धन निष्कासन का सिद्धांत
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के आरंभिक उदारपंथी नेताओं को इस बात का श्रेय प्राप्त है कि उन्होंने उन्नीसवीं सदी के अपने समकालीन अन्य आंदोलनों के मुकाबले सबसे पहले औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के आर्थिक पहलुओं का विश्लेषण किया। संभवतः राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में इन नेताओं का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान यह था, क्योंकि राष्ट्रवादी आंदोलन की नींव रखने में इस आर्थिक समीक्षा और उससे जुड़े दूसरे मुद्दों को बड़े पैमाने पर प्रचारित किया गया। भाषणों, परचों, अखबारों, नाटकों, गीतों और प्रभात-फेरियों के माध्यम से भारतवासियों तक यह बात पहुँचाई गई कि ब्रिटिश राज एक सुविचारित योजना के तहत भारत को लूटने की प्रक्रिया में संलग्न है।
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारतीय बुद्धिजीवियों ने ब्रिटिश शासन की आर्थिक नीतियों का समर्थन किया, क्योंकि उनका मानना था कि ब्रिटेन दुनिया का सबसे उन्नत देश है और उन्हें आशा थी कि भारत के आधुनिकीकरण में ब्रिटेन मदद देगा। चूंकि आर्थिक क्षेत्र में ब्रिटेन दुनिया की सबसे बड़ी ताकत के रूप में उभर रहा था, इसलिए भारतीय यह आशा करते थे कि ब्रिटेन आधुनिक विज्ञान व तकनीक और अपने पूँजीवादी आर्थिक संगठन द्वारा भारत में उत्पादकता को बढ़ावा देगा और इसे विकास की एक निश्चित दिशा में आगे ले जाएगा।
यद्यपि आरंभिक राष्ट्रवादी विदेशी शासन के राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक दुष्परिणामों से अपरिचित नहीं थे, तब भी वे इस आशा में उसका समर्थन करते आ रहे थे कि इसके द्वारा भारत का पुनर्निर्माण हो सकेगा, एक आधुनिक देश के रूप में भारत खड़ा हो सकेगा।
किंतु 1860 के आसपास आरंभिक राष्ट्रवादियों का यह भ्रम टूटने लगा। उन्होंने जिस सामाजिक विकास की आशा की थी, दूर-दूर तक उसका कोई नामोनिशान नहीं दिख रहा था। इस सच्चाई ने उनकी आँखें खोल दीं कि नए क्षेत्रों में जो प्रगति हुई है, वह मात्र दिखावटी है। यह दिखावटी प्रगति भी जहाँ से शुरू हुई थी, वहीं रुकी हुई थी, जबकि दूसरी ओर पूरा देश लगातार पिछड़ेपन और गरीबी के गर्त में गिरता जा रहा था। इस प्रकार वे ब्रिटिश शासन के वास्तविक स्वरूप को धीरे-धीरे पहचानने लगे थे। अब उन्होंने साम्राज्यवादी सरकार की आर्थिक नीतियों और भारत पर उसके दुष्प्रभावों की जाँच-पड़ताल करनी शुरू की।
यद्यपि 1870 से 1905 के बीच अनेक भारतीय बुद्धिजीवियों ने ब्रिटिश शासन के आर्थिक प्रभावों की समीक्षा की, किंतु सबसे पहले दादाभाई नौरोजी (भारत के पितामह) ने अपनी पुस्तक पॉवर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया में ‘आर्थिक निकास’ की अवधारणा को प्रस्तुत किया और ब्रिटिश शासन को भारत की गरीबी का प्रमुख कारण बताया।
दादाभाई नौरोजी
