तीसवर्षीय युद्ध (Thirty Year War, 1618-1648 AD)

यूरोप के इतिहास में तीसवर्षीय युद्ध एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर है, जहाँ से मध्यकाल […]

तीसवर्षीय युद्ध 1618-1648 ई. (Thirty Year War, 1618-1648 AD)

यूरोप के इतिहास में तीसवर्षीय युद्ध एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर है, जहाँ से मध्यकाल के समस्त अवशेष समाप्त हो गए और आधुनिक युग की वास्तविक यात्रा प्रारंभ हुई। 1618 ई. में शुरू हुआ यह युद्ध एक एकल युद्ध न होकर अनेक युद्धों की श्रृंखला के समान था। यह युद्ध मुख्यतः जर्मनी की भूमि पर लड़ा गया, किंतु इसमें भाग लेने वाले योद्धा अधिकांशतः गैर-जर्मन थे। एक दृष्टि से तीसवर्षीय युद्ध पहला अखिल-यूरोपीय युद्ध था, जिसमें यूरोप के सभी प्रमुख देशों ने भाग लिया। जर्मन भूमि पर लड़े गए इस युद्ध में जर्मनी के अतिरिक्त स्पेन, डेनमार्क, स्वीडन, हॉलैंड और फ्रांस की सेनाओं ने हिस्सा लिया।

तीसवर्षीय युद्ध यूरोप का सबसे भीषण और अंतिम धार्मिक युद्ध था। इस युद्ध की एक अन्य विशेषता यह थी कि यह धार्मिक कारणों से शुरू हुआ, जिसमें एक ओर कैथोलिक देश और दूसरी ओर प्रोटेस्टेंट देश थे। किंतु युद्ध के अंतिम चरण में धार्मिक कारण पृष्ठभूमि में चले गए और राजनीतिक दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण हो गए। इसका कारण यह था कि कैथोलिक देश फ्रांस ने कैथोलिक राज्यों का पक्ष न लेकर जर्मनी के प्रोटेस्टेंट राज्यों का समर्थन करते हुए युद्ध में हस्तक्षेप किया। फ्रांस के प्रधानमंत्री रिशल्यू हैब्सबर्ग राजवंश की शक्ति को कमजोर करके यूरोप में फ्रांस के बूर्बों राजवंश की सर्वोच्चता स्थापित करना चाहते थे।

तीसवर्षीय युद्ध 1618-1648 ई. (Thirty Year War, 1618-1648 AD)
पवित्र रोमन साम्राज्य 1618

तीसवर्षीय युद्ध की पृष्ठभूमि

तीसवर्षीय युद्ध की पृष्ठभूमि

कैथोलिकों और प्रोटेस्टेंटों के बीच चल रही प्रतिस्पर्धा को 1555 ई. की आग्सबर्ग संधि की धाराएँ नियंत्रित करने में असफल रहीं। वास्तव में, अधिक से अधिक चर्चों और उनकी अकूत संपत्ति पर कब्जा करने की होड़ ने आग्सबर्ग संधि को निष्प्रभावी बना दिया। कैथोलिकों और प्रोटेस्टेंटों के बीच यह प्रतिस्पर्धा 1606 ई. में डोनावर्थ नगर में सांप्रदायिक दंगों का कारण बनी। इस नगर में प्रोटेस्टेंट मतावलंबियों का बहुमत था, किंतु धीरे-धीरे कैथोलिकों की संख्या भी बढ़ने लगी। 1603 ई. में जब कैथोलिकों ने ध्वजों के साथ धार्मिक जुलूस निकालना शुरू किया, तो इस प्रोटेस्टेंट नगर की परिषद ने इसका विरोध किया। कैथोलिकों ने साम्राज्यिक न्यायालय से एक तात्कालिक आदेश प्राप्त कर सितंबर 1606 ई. में एक उत्तेजक जुलूस निकाला, जिसके परिणामस्वरूप नगर में दंगा भड़क गया। उस समय रूडोल्फ द्वितीय पवित्र रोमन सम्राट थे। उन्होंने इस दंगे की जाँच और अल्पसंख्यक कैथोलिकों को सुरक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी बवेरिया के ड्यूक मैक्सिमिलियन को सौंपी।

मैक्सिमिलियन एक कट्टर कैथोलिक था। उसने अप्रैल 1607 ई. में नगर परिषद को निर्देश दिया कि वह कैथोलिकों की धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप न करे और उन्हें धार्मिक जुलूस निकालने की अनुमति दे। जब नगर परिषद ने इस आदेश का पालन करने से इनकार किया, तो 12 नवंबर 1607 ई. को नगर पर साम्राज्यिक प्रतिबंध लागू कर दिया गया। सितंबर 1608 ई. में मैक्सिमिलियन ने सेना की सहायता से इस नगर पर कब्जा कर लिया। मैक्सिमिलियन की इस कार्रवाई से असंतुष्ट जर्मनी के प्रोटेस्टेंट राजकुमारों ने 16 मई 1608 ई. को ‘प्रोटेस्टेंट यूनियन’ की स्थापना की। इस यूनियन को फ्रांस के सम्राट हेनरी चतुर्थ का संरक्षण प्राप्त था। इसके जवाब में एक वर्ष के भीतर बवेरिया के मैक्सिमिलियन ने कैथोलिकों को संगठित कर ‘कैथोलिक लीग’ की स्थापना की, जिसे स्पेन के सम्राट का समर्थन प्राप्त था।

इसी समय क्लीव्स-जूलिख में उत्तराधिकार की समस्या ने युद्ध की संभावना को जन्म दिया, क्योंकि वहाँ के ड्यूक की बिना किसी पुरुष उत्तराधिकारी के मृत्यु हो गई। उसके दोनों निकटतम उत्तराधिकारी प्रोटेस्टेंट थे, जिससे इस क्षेत्र में प्रोटेस्टेंट प्रभाव बढ़ने की आशंका पैदा हो गई। प्रोटेस्टेंट यूनियन और सम्राट हेनरी चतुर्थ ने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी, किंतु उसी समय हेनरी चतुर्थ की हत्या हो गई, जिसके कारण प्रोटेस्टेंट युद्ध की स्थिति में नहीं रह गए। इस संकट को 1614 ई. में एक संधि द्वारा समाप्त करने का प्रयास किया गया, जिसके अनुसार जूलिख कैथोलिक शासक लुई फिलिप को और क्लीव्स प्रोटेस्टेंट शासक ब्रैंडेनबर्ग के इलेक्टर को दे दिया गया। किंतु यह संधि संकट को स्थायी रूप से हल नहीं कर सकी और शीघ्र ही जर्मनी में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं, जिनसे तीसवर्षीय युद्ध अनिवार्य हो गया।

तीसवर्षीय युद्ध के कारण

धर्म सुधार आंदोलन के कारण जर्मनी दो धार्मिक गुटों में विभाजित हो गया था- कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट। 1555 ई. की आग्सबर्ग संधि ने रोमन कैथोलिकों और लूथरवादियों के बीच संघर्ष को समाप्त करने का प्रयास किया, किंतु जर्मनी में स्थायी धार्मिक समझौता संभव नहीं हुआ। इस संधि में केवल रोमन कैथोलिकों और लूथरवादियों को मान्यता दी गई थी, जबकि 1555 ई. के बाद जर्मनी में काल्विनवादियों का प्रभाव बढ़ रहा था और वे भी समान अधिकारों की माँग कर रहे थे। आग्सबर्ग संधि ने रोमन कैथोलिक चर्च की संपत्ति को जब्त करने पर रोक लगाई थी, किंतु जर्मनी के प्रोटेस्टेंट इस प्रावधान का उल्लंघन करते हुए कैथोलिक चर्च की संपत्ति हथिया रहे थे। दूसरी ओर जर्मनी के कैथोलिकों का दृष्टिकोण भी आक्रामक हो रहा था और वे प्रोटेस्टेंटवाद को जर्मनी से पूर्णतः समाप्त करना चाहते थे। इसके अतिरिक्त जर्मनी के प्रोटेस्टेंट राजकुमार पवित्र रोमन सम्राट के राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त होने के लिए लालायित थे। इस तनावपूर्ण वातावरण में बोहेमिया का प्रश्न उत्पन्न हुआ, जिसने अंततः तीसवर्षीय युद्ध को जन्म दिया।

