ली। इससे क्षुब्ध होकर नरसा नायक पेनुकोंडा चला गया और एक सुदृढ़ सेना तैयार कर विजयनगर पर आक्रमण कर दिया।

भयभीत इम्मादि नरसिंह ने तिम्मरस को मृत्युदंड देकर नरसा नायक से समझौता कर लिया और उसे अपना संरक्षक मान लिया। अब नरसा नायक और शक्तिशाली हो गया और उसका प्रभाव पहले से भी अधिक बढ़ गया। अंततः किसी षड्यंत्र तथा विद्रोह की संभावना से बचने के लिए तुलुव नरसा ने 1494 ई. में इम्मादि नरसिंह को पेनुकोंडा में कड़ी सुरक्षा में बंद कर दिया और स्वयं उसके प्रतिनिधि के रूप में शासन करने लगा।

तुलुव नरसा नायक

तुलुव नरसा नायक विजयनगर साम्राज्य के तुलुव राजवंश का संस्थापक था। वे सम्राट कृष्णदेवराय के पिता थे। नरसा नायक अपने पिता तुलुव ईश्वर नायक की तरह विजयनगर साम्राज्य में एक सेनापति थे। उन्होंने विजयनगर राज्य में स्थिरता और शांति के लिए इम्मादि नरसिंह राय के संरक्षक के रूप में शासन की समस्त शक्तियाँ अपने हाथों में केंद्रित कर ली। उन्होंने सेनाधिपति, महाप्रधान तथा राजा के कार्यकर्ता के पदों पर कार्य किया और विजयनगर के रक्षाकर्ता और स्वामी की उपाधियाँ धारण कीं।

इम्मादि नरसिंह के प्रतिनिधि के रूप में तुलुव नरसा नायक ने दक्षिण भारत के राज्यों को अपने अधीन किया, बहमनी सुल्तानों और गजपतियों से विजयनगर की सफलतापूर्वक रक्षा की और स्वतंत्रता घोषित करने वाले विद्रोही सामंतों का दमन किया।

दक्षिण की विजय

सालुव नरसिंह के काल में 1463 ई. में कावेरी नदी के दक्षिण का क्षेत्र विजयनगर साम्राज्य के अधिकार से निकल गया था। नरसा नायक ने 1496 ई. में दक्षिण की ओर अभियान किया और त्रिची के सालास राय और तंजौर के विक्रमशाह जैसे विद्रोहियों को अपने अधीन किया। उन्होंने कावेरी के दक्षिण में केप कोमोरिन तक के पूरे क्षेत्र की विजय कर चोल, पांड्य तथा चेर राज्यों को अपनी अधीनता में ला लिया। इस प्रकार नरसा नायक तमिल प्रांतों पर नियंत्रण करने में सफल रहे।

होयसलों के विरुद्ध अभियान

नरसा नायक ने पश्चिमी तट पर कर्नाटक की ओर बढ़कर श्रीरंगपट्टनम पर अधिकार कर होयसल शासक नंजराज को कैद कर लिया और 1497 ई. में कर्नाटक पर अधिकार कर लिया।

कलिंग के गजपतियों पर विजय

नरसा नायक को उड़ीसा के गजपति शासक प्रतापरुद्रदेव के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा। गजपति प्रतापरुद्रदेव ने नवंबर 1496 ई. में एक विशाल सेना लेकर विजयनगर राज्य पर आक्रमण कर दिया और पेन्नार तक बढ़ आया। किंतु लगता है कि इस अभियान में प्रतापरुद्रदेव को कोई विशेष सफलता नहीं मिली और उसके राज्य की सीमा पहले के समान कृष्णा नदी बनी रही।

बहमनी राज्य से संघर्ष

नरसा नायक का सामना बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह से भी हुआ। नरसा नायक ने बहमनी सुल्तान महमूदशाह तृतीय के प्रधानमंत्री कासिम बरीद से मित्रता कर बीजापुर के यूसुफ आदिलशाह के विरुद्ध रायचूर दोआब पर आक्रमण कर क्षेत्र को तबाह कर दिया। किंतु कुछ आरंभिक सफलता के बाद अंततः विजयनगर की सेना को पीछे हटना पड़ा।

वास्तव में, नरसा नायक ने अपने शासन के अंत तक विजयनगर राज्य की उन्नति और समृद्धि के लिए हरसंभव प्रयत्न किया। उन्होंने एक सुदृढ़ प्रशासन और प्रभावी सेना का निर्माण किया, जिससे उनके योग्य पुत्र कृष्णदेवराय के अधीन विजयनगर के स्वर्णयुग का मार्ग प्रशस्त हुआ।

नरसा नायक विद्वानों का उदार संरक्षक भी था। उनके दरबार में विद्वानों तथा कवियों का जमघट लगा रहता था। उनके काल में कन्नड़ ग्रंथ जैमिनी भारतम् की रचना हुई। तेलुगु साहित्य के संवर्धन के लिए उन्होंने अपने दरबार में अनेक कवियों को आमंत्रित किया और उन्हें भूमि तथा धन देकर पुरस्कृत किया। नरसा नायक की 1503 ई. में मृत्यु हो गई।

तुलुव नरसा नायक की मृत्यु के बाद उनका बड़ा पुत्र इम्मादि नरसा नायक, जो वीरनरसिंह राय नाम से अधिक प्रसिद्ध है, इम्मादि नरसिंह का संरक्षक (प्रतिशासक) बना। यद्यपि इस समय इम्मादि नरसिंह वयस्क हो चुका था, लेकिन उसने वीरनरसिंह राय के संरक्षण में ही शासन करना उचित समझा। प्रतिशासक बनने के बाद वीरनरसिंह राय की महत्त्वाकांक्षा बढ़ गई और 1505 ई. में उन्होंने पेनुकोंडा के दुर्ग में कैद इम्मादि नरसिंह की हत्या करके राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। इस घटना को विजयनगर साम्राज्य के इतिहास में ‘द्वितीय बलोपहार’ कहा गया है।

इम्मादि नरसिंह के दुखद अंत के साथ विजयनगर के सालुव राजवंश का भी अंत हो गया तथा इसके स्थान पर तुलुव वंश की स्थापना हुई।

तुलुव राजवंश (1505–1570 ई.)

वीरनरसिंह राय ने 1505 ई. में इम्मादि नरसिंह राय की हत्या करके विजयनगर में एक नवीन राजवंश की स्थापना की, जिसे उनके पितामह तुलुव ईश्वर के नाम पर तुलुव वंश नाम से जाना जाता है। इस राजवंश ने लगभग सात दशक तक (1505-1570 ई.) शासन किया।

वीरनरसिंह राय (1505-1509 ई.)

