वाकाटक राजवंश (Vakataka Dynasty)

वाकाटक राजवंश

तीसरी शताब्दी ई. में दक्षिण के सातवाहनों की शक्ति नष्ट होने पर वहाँ कई छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये। लगता है कि तीसरी शती के मध्य में शक्तिशाली सातवाहन राज्य के क्षीण पड़ने एवं विघटित हो जाने के बाद जिन छोटी-बड़ी शक्तियों का उदय हुआ, वाकाटक उन्हीं में से एक थे। वस्तुतः तीसरी शताब्दी ई. से छठी शताब्दी ई. तक दक्षिणापथ में शासन करने वाले समस्त राजवंशों में वाकाटक वंश (लगभग 300 से 510 ई.) सर्वाधिक सम्मानित एवं सुसंस्कृत था। मगध के चक्रवर्ती गुप्तवंश के समकालीन इस राजवंश ने मध्य भारत तथा दक्षिण भारत के ऊपरी भाग में शासन किया और भारत के सांस्कृतिक निर्माण में ऐतिहासिक योगदान दिया। इनका मूल निवास-स्थान बरार (विदर्भ) में था।

वाकाटक राजवंश (Vakataka Dynasty)
वाकाटक राजवंश की स्थिति

ऐतिहासिक स्रोत

वाकाटक वंश के इतिहास-निर्माण में साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक दोनों स्रोतों से सहायता मिलती है। पुराणों में अन्य वंशों के साथ वाकाटक वंश का भी उल्लेख हुआ है। पुराण इस वंश के शासक प्रवरसेन का उल्लेख ‘प्रवीर’ के रूप में करते हैं जिसने चार अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था और साठ वर्षों तक शासन किया था।

पुरातात्त्विक स्रोतों में प्रभावतीगुप्ता का पूना तामपत्र-लेख, प्रवरसेन द्वितीय का रिद्धपुर ताम्रपत्र-लेख एवं चमक प्रशस्ति तथा हरिषेण का अजंता गुहाभिलेख इस वंश के इतिहास-लेखन में उपयोगी हैं। पूना एवं सिद्धपुर ताम्रपत्र-लेखों से वाकाटक-गुप्त संबंधों पर प्रकाश पड़ता है। अजंता गुहालेख से इस वंश के शासकों की उपलब्धियों का ज्ञान होता है और पता चलता है कि इस वंश का संस्थापक विष्णुवृद्धि गोत्र का ब्राह्मण था।

उद्गम-स्थान

वाकाटक वंश के प्रथम शासक का नाम पुराणों में विंध्यशक्ति उल्लिखित है। विंध्य उसकी पदवी या उपाधि प्रतीत होती है, जो कि उसको विंध्यवासी होने के कारण प्राप्त हुई होगी। इस वंश का नाम संभवतः व्यक्ति या किसी वाटक नामक क्षेत्र से जुड़ा है। पौराणिक प्रमाणों से प्रतीत होता है कि विंध्यशक्ति ने पूर्वी मालवा में अपनी शक्ति तीसरी शताब्दी में सुदृढ़ की, जब शक महाक्षत्रपों की शक्ति का पतन और विदिशा में नागवंश जैसी देशी शक्तियों का उदय हो रहा था। लगता है कि विंध्यशक्ति ने विंध्यपार अपनी शक्ति का विस्तार सातवाहनों की कीमत पर किया था। वाकाटक शासकों के लेखों एवं पुराणों के आधार पर यह कहा जाता है कि वाकाटक शासन तीसरी शताब्दी के अंत में प्रारंभ हुआ और पाँचवीं शताब्दी के अंत तक चलता रहा।

वाकाटक वंश के शासक

विंध्यशक्ति (255-275 ई.)

