तीसरी शताब्दी ई. में सातवाहनों की शक्ति के नष्ट होने पर दक्षिण भारत में कई छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गए। ऐसा प्रतीत होता है कि तीसरी शताब्दी के मध्य में शक्तिशाली सातवाहन राज्य के क्षीण होने और विघटित होने के बाद कई छोटी-बड़ी शक्तियों का उदय हुआ, जिनमें वाकाटक वंश प्रमुख था। वस्तुतः, तीसरी शताब्दी ई. से छठी शताब्दी ई. तक दक्षिणापथ में शासन करने वाले सभी राजवंशों में वाकाटक वंश (लगभग 300 से 510 ई.) सर्वाधिक सम्मानित और सुसंस्कृत था। मगध के चक्रवर्ती गुप्त वंश के समकालीन इस राजवंश ने मध्य भारत और दक्षिण भारत के ऊपरी भाग में शासन किया और भारत के सांस्कृतिक निर्माण में ऐतिहासिक योगदान दिया। इनका मूल निवास-स्थान विदर्भ (बरार) में था।
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Toggleऐतिहासिक स्रोत
वाकाटक वंश के इतिहास-निर्माण में साहित्यिक और पुरातात्त्विक दोनों स्रोतों से सहायता मिलती है। पुराणों में अन्य वंशों के साथ वाकाटक वंश का भी उल्लेख है। पुराण इस वंश के शासक प्रवरसेन प्रथम को ‘प्रवीर’ के रूप में उल्लिखित करते हैं, जिन्होंने चार अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया और साठ वर्षों तक शासन किया।
पुरातात्त्विक स्रोतों में प्रभावती गुप्ता का पूना ताम्रपत्र-लेख, प्रवरसेन द्वितीय का रिद्धपुर ताम्रपत्र-लेख, चमक प्रशस्ति और हरिषेण का अजंता गुहा-लेख इस वंश के इतिहास-लेखन में उपयोगी हैं। पूना और रिद्धपुर ताम्रपत्र-लेखों से वाकाटक-गुप्त संबंधों पर प्रकाश पड़ता है। अजंता गुहा-लेख से इस वंश के शासकों की उपलब्धियों का ज्ञान होता है और यह स्पष्ट होता है कि इस वंश का संस्थापक विष्णुवृद्धि गोत्र का ब्राह्मण था।
उद्गम-स्थान
वाकाटक वंश के प्रथम शासक का नाम पुराणों में विंध्यशक्ति उल्लिखित है। ‘विंध्य’ उनकी उपाधि प्रतीत होती है, जो संभवतः विंध्य क्षेत्र में निवास के कारण प्राप्त हुई। इस वंश का नाम संभवतः किसी व्यक्ति या ‘वाटक’ नामक क्षेत्र से संबंधित है। पौराणिक साक्ष्यों से प्रतीत होता है कि विंध्यशक्ति ने तीसरी शताब्दी में पूर्वी मालवा में अपनी शक्ति सुदृढ़ की, जब शक महाक्षत्रपों की शक्ति का पतन हो रहा था और विदिशा में नागवंश जैसी देशी शक्तियों का उदय हो रहा था। ऐसा लगता है कि विंध्यशक्ति ने विंध्यपार क्षेत्र में सातवाहनों की कीमत पर अपनी शक्ति का विस्तार किया। वाकाटक शासकों के लेखों और पुराणों के आधार पर यह कहा जाता है कि वाकाटक शासन तीसरी शताब्दी के अंत में प्रारंभ हुआ और पाँचवीं शताब्दी के अंत तक चला।
वाकाटक वंश के शासक
विंध्यशक्ति (255-275 ई.)
