सल्तनत की स्थापना भारतीय इतिहास में युगांतकारी घटना थी। इस्लाम की स्थापना के परिणामस्वरूप अरब और मध्य एशिया में हुए धार्मिक और राजनीतिक परिवर्तनों ने जिस प्रसारवादी गतिविधियों को प्रोत्साहित किया, दिल्ली सल्तनत की स्थापना उसी का परिणाम थी। दिल्ली सल्तनत का काल 1206 ई. से प्रारंभ होकर 1526 ई. तक रहा। 320 वर्षों के इस लंबे काल में भारत में मुस्लिमों का शासन व्याप्त रहा। दिल्ली सल्तनत पर निम्नलिखित पांच वंशों का शासन रहा—
- मामलूक अथवा गुलाम वंश (1206 से 1290 ई.)
- खिलजी वंश (1290 से 1320 ई.)
- तुगलक वंश (1320 से 1414 ई.)
- सैय्यद वंश (1414 से 1451 ई.)
- लोदी वंश (1451 से 1526 ई.)
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Toggleमामलूक अथवा गुलाम वंश (1206-1290 ई.)
गुलाम वंश मध्यकालीन भारत का एक राजवंश था। इस वंश का संस्थापक और पहला शासक कुतुबुद्दीन ऐबक था, जिसे मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराने के बाद अपने भारतीय प्रदेशों की सुरक्षा के निमित्त नियुक्त किया था। इस वंश ने दिल्ली की सत्ता पर करीब 84 वर्षों तक (1206-1290 ई.) राज किया तथा भारत में इस्लामी शासन की नींव डाली। इससे पूर्व किसी भी मुस्लिम शासक ने भारत में लंबे समय तक प्रभुत्व कायम नहीं किया था। इसी समय चंगेज खाँ के नेतृत्व में भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र पर मंगोलों का आक्रमण भी हुआ।
नामकरण
आरंभिक तुर्क सुल्तानों को गुलाम वंश, ममलूक वंश आदि कई नामों से जाना जाता है। दिल्ली के तीन सुल्तान—कुतुबुद्दीन, इल्तुतमिश और बलबन—गुलाम रह चुके थे, इसलिए इस वंश को गुलाम वंश कहा जाता है। इनमें इल्तुतमिश और बलबन शासक बनने से पूर्व ही गुलामी से मुक्त हो गए थे। कुछ इतिहासकार इस वंश को ममलूक वंश कहते हैं। ‘ममलूक’ उन दासों को कहा जाता है, जो स्वतंत्र माता-पिता के पुत्र होते हैं। ममलूक शब्द उन दासों के लिए भी प्रयुक्त होता है जो घरेलू सेवा में नहीं, वरन सैनिक सेवा में लगाए जाते थे, किंतु ममलूक वंश नामकरण उचित नहीं लगता है। इनका एक तीसरा नाम प्रारंभिक तुर्की वंश है, किंतु यह नाम भी उचित नहीं लगता क्योंकि इसके बाद भारत में फिर किसी तुर्की वंश की स्थापना नहीं हुई। इस वंश के शासक या संस्थापक गुलाम (दास) थे न कि राजा या राजकुमार। इसलिए इस वंश को ‘गुलाम वंश’ कहना ही उचित लगता है।
कुतुबुद्दीन ऐबक
कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान एवं गुलाम वंश का स्थापक था। उसने केवल चार वर्ष ही शासन किया। वह एक बहुत ही प्रतिभाशाली सैनिक था जो दास होकर सैन्य-अभियानों में सुल्तान मुहम्मद गोरी का सहायक रहा और फिर दिल्ली का सुल्तान बन गया।
कुतुबुद्दीन ऐबक का आरंभिक जीवन
कुतुबुद्दीन ऐबक का जन्म तुर्किस्तान में हुआ था और वह एक तुर्क जनजाति का व्यक्ति था। उसके माता-पिता तुर्क थे। ऐबक एक तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ होता है—‘चंद्रमा का देवता’। तुर्किस्तान क्षेत्र में उस समय दास व्यापार का प्रचलन था। दासों को उचित शिक्षा और प्रशिक्षण देकर उन्हें राजा के हाथ फरोख्त (बेचना) करना एक लाभदायक धंधा था। बालक कुतुबुद्दीन इसी व्यवस्था का शिकार हुआ। बचपन में ही वह अपने परिवार से बिछुड़ गया और उसे एक व्यापारी द्वारा निशापुर के बाजार में ले जाया गया, जहाँ काजी फखरुद्दीन अजीज कूफी (जो इमाम अबू हनीफ के वंशज थे) ने उसे खरीद लिया। काजी ने अपने पुत्र की भाँति ऐबक की परवरिश की तथा उसके लिए धनुर्विद्या और घुड़सवारी की सुविधाएँ उपलब्ध कराईं। अब्दुल अजीज ने बालक कुतुब को अपने पुत्र के साथ सैन्य और धार्मिक प्रशिक्षण दिया।
कुतुबुद्दीन ऐबक बाल्यकाल से ही प्रतिभा का धनी था, इसलिए उसने शीघ्र ही सभी कलाओं में कुशलता प्राप्त कर ली। उसने अत्यंत सुरीले स्वर में कुरान पढ़ना सीख लिया, इसलिए वह ‘कुरान खाँ’ (कुरान का पाठ करनेवाला) के नाम से प्रसिद्ध हो गया। कुछ समय बाद जब काजी की भी मृत्यु हो गई, तो उसके पुत्रों ने उसे एक व्यापारी के हाथ बेच दिया, जो उसे गजनी ले गया, जहाँ मुहम्मद गोरी ने खरीद लिया। यहीं से ऐबक के जीवन का एक नया अध्याय आरंभ हुआ, जिसमें अंत में वह दिल्ली का सुल्तान बना। इस प्रतिभाशाली सैनिक ने दास होकर भी सुल्तान मुहम्मद गोरी के सैन्य अभियानों में सहायता की और फिर दिल्ली का सुल्तान बन गया।
अपनी ईमानदारी, बुद्धिमानी और स्वामिभक्ति के बल पर कुतुबुद्दीन ने मुहम्मद गोरी का विश्वास प्राप्त कर लिया था। गोरी ने ऐबक के साहस, कर्तव्यनिष्ठा तथा स्वामिभक्ति से प्रभावित होकर उसे शाही अस्तबल का अध्यक्ष अमीर-ए-आखूर (अस्तबलों का प्रधान) नियुक्त किया था।
ऐबक के शासनकाल का विभाजन
कुतुबुद्दीन ऐबक के शासनकाल को तीन भागों में बाँटा जा सकता है—1191 से 1206 ई. की अवधि को सैनिक गतिविधियों की अवधि कहा जा सकता है। इस अवधि में ऐबक ने न केवल गोरी के सैन्य-अभियानों में भाग लिया, बल्कि गोरी द्वारा विजित प्रदेशों पर शासन भी किया। 1206 से 1208 ई. तक की अवधि में ऐबक ने गोरी के भारतीय सल्तनत में मलिक एवं सिपहसालार की हैसियत से राजनीतिक कार्य किया। किंतु 1208 से 1210 ई. की अवधि में ऐबक का अधिकांश समय दिल्ली सल्तनत की रूपरेखा बनाने में व्यतीत किया।
ऐबक ने गोरी के सहायक के रूप में कई क्षेत्रों पर सैन्य-अभियान में हिस्सा लिया। 1192 ई. में ऐबक ने तराइन के दूसरे युद्ध में अपने स्वामी की महत्वपूर्ण सेवा की जिससे खुश होकर मुइजुद्दीन गजनी वापस लौट गया और भारत के विजित क्षेत्रों का शासन अपने विश्वनीय गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक के हाथों में छोड़ गया। अगले दो वर्षों में ऐबक ने ऊपरी दोआब में मेरठ, बरन तथा कोइल (आधुनिक अलीगढ़) पर कब्जा किया। इस क्षेत्र के शक्तिशाली डोर-राजपूतों ने ऐबक का मुकाबला किया, लेकिन आश्चर्य की बात है कि गहड़वालों को तुर्की आक्रमण से सबसे अधिक नुकसान का खतरा था और उन्होंने न तो डोर-राजपूतों की कोई सहायता की और न ही तुर्कों को इस क्षेत्र से बाहर निकालने का कोई प्रयास ही किया।
मुइजुद्दीन मुहम्मद गोरी 1194 ई. में भारत वापस आया। वह पचास हजार घुड़सवारों के साथ यमुना को पारकर कन्नौज की ओर बढ़ा। इटावा जिले में कन्नौज के निकट चंदावर में मुइजुद्दीन गोरी और गहड़वाल शासक जयचंद के बीच 1194 ई. में भीषण लड़ाई हुई जिसमें जयचंद पराजित हुआ और मारा गया। तराइन और चंदावर के युद्धों के परिणामस्वरूप उत्तर भारत में तुर्की साम्राज्य की नींव पड़ी। ऐबक ने 1195 ई. में कोइल (अलीगढ़) को जीत लिया। 1196 ई. में अजमेर के मेदों ने विद्रोह किया, जिसमें गुजरात के शासक भीमदेव का हाथ था। मेदों ने कुतुबुद्दीन के प्राण संकट में डाल दिए, पर उसी समय मुहम्मद गोरी के आगमन की सूचना आने से मेदों ने घेरा उठा लिया और ऐबक बच गया।