‘भारत के ग्रैंड ओल्ड मैन’ और ‘भारत के अनौपचारिक राजदूत’ के रूप में प्रसिद्ध दादाभाई नौरोजी एक भारतीय राजनीतिक नेता, व्यापारी, विद्वान और लेखक थे। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तीन बार अध्यक्ष रहे थे। उन्होंने 1906 में कांग्रेस के एक अध्यक्षीय भाषण में सार्वजनिक रूप से ‘स्वराज’ (स्व-शासन) की माँग की थी। दादाभाई नौरोजी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आरंभिक राष्ट्रवादियों में एक महत्त्वपूर्ण नेता थे, जिन्होंने भारत पर ब्रिटिश शासन के आर्थिक प्रभावों की समीक्षा की और अपनी पुस्तक पॉवर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया में ब्रिटिश आर्थिक नीति को भारत की गरीबी का मूल कारण बताया था।
दादाभाई नौरोजी का प्रारंभिक जीवन
दादाभाई नौरोजी का जन्म 4 सितंबर 1825 को बंबई के एक गरीब पारसी परिवार में हुआ था। चार साल की उम्र में पिता नौरोजी पलांजी डोराबजी का देहांत हो जाने के कारण उनका पालन-पोषण उनकी माता मनेखबाई ने किया। अनपढ़ होने के बावजूद माता मनेखबाई ने दादाभाई नौरोजी को अंग्रेजी शिक्षा दिलाने का प्रयास किया। एक छात्र के रूप में दादाभाई नौरोजी गणित और अंग्रेजी में बहुत अच्छे थे। उन्होंने बंबई के एल्फिंस्टन इंस्टीट्यूट से अपनी पढ़ाई पूरी की और शिक्षा पूरी होने पर वहीं पर अध्यापक के रूप में नियुक्त हो गए। दादाभाई नौरोजी एल्फिंस्टन इंस्टीट्यूट में मात्र 27 साल की उम्र में गणित और प्राकृतिक दर्शन के प्राध्यापक बन गए। किसी विद्यालय में प्राध्यापक बनने वाले वे पहले भारतीय थे।
दादाभाई नौरोजी का राजनीतिक जीवन
दादाभाई नौरोजी ने 1852 में राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश किया और 1853 में ईस्ट इंडिया कंपनी की लीज के नवीनीकरण का दृढ़तापूर्वक विरोध किया। इस संबंध में उन्होंने अंग्रेजी सरकार को कई याचिकाएँ भी भेजीं, किंतु ब्रिटिश सरकार ने उनकी दलीलों को नजरअंदाज करते हुए चार्टर का नवीनीकरण कर दिया। नौरोजी ने युवकों की शिक्षा के लिए ‘स्टूडेंट्स लिटरेरी एंड साइंटिफिक सोसाइटी’ की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस संस्था की दो शाखाएँ थीं—एक मराठी ज्ञानप्रसारक मंडली और दूसरी गुजराती ज्ञानप्रसारक मंडली। उन्होंने ‘रहनुमाई सभा’ की भी स्थापना की थी। यही नहीं, उन्होंने ‘रास्त गफ्तार’ नामक एक समाज सुधारक पत्र का संपादन और संचालन भी किया था। दादाभाई नौरोजी ने भारत की समस्याओं के बारे में गवर्नर और वायसराय को कई याचिकाएँ भेजीं।
यद्यपि दादाभाई 1855 में अपने व्यापार के सिलसिले में इंग्लैंड चले गए, किंतु वहाँ उन्होंने कई संगठनों से संपर्क किया, भाषण दिए और भारत की दुर्दशा पर लेख लिखे। ब्रिटिश जनता को उत्पीड़ित भारतीयों के दुःखों की जानकारी कराने और उन्हें दूर करने के उद्देश्य से दादाभाई नौरोजी ने लंदन में 1861 में ‘लंदन जोरोस्ट्रियन एसोसिएशन’, 1865 में ‘लंदन इंडिया सोसाइटी’ और भारतीयों तथा सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारियों के सहयोग से 1 दिसंबर 1866 को ‘ईस्ट इंडिया एसोसिएशन’ की स्थापना की।
यद्यपि दादाभाई नौरोजी 1886 में इंग्लैंड के संसद के चुनाव में असफल रहे, किंतु 1892 में वे सेंट्रल फिंसबरी से लिबरल पार्टी के उम्मीदवार के रूप में ब्रिटिश संसद के लिए चुन लिए गए। उन्होंने भारत और इंग्लैंड में एक साथ भारतीय सिविल सेवा (आई.सी.एस.) की प्रारंभिक परीक्षाओं के लिए ब्रिटिश संसद में प्रस्ताव पारित करवाया। उन्होंने भारत और इंग्लैंड के बीच प्रशासनिक तथा सैन्य-खर्च के विवरण की सूचना देने के लिए वेलबी कमीशन और रॉयल कमीशन भी पारित करवाए।