तीसवर्षीय युद्ध के कारणों को सामान्यतः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है: धार्मिक, राजनीतिक और तात्कालिक।

धार्मिक कारण

तीसवर्षीय युद्ध धार्मिक कारणों से शुरू हुआ। 1555 ई. की आग्सबर्ग संधि से धार्मिक विवाद समाप्त नहीं हुए, बल्कि इस संधि में ही भावी विवादों के बीज निहित थे। संधि की शर्तों के अनुसार जर्मनी के प्रत्येक शासक को अपने राज्य का धर्म निर्धारित करने का अधिकार प्राप्त था। इसका अर्थ था कि शासक अपनी प्रजा का धर्म निर्धारित करता था। दूसरा, शासक को केवल रोमन कैथोलिक धर्म या लूथरवाद अपनाने की अनुमति थी; अन्य धर्मों को मान्यता नहीं थी। तीसरा, यदि कोई कैथोलिक बिशप लूथरवाद अपना लेता था, तो उसे अपने बिशप पद के सभी अधिकार त्यागने पड़ते थे। चौथा, संधि में कैथोलिक चर्च की संपत्ति की रक्षा का प्रावधान था, जिसमें कहा गया था कि 1 जनवरी 1552 ई. के बाद रोमन कैथोलिक चर्च की संपत्ति सुरक्षित रहेगी, किंतु इससे पूर्व प्रोटेस्टेंटों द्वारा हथियाई गई संपत्ति उनके पास ही रहेगी।

इन प्रावधानों से अनेक समस्याएँ उत्पन्न हुईं। पहली समस्या यह थी कि शासकों को अपनी प्रजा का धर्म निर्धारित करने का अधिकार मिल गया, जिसमें प्रजा के अधिकारों का कोई उल्लेख नहीं था। दूसरी समस्या यह थी कि संधि ने प्रोटेस्टेंट धर्म के केवल लूथरवाद को मान्यता दी, जबकि काल्विनवाद का प्रभाव बढ़ रहा था और उसे मान्यता नहीं मिली। इसका परिणाम यह हुआ कि काल्विनवादियों ने अपनी सुरक्षा के लिए एक लीग बनाई, जिससे तीसवर्षीय युद्ध शुरू हुआ। तीसरी समस्या यह थी कि संपत्ति की रक्षा के प्रावधान का ठीक से पालन नहीं हुआ, जिससे अनेक विवाद उत्पन्न हुए। कैथोलिकों का कहना था कि 1 जनवरी 1552 ई. के बाद प्रोटेस्टेंट बने बिशपों की संपत्ति वापस की जाए, जबकि प्रोटेस्टेंट शासक इसे लौटाने को तैयार नहीं थे। इस प्रकार दोनों संप्रदायों में कटुता बढ़ती गई।

राजनीतिक कारण

तीसवर्षीय युद्ध के कारण केवल धार्मिक नहीं थे; इसमें राजनीतिक कारण भी महत्त्वपूर्ण थे। इनमें राजवंशों की वंशानुगत महत्त्वाकांक्षाएँ भी शामिल थीं। आस्ट्रिया का हैब्सबर्ग राजवंश, जो पवित्र रोमन साम्राज्य का सम्राट भी था, जर्मनी पर अपनी निरंकुश सत्ता स्थापित करना चाहता था। किंतु जर्मनी के राजकुमार अपनी परंपरागत स्वतंत्रता और अधिकारों को बनाए रखना चाहते थे। इन राजकुमारों में एकता का अभाव था और कुछ राजकुमार अपने स्वार्थों के लिए सम्राट का समर्थन करते थे। सम्राट को स्पेन के हैब्सबर्ग राजवंश से भी सहायता मिलती थी। दूसरी ओर हैब्सबर्ग वंश के विस्तार से फ्रांस को अपनी सुरक्षा की चिंता थी। इस वंश के शासक आस्ट्रिया के अतिरिक्त स्पेन, नीदरलैंड, फ्रेंच कॉम्टे, मिलान और सिसिली पर शासन करते थे। फ्रांस को लगता था कि वह हैब्सबर्ग क्षेत्रों से घिर गया है। अतः फ्रांस इस घेरे को तोड़ना चाहता था। फ्रांस के प्रधानमंत्री रिशल्यू का उद्देश्य राइन नदी तक फ्रांस का विस्तार करना और यूरोप में फ्रांस को सर्वशक्तिशाली बनाना था। इसके लिए वह जर्मनी में हस्तक्षेप कर आस्ट्रिया के सम्राट की शक्ति को कमजोर करना चाहता था।

तीसरा, बाल्टिक राज्यों की महत्त्वाकांक्षाएँ और बाल्टिक सागर में बढ़ता व्यापार भी युद्ध का एक कारण था। इस व्यापार पर डेनमार्क का नियंत्रण था। स्वीडन ने बाल्टिक सागर के पूर्वी तट पर अधिकार कर लिया था और अब वह जर्मनी के उत्तरी भाग पर कब्जा करके बाल्टिक सागर को ‘स्वीडिश झील’ बनाना चाहता था। डेनमार्क भी जर्मनी में अपना विस्तार चाहता था। अतः इन राजनीतिक स्वार्थों ने भी तीसवर्षीय युद्ध को प्रभावित किया।

तात्कालिक कारण: बोहेमिया का विद्रोह

तीसवर्षीय युद्ध का तात्कालिक कारण आस्ट्रियाई साम्राज्य के विरुद्ध बोहेमिया का विद्रोह था। बोहेमिया की जनता चेक जाति की थी और अधिकांशतः काल्विनवादी थी। राजनीतिक दृष्टि से बोहेमिया आस्ट्रियाई साम्राज्य का एक राज्य था और एक शताब्दी से अधिक समय से आस्ट्रिया के कैथोलिक सम्राट वहाँ शासन कर रहे थे। 1618 ई. में सम्राट मैथियास की मृत्यु के बाद फर्डिनेंड द्वितीय आस्ट्रिया का सम्राट बना। फर्डिनेंड एक कट्टर कैथोलिक था और प्रोटेस्टेंटों को किसी भी प्रकार की रियायत देने के विरुद्ध था।

बोहेमिया की चेक जनता को भय था कि उन्हें बलपूर्वक कैथोलिक बनाया जाएगा। इसी समय, सम्राट ने प्रोटेस्टेंट सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया और प्रशासनिक पदों से प्रोटेस्टेंटों को हटा दिया। उसने सार्वजनिक रूप से ‘लेटर ऑफ मैजेस्टी’ की आलोचना शुरू की और राजकीय भूमि पर खेती करने वाले उन किसानों को निष्कासित कर दिया, जिन्होंने कैथोलिक धर्म स्वीकार नहीं किया। इससे बोहेमिया की जनता की आशंकाएँ और गहरी हो गईं और उन्होंने विद्रोह करने का निर्णय लिया। इस तनावपूर्ण वातावरण में 23 मई 1618 ई. को सम्राट फर्डिनेंड ने चेक लोगों से वार्ता के लिए अपने दो प्रतिनिधियों- जारोस्लाव मार्टिनिट्ज और विल्हेम स्लावाटा को बोहेमिया की राजधानी प्राग भेजा। किंतु बातचीत के दौरान वातावरण इतना तनावपूर्ण हो गया कि क्रोधित चेक प्रोटेस्टेंटों ने सम्राट के दोनों प्रतिनिधियों को महल की खिड़की से नीचे फेंक दिया। यद्यपि वे दोनों बच गए, किंतु ‘प्राग की खिड़की की घटना’ सम्राट की सत्ता और कैथोलिक लीग के लिए खुली चुनौती थी, जिसे ‘प्राग डिफेनेस्ट्रेशन’ के नाम से जाना जाता है।