1197 ई. में ऐबक ने गुजरात की राजधानी अन्हिलवाड़ा को लूटा तथा अकूत धन लेकर वहाँ के शासक भीमदेव द्वितीय को दंडित किया। 1202-03 ई. में उसने चंदेल राजा परमर्दिदेव को पराजित कर कालिंजर, महोबा और खजुराहो पर अधिकार कर अपनी स्थिति मजबूत की। 1205 ई. में उसने खोखरों के विरुद्ध मुहम्मद गोरी का हाथ बँटाया। इसी समय गोरी के एक अन्य सहायक सेनापति बख्तियार खिलजी ने बंगाल और बिहार पर अधिकार किया।
इस प्रकार 1206 ई. में मुइजुद्दीन मुहम्मद गोरी की मृत्यु के समय तक तुर्कों ने अपने विशिष्ट प्रयासों से बंगाल में लखनौती तक, राजस्थान में अजमेर और रणथंभौर तक, दक्षिण में उज्जैन की सीमाओं तक एवं सिंध में मुल्तान और उच तक अपने शासन का विस्तार कर लिया था।
ऐबक का सिंहासनारोहण
अपनी मृत्यु के पूर्व मुहम्मद गोरी ने अपने उत्तराधिकारी के संबंध में कोई घोषणा नहीं की थी। उसे शाही खानदान की बजाय अपने तुर्क दासों पर अधिक विश्वास था। गोरी के दासों में ऐबक के अतिरिक्त गयासुद्दीन महमूद, ताजुद्दीन यल्दौज, नासिरुद्दीन कुबाचा और अली मर्दान प्रमुख थे। गोरी ने ऐबक को ‘मलिक’ की उपाधि अवश्य दी थी, किंतु उसे सभी सरदारों का प्रमुख बनाने का निर्णय नहीं लिया था।
मुहम्मद गोरी के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए गोरी की मृत्यु के बाद लाहौर की जनता ने उसके प्रतिनिधि कुतुबुद्दीन ऐबक को लाहौर पर शासन करने का निमंत्रण दिया। ऐबक ने लाहौर पहुँचकर 1206 ई. में अपना राज्याभिषेक करवाया। सिंहासनारूढ़ होने के बाद ऐबक ने सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की और अपने को ‘मलिक एवं सिपहसालार’ की पदवी से ही संतुष्ट रखा। उसने अपने नाम से न तो कोई सिक्का जारी करवाया और न कभी खुतबा पढ़वाया। इसका कारण यह था कि अन्य गुलाम सरदार यल्दौज और कुबाचा उससे ईर्ष्या रखते थे। कुछ समय बाद मुहम्मद गोरी के उत्तराधिकारी गयासुद्दीन मुहम्मद ने ऐबक को सुल्तान स्वीकार कर लिया और ऐबक को 1208 ई. में दासता से मुक्ति मिल गई।
ऐबक की समस्याएँ और समाधान
सिंहासन पर बैठने के समय ऐबक को बाहरी एवं आंतरिक दोनों ही समस्याओं का सामना करना पड़ा। यद्यपि तुर्कों ने बंगाल तक के क्षेत्र को रौंद डाला था, फिर भी अभी उनकी सर्वोच्चता संदिग्ध थी। सबसे पहले ऐबक को सत्ताच्युत शासकों, विशेषकर राजस्थान और बुंदेलखंड एवं निकटवर्ती क्षेत्रों जैसे बयाना और ग्वालियर के राजपूत सरदारों द्वारा अपने पूर्व राजक्षेत्रों की पुनर्प्राप्ति के लिए किए जाने वाले प्रयासों से निपटना था। दूसरे कुछ तुर्की अमीरों ने अपनी अलग स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने की कोशिश की। बंगाल में बख्तियार खिलजी की मृत्यु के बाद अली मर्दान ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी तथा ऐबक के स्वामित्व को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। इस प्रकार लखनौती और बिहार ने दिल्ली के नियंत्रण से मुक्त रखने का प्रयास किया। मुल्तान और सिंध में भी प्रबल अलगाववादी प्रवृत्तियाँ विद्यमान थीं। लाहौर में मुइजुद्दीन के प्रतिनिधि ऐबक ने सत्ता संभाली, वहीं गोरी के एक अन्य दास कुबाचा ने मुल्तान और उच पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया, जबकि यल्दौज पंजाब पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास कर रहा था।
ऐबक की उपलब्धियाँ
वैवाहिक संबंध
ऐबक ने इन सभी समस्याओं का डटकर सामना किया। यही कारण है कि कुतुबुद्दीन का शासनकाल केवल युद्धों में ही बीत गया। ऐबक ने मुहम्मद गोरी के अन्य उत्तराधिकारियों गयासुद्दीन मुहम्मद, ताजुद्दीन यल्दौज एवं नासिरुद्दीन कुबाचा जैसे विद्रोहियों को शांत करने के लिए वैवाहिक संबंधों को आधार बनाया। उसने ताजुद्दीन यल्दौज (गजनी का शासक) की पुत्री से अपना विवाह किया और नासिरुद्दीन कुबाचा (मुल्तान एवं सिंध का शासक) से अपनी बहन का। उसने अपने गुलाम इल्तुतमिश से अपनी पुत्री का विवाह अपनी स्थिति सुदृढ़ की। इन वैवाहिक संबंधों के कारण यल्दौज तथा कुबाचा की ओर से विद्रोह का संकट कम हो गया।
ऐबक तुर्की राज्य का संस्थापक
कालांतर में गोरी के उत्तराधिकारी गयासुद्दीन ने ऐबक को सुल्तान के रूप में स्वीकार करते हुए 1208 ई. में सिंहासन, छत्र, राजकीय पताका एवं नक्कारा भेंट किया। इस तरह ऐबक एक स्वतंत्र शासक के रूप में तुर्की राज्य का संस्थापक बना।
ऐबक की विजयें
दोआब को अपना आधार बनाकर तुर्कों ने आसपास के क्षेत्रों पर आक्रमण आरंभ कर दिया था। ऐबक ने गोरी की मृत्यु के बाद स्वतंत्र हुए बदायूँ को पुनः जीता और इल्तुतमिश को वहाँ का प्रशासक नियुक्त किया। ऐबक अपनी असामयिक मृत्यु के कारण कालिंजर और ग्वालियर को पुनः अपने अधिकार में नहीं ला सका। इस समय उसने स्वतंत्र भारतीय प्रदेश पर स्वतंत्र शासक के रूप में शासन किया।
ऐबक का मूल्यांकन
ऐबक को अपनी उदारता एवं दानी प्रवृत्ति के कारण ‘लाखबख्श’ (लाखों का दानी अर्थात् लाखों का दान करनेवाला) कहा गया है। इतिहासकार मिन्हाज ने उसकी दानशीलता के कारण ही उसे ‘हातिम द्वितीय’ की संज्ञा दी है। फरिश्ता के अनुसार उस समय केवल किसी दानशील व्यक्ति को ही ऐबक की उपाधि दी जाती थी। बचपन में ही ऐबक ने कुरान के अध्यायों को कंठस्थ कर लिया था और अत्यंत सुरीले स्वर में इसका उच्चारण करता था। इस कारण ऐबक को कुरान खाँ कहा जाता था। उसके दरबार में विद्वान हसन निजामी एवं फख्र-ए-मुदब्बिर को संरक्षण प्राप्त था। हसन निजामी ने ‘ताज-उल-मासिर’ की रचना की थी।
साहित्य एवं स्थापत्य कला में भी ऐबक की रुचि थी। उसने दिल्ली में विष्णु मंदिर के स्थान पर कुव्वत-उल-इस्लाम तथा अजमेर में संस्कृत विद्यालय के स्थान पर ढाई दिन का झोपड़ा जैसी मस्जिदों का निर्माण करवाया। कुतुबमीनार, जिसे ‘शेख ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी’ की स्मृति में बनवाया गया है, के निर्माण-कार्य को प्रारंभ करवाने का श्रेय कुतुबुद्दीन ऐबक को ही है। अपने शासन के चार वर्ष बाद 1210 ई. में लाहौर में चौगान (पोलो) खेलते समय घोड़े से गिरने के कारण ऐबक की मृत्यु हो गई। उसका मकबरा लाहौर में है।
आरामशाह (1210-11 ई.)