वाकाटक वंश का संस्थापक विंध्यशक्ति (255-275 ई.) था। शिलालेखों में उन्हें ‘वाकाटक वंशकेतु’ कहा गया है। वह विष्णुवृद्धि गोत्र का ब्राह्मण था। अजंता लेख के अनुसार उन्होंने महान युद्धों में विजय प्राप्त कर अपनी शक्ति का विस्तार किया। उनके क्रोध को देवता भी नहीं रोक सकते थे (क्रुद्धसुरैरप्यनिवार्यवीर्यः)। वे इंद्र के समान प्रभावशाली थे, जिन्होंने अपनी भुजाओं के बल से समस्त लोकों पर विजय प्राप्त की थी (स्वबाहुवीर्यार्जित सर्वलोकः)।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनके पूर्वज सातवाहनों के अधीन बरार के स्थानीय शासक थे और सातवाहनों के पतन के बाद विंध्यशक्ति ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की। उन्होंने अपने पैतृक राज्य को विंध्य पर्वत के उत्तर में पूर्वी मालवा तक विस्तृत किया।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि विंध्यशक्ति प्रारंभ में भारशिव वंश के नागों का सामंत था। भारशिव राजाओं की प्रेरणा से ही उन्होंने पाटलिपुत्र से मुरुंड शासकों का उच्छेद कर उसे कांतिपुर के साम्राज्य में शामिल किया। विंध्यशक्ति ने कोई राजकीय उपाधि धारण नहीं की, जिससे प्रतीत होता है कि उनका विधिवत् राज्याभिषेक नहीं हुआ।

प्रवरसेन प्रथम (275-335 ई.)
विंध्यशक्ति का पुत्र और उत्तराधिकारी प्रवरसेन प्रथम (275-335 ई.) था। उनके शासनकाल के कुछ ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं, जिनसे उनकी महत्त्वपूर्ण घटनाओं का पता चलता है। पारिवारिक लेखों से ज्ञात होता है कि वे एकमात्र वाकाटक शासक थे, जिन्होंने ‘सम्राट’ की उपाधि धारण की। उन्होंने चारों दिशाओं में दिग्विजय कर चार बार अश्वमेध यज्ञ और वाजपेय यज्ञ संपन्न किए, जिससे सम्राट का गौरवमय पद प्राप्त किया।
अल्तेकर का अनुमान है कि प्रत्येक यज्ञ एक सैनिक अभियान की समाप्ति पर किया गया। प्रथम अभियान में उन्होंने मध्य प्रदेश के पूर्वी और उत्तरी-पूर्वी भाग को जीता। दूसरे अभियान में दक्षिणी बरार और उत्तरी-पश्चिमी आंध्र प्रदेश को विजित किया। शेष अभियानों में प्रवरसेन ने गुजरात और काठियावाड़ के महाक्षत्रपों को पराजित किया। यह उनके शासनकाल की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। इस प्रकार उनके काल में वाकाटक राज्य का विस्तार बुंदेलखंड से दक्षिण में हैदराबाद तक फैल गया।
वाकाटक साम्राज्य का विभाजन
पुराणों में प्रवरसेन के चार पुत्रों का उल्लेख है, किंतु केवल दो पुत्रों द्वारा शासन करने के प्रमाण मिलते हैं। प्रवरसेन प्रथम के बाद वाकाटक साम्राज्य स्पष्ट रूप से दो शाखाओं में विभक्त हो गया: प्रधान शाखा (नंदिवर्धन) और वत्सगुल्म (बासीम) शाखा।
गौतमीपुत्र की मृत्यु प्रवरसेन के काल में ही हो गई थी, इसलिए उनका पौत्र रुद्रसेन प्रथम प्रधान शाखा का शासक बना। इस शाखा का अस्तित्व 335 ई. से 480 ई. तक रहा। दूसरे पुत्र सर्वसेन ने बासीम (वत्सगुल्म) में दूसरी शाखा की स्थापना की, जो 525 ई. तक शासन करती रही। दोनों शाखाएँ समानांतर रूप से शासन करने लगीं।
प्रधान शाखा
रुद्रसेन प्रथम (335-360 ई.)