तीसवर्षीय युद्ध 1618-1648 ई. (Thirty Year War, 1618-1648 AD)
बोहेमिया के विद्रोह का आरंभ

बोहेमिया के विद्रोह का आरंभ

सम्राट फर्डिनेंड द्वितीय ने बोहेमिया के विद्रोह को दबाने के लिए सेना भेजी। इसके जवाब में बोहेमिया के प्रोटेस्टेंटों ने फर्डिनेंड को पदच्युत करने की घोषणा की और 26 अगस्त 1618 ई. को पफाल्ट्स (पेलटिनेट) के इलेक्टर फ्रेडरिक पंचम को बोहेमिया का राजा घोषित कर दिया। फ्रेडरिक प्रोटेस्टेंट यूनियन का नेता और इंग्लैंड के सम्राट जेम्स प्रथम की पुत्री एलिजाबेथ का पति था। इससे विद्रोही प्रोटेस्टेंटों को यह विष्वास था कि उन्हें इंग्लैंड का समर्थन प्राप्त होगा। इस प्रकार बोहेमिया के विद्रोह ने प्रोटेस्टेंट यूनियन और कैथोलिक लीग के बीच युद्ध को जन्म दिया, जो तीस वर्षों तक चला।

युद्ध की घटनाएँ

तीसवर्षीय युद्ध को घटनाओं की दृष्टि से चार चरणों में विभाजित किया जा सकता है:

1.बोहेमियन काल (1618-1624 ई.)

2. डेनिश काल (1625-1629 ई.)

3. स्वीडिश काल (1630-1635 ई.)

4. फ्रांसीसी काल (1635-1648 ई.)

1. बोहेमियन काल (1618-1624 ई.)

बोहेमियन या पफाल्ट्स काल (1618-1624 ई.) तीस वर्षीय युद्ध (1618-1648 ई.) का प्रारंभिक चरण था, जो यूरोप के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण और विनाशकारी युद्ध के रूप में जाना जाता है। यह युद्ध धार्मिक, राजनीतिक और क्षेत्रीय संघर्षों का जटिल मिश्रण था, जिसमें कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट शक्तियों के बीच टकराव प्रमुख था। इस काल में युद्ध मुख्य रूप से बोहेमिया और पफाल्ट्स क्षेत्र में केंद्रित रहा।

पवित्र रोमन सम्राट फर्डिनेंड द्वितीय ने स्पेन के राजा फिलिप तृतीय से सहायता माँगी। फिलिप ने बवेरिया के सेनापति जोहान त्सेर्कलाएस, काउंट टिली के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी। पफाल्ट्स के प्रोटेस्टेंट शासक फ्रेडरिक पंचम को अपने ससुर इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम से सहायता की आशा थी, किंतु आंतरिक समस्याओं के कारण जेम्स सहायता नहीं भेज सके। साथ ही, जर्मनी के प्रोटेस्टेंट शासकों ने भी फ्रेडरिक का साथ नहीं दिया। इस स्थिति में 8 नवंबर 1620 ई. को व्हाइट माउंटेन (ष्वेत पर्वत) के युद्ध में टिली ने फ्रेडरिक को पूर्ण रूप से पराजित कर दिया। फ्रेडरिक को बोहेमिया छोड़कर भागना पड़ा और उनकी ‘विंटर किंग’ की उपाधि का मजाक उड़ाया गया, क्योंकि उनका शासन केवल एक सर्दी तक ही चल सका। इस हार के परिणामस्वरूप बोहेमिया पर कैथोलिक नियंत्रण स्थापित हो गया। फर्डिनेंड द्वितीय ने बोहेमिया में प्रोटेस्टेंट नेताओं को दंडित किया, कई चेक अभिजनों को मृत्युदंड दिया गया और उनकी संपत्तियाँ जब्त कर ली गईं। बोहेमिया में कैथोलिक धर्म को बलपूर्वक थोपा गया और प्रोटेस्टेंट धर्म को दबाने के लिए कठोर कदम उठाए गए।

बोहेमिया की हार के बाद कैथोलिक लीग और स्पेनिश सेनाओं ने पफाल्ट्स (पेलटिनेट) पर हमला किया, जो फ्रेडरिक का मूल क्षेत्र था। 1621-1622 ई. तक काउंट टिली और स्पेनिश सेनापति एम्ब्रोसियो स्पिनोला ने पफाल्ट्स पर कब्जा कर लिया। 1623 ई. में फर्डिनेंड द्वितीय ने फ्रेडरिक को उनके पफाल्ट्स के निर्वाचक (इलेक्टर) पद से हटा दिया और यह पद बवेरिया के ड्यूक मैक्सिमिलियन प्रथम को दे दिया गया।

बोहेमिया और पफाल्ट्स में विजय ने कैथोलिक शक्तियों, विशेष रूप से स्पेन के हैब्सबर्गों का उत्साह बढ़ा दिया। स्पेन ने नीदरलैंड के डच गणराज्य के खिलाफ पुनः युद्ध शुरू कर दिया, ताकि खोए हुए नीदरलैंड को पुनः स्पेनिश नियंत्रण में लाया जा सके। 1621 ई. में स्पेन और डच गणराज्य के बीच बारह वर्षीय युद्धविराम समाप्त हो गया और स्पेन ने नीदरलैंड के कुछ हिस्सों को पुनः अपने नियंत्रण में लाने का प्रयास किया।

इस चरण में कैथोलिक शक्तियों ने प्रोटेस्टेंट शक्तियों पर निर्णायक बढ़त हासिल की, जिसने युद्ध के प्रारंभिक वर्षों में कैथोलिक लीग और हैब्सबर्ग साम्राज्य को मजबूत किया। लेकिन यह युद्ध के विस्तार का कारण भी बना, क्योंकि डच गणराज्य, डेनमार्क और बाद में स्वीडन जैसे प्रोटेस्टेंट देश इस युद्ध में शामिल हुए। यह काल यूरोप में धार्मिक और राजनीतिक विभाजन को और गहरा करने वाला साबित हुआ, जिसके परिणामस्वरूप तीस वर्षीय युद्ध एक व्यापक और लंबे समय तक चलने वाला संघर्ष बन गया।

 

तीसवर्षीय युद्ध 1618-1648 ई. (Thirty Year War, 1618-1648 AD)
1620 में व्हाइट हिल के युद्ध में प्रोटेस्टेंट शासक फ्रेडरिक की पराजय
2. डेनिश चरण (1625-1629 ई.)