धन-निकास का सिद्धांत
राष्ट्रवादियों ने भारतीय पूँजी व संपत्ति के निकास के प्रश्न को केंद्र-बिंदु बनाया, जिसे ‘आर्थिक निकास’ की संज्ञा दी गई है। भारतीय उत्पाद का वह हिस्सा, जो जनता के उपभोग के लिए उपलब्ध नहीं था, राजनीतिक कारणों से जिसका प्रवाह इंग्लैंड की ओर हो रहा था और जिसके बदले में भारत को कुछ नहीं प्राप्त होता था, उसे ‘आर्थिक निकास’ कहा गया है।
भारतीय पूँजी और संपत्ति के भारत से निकास की बात सबसे पहले दादाभाई नौरोजी ने उठाई थी। मई 1867 में उन्होंने कहा था कि ब्रिटेन भारत का खून चूस रहा है। उसके बाद अगले 50 सालों तक उन्होंने इसके खिलाफ आंदोलन चलाया और हर संभावित साधन और माध्यम से इस मुद्दे के प्रति लोगों को जागरूक करने की कोशिश की।
आरंभिक राष्ट्रवादी नेताओं ने बताया कि भारतीय पूँजी और संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा भारत में कार्यरत ब्रिटिश प्रशासनिक एवं सैनिक अधिकारियों के वेतन, भत्ते एवं पेंशन के रूप में, भारत सरकार द्वारा ब्रिटेन से लिए गए ऋणों के ब्याज के रूप में, ब्रिटिश पूँजीपतियों द्वारा भारत में कमाए गए मुनाफे के रूप में और ब्रिटेन में भारत सरकार के खर्चे के रूप में लगातार इंग्लैंड चला जा रहा है।
भारत से पूँजी और संपत्ति के इस बहाव की एक और शक्ल थी कि भारत के निर्यात व्यापार के मुकाबले उसका आयात व्यापार बढ़ने लगा और इस पूरे लेन-देन में भारत के हाथ कुछ भी नहीं लगता था। राष्ट्रवादियों ने जो हिसाब लगाया, उसके अनुसार भारत की राजस्व वसूली का आधा हिस्सा, जो उस समय भूराजस्व से भी अधिक था, और भारत की कुल बचत के एक तिहाई हिस्से से ज्यादा था, ब्रिटेन को भेज दिया जाता था। इस आर्थिक निकास के कारण देश में पूँजी का निर्माण एवं संचयन नहीं हो सका, जबकि इसी धन ने इंग्लैंड में औद्योगिक विकास को गति प्रदान की। इस तरह राष्ट्रवादियों ने पूँजी-निकास के सिद्धांत के द्वारा ब्रिटिश शासन के शोषक चरित्र को जनता के समक्ष उजागर किया। इस मुद्दे ने भारतीय जनमानस में राष्ट्रीय चेतना का प्रसार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
राष्ट्रवादियों ने स्पष्ट कर दिया कि औपनिवेशिक शासन जानबूझकर देश को विनाश की ओर ले जा रहा है। भारत इसलिए गरीब है क्योंकि यह औपनिवेशिक हितों के अनुरूप शासित किया जा रहा है। राष्ट्रवादी स्थिति को सुधारने के लिए सरकार की आर्थिक नीतियों में बदलाव चाहते थे। उन्होंने आर्थिक दोहन को रोकने के साथ-साथ सरकार से भू-राजस्व में कमी करने, नमक कर का उन्मूलन करने, उच्च मध्यवर्गीय लोगों पर आयकर लगाने, इस वर्ग द्वारा उपभोग की जा रही वस्तुओं पर उत्पाद-कर आरोपित करने और भारतीय उद्योगों को संरक्षण देने की माँग की। राष्ट्रवादियों ने इस बात को दोहराया कि भारत का उचित आर्थिक विकास तभी संभव है, जब उद्योगीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत हो; विकास में भारतीय पूँजी का प्रयोग किया जाए, क्योंकि यह विदेशी पूँजी से नहीं हो सकता है। विदेशी पूँजी एक ऐसी बुराई है जो निरंतर फैलती जाती है, उसे कम नहीं किया जा सकता है; यह किसी देश का विकास तो किसी हालत में करती ही नहीं, बल्कि उसका शोषण करती है और दिन-प्रतिदिन उसे पिछड़ेपन के गर्त में ढकेलती जाती है। इन नेताओं का कहना था कि भारत में विदेशी पूँजी-निवेश के खतरे अत्यंत घातक हो सकते हैं क्योंकि इससे राजनीतिक वशीकरण तथा विदेशी निवेशकों के हितों का पक्ष-पोषण होता है और देश में विदेशी शासन स्थायी हो जाता है। 