वाकाटकों की प्रधान शाखा का पहला शासक प्रवरसेन का पौत्र और गौतमीपुत्र का पुत्र रुद्रसेन प्रथम (335-360 ई.) था। गौतमीपुत्र का विवाह पद्मावती (ग्वालियर) के भारशिव नाग शासक भवनाग की एकमात्र पुत्री से हुआ था, जिससे रुद्रसेन का जन्म हुआ। रुद्रसेन को अपने प्रारंभिक शासनकाल में बाहरी और आंतरिक विपत्तियों का सामना करना पड़ा। उनका चाचा सर्वसेन उनका प्रबल विरोधी था और उसने बासीम में अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। चमक ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि उनके नाना भवनाग ने उनकी पर्याप्त सहायता की। भवनाग की सहायता से रुद्रसेन अपने साम्राज्य को अक्षुण्ण रखने में सफल रहे। भवनाग का कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उनकी मृत्यु के बाद रुद्रसेन अपने नाना के विशाल साम्राज्य के भी उत्तराधिकारी बने, जिससे भारशिव और वाकाटक राज्य एक हो गए।
इस समय वाकाटक साम्राज्य में वर्तमान मध्य प्रदेश, दक्षिणापथ, गुजरात और काठियावाड़ के क्षेत्र शामिल थे। रुद्रसेन के शासनकाल के अंतिम वर्षों में गुजरात और काठियावाड़ में पुनः शक-महाक्षत्रपों का शासन स्थापित हो गया। कुछ इतिहासकार रुद्रसेन की पहचान प्रयाग-प्रशस्ति के रुद्रदेव से करते हैं, जिसे समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त के युद्ध में पराजित किया था, किंतु यह समीकरण उचित नहीं है, क्योंकि रुद्रदेव उत्तर भारत का शासक था, जबकि रुद्रसेन दक्षिण का राजा था। रुद्रसेन शिव का भक्त था और वाकाटक लेखों में उन्हें ‘महाभैरव’ का उपासक बताया गया है।
पृथ्वीषेण प्रथम (360-385 ई.)
रुद्रसेन के बाद पृथ्वीषेण प्रथम (360-385 ई.) वाकाटक वंश का राजा बना। वाकाटक लेखों में उन्हें पवित्र और धर्मविजयी कहा गया है। उनके समय में बासीम शाखा में विंध्यसेन शासन कर रहा था। पृथ्वीषेण ने विंध्यसेन की सहायता से कुंतल राज्य को विजित किया। कुंतल पर उस समय कदंबों का शासन था और वहाँ का शासक संभवतः कंगवर्मन था। इस विजय से दक्षिणी महाराष्ट्र पर वाकाटकों का अधिकार हो गया। बघेलखंड क्षेत्र के नचना और गंज से व्याघ्रदेव नामक एक शासक के दो अभिलेख मिले हैं, जो स्वयं को महाराज पृथ्वीषेण का सामंत कहता है। संभवतः यह पृथ्वीषेण प्रथम ही था। इस प्रकार वाकाटकों का प्रभाव बघेलखंड तक फैल गया, जिससे उनकी शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई।
पृथ्वीषेण चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का समकालीन था, जो गुजरात-काठियावाड़ से शक-महाक्षत्रपों के शासन का अंत करना चाहते थे। वाकाटक शासक इस कार्य में उनके सहायक हो सकते थे, क्योंकि उनके राज्य की सीमाएँ शक-महाक्षत्रपों के राज्य से मिलती थीं। शकों के विरुद्ध सहायता प्राप्त करने के लिए चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्ता का विवाह पृथ्वीषेण के पुत्र रुद्रसेन द्वितीय के साथ करवाया, जिससे दोनों राजवंशों में मित्रता स्थापित हुई। पूना ताम्रपत्र-लेख के अनुसार यह विवाह संभवतः 380 ई. में हुआ। इस विवाह-संबंध से वाकाटकों के गौरव और सम्मान में वृद्धि हुई। विवाह के पाँच वर्ष बाद पृथ्वीषेण की मृत्यु हो गई।
रुद्रसेन द्वितीय (385-390 ई.)
