मध्यकालीन भारतीय इतिहास के स्रोत (Sources of Medieval Indian History)

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मध्यकालीन भारतीय इतिहास के स्रोत

 भारतीय इतिहास को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संगठनों तथा विचारों और मान्यताओं में परिवर्तन के आधार पर सामान्यतः प्राचीन काल, मध्यकाल और आधुनिक काल में विभाजित किया गया है। भारतीय इतिहास में मध्यकाल से आशय प्राचीन काल और आधुनिक काल के बीच के कालखंड से है, जिसका आरंभ प्रायः तेरहवीं शताब्दी की शुरूआत से अर्थात् दिल्ली सल्तनत की स्थापना (1206 ई.) से माना जाता रहा है, किंतु आधुनिक इतिहासकार भारत में मध्यकाल का प्रारंभ ईसा की आठवीं शताब्दी से मानते हैं क्योंकि इस समय भारत में राजनीति, प्रशासन, समाज, वास्तुकला, धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में कई महत्त्वपूर्ण विकास और परिवर्तन हुए। इस आरंभिक मध्यकाल में पाल, गुर्जर-प्रतिहार, गहड़वाल, चाहमान, चोल, पांड्य जैसे शक्तिशाली राजवंशों ने शासन किया। इस अवधि में उत्तरी और दक्षिणी भारत के क्षेत्रीय राज्यों के बीच सत्ता के लिए संघर्ष हुए, जिसके कारण राज्यों का उत्थान और पतन हुआ। इस काल की दो सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटनाएँ थीं-उत्तर-पश्चिम से तुर्कों के आगमन के बाद दिल्ली सल्तनत की स्थापना और फिर मुगल साम्राज्य की स्थापना। उत्तर और दक्षिण भारत की क्षेत्रीय शक्तियों के प्रतिरोध के बावजूद इन आक्रमणकारियों ने भारत के एक बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया।

पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में, यूरोपीयों ने भारत के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित किया और अठारहवीं सदी के मध्य तक आते-आते अपनी शक्ति सुदृढ़कर एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गये। अठारहवीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के पतन और अंग्रेजों के आगमन से भी भारत में अनेक परिवर्तन हुए, इसलिए अठारहवीं शताब्दी को भारतीय इतिहास के मध्यकाल का अंत माना जाता है। इस प्रकार भारतीय इतिहास में आठवीं शताब्दी ईस्वी से अठारहवीं सदी तक के काल को मध्यकाल माना जाता है।

बीते हुए युगों की घटनाओं के संबंध में जानकारी देने वाले साधनों को ऐतिहासिक स्रोत कहा जाता है। भारत के मध्यकालीन इतिहास की जानकारी के मुख्य स्रोत साहित्यिक ही हैं क्योंकि इस काल से संबंधित हस्तलिखित और मुद्रित सामग्री पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। साहित्यिक स्रोतों में विभिन्न प्रकार की रचनाएँ उपलब्ध हैं, जिनमें ऐतिहासिक ग्रंथ, शासकों की जीवनियाँ, आत्मकथाएँ, प्रशासन संबंधी रचनाएँ, दरबारी इतिहास, साहित्यिक कृतियाँ और राजकीय पत्रादि प्रमुख हैं।  मध्यकालीन भारत के प्रायः सभी राजाओं, सुल्तानों और बादशाहों ने विभिन्न भाषाओं के लेखकों, कवियों, दार्शनिकों, शास्त्रज्ञों और इतिहासकारों को प्रोत्साहन और आश्रय प्रदान किया, जिन्होंने शासकों के व्यक्तित्व और कृतित्व के साथ-साथ तत्कालीन राजनीति, प्रशासन, कला, साहित्य, कृषि, उद्योग, वाणिज्य-व्यापार, सभ्यता, दर्शन और धर्म आदि से संबंधित विवरण दिया है। मध्यकालीन भारतीय इतिहास के स्रोतों को मुख्यतः तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है- साहित्यिक स्रोत, विदेशी लेखकों और यात्रियों के वृतांत और पुरातात्त्विक स्रोत।

साहित्यिक स्रोत

भारतीय साहित्यिक स्रोत

आरंभिक मध्यकाल में संस्कृत, हिंदी और कन्नड़ जैसी अनेक भारतीय भाषाओं में अनेक साहित्यिक ग्रंथों, संस्मरणों और आत्मकथाओं की रचना हुई, जिनसे मध्यकालीन भारतीय इतिहास के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

नवसाहसांकचरित (पद्मगप्त ‘परिमल’)

‘नवसाहसांकचरित’ ऐतिहासिक महाकाव्य की रचना ग्यारहवीं शती ई. में पद्मगुप्त ‘परिमल’ ने की थी, जो मूलतः धारा के परमारवंशी वाक्पतिराज मुंज के राजकवि थे। मुंज की मृत्यु के बाद उसके अनुज सिंधुराज के काल में अनुमानतः 1005 ई. में पद्मगुप्त ने इस महाकाव्य की रचना की थी। अठारह सर्गों में प्रणीत इस महाकाव्य के 11वें सर्ग में परमारवंश का ऐतिहासिक विवरण मिलता है, जो शिलालेखों द्वारा समर्थित भी है। पद्मगुप्त को ‘परिमल कालिदास’ की उपाधि दी गई है।

विक्रमांकदेवचरित (बिल्हण)

‘विक्रमांकदेवचरित’ महाकाव्य कश्मीरी कवि बिल्हण की रचना है, जिसका रचनाकाल 1088 ई. माना जाता है। इस महाकाव्य को प्रकाश में लाने का श्रेय व्यूह्लर को है। बिल्हण कश्मीर से भ्रमण करते हुए कल्याणी के चालुक्य नरेश विक्रमादित्य (षष्ठ) की राजसभा में पहुँचे थे। विक्रमादित्य ने बिल्हण को ‘विद्यापति’ की उपाधि और छत्र प्रदान किया था। अपनी जन्मभमिू कश्मीर पर बिल्हण को बहुत गर्व था। उसके अनुसार केसर तथा कविता कश्मीर को छोड़कर अन्यत्र नहीं होती। बिल्हण ने विक्रमांकदेवचरित में चालुक्यवंशीय नरेश विक्रमादित्य षष्ठ (1076 ई.-1127 ई.) की उपलब्धियों के साथ-साथ उसके पूर्वजों का भी विवरण दिया है। इस प्रकार विक्रमांकदेवचरित मूलतः एक ऐतिहासिक ग्रंथ है, जो आरंभिक मध्यकाल की जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

राजतरंगिणी (कल्हण) 6

ऐतिहासिक महत्त्व की दृष्टि से ‘राजतरंगिणी’ सबसे प्रामाणिक ऐतिहासिक ग्रंथ है, जिसकी रचना कश्मीर के ब्राह्मण कवि कल्हण ने संस्कृत भाषा में की थी। वस्तुतः कल्हण भारत के पहले वास्तविक इतिहासकार हैं और राजतरंगिणी भारत की पहली ऐतिहासिक कृति। चंपक के पुत्र कल्हण ने सुस्सल के पुत्र राजा जयसिंह (1127-1159 ई.) के राज्यकाल में 1148 ई. में राजतरंगिणी का प्रणयन आरंभ किया और 1150 ई. में पूर्ण किया। कल्हण का उद्देश्य कश्मीर के नरेशों का वास्तविक इतिहास प्रस्तुत करना था। उसने स्वयं को पक्षपात और संकीर्णता से मुक्त रखते हुए समस्त उपलब्ध ऐतिहासिक स्रोतों का प्रयोग कर राजतरंगिणी का प्रणयन किया है। कल्हण के अनुसार उसने प्राचीन राजाओं के कथा-संग्रह, नीलमतपुराण, विभिन्न शिलालेखों, प्रशस्ति-पत्रों, प्राचीन मुद्राओं आदि का उपयोग करके तथ्यों को प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत किया है। उसने तत्कालीन देवालयों, प्राचीन भवनों, स्मारकों और शासन-पत्रों का भी अवलोकन किया था।

राजतरंगिणी का अर्थ है- राजाओं की नदी। इस ग्रंथरूपी नदी में राजाओं का उत्थान और पतन वैसे ही होता है, जैसे नदी में उठती-गिरती तरंगों का। राजतरंगिणी में कुल आठ तरंग अर्थात् अध्याय और 7826 श्लोक हैं। इसमें महाभारत काल के किसी गोनंद नामक राजा से लेकर 1151 ई. के आरंभ तक के कश्मीर के इतिहास का क्रमानुसार विवरण दिया गया है। कल्हण के इतिहास पर भारतीय जीवन-दर्शन, युग-विभाजन, कर्म-सिद्धांत, भाग्यवाद, तंत्र-मंत्र आदि का भी स्पष्ट प्रभाव है। उसने लोभी पुरोहितों, अनुशासनहीन सैनिकों तथा दष्टु कर्मचारियों की घोर निंदा की है। रानी दिद्दा की महत्त्वाकांक्षा का कल्हण ने विस्तार से वर्णन किया है। राजतरंगिणी में अरबों और तुर्कों के आक्रमणों के राजनैतिक और ऐतिहासिक प्रभावों का भी वर्णन मिलता है। वास्तव में, राजतरंगिणी एक सच्चे इतिहासकार द्वारा काव्यात्मक शैली में लिखा गया सच्चा इतिहास-ग्रंथ है। कल्हण की राजतरंगिणी को आगे बढ़ाने का कार्य विभिन्न कालों में जोनराज (1450 ई.), श्रीवर (1486 ई.) तथा शक (1586 ई.) ने किया।

इस प्रकार कल्हण ने राजतरंगिणी में इतिहास को इतिहास मानकर तथ्यों को निष्पक्ष और प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत किया है और एक इतिहासकार के उत्तरदायित्व को पूर्णतया निभाया है। अकबर ने राजतरंगिणी का अनुवाद फारसी में करवाया था।

रामपाल चरित (संध्याकरनंदी)

‘रामपालचरित’ नामक ऐतिहासिक संस्कृत काव्य की रचना संध्याकर नंदी ने बंगाल के पाल राजाओं के संरक्षण में की थी। रामचरित में रामायण और बंगाल के पाल शासक रामपाल की कहानी एक साथ लिखी गई है। यद्यपि इसमें पाल नरेश रामपाल (लगभग 1075-1120 ई.) की प्रशंसा की गई है, किंतु यह 1050 ई. से 1150 ई. तक के बंगाल के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। संध्याकर नंदी ने पाल शासकों को ‘समुद्रदेव की संतान’ बताया है और रामपाल के शासनकाल में होने वाले कैवर्त्त विद्रोह का भी वर्णन किया है।

पृथ्वीराजरासो (चंदबरदाई)

आरंभिक मध्यकाल का एक प्रमुख ऐतिहासिक स्रोत चंदबरदाई की रचना ‘पृथ्वीराजरासो’ है, जिसमें चाहमान शासक पृथ्वीराज चौहान की काव्यात्मक शौर्यगाथा को प्रस्तुत किया गया है। कहा जाता है कि चंदबरदाई पृथ्वीराज के समकालीन कवि और उनके मित्र भी थे। इस महाकाव्य में पृथ्वीराज-संयोगिता के प्रेम-प्रसंग, शहाबुद्दीन द्वारा उसे बंदी बनाकर गजनी ले जाने और अंत में शब्दभेदी बाण द्वारा शहाबुद्दीन गोरी को मारने का उल्लेख मिलता है।

यद्यपि पृथ्वीराजरासो की प्रामाणिकता संदिग्ध है, फिर भी, पृथ्वीराजरासो को हिंदी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है, जो मूलतः पिंगल भाषा में लिखा गया था। पृथ्वीराजरासो का अंतिम भाग चंदबरदाई के पुत्र जल्हण ने पूरा किया था।

कुमारपालचरित (हेमचंद्रसूरि)

‘कुमारपालचरित’ द्वयाश्रय महाकाव्य के रूप में प्रसिद्ध है। इसके प्रणयनकर्ता हेमचंद्रसूरि हैं, जिन्हें गुजरात के चालुक्यवंशी नरेशों- जयसिंह सिद्धराज और उसके पुत्र कुमारपाल का संरक्षण प्राप्त था। कुमारपालचरित की रचना दो भाषाओं में की गई है। इस महाकाव्य में 20 सर्ग हैं, जिसके प्रारंभिक 12 सर्गों में कुमारपाल से पूर्ववर्ती नरेशों का वर्णन संस्कृत भाषा में किया गया है और अंतिम 8 सर्गों में प्राकृत भाषा में कुमारपाल के जीवन-चरित का विवरण है। ‘कलिकालसर्वज्ञ’ की उपाधि से सम्मानित आचार्य हेमचंद्र ने कुमारपालचरित के अंतिम पाँच सर्गों को कुमारपाल को समर्पित किया है।

पृथ्वीराजविजयमहाकाव्यम् (जयानकभट्ट)

इस काल का एक अन्य प्रमुख ऐतिहासिक स्रोत ‘पृथ्वीराजविजयमहाकाव्यम्’ है। इसकी रचना पृथ्वीराज के कश्मीरी दरबारी कवि जयानकभट्ट अथवा जयरथ ने संस्कृत में की थी, जिसे हिंदी में ‘पृथ्वीराजविजय महाकाव्य’ कहा जाता है। इस महाकाव्य में तराइन के प्रथम युद्ध और उसमें पृथ्वीराज तृतीय की विजय का वर्णन है, किंतु तराइन के दूसरे युद्ध और पृथ्वीराज तृतीय की पराजय का वर्णन नहीं मिलता है। इससे लगता है कि इसकी रचना संभवतः 1191 से 1192 ई. के बीच की हुई थी। यद्यपि पृथ्वीराजविजयमहाकाव्यम् में पृथ्वीराज चौहान की प्रशंसा की गई है, किंतु इस ग्रंथ से चाहमानों की उत्पत्ति, वंशावली और अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ भी मिलती हैं।

मूषकवंश (अतुल)

बारहवीं शती के उत्तरार्द्ध में दक्षिण भारतीय राज्य केरल के राजवंश का ऐतिहासिक विवरण अतुल नामक कवि ने अपने महाकाव्य ‘मूषकवंश’ में लिपिबद्ध किया है। इस ऐतिहासिक महाकाव्य में मूषकवंश की कथा परशुराम द्वारा क्षत्रिय संहार से आरंभ होती है, जहाँ उनके भय से प्रकंपित अज्ञात महारानी अपने पति की मृत्योपरांत मूषक पर्वत पर निवास करती है और उसके पुत्र से मूषकवंश का प्रारंभ होता है। इस ग्रंथ में महाराज वल्लभ द्वितीय और उसके भाई श्रीकंठ के शासनकाल का वर्णन है। इस प्रकार मूषक वंश के ऐतिहासिक स्रोत के रूप में इस ग्रंथ की उपयोगिता निविर्वाद है।

प्रभावकचरित (प्रभाचंद्र)

‘प्रभावकचरित’ एक इतिहास-ग्रंथ है, जिसके रचयिता श्वेतांबर जैन आचार्य प्रभाचंद्र हैं। इसकी रचना 1277-1278 ई. में हुई थी। प्रभावकचरित में श्वेतांबर जैन विद्वानों के जीवनचरित का वर्णन है, किंतु इस ग्रंथ का उल्लेख प्रायः आचार्य हेमचंद्राचार्य के और उनके समय के इतिहास के संदर्भ में किया जाता है। यह ग्रंथ तत्कालीन सामाजिक जीवन के इतिहास का एक बड़ा स्रोत है। प्रभावकचरित में पैराशूट के उपयोग का उल्लेख भी मिलता है।

हम्मीरकाव्य (नयचंद्रसूरि)

चौहानवंशी नरेश हम्मीरदेव के जीवन-चरित पर आधृत ‘हम्मीरकाव्य’ नयचंद्रसूरि की रचनाधर्मिता का प्रमाण है, जिसमें अलाउद्दीन खिलजी और हम्मीरदेव के मध्य हुए रणथम्भोर के युद्ध (1301 ई.) और हम्मीरदेव के प्राणोत्सर्ग की घटना का विवरण मिलता है। चौहानों के इतिहास की जानकारी के लिए यह ग्रंथ एक प्रामाणिक और विश्वसनीय स्रोत है।

इसके अलावा, कश्मीरी कवि सोमदेव की रचना ‘ललितविग्रहराज नाटक’ भी आरंभिक मध्यकाल की एक महत्त्वपूर्ण रचना है, जिसमें चाहमान शासक विग्रहराज चतुर्थ ‘बीसलदेव’ के शासनकाल का वर्णन मिलता है। आनंदभट्ट की रचना ‘बल्लालचरित’ में बंगाल के दूसरे सेन शासक बल्लालसेन का विवरण है। इसी प्रकार 12वीं सदी के जयसिंह ने ‘कुमारपालचरित’ में अन्हिलवाड के राजा कुमारपाल का वर्णन किया है और जयदेव ने ‘गीतगोविंद’ गीतिकाव्य में धार्मिक उत्साह के साथ श्रृंगारिकता का सुंदर संयोजन प्रस्तुत किया है। वाक्यपतिराज के ‘गौडवहो’ से कन्नौज के राजा यशोवर्मन की विजयों और चालुक्यों की जानकारी मिलती है। ‘मधुराविजय’ में विजयनगर साम्राज्य के शासक कम्पण की राजमहिषी गंगादेवी ने अपने पति की दक्षिण भारत की विजय यात्राओं, विशेषतया मधुरा के यवन सुल्तान पर उसकी विजय का वर्णन किया है। इसी प्रकार राजनाथ द्वितीय के ‘सलुवाभ्युदय’ में विजयनगर के राजा सालुव तथा उनके पूर्वजों की वंशावली का वर्णन मिलता है। डिंडिम कवि के ‘अच्युतरायाभ्युदय’ से  विजयनगर के शासक अच्युतराय के राज्यकाल की घटनाओं का ज्ञान होता है। गौड़ देशीय कवि चंद्रशेखर ने ‘सुरजनचरित’ में बूंदी के हाडावंशीय राजाओं का ऐतिहासिक विवरण दिया है।

मध्यकाल के आरंभ में कई लेखकों ने द्रविड़ भाषा में भी अपनी रचनाएँ लिखीं। कन्नड का सर्वप्रथम उपलब्ध ग्रंथ नृपतुंग की रचना ‘कविराजमार्ग’ है। चंपू शैली में लिखा हुआ यह रीतिग्रंथ मुख्यतया दंडी के काव्यादर्श पर आधरित है। पम्प ने ‘आदिपुराण’ लिखा, जिसमें प्रथम जैन तीर्थंकर के जीवन का वर्णन है। पम्प की एक अन्य पौराणिक रचना महाभारत पर आधारित ‘विक्रमार्जुनविजय’ भी है। पोन्न ने अपने ‘शांतिपुराण’ में सोलहवें जैन तीर्थंकर के संबंध में लिखा है। पम्प और पोन्न के समकालीन रन्न ने भी कन्नड़ में ‘अजितपुराण’ और ‘गदायुद्ध’ लिखा। कंबन ने तमिल भाषा में ‘रामायण’ लिखी। इस काल में अलवार और नयनार संतों के भजनों का भी लेखन हुआ, जो ‘दिव्यप्रबंधम्’ में संकलित हैं।

दिल्ली सल्तनत के अंतर्गत खड़ी बोली और ब्रजभाषा का प्रयोग राजदरबार के साथ-साथ साहित्यिक रचनाओं में भी किया जाता था। इसी समय एक भाषा के रूप में राजस्थानी भाषा का भी विकास हुआ। इसी काल में ‘आल्हा-उदल’ और ‘विशालदेवरासो’ जैसी प्रसिद्ध राजस्थानी गाथाओं की रचना हुई। इसी काल में साहित्य की भाषा के रूप में अवधी का विकास हुआ, जिसका सबसे प्राचीन काव्य मुल्ला दाउद का ‘चंदायन’ है। मलिक मुहम्मद जायसी का ‘पद्मावत’ भी ऐतिहासिक दृष्टि से एक उपयोगी रचना है। इस प्रकार आरंभिक मध्यकाल की जानकारी के लिए संस्कृत और हिंदी के साथ-साथ कन्नड़ और तमिल भाषा के साहित्यिक ग्रंथ भी महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत हैं।

सल्तनतकालीन अरबी और फारसी स्रोत

मध्यकालीन भारत के इतिहास की जानकारी के प्रमुख साहित्यिक स्रोत फारसी में और कुछ स्रोत अरबी भाषा में हैं। सामान्यतया अरबी और फारसी स्रोतों में कुछ इतिहास ग्रंथ हैं, कुछ संस्मरण और कुछ आत्मकथाएँ हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है-

चचनामा (अली अहमद) 6

‘चचनमा’, जिसे ‘फतहनामा सिंध’ तथा ‘तारीख़-अल-हिंद वस-सिंद’ के नाम से भी जाना जाता है, मध्यकालीन इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। अरबी भाषा में लिखे गये इस ग्रंथ का लेखक संभवतः अली अहमद था, जो मुहम्मद बिन कासिम के साथ सिंध आया था। चचनामा में राजा दाहिर के चच राजवंश का इतिहास और 712 ई. में अरबों की सिंध विजय का विवरण मिलता है। संभवतः नासिरुद्दीन क़ुबाचा के समय में मुहम्मद अली बिन अबू बकर कूफी ने इस ग्रंथ का फारसी में अनुवाद किया और उसको समर्पित किया है।

तारीख-ए-सिंध (मीर मुहम्मद मासूम)

‘तारीख-ए-सिंध’ को ‘तारीख-ए-मासूमी’ के नाम से भी जाना जाता है। इसकी रचना मीर मुहम्मद मासूम ने 1600 ई. में की थी। इस इस ग्रंथ में अरबों की सिंध विजय से लेकर मुगल सम्राट अकबर तक के सिंध के इतिहास का विवरण मिलता है। यद्यपि यह ग्रंथ चचनामा पर आधारित है, किंतु यह चचनामा की समकालीन रचना नहीं है। फिर भी, इस ग्रंथ में अरबों की विजय और मुहम्मद बिन कासिम की सफलता के कारणों का लगभग सही विवरण दिया हुआ है।

किताब-उल-यामिनी (जब्बार-अल-उत्बी)