1889 में ‘हिंदू’ ने लिखा था: ‘‘जिस देश में विदेशी पूँजी अपनी जड़ें जमा लेती है, उस देश का प्रशासन तत्काल विदेशी पूँजीपतियों की चिंता का विषय बन जाता है।’’
राष्ट्रवादी लेखकों ने ब्रिटिश सरकार के इस दावे का तर्कपूर्ण खंडन किया कि भारत में विदेशी व्यापार के विकास एवं रेलवे की स्थापना से देश की प्रगति हुई है। उन्होंने तर्क दिया कि स्वदेशी उद्योगों पर विदेशी व्यापार और रेलवे का नकारात्मक प्रभाव पड़ा है और इसलिए ये आर्थिक विकास की नहीं, बल्कि औपनिवेशिक विकास और भारतीय अर्थव्यवस्था के निरंतर पिछड़ते-टूटते जाने के प्रतीक हैं। इन नेताओं ने स्पष्ट किया कि विदेशी व्यापार को मात्रात्मक आधार पर नहीं तौला जाना चाहिए, बल्कि यह देखा जाना चाहिए कि यह विदेशी व्यापार किस ढंग का है। हमारे यहाँ से जो चीजें विदेश भेजी जाती हैं, उनके बदले में हमें मिलता क्या है और फिर सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस विदेशी व्यापार का भारतीय उद्योगों और कृषि पर क्या प्रभाव पड़ रहा है।
उन्नीसवीं सदी में विदेशी व्यापार के नाम पर भारत से केवल कच्चे माल का निर्यात किया जाता था और उसके बदले में उत्पादित वस्तुओं का आयात किया जाने लगा था। इस प्रकार विदेशी व्यापार ने भारत को कृषिगत वस्तुओं एवं कच्चे माल का निर्यातक तथा तैयार माल का आयातक बना दिया है। राष्ट्रवादियों का कहना था कि अंग्रेजों ने रेलवे का विकास अपने वाणिज्यिक हितों को पूरा करने के उद्देश्य से किया है, न कि भारत को प्रगति के पथ पर अग्रसर करने के लिए। रेलवे से औद्योगिक क्रांति नहीं, बल्कि वाणिज्यिक क्रांति हुई, जिसका पूरा लाभ ब्रिटेन को मिला। अंग्रेजों द्वारा भारत में रेलवे के विकास का उद्देश्य देश के दूर-दराज के क्षेत्रों से कच्चे माल का दोहन एवं विनिर्मित सामान को उन क्षेत्रों में पहुँचाना था। जी.बी. जोशी ने तो स्पष्ट कहा था: ‘रेलवे दरअसल ब्रिटिश उद्योगों के लिए भारत की तरफ से दी जाने वाली आर्थिक सहायता है।’ तिलक के शब्दों में: ‘यह दूसरे की पत्नी के सिंगार-पटार का खर्च उठाने जैसी बात है।’ इसी प्रकार इस्पात उद्योग को बढ़ाने एवं मशीनीकरण करने का कार्य भी औपनिवेशिक हितों को ध्यान में रखकर ही किया गया था।
आरंभिक राष्ट्रवादियों ने बताया कि भारत के औद्योगिक विकास में सबसे बड़ी बाधा मुक्त व्यापार की नीति थी। इस नीति ने एक ओर भारतीय दस्तकारी उद्योग को तबाह कर दिया, तो दूसरी ओर इस नीति के कारण भारत के नवजात और अविकसित उद्योगों को पश्चिम के विकसित और संगठित उद्योगों से मुकाबला करने को मजबूर किया। स्वाभाविक रूप से यह मुकाबला पूरी तरह गैर-बराबरी का और अनुचित था। राष्ट्रवादियों ने खुले तौर पर कहा कि भारतीय संपत्ति और पूँजी का विदेश में जाना ही भारत की गरीबी का मूल कारण है और यही भारत में ब्रिटिश शासन की सबसे बड़ी बुराई है। उपनिवेशवादी अर्थतंत्र के विश्लेषण के क्रम में अन्य राष्ट्रवादी नेताओं, पत्रकारों ने भी दादाभाई के कदमों का अनुसरण किया और ब्रिटिश शासन के शोषक चरित्र को जनता के समक्ष रखा, जिससे साम्राज्यवादी अर्थतंत्र के खिलाफ माहौल तैयार करने में सहायता मिली।