पृथ्वीषेण प्रथम का पुत्र रुद्रसेन द्वितीय (385-390 ई.) वाकाटक वंश का उत्तराधिकारी बना। उनका विवाह गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्ता के साथ हुआ था। रुद्रसेन द्वितीय शैव धर्म का अनुयायी था, किंतु विवाह के बाद वह वैष्णव हो गया। अपने अल्पकालिक शासन के बाद 390 ई. में उनकी मृत्यु हो गई। उनके दोनों पुत्र दिवाकरसेन और दामोदरसेन, क्रमशः पाँच और दो वर्ष के थे, इसलिए शासन-सूत्र उनकी पत्नी प्रभावती गुप्ता ने संभाला।
प्रभावती गुप्ता का संरक्षणकाल
प्रभावती गुप्ता ने व्यावहारिक कठिनाइयों और शासन-कार्य में अनुभव की कमी के बावजूद अपनी व्यक्तिगत योग्यता और पिता चंद्रगुप्त द्वितीय के निर्देशन में अपने अल्पवयस्क पुत्रों की संरक्षिका के रूप में कुशलतापूर्वक शासन किया। उन्होंने गुजरात-काठियावाड़ के शकों के विरुद्ध अपने पिता की हरसंभव सहायता की, जिससे पश्चिमी भारत से शकों का उन्मूलन संभव हुआ। इस समय वाकाटक वंश प्रकारांतर से गुप्त वंश के अधीन था। यही कारण है कि प्रभावती गुप्ता ने अपने अभिलेखों में अपने पति के गोत्र और वंशावली का उल्लेख न करके अपने पिता के धारण गोत्र और वंशावली का उल्लेख किया।
प्रभावती गुप्ता के संरक्षणकाल में उनके बड़े पुत्र दिवाकरसेन की मृत्यु हो गई। इसलिए, उनका छोटा पुत्र दामोदरसेन 410 ई. में प्रवरसेन की उपाधि धारण कर गद्दी पर बैठा। प्रभावती गुप्ता अपने पुत्र के शासनकाल में लगभग पच्चीस वर्ष तक जीवित रहीं। वे धार्मिक प्रवृत्ति की थीं और अपनी राजधानी नंदिवर्धन के समीप रामगिरि पर स्थापित रामचंद्र की पादुकाओं की भक्त थीं। पूना और रिद्धपुर से उनके दानपत्र प्राप्त हुए हैं, जिनमें उनके द्वारा किए गए दानों का उल्लेख है।
प्रवरसेन द्वितीय (410-440 ई.)
प्रवरसेन द्वितीय (410-440 ई.) बीस वर्ष की आयु में सिंहासनारूढ़ हुआ। उनके कई ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं, किंतु किसी में भी उनकी सैनिक विजय का उल्लेख नहीं है। इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने साम्राज्य-विस्तार का कोई प्रयास नहीं किया।
प्रवरसेन द्वितीय की साहित्य में गहरी रुचि थी। उन्होंने प्राकृत में ‘सेतुबंध’ (रावणवहौ) नामक काव्य-ग्रंथ की रचना की, जिसमें राम की लंका-विजय का विवरण है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने नंदिवर्धन (रामटेक, नागपुर) के स्थान पर ‘प्रवरपुर’ नामक नई राजधानी की स्थापना की। उनके पुत्र नरेंद्रसेन का विवाह कदंब वंश की राजकुमारी अजितभट्टारिका से हुआ, जो संभवतः कदंब नरेश काकुत्स्थवर्मन की पुत्री थी। काकुत्स्थवर्मन की एक अन्य पुत्री गुप्त वंश में ब्याही गई थी।
नरेंद्रसेन (440-460 ई.)
प्रवरसेन द्वितीय का पुत्र नरेंद्रसेन (440-460 ई.) उनका उत्तराधिकारी बना। उनके शासनकाल में बस्तर के नलवंशी शासक भवदत्तवर्मन ने वाकाटक राज्य पर आक्रमण कर नंदिवर्धन पर अधिकार कर लिया। किंतु भवदत्तवर्मन की मृत्यु के बाद नरेंद्रसेन ने अपनी स्थिति सुदृढ़ की और संभवतः कदंबों के सहयोग से न केवल नंदिवर्धन को पुनः अपने अधीन किया, बल्कि बस्तर पर आक्रमण कर भवदत्तवर्मन के उत्तराधिकारी को भी पराजित किया, जिससे नल वंश की शक्ति का विनाश हुआ।
वाकाटक लेखों में नरेंद्रसेन को कोशल, मेकल और मालवा का शासक कहा गया है। ये क्षेत्र पहले गुप्तों के अधीन थे। ऐसा लगता है कि गुप्त साम्राज्य की अव्यवस्था का लाभ उठाकर नरेंद्रसेन ने इन क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। किंतु मालवा पर उनका अधिकार अधिक समय तक नहीं रहा और स्कंदगुप्त ने शीघ्र ही इन क्षेत्रों को पुनः जीत लिया।
पृथ्वीषेण द्वितीय (460-480 ई.)