अरबी भाषा में लिखी गई ‘किताब-उल-यामिनी’ जब्बार-अल-उत्बी की 70 पृष्ठों की एक छोटी रचना है, जो ‘तारीख-ए-यामिनी’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। उत्बी महमूद गजनवी का एक कर्मचारी था, जिसके कारण उसे महमूद गजनवी और उसके कार्यकलापों की व्यक्तिगत जानकारी थी। किताब-उल-यामिनी में सुबुक्तगीन और महमूद गजनवी के 1020 ई. तक के इतिहास का वर्णन है।

यद्यपि किताब-उल-यामिनी एक साहित्यिक रचना है और इसमें तिथियाँ कम दी गई हैं, फिर भी, यह महमूद गजनवी के प्रारंभिक जीवन और कार्यों की जानकारी का एक प्रामाणिक स्रोत है। अबुल शराफ जरबदकानी ने किताब-उल-यामिनी का फारसी में अनुवाद किया और जेम्स रेनॉल्ड्स ने 1858 ई. में इसका फारसी से अंग्रेजी में अनुवाद किया है।

जैन-अल-अखबार (अबू सईद गर्देजी)

11वीं शताब्दी के एक फारसी भूगोलवेत्ता और अफगानिस्तान के इतिहासकार अबू सईद गर्देजी ने ‘जैन-अल-अखबार’ की रचना की थी। मूलतः इस ग्रंथ को गजनी के सुल्तान अब्दुल-रशीद के दरबार में लिखा गया था और इसमें ईरान का इतिहास वर्णित है, किंतु इससे महमूद गजनवी के जीवन पर भी प्रकाश पड़ता है। जैन-अल-अखबार की तिथियाँ तथा घटनाएँ अपेक्षाकृत सही हैं।

तारीख़-ए-मसूदी (हुसैन-अल-बैहाकी)

‘तारीख-ए-मसूदी’ की रचना मुहम्मद बिन हुसैन अल बैहाकी ने अरबी भाषा में की थी। बैहाकी, महमूद गजनवी के उत्तराधिकारी मसूद का एक कर्मचारी था। तारीख-ए-मसूदी से 1059 ई. तक गजनी वंश के इतिहास, विशेषकर मसूद के शासनकाल और उसके चरित्र की जानकारी मिलती है।

कमीत-उल-तवारीख (शेख अबुल हसन)

‘कमीत-उल-तवारीख’ की रचना मेसोपोटामिया के शेख अबुल हसन ने 1230 ई. में की थी। यद्यपि कमीत-उल-तवारीख में मुख्यतया मध्य एशिया का और विशेषकर गोर के शंसबनी राजवंश का इतिहास वर्णित है, किंतु इससे मुहम्मद गोरी की भारत-विजय पर भी प्रकाश पड़ता है। इसमें भारतीय विषयों का वर्णन बहुत संक्षिप्त है और प्रायः सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है। फिर भी, इसकी तिथियाँ और मुख्य घटनाएँ सही हैं।

ताज-उल-मासिर (हसन निजामी)

‘ताज-उल-मासिर’ निशापुर (ईरान) के हसन निजामी की रचना है। जब निशापुर पर मंगोलों ने आक्रमण किया, तो निजामी भागकर भारत आ गया और कुत्बुद्दीन ऐबक के यहाँ नौकरी करके यहीं बस गया था। मासिर की रचना अरबी और फारसी दोनों में की गई थी, किंतु इसमें तराइन के प्रथम युद्ध का वर्णन नहीं मिलता है क्योंकि इस युद्ध में गोरी की हार हुई थी। हसन निजामी कुत्बुद्दीन ऐबक का समकालीन था और उसकी रचना ऐबक के जीवन पर केंद्रित है, फिर भी, निजामी ने ऐबक की मृत्यु के बाद इल्तुतमिश के प्रारंभिक वर्षों के इतिहास का भी प्रामाणिक विवरण दिया है।

वस्तुतः ताज-उल-मासिर दिल्ली सल्तनत काल के प्रारंभिक वर्षों की जानकारी का प्रमुख ऐतिहासिक स्रोत है। यद्यपि इस ग्रंथ में मुख्य रूप से युद्ध और युद्धनीति का विवरण है, किंतु इसमें भारतीय समाज और संस्कृति का भी विस्तार से वर्णन किया गया है, जिसमें शहरों, उत्सवों और मेलों का भी वर्णन है। निजामी ने अपने ग्रंथ में आलंकारिक और कठिन भाषा का प्रयोग किया है, जिससे ऐतिहासिक घटनाओं को समझने में असुविधा होती है। फिर भी, इस ग्रंथ को दिल्ली सल्तनत का पहला राजकीय संकलन माना जाता है। 14वीं शताब्दी के जियाउद्दीन बरनी ने हसन निजामी को दिल्ली सल्तनत का ‘एक भरोसेमंद इतिहासकार’ बताया है। ताज उल मासिर का अंग्रेजी में अनुवाद इलियट और डाउसन ने किया है।

आदाब उल हर्ब वा अल शुजात ( फक्र-ए-मुदब्बिर)

‘आदाब उल हर्ब वा अल शुजात’ की रचना फक्र-ए-मुदब्बिर ने की थी। यह सुलतान इल्तुतमिश को समर्पित है और लगता है कि इसे मुस्लिम भारत में, संभवतः लाहौर या दिल्ली में 1228 ई. में लिखा गया था। इस पुस्तक में प्रशासन, मुख्यतया घोड़ों और हथियारों को चुनने, बलों की तैनाती और युद्ध के मैदान में रणनीति जैसे सैन्य-विषयों का सैद्धांतिक वर्णन है। आदाब उल हर्ब से ज्ञात होता है कि तुर्कों के विरूद्ध भारतीय सेनाओं की पराजय का कारण उनका ‘सामंती सैन्य भर्ती’ के आधार पर गठन था, जिसमें प्रत्येक सेना की टुकड़ी राजा के बजाय अपने सामंत शासक के अधीन थी। ऐतिहासिक मूल्य के उपाख्यानों से भरपूर इस पुस्तक से महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

तबकात-ए-नासिरी (मिनहाज-उस-सिराज)

‘तबकात-ए-नासिरी’ की रचना 1260 ई. के आसपास मिनहाज-उस-सिराज ने फारसी भाषा में की थी। मिनहाज सिराज एक सुशिक्षित एवं विद्वान् लेखक था और नासिरुद्दीन महमूद के शासनकाल में दिल्ली में मुख्य काजी के पद पर कार्य किया था। उसने नासिरुद्दीन कुबाचा, इल्तुतमिश और उसके उत्तराधिकारियों के समय में, केवल अलाउदीन मसूदशाह को छोड़कर, सभी सुल्तानों की सेवा की थी। सिराज ने निजी जानकारी के आधार पर पैगंबर मुहम्मद से लेकर इल्तुतमिश के उत्तराधिकारी नासिरूद्दीन महमूद के समय अर्थात् 1260 ई. तक की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का विवरण दिया है। उसने तबकात-ए-नासिरी को नासिरुद्दीन महमूदशाह को समर्पित किया था।

तबकात-ए-नासिरी 23 तबकों (अध्यायों) में विभाजित है, जिनमें विभिन्न क्षेत्रों के राजवंशों का सामान्य विवरण दिया गया है। मिनहाज के विवरणों से अमीरों के चरित्र, षड्यंत्र, विद्या, धर्म से प्रेम आदि बातों का भी ज्ञान होता है। यह पुस्तक दिल्ली के सुल्तान के विरूद्ध बंगाल में खिलजी विद्रोह की जानकारी का एकमात्र स्रोत है। इसमें चंगेज खाँ और उसके उत्तराधिकारी मंगोलों द्वारा मुस्लिमों पर किये गये अत्याचार का भी विवरण मिलता है।

वास्तव में, मिनहाज में ऐतिहासिक घटनाओं को समझने और उनका विश्लेषण करने की क्षमता थी। उसने सरल भाषा में घटनाओं का क्रमानुसार विवरण दिया है। वह लिखता है कि बादशाहों में ऐसे गुण होने चाहिए, जिससे प्रजा तथा लाव-लश्कर संतुष्ट रह सके; भोग-विलास तथा दुष्टों और दुराचारियों के मेल से राज्य का पतन हो जाता है। फरिश्ता ने तबकात-ए-नासिरी को ‘उच्चकोटि का ग्रंथ’ बताया है। एलफिंस्टन, स्टेवार्ट तथा मार्ले ने भी इसकी प्रशंसा की है। तबकात-ए-नासिरी का अंग्रेजी अनुवाद रेवर्टी ने किया है।

अमीर खुसरो और उसकी रचनाएँ

अमीर खुसरो का वास्तविक नाम अबुल हसन यामीनुद्दीन था और खुसरो उनका उपनाम था। जलालुद्दीन खिलजी ने उसकी कविता से प्रसन्न होकर उसे ‘अमीर’ की उपाधि दी थी, तभी से वह अमीर खुसरो कहा जाने लगा था।

खुसरो का जन्म 1253 ई में उत्तर प्रदेश के पटियाली (ऐटा) नामक गाँव में गंगा के किनारे हुआ था। उसके परिवार का संबंध कई पीढ़ियों से राजदरबार से रहा था। उसने सुल्तान बलबन के समय में अपने जीवन का आरंभ किया और उसे कैकुबाद, जलालुद्दीन खिलजी, अलाउद्दीन खिलजी, कुत्बुद्दीन मुबारकशाह खिलजी और गियासुद्दीन तुगलक का संरक्षण प्राप्त था। उसका सूफियों, विशेष रूप से निजामुद्दीन औलिया से अत्यंत निकट का संबंध था। उसने सभी घटनाओं को अपनी आँखों से देखा था, इसलिए उसके ग्रंथ ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष उपयोगी हैं।

खुसरो मूलतः कवि था, किंतु वह कवि के साथ-साथ संगीतकार, रहस्यवादी और इतिहासकार भी था। उसकी कविताओं के विषय इतिहास से संबंधित थे। उसकी सभी कृतियाँ 1289-1325 ई. के बीच लिखी गई हैं और उनमें इतिहास के साथ-साथ तत्कालीन सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन का भी वर्णन मिलता है। खुसरो की रचनाओं की एक प्रमुख विशेषता यह है कि उनमें बहुत-सी तिथियाँ दी गई हैं और उनका कालक्रम भी अधिक विश्वसनीय है। अमीर खुसरो ने पहली बार हिंदी, हिंदवी और फारसी में एक साथ लिखा। वह ऐसा पहला मुस्लिम लेखक है, जिसने अपने लेखन में हिंदी के शब्दों और मुहावरों का खुलकर प्रयोग किया है। यद्यपि उसने ब्रजभाषा को विशेष आश्रय दिया, किंतु खड़ी बोली के आविष्कार का श्रेय खुसरो को ही है। अमीर खुसरो के अनुसार शतरंज का आविष्कार भारत में हुआ था। खुसरो की रचनाओं की संख्या 99 बताई जाती है, किंतु अभी तक 22 कृतियाँ ही उपलब्ध हैं, जिनमें पाँच दीवान, मसनवियाँ और अन्य रचनाएँ हैं। उसकी कुछ प्रमुख रचनाओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-

पाँच दीवान: अमीर खुसरो के फारसी ग्रंथों में पाँच दीवान हैं- पहला दीवान ‘तुहका-तुस-सिग्र’ (1273 ई.), दूसरा दीवान ‘वसतुल हयात’ (1285 ई.), तीसरा ‘गुर्र-तुल-कमाल’ (1294 ई.) सबसे बड़ा और सर्वश्रेष्ठ दीवान है, जिसमें 9 मसनवियाँ हैं। चौथा दीवना ‘बकिया नकिया’ (1316) और पाँचवाँ तथा अंतिम दीवान ‘निहातयुल कमाल’ है।

किरान-उस-सदाइन (1289 ई.): ‘किरान-उस-सदाइन’ का अर्थ है-दो शुभ सितारों का मिलन। इसे मसनवी दर ‘सिफ्त-ए-देहली’ भी कहते हैं। खुसरो ने इस मसनवी में बंगाल के सूबेदार बुगरा खाँ और उसके बेटे कैकुबाद की भेंट, झगड़े और फिर आपसी समझौते का कविता के रूप में वर्णन किया है। इसमें दिल्ली नगर की स्थिति, मुख्य भवन, दरबार का ऐश्वर्य, मद्यपान गोष्ठियों, संगीत तथा नृत्य का भी विवरण दिया गया है।

मिफ्ताह-उल-फुतूह (1291 ई.): ‘मिफ्ताह-उल-फुतूह’ का अर्थ होता है-जीत की कुंजी। इसमें जलालुद्दीन खिलजी के चार विजय अभियानों का कविता के रूप में वर्णन किया गया है और मालिक छज्जू के विद्रोह का भी उल्लेख है। मिफ्ताह-उल-फुतूह अमीर खुसरो के तीसरे दीवान ‘ गुर्र-तुल-कमाल’ का भाग है।

देवलरानी खिज्र खाँ/इश्किया (1316 ई.): अमीर खुसरो ने इस मसनवी (कविता) में अलाउद्दीन के पुत्र खिज्र खाँ और गुजरात के राजा कर्णसिंह की पुत्री देवलदेवी के प्रेम का वर्णन किया है। इसमें अलाउद्दीन की गुजरात विजय के साथ-साथ मलिक काफूर की विजयों, खिज्र खाँ की हत्या और अलाउद्दीन की बीमारी का भी वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ से पता चलता है कि खुसरो को मंगोलों ने बंदी बनाया था।

नुह सिपहर (1318 ई.): नुह सिपहर का अर्थ है- नौ आसमान। यह अमीर खुसरो की एक उत्कृष्ट कृति है। अमीर खुसरो ने इस कृति में कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी के समय की सामाजिक स्थिति के विषय में जानकारी मिलती है। इससे खिलजीकालीन भारत की महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

तुगलकनामा (1320 ई.): अमीर खुसरो की अंतिम और ऐतिहासिक मसनवी ‘तुगलकनामा’ है, जिसे उन्होंने अपनी मृत्यु से कुछ दिन पूर्व लिखी थी। इसमें मुबारकशाह खिलजी के विश्वासपात्र और हत्यारे खुसरो खाँ पर गयासुद्दीन तुगलक की विजय का वर्णन है, जिसके परिणामस्वरूप तुगलक वंश की स्थापना हुई थी।

इनके अलावा, अमीर खुसरो की पाँच छोटी मसनवियाँ- हश्त-बहिश्त, मतला उल अनवार, शीरी व खुसरो, मजनू व लैला और आइने-सिकंदरी मिलती हैं। खुसरो की गद्य रचनाओं में ‘एज़ाजे खुसरवी’ (1319 ई.) और ‘खजाइन-उल-फुतूह’ (1296 ई.) ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।

खजाइन-उल-फुतूह (1296 ई.): खजाइन-उल-फुतूह का अर्थ है- जीत का खजाना। अमीर खुसरो की इस गद्यात्मक रचना को ‘तारीख-ए-अलाई’ के नाम से भी जाना जाता है। इसमें जलालुद्दीन खिलजी से लेकर मुहम्मद बिन तुगलक तक के दिल्ली के सुल्तानों का विवरण मिलता है। खजाइन-उल-फुतूह से तत्कालीन प्रशासकीय सुधारों, अलाउद्दीन के दक्षिण अभियानों और मंगोलों के विरुद्ध अभियानों पर भी प्रकाश पड़ता है। तिथियों और विवरणों, दोनों ही दृष्टियों से खजाइन-उल-फुतूह एक विश्वसनीय ऐतिहासिक स्रोत है।

अमीर खुसरो की और भी कई रचनाएँ भी हैं। मिजान-उल-अंसाब में अमीर खुसरो ने मुसलमान शासकों और उनके गृहवंशों के बारे में विवरण प्रस्तुत किया है। इसमें उन्होंने दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों के वंशज, परिवार और उनके काल की एतिहासिक महत्त्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन किया हैं। दीवान-ए-खुसरो में खुसरो की कविताओं का संग्रह है। इसमें उनकी उर्दू, फारसी, संस्कृत और अरबी भाषा में लिखी गई कविताएँ हैं। अफजलुल फवायद, किस्सा चार दरवेश और राहतुल मुहिब्बीन में हज़रत निजामुद्दीन के उपदेश हैं। खालिक बारी, दीवाने हिंदवी, हालात-ए-कन्हैया या किषना आदि भी अमीर खुसरो की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं, जिनसे उस समय की सामाजिक दशा, रीति-रिवाज, प्रचलित लोकरूढ़ियों, धार्मिक विश्वासों और अन्य सांस्कृतिक क्रियाकलापों की जानकारी मिलती है।

वास्तव में, अमीर खुसरो भारतीय परंपरा और परिवेश से बहुत प्रभावित था और उसने इस्लामी परंपराओं को भारतीय विरासत के अंदर समाहित करने का प्रयास किया। उसने दो विभिन्न संस्कृतियों, दो विभिन्न धार्मिक विश्वासों और परंपराओं में परस्पर सौहार्द, प्रेम और सामंजस्य का वातावरण तैयार करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। भारतीय गायन में क़व्वाली और वाद्ययंत्र सितार को खुसरो की देन माना जाता है। उन्होंने पखावज को दो भागों में विभाजित करके तबले का भी अविष्कार किया। अबुल फजल के अनुसार खुसरो ने ही कौल और तराना का आविष्कार किया था। खुसरो ने अपने संगीत को ‘संगीत-ए-निंगारी’ के रूप में वर्णित किया है। ईरान के फारसी कवि अर्फी तथा शिराज़ी ने खुसरो को ‘तूती-ए-हिन्द’ के नाम से संबोधित किया है।

जियाउद्दीन बरनी और उसकी रचनाएँ

जियाउद्दीन बरनी का जन्म 1285-86 ई. में दिल्ली में हुआ था। उसके पिता और चाचा का राजसत्ता से निकट का संबंध था, जिसके कारण बरनी को भी राजसत्ता के समीप रहने का अवसर मिला था। वह गयासुद्दीन तुगलक, मुहम्मद बिन तुगलक और फिरोजशाह तुगलक का समकालीन था। बरनी ने 17 वर्ष से अधिक समय तक सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के नादिम (सलाहकार) के रूप में कार्य किया, किंतु फीरोजशाह तुगलक के समय में वह शाही कृपा से वंचित हो गया और उसे जीवन के अंतिम समय कष्ट में बिताने पड़े। बरनी ने अपनी रचनाओ में दिल्ली के सुल्तानों और उनके सैन्य-अभियानों के अलावा, उस समय की सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक दशा तथा न्याय व्यवस्था का विवरण दिया है। यही नहीं, उसके ग्रंथों में साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों, अमीरों और सूफी संतो का भी वर्णन मिलता है।

बरनी का स्पष्ट मानना था कि इतिहासकार को तथ्यों को विकृत नहीं करना चाहिए। यद्यपि वह सत्य पर जोर देता था और चाटुकारिता तथा मिथ्या-वर्णन से घृणा करता था, किंतु उसके लेखन का एक महत्त्वपूर्ण दोष यह है कि उसने विशेष धार्मिक दृष्टिकोण से इतिहास की रचना की है और महत्त्वपूर्ण घटनाओं को अत्यंत संक्षेप में लिखा है। उसका कालानुक्रम भी दोषपूर्ण है और उसने तिथियाँ भी बहुत कम दी है। यही नहीं, बरनी ने सुल्तानों और अमीरों की प्रशंसा या दोषों का वर्णन बढ़ा-चढ़ाकर किया है।

बरनी के अनेक ग्रंथों में उसके दो ग्रंथ- ‘तारीख-ए-फीरोजशाही’ तथा ‘फतवा-ए-जहाँदारी’ विशेष महत्त्वपूर्ण हैं, जो खिलजी और तुगलक काल के राजनीतिक और सांस्कृतिक क्रियाकलापों की जानकारी के मूल्यवान स्रोत हैं। इलियट और डाउसन ने अपनी रचना भारत का इतिहास में बरनी के कई उद्धरणों का प्रयोग किया हैं।

तारीख-ए-फिरोजशाही: बरनी की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना ‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ है, जिससे बलबन के सिंहासनारोहण (1265 ई.) से लेकर फीरोजशाह तुगलक के छठे वर्ष (1357 ई.) तक के इतिहास की जानकारी मिलती है। तारीख-ए-फिरोजशाही में खिलजी वंश के पतन के कारणों के अलावा सामाजिक, आर्थिक एवं न्यायिक सुधारों का भी वर्णन मिलता है। इस ग्रंथ का विशेष महत्त्व इसलिए है कि बरनी ने स्वयं राजस्व-विभाग में महत्त्वपूर्ण पद पर कार्य किया  था और राजस्व-व्यवस्था से भली-भाँति परिचित होने के कारण उसने उसका विस्तार से वर्णन किया है।

अलाउद्दीन खिलजी के बाजार नियंत्रण व्यवस्था का सबसे प्रामाणिक विवरण बरनी की तारीख-ए-फिरोजशाही में ही मिलता है। अलाउद्दीन खिलजी की बाजार व्यवस्था के संबंध में बरनी ने लिखा है कि हिंदू और काफिर वस्तुओं की चोरी करते थे। प्रसंगतः, इब्नबतूता की रचना ‘रेहला’ तथा अमीर खुसरो के ‘खजाइनुल फुतुह’ से भी अलाउद्दीन के बाजार नियंत्रण के विषय में जानकारी मिलती है। मुहम्मद बिन तुगलक की मुद्रा-व्यवस्था का वर्णन करते हुए बरनी ने लिखा है कि, ‘प्रत्येक हिंदू का घर टकसाल बन गया था।’

वास्तव में, बरनी ने अपनी पुस्तक को वहाँ से लिखना शुरु किया था, जहाँ से मिनहाज-उस-सिराज ने तबकाते-ए-नासिरी को छोड दिया था। इस प्रकार तारीख-ए-फिरोजशाही संभवतः तबकात-ए-नासिरी का उत्तर भाग है। यद्यपि इस ग्रंथ में तिथि संबंधी दोष और धार्मिक पूर्वाग्रह है, किंतु अपने दोषों के बावजूद यह एक अमूल्य ऐतिहासिक कृति है। तारीख-ए-फिरोजशाही का हिंदी अनुवाद डॉ. रिजवी ने किया है।