तुलुव राजवंश के संस्थापक वीरनरसिंह राय (1505-1509 ई.) का शासनकाल आंतरिक विद्रोहों व बाह्य आक्रमणों से प्रभावित रहा।

कासप्पा उदैयार और आदिलशाह के विरुद्ध सफलता

वीरनरसिंह राय की पहली लड़ाई आदवनी के शासक कासप्पा उदैयार से हुई, जो उम्मत्तूर के पॉलीगारों तथा यूसुफ आदिलशाह का मित्र था। आदवनी दुर्ग के गवर्नर कासप्पा उदैयार ने यूसुफ आदिलशाह के साथ मिलकर विजयनगर पर आक्रमण कर कंडनवोलु (कुरनूल) दुर्ग को घेर लिया। इस युद्ध में अराविदु वंश के शासक रामराय प्रथम तथा उनके पुत्र तिम्मा ने वीरनरसिंह राय का साथ दिया और वे विजयी हुए। वीरनरसिंह राय ने रामराय प्रथम को आदवनी एवं कंडनवोलु का किला देकर पुरस्कृत किया और उनके पुत्र तिम्मा को नायक का नूपुर पहनाकर सम्मानित किया।

उम्मत्तूर एवं श्रीरंगम के विद्रोह

वीरनरसिंह राय को आदिलशाह के विरुद्ध व्यस्त देखकर उम्मत्तूर तथा श्रीरंगम के सामंतों ने भी विद्रोह कर दिया। यद्यपि वीरनरसिंह राय कर्नाटक के विद्रोहियों को दबाने में असफल रहे, किंतु पश्चिमी तट के विद्रोहियों के विरुद्ध उन्हें कुछ सफलता अवश्य मिली। घाट पार कर उन्होंने लगभग संपूर्ण तुलुनाडु प्रदेश पर अधिकार कर लिया। इतालवी यात्री वर्थेमा के अनुसार 1506 ई. में वीरनरसिंह राय ने एक बार पुनः गोवा पर अधिकार करने का प्रयत्न किया।

यद्यपि वीरनरसिंह राय अपने संपूर्ण शासनकाल में आंतरिक विद्रोहों के दमन और सैन्य अभियानों में व्यस्त रहे, फिर भी उन्होंने विजयनगर राज्य की सैन्य-व्यवस्था सुधारने का विशेष प्रयत्न किया। वीरनरसिंह ने बिना किसी भेदभाव के अपनी सेना में जवानों और प्रशिक्षकों की भर्ती की। अरबी घोड़े प्राप्त करने के लिए उन्होंने पुर्तगालियों के साथ मैत्री स्थापित करने का भी प्रयास किया।

वीरनरसिंह राय एक धार्मिक प्रवृत्ति के शासक थे। उन्होंने रामेश्वरम, श्रीरंगम, कुंभकोणम, चिदंबरम, श्रीशैलम, काँचीपुरम, कालहस्ती, महानंदी तथा गोकर्ण जैसे मंदिरों को उदारतापूर्वक दान दिया। उनके समय में प्रजा के कल्याण के लिए विवाह कर को समाप्त कर दिया गया था।

वीरनरसिंह राय की 1509 ई. में मृत्यु हो गई। स्थानीय परंपराओं से पता चलता है कि उन्होंने अपने चचेरे भाई कृष्णदेवराय को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था।

कृष्णदेवराय (1509-1529 ई.)

वीरनरसिंह राय के बाद उनका सौतेला भाई कृष्णदेवराय विजयनगर की राजगद्दी पर बैठा। उनका राज्याभिषेक शक संवत् 1432 की श्रीजयंती तिथि को तदनुसार (8 अगस्त 1509 ई.) संपन्न किया गया। नीलकंठ शास्त्री का मानना है कि राज्याभिषेक के लिए कृष्ण जन्माष्टमी की तिथि का चुनाव कृष्णदेवराय को कृष्ण का अवतार दिखाने के लिए किया गया था।

कृष्णदेवराय के राज्यारोहण के समय राजनीतिक परिस्थितियाँ सर्वथा प्रतिकूल थीं। उम्मत्तूर का विद्रोही सामंत मैसूर पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए सन्नद्ध था। गजपति प्रतापरुद्रदेव विजयनगर राज्य के उत्तरी पूर्वी जिलों पर अपना आधिपत्य जमाने के बावजूद खुली शत्रुता की नीति अपनाए हुए था। इसी प्रकार बहमनी राज्य के पाँच खंडों में बँट जाने के बावजूद बीजापुर के आदिलशाही वंश का संस्थापक यूसुफ अली विजयनगर राज्य पर अपनी अधिसत्ता स्थापित करने के लिए प्रयासरत था। पुर्तगाली भी कम चिंता के विषय नहीं थे।

कृष्णदेवराय की उपलब्धियाँ

कृष्णदेवराय विजयनगर के राजाओं में सर्वाधिक योग्य सिद्ध हुए। उन्होंने अपनी सामरिक कुशलता एवं राजनीतिमत्ता के बल पर न केवल स्थिति पर नियंत्रण स्थापित करने में सफलता प्राप्त की, बल्कि पुर्तगालियों को भी मैत्री-संबंध बनाए रखने पर विवश किया।

बहमनियों के विरुद्ध अभियान

बहमनी राज्य का प्रारंभ से ही विजयनगर से संघर्ष चलता आ रहा था। राज्य-ग्रहण के बाद कृष्णदेवराय को भी सबसे पहले बहमनी सुल्तानों से निपटना पड़ा। यूसुफ आदिलशाह के कहने पर महमूदशाह तृतीय ने 1509 ई. में विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। किंतु कृष्णदेवराय ने इस आक्रमण को विफल कर दिया और यूसुफ अली मारा गया। बाद में कृष्णदेवराय ने अपनी सैनिक-शक्ति सुदृढ़ कर 1512 ई. में कृष्णा-तुंगभद्रा रायचूर दोआब पर आक्रमण किया और रायचूर पर अधिकार कर लिया।

उम्मत्तूर का अधिग्रहण

बहमनी से निबटने के बाद कृष्णदेवराय ने उम्मत्तूर के पॉलीगारों के विरुद्ध अभियान किया, जो वीरनरसिंह राय के समय से ही कावेरी घाटी में स्वतंत्र शासक की हैसियत से शासन कर रहे थे। कृष्णदेवराय ने 1510 ई. से 1512 ई. तक उम्मत्तूर के शासक गंगराज के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही की और श्रीरंगपट्टनम, उम्मत्तूर तथा गंगराज की राजधानी शिवनसमुद्रम को तहस-नहस कर दिया। उन्होंने विजित प्रदेश को विजयनगर राज्य का नया प्रांत बनाया तथा श्रीरंगपट्टनम को इस नए प्रांत की राजधानी बनाकर सालुव गोविंदराय को इसका गवर्नर नियुक्त किया।

उड़ीसा से संघर्ष

उड़ीसा का गजपति शासक सालुव नरसिंह राय के समय से ही साम्राज्य के पूर्वी प्रांतों—उदयगिरि तथा कोंडवीडु पर अधिकार जमाए बैठे थे। कृष्णदेवराय ने उम्मत्तूर के विजय अभियान के बाद उड़ीसा के गजपति प्रतापरुद्रदेव को पराजित कर 1514 ई. में उदयगिरि, कोंडवीडु, बेजवाड़ा, कोंडपल्ली, नलगोंडा, वारंगल आदि दुर्गों पर अधिकार कर लिया।

कलिंग की ओर बढ़कर कृष्णदेवराय ने राजमुंद्री पर भी अधिकार कर लिया। अंततः प्रतापरुद्रदेव ने संधि कर ली और अपनी पुत्री का विवाह कृष्णदेवराय के साथ कर दिया। किंतु कृष्णदेवराय ने कृष्णा नदी के उत्तर का समस्त प्रदेश प्रतापरुद्रदेव को वापस कर दिया।