नरेंद्रसेन के बाद पृथ्वीषेण द्वितीय (460-480 ई.) गद्दी पर बैठा। उनके बालाघाट लेख से पता चलता है कि उन्होंने दो बार वाकाटक वंश की खोई हुई शक्ति का पुनरुद्धार किया। इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने नल और त्रैकूटक (दक्षिणी गुजरात) राजाओं से वाकाटक राज्य की रक्षा की। संभवतः पृथ्वीषेण ने ‘परमपुर’ को अपनी राजधानी बनाया। वे इस मुख्य शाखा के अंतिम शासक थे। उनके बाद उनका राज्य बासीम शाखा के हरिषेण के हाथों में चला गया।
वत्सगुल्म (बासीम) या अमुख्य शाखा
सर्वसेन (330-350 ई.)
वाकाटकों की वत्सगुल्म (बासीम) शाखा का संस्थापक प्रवरसेन प्रथम का पुत्र सर्वसेन (330-350 ई.) था। उन्होंने वत्सगुल्म (आधुनिक बासीम, महाराष्ट्र के अकोला जिले में) को अपनी राजधानी बनाकर एक स्वतंत्र वाकाटक राज्य की स्थापना की। इस शाखा के एक शासक विंध्यशक्ति द्वितीय का ताम्रपत्र भी बासीम से प्राप्त हुआ है। सर्वसेन के संबंध में अधिक जानकारी नहीं है। उन्होंने ‘धर्ममहाराज’ की उपाधि धारण की और संभवतः प्राकृत ग्रंथ ‘हरिविजय’ और ‘गाथासप्तशती’ के कुछ अंशों की रचना की।
विंध्यसेन द्वितीय (350-400 ई.)
सर्वसेन का उत्तराधिकारी विंध्यसेन द्वितीय (350-400 ई.) था, जिसने ‘धर्ममहाराज’ की उपाधि धारण की। उनका एक दानपत्र बासीम से प्राप्त हुआ है, जिसमें उन्होंने नांदीकट (नादर, हैदराबाद) क्षेत्र में एक गाँव दान में दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने कुंतल राज्य को विजित कर अपने राज्य में शामिल किया। उनके राज्य में दक्षिणी बरार, उत्तरी हैदराबाद, नासिक, पूना, और सतारा के जिले शामिल थे।
प्रवरसेन द्वितीय (400-415 ई.)
विंध्यशक्ति द्वितीय का पुत्र प्रवरसेन द्वितीय (400-415 ई.) एक उदार शासक था। उनकी मृत्यु के बाद उनका पुत्र अवयस्क था, जिसका नाम अज्ञात है। अल्तेकर के अनुसार, इस समय मुख्य शाखा के प्रवरसेन ने संरक्षक का कार्य किया और भतीजे के वयस्क होने पर उसे राज्य सौंप दिया। इस अज्ञात शासक का पुत्र देवसेन था, जिसने संभवतः 455 ई. से 475 ई. तक शासन किया। अजंता लेख में उनके मंत्री हस्तिभोज का उल्लेख है। देवसेन के बाद हरिषेण राजा बना।
हरिषेण (475-510 ई.)