अकस्मात् मृत्यु के कारण कुतुबुद्दीन ऐबक अपने किसी उत्तराधिकारी का चुनाव नहीं कर सका था। अतः लाहौर के तुर्क अधिकारियों ने कुतुबुद्दीन ऐबक के विवादित पुत्र आरामशाह को लाहौर में 1210 ई. में सुल्तान घोषित कर दिया। यह संदिग्ध है कि वह ऐबक का पुत्र था। विद्वानों का अनुमान है कि वह ऐबक का पुत्र नहीं, वरन् उसका प्रिय व्यक्ति था। अब्दुल्ला वस्साफ ने लिखा है कि कुतुबुद्दीन के कोई पुत्र नहीं था। अबुल फजल के मतानुसार आरामशाह कुतुबुद्दीन ऐबक का भाई था। इतिहासकार मिन्हाज-उस-सिराज ने भी लिखा है कि लाहौर के अमीरों ने केवल शांति और सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए आरामशाह को सिंहासन पर बैठाया था। आरामशाह ने ‘मुजफ्फर सुल्तान महमूदशाह’ की उपाधि धारण कर अपने नाम के सिक्के चलवाए। किंतु आरामशाह में सुल्तान के गुण नहीं थे। सल्तनत की स्थिति भी संकटग्रस्त थी और आरामशाह के लिए स्थिति को संभालना दुष्कर काम था।
दिल्ली के अमीरों ने बदायूँ के इक्तादार इल्तुतमिश को, जो ऐबक का दामाद और एक योग्य एवं प्रतिभाशाली गुलाम था, दिल्ली के सिंहासन पर बैठने के लिए आमंत्रित किया। इल्तुतमिश ने अपनी सेना के साथ बदायूँ से दिल्ली की ओर कूच कर दिया। अमीरों ने इल्तुतमिश का स्वागत किया। इल्तुतमिश ने जनवरी 1211 ई. में ‘जूद के युद्ध’ में आरामशाह को हराकर दिल्ली पर अधिकार लिया। इस प्रकार आरामशाह मात्र छह महीने ही शासन कर सका।
शम्सुद्दीन इल्तुतमिश (1210-1236 ई.)
इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत में गुलाम वंश का एक प्रमुख शासक था। उसका पूरा नाम शम्सुद्दीन इल्तुतमिश था। यह उन शासकों में से था जिससे दिल्ली सल्तनत की नींव मजबूत हुई। वह इल्बारी कबीले का तुर्क था तथा उसका पिता इस्लाम खान अपने कबीले का प्रधान था। उसके भाइयों ने ईर्ष्यावश इसे बुखारा के एक व्यापारी के हाथ बेच दिया था। बुखारा के व्यापारी से जमालुद्दीन ने इल्तुतमिश को खरीद लिया और इसके बाद उसे ऐबक ने खरीद लिया।
ऐबक इल्तुतमिश के गुणों से अत्यधिक प्रभावित था। वह उसे अपना पुत्र कहता था। उसने अपनी तीन कन्याओं में से एक का विवाह उसके साथ कर दिया। इस प्रकार वह ऐबक का दामाद भी था। खोखरों के विरुद्ध इल्तुतमिश की कार्य-कुशलता से प्रभावित होकर मुहम्मद गोरी ने उसे ‘अमीर-उल-उमरा’ नामक महत्वपूर्ण पद प्रदान किया था। कुतुबुद्दीन की मृत्यु के समय वह बदायूँ का सूबेदार था। आकस्मिक मृत्यु के कारण कुतुबुद्दीन ऐबक अपने उत्तराधिकारी का चुनाव नहीं कर सका था। लाहौर के तुर्क अधिकारियों ने कुतुबुद्दीन ऐबक के विवादित पुत्र आरामशाह को लाहौर की गद्दी पर बैठा दिया, किंतु दिल्ली के तुर्क सरदारों एवं नागरिकों के विरोध के फलस्वरूप कुतुबुद्दीन ऐबक के दामाद इल्तुतमिश, जो उस समय बदायूँ का सूबेदार था, को दिल्ली आमंत्रित किया गया। आरामशाह एवं इल्तुतमिश के बीच दिल्ली के निकट जूद नामक स्थान पर संघर्ष हुआ, जिसमें आरामशाह को बंदी बनाकर बाद में उसकी हत्या कर दी गई और इस तरह ऐबक वंश के बाद इल्बारी वंश का शासन प्रारंभ हुआ।
इल्तुतमिश की प्रारंभिक समस्याएँ
दिल्ली के सिंहासन पर आसीन होने के समय इल्तुतमिश के समक्ष निम्नलिखित समस्याएँ थीं—
तुर्क सरदारों का विरोध
सुल्तान का पद प्राप्त करने के बाद इल्तुतमिश को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। राज्याभिषेक के समय से ही अनेक तुर्क अमीर इल्तुतमिश का विरोध कर रहे थे। कुतुबी और मुइज्जी अमीर इल्तुतमिश को सिंहासन से हटाकर स्वयं गद्दी पर बैठने के लिए तत्पर थे। इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम ‘कुतबी’ अर्थात् कुतुबुद्दीन ऐबक के समय के सरदार तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद गोरी के समय के सरदारों के विद्रोह का सामना करना पड़ा।
इल्तुतमिश के प्रतिद्वंद्वी
गोरी के दो अन्य दास ताजुद्दीन यल्दौज तथा नासिरुद्दीन कुबाचा इल्तुतमिश के दो प्रबल प्रतिद्वंद्वी थे। यल्दौज दिल्ली को गजनी का अंग मानता था और उसे गजनी में मिलाने की कोशिश कर रहा था जबकि ऐबक तथा उसके बाद इल्तुतमिश अपने आपको स्वतंत्र मानते थे। कुबाचा ने पंजाब तथा उसके आसपास के क्षेत्रों पर अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी।
इसी समय मंगोलों के आक्रमण के कारण इल्तुतमिश का ध्यान कुबाचा पर से तत्काल हट गया, पर बाद में कुबाचा को एक युद्ध में उसने परास्त किया। चंगेज खाँ के आक्रमण के बाद इल्तुतमिश ने एक बार फिर बिहार तथा बंगाल को अपने अधीन कर लिया। 1215 से 1217 ई. के बीच इल्तुतमिश को अपने दोनों प्रबल प्रतिद्वंद्वियों—यल्दौज और नासिरुद्दीन कुबाचा से संघर्ष करना पड़ा। 1215 ई. में इल्तुतमिश ने यल्दौज को तराइन के मैदान में पराजित किया। उसकी हार के बाद गजनी के किसी शासक ने दिल्ली की सत्ता पर अपना दावा पेश नहीं किया।
राजपूत राजाओं का विरोध
हिंदू राजपूत शासक अपनी स्वतंत्रता के लिए तड़प रहे थे। आरामशाह के सिंहासनारूढ़ होने पर साम्राज्य में फैली अराजकता का लाभ उठाकर चौहान, चंदेल तथा प्रतिहार राजपूत राजा स्वतंत्र हो गए थे और वे मुस्लिम साम्राज्य को समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील थे।
असंगठित और दुर्बल राज्य
वास्तव में कुतुबुद्दीन ऐबक ने जिस साम्राज्य का निर्माण किया था, उसे वह अपने अल्प शासनकाल में सुव्यवस्थित नहीं कर पाया था। ऐसे अव्यवस्थित और दुर्बल साम्राज्य को स्थायी बनाना भी इल्तुतमिश के लिए एक जटिल चुनौती थी।
सीमा-सुरक्षा की समस्या
इल्तुतमिश के समक्ष उत्तर-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा की समस्या तथा खोखर जाति के विद्रोह की समस्या और भी अधिक प्रबल थी। मंगोल आक्रमणकारी चंगेज खान के आक्रमणों का भय भी निरंतर बढ़ता जा रहा था।
इल्तुतमिश की उपलब्धियाँ
इल्तुतमिश बहुत वीर और धैर्यवान सुल्तान था। वह विकट परिस्थितियों में भी हार मानकर बैठने वाला नहीं था। वह शीघ्र ही दृढ़ता एवं तत्परता के साथ इस संकटापन्न स्थिति को निश्चयात्मक रूप से सुलझा देने के लिए जुट गया और अपनी समस्याओं का समाधान किया।
