सुभाषचंद्र बोस
महात्मा गांधी के आशीर्वाद से सुभाषचंद्र बोस फरवरी 1938 में हरिपुरा (गुजरात) कांग्रेस अधिवेशन में सर्वसम्मति से कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए थे। इस अवसर का लाभ उठाते हुए उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में संघीय और समाजवादी आधार पर प्रशासित स्वतंत्र एवं विकासशील भारत का प्रारूप कांग्रेस प्रतिनिधियों के समक्ष प्रस्तुत किया।
सुभाष के नेतृत्व में हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन संपन्न हुआ, किंतु इसके बाद से ही कांग्रेस में सैद्धांतिक और राजनीतिक मतभेद उभरने लगे। जब सुभाष ने राष्ट्रीय संग्राम को तत्काल शुरू करने और ब्रिटेन से किसी भी प्रकार का समझौता न करने की मुहिम शुरू की, तो स्थिति और जटिल हो गई। सुभाष ने राष्ट्रीय संग्राम के लिए जनता को तैयार करने के उद्देश्य से भारत भर में प्रचार अभियान चलाया, ताकि यूरोप में युद्ध शुरू होने के साथ ही भारत में स्वतंत्रता संग्राम आरंभ किया जा सके।
दरअसल, 1938 में सुभाष को लगने लगा था कि यूरोप में युद्ध अवश्यंभावी है। लेकिन गांधी और नेहरू उनकी इस राय से सहमत नहीं थे। यद्यपि सुभाष की गांधी की कार्यपद्धति और रणनीति से असहमति लंबे समय से बनी हुई थी, और एक समय जवाहरलाल नेहरू ने भी इसमें उनका साथ दिया था, किंतु इस समय तक गांधी और नेहरू के बीच राजनीतिक गठजोड़ बन चुका था। इसी बीच सुभाष ने गांधी के स्पष्ट विरोध के बावजूद 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए पुनः चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। 21 जनवरी 1939 को अपनी उम्मीदवारी घोषित करते हुए उन्होंने कहा कि वे नए विचारों और विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो भारत में साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के तेज होने के साथ उभरे हैं। उनका कहना था : “कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव विभिन्न उम्मीदवारों द्वारा विभिन्न समस्याओं और कार्यक्रमों के आधार पर लड़ा जाना चाहिए।” उन्होंने कांग्रेसजनों से अपील की कि वे ऐसे अध्यक्ष का चुनाव करें, जो वामपंथी होने के साथ-साथ संघवाद का विरोधी भी हो। यह गांधी के कांग्रेस पर प्रभुत्व और प्रभाव को खुली चुनौती थी, जो पहले अकल्पनीय थी।
सुभाषचंद्र बोस के जवाब में 24 जनवरी 1939 को सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, जे.बी. कृपलानी और कांग्रेस कार्यसमिति के चार अन्य सदस्यों ने बयान जारी किया कि कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में विचारधाराओं, कार्यक्रमों और नीतियों की बात करना व्यर्थ है, क्योंकि इनका निर्णय कांग्रेस की विभिन्न समितियाँ करती हैं। कांग्रेस अध्यक्ष की भूमिका एक संवैधानिक प्रमुख की तरह होती है, जो राष्ट्र की एकता को प्रतिबिंबित करता है। इन नेताओं ने गांधी के आशीर्वाद से पट्टाभि सीतारमैया को अपना उम्मीदवार बनाया। यह चुनाव वैचारिक मुद्दों पर दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ, संघ-समर्थन बनाम संघ-विरोध और मंत्रिमंडल-समर्थन बनाम मंत्रिमंडल-विरोध के आधार पर लड़ा गया। 29 जनवरी 1939 को सुभाष ने 1377 के मुकाबले 1580 मतों से जीत हासिल की। गांधी ने इसे अपनी हार स्वीकार की और कार्यकारिणी समिति के 15 में से 12 सदस्यों ने तत्काल इस्तीफा दे दिया।