फतवा-ए-जहाँदारी: जियाउद्दीन बरनी की एक दूसरी प्रमुख रचना ‘फतवा ए-जहाँदारी’ है, जो 14वीं शताब्दी के आरंभ में तत्कालीन उच्चवर्ग के पथ-प्रदर्शन के लिए लिखी गई थी। इस पुस्तक में आदर्श सुल्तान के लिए शरियत के अनुसार राजनीतिक व्यवस्था संबंधी महत्त्वपूर्ण उपदेश दिये गये हैं। बरनी ने महमूद गजनवी को आदर्श मुस्लिम सुल्तान बताया है और मुसलमान सुल्तानों को उसका अनुकरण करने की अपील की है। दरअसल, बरनी कट्टर मुसलमान था, अतः उसने काफिरों का विनाश करने वाले को आदर्श मुस्लिम सुल्तान माना है। इस प्रकार आदर्श सुल्तान के संबंध में बरनी की धारणा धार्मिक संकीर्णता की भावना से ग्रसित है।

फुतूह-उस-सलातीन (अब्दुल्ला मालिक इसामी)

‘फुतूह-उस-सलातीन’ की रचना ख्वाजा अब्दुल्ला मलिक इसामी ने की थी, जो मुहम्मद बिन तुगलक का समकालीन था। जब मुहम्मद बिन तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद स्थानान्तरित की, तो इसामी का परिवार वहीं जाकर बस गया। दकन में बहमनी साम्राज्य के संस्थापक अलाउद्दीन हसन बहमनशाह के संरक्षण में मलिक इसामी ने फुतूह-उस-सलातीन की रचना की। उसने अपनी रचना अलाउद्दीन बहमनशाह को ही समर्पित किया था।

फुतूह-उस-सलातीन (1349 ई.) में गजनवी वंश से लेकर मुहम्मद बिन तुगलक तक के दिल्ली के सुल्तानों का काव्यात्मक इतिहास मिलता है, जिससे दक्कन के इतिहास पर भी प्रकाश पड़ता है। भारत में चरखे के प्रयोग का आरंभिक साक्ष्य फुतूह-उल-सलातीन से ही मिला है। चूंकि इसामी मुहम्मद तुगलक की नीतियों से असंतुष्ट था, इसलिए उसने उसके कई कार्यों को इस्लामी सिद्धांतों के विरूद्ध बताया है। बदायूँनी और फरिश्ता जैसे कई परवर्ती इतिहासकारों ने अपने लेखन में फुतूह-उस-सलातीन की सहायता ली है।

तारीख-ए-फीरोजशाही (शम्स-ए-सिराज अफीफ)

जियाउद्दीन बरनी की ‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ के 50 वर्ष बाद शम्स-ए-सिराज अफीफ ने एक अन्य ‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ की रचना की थी। यह ग्रंथ 90 मुकद्दमाओं (अध्यायों) में लिखी गई है। अफीफ का दावा है कि उसकी रचना बरनी के कृतित्व की पूरक है। जहाँ बरनी की तारीख-ए-फीरोजशाही समाप्त होती है, वहीं से अफीफ की तारीख-ए-फीरोजशाही आरंभ होती है। अफीफ ने अपनी रचना में फिरोजशाह के शासनकाल के 1357 ई. से 1388 ई. तक के सैन्य-अभियान, प्रशासनिक व्यवस्था के अलावा सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति का विस्तृत विवरण दिया है।

वास्तव में, अफीफ फीरोजशाह तुगलक के शासनकाल की शांति एवं संपन्नता से बहुत प्रभावित था। उसने उसकी स्थापत्य संबंधी गतिविधियों, जैसे- नहरें बनवाने, बाग लगवाने, शाही टकसाल की कार्यविधि, सैनिक पड़ाव, शाही शिकार, खाद्य-पदार्थों के मूल्य, उत्सवों, राजस्व-प्रबंध आदि की बड़ी प्रशंसा की है। इस प्रकार तारीख-ए-फीरोजशाही फिरोजशाह के शासनकाल की जानकारी का एक प्रामाणिक स्रोत है। अफीफ द्वारा वर्णित उसके सत्कार्यों के आधार पर ही सर हेनरी इलियट ने फिरोजशाह की तुलना अकबर से की है।

सीरत-ए-फीरोजशाही (अज्ञात)

‘सीरत-ए-फीरोजशाही’ की रचना फीरोजशाह तुगलक के आदेश पर 1370 ई. में किसी अज्ञात लेखक ने की थी। चूंकि इसका लेखक धर्मांध विचारधारा का था, अतः उसने सुल्तान फीरोजशाह की धार्मिक कट्टरता और मूर्तिपूजा को समाप्त करने के प्रयासों की प्रशंसा की है।

फुतूहात-ए-फीरोजशाही (फिरोजशाह तुगलक)

‘फुतूहात-ए-फीरोजशाही’ सुल्तान फिरोजशाह तुगलक की एक 32 पृष्ठों की आत्मकथा है। इस विवरणिका को लिखने का फिरोजशाह का मुख्य उद्देश्य स्वयं को एक आदर्श मुस्लिम सुल्तान सिद्ध करना था। इसमें सुल्तान ने राजनीति, अर्थव्यवस्था, शासन-प्रबंध, अपने अध्यादेशों तथा सार्वजनिक निर्माण कार्यों का संक्षेप में विवरण दिया है। इस विवरणिका से उसकी धर्मनिष्ठता पर भी प्रकाश पड़ता है।

तारीख-ए-मुबारकशाही (याहिया बिन अहमद सरहिंदी)

‘तारीख-ए-मुबारकशाही’ या ‘तुजुक-ए-मुबारकशाही’ याहिया बिन अहमद सरहिंदी की रचना है, जो सैयद वंश के इतिहास की जानकारी का एकमात्र प्रामाणिक स्रोत है। सरहिंदी को सैयद वंश के सुल्तान मुबारकशाह का संरक्षण प्राप्त था और तारीख-ए-मुबारकशाही उसी को समर्पित है। इस ग्रंथ में सरहिंदी ने मुहम्मद गोरी से लेकर सैयद वंश के तीसरे सुल्तान मुहम्मद के शासनकाल तक का वर्णन किया है। याहिया एक सजग एवं ईमानदार इतिहासकार था, क्योंकि उसने तिथियों तथा घटनाओं के वर्णन में अतिरंजना और विशेषणों का प्रयोग नहीं किया है।

वाकियात-ए-मुश्ताकी (रजिकुल्ला मुकी)

‘वाकियात-ए-मुश्ताकी’ शेख रजिकुल्ला मुकी की रचना है, जिसमें कहानियों के रूप में सुल्तान बहलोल लोदी के राज्यकाल से लेकर अकबर के शासनकाल तक की घटनाएँ विस्तार से वर्णित की गई हैं। रजिकुल्ला मुकी ने मालवा के खिलजी और गुजरात के शासक मुजफ्फरशाह से संबंधित कुछ घटनाओं का भी उल्लेख किया है। इस प्रकार वाकियात-ए-मुश्ताकी मध्यकालीन भारत के राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन के विविध पक्षों की जानकारी का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

तारीख-ए-फरिश्ता (मुहम्मद कासिम हिंदूशाह या फरिश्ता)

‘तारीख-ए-फरिश्ता’ को ‘गुलशन-ए-इब्राहीम’ के नाम से भी जाना जाता है। इसकी रचना मुहम्मद कासिम हिंदूशाह फरिश्ता ने बीजापुर के सुल्तान इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय के सेवा में रहते हुए की थी। पूर्वी देशों के इतिहासकारों में फरिश्ता अधिक विश्वसनीय है और उसका विवरण भारत में मुस्लिम शासनकाल का सबसे प्रामाणिक स्रोत माना जाता है। फरिश्ता ने सुल्तानों और उनके राज्यों, सूफी संतों, भारत की भौगोलिक स्थिति और यहाँ की जलवायु के बारे में भी लिखा है। तारीख-ए-फरिश्ता का अंग्रेजी अनुवाद ब्रिग्स ने भारत में मुसलमानी शक्ति के विकास का इतिहास नाम से किया है।

तारीख-ए-मुहम्मदी (मुहम्मद बिहामद खानी)

‘तारीख-ए-मुहम्मदी’ को मुहम्मद बिहमद खानी ने 1438-1439 ई. में पूरा किया था। बिहमद खानी सैन्य वर्ग का सदस्य था। तारीख-ए-मुहम्मदी में दिल्ली के सुल्तानों, तैमूरलंग, संतों की जीवनियों के साथ-साथ कालपी के सुल्तानों का अपने हिंदू और मुस्लिम पड़ोसियों के साथ संघर्ष का भी विवरण मिलता है।

मलजात-ए-तैमूरी (तैमूर की आत्मकथा)

तैमूरलंग (तिमोजिन) ने मृत्यु से पहले फारसी भाषा में अपनी आत्मकथा ‘मलजात-ए-तैमूरी’ को लिपिबद्ध करवाया था। इस आत्मकथा में तैमूर के जीवन की कहानी तो है ही, उस समय के एशियाई क्षेत्रों के इतिहास पर भी एक अध्याय है। इसमें मध्ययुगीन बर्बरता और लूट के साथ-साथ तत्कालीन समाज और मानव जीवन का भी जीवंत वर्णन मिलता है।

तारीखे सलातीन-ए-अफगाना (अहमद यादगार)

सोलहवीं शताब्दी में संभवतः जहाँगीर के शासनकाल के दौरान अहमद यादगार ने तारीखे सलातीन-ए-अफगाना की रचना की थी। इसे ‘तारीख-ए-शाही’ के नाम से भी जाना जाता है। अहमद यादगार संभवतः सूर शासकों का एक पुराना सेवक था। उसने बंगाल के अंतिम अफगान शासक दाउदशाह के आदेश पर अफगान सुल्तानों का यह इतिहास लिखा था। इससे लोदी और सूर राजवंशों के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। पुस्तक में बहलोल लोदी से लेकर पानीपत के द्वितीय युद्ध में हेमू की हत्या तक का विवरण मिलता है। इस पुस्तक में राजनीतिक वर्चस्व की स्थापना के लिए बाबर और हुमायूँ के खिलाफ अफगानों के संघर्ष का भी उल्लेख है।

दरअसल, बाबरनामा में जिन वर्षों का इतिहास नहीं मिलता है, उन वर्षों की जानकारी के लिए यह ग्रंथ बहुत उपयोगी है। यद्यपि अहमद यादगार अधिकांश सामग्री अकबर और जहाँगीर  के शासनकाल के दौरान लिखी गई रचनाओं से शब्दशः नकल की है, फिर भी, उसका विवरण लोदी और सूर वंश के इतिहास की जानकारी का यह एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

मखजन-ए-अफगाना (नियामतुल्ला)

‘मखजन-ए-अफगाना’ की रचना जहाँगीर  के शासनकाल में नियामतुल्ला ने की थी। इसमें नियामतुल्ला ने विभिन्न अफगान कबीलों का सामान्य विवरण दिया है। यह लोदी-युग के इतिहास की जानकारी का एक उपयोगी स्रोत है।

तारीख-ए-दाउदी (अब्दुल्ला)

‘तारीख-ए-दाउदी’ की रचना अब्दुल्ला ने जहाँगीर के शासनकाल में की थी। अन्य अफगान ग्रंथों की तरह इसमें भी अफग़ानों की प्रशंसा की गई है। यद्यपि इसमें तिथियों का अभाव है, फिर भी, लोदियों के इतिहास के लिए इसकी उपयोगिता निर्विवाद है।

मुगलकालीन स्रोत इतिहास-ग्रंथ, संस्मरण और आत्मकथाएँ

सल्तनतकाल की अपेक्षा मुगलकाल में इतिहास-ग्रंथ, संस्मरण और आत्मकथाओं के लेखन को अधिक प्रोत्साहन मिला। इसका कारण यह था कि मुगल शासक स्वयं विद्वान थे और अपने दरबारी विद्वानों को इतिहास लेखन के लिए प्रेरित करते थे। इस काल में दरबारी इतिहासकारों के अतिरिक्त, गैर-दरबारी इतिहासकारों ने भी इतिहास-लेखन किया। दरबारी इतिहासकारों ने जहाँ राजकीय पक्ष में इतिहास लिखा, वहीं गैर-दरबारी इतिहासकारों ने दरबार की नीतियों की आलोचना की है। मुगलकालीन कुछ महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत इस प्रकार हैं-

तुजुक-ए-बाबरी या बाबरनामा (बाबर)

‘तुजुक-ए-बाबरी’ बाबर की आत्मकथा है, जो बाबर द्वारा मूलतः चगताई (तुर्की) भाषा में लिखी गई थी। अकबर के आदेश पर 1589 ई. में अब्दुर्रहीम खानखाना ने तुजुक-ए-बाबरी का फारसी भाषा में ‘बाबरनामा’ के नाम से अनुवाद किया। इसके बाद श्रीमती बैवरिज ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया। बाबरनामा का हिंदी में संक्षिप्त अनुवाद डॉ. मथुरालाल शर्मा ने किया है।

बाबरनामा से भारत तथा मध्य एशिया के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इसमें जून, 1504 ई. से 1529 ई. तक के इतिहास का विवरण है। इसके तीन भाग है- पहला भाग बाबर के फरगाना के सिंहासन पर बैठने से आरंभ होता है। दूसरा भाग, हिंदुस्तान के अंतिम आक्रमण पर समाप्त होता है और तीसरा भाग हिंदुस्तान से संबंधित है।

तुजुक-ए-बाबरी में बाबर ने यहाँ की भौगोलिक स्थिति, जलवायु, नदियों, राजनीतिक स्थिति, पहाड़ों, नदियों, जंगलों, वनस्पतियों और जीव, पेड़ और फूल, जनता के पहनावे, भोजन और रहने की स्थिति आदि का विस्तार से वर्णन किया है। बाबरनामा हुमायूँ के शुरू के शासन के लिए भी प्राथमिक स्रोत है।

यद्यपि बाबर ने भारत के संबंध में लिखते समय न्याय नहीं किया है, फिर भी, उसकी ईमानदारी, योग्यता और निरीक्षण-शक्ति प्रशंसनीय है। इस आत्मकथा के अभाव में बाबर के विषय में बहुत-सी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ नहीं मिल सकती थी।

तुजुक-ए-बाबरी (बाबरनामा) की प्रशंसा कई इतिहासकारों ने की है, और कुछ ने तो इसे भारत के वास्तविक इतिहास का एकमात्र स्रोत बताया है। लेनपूल के अनुसार, ‘तुजुक-ए-बाबरी ही केवल एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें दी गई सामग्री की पुष्टि के लिए अन्य प्रमाणों की विशेष आवश्यकता नहीं है।’ बाबरनामा में न केवल बाबर के जीवन की घटनाओं का विवरण मिलता है, बल्कि इससे उसके चरित्र, व्यक्तित्व, ज्ञान, क्षमता और कमजोरी की भी जानकारी होती है।

तारीख-ए-रशीदी (मिर्जा हैदर)

‘तारीख-ए-रशीदी’ की रचना बाबर के मौसेरे भाई मिर्जा मुहम्मद हैदर ने फारसी भाषा में की थी। इस पुस्तक से हुमायूँ के चरित्र, उसकी आदतों और उसके युद्धों के संबंध में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं क्योंकि मिर्जा हैदर ने बाबर और हुमायूँ के जीवन की घटनाओं को अपनी आँखों से देखा था और हुमायूँ के साथ शेरशाह सूरी के विरूद्ध कन्नौज (बिलग्राम) के युद्ध में लड़ा भी था।

तारीख-ए-रशीदी दो भागों में है- पहले भाग में 1347-1553 ई. तक मुगल सम्राटों का इतिहास है, और दूसरे भाग में मुहम्मद हैदर ने 1541 ई. तक की अपने जीवन की घटनाओं का विवरण दिया है। इस प्रकार तारीख-ए-रशीदी से मुगलों और मध्य एशिया के तुर्कों के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। यह रचना बाबरनामा के अस्पष्ट अंशों को भी समझने में सहायक है।

हबीब-उस-सियार (ख्वांदमीर)

गियाथ अल-दीन मुहम्मद, जिसे प्रायः ख्वांदमीर के नाम से जाना जाता है, एक फारसी इतिहासकार था, जिसने 1521-1530 ई. के बीच फारसी में सार्वभौमिक इतिहास ‘हबीब-उस- सियार’ की रचना की थी। बाबर के काल तथा मध्य एशिया की परिस्थितियों को जानने का यह एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

कानून-ए- हुमायूँनी (ख्वांदमीर)

ख्वांदमीर ने कानून-ए-हुमायूँनी (हुमायूँ के नियम) नामक अन्य पुस्तक की भी रचना की थी, जिसमें हुमायूँकालीन अनेक नियमों, कानूनों और दरबार के रीति-रिवाजों का विवरण मिलता है। यद्यपि कानून-ए- हुमायूँनी मुगल सम्राट हुमायूँ की जीवनी है और उसमें हुमायूँ की प्रशंसा अधिक है, फिर भी, ख्वांदमीर के विवरण विश्वसनीय प्रतीत होते हैं।

हुमायूँनामा (गुलबदन बेगम)

बाबर की पुत्री और हुमायूँ की सौतेली बहन गुलबदन बेगम ने अकबर के आदेश पर 1580 से 1500 ई. के बीच फारसी भाषा में ‘हुमायूँनामा’ की रचना की। हुमायूँनामा के दो भाग हैं, जिसमें पहला भाग बाबर के इतिहास से और दूसरा भाग हुमायूँ के इतिहास से संबंधित है।

हुमायूँनामा से हुमायूँ के शासनकाल के इतिहास की प्रामाणिक जानकारी मिलती है। इसमें हुमायूँ के जीवन, युद्धों, उसके दुःख और कठिनाइयों का विस्तार से वर्णन किया गया है। हुमायूँनामा में राजनीतिक घटनाओं के साथ-साथ सामाजिक रीति-रिवाजों का भी उल्लेख मिलता है।

प्रो. कानूनगो के अनुसार, हुमायूँनामा ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत उपयोगी है, विशेषकर हुमायूँ के जीवन और तिथियों की जानकारी के लिए। यद्यपि हुमायूँनामा में पक्षपातपूर्ण विवरणों की बहुलता है, फिर भी, उसमें बाबर की कुछ निजी स्मृतियाँ सुरक्षित हैं। हुमायूँनामा का अंग्रेजी अनुवाद मिसेज बैवरीज ने किया है।

तजकिरात-उल-वाकयात (जौहर आफताबची)

‘तजकिरात-उल-वाकयात’ को ‘वाकियाते-हुमायूँनी’ के नाम से भी जाना जाता है। इसका लेखक जौहर आफताबची हुमायूँ का एक सेवक था। जौहर ने अकबर के शासनकाल में अपनी स्मृति के आधार पर तजकिरात-उल-वाकयात की रचना की थी। इसमें उसने हुमायूँ  के राज्यारोहण से लेकर उसकी मृत्यु तक की घटनाओं का वर्णन बड़ी बेबाकी से किया है। वास्तव में, वाकियाते-हुमायूँनी हुमायूँ के समय का प्रामाणिक इतिहास है। जौहर ने स्वयं लिखा है कि उसका उद्देश्य केवल उन्हीं घटनाओं को लिखना था, जो हुमायूँ के जीवन से संबंधित थीं। डाउसन के अनुसार जौहर का विवरण सच्चा और ईमानदारी से लिखा हुआ लगता है। इसमें बहुत हद तक अत्युक्ति नहीं है और न ही बादशाह की अनुचित प्रशंसा है।

वाकयात-ए-मुश्ताकी (रिजकुल्लाह मुश्ताकी)

‘वाकयात-ए-मुश्ताकी’ की रचना रिजकुल्लाह मुश्ताकी ने की थी। यद्यपि यह किस्से-कहानियों का संग्रह है और इसमें तिथिक्रम पर ध्यान नहीं दिया गया है, फिर भी, इन कहानियों से बहलोल लोदी से लेकर अकबर के शासन के मध्य भाग तक के राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक पक्षों पर प्रकाश पड़ता है। लोदी और सूरकाल पर प्रकाश डालने वाली यह पहली रचना है।

तारीख-ए-शेरशाही (अब्बास खाँ सरवानी)

‘तारीख-ए-शेरशाही’ का संकलन 1580 ई. के आसपास अकबर के आदेश पर उसके वाकियानवीस अब्बास खाँ सरवानी ने किया था। अकबर ने यह कार्य शेरशाह के प्रशासन के बारे में विस्तृत दस्तावेज उपलब्ध कराने के लिए शुरू करवाया था। अब्बास खाँ सरवानी ने इसका नाम ‘तोहफा-ए-अकबरशाही’ रखा था और तारीख-ए-शेरशाही वास्तव में पुस्तक का पहला अध्याय था और मात्र यही उपलब्ध भी है।

कुछ वर्षों बाद सरवानी ने तोहफा-ए-अकबरशाही को तारीख-ए-शेरशाही (शेरशाह का इतिहास) के नाम से संबोधित किया और वह इसी नाम से प्रसिद्ध है। मुगल बादशाह की सेवा में रहने और एक सरकारी कर्मचारी होने के बावजूद, सरवानी ने नई राजनीतिक और प्रशासनिक संस्थाओं और नीतियों की शुरुआत के लिए शेरशाह की प्रशंसा की है।

यद्यपि सरवानी ने तारीख-ए-शेरशाही की शुरूआत बहलोल लोदी के समय से की है, किंतु उसने 1538 ई. के बाद की घटनाओं को अधिक प्रभावी ढंग से लिखा है। इस ग्रंथ से शेरशाह सूरी, इस्लामशाह और अन्य सूर शासकों के बारे में जानकारी मिलती है। फरीद के जागीर-प्रबंध, उसकी बाबर से मुलाकात और हुमायूँ से संघर्ष, शेरशाह के अन्य युद्धों, उसके शासन-सुधारों और हुमायूँ की असफलता के कारणों को समझने में इस ग्रंथ से सहायता मिलती है। शेरवानी ने शेरशाह द्वारा किसानों की देखभाल और उसके जनकल्याणकारी कार्यों का उल्लेख किया है और उसे एक जनहितैषी शासक बताया है। बंगाल के इतिहास की पुनर्स्थापना के लिए भी तारीख-ए-शेरशाही एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