बोहेमियन और पफाल्ट्स काल (1618-1624 ई.) में कैथोलिक शक्तियों की विजय से जर्मनी के लूथरवादी राजकुमारों में भय व्याप्त हो गया। वे अब तक तटस्थ रहे थे, किंतु बोहेमिया पर पवित्र रोमन सम्राट फर्डिनेंड द्वितीय और पफाल्ट्स (पेलटिनेट) पर बवेरिया के ड्यूक मैक्सिमिलियन प्रथम के कब्जे से जर्मनी में शक्ति संतुलन बिगड़ गया। इसके अतिरिक्त, फर्डिनेंड ने प्रोटेस्टेंट राजकुमारों को किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता या धार्मिक अधिकार देने से स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया, जिससे प्रोटेस्टेंटों में असुरक्षा और असंतोष बढ़ गया। इस संकटकाल में डेनमार्क के राजा क्रिश्चियन चतुर्थ ने अपने सहधर्मी प्रोटेस्टेंटों की सहायता के लिए तीस वर्षीय युद्ध में हस्तक्षेप किया। इसके कई कारण थे: एक, क्रिश्चियन लूथरवादी धर्म के प्रबल समर्थक थे और प्रोटेस्टेंट धर्म को कैथोलिक दमन से बचाना चाहते थे। दूसरा, कैथोलिक शक्तियों की पूर्ण विजय से डेनमार्क की भौगोलिक और राजनीतिक सुरक्षा खतरे में पड़ सकती थी, क्योंकि कैथोलिक सेनाएँ उत्तरी यूरोप की ओर बढ़ रही थीं। तीसरा, क्रिश्चियन का राज्य होल्सटीन पवित्र रोमन साम्राज्य का हिस्सा था। वह जर्मनी के कुछ छोटे प्रोटेस्टेंट राज्यों पर नियंत्रण स्थापित कर अपने द्वितीय पुत्र के लिए एक शक्तिशाली स्थिति बनाना चाहते थे। साथ ही, वह उत्तरी सागर और बाल्टिक सागर के तटीय क्षेत्रों पर अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते थे।

1625 ई. में क्रिश्चियन चतुर्थ ने उत्तरी जर्मनी पर आक्रमण किया। उन्हें इंग्लैंड के राजा चार्ल्स प्रथम, नीदरलैंड के डच गणराज्य और जर्मनी के कुछ प्रोटेस्टेंट राजकुमारों का समर्थन प्राप्त था। दूसरी ओर सम्राट फर्डिनेंड ने उनके खिलाफ प्रतिभाशाली सेनापति अल्ब्रेच्ट वॉन वालेंस्टाइन को नियुक्त किया। वालेंस्टाइन के साथ-साथ जोहान त्सेर्कलाएस और काउंट टिली की कैथोलिक लीग की सेनाएँ भी सक्रिय थीं। वालेंस्टाइन और टिली की संयुक्त सेनाओं ने 27 अगस्त 1626 ई. को लुट्टर के युद्ध में क्रिश्चियन चतुर्थ को पराजित कर दिया। इसके परिणामस्वरूप डेनिश सेना को उत्तरी जर्मनी से खदेड़ दिया गया। किंतु नौसेना के अभाव में सम्राट फर्डिनेंड डेनमार्क के मुख्य भूभाग पर आक्रमण नहीं कर सके। अंततः क्रिश्चियन चतुर्थ ने 22 मई 1629 ई. को ल्यूबेक की संधि पर हस्ताक्षर कर युद्ध से पीछे हटने का निर्णय लिया। इस संधि के तहत क्रिश्चियन ने जर्मनी में अपनी सैन्य गतिविधियाँ समाप्त कर दीं, लेकिन डेनमार्क की संप्रभुता बरकरार रही।

लुट्टर की जीत और डेनिश हस्तक्षेप की विफलता से उत्साहित फर्डिनेंड द्वितीय ने 6 मार्च 1629 ई. को ‘रेस्टीट्यूशन एडिक्ट’ (संपत्ति वापसी की घोषणा) जारी की, जिसके अनुसार 1555 ई. की ऑग्सबर्ग की शांति संधि के बाद कैथोलिक चर्च की जब्त की गई सभी संपत्तियाँ वापस की जानी थीं। इस आदेश से प्रोटेस्टेंट राजकुमार अत्यंत भयभीत हो गए और उन्होंने कठोर प्रतिरोध का निर्णय लिया। इस समय स्वीडन के लूथरन राजा गुस्टवस एडोल्फस ने जर्मनी के प्रोटेस्टेंटों के पक्ष में हस्तक्षेप किया। उनके प्रवेश ने युद्ध को और जटिल तथा व्यापक बना दिया, क्योंकि स्वीडन एक शक्तिशाली सैन्य और कूटनीतिक शक्ति के रूप में उभरा।

3. स्वीडिश चरण (1630-1635 ई.)

स्वीडन के शासक गुस्टवस एडोल्फस एक योग्य, महत्त्वाकांक्षी और कुशल सेनापति थे। उन्होंने रूस और पोलैंड के खिलाफ युद्धों में विजय प्राप्त कर बाल्टिक सागर के पूर्वी तट पर विशाल क्षेत्र अपने नियंत्रण में ले लिया था। उनकी रणनीतिक दृष्टि थी कि उत्तरी जर्मनी के तटीय क्षेत्रों पर कब्जा करके बाल्टिक सागर को ‘स्वीडिश झील’ बनाया जाए, जिससे स्वीडन उत्तरी यूरोप में एक प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित हो सके। साथ ही, उनकी प्रोटेस्टेंट (लूथरवाद) धर्म में गहरी आस्था थी और वह जर्मनी के प्रोटेस्टेंटों की रक्षा को अपना धार्मिक और नैतिक कर्तव्य मानते थे।

इस समय फ्रांस के प्रधानमंत्री कार्डिनल रिशल्यू ने तीस वर्षीय युद्ध में सक्रिय रुचि लेना शुरू किया। यद्यपि रिशल्यू स्वयं कैथोलिक थे, उनका उद्देश्य धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक था। वह हैब्सबर्ग राजवंश को कमजोर कर फ्रांस के बूर्बों राजवंश की यूरोप में सर्वोच्चता स्थापित करना चाहते थे। रिशल्यू ने गुस्टवस एडोल्फस के साथ 1631 ई. में बारवाल्डे की संधि की, जिसके तहत फ्रांस ने बिना स्वयं प्रत्यक्ष रूप से युद्ध में शामिल हुए स्वीडन को धन और शस्त्रों की सहायता प्रदान करने का वचन दिया।

1630 ई. मेंएडोल्फस ने उत्तरी जर्मनी के पोमेरेनिया क्षेत्र में अपनी सेना उतारी और तीस वर्षीय युद्ध का रुख बदल दिया। उनकी सेना अच्छी तरह प्रशिक्षित और अनुशासित थी, और उनकी रणनीति ने प्रोटेस्टेंट शक्तियों में नई आशा जगाई। मई 1631 ई. में कैथोलिक सेनाओं ने, मैग्डेबर्ग शहर पर कब्जा कर उसे लूट लिया। इस घटना, जिसे ‘मैग्डेबर्ग का नरसंहार’ कहा जाता है, में हजारों नागरिक मारे गए, जिससे जर्मनी के प्रोटेस्टेंट शासक भयभीत हो गए और उन्होंने गुस्टवस का समर्थन करने की घोषणा की।

17 सितंबर 1631 ई. को ब्राइटेनफेल्ड के युद्ध में गुस्टवस ने काउंट टिली की कैथोलिक लीग की सेना को निर्णायक रूप से पराजित किया। यह प्रोटेस्टेंटों की पहली प्रमुख सैन्य सफलता थी, जिसने कैथोलिक शक्तियों की अजेयता की धारणा को तोड़ दिया। इस जीत के बाद गुस्टवस ने दक्षिण की ओर बढ़ते हुए बवेरिया पर आक्रमण किया। अप्रैल 1632 ई. में रेन नदी के पास लेच के युद्ध में टिली की सेना को फिर से हराया गया और इस युद्ध में टिली घायल होकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। इन जीतों ने गुस्टवस को वियना की ओर बढ़ने का आत्मविष्वास दिया, जो हैब्सबर्ग साम्राज्य का केंद्र था।