कुली कुतुबशाह से संघर्ष

उड़ीसा के गजपति प्रतापरुद्रदेव के विरुद्ध कृष्णदेवराय को व्यस्त देखकर तेलंगाना के कुतुबशाही शासक ने विजयनगर राज्य की सीमा पर स्थित पंगल तथा गुंटूर किलों पर कब्जा कर लिया और कोंडवीडु पर घेरा डाल दिया।

कृष्णदेवराय के प्रांतपति सालुव तिम्मा ने कुली कुतुबशाह की सेना को बुरी तरह पराजित कर उसके सेनानायक मदर-उल-मुल्क को बंदी बना लिया।

बीजापुर से संघर्ष

कृष्णदेवराय ने 1512 ई. में बीजापुर के अवयस्क सुल्तान इस्माइल आदिलशाह से रायचूर दुर्ग छीन लिया था। वयस्क होने पर आदिलशाह ने रायचूर पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया था। मार्च 1520 ई. में कृष्णदेवराय ने पुर्तगाली बंदूकधारियों की सहायता से बीजापुर के सुल्तान इस्माइल आदिलशाह को बुरी तरह पराजित किया और गोलकुंडा के दुर्ग को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।

बीजापुर पर अधिकार कर विजयनगर की सेना ने बहमनी की राजधानी गुलबर्गा (फूलों का शहर) को घेर लिया और अमीर बरीद-ए-मलिक को पराजित कर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद कृष्णदेवराय की विजयवाहिनी ने आगे बढ़कर ‘दक्कन की लोमड़ी’ कहे जाने वाले बीदर पर अधिकार कर बहमनी शासक महमूदशाह द्वितीय को अमीर बरीद-ए-मलिक के चंगुल से मुक्त कराया और पुनः उसके पैतृक सिंहासन पर बैठाया। इस उपलक्ष्य में कृष्णदेवराय ने ‘यवनराज्यस्थापनाचार्य’ की उपाधि धारण की।

सलुव तिम्मा का दमन

गुलबर्गा से वापस आने के बाद कृष्णदेवराय ने अपने छह वर्षीय पुत्र तिरुमलदेव महाराय को राजा बनाकर स्वयं प्रधानमंत्री बनकर शासन करने लगा। आठ माह बाद तिरुमलदेव महाराय बीमार पड़कर मर गया। तिरुमल की मृत्यु के बाद कृष्णदेवराय को पता चला कि सालुव तिम्मा ने उसे विष दिया था। फलस्वरूप, कृष्णदेवराय ने सालुव तिम्मा को सपरिवार जेल में डाल दिया। किंतु तीन वर्ष बाद तिम्मा दंडनायक किसी तरह जेल से निकलकर गूटी अथवा कोंडवीडु भाग गया और वहाँ के गवर्नरों के साथ मिलकर कृष्णदेवराय के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। कृष्णदेवराय ने अपने मंत्री रायसम अय्यंगार की सहायता से इस विद्रोह का दमन किया और तिम्मा दंडनायक तथा उसके पुत्र तिम्मरस को अंधा करके पुनः जेल में डाल दिया।

पुर्तगालियों से संबंध

मध्यकालीन भारतीय सेना की ताकत बहुत कुछ अश्वारोही सेना पर निर्भर थी। लेकिन पुर्तगालियों ने अरबी और फारसी व्यापारियों को पराजित कर घोड़ों के व्यापार पर एकाधिकार कर लिया था। सेना में घोड़ों की उपयोगिता को समझते हुए कृष्णदेवराय ने गोवा बंदरगाह से अरबी घोड़े प्राप्त करने के लिए पुर्तगालियों से संधि की और 1510 ई. में पुर्तगाली गवर्नर अल्बुकर्क के अनुरोध पर उन्हें भट्टकल में एक दुर्ग के निर्माण की अनुमति दी। किंतु यह मैत्री-संबंध व्यापारिक गतिविधियों तक ही सीमित रहा।

कृष्णदेवराय का मूल्यांकन

कृष्णदेवराय की गणना विजयनगर साम्राज्य के सर्वश्रेष्ठ शासकों में की जाती है। प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने एक-एक करके अपने सभी शत्रुओं को पराजित कर संपूर्ण दक्षिण में विजयनगर की सत्ता को स्थापित किया।

कृष्णदेवराय एक कुशल योद्धा एवं सेनानायक होने के साथ-साथ कुशल प्रशासक भी था। उनकी सैनिक एवं नागरिक प्रशासनिक क्षमता का प्रमाण उनका तेलुगु ग्रंथ अमुक्तमाल्यद है। अमुक्तमाल्यद के अनुसार, ‘शासक को तालाब तथा अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराकर प्रजा को संतुष्ट रखना चाहिए। विदेशी व्यापार के समुचित संचालन के लिए बंदरगाहों की व्यवस्था करनी चाहिए।’ कृष्णदेवराय ने कृषि की उन्नति और सूखी जमीनों की सिंचाई के लिए पुर्तगाली इंजीनियरों की सहायता से अनेक तालाब खुदवाए और नहरें बनवाईं। उनकी मजबूत सेना में लगभग 10 लाख सैनिक थे, जिसमें 32 हजार घुड़सवार, एक तोपखाना और हाथी भी थे।

कृष्णदेवराय महान योद्धा एवं कुशल प्रशासक होने के साथ-साथ विद्याप्रेमी और विद्वानों का आश्रयदाता भी था। विद्वानों को संरक्षण देने के कारण उन्हें ‘अभिनवभोज’ व ‘आंध्रभोज’ भी कहा जाता है। उन्होंने कन्नड़, तेलुगु, तमिल और संस्कृत के कवियों और विद्वानों को संरक्षण दिया। उनकी राजसभा में तेलुगु साहित्य के आठ विद्वान—अल्लसानी पेद्दना, नंदि थिम्मना, भट्टमूर्ति, धूर्जटि, मदय्यागरी मल्लन्ना, अय्यलराजु रामभद्र, पिंगली सुरीना तथा तेनाली रामकृष्ण रहते थे, जिन्हें ‘अष्टदिग्गज’ कहा जाता था।