यद्यपि तारीख-ए-शेरशाही में घटनाओं की तिथियाँ नहीं दी गई हैं, फिर भी, इसे एक प्रामाणिक स्रोत-सामग्री माना जाता है और अनेक इतिहासकारों ने इसके आधार पर शेरशाह का इतिहास लिखा है। सरवानी ने अनेक घटनाओं से संबंधित अपने सूचना-स्रोतों का भी उल्लेख किया है, जिसके कारण इस पुस्तक के तथ्य विश्वसनीय माने जाते हैं। वास्तव में, शेरशाह का संपूर्ण विवरण जितना विस्तारपूर्वक तारीख-ए-शेरशाही में मिलता है, उतना किसी अन्य ग्रंथ में नहीं मिलता है।

तजकिस-ए-हुमायूँ व अकबर (बायजीद बयात)

अकबर के आदेश पर बायजीद बयात ने ‘तजकिस-ए-हुमायूँ व अकबर’ की रचना अबुल फजल के उपयोग के लिए की थी। बायजीद ने हुमायूँ और बड़े-बड़े उमराओं के साथ महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य किया था, इसलिए उसकी सूचनाएँ विश्वसनीय हैं। तजकिस-ए-हुमायूँ व अकबर से हुमायूँ के ईरान प्रस्थान, उसके द्वारा काबुल पर अधिकार और हुमायूँ के व्यक्तित्व तथा चरित्र पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। अकबर के विषय में भी बायजीद की जानकारी बड़ी उपयोगी है। इस ग्रंथ में भारतीय इतिहास के वीर योद्धा हेमूशाह को ‘हरामजादा काफिर’ कहा गया है।

नफाइस-उल-मासिर (मीर अलाउद्दौला कजवीनी)

मीर अलाउद्दौला कजवीनी ने 16वीं शताब्दी में ‘नफाइस-उल-मासिर’ की रचना की थी। बादशाह अकबर के शासनकाल पर लिखी गई यह पहली ऐतिहासिक रचना है। इस ग्रंथ में राजा भारमल को ‘मती-उल-इस्लाम’ कहा गया है। इस ग्रंथ में कवियों, दरबारी गायकों, शायरों, आगरा और फतेहपुर सीकरी की इमारतों की चर्चा के साथ-साथ अकबर की गुजरात विजय का भी वर्णन है।

अकबरनामा (अबुल फजल)

अकबरकालीन इतिहास को जानने का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत ‘अकबरनामा’ है, जिसकी रचना अकबर के आदेश पर अबुल फजल ने फारसी भाषा में की थी। अबुल फजल अरबी और फारसी का विद्वान् था। वह 1575 ई. के लगभग अकबर के संपर्क में आया और उसका विश्वासपात्र बन गया। मुगल दरबार से संबंधित होने के कारण उसे शाही फरमानों और दस्तावेजों को देखने तथा उनका उपयोग करने की स्वतंत्रता प्राप्त थी। बाद में, 1602 ई. में सलीम के आदेश पर वीरसिंह बुंदेला ने उसकी हत्या कर दी थी।

अकबरनामा के तीन प्रमुख भाग हैं, जिसके पहले भाग में अमीर तैमूर से लेकर अकबर के शासनकाल के 17 वर्ष तक का मुगलों का इतिहास वर्णित है। दूसरे भाग में अकबर के 17वें वर्ष से लेकर 46वें वर्ष तक के इतिहास का विवरण है और तीसरे भाग में 1602 ई. तक के अकबर के शासन का इतिहास है। तीसरे भाग को ‘आईन-ए-अकबरी’ कहा जाता है, जो एक पृथक ग्रंथ माना जाता है।

अकबरनामा के अध्ययन से लगता है कि अबुल फजल का उद्देश्य अकबर के व्यक्तित्व के उज्ज्वल पक्ष को विश्व के सामने रखना था। वह अकबर की ‘सुलहकुल की नीति’ को जनता तक पहुँचाना चाहता था। उसका मानना था कि पादशाहत ख़ुदा की देन है और अकबर एक पादशाह से कहीं अधिक महान् था। उसने अकबर को ‘इंसाने-कामिल’ और ‘दैवी प्रकाश’ की संज्ञा दी है, जिससे कोई गलती हो ही नहीं सकती।

यद्यपि अकबरनामा की भाषा जटिल, आडंबरपूर्ण और अलंकारिक है, फिर भी, यह एक अमूल्य ऐतिहासिक कृति है। इस ग्रंथ का अंग्रेजी अनुवाद एच.बैवरिज ने किया है। सैय्यद अतहर अब्बास रिजवी और डॉ. मथुरालाल शर्मा ने भी इसका अनुवाद किया है।

आईने-अकबरी (अबुल फजल)

‘आईने-अकबरी’ अकबरनामा का तीसरा भाग है, किंतु इसे एक अलग ग्रंथ माना जाता है। आईने-अकबरी में अकबर के शासनकाल से संबंधित आंकड़े, प्रशासन, कानून, नियम, विनियम आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है। ब्लोचमेन तथा गैरेट ने आईने-अकबरी का अंग्रेजी अनुवाद किया है और इसे विभिन्न प्रकार के अध्ययन का खजाना बताया है। सर जदुनाथ सरकार के अनुसार भारत में यह अपनी तरह का पहला ग्रंथ है और इसकी रचना उस समय हुई थी, जब नवनिर्मित मुगल शासन अर्द्ध-तरलावस्था में था। के.एम. अशरफ ने इसे ‘सामाजिक इतिहास का प्रतीक’ बताया है।

तबकात-ए-अकबरी (निजामुद्दीन अहमद)

‘तबकात-ए-अकबरी’ की रचना मुगल दरबारी इतिहासकार निजामुद्दीन अहमद ने फारसी में अकबर के समय के 27 ग्रंथों को आधार पर की थी। तबकात-ए-अकबरी को ‘अकबरशाही’ अथवा ‘तारीख-ए-निजामी’ के नाम से भी जाना जाता है।

तबकात-ए-अकबरी मुगल बादशाह अकबर के काल का आधिकारिक इतिहास ग्रंथ है। यह नौ भागों में विभक्त है। इसके दूसरे भाग में बाबर, हुमायूँ और अकबर का इतिहास है, जबकि तीसरे भाग में प्रांतीय राज्यों का इतिहास मिलता है। तबकात-ए-अकबरी नीरस और उबाऊ होने के बावजूद तिथि तथा भौगोलिक वर्णन की दृष्टि से विश्वसनीय है। बदायूँनी ने अपने इतिहास-ग्रंथ को लिखने में तबकात-ए-अकबरी से बहुत सहायता ली थी।

मुंतखब-उत-तवारीख (अब्दुल कादिर बदायूँनी)

‘मुंतखब-उत-तवारीख’ का लेखक अब्दुल कादिर बदायूँनी है, जो अकबर के शासनकाल में अरबी, फारसी और संस्कृत का प्रसिद्ध विद्वान् और इमाम था। इस ग्रंथ को ‘तारीख-ए-बदायूँनी’ के नाम से भी जाना जाता है। बदायूँनी, अबुल फजल का छात्र था और अकबर द्वारा अबुल फजल को अधिक सम्मान दिये जाने के कारण उससे ईर्ष्या रखता था। धीरे-धीरे बदायूँनी कट्टरपंथी सुन्नियों के समूह का समर्थक बन गया, जिससे रुष्ट होकर अकबर ने उसे दरबार में रहकर विभिन्न ऐतिहसिक लेखों का फारसी में अनुवाद करने के काम पर लगा दिया। बदायूँनी ने अपने कई मूल ग्रंथों के अलावा अरबी और संस्कृत के अनेक ग्रंथों का फारसी में अनुवाद भी किया है।

बदायूँनी के मूल ग्रंथों में मुंतखब-उत-तवारीख सबसे प्रामाणिक ऐतिहासिक ग्रंथ है, जो संभवतः तारीखे-मुबारकशाही तथा तबकात-ए-अकबरी (तबकात-ए-अकबरशाही) के आधार पर लिखा गया है। यह ग्रंथ गजनवी के समय से आरंभ होकर अकबर के शासन के चालीसवें वर्ष पर समाप्त होता है। वास्तव में, मुंतखब-उत-तवारीख तीन भागों में विभाजित है। पहले भाग में सुबुक्तगीन से लेकर हुमायूँ  तक का; दूसरे भाग में अकबर के शासनकाल के पहले चालीस वर्षों (1556-1596 ई.) की घटनाओं का और तीसरे भाग में तत्कालीन सूफियों, विद्वानों, हकीमों एवं कवियों की जीवनियों का ऐतिहासिक विवरण है।

बदायूँनी अकबर के युग का प्रत्यक्षदर्शी था। उसने अकबर के प्रशासनिक उपायों, विशेषकर धार्मिक नीति की कड़ी आलोचना की है। यही कारण है कि यह ग्रंथ अकबर के जीवनकाल में छिपाकर रखा गया था और उसकी मृत्यु के बाद जहाँगीर के शासनकाल में प्रकाश में आया। चूंकि यह ग्रंथ कट्टर सुन्नी विचारों से प्रेरित है और अकबर की आलोचनाओं से भरा है, इसलिए इस ग्रंथ को सावधानीपूर्वक उपयोग करने की आवश्यकता है।

तुजुक-ए-जहाँगीरी (जहाँगीर की आत्मकथा)

‘तुजुक-ए-जहाँगीरी’ बादशाह जहाँगीर की आत्मकथा है, जो फारसी भाषा में है। इस ग्रंथ को ‘वाकियात-ए-जहाँगीरी’ तथा ‘जहाँगीरनामा’ के नाम से भी जाना जाता है। इस संस्मरण में बादशाह जहाँगीर ने अपने राज्यारोहण से लेकर अपने शासन के 17वें वर्ष तक की घटनाओं का वर्णन किया है। उसके बाद के दो वर्षों का विवरण बक्शी मुतामिद खाँ ने लिखा है।

जहाँगीरनामा में जहाँगीर ने अपने सैन्य-अभियानों, शाही अधिकारियों के मध्य मतभेदों, अधिकारियों के स्थानान्तरण और नूरजहाँ के साथ अपने विवाह आदि के साथ-साथ तत्कालीन संगीत, साहित्य, जलवायु, प्रकृति, पशु-पक्षी आदि का प्रायः सच्चाई और विस्तार से वर्णन किया है। इसमें जहाँगीर ने अपने बड़े बेटे खुसरो के विद्रोह की भी चर्चा की है। इस प्रकार तुजुक-ए-जहाँगीरी को जहाँगीर के इतिहास की जानकारी का एक मूल्यवान और विश्वसनीय स्रोत माना जा सकता है।

इकबालनामा-ए-जहाँगीरी (मुतामिद खाँ)

जहाँगीर के दरबारी मुतामिद खाँ ने ‘इकबालनामा-ए-जहाँगीरी’ की रचना की। जहाँगीर की तुजुक जहाँ समाप्त होती है, उसके बाद की घटनाओं की जानकारी कायह मूल्यवान स्रोत है।

इकबालनामा को मुख्यतः तीन भागों में बाँटा जा सकता है- पहले भाग में मुतामिद खाँ ने अमीर तैमूर के इतिहास से लेकर बाबर और हुमायूँ तक का इतिहास लिखा है, दूसरे भाग में अकबर के शासन का और तीसरे भाग में जहाँगीर के शासन का विवरण दिया है। मुतामिद खाँ को जहाँगीर ने आश्रय दिया था, इसलिए उसने जहाँगीर के व्यक्तित्व का अतिरंजित वर्णन किया है।

पादशाहनामा (मुहम्मद अमीन काजविनी)

‘पादशाहनामा’ मुगल बादशाह शाहजहाँ के शासनकाल का सरकारी इतिहास है। शाहजहाँ के आदेश पर मुहम्मद अमीन काजविनी ने उसके शासनकाल के 10 वर्षों का इतिहास पादशाहनामा में लिखा है। इसके बाद पादशाहनामा को लिखने का काम अब्दुल हमीद लाहौरी को सौंप दिया गया।

पादशाहनामा (अब्दुल हमीद लाहौरी)

काजविनी के बाद ‘पादशाहनामा’ के लेखन-कार्य का दायित्व अब्दुल हमीद लाहौरी ने संभाला और 1648 ई. तक लेखन-कार्य किया। 1654 ई. में लाहौरी की मृत्यु हो गई, किंतु अपनी मृत्यु से पूर्व उसने पादशाहनामा के लेखन की जिम्मेदारी अपने शिष्य मुहम्मद वारिस को सौंप दिया था।

अब्दुल हमीद लाहौरी ने पादशाहनामा को दो भागों में बाँटा है- पहला भाग मुख्यतः काजविनी के ही लेखन पर आधारित है, किंतु दूसरे भाग में उसने शाहजहाँ के अगले 10 वर्षों के शासन के बारे में लिखा है। इस प्रकार शाहजहाँ के आदेश से रचित पादशाहनामा में शाहजहाँ के शासनकाल के प्रथम बीस वर्षों का इतिहास मिलता है।

पादशाहनामा (मुहम्मद वारिस)

शाहजहाँ के शासनकाल का पूरा इतिहास अब्दुल हमीद लाहौरी के शिष्य मुहम्मद वारिस की ‘पादशाहनामा’ में मिलता है। मुहम्मद वारिस ने शाहजहाँ के शासन के पहले 20 वर्षों का इतिहास लाहौरी के विवरण के आधार पर ही लिखा है, किंतु अगले 10 वर्षों का विवरण उसने स्वतंत्र होकर लिखा है। चूंकि काजविनी, लाहौरी और वारिस तीनों शाही इतिहासकार पादशाहनामा को लिखने के लिए नियुक्त किये गये थे। अतः पादशाहनामा शाहजहाँकालीन राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक इतिहास की जानकारी का उपयोगी और महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

आलमगीरनामा (मिर्जा मुहम्मद काजिम शिराजी)

औरंगजेब के काल का सरकारी इतिहास ‘आलमगीरनामा’ में मिलता है, जिसे मिर्जा मुहम्मद काजिम शिराजी ने 1688 ई. में लिखा था। काजिम शिराजी बादशाह औरंगजेब का शाही इतिहासकार था। उसने आलमगीरनामा में औरंगजेब के शासन के 10 वर्षों के इतिहास का वर्णन किया है। शिराजी ने औरंगजेब की प्रशंसा की है और शाहजहाँ तथा उसके दूसरे पुत्रों की आलोचना की है।

शाहजहाँनामा (इनायत खाँ)

‘शाहजहाँनामा’ की रचना इनायत खाँ ने की थी, जिसे मुहम्मद ताहिर के नाम से भी जाना जाता है। इनायत खाँ शाही इतिहासकार था। उसने अपनी रचना में बादशाह औरंगजेब के शासनकाल के पहले 10 वर्षों के इतिहास का विवरण दिया है। उसने कृषि की दयनीय स्थिति, वस्तुओं की बढ़ती कीमतों आदि का भी उल्लेख किया है।

फुतुहात-ए-आलमगीरी (ईश्वरदास नागर)

‘फुतुहात-ए-आलमगीरी’ एक गुजराती ब्राह्मण ईश्वरदास नागर की रचना है। गुजरात के सूबेदार शुजात खाँ ने ईश्वरदास को जोधपुर परगने में मुगल अधिकारी नियुक्त किया था। फुतुहात-ए-आलमगीरी में 1657 से 1698 ई. तक औरंगजेब के शासनकाल की कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन मिलता है। इस ग्रंथ से मालवा और राजपूताना के प्रांतीय शासन पर भी कुछ प्रकाश पड़ता है।

मुंतखब-उल-लुबाब (हाशिम खाफी खाँ)

‘मुंतखब-उल-लुबाब’ की रचना हाशिम खाफी खाँ ने की थी। इस ग्रंथ को ‘तारीख-ए-खाफी खाँ’ के नाम से भी जाना जाता है। खाफी खाँ ने इस ग्रंथ में भारत पर बाबर के आक्रमण से लेकर परवर्ती मुगल शासक मुहम्मदशाह के पंद्रह वर्ष के शासन तक का विवरण दिया है। उसने औरंगजेब के शासन के बारे में विस्तार से लिखा है और शिवाजी पर अफजल खाँ की हत्या का आरोप लगाया है। हैदराबाद के निजाम-उल-मुल्क आसफशाह के संरक्षण में रहने के कारण खाफी खाँ ने निजाम की बड़ी सराहना की है।

मआसीर-ए-आलमगीरी (मुहम्मद साकी मुस्तैद खाँ)

औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुहम्मद साकी मुस्तैद खाँ ने ‘मआसीर-ए-आलमगीरी’ की रचना की। इस ग्रंथ में औरंगजेब के ग्यारहवें वर्ष से लेकर बीसवें वर्ष तक की घटनाओं का संक्षिप्त विवरण मिलता है। यह ग्रंथ सरकारी दस्तावेजों पर आधारित है। चूंकि मुस्तैद खाँ चालीस वर्ष तक बादशाह के साथ रहा था, इसलिए उसके विवरण विश्वसनीय हैं।

नुस्खा-ए-दिलकुशा (भीमसेन)

‘नुस्खा-ए-दिलकुशा’ की रचना कायस्थ जाति के भीमसेन ने फारसी भाषा में की थी। वह मुगल बादशाह औरंगज़ेब की सेना में लिपिक था और उसने औरंगजेब की ओर से कई युद्धों में भाग लिया था। भीमसेन ने ऐतिहासिक व्यक्तियों के चरित्र की अनावश्यक प्रशंसा न करके उनका यथार्थ विवरण दिया है। यही कारण है कि नुस्खा-ए-दिलकुशा में वर्णित घटनाएँ प्रायः सत्य हैं।

इन रचनाओं के अलावा, आकिल खाँ राजी कृत ‘वाकयात-ए-आलमगीरी’, मुहम्मद सालेह कृत ‘अमल-ए-सालेह’, मोहम्मद सादिक कृत ‘तारीख-ए-शाहजहाँनी’ (शाहजहाँनामा), चंद्रभान ब्राह्मण के ग्रंथ ‘चहारचमन’, जगन्नाथकृत ‘गंगालहरी’ और सुजानराय भंडारीकृत ‘खुलासत-उत-तवारीख’ भी मुगलकालीन इतिहास को जानने के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। यही नहीं, हिंदी भाषा के तुलसीदास, रहीम जैसे कवियों की रचनाएँ, महाभारत, रामायण, अथर्ववेद, भगवद्गीता और पंचतंत्र जैसे संस्कृत ग्रंथों के फारसी और भी क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद भी मध्यकालीन इतिहास के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं।

विभिन्न साहित्यिक स्रोतों के अलावा, शाही फ़रमान के रूप में सरकारी पत्रावलियाँ, शासकों द्वारा जारी किये गये आदेश, विभिन्न राजाओं के बीच संधियाँ या समझौते, अदालतों के विवरण और राजस्व के अभिलेख भी मध्यकाल की जानकारी के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं, जिनके द्वारा राज्यों की प्रशासनिक नीतियों और राजनीतिक व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है।

विदेशी लेखकों और यात्रियों के विवरण

अबूजैद (877 ई.)

फारस का अबूजैद भारत तथा चीन के मध्य व्यापार के लिए समुद्र यात्राएँ किया करता था। उसका विवरण संभवतः 877 ई.  में लिखा गया है। वह सबसे पहला अरब यात्री है जो जावा के ‘महाराज’ नामक राजा का उल्लेख करता है और उसकी तुलना में ‘कुमार देश’ (कन्याकुमारी) का नाम लेता है और बताता है कि यहाँ का राजा महाराज के अधीन है। यहाँ व्यभिचार और मद्य दोनों मना हैं। भारत और चीन दोनों देशों में पुनर्जन्म का विश्वास इतना दृढ़ है कि लोग अपने प्राण दे देना एक बहुत ही साधारण काम समझते हैं। वह यह भी कहता है- ‘यहाँ पानी बहुत बरसता है और उसी से यहाँ की खेती होती है। फिर वह बौद्ध भिक्षुओं का उल्लेख करता है। उसने दक्षिण भारत की देवदासियों का भी उल्लेख किया है। वह नारियल वाले देश का उल्लेख करता है और उसके व्यापार का हाल भी लिखता है। अंत में वह भारत के लोगों की आभूषणप्रियता का उल्लेख करता है। उसके अनुसार यहाँ दो आदमी भी एक साथ मिलकर नहीं खाते और न एक ही दस्तरखान पर खाते हैं; और इस प्रकार खाने को बहुत अनुचित समझते हैं। राजाओं और अमीरों के यहाँ यह प्रथा है कि नारियल की छाल का थाली की तरह का एक बरतन नित्य बनता है और वह हर एक आदमी के सामने रखा जाता है। वह यह भी लिखता है कि यहाँ के राजा प्रायः अपनी रानियों से परदा नहीं कराते। जो कोई उनके दरबार में जाता है, वह उन्हें देख सकता है।

इब्न खोरदादबेह (870 ई.)