सुभाष के अध्यक्ष निर्वाचित होने से कांग्रेस का आंतरिक संकट और गहरा गया। सुभाष लगातार सरदार पटेल और अन्य कांग्रेस नेताओं को दक्षिणपंथी करार देते रहे। उनका स्पष्ट आरोप था : “ये नेता सरकार से समझौते की कोशिश कर रहे थे और नहीं चाहते थे कि कोई वामपंथी कांग्रेस अध्यक्ष बने, क्योंकि वह समझौते में बाधक बन सकता है और वार्ताओं में रुकावट डाल सकता है।” बाद में अपनी आत्मकथा के दूसरे हिस्से में उन्होंने लिखा कि कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उन्होंने पूरी कोशिश की कि कांग्रेस समझौतावाद की राह न अपनाए, जिससे गांधीवादियों को परेशानी हुई। सुभाष के शब्दों में : “गांधीवादी नहीं चाहते थे कि मंत्रिपदीय और संसदीय कार्यों में बाधा आए और वे उस समय किसी राष्ट्रीय संघर्ष के भी खिलाफ थे।” कांग्रेसी नेता समझौतावादी कहे जाने से नाराज थे। सुभाष के अध्यक्ष चुने जाने पर उन्हें लग रहा था कि वे ऐसे अध्यक्ष के साथ काम नहीं कर सकते, जिसने उनके राष्ट्रप्रेम पर सवाल उठाए हों। गांधी ने बयान दिया : “मैं इस जीत से प्रसन्न हूँ, क्योंकि सुभाष बाबू, जिन्हें दक्षिणपंथी कहते हैं, उनकी मूक सहमति से अध्यक्ष बनने के बजाय प्रतिस्पर्धात्मक चुनाव जीतकर अध्यक्ष बने हैं। इससे उन्हें अपने विचारों की कार्यकारिणी बनाने और बिना किसी अवरोध के अपना कार्यक्रम लागू करने में सुविधा होगी।”
जवाहरलाल नेहरू यद्यपि सुभाष से सहमत नहीं थे, किंतु वे सीधे टकराव से बचना चाहते थे। चुनाव से पहले उन्होंने कहा था कि विवाद न तो सिद्धांतों और कार्यक्रमों पर है और न ही वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच। उन्होंने 14 फरवरी 1939 को सुभाष को स्पष्ट लिखा ; “मैं नहीं जानता कि आप किसे वामपंथी और किसे दक्षिणपंथी मानते हैं। अध्यक्षीय चुनाव के दौरान आपने इन शब्दों का जिस तरह उपयोग किया, उससे लगता है कि गांधीजी और कार्यसमिति के उनके समर्थक दक्षिणपंथी हैं और उनके विरोधी, चाहे वे कहीं भी हों, वामपंथी हैं। मुझे लगता है कि इस तरह देखना गलत है। मेरी नजर में तथाकथित वामपंथियों में से कई तथाकथित दक्षिणपंथियों से भी अधिक दक्षिणपंथी हैं। कठोर भाषा का उपयोग और कांग्रेस के पुराने नेतृत्व की आलोचना करने की क्षमता वामपंथ की कसौटी नहीं है।… मेरा मानना है कि ‘वाम’ और ‘दक्षिण’ शब्दों का उपयोग आमतौर पर पूरी तरह गलत और भ्रामक है। यदि हम इन शब्दों के बजाय नीतियों पर बात करें, तो बेहतर होगा। यह खुशी की बात है कि आप संघवाद-विरोधी नीतियों की वकालत करते हैं। मेरा मानना है कि कार्यसमिति के अधिकांश नेताओं की नीति भी यही है।” दरअसल, गांधी और सुभाषचंद्र बोस के बीच विवाद का मुख्य कारण कांग्रेस की रणनीतियों को लेकर था। सुभाष का मानना था कि कांग्रेस तत्काल संघर्ष शुरू करने की स्थिति में है और जनता उसका साथ देने को तैयार है। त्रिपुरी कांग्रेस के अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने प्रस्ताव रखा कि ब्रिटिश सरकार को छह महीने की मोहलत दी जाए और इस अवधि में यदि भारत को स्वतंत्र न किया गया, तो सामूहिक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया जाए।
गांधी का मानना था कि स्वतंत्रता के लिए संघर्ष आवश्यक है, किंतु अभी चेतावनी देने का समय नहीं है, क्योंकि न तो कांग्रेस और न ही जनता संघर्ष के लिए तैयार है। 5 मई 1939 को एक साक्षात्कार में गांधी ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए कहा : “सुभाष मानते हैं कि हमारे पास लड़ने की पूरी ताकत है। मैं उनके विचारों से पूरी तरह असहमत हूँ। आज हमारे पास लड़ने की कोई ताकत नहीं है।… सांप्रदायिक कलह की कोई सीमा नहीं है।… बिहार के किसानों पर हमारी पहले जैसी पकड़ नहीं रही।… मजदूरों और किसानों के बिना हम कुछ नहीं कर सकते। देश तो उन्हीं का है। सरकार को चेतावनी देने की शक्ति मुझमें नहीं है। ऐसा करना देश को हास्यास्पद बनाएगा।” गांधी जानते थे कि भ्रष्टाचार और अनुशासनहीनता ने कांग्रेस की संघर्षशीलता को कमजोर कर दिया है। 