अमीरों का दमन
तुर्की अमीर सरदार उसे एक शासक के रूप में स्वीकार करने के लिए राजी नहीं थे, अतः सर्वप्रथम इल्तुतमिश ने उनका दमन करके उन्हें दूरस्थ स्थानों पर भेज दिया। इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम ‘कुतबी’ अर्थात् कुतुबुद्दीन ऐबक के समय के सरदार तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद गोरी के समय के सरदारों के विद्रोह का दमन किया।
‘तुर्कान-ए-चिहलगानी’ का निर्माण
इल्तुतमिश ने विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने स्वामिभक्त और विश्वासपात्र गुलामों में से चालीस योग्य एवं बुद्धिमान गुलामों का एक संगठित दल या गुट बनाया जो इतिहास में ‘तुर्कान-ए-चिहलगानी’ या चालीसा के नाम से प्रसिद्ध है। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है। उसने प्रशासन के सभी महत्वपूर्ण पदों पर इन्हीं सरदारों को नियुक्त किया।
ताजुद्दीन यल्दौज का दमन
इल्तुतमिश का प्रबल प्रतिद्वंद्वी यल्दौज गजनी का शासक था। 1215 ई. में ख्वारिज्म के शाह ने उसे गजनी से भागने पर विवश कर दिया। उसने भारत आकर अवसर पाकर पश्चिमी पंजाब पर अपना अधिकार जमा लिया। इल्तुतमिश को यह सहन नहीं हुआ। 1216 ई. (15 फरवरी) को एक बार फिर तराइन के मैदान में इल्तुतमिश तथा उसके प्रतिद्वंद्वी सरदार यल्दौज में एक निर्णायक युद्ध हुआ जिसमें इल्तुतमिश की विजय हुई और उसका दिल्ली की गद्दी पर अधिकार मजबूत हो गया। यल्दौज को बंदी बनाकर बदायूँ के दुर्ग में रखा, जहाँ उसकी मृत्यु हो गई।
कुबाचा का दमन
नासिरुद्दीन कुबाचा ऐबक का बहनोई एवं गोरी का एक महत्वपूर्ण गुलाम था, इसलिए वह इल्तुतमिश को पसंद नहीं करता था। कुबाचा ने पंजाब तथा उसके आसपास के क्षेत्रों पर अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी। 1217 ई. में इल्तुतमिश ने कुबाचा पर आक्रमण किया। कुबाचा बिना युद्ध किए भाग गया। इल्तुतमिश उसका पीछा करते हुए मंसूरा नामक जगह पर पहुँचा, जहाँ पर उसने कुबाचा को पराजित किया और कुबाचा से लाहौर छीन लिया। किंतु कुबाचा की पूरी तरह दमन नहीं किया जा सका और पर सिंध, मुल्तान, उच तथा सिंध-सागर दोआब पर कुबाचा का नियंत्रण बना रहा।
कालांतर में कुबाचा ने ख्वारिज्म के शाह को पराजित कर अपनी शक्ति में वृद्धि कर ली। इल्तुतमिश ने 1228 ई. में उच पर अधिकार कर कुबाचा से बिना शर्त आत्मसमर्पण के लिए कहा। कुबाचा पराजित होकर भागा और अंत में उसने सिंधु नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। इस तरह इन दोनों प्रबल विरोधियों का अंत हुआ।
राजपूतों पर विजय
इल्तुतमिश के समय में ही अवध में पृथू विद्रोह हुआ। इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम 1210 ई. में रणथंभौर को जीता तथा 1227 ई. में परमारों की राजधानी मांडोर पर अधिकार कर लिया। 1231 ई. में इल्तुतमिश ने ग्वालियर के किले पर घेरा डालकर वहाँ के शासक मंगलदेव (मलयवर्मन देव) को पराजित किया। 1233 ई. में चंदेलों के विरुद्ध एवं 1234-35 ई. में उज्जैन एवं भिलसा के विरुद्ध उसका अभियान सफल रहा। तत्पश्चात् इल्तुतमिश ने कालिंजर, नागौर, बयाना, अजमेर, चित्तौड़ और गुजरात आदि के राजाओं पर विजय प्राप्त की। उसने नागदा के गुहिलोतों और गुजरात चालुक्यों पर भी आक्रमण किया, किंतु सफलता नहीं मिली। बयाना पर आक्रमण करने के लिए जाते समय रास्ते में इल्तुतमिश बीमार हो गया और अंततः अप्रैल 1235 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
मंगोल आक्रमण से सल्तनत की रक्षा
चंगेज खान मध्य एशिया का क्रूर और बर्बर मंगोल नेता था। चंगेज खान के नेतृत्व में मंगोल आक्रमणकारी ख्वारिज्म शाह के पुत्र जलालुद्दीन मांगबर्नी का पीछा करते हुए लगभग 1220-21 ई. में सिंध तक आ गए। उसने इल्तुतमिश को संदेश भेजा कि वह मांगबर्नी की मदद न करें। इल्तुतमिश ने मंगोल जैसे शक्तिशाली आक्रमणकारी से बचने के लिए और चंगेज खान की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए जलालुद्दीन मांगबर्नी की कोई सहायता नहीं की और उसे अपने यहाँ शरण देने से विनम्रतापूर्वक इनकार कर दिया। 1228 ई. में मांगबर्नी के भारत से वापस जाने पर मंगोल आक्रमण का भय टल गया। इस प्रकार इल्तुतमिश ने अपनी दूरदर्शिता के कारण मंगोल आक्रमण से अपने साम्राज्य की रक्षा की। अंत में चंगेज खान भारत पर आक्रमण किए बिना ही वापस लौट गया।
बंगाल विजय
कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद अली मर्दान ने बंगाल में अपने को स्वतंत्र सुल्तान घोषित कर लिया तथा ‘अलाउद्दीन’ की उपाधि ग्रहण की। दो वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद उसका पुत्र हिसामुद्दीन इवाज उत्तराधिकारी बना। उसने बिहार, कामरूप, तिरहुत एवं जाजनगर आदि पर अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ‘गयासुद्दीन आजम’ की उपाधि धारण की, अपने नाम के सिक्के चलाए और ‘खुतबा’ पढ़वाया।
1225 ई. में इल्तुतमिश ने बंगाल में स्वतंत्र शासक हिसामुद्दीन इवाज के विरुद्ध अभियान छेड़ा। इवाज ने बिना युद्ध के ही उसकी अधीनता स्वीकार कर ली, पर इल्तुतमिश के पुनः दिल्ली लौटते ही उसने फिर से विद्रोह कर दिया। इस बार इल्तुतमिश के पुत्र नासिरुद्दीन महमूद ने 1226 ई. में लगभग उसे पराजित कर लखनौती पर अधिकार कर लिया। दो वर्ष के उपरांत नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के बाद मलिक इख्तियारुद्दीन बल्का खिलजी ने बंगाल की गद्दी पर अधिकार कर लिया। 1230 ई. में इल्तुतमिश ने इस विद्रोह को दबाया। संघर्ष में बल्का खिलजी मारा गया और इस बार एक बार फिर बंगाल दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया।
इल्तुतमिश की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
वैध सुल्तान एवं उपाधि
इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत को उत्तराधिकार में नहीं, वरन् अपने बाहुबल से प्राप्त किया था, इसलिए शांति एवं व्यवस्था को स्थापित करने के उद्देश्य से उसने बगदाद के अब्बासी खलीफा अल-मुस्तसिम बिल्लाह से 1229 ई. में दिल्ली का सुल्तान होने का प्रमाण-पत्र माँगा। फरवरी 1229 ई. में बगदाद के खलीफा ने इल्तुतमिश को सम्मान में ‘खिलअत’ एवं प्रमाण-पत्र प्रदान किया। साथ ही खलीफा ने इल्तुतमिश को ‘सुल्तान-ए-आजम’ (महान् शासक) की उपाधि भी प्रदान की। इस प्रकार बगदाद के खलीफा ने इल्तुतमिश को ‘सुल्तान-ए-हिंद’ की उपाधि एवं शाही पोशाक प्रदान कर भारत के सुल्तान के रूप में अपनी स्वीकृति दे दी। अब इल्तुतमिश ने ‘नासिर अमीर उल मोमिनीन’ की उपाधि धारण की। एक वैधानिक शासक के रूप में उसने अपने नाम के सिक्के ढलवाए और खलीफा का नाम भी खुतबे में लिखवाया।
सिक्कों का प्रचलन
इल्तुतमिश पहला तुर्क सुल्तान था, जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलवाए। सल्तनतकालीन दो महत्वपूर्ण सिक्कों—चाँदी का ‘टंका’ (लगभग 175 ग्रेन) तथा ताँबे का ‘जीतल’—चलवाने का श्रेय इल्तुतमिश को ही है। उसने सिक्कों पर टकसाल का नाम अंकित करवाने की परंपरा आरंभ की और सिक्कों पर अपना उल्लेख ‘खलीफा के प्रतिनिधि’ के रूप में किया। ग्वालियर विजय के बाद इल्तुतमिश ने अपने सिक्कों पर कुछ गौरवपूर्ण शब्दों को अंकित करवाया, जैसे—‘शक्तिशाली सुल्तान’, ‘साम्राज्य व धर्म का सूर्य’, ‘धर्मनिष्ठों के नायक के सहायक’ आदि। इल्तुतमिश ने ‘इक्ता व्यवस्था’ का प्रचलन किया और राजधानी को लाहौर से दिल्ली स्थानांतरित किया।
निर्माण कार्य
इल्तुतमिश एक कुशल शासक होने के अलावा कला तथा विद्या का प्रेमी भी था। स्थापत्य कला के अंतर्गत इल्तुतमिश ने कुतुबुद्दीन ऐबक के निर्माण-कार्य को पूरा करवाया। भारत में संभवतः पहला मकबरा निर्मित करवाने का श्रेय भी इल्तुतमिश को दिया जा सकता है। उसने बदायूँ की जामा मस्जिद एवं नागौर में अतारकिन के दरवाजे का भी निर्माण करवाया। ‘अजमेर की मस्जिद’ का निर्माण इल्तुतमिश ने ही करवाया था। उसने दिल्ली में एक विद्यालय की स्थापना की।
इल्तुतमिश का मूल्यांकन
गुलाम वंश के संस्थापक ऐबक के बाद इल्तुतमिश उन शासकों में से था जिससे दिल्ली सल्तनत की नींव मजबूत की। वह गुलाम का भी गुलाम था और मात्र अपनी योग्यता के बल पर ही इतनी ऊँची स्थिति प्राप्त करने में सफल हुआ था। इल्तुतमिश पहला सुल्तान था, जिसने दोआब के आर्थिक महत्व को समझा और उसमें सुधार किया। इल्तुतमिश को गुलाम वंश का वास्तविक संस्थापक मानते हुए ईश्वरी प्रसाद लिखते हैं कि, ‘निःसंदेह इल्तुतमिश गुलाम वंश का वास्तविक संस्थापक था। यही वह व्यक्ति था जिसने अपने स्वामी कुतुबुद्दीन की विजयों को संगठित किया था।’
इल्तुतमिश दिल्ली का पहला ऐसा सुल्तान था जो अपनी योग्यता, विजय और खलीफा के प्रमाण-पत्र से दिल्ली सल्तनत का वैधानिक शासक बन गया। खलीफा की स्वीकृति से इल्तुतमिश को सुल्तान के पद को वंशानुगत बनाने और दिल्ली के सिंहासन पर अपनी संतानों के अधिकार को सुरक्षित करने में सहायता मिली। उसकी इस सफलता के आधार पर कहा जा सकता है कि इल्तुतमिश भारत में मुस्लिम संप्रभुता का वास्तविक संस्थापक था।
अपने अंतिम दिनों में इल्तुतमिश अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिंतित था। उसके सबसे बड़े पुत्र नासिरुद्दीन महमूद की, जो अपने पिता के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल पर शासन कर रहा था, अप्रैल 1229 ई. में मृत्यु हो गई। सुल्तान के शेष जीवित पुत्र शासन-कार्य के योग्य नहीं थे। इसलिए इल्तुतमिश ने अपनी मृत्यु-शय्या पर अपनी पुत्री रजिया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और इसके लिए अपने सरदारों और उलेमाओं को भी राजी कर लिया। यद्यपि स्त्रियों ने प्राचीन मिस्र और ईरान में रानियों के रूप में शासन किया था, तथापि इस प्रकार पुत्रों के होते हुए सिंहासन के लिए स्त्री को चुनना बिल्कुल एक नया कदम था।
रुकनुद्दीन फीरोजशाह (1236 ई.)
इल्तुतमिश ने अपनी पुत्री रजिया सुल्तान को अपना उत्तराधिकारी बनाया था। उसके इस फैसले से उसके दरबार के बहुसंख्यक सरदार अप्रसन्न थे क्योंकि वे एक स्त्री के समक्ष नतमस्तक होना अपने अहंकार के विरुद्ध समझते थे। इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद अमीरों ने मृतक सुल्तान के सबसे बड़े पुत्र रुकनुद्दीन फीरोजशाह को, जो अपने पिता के जीवनकाल में बदायूँ तथा कुछ वर्ष तक लाहौर का शासक रह चुका था, सिंहासन पर बैठाया।
किंतु यह चुनाव दुर्भाग्यपूर्ण था। रुकनुद्दीन में सुल्तान बनने के गुणों का सर्वथा अभाव था। वह विलासी प्रवृत्ति और नीच रुचि का होने के कारण शासन के कार्यों में रुचि नहीं लेता था, इसलिए उसे ‘विलासप्रेमी जीव’ कहा गया है। वह राजकार्य की उपेक्षा करता था तथा राज्य के धन का अपव्यय करता था। यद्यपि रुकनुद्दीन फीरोजशाह सुल्तान था, फिर भी शासन की बागडोर उसकी माँ शाहतुर्कान के हाथों में थी, जो मूलतः एक निम्न उद्भव की महत्वाकांक्षी तुर्की दासी थी। उसने प्रशासन की शक्ति को अपने अधिकार में कर लिया, जबकि उसका पुत्र रुकनुद्दीन भोग-विलास में ही डूबा रहता था। रुकनुद्दीन एवं उसकी माँ शाहतुर्कान के अत्याचारों से चारों ओर विद्रोह फूट पड़ा। बदायूँ, मुल्तान, हाँसी, लाहौर, अवध एवं बंगाल में केंद्रीय सरकार के अधिकार का तिरस्कार होने लगा। इस विद्रोह को दबाने के लिए जैसे ही रुकनुद्दीन राजधानी से बाहर गया, रजिया सुल्तान ने लाल वस्त्र धारण कर (उस समय लाल वस्त्र पहनकर ही न्याय की माँग की जाती थी) जनता के सामने उपस्थित होकर शाहतुर्कान के विरुद्ध सहायता मांगी। राजमाता शाहतुर्कान के अनावश्यक प्रभाव के कारण दिल्ली के सरदार पहले ही असंतोष से उबल रहे थे।
रुकनुद्दीन फीरोजशाह के दिल्ली में घुसने के पूर्व ही विलासी और लापरवाह रुकनुद्दीन के खिलाफ दिल्ली की जनता में इस सीमा तक आक्रोश उमड़ा कि जनता ने उत्साह के साथ रजिया को दिल्ली के तख्त पर बैठा दिया। रुकनुद्दीन फीरोजशाह को, जिसने भागकर लोखरी में शरण ली थी, बंदी बना लिया गया और 1236 ई. में उसकी हत्या कर दी गई। उसका शासन मात्र छह माह का था। इसके पश्चात् सुल्तान के लिए अन्य किसी विकल्प के अभाव में मुसलमानों को एक महिला को शासन की बागडोर देनी पड़ी, और रजिया सुल्तान दिल्ली की शासिका बन गई।
रजिया सुल्तान (1236-1240 ई.)