भयभीत सम्राट फर्डिनेंड द्वितीय ने अल्ब्रेच्ट वॉन वालेंस्टाइन को, जो पहले बर्खास्त किए जा चुके थे, पुनः सेनापति नियुक्त किया। 16 नवंबर 1632 ई. को लूत्जेन के युद्ध में गुस्टवस ने वालेंस्टाइन की सेना को पराजित किया, लेकिन इस युद्ध में वह स्वयं मारे गए। गुस्टवस की मृत्यु प्रोटेस्टेंट शक्तियों के लिए एक बड़ा झटका थी, क्योंकि वह न केवल एक कुशल सेनापति थे, बल्कि प्रोटेस्टेंट गठबंधन के लिए प्रेरणास्रोत भी थे। उनकी मृत्यु से प्रोटेस्टेंट अभियान की गति धीमी हो गई।

गुस्टवस की मृत्यु के बाद स्वीडिश सेना का नेतृत्व कमजोर पड़ गया। 1634 ई. में नॉर्डलिंगेन के युद्ध में सम्राट की सेना ने स्वीडिश और उनके प्रोटेस्टेंट सहयोगियों को पराजित कर दिया। इस हार ने स्वीडिश सेना को जर्मनी के कई हिस्सों से खदेड़ दिया और कैथोलिक शक्तियों को फिर से मजबूत किया।

इसी दौरान वालेंस्टाइन ने प्रोटेस्टेंटों के साथ समझौता करने के लिए गुप्त वार्ताएँ शुरू की थीं, जो सम्राट और कैथोलिक नेताओं को स्वीकार्य नहीं थीं। उनकी बढ़ती स्वतंत्रता और संदिग्ध वफादारी के कारण 25 फरवरी 1634 ई. को एक षड्यंत्र के तहत वालेंस्टाइन की हत्या कर दी गई। यह घटना कैथोलिक शक्तियों के लिए भी आंतरिक अस्थिरता का संकेत थी।

इस समय तक युद्ध के दोनों पक्ष- कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट लंबे संघर्ष से थक चुके थे। जर्मनी में व्यापक आर्थिक विनाश, भुखमरी और जनसंख्या हृास हो चुका था। इस पृष्ठभूमि में 30 मई 1635 ई. को प्राग की संधि हुई, जिसका उद्देश्य जर्मनी के भीतर शांति स्थापित करना था। इस संधि ने रेस्टीट्यूशन एडिक्ट को निलंबित किया और कुछ प्रोटेस्टेंट राजकुमारों को सीमित धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की। यह संधि युद्ध को समाप्त कर सकती थी, किंतु फ्रांस के कार्डिनल रिशल्यू ने युद्ध को जारी रखने का निर्णय लिया। रिशल्यू का मानना था कि हैब्सबर्गों को और कमजोर करना फ्रांस के हित में है। फलस्वरूप फ्रांस ने युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप शुरू किया, जिससे तीस वर्षीय युद्ध का अगला फ्रांसीसी चरण (1635-1648 ई.) शुरू हुआ।

तीसवर्षीय युद्ध 1618-1648 ई. (Thirty Year War, 1618-1648 AD)
स्वीडन का शासक गस्टवस एडोल्फस
4. फ्रांसीसी काल (1635-1648 ई.)

फ्रांस के प्रधानमंत्री कार्डिनल रिशल्यू प्राग की संधि (1635 ई.) के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि उनका मानना था कि यह संधि हैब्सबर्ग राजवंश को पर्याप्त रूप से कमजोर नहीं करती थी। उन्होंने तीस वर्षीय युद्ध में फ्रांस के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप का निर्णय लिया, जिससे युद्ध का स्वरूप पूरी तरह बदल गया। अब तक रिशल्यू ने स्वीडन, नीदरलैंड और जर्मनी के प्रोटेस्टेंट शासकों को धन और शस्त्रों की सहायता प्रदान की थी, विशेष रूप से 1631 ई. की बारवाल्डे की संधि के माध्यम से स्वीडन को समर्थन दिया था। प्रत्यक्ष युद्ध की घोषणा से पहले रिशल्यू ने स्वीडन, डच गणराज्य (नीदरलैंड) और सवॉय के साथ सहयोग संधियाँ कीं, जिनमें 1635 ई. की कॉम्पिएन की संधि प्रमुख थी।

फ्रांस एक कैथोलिक देश था, लेकिन अब जर्मनी के प्रोटेस्टेंटों के पक्ष में ऑस्ट्रिया (हैब्सबर्ग) और स्पेन जैसे कैथोलिक देशों के खिलाफ युद्ध लड़ रहा था। इस स्थिति से स्पष्ट हो जाता है कि तीस वर्षीय युद्ध अब धार्मिक संघर्ष से अधिक राजनीतिक हो गया था। रिशल्यू का प्राथमिक उद्देश्य हैब्सबर्ग वंष के यूरोपीय प्रभुत्व को समाप्त कर फ्रांस के बूर्बों राजवंश को यूरोप की प्रमुख शक्ति बनाना था।

प्रारंभ में फ्रांसीसी सेना को कई पराजयों का सामना करना पड़ा, क्योंकि उनकी सेना संगठन और अनुशासन में हैब्सबर्ग और स्पेनिश सेनाओं से कमजोर थी। 1636 ई. में स्पेनिश सेनाएँ फ्रांस के निकट पेरिस तक पहुँच गई थीं, जिससे रिशल्यू को अपनी रणनीति में सुधार करना पड़ा। 1637 ई. में फ्रांसीसी सेना ने पुनर्गठन के बाद स्पेनिश सेना को पराजित किया और उन्हें नीदरलैंड के दक्षिणी हिस्सों (स्पेनिश नीदरलैंड) तथा राइन नदी के क्षेत्र से खदेड़ दिया। इसके बाद फ्रांसीसी सेनाओं ने कई स्पेनिश क्षेत्रों, जैसे अर्रास और अन्य उत्तरी क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया।

स्पेन के खिलाफ इस समय कई विद्रोह भड़क उठे। पुर्तगाल में 1640 ई. में ब्रागांजा विद्रोह शुरू हुआ, जिसने स्पेन से पुर्तगाल की स्वतंत्रता को पुनर्स्थापित किया। इसी तरह नेपल्स और कैटेलोनिया में भी विद्रोह हुए, जिन्होंने स्पेन की सैन्य और आर्थिक शक्ति को और कमजोर कर दिया। इन विद्रोहों ने फ्रांस को स्पेन के खिलाफ रणनीतिक लाभ प्रदान किया।

19 मई 1643 ई. को फ्रांसीसी सेनापति लुई द बोर्बों (ड्यूक ऑफ कोंदे) ने रोक्रोआ के युद्ध में स्पेन की प्रसिद्ध टेर्सियो सेना को निर्णायक रूप से पराजित किया। यह युद्ध स्पेन की सैन्य श्रेष्ठता के पतन का प्रतीक था, क्योंकि टेर्सियो सेना लंबे समय तक यूरोप की सबसे शक्तिशाली सैन्य इकाई मानी जाती थी। रोक्रोआ की जीत ने फ्रांस को युद्ध में एक मजबूत स्थिति प्रदान की और हैब्सबर्गों के खिलाफ प्रोटेस्टेंट गठबंधन को और प्रोत्साहित किया।

रोक्रोआ की जीत के बाद फ्रांस और स्वीडन की संयुक्त सेनाओं ने जर्मनी में प्रवेश किया। 1645 ई. में स्वीडिश सेनापति लेनार्ट टॉर्स्टेन्सन ने यानकाउ के युद्ध में कैथोलिक सेनाओं को हराया। 1648 ई. में उन्होंने सम्राट और बवेरिया की सेना को बुरी तरह पराजित किया, जिससे आस्ट्रिया की राजधानी वियना पर संकट मंडराने लगा। सम्राट और उनके सहयोगी युद्ध से थक चुके थे और जीत की कोई संभावना नहीं थी। अंततः संधि वार्ताएँ शुरू हुईं, जिनके परिणामस्वरूप 24 अक्टूबर 1648 ई. को वेस्टफेलिया की संधि से युद्ध समाप्त हो गया। 1642 ई. में रिशल्यू की मृत्यु हो चुकी थी, उनके उत्तराधिकारी कार्डिनल मैजारिन ने वेस्टफेलिया की संधि की शर्तों को रिशल्यू के उद्देश्यों के अनुरूप तय किया।

वेस्टफेलिया की संधि (1648 ई.)