इब्न खोरदादबेह 9वीं सदी का एक फारसी भूगोलवेत्ता और लेखक था, जो अब्बासी खलीफा अल-मुताम्मिद (869-885 ई.) के शासनकाल में उत्तर-पश्चिमी ईरान के जिबल प्रांत में डाक और खुफिया विभाग का एक अधिकारी था। खोरदादबेह ने बरादाद से भिन्न-भिन्न देशों की यात्राओं और आने-जाने के मार्गों का विवरण देने के लिए 870 ई. के आसपास ‘किताब अल-मसालिक वा अल-ममालिक’ (सड़कों और साम्राज्यों की पुस्तक) लिखी, जिसमें उसने भारत के जल और स्थल के व्यापारी मार्गों के विवरण के साथ-साथ यहाँ की जातियों का उल्लेख किया है।

यद्यपि इब्ने खोरदादबेह ने स्वयं भारत की यात्रा नहीं की थी, किंतु उसने विभागीय सूचनाओं और व्यापारियों तथा यात्रियों की निजी जानकारियों के आधार पर अपना विवरण दिया है। उसके विवरण से लगता है कि अरबवाले बलोचिस्तान के बाद से लेकर गुजरात तक के सारे देश को सिंध समझते थे।

इब्न खोरदादबेह ने लिखा है कि भारत में सात जातियाँ थीं- पहली शाकशरी (क्षत्रिय) जाति है, जो इस देश के संपन्न और बड़े लोग हैं। इन्हीं में से बादशाह होते हैं, इनके आगे सभी लोग सिर झुकाते हैं, किंतु ये किसी के आगे सिर नहीं झुकाते। दूसरे, बरामः (ब्राह्मण) लोग शराब और नशे का प्रयोग नहीं करते हैं। तीसरे कस्तरी (खत्री) तीन प्यालों तक पी जाते हैं। ब्राह्मण इनकी लड़की लेते हैं, किंतु इनको अपनी लड़की नहीं देते हैं। चौथे शूदर (शूद्र) लोग खेती करनेवाले हैं। पाँचवें, वैश (वैश्य) धंधा करते हैं। छठें शंदाल (चांडाल) खिलाड़ी और कलावंत होते हैं, और सातवें जम्ब (डोम) लोगों का काम गाना बजाना है। भारत में 42 प्रकार के धर्म-संप्रदाय प्रचलित हैं। कोई ईश्वर और रसूल दोनों को मानता है, कोई एक को मानता है; और कोई किसी को नहीं मानता। भारत के लोगों को अपने जादूगरी और यंत्र-मंत्र पर बड़ा अभिमान है।

सुलेमान सौदागर (850 ई.)

सुलेमान, जिसे सुलेमान अल-ताजिर (व्यापारी) के नाम से भी जाना जाता है, 9वीं शताब्दी का एक मुस्लिम व्यापारी, यात्री और लेखक था, जिसने भारत और चीन की यात्रा की और 850 ई. के आसपास अपना यात्रा-वृतांत लिखा, जिसके विवरण ‘किताब अल-मसालिक वा अलमामालिक’ में मिलते हैं।

सुलेमान सौदागर की यात्रा के समय बंगाल में पाल वंश का शासन था। उसने ‘रुहमा’ नामक राज्य और उसकी सैन्य-शक्ति का उल्लेख किया है। सुलेमान ने महानतम् गुर्जर-प्रतिहार शासक मिहिरभोज का भी वर्णन किया है और उसे मुसलमानों का ‘कट्टर शत्रु’ बताया है। सुलेमान ने मिहिरभोज की सेना, विशेषकर घुड़सवार सेना की प्रशंसा की है। इस प्रकार सुलेमान का यात्रा-विवरण तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति जानकारी का बहुमूल्य स्रोत है।

बुज़ुर्ग विन शहरयार (912 ई.)

शहरयार एक जहाजी था, जो अपने जहाज इराक़ के बंदरगाह से भारत के समुद्रतटों और टापुओं से लेकर चीन और जापान तक जाता-आता था। उसने जो बातें देखी सुनी थीं, उन्हें अरबी भाषा में ‘अजायबुल हिंद’ नामक पुस्तक में लिखा है, जो 1886 ई. में लीडन में छपी है।  अजायबुल हिंद में दक्षिणी भारत और गुजरात की भिन्न भिन्न घटनाओं का विवरण है। शहरयार ने यहाँ के योगियों, उनकी तपस्याओं और अपने आपको मार डालने और जला डालने की बहुत सी कथाएँ लिखी हैं। विलक्षण बात यह है कि उसने स्थान-स्थान पर व्यापारियों के लिये ‘बनियानिया’ शब्द का प्रयोग किया है, जो स्पष्टतः हिंदी शब्द बनिया है। उसने समुद्री डाकुओं के लिए ‘बवारिज’ शब्द का व्यवहार किया है। वह हिंदुओं की छूत-छात का भी उल्लेख करता है।

अबू दल्फ सुसइर बिन मुहलहिल यंबूई (942 ई.)

अबू दल्फ एक अरब यात्री था, जो 331 हि. में बरादाद से तुर्किस्तान आया था और बुखारा के शाह से मिला था। वहाँ से यह एक चीनी राजदूत के साथ चीन चला गया था। फिर चीन से चलकर दक्षिणी समुद्रतट कोलम तक पहुँचा था। उसकी पुस्तक का कुछ अंश 1885 ई. में लैटिन अनुवाद के सहित छपा है। उसने मुल्तान के मंदिर का विस्तृत विवरण दिया है और इसी प्रकार मदरास में पैदा होनेवाली और बननेवाली चीज़ों का भी उल्लेख किया है। संभवतः यह पहला अरब यात्री है, जो भारत में आया था।

अल इस्तखरी (951 ई.)

इस्तखरी 10वीं शताब्दी का एक यात्री लेखक और इस्लामी भूगोलवेत्ता था, जो संभवतः बरादाद के इस्तखर का रहनेवाला था। उसका पूरा नाम अबू इशाक इब्राहिम इब्न मुहम्मद अल फारसी अल इस्तखरी था। उसने अनेक देशों की यात्रा के क्रम में 951 ई. के आसपास भारत की भी यात्रा की थी। यात्रा के दौरान इस्तखरी की भेंट प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता इब्न हौकल से हुई थी। इस्तखरी द्वारा दी गई सूचना को इब्न हौकल ने अपनी पुस्तक ‘किताब अल-सूरत अल-अर्द’ में सम्मिलित किया है।

इस्तखरी की दो पुस्तकें मिलती हैं- ‘किताबुल् अक्रालीम’ और ‘किताब अल मसालिक वा-ममालिक’। अपने विवरण में इस्तखरी ने अरब और ईरान के बाद मावरा उन् नहर या ट्रांस काकेशिया, काबुलिस्तान, सिंध और भारत का उल्लेख किया है। उसने भारतीय महासागर का, जिसे वह पारस महासागर कहता है, विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।

इस्तखरी की यात्रा के समय वल्लभराय के राज्य के कई टुकड़े हो चुके थे। वह लिखता है कि उसके अधीन बहुत से राजा हैं। इसके अलावा, उसने मुल्तान, मंसूरा, समंद, अलोर और सिंधु नदी का भी उल्लेख किया है। इस्तखरी ने न केवल केवल देशों का आँखों देखा हाल लिखा, बल्कि संसार का मानचित्र या नक्शा भी तैयार किया था, जिसमें सिंध का नक्शा भी था। पवन चक्कियों के बारे में सबसे पहली सूचना इस्तखरी के विवरण से ही मिलती है।

अल मसुदी (957 ई.)

अल मसुदी एक अरबी लेखक और जलवायु वैज्ञानिक था, जो नवीं सदी के अंतिम दशक में संभवतः 890 ई. के आसपास बगदाद में पैदा हुआ था और उसकी मृत्यु 956 ई. में मिस्र में हुई थी। 10वीं शताब्दी ईस्वी में अल मसुदी ने बगदाद से मंसूरा (सिंध प्रांत की राजधानी) और मुल्तान (पाकिस्तान) होते हुए भारत की यात्रा शुरू की। वह फारस की खाड़ी के तट पर अबू जैद अल सिराफी से मिला था, जिसको उसने चीन के बारे में जानकारी दी थी। अल मसुदी ने सिंधुघाटी और भारत के अन्य हिस्सों, विशेष रूप से पश्चिमी तट के सूरत, खंभात और मालाबार होते हुए श्रीलंका, इंडोनेशिया और मलक्का का दौरा किया। उसने भारत के पूर्वी समुद्री तट और मलक्का के बीच होनेवाले तेज व्यापार का उल्लेख किया है।

अल मसुदी के केवल दो ऐतिहासिक विवरण मिलते हैं- ‘मुरुज अल-दहब और ‘किताब अल-तनबीह वा अल-इशराफ’। मसुदी ने 943 ई. में अपनी यात्रा समाप्त करने के उपरांत मुरुज-अल-दहाब लिखी थी, जबकि किताब अल-तनबीह वा अल-इशराफ को जीवन के अंतिम वर्षों में लिखा था। यद्यपि मुरुज अल-दहाब में मुख्यतः इस्लाम का इतिहास वर्णित है, किंतु उसमें भारत की भौगोलिक परिस्थितियों का भी विवरण मिलता है, जिनका संबंध मुख्यतः पश्चिमी भारत से है।

अल मसूदी ने भारत और इटली की तुलना की और रोम को तिबर नदी पर स्थित ‘बनारस’ बताया है। उसका मानना था कि भारत और इटली की भौगोलिक स्थिति और चरित्र में समानताएँ हैं। उसने भारत की नदियों का वर्णन किया है और ‘जिंजिस’ (गंगा) नदी को भारत की एक बड़ी नदी बताया है। गुजरात के खंभात शहर के बारे में उसने लिखा है कि, ‘कंबैया’ (खंभात) नील नदी या टाइग्रिस की तरह चौड़े मुहाने पर स्थित है। अल मसुदी ने कश्मीर को एक शक्तिशाली राज्य बताया है, जो पहाड़ों, दुर्गम घाटियों, जंगलों और नदियों से सुरक्षित था। अन्य विदेशी पर्यटकों की तरह अल मसुदी भी भारतीय हाथियों को देखकर आश्चर्यचकित हुआ था, जिनका उपयोग युद्धों के साथ-साथ बोझ ढोने, गाड़ियाँ खींचने और अनाज की कटाई आदि में किया जाता था।

अल मसुदी ने लिखा है कि भारत में बहुत सी बोलियाँ बोली जाती हैं और कंधार ‘रहबूतों’ (राजपूतों) का देश है। उसने गुर्जर प्रतिहारों को ‘अल गुर्जर’ तथा उनके राजा को ‘बौरा’ कहा है। अल मसुदी के विवरणों से भारतीय राजाओं के आचरण और उनके धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण की भी जानकारी मिलती है। उसने लिखा है कि भारत में कोई भी राजा 40 वर्ष की आयु से पहले राजगद्दी पर नहीं बैठ सकता था। उसने बंगाल की खाड़ी के मानसून का विवरण दिया है और बताया है कि हिंद महासागर अटलांटिक महासागर से जुड़ा हुआ है।

वास्तव में, अल मसुदी का दृष्टिकोण मौलिक था। उसने व्यापारियों, स्थानीय लेखकों और अपनी यात्रा के दौरान मिले अन्य लोगों से जो कुछ सीखा, उसे संग्रहीत किया। उसने विश्व को सात क्षेत्रों में वर्गीकृत किया है-  फारसी, कल्डियन, यूनानी, मिस्र और लीबियाई, तुर्की, हिंदू और चीनी। ब्रह्मांड विज्ञान, खगोल विज्ञान, इस्लामी कानून, मौसम विज्ञान, इतिहास और अरबी लोककथाओं के क्षेत्र में भी अल मसुदी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यही कारण है कि अल-मसुदी को ‘अरबों का हेरोडोटस’ के रूप में जाना जाता है और 14वीं सदी के अरब लेखक इब्न खल्दून ने उसे ‘इतिहासकारों का इमाम’ (नेता) बताया हैं।

इब्न हौकल (977 ई.)

इब्न हौकल 10वीं सदी का बगदाद का एक व्यापारी, भूगोलवेत्ता और इतिहासकार था, जिसका पूरा नाम मुअम्मद अबुल कासिम इब्न हौकल था। उसने 943 ई. में बरादाद से अपनी यात्रा आरंभ की और लगभग तीस वर्ष यूरोप, अफ्रीका तथा एशिया के दूरदराज के क्षेत्रों की यात्रा करने और अपना यात्रा-विवरण लिखने में व्यतीत किया। उसका यात्रा-वृतांत ‘किताब अल-सूरत अल-अर्द’ (पृथ्वी का चेहरा) मुख्यतः इस्तखरी के ‘मसालिक उल-मामालिक’ के संशोधन और संवर्द्धन पर आधारित है।

इब्न हौकल पहला अरब यात्री और भूगोल-लेखक है, जिसने अपने विवरण में न केवल सिंध और सिंधु नदी के भूगोल और संस्कृति का विवरण दिया है, बल्कि भारत की पूरी लंबाई-चौड़ाई को भी बताने का प्रयत्न किया है। वह कहता है कि, ‘भारत के महादेश में सिंध, काश्मीर और तिब्बत का भाग मिला हुआ है। भारत के पूरब में फारस का सागर है, उसके पश्चिम तथा दक्खिन में मुसलमानों के देश है और उसके उत्तर में चीन है।’ इब्न हौकल का वर्णन त्रुटिपूर्ण होने के बावजूद भी भारत की सीमा निधारित करने का पहला प्रयत्न है।

बुशारी मुकद्दसी (985 ई.)

शम्सुद्दीन मुहम्मद बिन अहमद बुशारी मुकद्दसी जेरूसलम का रहनेवाला था। वह भारत में सिंध से आगे नहीं बढ़ा था। उसने 985 ई. में अपनी पुस्तक ‘अहसनुत तक्कासीम की मारफतिल् अकालीम’ लिखी थी। उसकी पुस्तक का अंतिम प्रकरण सिंध से संबंधित है। मुकद्दसी ने महादेशों का विभाग देशों या प्रांतों में और देशों या प्रांतों का विभाग नगरों में किया है। फिर हर एक का अलग-अलग वर्णन किया है और हर जगह के व्यापार, उपज, कारीगरी, धर्मों और सिक्कों का विवरण दिया है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।

अल्बेरूनी (973-1039 ई.)

भारत आने वाले आरंभिक यात्रियों में अलबेरूनी सबसे प्रमुख और महत्त्वपूर्ण है, जिसका जन्म 973 में उज़बेकिस्तान के ख्वारिज्म (खीवा) में हुआ था। उसका पूरा नाम अबुरेहान मुहम्मद इब्न अहमद था। वह अरबी और फारसी भाषाओं का विद्वान, वैज्ञानिक, धर्मज्ञ और विचारक था, जिसे चिकित्सा, तर्कशास्त्र, गणित, दर्शन, धर्मशास्त्र की भी अच्छी जानकारी थी। उसे आधुनिक ‘भूगणित का जनक’ माना जाता है।

अल्बेरूनी महमूद गजनवी के भारत पर आक्रमण से पूर्व खींवा वंश के अंतिम शासक ख्वारिज्मशाह की सेवा में था। 1017 ई. में ख्वारिज़्म पर आक्रमण के बाद सुल्तान महमूद वहाँ के कई विद्वानों और कवियों के साथ अल्बेरूनी को भी अपनी राजधानी गजनी ले गया। गजनी में ही अलबेरूनी की भारत के प्रति रुचि विकसित हुई थी क्योंकि आठवीं शताब्दी से ही संस्कृत में रचित खगोल-विज्ञान, गणित और चिकित्सा संबंधी कार्यों का अरबी भाषा में अनुवाद होने लगा था।

यद्यपि अलबेरूनी का यात्रा-कार्यक्रम स्पष्ट नहीं है, फिर भी ऐसा लगता है कि उसने पंजाब और उत्तर भारत के कई हिस्सों की यात्रा की थी और लगभग बारह-तेरह वर्ष भारत में बिताया था। उसको भिन्न-भिन्न जातियों के विचारों, धार्मिक विश्वासों और सिद्धांतों आदि को जानने का बहुत शौक था। यही कारण है कि उसने संस्कृत भाषा सीखी और हिंदू धर्म तथा दर्शन का अध्ययन किया।

अल्बेरूनी ने हिंदुओं और मसलमानों के बीच विद्या-विषयक दूत का काम किया। उसने अरबों और ईरानियों को हिंदुओं की विद्याओं का ज्ञान कराया और हिंदुओं को अरबों तथा ईरानियों के नये-नये अन्वेषणों से परिचित कराया। उसने अरबी जाननेवालों के लिए संस्कृत से अरबी में और संस्कृत जाननेवालों के लिए अरबी से संस्कृत में पुस्तकों का अनुवाद किया, और इस प्रकार उसने वह ऋण चुकाया, जो भारत का बहुत दिनों से अरबी भाषा की विद्याओं और विज्ञानों पर था। उसने भारतीय परिस्थितियों एवं संस्कृतियों को जानने के लिए ब्रह्मगुप्त के ब्रह्म-सिद्धांत, वराहमिहिर की वृहत्तसंहिता, कपिल के सांख्य तथा पतंजलि के योग आदि रचनाओं का उल्लेख किया है और जगह-जगह भागवत गीता तथा विष्णु व वायु पुराण को भी उद्धृत किया है। पुराणों का अध्ययन करने वाला अलबेरूनी पहला  मुसलमान था।

अल्बेरूनी ने भारत के संबंध में तीन प्रकार की पुस्तकें लिखीं। एक अरबी से संस्कृत में, दूसरी संस्कृत से अरबी में और तीसरी भारतीय विद्याओं और सिद्धांतों की छानबीन और जाँच पड़ताल के संबंध में। इस प्रकार अल्बेरूनी ने विभिन्न क्षेत्रों पर लगभग 27 पुस्तकें लिखी है, किंतु उसकी रचना ‘किताब-उल-हिंद’ सबसे प्रसिद्ध है, जिसे उसने महमूद की मृत्यु के तीन साल बाद संभवतः 1032 ई. में गजनी में पूरा किया था।

किताब-उल-हिंद मूलतः अरबी भाषा में लिखी गई थी, जिसे ‘तारीख-उल-हिंद’ या ‘तहकीक-ए-हिंद’ के नाम से भी जाना जाता है। यह एक विस्तृत ग्रंथ है, जो धर्म और दर्शन, त्योहारों, खगोल-विज्ञान, कीमिया, रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं, सामाजिक-जीवन, भार-तौल तथा मापन विधियों, मूर्तिकला, कानून, मापतंत्र विज्ञान आदि विषयों के आधार पर अस्सी अध्यायों में विभाजित है। वास्तव में, किताब-उल-हिंद में अलबेरूनी ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भारतीय परंपराओं, रीति-रिवाजों, त्यौहारों, उत्सवों, गणितीय और खगोल सिद्धांतों तथा धार्मिक अनुष्ठानों का विस्तृत विवरण दिया है। यही कारण है कि किताब-उल-हिंद को ‘11वीं शताब्दी के भारत का दर्पण’ माना जाता है और कभी-कभी इस शताब्दी को ‘अलबेरुनी काल’ के नाम से भी याद किया जाता है।

यद्यपि अलबेरूनी का मुख्य उद्देश्य भारत के धर्मों और साहित्य तथा विज्ञान की परंपराओं के विषय में जानकारी प्राप्त करना था, किंतु उसने यहाँ के रीति-रिवाजों और अंधविश्वासों आदि का भी विस्तृत विवरण दिया है। अलबेरूनी के अनुसार भारत में परंपरागत चार जातियाँ थीं, किंतु परंपरागत जातियों से बाहर के लोग अत्यंज कहलाते थे। उसने आठ प्रकार के अंत्यजों (चांडालों) का भी उल्लेख किया है, जिनमें मोची, मछुआरे, शिकारी, टोकरी बनाने वाले, सड़क पर झाड़ू लगाने वाले आदि सम्मिलित थे। अलबेरूनी के अनुसार तत्कालीन समाज में ब्राह्मणों को विशेषाधिकार प्राप्त था और वैश्यों तथा शूद्रों की स्थिति में कोई अंतर नहीं था। यदि इनमें से किसी भी जाति के लोग पूजापाठ करते, तो राजा उनकी जीभ कटवा देता था। उसने वैश्य जाति की दशा में गिरावट, बालविवाह, सतीप्रथा और विधवाओं की स्थिति का भी वर्णन किया है। अलबेरूनी के अनुसार भारत में अंतर्जातीय विवाह नहीं होते थे और विधवाओं का मुंड़न कर दिया जाता था। उसने भारतीयों की, विशेषकर पवित्र स्थानों पर तालाबों तथा जल-संग्रहण के कार्यों में प्रवीणता की प्रशंसा की है।

अल्बेरूनी के अनुसार भारतीयों को अपनी विद्या पर बड़ा अभिमान था। उसने लिखा है कि, ‘हिंदुओं को अपने सिवा और लोगों का कुछ भी ज्ञान नहीं है। उनका यह पक्का विश्वास है कि हमारे देश के सिवा संसार में और कोई देश नहीं है और न कोई दूसरी जाति इस संसार में बसती है, और न हमारे सिवा और किसी के पास कोई विद्या है। खुरासान या फारस के किसी विद्वान् का यहाँ तक कि जब उनका नाम बताया जाता है, तब वे उस नाम बतानेवाले को मूर्ख और अयोग्य समझते हैं।’ वह लिखता है कि, ‘यदि ये लोग दूसरी जातियों से मिलें जुलें, तो उनका यह भ्रम दूर हो सकता है।’ अल्बेरूनी ने पुनः लिखा है कि, ‘पुराने समय के हिंदू पंडित ऐसे नहीं थे। वे दूसरी जातियों से भी लाभ उठाने में कमी नहीं करते थे।’

अल्बेरूनी के अनुसार कन्नौज का राज्य देश के मध्य भाग में है। यहाँ बड़े-बड़े राजाओं की राजधानी है और यह गंगा के पश्चिम में है। बनारस के बारे में वह कहता है कि यह पवित्र नगर है और आजकल यही हिंदुओं की सब विद्याओं का केंद्र है। उसने केरल को मालाबार कहा है। अल्बेरूनी ने भारत के बहुत से नगरों के नाम और उनकी लबाई चौड़ाई का भी ब्यौरा दिया है। चूंकि महमूद गजनवी के कई भारतीय अभियानों में अल्बेरूनी सुल्तान के साथ रहा था, इसलिए महमूद गजनवी के आाक्रमणों के समय के भारत की स्थिति की जानकारी के लिए किताब-उल-हिंद एक प्रामाणिक स्रोत है।

यद्यपि अलबेरुनी भारत में पंजाब और सिंध से आगे नहीं गया थी, किंतु उसने भारत का जो विवरण दिया है, उसमें उसने पूरे भारत को नाप दिया है।  किताब-उल-हिंद का अंग्रेजी अनुवाद एडवर्ड सी. सचाऊ ने अलबेरूनीज इंडियाः एन अकाउंट ऑफ रिलीजन नाम से और हिंदी अनुवाद रजनीकांत शर्मा ने भारतीय समाज एवं संस्कृति के नाम से किया है।

चाऊ-जु-कुआ (1225-1254 ई.)

