1857 की क्रांति : कारण और प्रसार
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थियोसोफिकल सोसायटी
थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना 7 सितंबर 1875 को अमेरिका के न्यूयार्क नगर में रुसी महिला मैडम एच.पी. ब्लावात्सकी एवं अमेरिकन कर्नल एच.एस. ऑल्काट द्वारा की गई थी। ‘थियोसोफी’ शब्द ग्रीक भाषा के ‘थियो’ और ‘सोफी’ दो शब्दों से मिलकर बना है- ‘थियो’ का अर्थ ‘ईश्वर’ एवं ‘सोफी’ शब्द का अर्थ है ‘ज्ञान’। थियोसोफी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग तीसरी शताब्दी में अलेक्जेंड्रिया के ग्रीक विद्वान् इंबीकस ने ईश्वरीय ज्ञान के लिए किया था। थियोसोफी, जिसे ब्रह्म-विद्या भी कहते हैं, उस सत्य का स्वरूप है, जो सभी धर्मों का आधार है और उस सत्य पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता है। यह जीवन को बोधगम्य बनाने का दर्शन प्रस्तुत करती है, जिसके द्वारा न्याय तथा प्रेम का निरूपण या प्रकटीकरण होता है और जीवन के विकास का मार्ग निर्देशित होता है। थियोसोफी विश्व-आत्मा के विज्ञान का बोध कराती है और मनुष्य को बताती है कि वह स्वयं आत्म-तत्त्व है, मन व शरीर उसके वाहक हैं। यह सभी धर्मों के धार्मिक ग्रंथों तथा गूढ़ सत्यों को अनावृत्त करके उसे बोधगम्य बनाती है, जो बुद्धि की पहुँच से परे हैं, किंतु उसे अंतःप्रज्ञा द्वारा पुष्ट किया जा सकता है।
थियोसोफिकल सोसाइटी के दो आधार स्तंभ हैं- एक बंधुत्व और दूसरी स्वतंत्रता। सोसायटी अपने सदस्यों पर विश्वास के रूप में अपना साहित्य, संसार के संबंध में अपना दृष्टिकोण या अन्य विचार नहीं थोपती है। इसमें कोई भी ऐसी मान्यता तथा धारणा नहीं है, जिसे स्वीकार करना अनिवार्य हो। जो भी जिज्ञासु विश्वबंधुत्व में आस्था रखते हैं, वही थियोसोफिस्ट हैं। इसके अलावा सभी धर्मों के साथ सहिष्णुता का व्यवहार और उनमें समन्वय स्थापित करना, प्राचीन धर्म, दर्शन एवं ज्ञान का अध्ययन तथा प्रसार करना और विश्वबंधुत्व के सिद्धांत में विश्वास करना इस सोसायटी के प्रमुख सिद्धांत थे। सोसायटी के प्रतीक-चिन्ह पर लिखा है, ‘सत्यानास्ति परोधर्मः’ अर्थात् ‘सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं है।’
1879 में मैडम ब्लावात्सकी तथा ऑल्काट महर्षि दयानंद के निमंत्रण पर भारत आये और मुंबई में अपना मुख्यालय स्थापित किया। थियोसोफिकल सोसायटी ने 1879 से 1881 तक दयानंद सरस्वती के साथ मिलकर काम करने का प्रयास किया, किंतु यह ज्यादा दिन तक नहीं चल सका, क्योंकि सोसायटी के संस्थापक दयानंद की तरह वेदों को प्रमाणिक तथा ईश्वरीय ज्ञान मानने को तैयार नहीं थे। 1886 में सोसायटी का मुख्यालय मुंबई से हटाकर मद्रास के समीप अडयार (चेन्नई) में स्थापित किया गया।
भारत में थियोसोफिकल आंदोलन की गतिविधियों को व्यापक रूप से फैलाने का श्रेय मिसेज एनी बेसेंट (1847-1933) को दिया जाता है। 1847 में आयरलैंड के एक निर्धन परिवार में जन्मी एनी बेसेंट का जीवन के आरंभिक वर्षों में ही ईसाई मत से विश्वास उठ गया था। उनका अपने पादरी पति से तलाक हो गया था। वे 1882 में थियोसोफिकल सोसायटी के संपर्क में आईं और 10 मई 1889 को उसकी औपचारिक सदस्य बन गईं।
उन्नीसवी सदी में सांस्कृतिक जागरण और बंगाल में सुधार आंदोलन
ऐनी बेसेंट