हरिषेण बासीम शाखा का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। उनके राज्यारोहण के समय मुख्य शाखा के पृथ्वीषेण द्वितीय की मृत्यु हो गई। पृथ्वीषेण के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए मुख्य शाखा का शासन भी हरिषेण के हाथों में आ गया। अजंता गुहा-लेख से पता चलता है कि उनके समय में कुंतल, अवंति, कलिंग, कोसल, त्रिकूट, लाट और आंध्र क्षेत्रों पर उनका प्रभाव था। इससे प्रतीत होता है कि उनके राज्य की सीमाएँ उत्तर में मालवा से दक्षिण में कुंतल तक और पूरब में बंगाल की खाड़ी से पश्चिम में अरब सागर तक फैली थीं। वाकाटक साम्राज्य इस समय अपने चरमोत्कर्ष पर था।
हरिषेण वाकाटक वंश का अंतिम शासक था। उनकी मृत्यु (510 ई.) के बाद वाकाटक वंश का इतिहास अंधकार में है। संभवतः कलचुरी वंश ने वाकाटक वंश का अंत किया। ऐसा लगता है कि हरिषेण के उत्तराधिकारियों के काल में कदंबों, कलचुरियों और बस्तर के नल शासकों ने वाकाटक राज्य के अधिकांश क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। बाद में चालुक्य नरेशों ने इन सभी शक्तियों को पराजित कर दक्षिण में अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया।
वाकाटकों की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
वाकाटक शासकों ने लगभग तीन शताब्दियों तक दक्षिण में शासन किया। उनके शासनकाल में संस्कृति, कला और साहित्य की उल्लेखनीय प्रगति हुई। सातवाहन शासकों के आदर्श पर वाकाटकों ने प्राकृत भाषाओं को विशेष प्रश्रय दिया। प्रवरसेन द्वितीय स्वयं कलाकार और काव्यप्रेमी थे। उन्होंने महाराष्ट्रीय लिपि में ‘सेतुबंध’ (रावणवहौ) नामक महाकाव्य की रचना की, जो उनकी काव्यदक्षता और लोकभाषा के प्रति प्रेम का परिचायक है। गद्यकार दंडी ने इस महाकाव्य को ‘सागरः सूक्ति रत्नानाम्’ कहकर इसकी प्रशंसा की। सर्वसेन ने ‘हरिविजय’ नामक प्राकृत काव्य-ग्रंथ लिखा।

संस्कृत की वैदर्भी शैली का विकास भी वाकाटक काल में हुआ। कुछ विद्वानों का मानना है कि कालिदास ने कुछ समय तक प्रवरसेन द्वितीय की राज्यसभा में निवास किया, ‘सेतुबंध’ में संशोधन किया और वैदर्भी शैली में ‘मेघदूत’ की रचना की।
वाकाटक शासक शिव और विष्णु के उपासक थे। वैदिक आचारों के अनुयायी इन राजाओं ने अनेक अश्वमेध और वाजपेय यज्ञ संपन्न किए। उनकी उपाधियाँ ‘परममाहेश्वर’ और ‘परमभागवत’ थीं।
अजंता की गुफाएँ
वाकाटक शासक कला के संरक्षक और प्रेमी थे। उनके काल में सातवाहनों की कला परंपरा का तारतम्य बना रहा। उनके संरक्षण में वास्तु, मूर्तिकला, और चित्रकला की प्रगति हुई। भवन-निर्माण और मूर्तिकला की दृष्टि से विदर्भ का तिगवा (जबलपुर, मध्य प्रदेश) और नचना (पन्ना, मध्य प्रदेश) का मंदिर महत्त्वपूर्ण है, जिनका निर्माण पृथ्वीषेण के सामंत व्याघ्रदेव ने करवाया था। तिगवा मंदिर में गंगा और यमुना की मूर्तियाँ स्थापित हैं। इसके अतिरिक्त, उदयगिरि, देवगढ़ और अजंता के भव्य मंदिरों और मूर्तियों में तत्कालीन स्थापत्य और मूर्तिकला का प्रौढ़ रूप दृष्टिगोचर होता है।

चित्रकला के विश्वविख्यात केंद्र अजंता की गुफा संख्या 16 और 17 के गुहा-विहार तथा गुफा संख्या 19 के गुहा-चैत्य का निर्माण वाकाटकों के समय में हुआ। गुफा संख्या 16 का निर्माण हरिषेण के योग्य मंत्री वराहदेव ने करवाया था। फर्ग्युसन ने गुफा संख्या 19 को भारतीय बौद्ध कला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बताया है। इस प्रकार अपने तीन सौ वर्षों के शासनकाल में वाकाटकों ने राजसी वैभव की अपेक्षा आचारनिष्ठ सामाजिक जीवन और सांस्कृतिक उत्थान की दिशा में विशेष योगदान दिया।