रजिया सुल्तान (सुल्तान जलालत उद्-दीन रजिया) इल्तुतमिश की पुत्री तथा दिल्ली सल्तनत की पहली महिला सुल्तान थी। तुर्की मूल की रजिया को अन्य मुस्लिम राजकुमारियों की तरह सेना का नेतृत्व तथा प्रशासन के कार्यों में अभ्यास कराया गया था, ताकि आवश्यकता पड़ने पर उसका प्रयोग किया जा सके। वह अबीसीनिया के एक दास जलालुद्दीन याकूत के प्रति अनुचित कृपा दिखाने लगी तथा उसने उसे अश्वशालाध्यक्ष का ऊँचा पद दे दिया। इससे क्रुद्ध होकर तुर्की सरदार एक छोटे संघ में संगठित हो गए।
रजिया की समस्याएँ
युवती बेगम के समक्ष कोई कार्य सुगम नहीं था। रजिया को न केवल अपने सगे भाइयों, बल्कि शक्तिशाली तुर्की सरदारों का भी मुकाबला करना पड़ा और वह केवल चार वर्षों तक ही शासन कर सकी। राज्य के वजीर मुहम्मद जुनैदी तथा कुछ अन्य सरदार एक स्त्री के शासन को सह नहीं सके और उन्होंने उसके विरुद्ध विरोधियों को जमा किया। यद्यपि उसके शासन की अवधि बहुत कम थी, तथापि उसके कई महत्वपूर्ण पहलू थे। रजिया के शासनकाल में ही सुल्तान और तुर्की सरदारों, जिन्हें ‘चिहलगानी’ (चालीस) कहा जाता है, के बीच संघर्ष प्रारंभ हो गया।
रजिया ने चतुराई एवं उच्चतर कूटनीति से शीघ्र ही अपने शत्रुओं को परास्त कर दिया। हिंदुस्तान (उत्तरी भारत) एवं पंजाब पर उसका अधिकार स्थापित हो गया तथा बंगाल एवं सिंध के सुदूरवर्ती प्रांतों के शासकों ने भी उसका आधिपत्य स्वीकार कर लिया। मिन्हाजस्सिराज ने लिखा है कि लखनौती से लेकर देवल तथा दमरीला तक सभी मलिकों एवं अमीरों ने उसकी आज्ञाकारिता स्वीकार की। उसके राज्यकाल के आरंभ में नूरुद्दीन नामक एक तुर्क के नेतृत्व में किरामित और अहमदिया नामक संप्रदायों के कतिपय पाखंडियों द्वारा उपद्रव कराने का संगठित प्रयास किया गया, परंतु वे राजकीय सेना द्वारा तितर-बितर कर दिए गए तथा विद्रोह एक भद्दी असफलता बनकर रह गया।
शासन कार्यों में रजिया की रुचि अपने पिता के शासन के समय से ही थी। गद्दी संभालने के बाद रजिया ने रीति-रिवाजों के विपरीत पुरुषों की तरह सैनिकों का कोट और पगड़ी पहनना पसंद किया और बाद में युद्ध में बिना नकाब पहने शामिल हुई। वह अपनी राजनीतिक समझदारी और नीतियों से सेना तथा जनसाधारण का ध्यान रखती थी। वह दिल्ली की सबसे शक्तिशाली शासक बन गई थी। फिर भी बेगम के भाग्य में शांतिपूर्ण शासन नहीं लिखा था।
रजिया अबीसीनिया के एक हब्शी दास जलालुद्दीन याकूत के प्रति अनुचित कृपा दिखाने लगी तथा उसने उसे अश्वशालाध्यक्ष का ऊँचा पद दे दिया। कुछ स्रोतों के अनुसार रजिया और याकूत प्रेमी थे। अन्य स्रोतों के अनुसार वे दोनों एक-दूसरे के विश्वासपात्र थे। इब्नबतूता का यह कहना गलत है कि अबीसीनियन के प्रति उसका लगाव अपराधात्मक था। समकालीन मुस्लिम इतिहासकार मिन्हाज ने इस तरह का कोई आरोप नहीं लगाया है। वह केवल इतना ही लिखता है कि अबीसीनियन ने सुल्ताना की सेवा कर उसकी कृपा प्राप्त कर ली। फरिश्ता का उसके खिलाफ एकमात्र आरोप यह है कि अबीसीनियन और बेगम के बीच अत्यधिक परिचय देखा गया, यहाँ तक कि जब वह घोड़े पर सवार रहती थी, तब वह बाँहों से उसे (रानी को) उठाकर बराबर घोड़े पर बिठा लेता था।
जो भी हो, याकूत के प्रति अत्यधिक कृपा के कारण तुर्की सरदारों में रोष होना स्वाभाविक था, क्योंकि याकूत तुर्क नहीं था और रजिया ने उसे अश्वशाला का अधिकारी नियुक्त कर दिया था। उसके साथ विकसित हो रहे अंतरंग संबंध की बात अमीरों को पसंद नहीं आई। इससे क्रुद्ध होकर तुर्की सरदार एक छोटे संघ में संगठित हो गए। भटिंडा के राज्यपाल मलिक इख्तियार-उद्-दीन अल्तूनिया ने अन्य प्रांतीय राज्यपालों, जिन्हें रजिया का आधिपत्य नामंजूर था, के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया।
अल्तूनिया का विद्रोह
रजिया सुल्तान के शासनकाल के प्रारंभ में इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया भटिंडा का हाकिम था। सबसे पहले सरहिंद के शासक इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया ने 1240 ई. में रजिया के खिलाफ खुले तौर पर विद्रोह किया, जिसे दरबार के कुछ सरदार गुप्त रूप से हवा दे रहे थे। बेगम एक बड़ी सेना लेकर विद्रोह का दमन करने के लिए चली। किंतु इस युद्ध में इख्तियारुद्दीन ने रजिया को परास्त कर दिया और विद्रोही सरदारों ने याकूत को मार डाला तथा बेगम को कैद कर लिया। रजिया इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया के संरक्षण में रख दी गई।
रजिया का अंत
इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया को अपने इस कार्य के लिए नए सुल्तान बहरामशाह से यथेष्ट पुरस्कार नहीं मिला। इसलिए उसने रजिया को जेलखाने से रिहा कर दिया। रजिया ने अल्तूनिया से विवाह करके इस परिस्थिति से छुटकारा पाने का प्रयास किया, परंतु व्यर्थ सिद्ध हुआ। इख्तियारुद्दीन ने रजिया को फिर से गद्दी पर बिठाने के लिए एक बड़ी सेना के साथ दिल्ली पर आक्रमण किया था। रजिया अपने पति अल्तूनिया के साथ दिल्ली की ओर बढ़ रही थी, किंतु कैथल के निकट पहुँचकर अल्तूनिया के समर्थकों ने उसका साथ छोड़ दिया तथा 13 अक्टूबर 1240 ई. को मुइजुद्दीन बहरामशाह ने उसे पराजित कर दिया। दूसरे दिन रजिया की उसके पति के साथ हत्या कर दी गई। इस तरह चार वर्ष के शासनकाल के बाद रजिया बेगम के जीवन का अंत हो गया।
रजिया का मूल्यांकन
रजिया में अद्भुत गुण थे। फरिश्ता लिखता है कि ‘वह शुद्ध उच्चारण करके कुरान का पाठ करती थी तथा अपने पिता के जीवनकाल में शासन-कार्य किया करती थी।’ बेगम की हैसियत से उसने अपने गुणों को अत्यधिक विशिष्टता से प्रदर्शित करने का प्रयास किया। इतिहासकार मिन्हाज ने लिखा है कि ‘वह महती सम्राज्ञी, चतुर, न्यायी, दानशील, विद्वानों की आश्रयदायी, न्याय वितरण करनेवाली, अपनी प्रजा से स्नेह रखनेवाली, युद्ध कला में प्रवीण तथा राजाओं के सभी आवश्यक प्रशंसनीय विशेषणों एवं गुणों से संपन्न थी।’ वह स्वयं सेना लेकर शत्रुओं के सम्मुख जाती थी। स्त्रियों के वस्त्र को छोड़ तथा बुर्के का परित्याग कर वह झिल्ली पहनती थी तथा पुरुषों का शिरोवस्त्र धारण करती थी। वह खुले दरबार में अत्यंत योग्यता के साथ शासन-कार्य का संपादन करती थी। इस प्रकार हर संभव तरीके से वह राजा का अभिनय करने का प्रयत्न करती थी। रजिया ने ‘उम्दत-उल-निस्वा’ की उपाधि धारण की थी, जिसका अर्थ होता है—महिलाओं के लिए अनुकरणीय। किंतु अहंकारी तुर्की सरदार एक महिला के शासन को नहीं सह सके। उन्होंने घृणित रीति से उसका अंत कर दिया। रजिया के दुखद अंत से यह स्पष्ट हो गया कि अंधविश्वासों पर विजय प्राप्त करना सदैव आसान नहीं होता। दिल्ली के सिंहासन पर राज करनेवाली एकमात्र महिला शासिका रजिया और उसके प्रिय याकूत की कब्र राजस्थान के टोंक के दरियाशाह इलाके में स्थित है।
मुइजुद्दीन बहरामशाह (1240-1242 ई.)
रजिया सुल्तान को अपदस्थ करके तुर्की सरदारों ने मुइजुद्दीन बहरामशाह को दिल्ली के तख्त पर बैठाया। सुल्तान के अधिकार को कम करने के लिए तुर्क सरदारों ने एक नए पद ‘नाइब’ अर्थात् नाइब-ए-मुमलिकत (वजीर) का सृजन किया। इस पद पर नियुक्त व्यक्ति संपूर्ण अधिकारों का स्वामी होता था। मुइजुद्दीन बहरामशाह के समय में इस पद पर सर्वप्रथम मलिक इख्तियारुद्दीन एतगीन को नियुक्त किया गया। अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए एतगीन ने बहरामशाह की तलाकशुदा बहन से विवाह कर लिया। कालांतर में इख्तियारुद्दीन एतगीन की शक्ति इतनी बढ़ गई कि उसने अपने महल के सामने सुल्तान की तरह नौबत एवं हाथी रखना आरंभ कर दिया था। सुल्तान ने इसे अपने अधिकारों में हस्तक्षेप समझकर उसकी हत्या करवा दी। एतगीन की मृत्यु के बाद नाइब के सारे अधिकार ‘अमीर-ए-हाजिब’ बदरुद्दीन संवर रूमी खाँ के हाथों में आ गए। रूमी खाँ द्वारा सुल्तान की हत्या हेतु षड्यंत्र रचने के कारण उसकी एवं सरदार सैयद ताजुद्दीन की हत्या कर दी गई। इन हत्याओं के कारण सुल्तान के विरुद्ध अमीरों और तुर्की सरदारों में भयानक असंतोष फैल गया।
इस समय बाहरी आक्रमणों से हिंदुस्तान का दुःख और भी बढ़ गया था। 1241 ई. में मंगोल आक्रमणकारी पंजाब के मध्य में पहुँच गए तथा लाहौर का सुंदर नगर उनके निर्मम पंजे में पड़ गया। असंतुष्ट सरदारों ने 1241 ई. में मंगोलों से पंजाब की रक्षा के लिए भेजी गई सेना को बहरामशाह के विरुद्ध भड़का दिया। सेना वापस दिल्ली की ओर मुड़ गई और मई 1241 ई. में तुर्क सरदारों ने दिल्ली पर कब्जा कर बहरामशाह का वध कर दिया। तुर्क सरदारों ने बहरामशाह के पौत्र अलाउद्दीन मसूद को नया सुल्तान बनाया।
अलाउद्दीन मसूद (1242-1246 ई.)