एनी बेसेंट (Anne Besant)16 नवंबर 1893 में मैडम ब्लावात्सकी की मृत्यु पर भारत आईं और कर्नल एच.एस. ऑल्काट की मृत्यु के बाद 1907 में सोसायटी की अध्यक्ष बन गईं। बेसेंट प्राचीन भारतीय परंपरा और संस्कृति से बहुत प्रभावित थीं, इसलिए उन्होंने धीरे-धीरे अपने आपको पूर्णतः भारतीय बना लिया, केवल विचारों से ही नहीं, अपितु वस्त्र, भोजन, मेल-मिलाप और सामाजिक शिष्टाचार में भी। उन्होंने रूढ़िवादी परंपरा के अनुसार हिंदू धर्म की व्याख्या की और प्राचीन भावना ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ को साकार करने का प्रयास किया।
एनी बेसेंट को हिंदू धर्म से बहुत प्रेम था और उनका मानना था कि हिंदू धर्म के जागरण से ही विश्व का कल्याण हो सकता है। उन्होंने बहुदेववाद, यज्ञ, मूर्तिपूजा, तीर्थ, व्रत, कर्मवाद, पुनर्जन्म तथा धार्मिक अनुष्ठान आदि हिंदुओं के विश्वासों एवं कर्मकांडों का प्रबल समर्थन किया। भारतीय संस्कृति की महानता तथा उसके गौरव के संबंध में एक भाषण में कहा था कि ‘‘भारत और हिंदुत्व की रक्षा भारतवासी और हिंदू ही कर सकते हैं। हम बाहरी लोग आपकी चाहे कितनी भी प्रशंसा करें, किंतु आपका उद्धार आप ही के हाथ में है।…..हिंदुत्व के बिना भारत के सामने कोई भविष्य नहीं है। हिंदुत्व ही वह मिट्टी है, जिसमें भारतवर्ष का मूल गड़ा हुआ है। यदि यह मिट्टी हटा ली गई, तो भारतरूपी वृक्ष सूख जायेगा।’’ एक विदेशी के मुख से अपनी संस्कृति का गुणगान सुनकर भारतीयों का अपने धर्म में विश्वास बढ़ा।
वस्तुतः थियोसोफिकल सोसायटी प्रारंभ से ही हिंदुत्व, जरथुस्त्र मत (पारसी धर्म) तथा बौद्ध मत जैसे प्राचीन धर्मों को पुनर्स्थापित करने में संलग्न रही, किंतु यह धार्मिक पुनर्स्थापनावादियों के रूप में उतना सफल नहीं हो सकी जितना समाज सुधार, शैक्षिक विकास और राष्ट्रवादी चेतना को जागृत करने में। यह पश्चिमी देशों के ऐसे लोगों द्वारा चलाया जा रहा एक आंदोलन था जो भारतीय धर्मों तथा दार्शनिक परंपरा का महिमामंडन करते थे। इससे भारतीयों को अपना खोया आत्मविश्वास फिर से पाने में सहायता मिली, हालाँकि अतीत की महानता का झूठा गर्व भी इसने उनके अंदर पैदा किया। भारत में एनी बेसेंट के प्रमुख कार्यों में एक था 1898 में बनारस में ‘केंद्रीय हिंदू कॉलेज’ की स्थापना, जिसे बाद में मदनमोहन मालवीय ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (1916) के रूप में विकसित किया।
होमरूल (स्वशासन) आंदोलन
थियोसोफिकल सोसायटी की विश्व अध्यक्ष एनी बेसेंट, जो साम्राज्य-विरोधी तो नहीं थीं, किंतु उन्हें लगता था कि भारतीयों को पर्याप्त मात्र में स्वायत्त शासन प्रदान करना भारत और ब्रिटेन की मैत्री के लिए आवश्यक है। बेसेंट चाहती थीं कि ब्रिटिश रेडिकल एवं आयरिश होमरूल आंदोलनों की तर्ज पर भारत में भी स्वशासन की माँग को लेकर राजनीतिक आंदोलन चलाया जाये। एनी बेसेंट ने 1914 में भारत की राजनीति में प्रवेश किया और और मद्रास से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र ‘कामनवील’ (2 जनवरी 1914) और दैनिक पत्र ‘न्यू इंडिया’ (14 जुलाई 1914) के माध्यम से भारतीयों में स्वतंत्रता एवं राजनीतिक भावना को जागृत करने का कार्य आरंभ किया। इसके बाद 1916 के आरंभ में बंबई से ‘यंग इंडिया’ का प्रकाशन भी शुरू हो गया। एनी बेसेंट ने में तिलक के साथ मिलकर सितंबर 1916 में मद्रास (अडयार) में अपने ‘होमरूल आंदोलन’ की शुरूआत की और जार्ज अरुंडेल को संगठन-सचिव नियुक्त किया। तिलक की लीग की अपेक्षा एनी बेसेंट की लीग का स्वरूप अधिक अखिल-भारतीय था, और इसके अडयार स्थित मुख्यालय की लगभग 200 स्थानीय शाखाएँ कस्बों, नगरों और गाँवों तक फैली थीं। 1917 के मध्य में बेसेंट की लीग की सदस्य संख्या 27,000 थी।