वाकाटक वंश का संस्थापक विंध्यशक्ति (255-275 ई.) था। विंध्यशक्ति को शिलालेख में ‘वाकाटक वंशकेतु’ कहा गया है। वह ‘विष्णुवृद्धि’ गोत्र का ब्राह्मण था। अजंता लेख के अनुसार उसने महान् युद्धों को जीतकर अपनी शक्ति का विस्तार किया था। उसके क्रोध को देवता भी नहीं रोक सकते थे (क्रुद्धसुरैरप्यनिवार्यवीर्यः)। वह इंद्र के समान प्रभाववाला था, जिसने अपनी भुजाओं के बल से समस्त लोकों की विजय की थी (स्वबाहुवीर्यार्जित सर्वलोकः)।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार उसके पूर्वज सातवाहनों के अधीन बरार के स्थानीय शासक थे और सातवाहनों के बाद विंध्यशक्ति ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। उसने अपने पैतृक राज्य को विंध्यपर्वत के उत्तर में पूर्वी मालवा तक विस्तृत किया।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार विंध्यशक्ति प्रारंभ में भारशिव वंश के नागों का सामंत था। भारशिव राजाओं की प्रेरणा से ही विंध्यशक्ति ने पाटलिपुत्र से मुरुंड शासकों का उच्छेद कर उसे कांतिपुर के साम्राज्य के अंतर्गत सम्मिलित कर लिया था। विंध्यशक्ति ने कोई राजकीय उपाधि धारण नहीं की, जिससे लगता है कि उसका विधिवत् राज्याभिषेक नहीं हुआ था।

प्रवरसेन प्रथम (275-335 ई.)

विंध्यशक्ति का पुत्र एवं उत्तराधिकारी प्रवरसेन प्रथम (275-335 ई.) हुआ। उसके समय के कुछ ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं जिससे उसके शासनकाल की कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाओं का पता चलता है। पारिवारिक लेख-प्रमाणों से ज्ञात होता है कि एकमात्र वही ऐसा वाकाटक शासक था, जिसने ‘सम्राट’ की उपाधि धारण की थी। उसने चारों दिशाओं में दिग्विजय करके चार बार ‘अश्वमेध यज्ञ’ किया और वाजसनेय यज्ञ करके सम्राट का गौरवमय पद प्राप्त किया।

अल्तेकर का अनुमान है कि उसने प्रत्येक यज्ञ एक-एक सैनिक अभियान की समाप्ति पर किया होगा। प्रथम अभियान में उसने मध्य प्रांत के पूर्वी तथा उत्तरी-पूर्वी भाग को विजित किया। दूसरे सैनिक अभियान में उसने दक्षिणी बरार तथा उत्तरी-पश्चिमी आंध्र प्रदेश का जीता। अपने शेष अभियानों में प्रवरसेन ने गुजरात और काठियावाड़ के महाक्षत्रपों को पराजित किया। यह उसके शासनकाल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी। इस प्रकार प्रवरसेन के काल में वाकाटक राज्य का विस्तार बुंदेलखंड से प्रारंभ होकर दक्षिण में हैदराबाद तक फैल गया था।

वाकाटक साम्राज्य का विभाजन

पुराणों में प्रवरसेन के चार पुत्रों का उल्लेख मिलता है, किंतु उसके दो पुत्रों द्वारा ही शासन करने का प्रमाण मिलता है। प्रवरसेन प्रथम के बाद वाकाटक साम्राज्य स्पष्ट रूप से दो शाखाओं में विभक्त हो गया- प्रधान शाखा और बासीम (वत्सगुल्म) शाखा।

गौतमीपुत्र की मृत्यु प्रवरसेन के काल में ही हो गई थी, इसलिए उसका पौत्र तथा गौतमीपुत्र का पुत्र रुद्रसेन प्रथम प्रधान शाखा (नंदिवर्धन) का शासक हुआ। वाकाटकों की इस शाखा का अस्तित्व 335 ई. से 480 ई. तक बना रहा। दूसरे पुत्र सर्वसेन ने बासीम (वत्सगुल्म) में दूसरी शाखा की स्थापना की जिसने 525 ई. तक शासन किया। अब दोनों शाखएँ समानांतर रूप से शासन करने लगीं।

प्रधान शाखा

रुद्रसेन प्रथम (335-360 ई.)