वेस्टफेलिया की संधि, जो 24 अक्टूबर 1648 ई. को वेस्टफेलिया के म्यूनस्टर और ओस्नाब्रुक शहरों में हस्ताक्षरित हुई, तीसवर्षीय युद्ध को समाप्त करने वाली एक द्वि-दस्तावेजी संधि थी। इस संधि ने न केवल धार्मिक संघर्षों को स्थायी रूप से सुलझाने का प्रयास किया, बल्कि यूरोप की राजनीतिक संरचना को पुनर्निर्मित करने में भी निर्णायक सिद्ध हुई। इसने पवित्र रोमन साम्राज्य की आंतरिक संप्रभुता को मजबूत किया, राज्यों को स्वायत्तता प्रदान की और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में संप्रभु राष्ट्र-राज्यों की अवधारणा की नींव रखी।

पवित्र रोमन साम्राज्य का बाह्य स्वरूप यथावत रहा, किंतु प्रत्येक सदस्य राज्य को संप्रभुता प्रदान की गई। राज्य युद्ध और शांति के निर्णय स्वयं ले सकते थे, बशर्ते वे सम्राट के विरुद्ध न हों। यह धारा संधि का सबसे क्रांतिकारी प्रावधान था, जिसने पवित्र रोमन साम्राज्य के सदस्य राज्यों को आंतरिक और बाहरी मामलों में पूर्ण संप्रभुता प्रदान की। साम्राज्य का नाममात्र का ढाँचा बना रहा, लेकिन सम्राट (हैब्सबर्गवंशीय) की केंद्रीय सत्ता को गंभीर आघात पहुँचा। राज्यों को अब विदेशी शक्तियों के साथ संधियाँ करने, कर लगाने और सेना रखने का अधिकार मिला, जो पहले सम्राट के अधीन था। यह प्रावधान आधुनिक राष्ट्र-राज्य व्यवस्था की आधारशिला बना, क्योंकि इससे सामंती और साम्राज्यवादी संरचनाओं का अंत हुआ। इसका प्रभाव जर्मनी की राजनीतिक विखंडन को स्थायी बनाने में दिखा, जहाँ प्रत्येक राज्य अपनी विदेश नीति चला सका, जिससे यूरोप में शक्ति संतुलन की अवधारणा मजबूत हुई।

  1. फ्रांस को अल्सास प्रांत और मेट्ज, टूल तथा वर्दुन के किले प्राप्त हुए। स्ट्रासबर्ग को स्वतंत्र नगर घोषित किया गया। इस प्रावधान ने फ्रांस को राइन नदी के पूर्वी तट पर मजबूत स्थिति प्रदान की, जो कार्डिनल रिशल्यू की दूरदर्शी नीति का प्रत्यक्ष परिणाम था। अल्सास एक रणनीतिक क्षेत्र था, जो जर्मनी और फ्रांस के बीच बफर जोन के रूप में कार्य करता था, जबकि मेट्ज, टूल और वर्दुन (जिन्हें 1552 ई. में फ्रांस ने हथिया लिया था) की पुष्टि हुई। स्ट्रासबर्ग को स्वतंत्र व्यापारिक नगर का दर्जा देकर इसे तटस्थ रखा गया, जो यूरोपीय व्यापार मार्गों के लिए महत्त्वपूर्ण था। इसने फ्रांस को यूरोप की प्रमुख शक्ति बना दिया, हैब्सबर्गों के ‘वियना घेर’ को तोड़ दिया और लुई चतुर्थ के शासनकाल में फ्रांस के विस्तार को प्रेरित किया।
  2. स्वीडन को पश्चिमी पोमेरेनिया, ब्रेमेन और वर्डेन के क्षेत्र प्रदान किए गए। स्वीडन को बाल्टिक सागर के तटीय क्षेत्रों पर नियंत्रण मिला, जिससे बाल्टिक को ‘स्वीडिश झील’ बनाने की उसकी महत्त्वाकांक्षा साकार हुई। पश्चिमी पोमेरेनिया एक कृषि और व्यापारिक क्षेत्र था, जबकि ब्रेमेन और वर्डेन बिशप्रिक साम्राज्य के धार्मिक केंद्र थे, जो अब स्वीडिश प्रभाव में आ गए। इसने स्वीडन को उत्तरी यूरोप की प्रमुख सामरिक शक्ति बना दिया, लेकिन बाद में रूस और प्रशिया के उदय से इस लाभ को चुनौती मिली। इसका दीर्घकालिक प्रभाव बाल्टिक व्यापार पर स्वीडिश प्रभुत्व स्थापित करने में दिखा, जो 18वीं शताब्दी तक चला।
  3. फ्रांस और स्वीडन को जर्मन डायट (संसद) में अपने प्रतिनिधि भेजने का अधिकार मिला। जर्मन डायट पवित्र रोमन साम्राज्य की संसदीय सभा थी, जहाँ साम्राज्य के नीतिगत निर्णय लिए जाते थे। इस प्रावधान ने फ्रांस और स्वीडन को बाहरी पर्यवेक्षक के रूप में डायट में सीटें प्रदान कीं, जिससे वे जर्मनी की आंतरिक राजनीति पर अप्रत्यक्ष प्रभाव डाल सकें। यह एक असामान्य कूटनीतिक सफलता थी, जो हैब्सबर्ग सम्राट की कमजोरी को उजागर करती थी। इससे फ्रांस ने जर्मनी को विभाजित रखने की अपनी रणनीति को मजबूत किया, जबकि स्वीडन को उत्तरी जर्मनी में हितों की रक्षा का माध्यम मिला।
  4. ब्रैंडेनबर्ग को पूर्वी पोमेरेनिया, मिंडेन और कुछ बिशप्रिक प्राप्त हुए। ब्रैंडेनबर्ग (जो बाद में प्रशा का आधार बना) को पूर्वी पोमेरेनिया (बाल्टिक तट का क्षेत्र), मिंडेन (एक छोटा प्रोटेस्टेंट बिशप्रिक) और अन्य धार्मिक क्षेत्र मिले, जो युद्ध में प्रोटेस्टेंट पक्ष की सैन्य सहायता के पुरस्कार के रूप में थे। यह प्रावधान ब्रैंडेनबर्ग के इलेक्टर फ्रेडरिक विलियम को शक्ति प्रदान करने वाला सिद्ध हुआ, जिसने प्रशा साम्राज्य की नींव रखी।
  5. पफाल्ट्स (पैलेटाइनेट), जो युद्ध के प्रारंभिक चरण में प्रोटेस्टेंट विद्रोह का केंद्र था, को ऊपरी (उत्तरी) और निचले (दक्षिणी) भागों में विभाजित किया गया। ऊपरी पफाल्ट्स बवेरिया के कैथोलिक ड्यूक मैक्सिमिलियन को मिला, जबकि निचला पफाल्ट्स फ्रेडरिक पंचम के पुत्र चार्ल्स लुई को लौटा दिया गया। यह विभाजन युद्ध के बोहेमियन चरण की स्मृति का सूचक था, जहाँ फ्रेडरिक को ‘शीतकालीन राजा’ कहा गया था। इसका प्रभाव जर्मनी में कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट संतुलन को बनाए रखने में दिखा, लेकिन पफाल्ट्स की राजनीतिक कमजोरी को बढ़ावा दिया।
  6. स्विट्जरलैंड को पूर्ण स्वतंत्र राज्य के रूप में मान्यता दी गई। स्विट्जरलैंड को औपचारिक रूप से पवित्र रोमन साम्राज्य से अलग कर स्वतंत्र गणराज्य घोषित किया गया। नीदरलैंड (यूनाइटेड प्रोविंसेस) को भी स्पेन से पूर्ण स्वतंत्रता मिली, जो 80 वर्षीय युद्ध (1568-1648) का समापन था। यह प्रावधान यूरोप के नक्शे को पुनर्निर्मित करने वाला था, क्योंकि स्विट्जरलैंड ने अपनी तटस्थता की नीति को मजबूत किया, जबकि नीदरलैंड ने व्यापारिक गणराज्य के रूप में उदय किया। इसका दीर्घकालिक प्रभाव यूरोपीय संघर्षों में इनकी तटस्थता सुनिश्चित करने में दिखा।
  7. काल्विनवादियों को भी धार्मिक मान्यता प्रदान की गई। 1555 ई. की आग्सबर्ग संधि में केवल कैथोलिक और लूथरवाद को मान्यता मिली थी, लेकिन वेस्टफेलिया ने काल्विनवाद को तीसरे समान संप्रदाय के रूप में स्वीकार कर लिया। यह धार्मिक सहिष्णुता का प्रतीक था, जो युद्ध के धार्मिक कारणों को समाप्त करता था। इसका महत्त्व जर्मनी में धार्मिक विविधता को स्थायी बनाने में था, जिससे भविष्य के धार्मिक युद्धों की संभावना कम हुई और आधुनिक धर्मनिरपेक्षता की नींव पड़ी।