1938 और 1939 की शुरुआत में उन्होंने बार-बार और सार्वजनिक रूप से कांग्रेस में आपसी उठापटक, दलीय चुनावों में फर्जी सदस्यता और जाली मतदान, कांग्रेस समितियों पर कब्जा करने की प्रवृत्ति और दल में अनुशासन के ह्रास के मुद्दे उठाए। उन्होंने लिखा : “कांग्रेस में फैले भ्रष्टाचार से मैं इतना तंग आ चुका हूँ कि यदि इसे समाप्त नहीं किया जा सकता, तो कांग्रेस को खत्म करने में मुझे कोई हिचक नहीं होगी।” बाद में, जब नवंबर 1939 में कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने इस्तीफा दिया, तो उन्होंने लिखा : “जो हुआ, वह हमारे उद्देश्य के लिए सर्वोत्तम है। मैं जानता हूँ कि यह एक कड़वा घूँट है, लेकिन इसकी जरूरत थी। इससे संगठन सभी दूषित तत्वों से मुक्त हो जाएगा।”
कांग्रेस का त्रिपुरी अधिवेशन और पंत प्रस्ताव
कांग्रेस का आंतरिक टकराव त्रिपुरी अधिवेशन (8 मार्च 1939) में चरम पर पहुँच गया। पहले नवनिर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष अपनी कार्यकारिणी का गठन करता था, लेकिन 1939 के अध्यक्षीय चुनाव में हार के बाद गांधीवादी दक्षिणपंथी गुट ने त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष को उनकी कार्यकारिणी चुनने के अधिकार पर अंकुश लगाने की कोशिश की। गोविंदवल्लभ पंत ने इस आशय का प्रस्ताव रखा, जिसे ‘पंत प्रस्ताव’ के नाम से जाना जाता है। इस प्रस्ताव में गांधी के नेतृत्व, पुरानी कार्यसमिति और बीस वर्षों से चली आ रही कांग्रेस नीतियों में पूर्ण निष्ठा व्यक्त की गई, और सुभाष से कहा गया कि वे गांधी की इच्छा के अनुसार कार्यकारिणी का गठन करें।
बोस समर्थकों ने पंत प्रस्ताव पर कई संशोधन और सुझाव प्रस्तुत किए, लेकिन अधिकांश प्रतिनिधियों ने इन्हें स्वीकार नहीं किया। कांग्रेस का वामपंथी गुट इस मुद्दे पर गंभीर रूप से विभाजित हो गया। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाली कांग्रेस समाजवादी पार्टी (कांसपा), जो सबसे बड़ा वामपंथी समूह था, ने भी पंत प्रस्ताव के खिलाफ वोट नहीं दिया। कई लोगों ने इसे बोस के साथ विश्वासघात माना, लेकिन कुछ का मानना था कि सुभाष को त्रिपुरी में और उसके बाद समाजवादियों और कम्युनिस्टों का समर्थन इसलिए नहीं मिला, क्योंकि वे किसी भी कीमत पर राष्ट्रीय एकता बनाए रखना चाहते थे।
त्रिपुरी अधिवेशन के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने बयान जारी किया : “साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के हित में एक पक्ष का एकल नेतृत्व नहीं, बल्कि गांधी के मार्गदर्शन में संयुक्त नेतृत्व की आवश्यकता है।” पार्टी के महासचिव पी.सी. जोशी ने अप्रैल 1939 में लिखा : “आज सबसे बड़ा वर्ग-संघर्ष हमारा राष्ट्रीय संघर्ष है और कांग्रेस इस संघर्ष का मुख्य साधन है।” अंततः पंत प्रस्ताव भारी बहुमत से पारित हो गया और अध्यक्ष पद का चुनाव जीतने के बावजूद सुभाष त्रिपुरी में गांधीवादी दक्षिणपंथियों से परास्त हो गए। इस प्रकार पंत प्रस्ताव के माध्यम से कांग्रेस की राजनीति पर गांधी का वर्चस्व कायम रहा।
सुभाष एक विचित्र संकट में फँस गए, क्योंकि उन्हें पता था कि वे कांग्रेस को अपने तरीके से नहीं चला सकते। उन्होंने स्थिति को सुधारने के लिए 31 मार्च 1939 को गांधी को पत्र लिखकर अपील की : “यदि हमारे रास्ते अलग हुए, तो गृहयुद्ध छिड़ जाएगा। इसका परिणाम जो भी हो, इससे कांग्रेस लंबे समय तक कमजोर हो जाएगी और इसका लाभ ब्रिटिश सरकार उठाएगी। कांग्रेस और देश को इस संकट से उबारना आपके हाथ में है।… इसमें कोई शक नहीं कि आज कांग्रेस के दो प्रमुख दलों या धड़ों के बीच गहरी खाई है, लेकिन यह खाई केवल आप ही पाट सकते हैं।” सुभाष चाहते थे कि आने वाले संघर्ष का नेतृत्व गांधी करें, लेकिन रणनीति सुभाष और वामपंथी समूह तय करें। गांधी को यह स्वीकार्य नहीं था। उन्होंने सुभाष को लिखा : “यदि आपका आकलन सही है, तो मैं पिछड़ चुका हूँ, और सत्याग्रह के सेनापति के रूप में मेरी भूमिका समाप्त हो चुकी है।” इस प्रकार गांधी और सुभाष के बीच कार्यकारिणी के गठन को लेकर समझौते की कोशिशें कुछ समय तक चलीं, लेकिन अंततः असफल रहीं।