एनी बेसेंट की होमरूल लीग ने स्वशासन की माँग के लिए बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू किया। अरुंडेल ने राजनीतिक शिक्षा और राजनीतिक बहस शुरू करने के लिए ‘न्यू इंडिया’ के माध्यम से पुस्तकालयों की स्थापना, छात्रों को राजनीतिक शिक्षा देने के लिए कक्षाओं का आयोजन, पर्चे बाँटने, चंदा इकट्ठा करने, सामाजिक कार्य करने, राजनीतिक सभाओं का आयोजन करने, दोस्तों के बीच होमरूल के समर्थन में तर्क देने तथा उन्हें आंदोलन में भागीदार बनाने के लिए स्वयंसेवकों से कार्य करने को कहा। बेंसेंट की लीग सितंबर 1916 तक 26 अंग्रेजी पुस्तिकाओं की 3,00,000 प्रतियाँ निकाल चुकी थी। नवंबर 1916 में जब एनी बेसेंट को बरार व मध्य प्रांत में जाने पर प्रतिबंध लगाया गया, तो अरुंडेल की अपील पर लीग की तमाम शाखाओं ने विरोध-बैठकें आयोजित की और वायसराय तथा गृह-सचिव को विरोध-प्रस्ताव भेजा। इसी प्रकार जब 1917 में तिलक पर पंजाब और दिल्ली जाने पर प्रतिबंध लगाया गया, तो पूरे देश में विरोध-बैठकें हुईं। इस आंदोलन से देश के राजनीतिक वातावरण में एक बिजली-सी दौड़ गई और सारा देश नये विचारों से आंदोलित हो उठा।
मद्रास सरकार ने जून 1917 में जब एनी बेसेंट और उनके दो प्रमुख थियोसोफिस्ट सहयोगियों, जार्ज अरुंडेल तथा बी.पी. वाडिया को नजरबंद किया, तो इसके विरोध में देशव्यापी प्रदर्शन हुए। एस. सुब्रह्मण्यम अय्यर ने अपनी ‘नाइटहुड’ की उपाधि वापस कर दी। इस समय एनी बेसेंट की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई थी कि उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। बेसेंट की लीग का मुख्य रूप से समर्थन करनेवाले थे- मद्रास के तमिल ब्राह्मण, संयुक्त प्रांत के व्यावसायिक समूह (कायस्थ, कश्मीरी ब्राह्मण एवं कुछ मुसलमान), सिंध के हिंदू अल्पसंख्यक और गुजरात और बंबई के युवा गुजराती उद्योगपति, व्यापारी एवं वकील। इन समूहों के बीच थियोसोफी की लोकप्रियता का एक कारण यह था कि थियोसोफी में थोड़ा-बहुत समाज-सुधार के साथ प्राचीन हिंदू ज्ञान और वैभव के सिद्धांत का मेल था। दूसरे, इन क्षेत्रों में ब्रह्म समाज या आर्य समाज जैसे संगठनों की बहुत पैठ नहीं थी। तीसरे, इन क्षेत्रों में एक प्र्रकार का राजनीतिक शून्य-सा भी था, क्योंकि बंबई और मद्रास शहरों को छोड़ दें तो इन क्षेत्रों में कोई सुस्थापित राजनीतिक परंपरा-उग्रवादी या नरमदलीय किसी भी प्रकार की-नहीं थी।
एनी बेसेंट और उनके होमरूल आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि इसने भावी राष्ट्रीय आंदोलन के लिए नये जुझारू योद्धा तैयार किये, जैसे मद्रास में सत्यमूर्ति, कलकत्ता में जितेंद्रलाल बनर्जी, इलाहाबाद और लखनऊ में जवाहरलाल नेहरू और खलीकुज्जमाँ, बंबई और गुजरात में रंगों का आयात करनेवाले धनी व्यापारी जमनादास द्वारकादास, उद्योगपति उमर सोभानी, शंकरलाल बैंकर और इंदुलाल याज्ञनिक।
जब 1919 में गांधीजी ने रौलट ऐक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह की अपील की, तो इसमें वे सभी लोग सम्मिलित हो गये, जिन्हें होमरूल आंदोलन ने राजनीतिक रूप से जागरूक बनाया था। 20 सितंबर 1933 को अडयार में एनी बेसेंट की मृत्यु हो गई। उन्हें श्रद्धाँजलि देते हुए गांधीजी ने कहा था कि जब तक भारतवर्ष जीवित है, एनी बेसेंट की सेवाएँ भी जीवित रहेंगी।