चाऊ-जु-कुआ एक चीनी व्यापारी था, जिसने 1225 ई. में अपना विवरण ‘चाऊ फान ची’ पूरा किया था। उसने बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में मालाबार के बंदरगाहों से चीन और अरब के बीच होने वाले व्यापार का विस्तृत विवरण दिया है। चाऊ जू-कुआ के अनुसार मालाबार रेशम और चीनी मिट्टी के बदले में कपास और मसालों (विशेषकर काली मिर्च) का निर्यात करता है। उसके विवरण से वहाँ के राजा के रहन-सहन, पहनावे, आहार और उसके छत्र के साथ-साथ वहाँ की मिट्टी, जलवायु, विभिन्न उत्पाद, सोने-चाँदी के सिक्कों आदि के संबंध में विशेष जानकारी मिलती है।

मार्को पोलो (1288-1292 ई.)

मार्को पोलो इटली के वेनिस का एक व्यापारी, यात्री और इतिहासकार था, जो तेरहवीं शताब्दी में 1292 ई. में विश्व भ्रमण के उद्देश्य से भारत के पांड्य राज्य के कयाल बंदरगाह पर आया था। उसने पांड्य नरेश मारवर्मन कुलशेखर के शासनकाल में दक्षिण भारत की यात्रा की थी और अपने विवरण में पांड्य साम्राज्य की समृद्धि, विदेश व्यापार एवं सम्राट की न्याय व्यवस्था की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। कहा जाता है कि उसने 1288 ई. और 1292 ई. में दो अवसरों पर दक्षिण भारत का दौरा किया था। वह कुबलाई राजकुमारी की सुरक्षा के लिए उसके साथ ईरान भी गया था।

मार्को पोलो को ‘मध्यकालीन यात्रियों का राजकुमार’ कहा जाता है। उसने अपने यात्रा-विवरण में भारत के आर्थिक जीवन, विशेषकर दक्षिण भारत के राज्यों की आर्थिक समृद्धि, विदेशी व्यापार और वाणिज्य का आश्चर्यजनक वर्णन किया है। मार्को पोलो के अनुसार पांड्य राज्य मावर मोतियों के लिए प्रसिद्ध था। उसने काकतीय वंश की शासिका रुद्रंबादेवी का उल्लेख किया है। वह एकमात्र विदेशी यात्री है, जिसके योगदान को इब्नबतूता के समकक्ष माना जाता है।

इब्नबतूता (1333-1347 ई.)

मध्यकालीन भारत का भ्रमण करने वाला इब्नबतूता 1304 ई. में मोरक्को (अफ्रीका) के तैंजियर में पैदा हुआ था। इब्न बतूता वह के स्थान पर यात्राओं से अर्जित अनुभव को ज्ञान का अधिक महत्त्वपूर्ण स्रोत मानता था। 1332-33 ई. में भारत के लिए प्रस्थान करने से पहले वह मक्का की तीर्थ यात्राएँ और सीरिया, इराक, फारस, यमन, ओमान तथा पूर्वी अफ्रीका के कई तटीय व्यापारिक बंदरगाहों की यात्राएँ कर चुका था।

उत्तरी अफ्रीका से यात्रा करते हुए इब्नबतूता मध्य एशिया के रास्ते 1333 ई. में स्थलमार्ग से सिंध पहुँचा। इसके बाद वह मुहम्मद बिन तुगलक के दरबार में गया। सुल्तान ने उसकी विद्वता से प्रभावित होकर उसे दिल्ली का क़ाज़ी या न्यायाधीश नियुक्त किया। उसने लगभग आठ वर्ष तक काजी के पद पर कार्य किया। फिर किसी कारणवश सुल्तान से उसकी अनबन हो गई और उसे जेल जाना पड़ा। बाद में सुल्तान और उसके बीच की गलतफहमी दूर होने के बाद वह राजकीय सेवा में आ गया और 1342 ई. में सुल्तान के दूत के रूप में मंगोल शासक के पास चीन भेजा गया।

इब्नबतूता मध्य भारत के रास्ते मालाबार होते हुए मालद्वीप गया, जहाँ वह अठारह महीनों तक क़ाज़ी के पद पर रहा। किंतु अंततः उसने श्रीलंका जाने का निश्चय किया। बाद में, एक बार फिर वह मालाबार तट तथा मालद्वीप गया और चीन जाने के पहले वह बंगाल तथा असम भी गया। वह जहाज से सुमात्रा गया और सुमात्रा से एक अन्य जहाज से चीनी बंदरगाह नगर जायतुन (क्वानझू) पहुँचा। यद्यपि उसने व्यापक रूप से चीन में यात्रा की और वह बीजिंग तक गया, किंतु संभवतः वह मंगोल शासक के दरबार में तक नहीं गया। 1347 में उसने अपने घर लौटने का विचार किया और पश्चिम एशिया, उत्तर अफ्रीका तथा स्पेन के मुस्लिम स्थानों का भ्रमण करते अंततः 1354 ई. के आरंभ में वह मोरक्को लौट गया। कुल मिलाकर इब्नबतूता ने 75,000 मील की यात्रा की थी, जिसके कारण उसे ‘अरब जगत का मार्को पोलो’ कहा जाता है। मोरक्को लौटने के बाद इब्नबतूता के भ्रमण-वृत्तांत को सुल्तान के सचिव मुहम्मद इब्न जुज़ैय ने लेखबद्ध किया। इब्नबतूता का अरबी भाषा में लिखा गया यात्रा-वृतांत ‘रेहला’ के नाम से प्रसिद्ध है।

रेहला का अर्थ होता है- यात्रा। रेहला में सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक और सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल की घटनाओं, प्रशासन, अर्थव्यवस्था, अदालत, शहर के जीवन, सामाजिक मेलों और त्यौहारों, बाजारों, भोजन और भारतीय कपड़ों, जलवायु आदि का वर्णन किया गया है। इब्न बतूता भारत की डाक व्यवस्था की कार्यकुशलता देखकर बहुत चकित हुआ था। इस प्रकार इब्नबतूता का यात्रा-विवरण चौदहवीं शताब्दी के भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के विविध पक्षों की जानकारी का एक महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक स्रोत है।

इब्न खल्दुन (1332-1406 ई.)

इब्न खल्दुन एक प्रसिद्ध अरब इतिहासकार था, जिसका जन्म 1332 ई. में उत्तरी अफ्रीका के ट्यूनीशिया में हुआ था। उसने अपनी पुस्तक ‘मुकद्दिमा’ में मानव समाज और प्राकृतिक पर्यावरण से भी संबंधित विवरण दिया है। उसे आधुनिक समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र का पिता माना जाता है। इब्न खल्दून ने बताया कि उत्तरी गोलार्ध, दक्षिणी गोलार्ध की तुलना में अधिक घनी आबादी वाला है। उसके अनुसार भूमध्य रेखा के किनारे जनसंख्या कम थी, किंतु भूमध्य रेखा से दूर 64 डिग्री अक्षांश तक जनसंख्या का संकेंद्रण अधिक था। उसने अपने ऐतिहासिक विश्लेषण में कार्य-कारण जैसी दार्शनिक अवधारणाओं को भी शामिल किया। इसके अतिरिक्त, इब्न खल्दून ने मानव समाज के अध्ययन और समझ के लिए एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान किया। कुल मिलाकर, इब्न खल्दुन के विवरण शासन, दर्शन, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र की बहुआयामी जानकारी के स्रोत हैं।

निकोलो कोंटी (1420-1421 ई.)

निकोलो कोंटी एक इटालियन यात्री और खोजकर्त्ता था, जिसने 1420 ई. में देवराय प्रथम के समय में विजयनगर की यात्रा की थी। दरअसल, कोंटी विजयनगर  की यात्रा करने वाला पहला विदेशी यात्री था। यद्यपि उसका लैटिन भाषा में लिखा गया मूल विवरण अप्राप्त है, फिर भी, उसके ‘ट्रैवेल्स ऑफ निकोलो कोंटी’ नामक यात्रा-वृतांत से विजयनगर शहर, वहाँ के राजदरबार, मुद्राओं, सामाजिक प्रथाओं, रीति-रिवाजों, त्यौहारों और अन्य अनेक प्रकार की प्रामाणिक जानकारी मिलती है। उसने लिखा है कि नगर का घेरा साठ मील है, इसकी दीवारें पहाडों तक चली गई है और नीचे की ओर घाटियों को घेरे हुए हैं।

अब्दुर रज्जाक (1443-1444 ई.)

अब्दुर रज्जाक एक फारसी यात्री और इतिहासकार था, जो ईरान (फारस) के तैमूर राजवंश के शासक शाहरुख के राजदूत के रूप में 1441 ई. में तीन साल के दौरे पर कालीकट के जमोरिन के दरबार में आया था। किंतु कालीकट में उसका प्रवास सीमित रहा, क्योंकि विजयनगर  के संगमवंशीय शासक देवराय द्वितीय ने उसे अपने राज्य में बुला लिया था। फलतः रज्जाक मैंगलोर, बेलूर से होता हुआ अप्रैल, 1443 ई. में विजयनगर  पहुँचा।

रज्जाक ने अपने यात्रा-वृतांत ‘मतला-उस-सदाइन वा मजमा-उल-बहरीन’ (दो शुभ नक्षत्रों का उदय और दो महासागरों का संगम) में विजयनगर  के ऐश्वर्य और वैभव का विस्तृत विवरण दिया है। विजयनगर की विशालता देखकर उसने लिखा था: ‘मैंने पूरे विश्व में इसके समान दूसरा शहर न कोई देखा है, न सुना है।’ उसका कहना था कि पृथ्वी पर इतना विशाल दूसरा नगर था ही नहीं। यह नगर एक के बाद एक सात दीवारों से सुरक्षित था। उसके अनुसार देवराय का साम्राज्य सीलोन (श्रीलंका) से गुलबर्गा और उड़ीसा से मालाबार तक फैला हुआ था। उसने अपने विवरण में विजयनगर  राज्य के व्यापार, उद्योगों, बंदरगाहों, कृषि, निवासियों के रहन-सहन और रीति-रिवाजों, खजाने आदि का विस्तृत वर्णन किया है। इस प्रकार उसका विवरण हम्पी के बाजारों, उसकी वास्तुकला तथा उसकी भव्यता के साथ-साथ विजयनगर की प्रशासनिक-आर्थिक व्यवस्था एवं सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन की जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

अथनेसियस अफानसी निकितिन (1470-1474 ई.)

अफानसी निकितिन एक रूसी घोड़ों का व्यापारी था, जिसने पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में घोड़ों के व्यापार के संबंध में समुद्रतट से सटे दक्षिण भारत की व्यापारिक यात्रा की थी। 1466 ई. में रूस से अपनी यात्रा शुरू करके वह 1469 ई. में दीव पहुँचा और लगभग तीन वर्ष तक भारत में रहा। भारत में अपनी यात्रा के आरंभ में जब वह जुन्नार पहुँचा था, तो वहाँ के हाकिम असद खाँ ने उसे बंदी बनाकर उसके घोड़े को छीन लिया था। इस अप्रिय घटनाक्रम के बाद निकितिन ने अपना नाम ‘ख्वाजा यूसुफ खुरासानी’ रख लिया था, किंतु धर्म पूछने पर वह अपने को ईसाई ही बताता था।

निकितिन ने मुहम्मद तृतीय के शासनकाल के दौरान बहमनी साम्राज्य का भ्रमण किया, किंतु वह लंबे समय तक बीदर में रहा था और बीदर में सुल्तान के महल का रोचक वर्णन किया है। उसने चौल, जुन्नार, गुलबर्गा, बीदर और गोलकुंडा जैसे नगरों और उनके किलों की भव्यता, संरचना तथा सुरक्षा व्यवस्था का विस्तृत विवरण दिया है।

यद्यपि निकितिन ने अपने विवरण में कहीं-कहीं अतिशयोक्ति का प्रयोग किया है, किंतु उसने विभिन्न नगरों के उत्पादों, धार्मिक अनुष्ठानों, भारतीय परिधानों और सामाजिक व्यवस्था पर अवश्य टिप्पणी की है। कालीकट मुख्य पत्तन था, जहाँ अदरक, लौंग, काली मिर्च, दालचीनी, जायफल तथा कई मसालों के साथ सस्ते गुलामों का बाजार भी था। उसने खंभात में लाख और नील का उत्पादन होते देखा था। बीदर घोड़े, रेशम तथा जरी वस्त्र के व्यापार के लिए विख्यात था। निकितिन ताड़ की छाल से बनने वाली शराब का भी उल्लेख करता है। उसने न केवल विभिन्न राजाओं के वैभव, पराक्रम और शानो-शौकत का भी विवरण दिया है, बल्कि मूर्ति-पूजा को बुतपरस्ती, गणेश तथा हनुमान को क्रमशः हाथी और वानर के मुँह वाले देवता के रूप में उल्लेख किया है। श्रीशैलम के तीर्थस्थान को उसने ‘काफिरों के येरूशलम’ के रूप में वर्णित किया है और पत्थर से बने हुए विशाल मंदिरों की प्रशंसा की है। इस प्रकार कुल मिलाकर निकितिन का यात्रा-वृतांत मनोरंजक और सूचनाप्रद है।

वास्को डी गामा (1498, 1502 व 1524 ई.)

वास्को डी गामा यूरोप के पुर्तगाल से भारत की सीधी यात्रा करने वाले जहाजों का एक कमांडर था, जो अफ्रीका के दक्षिणी किनारे  केप ऑफ गुड होप (उत्तमाशा अंतरीप) का चक्कर लगाकर मालिंदी होते 20 मई, 1498 ई. को भारत के दक्षिण पश्चिमी तट पर स्थित केरल के भारतीय व्यापारिक केंद्र कालीकट  पहुँचा था। उसने केवल यूरोप से भारत तक आने वाले जलीय मार्ग की खोज की थी, भारत की नहीं। वास्को ने जहाज द्वारा तीन बार भारत की यात्रा की। पहली भारत यात्रा 8 जुलाई, 1497 ई. को चार जहाजों और लगभग 170 लोगों के साथ लिस्बन से आरंभ हुई। इस बेड़े में प्रत्याशित रूप से कोई महिला नहीं थी। कालीकट के राजा जमोरिन ने गामा का स्वागत किया। वास्को की अगली यात्रा 1502 ई. में हुई और 1524 ई. में वह अपनी तीसरी व अंतिम भारत आया, किंतु यहाँ पहुँचने के कुछ समय बाद दिसंबर, 1524 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। पहले उसे कोच्चि (भारत) में दफनाया गया, बाद में 1539 ई. में उसको पुर्तगाल के लिस्बन के शाही कब्रिस्तान मे दफन किया गया। वास्को डी गामा की यात्राओं के दौरान लिखे गये घटनाक्रम को सोलहवीं सदी के अफ्रीका और केरल के जनजीवन का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज माना जाता है।

लुडोविको दे वार्थेमा (1502-1508 ई.)

लुडोविको दे वार्थेमा एक इतालवी सैनिक और यात्री था, जो तीर्थयात्री के रूप में मक्का में प्रवेश करने वाले पहले गैर-मुस्लिम यूरोपीयों में से एक था। पुर्तगालियों ने उसे ‘लिटिल नाईट’ की उपाधि से सम्मानित किया था। वार्थेमा ने 1502 ई. से 1508 ई. के बीच अपने फारसी साथी शिराज के साथ भारत की यात्रा की और अपने अनुभवों का विशद् विवरण दिया है।

वार्थेमा सबसे पहले गुजरात में कैम्बे बंदरगाह पहुँचा। उसने खंभात के सुल्तान का सजीव वर्णन करने के साथ-साथ जैनियों और योगी संन्यासियों का विकृत वर्णन भी किया है। गोवा होते हुए उसने आदिल खाँ की दक्कन सल्तनत की राजधानी बीजापुर में सात दिन भ्रमण किया। इसके बाद उसने पंद्रह दिन तक विजयनगर साम्राज्य का दौरा किया। विजयनगर की राजधानी और साम्राज्य के बारे में उसके विवरण बहुत रोचक और मूल्यवान हैं ।

वार्थेमा ने कालीकट के विस्तार, जमोरिन के न्यायालय, सरकार, न्याय प्रशासन, सेना, तत्कालीन समाज और संस्कृति का विवरण दिया है। उसने जमोरिन और अल्मीडा के पुर्तगाली बेड़े के बीच कैनानोर की नौसैनिक लड़ाई का भी वर्णन किया है। वह 1508 ई. में वापस लौट गया और पोप के समर्थन से उसका यात्रा-कार्यक्रम 1510 ई. में ‘इटिनेरारियो डी लुडौइको डी वर्थेमा बोलोग्नीस’ के नाम से प्रकाशित हुआ। वार्थेमा ने अपने विवरण में गुजरातियों की तुलना ईसाइयों से की है और सुझाव दिया है कि संभवतः हिंदू यूरोपीय ईसाइयों के संभावित सहयोगी हो सकते हैं। इस प्रकार वार्थेमा के विवरण मध्यकालीन भारतीय व्यापार, समाज और संस्कृति की जानकारी के अमूल्य स्रोत हैं।

एडुआर्डो दुआर्ते बारबोसा (1500-1516 ई.)

यूरोपीय लेखकों में एक प्रसिद्ध नाम दुआर्ते बरबोसा (1500-1516 ई.) का है, जिसने पुर्तगाली गवर्नर अल्बुकर्क के दुभाषिया के रूप में कार्य किया था। उसने तुलुववंशीय कृष्ण देवराय के शासनकाल में विजयनगर की और महमूद बेगड़ा के काल में गुजरात का भ्रमण किया था। 1517-18 ई. में बारबोसा पुर्तगाल लौट गया। वहाँ उसने अपने यात्रा-वृत्तांत ‘द बुक ऑफ दुआर्ते बारबोसा’ को अंतिम रूप दिया, जिसमें दक्षिण भारत में व्यापार और समाज का एक विस्तृत विवरण मिलता है।

बारबोसा के यात्रा-विवरण के अनुसार गुजरात के महमूद बेगड़ा को किसी जहर का नियमित रूप से सेवन कराया जाता था। अतः उसके हाथ पर यदि कोई मक्खी भी बैठ जाता थी, तो वह फूलकर मर जाती थी। उसने अपने यात्रा-वृतांत में कृष्णदेवराय के प्रशासन और विजयनगर साम्राज्य की समृद्धि की प्रशंसा की है। उसके अनुसार कृष्णदेवराय एक धर्मनिरपेक्ष शासक था। बारबोसा लिखता है कि विजयनगर साम्राज्य में सतीप्रथा का प्रचलन था, किंतु यह प्रथा केवल नायकों और राजपरिवार तक ही सीमित थी, लिंगायतों, चेट्टियों और ब्राह्मणों में इसका प्रचलन नहीं था। बारबोसा के अनुसार दक्षिण भारत के जहाज मालदीव द्वीप में बनते थे। दुआर्ते के लिखने के कारण 1600 ई. के बाद भारत में आने वाले डच, अंग्रेज और फ्रांसीसी यात्रियों की संख्या बढ़ने लगी थी। इस प्रकार विजयनगर की सामाजिक दशा, अर्थव्यवस्था और राज्य की नीतियों आदि के के संबंध में बारबोसा के विवरण ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।

डोमिंगो पायस (1520-1522 ई.)

पायस एक पुर्तगाली यात्री था, जिसने 1520 ई. के आसपास कृष्णदेवराय के समय में विजयनगर की यात्रा की थी। उसने विजयनगर को ‘नरसिंह का राज्य’ कहा है। अपने यात्रा-वृतांत ‘विजयनगर राजाओं के क्रॉनिकल’ (क्रोनिका डॉस रीस डी बिस्नागा) में पायस ने विजयनगर के दुर्गीकरण, सड़कों और विभिन्न वस्तुओं के बाजारों का आँखों देखा हाल लिखा है, साथ ही इस नगर के मुख्य मंदिरों, जिनमें हम्पी में स्थित विरुपाक्ष तथा विठ्ठलस्वामी के मंदिर शामिल हैं, का भी विस्तृत वर्णन किया है। डोमिंगो पायस ने विजयनगर के शहर को रोम के समान वैभवशाली और अत्यंत रमणीय बताया है। यह विश्व का सर्वोत्तम नगर है, जिसकी बड़ी जनसंख्या थी और शहर के भीतर ही एक लाख आवास निर्मित थे। इसकी पुष्टि हम्पी के उत्खनन से भी होती है।

पायस ने राजा कृष्णदेवराय का वर्णन एक मध्यम कद के व्यक्ति और गोरी सूरत तथा छरहरे शरीर सौष्ठव से संपन्न व्यक्ति के रूप में किया है, जिसके चेहरे पर चेचक के दाग थे और जिसे ‘कृष्णराव महाशाह’ (राजाओं के राजा) की उपाधि दी गई थी। उसने कृष्णदेवराय की बड़ी प्रशंसा की है और विजयनगर की समृद्धि का बखान किया है। उसके अनुसार विजयनगर राज्य 200 प्रांतों में विभाजित था। विजयनगर की उन्नत सिंचाई तकनीक से प्रभावित होकर पायस ने राजा द्वारा उद्यानों और खेतों की सिंचाई हेतु निर्मित तालाबों का भी उल्लेख किया है। शिल्प और व्यापार की उन्नति का वर्णन करते हुए पायस ने लिखा है कि विजयनगर के बाजार कीमती पत्थरों से भरे थे और यहाँ विभिन्न देशों के लोग रत्नों और हीरों के व्यापार के लिए निवास करते थे।

पायस ने नवरात्र पर्व का वर्णन करते हुए लिखा है कि इस पर्व के अंतिम दिन 250 भैसों तथा 4500 भेड़ों की बलि चढाई जाती थी। उसने ‘महानवमी’ उत्सव का भी रोचक और विस्तृत विवरण दिया है, जो ‘विजयभवन’ में आयोजित किया जाता था और जिसका समापन नगर के बाहर सेनाओं के निरीक्षण के साथ होता था। इसके अलावा, डोमिंगो ने तत्कालीन समाज में व्याप्त बुराइयों, जैसे- बलिप्रथा, पशुयज्ञ, सतीप्रथा, जातिगत बंधन, वेश्यावृत्ति, देवदासी प्रथा आदि का भी स्पष्ट वर्णन किया है।

फरनॉस अथवा फर्नाओ नुनिज (1535-1537 ई.)