वाकाटकों की प्रधान शाखा का पहला शासक प्रवरसेन का पौत्र तथा गौतमीपुत्र का पुत्र रुद्रसेन प्रथम (335-360 ई.) हुआ। प्रवरसेन के पुत्र गौतमीपुत्र का विवाह पद्मावती (ग्वालियर) के भारशिव नाग शासक भवनाग की इकलौती कन्या से हुआ था, जिससे पुत्र रुद्रसेन उत्पन्न हुआ था। रुद्रसेन को अपने आरंभिक शासनकाल में बाहरी और आंतरिक विपत्तियों का सामना करना पड़ा। उसका चाचा सर्वसेन उसका प्रबल विरोधी था और उसने बासीम में अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। चम्पक ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि उसके नाना भारशिव, महाराज भवनाग ने उसकी पर्याप्त सहायता की थी। अपने नाना भवनाग की सहायता से रुद्रसेन अपने साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाये रखने में सफल हुआ। भवनाग के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए भवनाग की मृत्यु के बाद उसका दौहित्र रुद्रसेन अपने नाना भारशिव के विशाल साम्राज्य का भी उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ और भारशिव तथा वाकाटक राज्य मिलकर एक हो गये।

इस समय वाकाटक साम्राज्य में वर्तमान मध्य प्रदेश, दक्षिणापथ, गुजरात और काठियावाड़ के प्रदेश सम्मिलित थे। रुद्रसेन के शासनकाल के अंतिम वर्षों में गुजरात और काठियावाड़ में पुनः शक-महाक्षत्रपों का शासन स्थापित हो गया। कुछ इतिहासकार रुद्रसेन की पहचान प्रयाग-प्रशस्ति के रुद्रदेव से करते हैं जिसे समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त्त के युद्ध में पराजित किया था, किंतु यह समीकरण उचित नहीं है क्योंकि रुद्रदेव उत्तर भारत का शासक था और रुद्रसेन दक्षिण का राजा था। रुद्रसेन शिव का भक्त था। वाकाटक लेखों में उसे ‘महाभैरव’ का उपासक बताया गया है।

पृथ्वीषेण प्रथम (360-385 ई.)

रुद्रसेन के बाद पृथ्वीषेण (360-385 ई.) वाकाटक वंश का राजा हुआ था। वाकाटक लेखों में उसे पवित्र तथा धर्मविजयी कहा गया है। पृथ्वीषेण के समय में बासीम शाखा में विंध्यसेन शासन कर रहा था। पृथ्वीषेण ने विंध्यसेन की सहायता से कुंतल राज्य को विजित किया। कुंतल प्रदेश पर इस समय कदंबों का शासन था और वहाँ का शासक संभवतः कंगवर्मन् था। इस विजय से दक्षिणी महाराष्ट्र के ऊपर वाकाटकों का अधिकार हो गया। बघेलखंड क्षेत्र के नचना और गंज से व्याघ्रदेव नामक एक शासक के दो अभिलेख मिले हैं जो स्वयं को महाराज पृथ्वीषेण का सामंत कहता है। संभवतः यह शासक पृथ्वीषेण प्रथम ही है। इस प्रकार वाकाटकों का प्रभाव बघेलखंड तक फैल गया जिससे वाकाटकों की शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई।