अलाउद्दीन मसूद रुकनुद्दीन फीरोजशाह का पौत्र तथा मुइजुद्दीन बहरामशाह का पुत्र था। उसके समय में नाइब का पद गैर-तुर्की सरदार मलिक कुतुबुद्दीन हसन को मिला क्योंकि अन्य महत्वपूर्ण पदों पर तुर्की सरदारों का प्रभुत्व था, इसलिए नाइब के पद का कोई विशेष महत्व नहीं रह गया था। शासन का वास्तविक अधिकार वजीर मुहाजिबुद्दीन के पास था, जो जाति से ताजिक (गैर तुर्क) था। तुर्की सरदारों के विरोध के परिणामस्वरूप यह पद निजामुद्दीन अबूबक्र को प्राप्त हुआ। ‘अमीर-ए-हाजिब’ का पद इल्तुतमिश के ‘चालीस तुर्कों के दल’ के सदस्य गयासुद्दीन बलबन को मिला। इसी के समय में बलबन को हाँसी का इक्ता भी मिला। 1245 ई. में मंगोलों ने उच पर अधिकार कर लिया, परंतु बलबन ने मंगोलों को उच से खदेड़ दिया, इससे बलबन की प्रतिष्ठा और बढ़ गई। अमीर-ए-हाजिब के पद पर बने रहकर बलबन ने शासन का वास्तविक अधिकार अपने हाथ में ले लिया।
मसूद का शासन तुलनात्मक दृष्टि से शांतिपूर्ण रहा। इस समय सुल्तान तथा सरदारों के मध्य संघर्ष नहीं हुए। अंततः बलबन ने नासिरुद्दीन महमूद एवं उसकी माँ से मिलकर अलाउद्दीन मसूद को सिंहासन से हटाने का षड्यंत्र रचा। जून 1246 ई. में उसे इसमें सफलता मिली। बलबन ने अलाउद्दीन मसूद के स्थान पर इल्तुतमिश के प्रपौत्र नासिरुद्दीन महमूद को सुल्तान बनाया। वास्तव में यह काल बलबन की शक्ति-निर्माण का काल था।
नासिरुद्दीन महमूद (1246-1266 ई.)
नासिरुद्दीन महमूद इल्तुतमिश का पौत्र था। यह 10 जून 1246 ई. को दिल्ली सल्तनत के सिंहासन पर बैठा। उसके सिंहासन पर बैठने के बाद अमीर सरदारों एवं सुल्तान के बीच शक्ति के लिए चल रहा संघर्ष पूर्णतः समाप्त हो गया। नासिरुद्दीन विद्या प्रेमी और बहुत ही शांत स्वभाव का व्यक्ति था। नासिरुद्दीन महमूद के संबंध में इतिहासकार इसामी लिखते हैं कि वह तुर्की अधिकारियों की पूर्व आज्ञा के बिना अपनी कोई भी राय व्यक्त नहीं कर सकता था। वह बिना तुर्की अधिकारियों की आज्ञा के हाथ-पैर तक नहीं हिलाता था। वह महत्वाकांक्षाओं से रहित एक धर्मपरायण व्यक्ति था। वह कुरान की नकल करता था तथा उसको बेचकर अपनी जीविका चलाता था। उसने 7 अक्टूबर 1246 ई. में बलबन को ‘उलूग खाँ’ की उपाधि प्रदान की और इसके बाद उसे शासन का संपूर्ण भार सौंपकर ‘अमीर-ए-हाजिब’ बना दिया। अगस्त 1249 ई. में बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद के साथ कर दिया।
बलबन की सुल्तान से निकटता एवं उसके बढ़ते हुए प्रभाव से अन्य तुर्की सरदारों ने नासिरुद्दीन महमूद की माँ एवं कुछ भारतीय मुसलमानों के साथ एक दल बनाया, जिसका नेता रेहान को बनाया गया था। उसे ‘वकील-ए-दार’ के पद पर नियुक्त किया गया, परंतु यह परिवर्तन बहुत दिन तक नहीं चल सका। भारतीय मुसलमान रेहान को तुर्क सरदार अधिक दिन तक सहन नहीं कर सके। वे पुनः बलबन से जा मिले। इस तरह दोनों विरोधी सेनाओं के बीच आमना-सामना हुआ, परंतु अंततः एक समझौते के तहत नासिरुद्दीन महमूद ने रेहान को नाइब के पद से मुक्त कर पुनः बलबन को यह पद दे दिया। रेहान को एक धर्मच्युत, शक्ति का अपहरणकर्ता, षड्यंत्रकारी आदि कहा गया है। कुछ समय पश्चात् रेहान की हत्या कर दी गई।
बलबन द्वारा शांति-स्थापना
नासिरुद्दीन महमूद के राज्यकाल में बलबन ने शासन-प्रबंध में विशेष क्षमता का प्रदर्शन किया। 1245 ई. से सुल्तान बनने तक बलबन का अधिकांश समय विद्रोहों को दबाने में व्यतीत हुआ। उसने 1259 ई. में मंगोल नेता हलाकू के साथ समझौता कर पंजाब में शांति स्थापित की। उसने पंजाब तथा दोआब के हिंदुओं के विद्रोह का दृढ़ता से दमन किया, साथ ही मंगोलों के आक्रमणों को भी रोका। संभवतः इसी समय बलबन ने सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद से छत्र प्रयोग करने की अनुमति मांगी और सुल्तान ने अपना छत्र प्रयोग करने की आज्ञा दे दी। मिन्हाजुद्दीन सिराज ने, जो सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद के शासनकाल में मुख्य काजी के पद पर नियुक्त था, अपना ग्रंथ ‘ताबकात-ए-नासिरी’ उसे समर्पित किया है। 1266 ई. में नासिरुद्दीन महमूद की अकस्मात् मृत्यु के बाद बलबन उसका उत्तराधिकारी बना, क्योंकि महमूद के कोई पुत्र नहीं था।
गयासुद्दीन बलबन (1266-1287 ई.)