तेलुगु कवि अल्लसानी पेद्दना उनके राजकवि थे, जिन्हें ‘तेलुगु कविता का पितामह’ (तेलुगु कविता के पिता) कहा जाता है। अल्लसानी पेद्दना ने स्वरचरित संभव या मनुचरित्रम् उनका लोकप्रिय प्रबंध काव्य है, जो कृष्णदेवराय को समर्पित था। नंदि थिम्मना ने पारिजातापहरणम्, मदय्यागरी मल्लन्ना ने राजशेखरचरित्रम्, धूर्जटि ने कालहस्तीमहात्म्यम्, अय्यलराजू रामभद्रुडु ने सकलकथासंग्रह और रामाभ्युदयम्, पिंगली सुरीना ने राघव पांडवियम्, कलापूर्णोदयम् और प्रभावती प्रद्युम्न की रचना की। राघव पांडवियम् एक दोहरे अर्थ की रचना है, जिसमें रामायण और महाभारत दोनों का वर्णन है। कलापूर्णोदयम् तेलुगु साहित्य का पहला काव्य उपन्यास माना जाता है। भट्टमूर्ति उर्फ रामराजभूषणुडु ने काव्यालंकारसंग्रह, वसुचरित्र, नरसाभूपालियम और हरिश्चंद्रोपाख्यानम् लिखा। हरिश्चंद्रोपाख्यानम् भी दोहरे अर्थ की रचना है, जो राजा हरिश्चंद्र और नल-दमयंती की कहानी एक साथ बताती है। कृष्णदेवराय के दरबारी तेनाली रामकृष्ण ने पहले एक शैव कृति उद्भटाराध्यचरित्रम् लिखा। बाद में उन्होंने वैष्णव ग्रंथ पांडुरंगमहात्म्यम् और घटिकाचलमहात्म्यम् की रचना की। पांडुरंगमहात्म्यम् की गणना तेलुगु भाषा के पाँच महाकाव्यों में की जाती है।

इनके अलावा, संकुशला नृसिंह (कविकर्ण रसायन), चिंतालपुड़ी इलया (राधामाधवविलास और विष्णुमायाविलास), मोल्ला (रामायण), कंसाली रुद्राय (निरंकुशोपाख्यान) और अडांकी गंगाधर (बसवपुराण) आदि अन्य प्रसिद्ध कवि थे। मनुमंछि भट्ट ने हयलक्षणशास्त्र नामक एक वैज्ञानिक ग्रंथ का लेखन किया था।

कृष्णदेवराय ने तमिल साहित्य के विकास में भी योगदान दिया और तमिल कवि हरिदास को संरक्षण दिया। संस्कृत में व्यासतीर्थ ने भेदोज्जीवन, तात्पर्यचंद्रिका, न्यायामृत और तारकाटांडव लिखा। कृष्णदेवराय स्वयं एक विद्वान थे, जिन्होंने प्रसिद्ध तेलुगु ग्रंथ अमुक्तमाल्यद (राजनीतिक ग्रंथ) की रचना की, जिसे विष्णुचित्तीय कहा जाता है। इसके अलावा, मदालसा चरित, सत्यवदुपरिणय, रसमंजरी और जाम्बवती कल्याण भी कृष्णदेवराय की रचनाएँ हैं।

एक महान निर्माता के रूप में कृष्णदेवराय ने माँ नागलम्मा के नाम पर राजधानी के दक्षिणी सीमांत पर नागलपुर नामक नया उपनगर बसाया और हजार स्तंभों वाले मंडपों एवं गोपुरों का निर्माण करवाया। उन्होंने श्रीशैलम मंदिर परिसर के कुछ हिस्सों के निर्माण में भी योगदान दिया। कृष्णदेवराय के समय में कृष्णास्वामी मंदिर के पास चट्टान काटकर बनाई गई नृसिंह की प्रतिमा क्षतिग्रस्त होने के बावजूद विशेष महत्त्वपूर्ण है।

कृष्णदेवराय को तताचार्य ने वैष्णव संप्रदाय में दीक्षित किया था, जो उनके राजगुरु भी थे। किंतु वे अन्य धर्मों के प्रति भी उदार थे। उनके काल में जैनों, बौद्धों, शैवों, लिंगायतों को ही नहीं, ईसाइयों, यहूदियों और मुसलमानों को भी पूरी धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। कृष्णदेवराय की 1529 ई. में मृत्यु हो गई, किंतु अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपने चचेरे भाई अच्युतदेवराय को चंद्रगिरि की जेल से मुक्त कर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

अच्युतदेवराय (1529-1542 ई.)

कृष्णदेवराय ने अपने चचेरे भाई (वैमात्रेय) अच्युतदेवराय को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। लेकिन उनका राज्यारोहण शांतिपूर्ण वातावरण में संपन्न नहीं हो सका। कृष्णदेवराय के दामाद आलिय रामराय ने रंगराय के पुत्र सदाशिव को राजपद दिलाने के लिए उसके शिशुपुत्र को राजा घोषित कर दिया, जबकि अच्युत का साला सलुवराजु तिरुमल ने अच्युत का समर्थन किया।

कृष्णदेवराय के प्रधानमंत्री सालुव नरसिंह ने आलिय रामराय के सत्ता हड़पने के षड्यंत्र को विफल कर दिया और जब तक अच्युतदेवराय चंद्रगिरि से राजधानी नहीं पहुँच गए, उन्होंने सिंहासन को खाली रखा। विजयनगर पहुँचने के पहले मार्ग में ही अच्युतदेवराय ने अपना राज्याभिषेक दो बार करवाया—एक तिरुपति में और दूसरा कालहस्ती में। किंतु राजधानी पहुँचकर अच्युत ने रामराय से समझौता कर उसे शासन में भागीदार बना लिया। कुछ दिन बाद शिशुपुत्र के काल-कवलित हो जाने से राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता समाप्त हो गई।

अच्युतदेवराय के राज्यारोहण के समय उत्पन्न राजनीतिक अराजकता का लाभ उठाकर विद्रोही शक्तियाँ एक बार पुनः सक्रिय हो गईं। उड़ीसा के गजपति प्रतापरुद्रदेव और बीजापुर के इस्माइल आदिलशाह ने विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। अच्युतदेवराय ने विजयनगर के पूर्वोत्तर सीमा पर किए गए गजपति प्रतापरुद्रदेव के आक्रमण को तो विफल कर दिया, लेकिन इस्माइल आदिलशाह ने रायचूर तथा मुद्गल पर अधिकार कर लिया।

अच्युतदेवराय को गोलकुंडा से भी निपटना पड़ा। गोलकुंडा के सुल्तान कुली कुतुबशाह ने कोंडवीडु पर आक्रमण किया। लेकिन विजयनगर की सेनाओं ने गोलकुंडा की सेनाओं को बुरी तरह पराजित कर खदेड़ दिया।

रायचूर तथा मुद्गल पर इस्माइल आदिलशाह के अधिकार से अच्युतदेवराय बहुत चिंतित थे। अंततः उन्होंने बीजापुर की आंतरिक गड़बड़ी का लाभ उठाते हुए 1534 ई. में रायचूर तथा मुद्गल पर पुनः अधिकार कर लिया।

अच्युतदेवराय तथा रामराय के समझौते से क्षुब्ध होकर सालुव नरसिंह राजधानी छोड़कर दक्षिण चला गया था। उन्होंने उम्मत्तूर एवं दक्षिणी त्रावणकोर के तिरुवाडि राज्य के सामंतों के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया और पांड्य शासक को अपदस्थ कर दिया।

अच्युतदेवराय ने अपने साले सलुवराजु तिरुमल की सहायता से विद्रोह का दमन कर सालुव नरसिंह को कैद कर लिया और अपदस्थ पांड्य शासक को पुनः गद्दी पर बैठाया। इस सहायता के बदले पांड्य शासक ने अपनी पुत्री का विवाह अच्युतदेवराय के साथ कर दिया।