पृथ्वीषेण चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का समकालीन था और गुप्त सम्राट गुजरात-काठियावाड़ से शक-महाक्षत्रपों के शासन का अंत करना चाहते थे। वाकाटक शासक इस कार्य में उनके सहायक हो सकते थे, क्योंकि उनके राज्य की सीमाएँ शक-महाक्षत्रपों के राज्य से मिलती थीं। शकों के विरुद्ध वाकाटकों की सहायता प्राप्त करने के लिए गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपनी कन्या प्रभावतीगुप्ता का विवाह पृथ्वीषेण के पुत्र रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया जिससे दोनों राज्यों में मित्रता का संबंध स्थापित हो गया।

पूना तामपत्र लेख के अनुसार यह विवाह संभवतः 380 ई. में हुआ था। इस विवाह-संबंध से वाकाटकों के गौरव और सम्मान में वृद्धि हुई। विवाह-संबंध के पाँच वर्ष बाद ही पृथ्वीषेण की मृत्यु हो गई।

रुद्रसेन द्वितीय (385-390 ई.)

पृथ्वीषेण प्रथम का पुत्र रुद्रसेन द्वितीय (385-390 ई.) वाकाटक वंश का उत्तराधिकारी हुआ। उसका विवाह गुप्त सम्राट चंद्र्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावतीगुप्ता के साथ हुआ था। रुद्रसेन द्वितीय शैव धर्म का अनुयायी था, किंतु विवाह के बाद रुद्रसेन भी वैष्णव हो गया था। अपने अल्पकालीन शासन के बाद 390 ई. में रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु हो गई और उसके दोनों पुत्र- दिवाकरसेन एवं दामोदरसेन क्रमशः पाँच वर्ष तथा दो वर्ष के (अल्पवयस्क) थे, इसलिए शासन-सूत्र का संचालन उसकी पत्नी प्रभावतीगुप्ता स्वयं करने लगी।

प्रभावती गुप्ता का संरक्षणकाल

प्रभावती गुप्ता ने व्यावहारिक कठिनाइयों और शासन-कार्य का अनुभव न होने पर भी अपनी व्यक्तिगत योग्यता और पिता चंद्रगुप्त द्वितीय के निर्देशन में अपने अल्प-वयस्क पुत्रों की संरक्षिका के रूप में कुशलतापूर्वक शासन किया। उसने गुजरात-काठियावाड़ के शकों के विरुद्ध अपने पिता की हर-संभव सहायता की, जिससे पश्चिमी भारत से शकों का उन्मूलन संभव हो सका। इस समय वाकाटक वंश प्रकारांतर से सम्राट गुप्त वंश के अधीन था। यही कारण है कि प्रभावतीगुप्ता ने अपने अभिलेखों में अपने पति के गोत्र और वंशावली का उल्लेख न करके अपने पिता के गोत्र (धारण) और वंशावली का उल्लेख किया है।

प्रभावतीगुप्ता के संरक्षणकाल में ही बड़े पुत्र दिवाकरसेन की मृत्यु हो गई, इसलिए छोटा पुत्र दामोदरसेन 410 ई. में प्रवरसेन की उपाधि धारण कर गद्दी पर बैठा।

प्रभावतीगुप्ता अपने पुत्र के शासनकाल में लगभग पच्चीस वर्ष तक जीवित रही। वह धार्मिक प्रवृत्ति की थी और अपनी राजधानी नंदिवर्धन के समीप रामगिरि पर स्थापित रामचंद्र की पादुकाओं की भक्त थी। पूना तथा रिद्धपुर से उसके दानपत्र प्राप्त हुए हैं जिसमें उसके द्वारा दान दिये जाने का उल्लेख मिलता है।

वाकाटक राजवंश (Vakataka Dynasty)
नन्दिवर्धन दुर्ग के भग्नावशेष
प्रवरसेन द्वितीय (410-440 ई.)