फर्नाओ नुनिज पुर्तगाल का एक घोड़ा व्यापारी था, जिसने 1535-37 ई. के बीच तुलुववंशी राजा अच्युतराय के शासनकाल में विजयनगर में तीन साल बिताया था। नुनीज ने संपूर्णविजयनगरराज्य का भ्रमण किया और अपने यात्रा-विवरण ‘क्रॉनिकल ऑफ फर्नाओ नुनीज’ में विजयनगर के इतिहास, उसकी स्थापना, उसके तीन राजवंशों के उत्तरोत्तर शासन और उनके द्वारा दक्कन के सुल्तानों तथा ओडिशा के साथ लड़े गये युद्धों का विवरण दिया है। उसने विजयनगर को ‘बिसनाग’ की संज्ञा दी है और विजयनगर  की तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक दशा का भी विस्तृत विवरण दिया है।

यद्यपि विजयनगर साम्राज्य (बिसनाग) के संबंध में नूनिज के ऐतिहासिक विवरण बहुत सटीक नहीं हैं। फिर भी, उसने कृष्णदेवराय के सिंहासनारोहण, उसके सैनिक अभियानों और उसके द्वारा निर्मित तालाब का विस्तार से वर्णन किया है। देवराय प्रथम द्वारा विजयनगर के शहर में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराने हेतु निर्मित बाँध का भी नूनिज ने उल्लेख किया है। उसने विजयनगर की राजधानी हम्पी में धूमधाम से मनाये जाने वाले ‘दशहरा’ उत्सव का विस्तृत विवरण दिया है, विशेष रूप से शाही महिलाओं द्वारा पहने गये जवाहरातों तथा राजा की सेवा में कार्यरत हजारों महिलाओं का उसका विवरण महत्त्वपूर्ण है। फर्नाओ नुनिज के अनुसार विजयनगर के बाजार विभिन्न फलों से भरे हुए थे और बाजारों में सभी प्रकार के पशु-पक्षी और मांस की बिक्री होती थी। बारबोसा की तरह नुनिज ने भी विजयनगर समाज में प्रचलित सतीप्रथा का विवरण दिया है। नुनिज के विवरणों से ज्ञात होता है किविजयनगर में भूराजस्व की दर 1/6 थी और क्वीलोन, श्रीलंका, पुलीकट, पेगु और तेनसिरम के राजा देवराय को कर देते थे। रॉबर्ट सेविल ने अपनी पुस्तक ‘ए फॉरगॉटन एंपायर’ में नुनिज के लेखों का विवरण दिया है।

फादर एंथोनी मोंसेरेट (1578-1582 ई.)

फादर एंथोनी मोंसेरेट एक जेसुइट पादरी था, जिसे गोवा के पुर्तगाली अधिकारियों ने मुगल दरबार में भेजा था। वह 1580 ई. के लगभग फादर एक्वाविवा के साथ मुगल बादशाह अकबर के दरबार में आया। बादशाह अकबर ने मोंसेरेट को अपने दूसरे पुत्र मुराद को पुर्तगाली भाषा सिखाने के लिए नियुक्त किया। वह अकबर के साथ काबुल अभियान पर भी गया। मोंसेरेट ने अपने यात्रा-विवरण में सूरत, मांडू, ग्वालियर, दिल्ली, लाहौर, सरहिंद आदि नगरों के साथ मुगल दरबार, अकबर के चरित्र तथा व्यक्तित्व, सैनिक अभियानों, पोशाक, शहजादों व शहजादियों की शिक्षा, शहरों, मुगल सेना, डाक वाहकों, जलघड़ी, धार्मिक मान्यताओं, सामान्य लोगों के काम-काज, रहन-सहन, नवरोज के उत्सवों और त्योहारों आदि का विशद वर्णन किया है। वह तत्कालीन समाज में प्रचलित सतीप्रथा का नृशंस हत्या के रूप में उल्लेख करता है। इस प्रकार मोंसेरेट का विवरण अकबर के राज्यकाल के बारे में एक महत्त्वपूर्ण समसामयिक स्रोत है।

रॉल्फ फिच (1588-1591 ई.)

रॉल्फ फिच की गणना भारत और दक्षिण पूर्व एशिया की यात्रा करने वाले आरंभिक अंग्रेज व्यापारियों में की जाती है। संभवतः वह पहला ब्रिटिश यात्री था, जिसने मुगल शासक अकबर के शासनकाल में आगरा और फतेहपुर सीकरी की यात्रा की थी। फिच ने वाराणसी, पटना और कूच बिहार की भी यात्रा की थी और वहाँ के रीति-रिवाजों, वेशभूषा, शहरों आदि का विवरण दिया है। यद्यपि फिच कोई इतिहासकार नहीं था, किंतु उसने दक्षिण पूर्व एशिया का जो आँखों देखा विवरण लिखा, वह ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए तो महत्त्वपूर्ण था ही, ऐतिहासिक उपयोगिता की दृष्टि से भी विशेष उपयोगी है।

सीजर फ्रेडरिक (1567-1568 ई.)

पुर्तगाली यात्री सीजर फ्रोडरिक ने तालीकोटा युद्ध (1565 ई.) के बाद विजयनगर साम्राज्य का भ्रमण किया तथा इस राजकीय नगर के विनष्ट वैभव और दुर्दशा का वर्णन पर अपनी टिप्पणी की है।

जोन जुरदां (1608-1617 ई.)

जोन जुरदां ने भारत के लगभग सभी तत्कालीन बंदरगाहों की यात्राएँ कीं तथा उनके विषय में लिखा है। वह आगरा को दुनिया के सबसे बड़े नगरों में से एक मानता है। उसने देश के व्यापारिक केंद्रों एवं उद्योगों का विश्लेषणात्मक वर्णन किया है।

कैप्टन विलियम हाकिंस (1608-1613 ई.)

कैप्टन हाकिंस ब्रिटिश सम्राट जेम्स प्रथम के दूत के रूप में विलियम कीलिंग के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत आने वाले पहले जहाज ‘हेक्टर’ पर सवार होकर 24 अगस्त, 1608 ई. को सूरत पहुँचा था। उसने भारत में अंग्रेजों के व्यापारिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए 1609 ई. में बादशाह जहाँगीर से आगरा में भेंट की। हॉकिंस शीघ्र ही ‘प्रतिभाशाली शराबी’ बादशाह का मित्र हो गया और जहाँगीर ने उसे ‘इंग्लिश खाँ’ की संज्ञा दी। हॉकिंस मुगल दरबार में 1609 से 1613 ई. तक रहा। उसने बादशाह की दिनचर्या, व्यक्तित्व, कलात्मक अभिरुचि, आभूषणों, पशुओं, दरबारी कानूनों, व्यापार एवं वाणिज्य का विस्तृत विवरण दिया है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।

विलियम फिंच (1608-1612 ई.)

विलियम फिंच ईस्ट इंडिया कंपनी के एक प्रतिनिधि के रूप में मुगल बादशाह से व्यापारिक सुविधा प्राप्त करने के लिए कैप्टन हॉकिंस और कीलिंग के साथ 24 अगस्त, 1608 ई. को भारत आया था। वह हॉकिंस के साथ मुगल बादशाह जहाँगीर के दरबार में गया था। उसने बयाना, दिल्ली, अंबाला, सुल्तानपुर, अयोध्या और लाहौर के साथ-साथ भारत के विभिन्न शहरों का भ्रमण किया और अपना यात्रा-वृतांत लिखा।

फिंच ने अपने यात्रा-वृतांत में 17वीं शताब्दी के भारत के व्यापारिक मार्गों, सूरत, बुरहारनपुर, उज्जैन, आगरा, फतेहपुर सीकरी, लाहौर और अन्य प्रसिद्ध नगरों, दुर्गों, मनुष्यों, जानवरों, पशुओं, पौधों, धार्मिक परंपराओं आदि का विस्तृत विवरण दिया है। उसने फतेहपुर सीकरी के बुलंद दरवाजा को ‘विश्व का सबसे ऊँचा दरवाजा’ और लाहौर को ‘पूरब का सबसे बड़ा शहर’ बताया है। फिंच एकमात्र विदेशी यात्री है जिसने सलीम और अनारकली की कहानी का उल्लेख किया है। यही नहीं, फिंच ने अयोध्या में ‘रामकोट’ (राम का किला) के उन खंडहरों का भी उल्लेख किया है, जिन्हें राम का महल और घर माना जाता था।

निकोलस डाउंटन (1608-1615 ई.)

निकोलस डाउंटन उस ब्रिटिश बेड़े का कप्तान था, जो 1608 ई. में मुगल बादशाह जहाँगीर के नाम सम्राट जेम्स द्वितीय का एक पत्र लेकर भारत आया था। यद्यपि गुजरात के गवर्नर से झगड़ा हो जाने के कारण वह मुगल दरबार में नहीं पहुँच सका। फिर भी, अपने यात्रा-वृतांत में उसने मुगलों की अर्थव्यवस्था की प्रामाणिक जानकारी दी है। उसका यात्रा-विवरण गुजरात, मुख्यतः सूरत से ही संबंधित है। उसने मुस्लिम महिलाओं के गायन की बड़ी प्रशंसा की है और जहाँगीरकालीन राजनीति में नूरजहाँ के प्रभुत्व की भी चर्चा की है।

निकोलस विथिंग्टन (1612-1616 ई.)

विथिंग्टन ईस्ट इंडिया कंपनी के एक कर्मचारी के रूप में सूरत आया और उसे आगरा जाने का भी अवसर मिला था। उसका यात्रा-विवरण ‘ट्रैक्टेट’ उसके सौ वर्ष बाद लंदन से प्रकाशित हुआ था। विथिंग्टन के यात्रा-विवरण से गुजरात के साथ-साथ राजस्थानी सभ्यता और संस्कृति पर भी प्रकाश पड़ता है। उसने राजपूतों के बीच प्रचलित सतीप्रथा की प्रशंसा की है।

टॉमस कोरिएट (1612-1617 ई.)

थॉमस कोरिएट एक अंग्रेज यात्री और लेखक था, जो भारत में छः वर्ष तक रहा था। 1612 ई. में उसने भारत की यात्रा की और सर थॉमस रो के निमंत्रण पर मुगल बादशाह जहाँगीर से अजमेर में भेंट की। उसने शाही दरबार के साथ-साथ आगरा, मांडू और सूरत जैसे स्थानों का भी भ्रमण किया। उसने मुगल दरबार की दैनिक दिनचर्या, मनोरंजन के साधनों, तुलादान, मीनाबाजार, झरोखा दर्शन आदि का बहुत रोचक और सजीव विवरण दिया है।

सर टॉमस रो (1615-1619 ई.)

टॉमस रो जहाँगीर के दरबार में आने वाला एक विख्यात अंग्रेज राजदूत था, जो 1615 ई. में सूरत के पत्तन पर इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम का मुगल बादशाह जहाँगीर के नाम पत्र लेकर आया था, जिसमें एक व्यापारिक समझौते की उम्मीद थी। रो ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम कर रहा था। वह जनवरी, 1616 ई. में अजमेर में शाही दरबार में उपस्थित हुआ और अगस्त, 1618 ई. तक वहाँ रहा। रो का मुख्य उद्देश्य सूरत में ईस्ट इंडिया कंपनी के कारखाने के लिए अनुमति और सुरक्षा प्राप्त करना था। उसने मुगल सम्राटजहाँगीर से भारत में अंग्रेज फैक्ट्री स्थापित करने का कानूनी अधिकार प्राप्त किया।

भारत में टॉमस रो ने बादशाह के साथ मांडू, अहमदाबाद, अजमेर आदि अनेक स्थानों की यात्रा की और अपनी यात्रा का विस्तृत ब्यौरा ‘ए वायज टू ईस्ट इंडीज’ (पूर्वी द्वीपों की यात्रा) में दर्ज किया। उसने अपने विवरण में मुगल दरबार तथा जहाँगीर के विषय में विस्तार से वर्णन किया है। टॉमस रो के अनुसार जहाँगीर के लघु छविचित्र से बंधी हुई एक चार इंच की स्वर्ण जंजीर महत्त्वपूर्ण अमीरों और कुलीनों को उपहार में दी जाती थी, जिसे वे अपनी पगड़ी में बाँधे रखते थे। रो को भी बादशाह का यह लघु-छवि चित्र प्रदान किया गया था। टॉमस रो के विवरण से मुगल बादशाह के धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण पर प्रकाश पड़ता है। उसके अनुसार बादशाह सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था, किंतु वह धर्म-परिवर्तन को पसंद नहीं करता था। इसके अतिरिक्त, रो ने बादशाह के झरोखा दर्शन और तुलादान का दिलचस्प वर्णन किया है। उसने खुसरो के प्रसंग, उसकी लोकप्रियता तथा उसके पिता का उसके प्रति प्रेम का भी विवरण दिया है। टॉमस रो के विवरणों से मुगल दरबार में होने वाले षड्यंत्रों और भ्रष्टाचार के साथ-साथ नूरजहाँ तथा उसके गुट के प्रभाव के विषय में भी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं।

पाल केनिंग (1615-1625 ई.)

पाल केनिंग ईस्ट इंडिया कंपनी का एक ब्रिटिश कर्मचारी था, जिसने जहाँगीर के समय में उत्तर-पश्चिमी भारत के विभिन्न नगरों की यात्रा की थी। केनिंग का यात्रा-विवरण मुगल साम्राज्य की अर्थव्यवस्था, विशेषकर कारखानों, बंदरगाहों एवं विदेशी व्यापार से संबंधित जानकारी का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

एडवर्ड टेरी (1616-1619 ई.)

एडवर्ड टेरी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से थॉमस रो के साथ एक पादरी के रूप में 1616 ई. में भारत आया था। उसने 1617 ई. में टॉमस रो के साथ मांडू की यात्रा की और वहाँ मुगल बादशाह जहाँगीर से भेंट की। इसके बाद वह अहमदाबाद चला गया। अपने यात्रा-वृत्तांत में टेरी ने मालवा एवं गुजरात के बारे में विस्तार से लिखा है। उसके विवरण से जहाँगीर के व्यक्तित्व, चाँदी के आयात, मुद्रा-प्रणाली, मुगल छावनियों, युद्ध के अस्त्र-शस्त्रों, पहनावे एवं आचार-व्यवहार, भवनों, लोगों की भाषा, रहन-सहन के तौर-तरीकों,  खानपान, दरवेशों की दिनचर्या, व्यापार-वाणिज्य और फलों के साथ-साथ उत्सवों तथा प्रथाओं की जानकारी मिलती है। टेरी के अनुसार तत्कालीन मुगल दरबार की भाषा फारसी थी, जबकि विद्वानों की भाषा अरबी थी। उसने जहाँगीर के विरोधाभासी व्यक्तित्व का भी विवरण दिया है। वास्तव में, टेरी की दृष्टि बहुत व्यापक थी। उसका मानना था कि परिश्रम से कमाई रोटी ही मीठी और सम्मानजनक होती है।

फ्रांसिस्को पेल्सार्ट (1618-1627 ई.)

पेल्सार्ट हॉलैंड का निवासी था, जिसने एक गुमाश्ता (दलाल) के रूप में 1618 ई. में मसुलीपट्टनम् के रास्ते भारत में प्रवेश किया और पूरे उपमहाद्वीप के उत्तरी तथा पश्चिमी भागों में उत्पादन और व्यापार से संबंधित अधिकांश महत्त्वपूर्ण स्थानों का भ्रमण किया। उसने जहाँगीर के काल में वह सात वर्ष तक आगरा में रहा था और वह आगरा के डच टकसाल का अध्यक्ष था। उसने अपने विवरण में आगरा और देश के पूर्वी हिस्से की व्यापारिक गतिविधियों, उत्तर भारत में डच व्यापार, बुरहानपुर, गुजरात, लाहौर, मुल्तान, थट्टा और कश्मीर की व्यावसायिक स्थिति, मुगल प्रशासन, समाज के निचले वर्गों के साथ ही अभिजात्य वर्ग के जीवन की परिस्थितियों तथा हिंदुओं की धार्मिक प्रथाओं का विस्तृत विवरण दिया है।

पेल्सार्ट ने आगरा का बहुत ही रोचक वर्णन किया है। उसने शहर की संरचना, अमीरों और गरीबों के घर, उनके खान-पान, विभिन्न वस्तुओं के बाजार और वहाँ उपलब्ध विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के बारे में लिखा है। उसने तत्कालीन भारतीय नगरों में विकसित उद्योग-धंधों एवं व्यापारिक कार्य-कलापों, विशेषकर गरम मसाले एवं नील व्यवसाय का विस्तार से वर्णन किया है। उसने आगरा को उत्पादन के महत्त्वपूर्ण केंद्रों से जोड़ने वाले सभी मार्गों का उल्लेख किया है। वह गुजरात के कपड़ों की किस्म का विवरण देता है और लाहौर को एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र बताता है। उसके अनुसार मुल्तान और थट्टा, वस्त्र उद्योग, चीनी, सल्फर और नील के लिए प्रसिद्ध थे। नील के उत्पादन, और विशेष रूप से बयाना में नील के उत्पादन के बारे में उसका विवरण अद्वितीय है।

पेल्सार्ट ने समाज के निचले तबके की स्थितियों का भी विवरण दिया है। उसके अनुसार कर्मकार (दस्तकार), नौकरों और दुकानदारों की स्थिति स्वैच्छिक दासता की स्थिति से बहुत अलग नहीं थी, जिन्हें अकसर कुलीन वर्ग की सनक और मनमाने व्यवहार का शिकार होना पड़ता था। इस प्रकार पेल्सार्ट के विवरण मध्यकालीन भारत की व्यापारिक गतिविधियों, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों की जानकारी के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं।

पेट्रो डेल्ला वल्ले (1622-1626 ई.)

डेल्ला वल्ले एक इटालियन (रोम) यात्री था, जो मुगल बादशाह जहाँगीर के शासनकाल के दौरान 1623 ई. में सूरत पहुँचा था और भारत के पश्चिमी तट के साथ-साथ दक्षिण की ओर कालीकट तक की यात्रा की थी। उसके यात्रा-संस्मरण सूरत, अहमदाबाद और कैम्बे (खंभात) से संबंधित हैं। इसलिए उसकी यात्रा के वृत्तांत इस क्षेत्र के इतिहास की जानकारी के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। डेल्ला वल्ले ने बिना किसी पूर्वाग्रह के भारत की धार्मिक सहिष्णुता और सतीप्रथा जैसे अंधविश्वासों तथा अन्य धार्मिक एवं सामाजिक रीति-रिवाजों का वर्णन किया है।

जान लायट (1626-1633 ई.)

जान लायट एक डच यात्री था, जिसके विवरण से 17वीं सदी के पूर्वार्द्ध के भारत की व्यापार और वाणिज्य संबंधी मुख्य प्रवृत्तियों पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है।

जान फ्रायर (1627-1681 ई.)

जान फिरियर नामक अंग्रेज यात्री 50 से अधिक वर्ष तक भारत में रहा। उसके यात्रा-विवरण से मुगलकालीन अर्थव्यवस्था के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

वॉन लिंसकोट्टेन (16वीं शताब्दी)

इस अंग्रेज यात्री ने अपनी यात्राओं का विवरण ‘दि वायज ऑफ जॉन हगेन वॉन लिंसकोट्टेन टू दि ईस्ट इंडीज’ में दिया है। इसमें उसने 16वीं शताब्दी के दक्षिण भारत की आर्थिक स्थिति का मूल्यवान विवरण दिया है।

पीटर मुंडी (1630-1634 ई.)

पीटर मुंडी एक इटालियन व्यापारी, यात्री और लेखक था, जो मुगल बादशाह शाहजहाँ के शासनकाल में भारत आया था। उसने भारत में सूरत, आगरा और पटना की यात्रा के साथ-साथ चीन और जापान की भी यात्रा की थीं। पीटर मुंडी ने अपने यात्रा-विवरण में मुगलकालीन भारत की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था का विवरण दिया है। उसने शाहजहाँ के शासनकाल में 1630-32 ई. में पड़ने वाले भीषण दुर्भिक्ष (अकाल) का वर्णन किया है।

जीन बैपटिस्ट टैवर्नियर (1638-1663 ई.)

सत्रहवीं शताब्दी का फ्रांसीसी यात्री टैवर्नियर पेशे से रत्नों का व्यापारी (जौहरी) था, जो शाहजहाँ के शासनकाल में भारत आया था। इस अनुभवी और साहसी यात्री ने 1641 ई. से 1686 ई. के बीच पूर्व की सात और भारत की छः बार यात्रा की थी। अपनी पहली दो यात्राओं के दौरान टैवर्नियर ने लगभग संपूर्ण भारत की यात्रा कर डाली। पहली यात्रा के दौरान वह सूरत, बुरहानपुर, आगरा, ढाका, गोवा और गोलकुंडा गया। गोलकुंडा में उसने हीरे की खदानों के बारे में पूछताछ की और संभवतः खदानों को देखा भी था। अपनी दूसरी यात्रा के दौरान वह दौलताबाद-नांदेड़ मार्ग से गोलकुंडा गया और वहाँ की हीरे की खानों के अलावा उसने दखलाकोंडा (आधुनिक रामलकोट) और गनी या कोल्लूर की खानों का भी निरीक्षण किया। अपनी तीसरी यात्रा के दौरान वह पूर्वी तट पर मसुलीपट्टनम्, मद्रास, गंडीकोट आदि स्थानों का भ्रमण करते हुए गोलकुंडा गया और फिर गुजरात चला गया।

1657 ई. में टैवर्नियर ने शाइस्ता खाँ द्वारा मँगाये गये दुर्लभ सामानों की आपूर्ति किया। इसके बाद वह गोलकुंडा और सूरत होते हुए स्वदेश लौट गया, जहाँ लुई चौदहवें ने उसे ‘उच्च कुलीन’ की उपाधि से सम्मानित किया। अपनी अंतिम यात्रा में टैवर्नियर ने बुरहानपुर, ग्वालियर, आगरा होते हुए जहानाबाद की यात्रा की और औरंगजेब तथा उसके महत्त्वपूर्ण अमीरों से भेंट की। जहानाबाद में दो महीने रुकने के बाद वह फिर आगरा होते हुए सूरत लौट गया।

टैवर्नियर बहुत लंबे समय तक भारत में रहा था। इसकी पुष्टि भारत के प्रमुख व्यापार केंद्रों के विषय में उसके द्वारा दिये गये विवरणों से भी होती है। यद्यपि एक व्यापारी होने के कारण उसने भारत में व्यापारियों, साहूकारों और सर्राफों की व्यावसायिक गतिविधियों, व्यापारिक वस्तुओं, मुद्राओं, हीरे की खानों पर ही अधिक ध्यान केंद्रित किया है और उसकी यात्राओं के विवरण प्रायः अस्पष्ट हैं, फिर भी, उसके यात्रा-विवरण ‘ट्रैवेल इन इंडिया’ से, जिसका प्रथम प्रकाशन 1676 ई. में हुआ, मुगल बादशाह शाहजहाँ और औरंगजेब के साथ-साथ समकालीन प्रमुख अमीरों, मुगल दरबार तथा मुगल शासन प्रणाली की जानकारी के लिए उसका विवरण विशेष महत्त्वपूर्ण है। हीरे का व्यापारी होने के कारण हीरा-व्यापार और खनिजों के बारे में ट्रैवर्नियर का विवरण अद्वितीय है। टेवर्नियर के विवरण से ही भारत के विश्व-प्रसिद्ध कोहिनूर हीरे के संबंध में जानकारी मिलती है।

टेवर्नियर ने समुद्री मार्गों, सिक्कों, माप-तौल, निर्यात व्यापार और यातायात के विषय में भी विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया है। कुल मिलाकर ट्रैवर्नियर का वृतांत मुगल साम्राज्य के इतिहास, विशेष रूप से आर्थिक इतिहास की जानकारी का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। उसने भारत की तुलना ईरान और ऑटोमन साम्राज्य से की है। यही नहीं, उसने अपने विवरण में हिंदू त्योहारों, उत्सव-यात्राओं, मथुरा के केशवदेव, बनारस के विश्वनाथ, पुरी के जगन्नाथ और तिरुपति मंदिर का भी दिलचस्प वर्णन किया है।

निकोलो मनुची (1654-1708 ई.)