इस प्रकार अच्युतदेवराय ने प्रायः अपने सभी शत्रुओं के विरुद्ध सफलता प्राप्त की। लेकिन 1530 के दशक के अंत, 1536-37 ई. के आसपास आलिय रामराय ने उन्हें बंदी बनाकर स्वयं को राजा घोषित कर दिया। जब सामंतों ने रामराय का कड़ा विरोध किया, तो उन्होंने अच्युतदेवराय के भतीजे सदाशिव को राजा बनाकर संपूर्ण शक्ति अपने हाथ में ले ली। अच्युतदेवराय को पेनुकोंडा के किले में बंद कर दिया गया।

इसी समय सुदूर दक्षिण में अचानक विद्रोह हो गया और रामराय को दक्षिण जाना पड़ा। उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर रामराय के सेवक ने अच्युतदेवराय को कैद से मुक्त कर दिया और स्वयं उनका प्रधानमंत्री बन गया। लेकिन सलुवराजु तिरुमल ने सेवक की हत्या कर दी और राजसत्ता अपने हाथ में ले ली। सदाशिव को गूटी के किले में बंद कर दिया गया।

रामराय बड़ी शीघ्रता से दक्षिण से विजयनगर वापस आया। तभी बीजापुर के नए सुल्तान इब्राहीम आदिलशाह ने विजयनगर पर आक्रमण कर नागलापुर को ध्वस्त कर दिया। संयोग से इसी दौरान बुरहान निजामशाह ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और इब्राहीम आदिलशाह को तत्काल विजयनगर से हटना पड़ा। लेकिन जाते-जाते उसने अच्युतदेवराय और रामराय के बीच समझौता करा दिया। समझौते में यह तय हुआ कि अच्युतदेवराय नाममात्र का राजा रहेगा और रामराय बिना किसी हस्तक्षेप के राज्य का संचालन करेगा। इस प्रकार अच्युतदेवराय ने नाममात्र का शासक बने रहने के लिए अपनी संप्रभुता को अपने संरक्षक को सौंप दिया।

अच्युतदेवराय का संपूर्ण शासनकाल आंतरिक विद्रोहों, विदेशी आक्रमणों और राजनीतिक कुचक्रों के कारण संघर्षों में व्यतीत हुआ, जिससे वाणिज्य-व्यापार की बड़ी हानि हुई। सलुवराजु तिरुमल के अल्पकालिक संरक्षणकाल में दक्षिण में मदुरै, जिंजी तथा संजवर जैसे राज्य स्वतंत्र होने लगे थे। पुर्तगालियों ने तूतीकोरिन के मोती उत्पादक क्षेत्रों पर अपना अधिकार बढ़ा लिया।

अच्युतदेवराय ने प्रशासन को नियंत्रित करने के लिए ‘महामंडलेश्वर’ नामक एक नए अधिकारी की नियुक्ति की। उनके दरबारी कवि राजनाथ डिंडिम ने उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित अच्युतरायाभ्युदय नामक संस्कृत काव्य की रचना की। उनके शासनकाल में 1535 ई. में पुर्तगाली यात्री फर्नाओ नुनिज ने विजयनगर की यात्रा की थी। अच्युतदेवराय की 1542 ई. में मृत्यु हो गई और उनका नाबालिग पुत्र वेंकट प्रथम उनके साले सलुवराजु तिरुमल के संरक्षण में राजा बना।

वेंकट प्रथम (1542 ई.)

अच्युतदेवराय के अवयस्क पुत्र वेंकट प्रथम (1542 ई.) के राजा बनने पर शासन की वास्तविक शक्ति उनके मामा सलुवराजु तिरुमल के हाथों में रही। राजमाता वरदांबिका (वरदादेवी) ने अपने पुत्र वेंकट को भाई सलुवराजु तिरुमल के चंगुल से छुड़ाने के लिए बीजापुर के सुल्तान इब्राहीम आदिलशाह से सहायता मांगी। इब्राहीम आदिलशाह राजमाता की सहायता के लिए चले, किंतु रास्ते में ही तिरुमल ने धन देकर उसे वापस कर दिया। आलिय रामराय ने तिरुमल की चाल को विफल करने के लिए गूटी में कैद सदाशिव को राजा घोषित कर दिया और इब्राहीम आदिलशाह से सहायता की अपील की। आदिलशाह ने विजयनगर पर आक्रमण तो किया, लेकिन सलुवराजु तिरुमल ने उसे विफल कर दिया। इसके बाद सलुवराजु ने वेंकट प्रथम सहित सिंहासन के सभी दावेदारों की हत्या कर दी और संपूर्ण शाही शक्तियों पर अधिकार कर लिया। केवल अच्युत का भतीजा सदाशिव (रंगराय का पुत्र) बच गया, जो गूटी के किले में कैद था।

अंततः आलिय रामराय ने अपने भाइयों (तिरुमल और वेंकटांद्रि) और गंडिकोटा किले के नायक एर तिम्मनायुडु जैसे समर्थकों की सहायता से पेनुकोंडा पर आक्रमण कर सलुवराजु तिरुमल को मौत के घाट उतार दिया और रंगराय के पुत्र सदाशिव को गूटी के किले से लाकर 1543 ई. में विजयनगर की राजगद्दी पर बैठा दिया।

सदाशिव राय (1542-1570 ई.)

सदाशिव राय तुलुव राजवंश का अंतिम ज्ञात शासक है। वे नाममात्र के शासक थे और शासन की वास्तविक सत्ता अराविदु वंशीय आलिय रामराय के ही हाथों में केंद्रित रही।

आलिय रामराय (1542-1565 ई.)

अराविदु वंशीय रामराय की गणना विजयनगर साम्राज्य के कुशल शासकों में की जाती है। रामराय पहले गोलकुंडा के शाही दरबार में सेवा कर चुके थे। उन्होंने कठपुतली सदाशिव राय (1542-1570 ई.) को कड़े पहरे में रखकर वास्तविक शासक के रूप में शासन किया, शाही उपाधियाँ धारण कीं और विजयनगर साम्राज्य के खोए हुए गौरव को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया।

प्रशासनिक सुधार

सदाशिव के राज्यारोहण के बाद रामराय ने सर्वप्रथम प्रचलित शासन प्रणाली में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए और सभी महत्त्वपूर्ण पदों पर अपने विश्वासपात्रों की नियुक्ति की। उन्होंने राज्य की सेना में बड़ी संख्या में मुसलमान सैनिकों की भर्ती कर अपनी सैनिक शक्ति को सुदृढ़ किया।

दक्षिण के विद्रोह

सदाशिव के राज्यारोहण के कुछ दिन बाद ही रामराय को संघर्षों में उलझना पड़ा। दक्षिण में बावनकोर के शासकों ने विद्रोह कर राज्य के पांड्य सामंत कायत्तार प्रमुख को भगा दिया। इसी समय संत फ्रांसिस ज़ेवियर के नेतृत्व में ईसाई धर्म प्रचारक मन्नार की खाड़ी के तटवर्ती निवासियों को ईसाई धर्म में दीक्षित कर रहे थे और उनके अनुयायी तटीय भाग के मंदिरों को ध्वस्त करके गिरिजाघरों का निर्माण करने लगे थे।