प्रवरसेन द्वितीय (410-440 ई.) बीस वर्ष की आयु में सिंहासनारूढ़ हुआ। उसके अनेक ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं, किंतु किसी में भी उसकी किसी सैनिक विजय का उल्लेख नहीं मिलता है। इससे लगता है कि उसने साम्राज्य-विस्तार का कोई प्रयत्न नहीं किया।

वाकाटक नरेश प्रवरसेन द्वितीय की रुचि साहित्य में भी थी। उसने ‘सेतुबंध’ (रावणवहौ) नामक प्राकृत काव्य-ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें राम की लंका-विजय का विवरण सुरक्षित है। इतना ही नहीं, उसने नंदिवर्धन (रामटेक, नागपुर) के स्थान पर ‘प्रवरपुर’ नामक नई राजधानी की स्थापना की। प्रवरसेन के पुत्र नरेंद्रसेन का विवाह कदंब वंश की राजकुमारी अजितभट्टारिका से हुआ था, जो संभवतः कदंब नरेश काकुत्स्थवर्मन् की पुत्री थी और जिसकी एक अन्य कन्या गुप्तकुल में भी ब्याही गई थी।

नरेंद्रसेन (440-460 ई.)

प्रवरसेन द्वितीय का पुत्र नरेंद्रसेन (440-460 ई.) उसका उत्तराधिकारी बना। इसके समय में बस्तर के नलवंशी शासक भवदत्तवर्मन् ने वाकाटक राज्य पर आक्रमण कर नंदिवर्धन पर अधिकार कर लिया। किंतु भवदत्तवर्मन् की मृत्यु के बाद नरेंद्रसेन ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर और संभवतः कदंबों के सहयोग से न केवल नंदिवर्धन को अपने अधीन कर लिया, अपितु बस्तर राज्य पर आक्रमण कर भवदत्तवर्मन् के उत्तराधिकारी को भी पराजित किया और इस प्रकार नलों की शक्ति का विनाश कर दिया

वाकाटक लेखों में नरेंद्रसेन को कोशल, मेकल तथा मालवा का शासक कहा गया है। इन प्रदेशों पर पहले गुप्तों का शासन था। लगता है कि गुप्त साम्राज्य की अव्यवस्था का लाभ उठाकर नरेंद्रसेन ने गुप्तों के इन प्रदेशों पर भी अधिकार कर लिया था। किंतु मालवा पर उसका अधिकार अधिक समय तक नहीं रह सका और स्कंदगुप्त ने शीघ्र ही इन क्षेत्रों को पुनः जीत लिया।

पृथ्वीषेण द्वितीय (460-480 ई.)

नरेंद्रसेन के बाद पृथ्वीषेण द्वितीय (460-480 ई.) गद्दी पर बैठा। उसके बालाघाट लेख से पता चलता है कि उसने दो बार वाकाटक वंश की खोई हुई लक्ष्मी का पुनरुद्धार किया था। इससे लगता है कि उसने नल तथा त्रैकूटकवंशी (दक्षिणी गुजरात) राजाओं से वाकाटक राज्य की रक्षा की थी। संभवतः पृथ्वीषेण ने ‘परमपुर’ को अपनी राजधानी बनाई थी। यह वाकाटकों की इस मुख्य शाखा का अंतिम नरेश था। इसके बाद उसका राज्य बासीम शाखा के हरिषेण के हाथ में चला गया।

वत्सगुल्म (बासीम) या अमुख्य शाखा

सर्वसेन (330-350 ई.)

वाकाटकों की वत्सगुल्म या अमुख्य शाखा का संस्थापक प्रवरसेन प्रथम का पुत्र सर्वसेन (330-350 ई.) था। उसने वत्सगुल्म को अपनी राजधानी बनाकर एक स्वतंत्र वाकाटक राज्य की स्थापना की। वत्सगुल्म महाराष्ट्र के अकोला जिले में आधुनिक बासीम में स्थित था। इस शाखा के एक शासक विंध्यशक्ति द्वितीय का एक ताम्रपत्र भी बासीम से प्राप्त हुआ है। सर्वसेन के संबंध में अधिक ज्ञात नहीं है। उसने ‘धर्ममहाराज’ की उपाधि धारण की और संभवतः प्राकृत ग्रंथ ‘हरिविजय’ एवं ‘गाथासप्तशती’ के कुछ अंशों की रचना की थी।

विंध्यसेन द्वितीय (350-400 ई.)