1624 ई. से पूर्व कैथोलिक या प्रोटेस्टेंट चर्चों के पास जो संपत्ति थी, वह उनकी ही मानी जाएगी। यह प्रावधान 1624 ई. को आधार मानकर चर्च संपत्तियों को स्थिर करता था, जिससे कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट चर्चों की संपत्ति की स्थिति को यथावत रखा गया। इससे प्रोटेस्टेंटों द्वारा हथियाई गई कैथोलिक संपत्तियाँ लौटाई नहीं गईं, लेकिन भविष्य के दावों को रोका गया। इसका प्रभाव धार्मिक संघर्षों को संपत्ति विवादों से मुक्त करने में दिखा, जो युद्ध का प्रमुख कारण था। यह प्रावधान आर्थिक स्थिरता प्रदान करने वाला था, लेकिन जर्मनी में धार्मिक विभाजन को कायम रखा।

साम्राज्य के न्यायालयों में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट न्यायाधीशों की संख्या समान रखी गई। पवित्र रोमन साम्राज्य के रैख्सकाम्मरगेरिक्ट (साम्राज्यिक न्यायालय) में धार्मिक संतुलन सुनिश्चित करने के लिए न्यायाधीशों की संख्या बराबर रखी गई। यह प्रावधान न्यायिक निष्पक्षता को बढ़ावा देता था, जो युद्ध से पहले कैथोलिक पक्षपात से ग्रस्त था। इसका महत्त्व जर्मनी में कानूनी समानता स्थापित करने में था, जिससे आंतरिक विवादों का शांतिपूर्ण समाधान संभव हुआ और साम्राज्य की एकता को आंशिक रूप से बनाए रखा।

ये धाराएँ न केवल तीसवर्षीय युद्ध को समाप्त करने वाली थीं, बल्कि यूरोप को एक नए युग में ले गईं, जहाँ संप्रभुता, संतुलन और सहिष्णुता प्रमुख सिद्धांत बने।

तीसवर्षीय युद्ध 1618-1648 ई. (Thirty Year War, 1618-1648 AD)
1648 ई. में यूरोप

तीसवर्षीय युद्ध का परिणाम

तीसवर्षीय युद्ध और वेस्टफेलिया की संधि का आधुनिक यूरोप के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस युद्ध ने यूरोप में व्यापक राजनीतिक परिवर्तन किए और मध्ययुगीन परंपराओं को समाप्त कर आधुनिक प्रवृत्तियों को जन्म दिया।

नवयुग का आरंभ

इस युद्ध ने धार्मिक समस्याओं का समाधान कर दिया। काल्विनवादियों को मान्यता मिली, कैथोलिक चर्च की संपत्ति के अपहरण को रोका गया और कैथोलिक व प्रोटेस्टेंट धर्मों का संघर्ष समाप्त हो गया। युद्ध ने धर्म सुधार युग को समाप्त कर दिया और यह स्पष्ट कर दिया कि राजनीतिक प्रश्न धार्मिक प्रश्नों से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इस प्रकार यूरोप में एक नवयुग शुरू हुआ, जिसमें राजनीतिक और आर्थिक प्रश्नों की प्रधानता थी।

आधुनिक राज्य व्यवस्था का उदय

वेस्टफेलिया की संधि ने अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और कानून पर आधारित आधुनिक राज्य व्यवस्था के उदय का मार्ग प्रशस्त किया। इसने जर्मनी के सभी शासकों को स्वतंत्र और संप्रभु स्वीकार किया, जिससे यह सिद्धांत स्थापित हुआ कि राज्य चाहे छोटा हो या बड़ा समान हैं। साथ ही यह स्थापित हुआ कि पोप अब राज्यों की संप्रभुता में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। युद्ध की भयावहता के कारण ‘युद्ध और शांति’ के अंतरराष्ट्रीय नियमों की नींव भी पड़ी।

तीसवर्षीय युद्ध के राजनीतिक परिवर्तन

तीसवर्षीय युद्ध (1618-1648 ई.) के परिणामस्वरूप यूरोप की राजनीतिक संरचना में गहरा परिवर्तन हुआ। युद्ध के अंत तक यह स्पष्ट हो गया कि स्पेन और आस्ट्रिया के हैब्सबर्ग राजवंश, जो कभी यूरोप के सबसे शक्तिशाली राजवंशों में से एक था, का पतन शुरू हो चुका था। हैब्सबर्गों का प्रभाव, जो स्पेन, आस्ट्रिया, नीदरलैंड, मिलान, सिसिली और फ्रेंच कॉम्टे जैसे क्षेत्रों तक फैला हुआ था, युद्ध के दौरान और वेस्टफेलिया की संधि (1648 ई.) के बाद कमजोर पड़ गया। स्पेन, जो सोलहवीं शताब्दी में वैष्विक महाशक्ति था, इस युद्ध में अपनी सैन्य और आर्थिक शक्ति को गँवा बैठा। विशेष रूप से 1643 ई. में रोक्रोआ के युद्ध में स्पेन की निर्णायक पराजय ने उसकी सैन्य प्रतिष्ठा को ध्वस्त कर दिया। इसके विपरीत फ्रांस के बूर्बों राजवंश का उत्थान शुरू हुआ। फ्रांस के प्रधानमंत्री कार्डिनल रिशल्यू और उनके उत्तराधिकारी मैजारिन की नीतियों ने फ्रांस को यूरोप की प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित किया। वेस्टफेलिया की संधि के तहत फ्रांस को अल्सास, मेट्ज, टूल और वर्दुन जैसे रणनीतिक क्षेत्र प्राप्त हुए, जिसने फ्रांस की सीमाओं को मजबूत किया और उसे हैब्सबर्गों के घेरे से मुक्त किया। जर्मनी में आस्ट्रिया के हैब्सबर्गों का नियंत्रण भी ढीला पड़ गया, क्योंकि संधि ने जर्मन राज्यों को संप्रभुता प्रदान की, जिससे पवित्र रोमन सम्राट की केंद्रीकृत सत्ता कमजोर हुई। इस प्रकार तीसवर्षीय युद्ध ने हैब्सबर्गों की महानता के युग को समाप्त कर फ्रांस के बूर्बों को यूरोप का नया नेतृत्व प्रदान किया।