रामराय ने अपने चचेरे भाई चिन तिम्मा को एक बड़ी सेना के साथ दक्षिण के उपद्रवों पर काबू पाने के लिए भेजा। चंद्रगिरि पर अधिकार करने के बाद चिन तिम्मा ने चोल देश के भुवनगिरि किले पर आक्रमण किया। फिर वह समुद्र के किनारे-किनारे कावेरी नदी पार कर नागापट्टिनम बंदरगाह पहुँचे। वहाँ उन्होंने ईसाइयों द्वारा ध्वस्त किए गए रंगनाथ मंदिर का पुनरुद्धार करवाया और तंजौर तथा पुडुक्कोट्टई प्रदेश के स्थानीय सामंतों को अपने अधीन किया।

विजयनगर के सैनिकों ने अपदस्थ पांड्य शासक को पुनर्स्थापित किया और बावनकोर के विद्रोही सामंतों का दमन किया। इसके बाद विजयनगर की सेनाओं ने त्रावणकोर के राजा को अपने अधीन कर कुमारी अंतरीप में अपना विजय-स्तंभ स्थापित किया। अपने भाई विठ्ठल को विजित प्रांतों का प्रभारी बनाकर चिन तिम्मा विजयनगर वापस लौट आए।

रामराय और पुर्तगाली

पुर्तगालियों के साथ रामराय के संबंध सदैव अच्छे नहीं रहे। जब 1542 ई. में मार्टिन अफोंसो डी सौजा गोवा का गवर्नर नियुक्त हुआ, तो संबंधों में और कड़वाहट आई। उनके उत्तराधिकारी जोआओ डी कास्ट्रो के समय (1546 ई.) रामराय ने पुर्तगालियों से एक संधि की, जिसके अनुसार उन्हें घोड़ों के व्यापार का एकाधिकार मिल गया। लेकिन यह संधि अधिक दिन तक कायम न रह सकी और 1558 ई. में रामराय ने अचानक सेंट थॉमस पर आक्रमण कर दिया। लगभग इसी समय उनके भाई विठ्ठल ने गोवा पर आक्रमण कर दिया। दोनों अभियानों में विजयनगर के सैनिकों को सफलता मिली।

रामराय और दक्कन की सल्तनतें

विजयनगर का प्रतिद्वंद्वी बहमनी राज्य 1518 ई. में पाँच राज्यों—गोलकुंडा, बीजापुर, बीदर, बरार और अहमदनगर में बँट चुका था, जिन्हें ‘दक्कन सल्तनतें’ कहा जाता था। रामराय ने विजयनगर की पारंपरिक तटस्थता की नीति का परित्याग कर दक्कन सल्तनतों की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप शुरू कर दिया और ‘लोहे से लोहा काटने’ की नीति अपनाई।

1542 ई. में बीजापुर तथा अहमदनगर के राजाओं ने आपसी मतभेद भुलाकर अदोनी के दुर्ग पर आक्रमण कर दिया और रामराय को आदिलशाह से समझौता करना पड़ा। 1542-43 ई. में बीजापुर के आदिलशाह ने पुनः अहमदनगर के बुरहान निजामशाह के साथ मिलकर विजयनगर के कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

रामराय ने कूटनीति से अहमदनगर तथा बीजापुर में फूट पैदा कर दी और बुरहान निजामशाह को अपनी ओर मिलाकर 1552 ई. में रायचूर और मुद्गल पर अधिकार कर लिया। रामराय ने 1553 ई. में बीजापुर के विरुद्ध अहमदनगर और गोलकुंडा से संधि कर ली। किंतु जब अहमदनगर के हुसैन निजामशाह प्रथम (1553-1565 ई.) ने 1558 ई. में बीजापुर पर आक्रमण कर गुलबर्गा को घेर लिया, तो सुल्तान आदिलशाह ने रामराय से सहायता मांगी।

रामराय ने अपने पुराने शत्रु बीजापुर की सहायता की और अहमदनगर का विध्वंस कर उसे अपमानजनक संधि करने पर विवश किया। इस प्रकार रामराय की कूटनीति के कारण 1560 ई. तक विजयनगर दक्षिण की सर्वोच्च शक्ति बन गया। अब अहमदनगर, गोलकुंडा तथा बीदर की शक्ति समाप्त हो गई और बीजापुर विजयनगर की दया पर आश्रित था।

अंततः आलिय रामराय की दक्षिणी नीति और अहमदनगर के विध्वंस से भयभीत दक्षिण की सल्तनतों ने आपसी मतभेदों को भुलाकर दक्कनी महासंघ का गठन किया और विजयनगर साम्राज्य के अस्तित्व को चुनौती दी।

तालीकोटा (रक्षसी-तंगड़ी) का युद्ध (1565 ई.)

तालीकोटा का युद्ध 1565 ई. में विजयनगर और दक्कन की सल्तनतों के बीच हुआ था। इस युद्ध को ‘राक्षसी तंगड़ी का युद्ध’ और ‘बन्नीहट्टी का युद्ध’ के नाम से भी जाना जाता है। फिरिश्ता के अनुसार, इस युद्ध का कारण रामराय द्वारा अहमदनगर पर आक्रमण के दौरान मुस्लिम स्त्रियों तथा इस्लाम धर्म को अपमानित करना और मस्जिदों को ध्वस्त किया जाना था। किंतु असल कारण यह था कि विजयनगर की उभरती शक्ति से दक्षिण के मुस्लिम शासक भयभीत थे। उन्हें आभास हो गया कि यदि विजयनगर की वर्द्धमान शक्ति को तत्काल कुचला नहीं गया, तो वह दिन दूर नहीं जब दक्षिण की सारी सल्तनतें मिट्टी में मिल जाएँगी। फलस्वरूप, पुराने आपसी मतभेदों को भुलाकर दक्षिण की चार सल्तनतों—बीजापुर, अहमदनगर, गोलकुंडा तथा बीदर ने विजयनगर के विरुद्ध आदिलशाह के नेतृत्व में एक दक्कनी महासंघ का निर्माण किया। केवल बरार इस महासंघ में शामिल नहीं हुआ था। तालीकोटा के युद्ध के लिए दक्षिण की सल्तनतें जितनी उत्तरदायी थीं, उतना ही रामराय की नीतियाँ भी उत्तरदायी थीं। यदि उन्होंने दक्षिणी राज्यों के आंतरिक मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप न किया होता, तो शायद इस युद्ध की नौबत न आती।

तालीकोटा युद्ध के तात्कालिक कारण के संबंध में पता चलता है कि दक्कन संयुक्त संघ के अगुआ अली आदिलशाह ने रामराय से रायचूर, मुद्गल आदि दुर्गों की मांग की। जब रामराय ने इस मांग को ठुकरा दिया, तो दक्षिण के सुल्तानों की संयुक्त सेना ने विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। 26 दिसंबर 1564 ई. को दक्कनी महासंघ की सेनाएँ तालीकोटा पहुँच गईं। यद्यपि इस समय विजयनगर का शासक सदाशिव राय था, किंतु विजयनगर की सेना का नेतृत्व रामराय कर रहे थे। लगभग एक माह के छिटपुट आक्रमण-प्रत्याक्रमण के बाद 23 जनवरी 1565 ई. को तालीकोटा के समीप राक्षसी-तंगड़ी नामक स्थान पर दोनों पक्षों की सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ।