सर्वसेन का उत्तराधिकारी विंध्यसेन द्वितीय (350-400 ई.) हुआ जिसने ‘धर्म महाराज’ की उपाधि धारण की। उसका एक दानपत्र बासीम से प्राप्त हुआ है, जिससे पता चलता है कि उसने नांदीकट (नादर, हैदराबाद) क्षेत्र में एक गाँव दान में दिया था। लगता है कि उसने कुंतल राज्य को विजित कर उसे अपने राज्य में मिला लिया था। इस प्रकार उसके राज्य में दक्षिणी बरार, उत्तरी हैदराबाद, नासिक, पूना और सतारा के जिले सम्मिलित थे।

प्रवरसेन द्वितीय (400-415 ई.)

विंध्यशक्ति द्वितीय का पुत्र प्रवरसेन द्वितीय (400-415 ई.) एक उदार शासक था। प्रवरसेन द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अवयस्क था, जिसका नाम अज्ञात है। अल्तेकर के अनुसार उसके समय में मुख्य शाखा के प्रवरसेन ने संरक्षक का कार्य किया और भतीजे के वयस्क होने पर उसका राज्य सौंप दिया। इस अज्ञात शासक का पुत्र देवसेन शासक हुआ। देवसेन ने संभवतः 455 ई. से 475 ई. तक शासन किया। अजंता लेख में उसके मंत्री हस्तिभोज का उल्लेख मिलता है। देवसेन के बाद हरिषेण राजा हुआ।

हरिषेण (475-510 ई.)

हरिषेण बासीम शाखा का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। उसके राज्यारोहण के समय प्रधान शाखा के पृथ्वीसेन द्वितीय की मृत्यु हो गई। पृथ्वीसेन के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए मुख्य शाखा का शासन भी हरिषेण के हाथों में आ गया। अजंता गुहालेख से पता चलता है कि उसके समय में कुंतल, अवंति, कलिंग, कोसल, त्रिकूट, लाट, आंध्र आदि क्षेत्रों पर उसका प्रभाव था। इससे लगता है कि उसके राज्य की सीमाएँ उत्तर में मालवा से दक्षिण में कुंतल तक एवं पूरब में बंगाल की खाड़ी से पश्चिम में अरब सागर तक फैली हुई थीं। वाकाटक साम्राज्य इस समय अपने चरमोत्कर्ष पर था।

हरिषेण वाकाटक वंश का अंतिम शासक था।इसकी मृत्यु के बाद (510 ई.) वाकाटक वंश का इतिहास अंधकार में है। संभवतः कलचुरी वंश के द्वारा वाकाटक वंश का अंत किया गया। लगता है कि हरिषेण के उत्तराधिकारियों के काल में कदंबों, कलचुरियों एवं बस्तर के नल शासकों ने वाकाटक राज्य के अधिकांश क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया और चालुक्य नरेशों ने इन सभी शक्तियों को पराजित कर दक्षिण में अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया।

वाकाटकों की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

वाकाटक शासकों ने लगभग तीन शताब्दियों तक दक्षिण में शासन किया। वाकाटक नरेशों के शासनकाल में संस्कृति, कला और साहित्य की उल्लेखनीय प्रगति हुई। लगता है कि सातवाहन शासकों के आदर्श पर वाकाटकों ने भी प्राकृत भाषाओं को अधिक प्रश्रय दिया। प्रवरसेन द्वितीय स्वयमेव कलाकार और काव्यानुरागी था। उसने महाराष्ट्रीय लिपि में ‘सेतुबंध’ (‘रावणवहौ) महाकाव्य की रचना की, जो उसकी काव्यदक्षता और लोकभाषानुराग का परिचायक है। गद्यकार दंडी ने इस महाकव्य को ‘सागरः सूक्ति रत्नानाम्’ कहकर बड़ी प्रशंसा की है। सर्वसेन ने ‘हरिविजय’ नामक प्राकृत काव्य-ग्रंथ लिखा।