निकोलो मनुची का जन्म वेनिस (इटली) में हुआ था। वह 14 साल की उम्र में वेनिस से भागकर एशिया माइनर और फारस की लंबी यात्रा करता हुआ भारत पहुँचा और दाराशिकोह के तोपखाने में भरती हो गया। 1659 ई. में दाराशिकोह की पराजय और मृत्यु के बाद उसने जेसुइट पादरियों से फारसी भाषा सीखी और चिकित्सा के कार्य में लग गया। उसने मुगल दरबार में एक चिकित्सक के रूप में अपनी सेवाएँ दी और वहाँ के अदब, रीति-रिवाजों, प्रशासन, धर्म और एक महान् साम्राज्य के संचालन से जुड़ी हर चीज का अवलोकन किया। बाद में, वह राजा जयसिंह और कीरतसिंह की सेवा में भी रहा। मुगल सेवा से निवृत्त होकर वह पुर्तगालियों की सेवा में चला गया। इस प्रकार चिकित्सक मनुची कभी यूरोप वापस नहीं गया और भारत में ही बस गया। मनुची का यात्रा-वृत्तांत 1705 ई. में ‘स्टोरियो डॉर मॉगोर’ (मुगल कथाएँ) के नाम से फ्रांस से प्रकाशित हुआ, जिसे ‘17वीं शताब्दी के भारत का दर्पण’ कहा जाता है।

मनुची के स्रोत और मूलाधार विश्वसनीय हैं क्योंकि वह मुगल साम्राज्य में घटने वाली अनेक घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी था, विशेषकर मुगल राजसिंहासन के लिए होनेवाले उत्तराधिकार के युद्ध का। मनुची ने दारा के साथ विश्वासघात और उसकी मृत्यु की परिस्थितियों का वर्णन किया है, और औरंगजेब की गतिविधियों का विस्तृत विवरण दिया है, जिसमें 1702 से 1704 ई. के बीच पड़े अकाल और मसुलीपट्टनम में मराठों की घुसपैठ के साथ ही उत्तर में ग्वालियर तक उनके अभियानों के विवरण भी हैं।

सत्रहवीं शताब्दी के मुगल भारत के रीति-रिवाजों और परंपराओं के बारे में मनुची की टिप्पणियाँ तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, उसने मीना बाजार, मुगल हरम और मुगल राजव्यवस्था पर शक्तिशाली महिलाओं के प्रभाव का भी तथ्यात्मक विवरण दिया है। वह राजकुमारी जहाँआरा के बारे में लिखता है कि पान पर उसके खर्च के लिए सूरत के बंदरगाह के राजस्व के अलावा 30 लाख रुपये की वार्षिक आय निर्धारित थी। मनूची के यात्रा-विवरण से ही ज्ञात होता है कि राजाराम जाट ने आगरा के समीप निर्मित बादशाह अकबर के मकबरे को लूटकर उसकी अस्थियों को जलाया था। यही नहीं, मनुची ने अपने यात्रा-विवरण में दक्षिण भारत के उद्योगों के साथ-साथ सती प्रथा का भी वर्णन किया है। यद्यपि मनुची के संस्मरण तथ्यात्मक त्रुटियों और रंगीन झूठ से भरे हुए हैं, फिर भी, सत्रहवीं शताब्दी में मुगलों और भारतीय उपमहाद्वीप के समाजार्थिक एवं सांस्कृतिक परिवेश के बारे में यूरोपीय दृष्टिकोण को समझने के लिए मनुची का लेखन-कार्य बहुत महत्त्वपूर्ण है।

फ्रांस्वा बर्नियर (1656-1717 ई.)

बर्नियर एक फ्रांसीसी डॉक्टर (फिजिशियन), राजनीतिज्ञ, दार्शनिक और इतिहासकार था, जो कई और लोगों की तरह ही वह मुग़ल साम्राज्य में अवसरों की तलाश में आया था। बर्नियर के आगमन के समय मुगल बादशाह शाहजहाँ अपने जीवन के अंतिम चरण में था और उसके चारों पुत्रों के बीच होनेवाले उत्तराधिकार युद्ध को उसने अपनी आँखों से देखा था। वह 1656 से 1668 ई. तक भारत में बारह वर्ष तक रहा और मुग़ल दरबार से नज़दीकी रूप से जुड़ा रहा, पहले दाराशिकोह के चिकित्सक के रूप में और बाद में एक आर्मीनियाई अमीर और बुद्धिजीवी मुल्ला मुहम्मद शफी यज़्दी दानिशमंद खान की सेवा में एक बुद्धिजीवी तथा वैज्ञानिक के रूप में। वह दिल्ली में उस समय मौजूद था, जब दाराशिकोह को राजधानी की सड़कों पर घुमाया जा रहा था और औरंगजेब के सैनिक उसे घसीट रहे थे। औरंगजेब का राज्याभिषेक उसके भारत-प्रवास के दौरान हुआ था। वह औरंगजेब के साथ कश्मीर यात्रा पर भी गया था। शाहजहाँ की मृत्यु के समय बर्नियर मसुलीपट्टनम् में था। इस प्रकार बर्नियर को दो प्रभावशाली मुगल शासकों के काल की घटनाओं को देखने और समझने का अवसर मिला था। बर्नियर ने शाहजहाँ तथा औरंगजेब का रेखाचित्र भी प्रस्तुत किया है।

बर्नियर ने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और जो देखा उसका विवरण दिया। उसने अपना यात्रा-विवरण ‘ट्रैवल्स इन द मुगल एंपायर’ फ्रांस के शासक लुई चौदहवें को समर्पित किया था। बर्नियर ने अपने यात्रा-विवरण में समकालीन राजनीतिक घटनाओं, हिंदुस्तान के विभिन्न भागों के निवासियों, उत्पादनों, महत्त्वपूर्ण राजनीतिक व्यक्तियों, व्यापार-वाणिज्य की स्थिति, व्यापारिक मार्गों के सरायों तथा विश्रामगृहों, भारत की ओर होने वाले सोने और चाँदी के प्रवाह, अमीर वर्ग की संरचना, काश्तकारों एवं कृषि की स्थिति, सामाजिक रीति-रिवाजों और कश्मीर के शाल उद्योग आदि का सजीव और तथ्यपूर्ण वर्णन किया है।

संभवतः बर्नियर एकमात्र ऐसा इतिहासकार है, जिसने राजकीय कारखानों की कार्यप्रणाली का विस्तृत विवरण दिया है। बर्नियर ने लाहौर की एक सुंदर अल्पवयस्क विधवा के सती के रूप में बलि दिये जाने का बहुत मार्मिक चित्रण किया है। यद्यपि बर्नियर ने प्रायः प्रत्येक दृष्टांत में भारत की स्थिति को यूरोप में हुए विकास की तुलना में दयनीय बताया है और मुगलकालीन शहरों को ‘शिविर नगर’ कहा है। फिर भी, कुल मिलाकर बर्नियर के विवरण ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण और प्रायः प्रामाणिक हैं।

इनके अलावा, फ्रेंच यात्री जीन डे थेवेनोट (1666-1668 ई.), इटालियन यात्री गेमेल्ली कैररी (1695-1696 ई.), ईस्ट इंडिया कंपनी के जॉन सरमन (1715-1717 ई.), 18वीं शताब्दी के डच यात्री स्टेवो रिसन, अंग्रेज यात्री विलियम बोल्ट्स (1767-1772 ई.) और डो (1770 ई.) के विवरणों से भी मध्यकालीन भारत के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन पर प्रकाष पड़ता है।

मध्यकालीन भारतीय इतिहास के पुरातात्त्विक स्रोत

मुगलकालीन इतिहास की महत्त्वपूर्ण जानकारी पुरातात्त्विक स्रोतों से भी मिलती है। पुरातात्त्विक स्रोतों में स्मारकों व भवनों, सिक्कों, अभिलेखों आदि की गणना की जाती हैं।

स्मारक और इमारतें

वास्तव में, खुदाई और खंडहरों से प्राप्त अवशेष इतिहास-निर्माण के एक प्रमुख स्रोत हैं। हम्पी की खुदाई से ही विजयनगर साम्राज्य की भव्यता का ज्ञान हो सका है। मध्यकालीन ऐतिहासिक स्मारकों और भवनों, जैसे- राजप्रासाद, मंदिर, मठ, किले, मस्जिद, मकबरे, घंटाघर आदि से इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायता मिलती है। इन स्मारकों से प्रचलित सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं के अलावा, श्रमिकों के वास्तुशिल्प कौशल, स्मारकों के निर्माण में प्रयुक्त सामग्री, उपयोग में आने वाले परिवहन के साधनों और स्थापत्य शैली के बारे में बहुमूल्य जानकारी मिलती है। काँचीपुरम के कैलाश मंदिर, माउंट आबू का दिलवाडा जैन मंदिर, चोल राजाओं द्वारा बनवाये गये दरासुरम के एरावतेश्वर मंदिर, गांगेयकोंडचोलपुरम के मंदिर तथा तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर और होयसल राजा विष्णुवर्धन के काल में कर्नाटक के हालेबिड नामक स्थान पर बेसर शैली में निर्मित होयसलेश्वर जैसे मंदिरों से तत्कालीन दक्षिणी भारत के अन्य राजवंशों के संबंध में राज्य की समृद्धि, धार्मिक और सामाजिक स्थिति, कला एवं स्थापत्य की जानकारी मिलती है। मथुरा, उड़ीसा और राजस्थान के मंदिरों से राजपूतकालीन स्थापत्य कला, मूर्तिकला एवं सांस्कृतिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। सल्तनत काल के प्रसिद्ध स्मारकों में कुव्वत उल-इस्लाम, अढ़ाई दिन का झोपड़ा, कुतुबमीनार, अलाई दरवाजा, हजार शितून (हजार खंभों वाला महल), सुल्तानगढ़ी का मकबरा,  बदायूं की जामा मस्जिद जैसे स्मारकों से तत्कालीन सुल्तानों की अभिरूचि के प्रमाण हैं।

मुगलकालीन की स्मारकों और इमारतों से भी तत्कालीन सामाजिक तथा सांस्कृतिक, आर्थिक जानकारी मिलती है। बाबर ने पानीपत को काबुली मस्जिद, रुहेलखंड की संभल मस्जिद का निर्माण करवाया था। हुमायूँ ने दीनपनाह नामक नगर बसाया, जिसके पुसतकालय की सीढ़ियों से गिरकी ही उसकी मृत्यु हुई थी। शेरशाह का सासाराम में स्थित मकबरा उसके व्यक्तित्व और सुदृढ़ प्रशासनिक क्षमता का प्रमाण है। अकबर ने दिल्ली में हमीदाबानो की देख-रेख में हुमायूँ का मकबरा बनवाया, जिसे ताजमहल का पूर्वगामी कहा जाता है। अकबर ने लाहौर, अजमेर, अटक, इलाबाद में आदि स्थानों पर किलों का निर्माण करवाया। इसके अलावा उसने फतेहपुर सीकरी में अनेक महलों और शेख सलीम चिश्ती का मकबरा बनवाया, जिनमें उसके द्वारा निर्मित बुलंद दरवाजा उसकी गुजरात विजय का स्मारक है। जहाँगीर के काल में सिकंदरा में अकबर का मकबरा, आगरा में एत्माद-उद्-दौला का मकबरा तथा लाहौर के शाहदरा में स्वयं का मकबरा बनवाया। शाहजहाँ को काल को स्थापत्य कला का स्वर्णकाल ही कहा जाता है, जिसने आगरा में ताजमहल और मोती मस्जिद जैसे अनेक स्मारकों के साथ-साथ दिल्ली में लालकिले का निर्माण करवाया। औरंगजेब के समय में दिल्ली की मोती मस्जिद, औरंगाबाद में रबिया-उद्-दुर्रानी का मकबरा, लाहौर की बादशाही मस्जिद का निर्माण किया गया। इन स्मारकों से मुगलकालीन शासक वर्ग के साथ-साथ आम जन-जीवन के संबंध में भी जानकारी होती है। इसके अलावा, विजयनगर के शासकों, बहमनी के सुल्तानों और मराठों द्वारा निर्मित स्मारकों भी अनेक तत्कालीन इतिहास की जानकारी के स्रोत हैं।

सिक्के

सिक्के ऐतिहासिक जानकारी के एक अन्य प्रमुख स्रोत हैं। सिक्के इतिहास के महत्त्वपूर्ण प्राथमिक स्रोत हैं, जो राजाओं के नाम, उनकी उपाधियों और चित्रों, घटनाओं, स्थानों, तिथियों, राजवंशों के साथ मिलते हैं। सिक्के प्रायः सोने, चाँदी, ताँबे या सीसे के बने होते थे। सिक्कों में धातुओं की संरचना से साम्राज्य की आर्थिक स्थिति की जानकारी मिलती है। राजा की सैन्य विजयों क्षेत्रीय विस्तार, व्यापार संबंध और धार्मिक आस्था जैसी उपलब्धियों के बारे में भी सिक्कों से महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। सिक्के प्रायः सोने, चाँदी, ताँबे या सीसे के बने होते थे। मध्यकालीन सिक्कों से तत्कालीन सुल्तानों और बादशाहों के  समय की आर्थिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। कभी-कभी सिक्कों पर राजाओं, देवताओं की आकृतियाँ, शासकों के नाम और तिथियाँ मिलती हैं। कुछ सिक्कों पर धार्मिक और पौराणिक प्रतीक अंकित होते हैं, जिससे उस समय की संस्कृति पर प्रकाश पड़ता हैं। सिक्कों से तत्कालीन व्यापार और वाणिज्य के संबंध में जानकारी के साथ-साथ लोगों के आर्थिक जीवन पर भी महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। इन सिक्कों से विभिन्न राजवंशों के इतिहास के पुनर्निर्माण में भी सहायता मिलती हैं।

तुर्कों के आगमन के साथ मध्यकालीन भारत की मुद्रा प्रणाली के इतिहास में एक नये चरण का आरंभ हुआ। प्रारंभ में तुर्कों ने पुरानी मुद्रा प्रणाली को बनाये रखा, किंतु बाद में उनका कलात्मक विकास किया। इतिहास के पुनर्निर्माण इन सिक्कों का विशेष महत्त्व रहा है क्योंकि इनसे राज्य की समृद्धि के साथ-साथ साम्राज्य विस्तार का भी ज्ञान होता है।

मुहम्मद गोरी के सोने के सिक्के 64 के थे, जिन पर लक्ष्मी की आकृति तथा देवनागरी भाषा में ‘मुहम्मद बिन साम’ अंकित मिलता है। इल्तुतमिश पहला तुर्क शासक था, जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलाये। उसने चाँदी का ‘टंका’ और ताँबे का ‘जीतल’ चलाया तथा सिक्कों पर टकसाल का नाम लिखने की प्रथा प्रारंभ की। रुकनुद्दीनशाह ने चाँदी व मिश्रित धातु के सिक्के चलवाये। रजिया ने अपने शासनकाल में चाँदी मिश्रित धातु व ताँबे के सिक्के जारी किये। सुल्तान बहरामशाह ने केवल मिश्रित धातु के सिक्के जारी किये। अलाउद्दीन खिलजी ने अपने सिक्कों पर सिकंदर अल सानी की उपाधि अंकित करवाया तथा सोने, चाँदी, ताँबा एवं मिश्रित धातुओं के सिक्के चलाये। मुहम्मद बिन तुगलक ने मुद्रा व्यवस्था में उल्लेखनीय परिवर्तन किया। उसके सिक्कों पर नवीन आख्यान व पदवियाँ अंकित हुई। सर्वप्रथम उसने ही सोने के सिक्कों पर कलमा खुदवाया। उसने दोकानी तथा ‘दीनार’ नामक स्वर्ण मुद्रा चलवाई और चाँदी का 140 ग्रेन का ‘अदली’ नामक सिक्का चलवाया। अफीफ के अनुसार फिरोज तुगलक ने ताँबा व चाँदी के सिक्के चलवाये। सुल्तान बहलोल लोदी ने जीतल के स्थान पर ‘बहलोली’ नामक सिक्का जारी किया, जो मुगल बादशाह अकबर के समय तक विनिमय का माध्यम बना रहा।

मुगलकालीन की मुद्रा प्रणाली अत्यंत सुव्यवस्थित थी। इस समय सोने, चाँदी और ताँबे, तीनों धातुओं के सिक्कों का निर्माण किया गया। बाबर ने काबुल में चाँदी का ‘शाहरुख’ तथा कंधार में ‘बाबरी’ नामक सिक्का चलाया। शेरशाह ने मिश्रित मुद्रा बंदकर शुद्ध सोने, चाँदी एवं ताँबे के सिक्कों का प्रचलन किया। उसने सोने के सिक्के अशरफ, चाँदी का रुपया तथा ताँबे का दाम नामक सिक्कों का प्रचलन किया। चाँदी का ‘रुपया’ सर्वप्रथम शेरशाह ने जारी किया था। जनता का आम सिक्का दाम था। अबुल फजल के अनुसार से 1575 ई. में (अकबर के समय) ताँबे के सिक्के के लिए 42, चाँदी के लिए 14 तथा सोने के सिक्कों की मुहरों के लिए चार टकसालें थी। अकबर ने सोने का सिक्का ‘मोहर’ चलाया, जो तत्कालीन आर्थिक समृद्धि का परिचायक है। इस प्रकार सिक्के न केवल साम्राज्य-विस्तार की जानकारी के लिए, बलिक साम्राज्य का आर्थिक समृद्धि, व्यापार-वाणिज्य की स्थिति, शासकों की धार्मिक अभिरूचि, कला आदि पर प्रकाश पड़ता है।

अभिलेख

आरंभिक मध्यकाल के के इतिहास के संबंध में पालो, प्रतिहारों, चाहमानों, चोलों, पांड्यों और विजयनगर राजाओं के अभिलेख मिलते हैं, जो बहुमूल्य ऐतिहासिक तथ्य प्रदान करते हैं। अभिलेख प्रायः पत्थरों, धातुपत्रों, भवनों, मठों या मंदिरों की दीवारों पर लिखे गये हैं। कभी-कभी मुहरों और ताम्रपत्रों पर भी इनका अंकन मिलता है। कुछ अभिलेख राजाओं की प्रशस्ति के रूप में मिलते हैं, जो प्रायः दरबारी कवियों द्वारा लिखे गये हैं और कुछ अभिलेख राजकीय उद्घोषणाओं, आज्ञाओं, दान या स्मारक के रूप में भी मिलते हैं। अधिकांश अभिलेखों मे शासकों के नाम और तिथियों का उल्लेख मिलता है, जिनसे राजाओं के वंशक्रम, तिथि के साथ-साथ तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है। अजमेर के अढाई दिन के झोपड़ा मस्जिद की दीवारों और सीढ़ियों पर चौहान शासक विग्रहराज चतुर्थ द्वारा रचित नाटक ‘हरिकेलि’ के कुछ अंश उदधृत हैं, जिनसे पता चलता है कि इस मस्जिद के निर्माण में अनेक मंदिरों की भूमि का इस्तेमाल किया गया था और यह चाहमान नरेश द्वारा स्थापित संस्कृत विद्यालय था, जिस पर कुत्बुद्दीन ऐबक ने मस्जिद का निर्माण करवाया था। बलबन के समय में प्राप्त पालम बावली अभिलेख में दिल्ली का एक नाम ‘मोगिनीपुर’ मिलता है। अलाउद्दीन खिलजी के समय के अभिलेख में उसे ‘विश्वविजेता’ और ‘जनता का चरवाहा’ कहा गया है। मुहम्मद बिन तुगलक को एक अभिलेख में ‘विश्व का सुल्तान’ बताया गया है तथा उसकी उपाधि ‘जौना खाँ’ भी मिलती है। मुगलकाल में अनेक पुरालेख उनके स्मारकों पर मिलते हैं, जैसे दिल्ली के लालकिले में दीवान-ए-खास की छत पर यह पंक्ति अंकित है कि ‘यदि धरती पर कही स्वर्ग है, तो यहीं है।’

इस प्रकार मध्यकालीन भारतीय इतिहास की जानकरी के लिए र्प्याप्त मात्रा में साहित्यिक और पुरातात्त्विक सामग्री उपलब्ध है, जो इतिहास-लेखन की दृष्टि से उपयोगी हैं।

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