यद्यपि रामराय की अगुआई में विजयनगर की सेना ने अपनी पूरी शक्ति से आक्रमणकारियों का सामना करने का प्रयास किया, किंतु दक्कनी महासंघ के हमले इतने तीव्र और घातक थे कि विजयनगर के सैनिक भयभीत होकर युद्ध-क्षेत्र से भाग खड़े हुए। हुसैन निजामशाह ने रामराय का सिर धड़ से अलग कर दिया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि विजयनगर की सेना युद्ध जीत रही थी, लेकिन अंतिम समय में उसकी सेना के दो मुसलमान सेनानायकों ने पक्ष बदल लिया, जिससे विजयनगर की सेना तितर-बितर होकर पराजित हो गई।

रामराय की पराजय और उनकी मृत्यु के बाद आक्रमणकारियों ने विजयनगर के शानदार और खुशहाल नगर को निर्ममता पूर्वक लूटा, नष्ट किया और फिर उसे खाक में मिला दिया। ए फारगॉटेन एम्पायर में रॉबर्ट सेवेल लिखते हैं कि ‘संसार के इतिहास में कभी भी इतने वैभवशाली नगर का इस प्रकार सहसा सर्वनाश नहीं किया गया, जैसा विजयनगर का हुआ।’ इस युद्ध ने विजयनगर राज्य की सैनिक शक्ति और उसकी समृद्धि को पूरी तरह नष्ट कर दिया। रामराय का भाई तिरुमल बंदी राजा सदाशिव और राजकीय खजाने को लेकर पेनुकोंडा भाग गया।

यद्यपि रामराय के शासन की समाप्ति ऐसी महान सैनिक विपदा के साथ हुई, जिसने विजयनगर को पूरी तरह बर्बाद कर दिया, किंतु उनका शासन निःसंदेह अभूतपूर्व ऐश्वर्य से संपन्न था।

रामराय महान योद्धा और कूटनीतिज्ञ होने के साथ-साथ विद्याप्रेमी तथा विद्वानों के संरक्षक थे। उनके समय में संस्कृत तथा तेलुगु साहित्य की पर्याप्त उन्नति हुई। व्यक्तिगत रूप से वैष्णव होते हुए भी वे परम धर्मसहिष्णु थे। युद्धों में व्यस्त होते हुए भी उन्होंने सदा प्रजा-हित को सर्वोपरि रखा। इसीलिए रामराय को ‘महान रामराय’ कहा जाता था।

अरविदु राजवंश (1570–1646 ई.)

तालीकोटा का युद्ध विजयनगर साम्राज्य के जीवन का संकटकाल था, किंतु अंतिम संकटकाल नहीं। तालीकोटा के प्रतिकूल परिणामों के बावजूद विजयनगर साम्राज्य लगभग एक शताब्दी तक अस्तित्व में बना रहा। तिरुमलदेव के सहयोग से सदाशिव ने पेनुकोंडा को राजधानी बनाकर नए सिरे से शासन प्रारंभ किया। किंतु प्रशासन की संपूर्ण शक्ति रामराय के भाई तिरुमलदेव के हाथ में केंद्रित थी।

अंततः तिरुमलदेव ने 1570 ई. के आसपास सदाशिव को अपदस्थ कर पेनुकोंडा पर अधिकार कर लिया और स्वयं को विजयनगर का शासक घोषित कर दिया। इस प्रकार तुलुव वंश का अंत हो गया और विजयनगर के चतुर्थ राजवंश अरविदु वंश की स्थापना हुई।

तिरुमलदेव राय (1570-1572 ई.)

अरविदु राजवंश के संस्थापक आलिय रामराय के भाई तिरुमलदेव राय की राजधानी पेनुकोंडा थी। उन्होंने विजयनगर की सीमा का विस्तार करना आरंभ किया। तालीकोटा के युद्ध के बाद दक्कनी सल्तनतों में पुनः आपसी मतभेद पैदा हो गया, जिससे विजयनगर साम्राज्य को पुनः शक्ति प्राप्त करने का अवसर मिल गया। सल्तनतों के मतभेद का लाभ उठाकर तिरुमलदेव ने विजयनगर राज्य के अधिकांश हिस्से पर अधिकार कर लिया।

चूंकि तिरुमलदेव ने विषम परिस्थितियों में गद्दी हासिल की थी, इसलिए उन्होंने अपने तीनों पुत्रों—श्रीरंग प्रथम, राम तथा वेंकट द्वितीय (वेंकटपति) को क्रमशः तेलुगु क्षेत्र, कलिंग योजन तथा तमिल क्षेत्र का प्रशासन सौंप दिया, जिनकी राजधानियाँ क्रमशः पेनुकोंडा, श्रीरंगपट्टनम तथा चंद्रगिरि थीं।

तिरुमलदेव कुछ विद्रोहों को दबाने तथा पेनुकोंडा पर मुसलमानों के आक्रमण को रोकने में सफल रहे, इसलिए उन्होंने ‘पतनशील कर्नाटक राज्य का उद्धारक’ की उपाधि धारण की थी। भट्टमूर्ति ने अपना ग्रंथ वसुचरितम् तिरुमलदेव को ही समर्पित किया है। 1572 ई. के आसपास तिरुमलदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीरंग प्रथम को राजगद्दी सौंपकर शासन से अवकाश ले लिया।

श्रीरंग प्रथम (1572-1586 ई.)

श्रीरंग प्रथम का शासनकाल (1572-1586 ई.) अत्यंत संकटपूर्ण रहा। यद्यपि उन्होंने विजयनगर साम्राज्य के पुनरुद्धार की कोशिश की और उदंड मावरों का दमन किया तथा मुसलमानों से अहोबलम जिला पुनः जीत लिया, किंतु पड़ोसी बीजापुर तथा गोलकुंडा के सुल्तानों की सैनिक कार्रवाइयों के कारण उन्हें अपने राज्य के कुछ क्षेत्रों को खोना पड़ा और विजयनगर साम्राज्य और संकुचित हो गया। 1586 ई. में श्रीरंग प्रथम की मृत्यु हो गई।

वेंकट द्वितीय (1586-1614 ई.)

श्रीरंग प्रथम निःसंतान थे, इसलिए उनकी मृत्यु के बाद उनका छोटा भाई वेंकट द्वितीय (1586-1614 ई.) जग्गदेव राय की सहायता से शासक बना। वेंकट द्वितीय अरविदु वंश का अंतिम योग्य शासक था। आरंभ में उनका मुख्यालय चंद्रगिरि रहा, किंतु बाद में उन्होंने अपना मुख्यालय पेनुकोंडा स्थानांतरित कर दिया।

यद्यपि वेंकट का अधिकांश समय उनके पूर्वी और दक्षिणी विद्रोही सरदारों और सामंतों के विरुद्ध संघर्ष में व्यतीत हुआ, फिर भी उन्होंने अपनी योग्यता और निरंतर सक्रियता से विजयनगर साम्राज्य की खोई शक्ति और प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया और कुछ हद तक अपने प्रयास में सफल भी रहे।