अब सुभाष के पास इस्तीफा देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। एक ओर वे चाहते थे कि कार्यसमिति में नए वामपंथी विचारों वाले लोग शामिल हों और दूसरी ओर वे अपनी कार्यकारिणी की घोषणा करने को तैयार नहीं थे। गांधी का समर्थन न मिलने पर फरवरी 1939 में सुभाष ने घोषणा की थी : “यदि वे देश के महानतम व्यक्ति का समर्थन हासिल नहीं कर सकते, तो उनकी चुनावी जीत निरर्थक है।” अंततः 29 अप्रैल 1939 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में सुभाष ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और तुरंत उनकी जगह राजेंद्र प्रसाद को अध्यक्ष चुन लिया गया। सुभाष के इस्तीफे की खबर सुनकर रवींद्रनाथ ठाकुर ने उनकी शिष्टता और धैर्य की सराहना की। 2 मई 1939 को नए कांग्रेस अध्यक्ष ने अपनी कार्यकारिणी के सदस्यों की घोषणा की, जिसमें सुभाष की जगह डॉ. प्रफुल्लचंद्र घोष को शामिल किया गया, लेकिन नेहरू की जगह खाली रखी गई।
यह संयोग नहीं था कि गांधी ने सुभाष को ‘अपराजेय’ कहा था। कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के कुछ ही दिन बाद 3 मई 1939 को सुभाषचंद्र बोस और उनके समर्थकों ने कांग्रेस के अंदर ही ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ नामक एक नए दल की स्थापना की, ताकि सभी वामपंथी शक्तियों को एक मंच पर लाया जा सके। किंतु बंगाल प्रांत से बाहर फॉरवर्ड ब्लॉक को कोई खास समर्थन नहीं मिला।
सुभाष का निष्कासन
जब सुभाष ने प्रांतीय कांग्रेस समितियों की पूर्व अनुमति के बिना अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के एक प्रस्ताव के खिलाफ 9 जुलाई को ‘देशव्यापी प्रतिवाद दिवस’ मनाने का आह्वान किया, तो गांधी के इशारे पर कांग्रेस कार्यसमिति ने उन्हें अनुशासनहीनता का दंड दिया। अगस्त 1939 में उन्हें कांग्रेस के सभी पदों से, विशेषकर बंगाल प्रांतीय कांग्रेस समिति के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया और आदेश दिया गया कि वे अगले तीन वर्षों तक पार्टी के किसी भी पद पर नहीं रह सकते।
कांग्रेस से निष्कासित होने और वामपंथी शक्तियों को एकजुट करने की असफल कोशिशों के बाद सुभाष को लगने लगा कि भारत में रहते हुए स्वतंत्रता संग्राम को जारी रखने के लिए उनके पास सीमित विकल्प बचे हैं। फलस्वरूप उन्होंने उपलब्ध अवसरों का लाभ उठाते हुए भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष के लिए विदेशों से सहायता लेने पर विचार शुरू किया। फिर भी, गांधी और सुभाष के व्यक्तिगत संबंध अप्रभावित रहे। गांधी को सुभाष की मंशा पर कोई संदेह नहीं था; उनकी आपत्ति केवल सुभाष की रणनीति को लेकर थी। बाद में, जनवरी 1940 में चार्ल्स सी.एफ. एंड्रयूज को लिखे पत्र में गांधी ने सुभाष को ‘मेरा बेटा’ कहा, लेकिन ‘परिवार का बिगड़ैल बच्चा’ भी बताया, जिसे उसके भले के लिए सबक सिखाना जरूरी था। विमान दुर्घटना में सुभाष की मृत्यु की खबर मिलने पर गांधी की प्रतिक्रिया थी : “हिंदुस्तान का सबसे बहादुर व्यक्ति अब नहीं रहा।” सुभाष के मन में भी गांधी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं थी। इसलिए उन्होंने 6 जुलाई 1944 को सिंगापुर से आजाद हिंद रेडियो के माध्यम से गांधी को संबोधित करते हुए कहा था: “भारत की स्वाधीनता का अंतिम युद्ध शुरू हो चुका है। राष्ट्रपिता! भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ चाहते हैं।”