संस्कृत की वैदर्भी शैली का विकास भी वाकाटक राजाओं के काल में हुआ। कुछ विद्वानों के अनुसार कालीदास ने कुछ समय तक वाकाटक नरेश प्रवरसेन द्वितीय की राज्यसभा में निवास किया था, सेतुबंध में संशोधन किया था और वैदर्भी शैली में अपने ग्रंथ ‘मेघदूत’ की रचना की थी।

वाकाटक वंश के शासक शिव एवं विष्णु के उपासक थे। वैदिक आचारों के अनुयायी वाकाटक राजाओं ने अनेक अश्वमेध तथा वाजपेय यज्ञों का संपादन किया था। इनकी उपाधियाँ ‘परममाहेश्वर’ तथा ‘परमभागवत’ थीं।

वाकाटक राजवंश (Vakataka Dynasty)
अजंता की गुफाएँ

वाकाटक शासक कलाप्रिय और कलाओं के संरक्षक थे। उनके काल में सातवाहनों के परंपरागत कला-विकास का तारतम्य पूर्ववत् बना रहा। उनके संरक्षण में वास्तु, मूर्ति और चित्रकला, इन तीनों कलाओं की प्रगति हुई। भवन-निर्माण कला एवं मूर्तिकला की दृष्टि से विदर्भ का तिगवा (जबलपुर, मध्य प्रदेश) एवं नचना (पन्ना, मध्य प्रदेश) का मंदिर महत्त्वपूर्ण है जिसका निर्माण पृथ्वीसेन के सामंत व्याघ्रदेव ने करवाया था। तिगवा मंदिर में गंगा, यमुना की मूर्तियाँ स्थापित हैं। इसके अतिरिक्त उदयगिरि, देवगढ़ और अजंता के भव्य मंदिरों एवं वहाँ की मूर्तियों में तत्कालीन स्थापत्य और मूर्तिकला का प्रौढ़ रूप प्रकाश में आया। चित्रकला के विश्वविख्यात कला-केंद्र अजंता की गुफा संख्या 16, 17 के गुहा-विहार एवं गुफा संख्या 19 के गुहा-चैत्य का निर्माण वाकाटकों के ही समय में हुआ था। गुफा संख्या 16 का निर्माण हरिषेण के योग्य मंत्री वराहदेव ने करवाया था। फर्ग्युसन महोदय ने गुफा संख्या 19 को भारतीय बौद्धकला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बताया है। इस प्रकार ‘अपने तीन सौ वर्षों के शासनकाल में वाकाटकों ने राजसी वैभव की अपेक्षा आचारनिष्ठ सामाजिक जीवन और सांस्कृतिक उत्थान की दिशा में विशेष योगदान दिया।’

इन्हें भी पढ़ सकते हैं-

भारत में प्रागैतिहासिक संस्कृतियाँ : मध्यपाषाण काल और नवपाषाण काल

सिंधुघाटी सभ्यता में कला एवं धार्मिक जीवन 

जैन धर्म और भगवान् महावीर 

शुंग राजवंश : पुष्यमित्र शुंग 

कुषाण राजवंश का इतिहास और कनिष्क महान 

भारत पर ईरानी और यूनानी आक्रमण 

आंग्ल-सिख युद्ध और पंजाब की विजय 

यूरोप में पुनर्जागरण पर बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

प्राचीन भारतीय इतिहास पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

जैन धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

जैन धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-2

बौद्ध धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1

भारत के प्राचीन इतिहास पर आधारित क्विज-1 

भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1

शाकम्भरी का चाहमान (चौहान) राजवंश 

सविनय अवज्ञा आंदोलन