वेंकट द्वितीय ने दक्कन के मुस्लिम शासकों का दृढ़तापूर्वक सामना किया। 1580 ई. और 1589 ई. के बीच युद्धों की एक श्रृंखला के परिणामस्वरूप पूर्व में गोलकुंडा के कुछ क्षेत्र पुनः जीत लिए गए और कृष्णा नदी विजयनगर की उत्तरी सीमा मान ली गई। उन्होंने 1601 ई. में वेल्लोर के लिंगमा नायक सहित मदुरै, तंजौर और जिंजी के नायकों के विद्रोह का दमन किया और बाद में वेल्लोर को अपनी राजधानी बनाया। लेकिन वे सुदूर दक्षिण के विद्रोहों का दमन करने में असफल रहे।

वेंकट ने पुर्तगालियों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए, जिन्होंने 1607 ई. में जेसुइट मिशन की स्थापना की। उन्होंने पुर्तगाली विरोध के बावजूद डचों को देवपट्टनम में एक कारखाना और पुलीकट में एक किला बनाने की अनुमति दी। वेंकट द्वितीय की अनुमति से 1612 ई. में राजा बोडयार ने एक नए राज्य मैसूर की स्थापना की। किंतु 1614 ई. में वेंकट द्वितीय की मृत्यु से अरविदु वंश और विजयनगर साम्राज्य दोनों पतन की प्रक्रिया तेज हो गई।

विजयनगर साम्राज्य का अंत

वेंकट द्वितीय का भतीजा और उत्तराधिकारी श्रीरंग द्वितीय (1614 ई.) केवल चार महीने शासन कर सका। इस समय विजयनगर में उत्तराधिकार को लेकर गृहयुद्ध आरंभ हो गया। इस गृहयुद्ध में राजपरिवार के एक सदस्य को छोड़कर शेष सभी की हत्या कर दी गई। अंततः राजवंश का एकमात्र जीवित सदस्य रामदेव राय (1617-1630 ई.) विजयनगर का राजा हुआ। उनके शासन में भी निरंतर संघर्ष चलता रहा।

रामदेव का उत्तराधिकारी वेंकट तृतीय (1630-1642 ई.) नितांत अयोग्य और दुर्बल था। उनके काल में शासन की वास्तविक शक्ति सरदारों और सामंतों के हाथ में चली गई। वेंकट तृतीय के ही समय में अंग्रेजों ने मद्रास में अपना कारखाना खोला था। 1642 ई. में गोलकुंडा के एक अभियान के कारण वेंकट तृतीय को अपनी राजधानी छोड़कर वेल्लोर भागना पड़ा। इसी समय उनके भतीजे श्रीरंग ने बीजापुर से वापस आकर सिंहासन पर अधिकार कर लिया।

विजयनगर साम्राज्य का अंतिम शासक श्रीरंग तृतीय (1642-1646 ई.) था। श्रीरंग न तो विद्रोही सामंतों से निपट सके और न ही गोलकुंडा एवं बीजापुर के सुल्तानों से। अंततः 1646 ई. में बीजापुर और गोलकुंडा की संयुक्त सेना ने उन्हें निर्णायक रूप से पराजित कर दिया। श्रीरंग मैसूर चले गए, जहाँ 1672 ई. तक बिना राज्य के राजा के रूप में जीवित रहे। मुस्लिम सुल्तानों ने 1652 ई. तक कर्नाटक पर अपनी विजय पूरी कर ली। इस प्रकार अपनी स्थापना से लगभग तीन शताब्दी बाद कर्नाटक के वैभवशाली विजयनगर साम्राज्य का अंत हो गया।

विजयनगर साम्राज्य के पतन के कारण

यद्यपि विजयनगर शहर के विध्वंस के लिए सुल्तानों की सेनाएँ उत्तरदायी थीं, फिर भी धार्मिक भिन्नताएँ होने पर भी सुल्तानों और रायों के संबंध सदैव शत्रुतापूर्ण नहीं रहते थे। उदाहरण के लिए, कृष्णदेवराय ने सल्तनतों में कई दावेदारों का समर्थन किया और स्वयं ‘यवनराज्यस्थापनाचार्य’ का विरुद धारण किया। इसी प्रकार बीजापुर के सुल्तान ने कृष्णदेवराय की मृत्यु के पश्चात् विजयनगर में उत्तराधिकार के विवाद को सुलझाने के लिए हस्तक्षेप किया। वास्तव में विजयनगर शासक और सल्तनतें दोनों ही एक-दूसरे के स्थायित्व को निश्चित करने की इच्छुक थीं।

दरअसल यह आलिय रामराय की ‘एक सुल्तान को दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने’ की हस्तक्षेपवादी नीति की विफलता थी, जिसके कारण दक्षिण के सभी सुल्तानों ने एकजुट होकर एक दक्कनी महासंघ का गठन किया और उन्हें निर्णायक रूप से पराजित कर दिया। इसके अलावा, विजयनगर सम्राज्य का अपने पड़ोसी राज्यों से निरंतर संघर्ष, विजयनगर के कुछ शासकों की निरंकुशता, विजयनगर की सेना का सामंतशाही स्वरूप, कृष्णदेवराय के उत्तराधिकारियों की अयोग्यता, पुर्तगालियों का आगमन, रामराय की सक्रिय हस्तक्षेप की नीति, दक्कनी महासंघ का निर्माण और अंततः तालीकोटा के युद्ध के कारण विजयनगर साम्राज्य का पतन हो गया।

विजयनगर साम्राज्य का प्रशासन, अर्थव्यवस्था, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास

वास्तव में विजयनगर साम्राज्य के उत्थान और पतन का इतिहास मुख्य रूप से निरंतर युद्धों और संघर्षों का इतिहास रहा है, इसलिए विजयनगर के शासकों ने अपने विस्तृत साम्राज्य के स्वरूप तथा राज्य की समसामयिक आर्थिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप एक नई प्रशासनिक व्यवस्था का प्रवर्तन किया। विजयनगर साम्राज्य के प्रशासन के स्वरूप की जानकारी विजयनगर कालीन अभिलेखों, साहित्यिक ग्रंथों तथा समय-समय पर विजयनगर साम्राज्य की यात्रा करने वाले विदेशी यात्रियों के विवरणों से मिलती है।

विजयनगर साम्राज्य की शासन-पद्धति सैद्धांतिक रूप से राजतंत्रात्मक थी। विजयनगर के राजा धर्म के अनुरूप शासन को आदर्श शासन मानते थे। राजाओं के राजनीतिक आदर्श धर्मनिरपेक्ष थे। राजपद सामान्यतः वंशानुगत था और पिता के बाद पुत्र अथवा उसके अभाव में निकटतम उत्तराधिकारी को मिल जाता था, किंतु यह अनिवार्य नियम नहीं था। विजयनगर प्रशासन में राजा के बाद युवराज का पद था। राजा को प्रशासनिक कार्यों में सलाह एवं सहयोग देने के लिए एक ‘मंत्रिपरिषद्’ (कौंसिल ऑफ मिनिस्टर्स) होती थी। मंत्रियों की बैठक एक सभाभवन में होती थी, जिसे ‘अष्टदिग्गज मंडप’ कहा जाता था। मंत्रिपरिषद् का प्रमुख अधिकारी ‘प्रधान’ या ‘महाप्रधान’ होता था। विजयनगर साम्राज्य के प्रशासन, अर्थव्यवस्था, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास के विस्तृत अध्ययन के लिए देखें—

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