राष्ट्रवादियों की इस आर्थिक समीक्षा और पूँजी-निकास के मुद्दे ने राजनीतिक चेतना जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसने ब्रिटिश शासन की नैतिक बुनियादों की जड़ें उखाड़ फेंकी और इस विश्वास को झूठा साबित कर दिया कि ब्रिटिश शासन का चरित्र लोक-कल्याणकारी है और इसके इरादे नेक हैं। साम्राज्यवादी शासक और उनके समर्थक बार-बार यह दुहाई देते रहे कि भारत के आर्थिक विकास के लिए यहाँ ब्रिटिश शासन का बने रहना आवश्यक है। राष्ट्रवादियों ने इस तर्क का जोरदार खंडन किया और कहा कि भारत सिर्फ इसी कारण आर्थिक रूप से पिछड़ा है कि ब्रिटिश शासन यहाँ सिर्फ ब्रिटिश व्यापार, उद्योग और पूँजी के हितों के लिए काम कर रहा है और औपनिवेशिक शासन का नतीजा हर हाल में गरीबी और पिछड़ापन ही होता है। राष्ट्रवादियों ने बार-बार दोहराया कि ‘‘जनकल्याण की नकाब के पीछे ब्रिटिश शासन लगातार इस देश का शोषण करता आ रहा है। यह शोषण इतने गुपचुप ढंग से किया जा रहा है कि दुनिया को उसका पता ही न चले।’’
आरंभिक नेताओं ने प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण मुद्दों को देश की राजनीतिक गुलामी के सवाल से जोड़ा और भारतीयों के दिल-दिमाग में यह बात बैठा दी कि ब्रिटिश सरकार का प्रशासन ‘केवल शोषण का हथियार है’, इसलिए भारतीय हितों के अनुकूल नीतियाँ और कार्यक्रम तभी संभव हैं, जब राजनीतिक सत्ता और प्रशासन पूरी तरह भारतीयों के नियंत्रण में हो। ब्रिटिश शासन के प्रति पैदा हुआ यह अविश्वास धीरे-धीरे विदेशी सरकार के प्रति राजनीतिक विरोध की शक्ल लेने लगा।
यद्यपि आरंभिक राष्ट्रवादी नेता राजनीति और राजनीतिक तरीकों में उदारपंथी थे और उनमें से कई ब्रिटिश प्रशासन के प्रति निष्ठावान भी थे, फिर भी, आर्थिक आंदोलन का यह परिणाम हुआ कि इसने ब्रिटिश साम्राज्य की राजनीतिक जड़ों को काट दिया और भारतीय जनमानस में उसके प्रति अविश्वास और बेगानगी, बल्कि विद्रोह तक के बीज बो दिए। यही कारण है कि 1875 से 1905 तक का समय भारत में बौद्धिक अशांति का समय रहा और इस अवधि में राष्ट्रीयता की चेतना का फैलाव हुआ। इस तरह इस समय राष्ट्रीय आंदोलन के बीज बोए गए।
1885 में दादाभाई नौरोजी ने ए.ओ. ह्यूम द्वारा स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने 1886, 1893 और 1906 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वार्षिक सत्र की अध्यक्षता भी की थी। अपने तीसरे कार्यकाल के दौरान वे कांग्रेस पार्टी में नरमपंथियों और गरमपंथियों के बीच हो रहे विभाजन को रोकने में सफल रहे। कांग्रेस की स्वराज (स्व-शासन) की माँग उनके द्वारा 1906 में एक अध्यक्षीय भाषण में सार्वजनिक रूप से व्यक्त की गई थी। 30 जून 1917 को 92 साल की उम्र में मुंबई में उनकी मृत्यु हो गई।