बाल्टिक सागर की स्थिति

तीसवर्षीय युद्ध ने बाल्टिक सागर के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण राजनीतिक परिवर्तन किए। स्वीडन, जो इस युद्ध में प्रोटेस्टेंट शक्तियों का नेतृत्व कर रहा था, ने अपनी सैन्य कुशलता और राजा गुस्टवस एडोल्फस की रणनीतिक प्रतिभा के बल पर उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की। वेस्टफेलिया की संधि के तहत स्वीडन को पश्चिमी पोमेरेनिया, ब्रेमेन और वर्डेन जैसे क्षेत्र प्राप्त हुए, जिसने बाल्टिक सागर के उत्तरी और पश्चिमी तटों पर स्वीडन का प्रभुत्व स्थापित किया। इसने बाल्टिक सागर को अस्थायी रूप से ‘स्वीडिश झील’ बना दिया, जिससे स्वीडन एक क्षेत्रीय महाशक्ति के रूप में उभरा। किंतु स्वीडन की यह स्थिति दीर्घकालिक नहीं रही। स्वीडन के पास न तो पर्याप्त जनसंख्या थी और न ही आर्थिक संसाधन, जो इस विस्तार को बनाए रख सकें। युद्ध के बाद रूस और प्रशिया (ब्रैंडेनबर्ग) के उत्थान ने स्वीडन की स्थिति को चुनौती दी। विशेष रूप से अठारहवीं शताब्दी में रूस के पीटर महान और प्रशिया के फ्रेडरिक महान की नीतियों ने स्वीडन के बाल्टिक प्रभुत्व को समाप्त कर दिया। इसके अतिरिक्त, तीसवर्षीय युद्ध का बाल्टिक व्यापार पर सीमित प्रभाव पड़ा। नीदरलैंड के डच व्यापारी, जो अपनी नौसैनिक और वाणिज्यिक क्षमता के लिए प्रसिद्ध थे, बाल्टिक व्यापार में हावी रहे। इस प्रकार युद्ध ने स्वीडन को अस्थायी रूप से बाल्टिक क्षेत्र में शक्ति प्रदान की, किंतु दीर्घकाल में यह स्थिति रूस और प्रशिया के उदय के कारण समाप्त हो गई।

जर्मनी पर प्रभाव

तीसवर्षीय युद्ध का जर्मनी पर गहरा और विनाशकारी प्रभाव पड़ा, जिसने इस क्षेत्र को राजनीतिक और आर्थिक रूप से पश्चिमी यूरोप से लगभग एक शताब्दी पीछे धकेल दिया। युद्ध मुख्यतः जर्मनी की भूमि पर लड़ा गया और विदेशी सेनाओंकृस्पेनिश, फ्रांसीसी, स्वीडिश और डेनिश ने जर्मन क्षेत्रों को रौंद डाला। गाँवों और शहरों को लूटा गया, खेत नष्ट किए गए और व्यापार ठप हो गया। अनुमान है कि जर्मनी की जनसंख्या में 20-40 प्रतिषत की कमी आई, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में। यह आर्थिक विनाश जर्मनी के लिए दीर्घकालिक चुनौती बन गया, क्योंकि इससे औद्योगिक और वाणिज्यिक विकास रुक गया। राजनीतिक दृष्टि से वेस्टफेलिया की संधि ने जर्मनी को एक केंद्रीकृत साम्राज्य के बजाय 300 से अधिक संप्रभु राज्यों का एक ढीला-ढाला संघ बना दिया। प्रत्येक जर्मन राज्य को अपनी नीतियाँ निर्धारित करने, युद्ध और शांति के निर्णय लेने का अधिकार मिला, जिसने पवित्र रोमन सम्राट की सत्ता को प्रतीकात्मक बना दिया। यह विखंडन जर्मनी को एकीकृत राष्ट्रीय शक्ति बनने से रोकता रहा, जब तक कि उन्नीसवीं शताब्दी में प्रशिया के नेतृत्व में जर्मन एकीकरण नहीं हुआ। इस प्रकार तीसवर्षीय युद्ध ने जर्मनी को आर्थिक रूप से कमजोर और राजनीतिक रूप से विखंडित कर दिया, जिसका प्रभाव लंबे समय तक रहा।

मध्ययुग से आधुनिक युग का संक्रमण

तीसवर्षीय युद्ध यूरोप के इतिहास में मध्ययुग और आधुनिक युग के बीच एक संक्रमण काल के रूप में देखा जाता है। इस युद्ध ने मध्ययुगीन दृष्टिकोण और परंपराओं- विशेष रूप से धर्म की केंद्रीय भूमिका को कमजोर किया और आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था की नींव रखी। युद्ध की शुरुआत धार्मिक विवादों से हुई थी, किंतु इसका अंत राजनीतिक और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं द्वारा निर्धारित हुआ। वेस्टफेलिया की संधि ने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया, जैसे काल्विनवाद को मान्यता देना और कैथोलिक व प्रोटेस्टेंट चर्चों की संपत्ति के विवाद को सुलझाना। 1648 ई. में वेस्टफेलिया की संधि के द्वारा तीसवर्षीय युद्ध समाप्त हो गया। इस संधि ने आधुनिक संप्रभु राष्ट्र-राज्य की अवधारणा को मजबूत किया, जिसमें राज्यों को अपनी आंतरिक और बाह्य नीतियों में स्वतंत्रता मिली। यह संधि अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और संतुलन शक्ति के सिद्धांत की आधारशिला बनी। धर्म का प्रभाव अब राजनीतिक और आर्थिक प्रश्नों के सामने गौण हो गया।

इस प्रकार तीसवर्षीय युद्ध धार्मिक विवाद से शुरू हुआ, किंतु कालांतर में इसका स्वरूप राजनीतिक हो गया। इसमें हैब्सबर्ग राजवंश की पराजय हुई और फ्रांस के बूर्बों राजवंश का गौरव यूरोप में स्थापित हुआ। तीसवर्षीय युद्ध ने एक नवयुग का सूत्रपात किया, जिसका आधार धर्म नहीं, बल्कि राजनीतिक और आर्थिक प्रश्न थे। उल्लेखनीय है कि वेस्टफेलिया की संधि ने स्पेन और फ्रांस के बीच चल रहे युद्ध को समाप्त नहीं किया। यह युद्ध 1659 ई. में पाइरेनीज की संधि द्वारा समाप्त हुआ। दरअसल, तीसवर्षीय युद्ध के बाद भी लगभग ग्यारह वर्षों तक फ्रांस और स्पेन में युद्ध चलता रहा। अंततः स्पेन के शासक फिलिप चतुर्थ को फ्रांस के साथ पाइरेनीज की संधि करनी पड़ी।

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