गुलाम वंश का अंतिम प्रमुख सुल्तान गयासुद्दीन बलबन मूलतः सुल्तान इल्तुतमिश का तुर्की गुलाम था। गयासुद्दीन बलबन का वास्तविक नाम बहाउद्दीन बलबन था। उसका पिता एक बड़े कबीले का उच्च श्रेणी का सरदार था। गयासुद्दीन बलबन जाति से इल्बारी तुर्क था। बाल्यकाल में ही मंगोलों ने उसे पकड़कर बगदाद के बाजार में एक गुलाम के रूप में बेच दिया था। भाग्यचक्र ऐसा चला कि ख्वाजा जमालुद्दीन बसरी नामक एक व्यक्ति बलबन को खरीदकर 1232-33 ई. में दिल्ली लाया। सुल्तान इल्तुतमिश ने 1233 ई. में ग्वालियर को जीतने के उपरांत बलबन को खरीद लिया।
अपनी स्वामिभक्ति और सेवाभाव के फलस्वरूप बलबन निरंतर उन्नति करता गया, यहाँ तक कि सुल्तान इल्तुतमिश ने उसे ‘चालीस दासों के दल’ (तुर्कान-ए-चिहलगानी) में सम्मिलित कर लिया। कुछ समय बाद इल्तुतमिश ने उसे ‘खासदार’ (सुल्तान का व्यक्तिगत सेवक) का पद प्रदान किया। रजिया के राज्यकाल में उसकी नियुक्ति ‘अमीर-ए-शिकार’ के पद पर हुई। रजिया सुल्तान और बहरामशाह के बीच सत्ता का संघर्ष में बलबन ने बहरामशाह का पक्ष लिया, जिसके फलस्वरूप मुइजुद्दीन बहरामशाह के समय में उसे ‘अमीर-ए-आखूर’ का पद तथा रेवाड़ी और हाँसी के क्षेत्र मिले। इसी प्रकार उसने बहरामशाह को गद्दी से हटाने में अलाउद्दीन मसूदशाह की सहायता की, जिसके कारण मसूदशाह ने उसे ‘अमीर-ए-हाजिब’ का पद और हाँसी की सूबेदारी दी। बलबन ने 1245 ई. में मंगोलों को पराजित कर उच पर अधिकार कर लिया, जिससे उसकी शक्ति और प्रतिष्ठा दोनों में वृद्धि हुई। अगले वर्ष जब मसूदशाह और नासिरुद्दीन महमूद के बीच सत्ता के लिए संघर्ष हुआ, तो बलबन ने नासिरुद्दीन का साथ दिया। सुल्तान बनने के बाद नासिरुद्दीन महमूद ने बलबन को ‘नाइब-ए-मुमलिकत’ (मुख्यमंत्री) के पद पर आसीन किया और ‘उलुग खाँ’ की उपाधि प्रदान की। नासिरुद्दीन के समय में बलबन राज्य की संपूर्ण शक्ति का केंद्र बन गया। अगस्त 1249 ई. में बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह नासिरुद्दीन महमूद से कर दिया। 20 वर्ष तक बलबन ने ‘नाइब-ए-मुमलिकत’ के उत्तरदायित्व को निभाया। इस अवधि में उसके समक्ष जटिल समस्याएँ आईं तथा एक अवसर पर उसे अपमानित भी होना पड़ा, किंतु उसने न तो साहस छोड़ा और न ही दृढ़ संकल्प। वह निरंतर उन्नति की दिशा में अग्रसर होता रहा। उसने आंतरिक विद्रोहों का दमन किया और बाहरी आक्रमणों को असफल किया।

बलबन ने 1246 ई. में दोआब के हिंदू जमींदारों की उदंडता का दमन किया। तत्पश्चात् कालिंजर व कड़ा के प्रदेशों पर अधिकार जमाया। प्रसन्न होकर 1249 ई. में सुल्तान ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ किया और उसे नायब सुल्तान की उपाधि प्रदान की। 1252 ई. में उसने ग्वालियर, चंदेरी और मालवा पर अभियान किया। प्रतिद्वंद्वियों की ईर्ष्या और द्वेष के कारण एक वर्ष तक वह पदच्युत रहा, परंतु शासन व्यवस्था को बिगड़ता देखकर सुल्तान ने विवश होकर उसे बहाल कर दिया। दुबारा कार्यभार संभालने के पश्चात् उसने उदंड अमीरों को नियंत्रित करने का प्रयास किया। 1255 ई. में सुल्तान के सौतेले भाई कत्लुग खाँ के विद्रोह को दबाया और 1257 ई. में मंगोलों के आक्रमण को रोका। 1259 ई. में क्षेत्र के बागियों का नाश किया।
बलबन के विरुद्ध षड्यंत्र
बलबन को प्राप्त होनेवाली सफलताओं से तुर्क सरदारों का एक बड़ा दल उससे ईर्ष्या करने लगा था तथा वे उसे पद से हटाने का उपाय सोचने लगे। उन्होंने मिलकर 1250 ई. में बलबन के विरुद्ध एक षड्यंत्र रचा और बलबन को पदच्युत करवा दिया। बलबन के स्थान पर एक भारतीय मुसलमान इमादुद्दीन रेहान की नियुक्ति हुई। बलबन ने अपना पद छोड़ना स्वीकार तो कर लिया, पर वह चुपके-चुपके अपने समर्थकों को इकट्ठा भी करता रहा।
पदच्युत होने के दो वर्षों के अंदर ही बलबन अपने कुछ विरोधियों को जीतने में सफल हो गया। अब वह शक्ति परीक्षा के लिए तैयार था। ऐसा लगता है कि बलबन ने पंजाब के एक बड़े क्षेत्र पर कब्जा करनेवाले मंगोलों से भी संपर्क स्थापित किया था। सुल्तान महमूद को बलबन की शक्ति के आगे घुटने टेकने पड़े और उसने रेहान को बर्खास्त कर दिया। कुछ समय बाद रेहान पराजित हुआ और उसे मार दिया गया।
बलबन ने उचित-अनुचित तरीकों से अपने अन्य विरोधियों को भी समाप्त कर दिया। अब उसने राजसी प्रतीक छत्र को भी ग्रहण कर लिया, पर इतना होने पर भी संभवतः तुर्क सरदारों की भावनाओं को ध्यान में रखकर वह सिंहासन पर नहीं बैठा। सुल्तान महमूद की 1265 ई. में मृत्यु हो गई। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि बलबन ने सुल्तान को जहर देकर मार दिया और सिंहासन प्राप्त करने के लिए उसके पुत्रों की भी हत्या कर दी। यद्यपि यह सत्य है कि बलबन द्वारा अपनाए गए उपाय बहुत बार अनुचित और अवांछनीय होते थे, किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि उसके सिंहासन पर बैठने के साथ ही एक शक्तिशाली केंद्रीय सरकार के युग का आरंभ हुआ।
नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के पश्चात् बिना किसी विरोध के बलबन ने मुकुट धारण कर लिया। उसने 21 वर्ष तक शासन किया। सुल्तान के रूप में उसने जिस बुद्धिमत्ता, कार्यकुशलता तथा नैतिकता का परिचय दिया, इतिहासकारों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। शासन-पद्धति को उसने नवीन साँचे में ढाला और उसे मूलतः लौकिक बनाने का प्रयास किया। वह मुसलमान विद्वानों का आदर तो करता था, किंतु राजकीय कार्यों में उनको हस्तक्षेप नहीं करने देता था। उसका न्याय पक्षपातरहित और दंड अत्यंत कठोर था।
बलबन की उपलब्धियाँ
बलबन की नीति साम्राज्य विस्तार करने की नहीं थी, इसके विपरीत उसका अडिग विश्वास साम्राज्य के संगठन में था। इस उद्देश्य की पूर्ति के हेतु बलबन ने ‘तुर्क चालीसा दल’ (तुर्कान-ए-चिहलगानी) को समाप्त किया और तुर्क अमीरों को शक्तिशाली होने से रोका। उसने उमरा वर्ग को अपने नियंत्रण में किया और सुल्तान के पद और प्रतिष्ठा को गौरवशाली बनाने का प्रयास किया। बलबन निरंकुश शासन में विश्वास रखता था। उसका मानना था केवल निरंकुश शासक ही अपनी प्रज्ञा को आज्ञापालन प्राप्त करवा सकता था। उसने अपने पुत्र बुगरा खाँ से कहा था: ‘सुल्तान का पद निरंकुशता का सजीव प्रतीक है।’
बलबन का कहना था कि सुल्तान का हृदय दैवी अनुकंपा की एक विशेष निधि है, इस कारण उसका अस्तित्व अद्वितीय है। उसने ‘सिजदा’ (घुटने के बल बैठकर सम्राट के सामने सिर झुकाना) एवं ‘पाबोस’ (पाँव को चूमना) की पद्धति चलाई। बलबन का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली और भयोत्पादक था कि उसे देखते ही लोग संज्ञाहीन हो जाते थे। उसने सेना का भी सुधार किया और दुर्बल तथा वृद्ध सेनानायकों को हटाकर उनकी जगह वीर एवं साहसी जवानों को नियुक्त किया। बलबन तुर्क जाति के एकाधिकार का प्रतिपालक था, इसलिए उसने अतुर्क लोगों को सभी उच्च पदों से हटाने का निर्णय किया।
बलबन का राजत्व सिद्धांत
बलबन का विश्वास था कि आंतरिक और बाहरी खतरों का सामना करने का एकमात्र उपाय सम्राट के सम्मान और उसकी शक्ति को बढ़ाना है। इस कारण वह बराबर इस बात का प्रयास करता रहा। उस काल में मान्यता थी कि अधिकार और शक्ति केवल राजसी और प्राचीन वंशों का विशेषाधिकार है। उसी के अनुरूप बलबन ने भी सिंहासन के अपने दावे को मजबूत करने के लिए घोषणा की कि वह कहानियों में प्रसिद्ध तुर्क योद्धा अफरासियाब का वंशज है। राजसी वंशज से अपने संबंधों के दावों को मजबूत करने के लिए बलबन ने स्वयं को तुर्क सरदारों के अग्रणी के रूप में प्रदर्शित किया। उसने अपना संबंध फिरदौसी के शाहनामा में उल्लिखित तुरानी शासक ‘अफरासियाब’ से जोड़ा। अपने पौत्रों का नामकरण मध्य एशिया के ख्याति प्राप्त शासक कैखुसरो, कैकुबाद इत्यादि के नाम पर किया। इस प्रकार बलबन ने फारसी पद्धति पर अपने दरबार का गठन किया था। वह दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था, जिसने दरबार में गैर-इस्लामी प्रथाओं का प्रचलन शुरू किया था।
बलबन जातीय श्रेष्ठता में विश्वास रखता था। इसलिए उसने प्रशासन में सिर्फ कुलीन व्यक्तियों को नियुक्त किया। उसके कथन के अनुसार, ‘जब भी मैं किसी नीच वंश के आदमी को देखता हूँ, तो क्रोध से मेरी आँखें जलने लगती हैं और मेरे हाथ मेरी तलवार तक पहुँच जाते हैं।’ इनसे गैर-तुर्कों के प्रति उसके दृष्टिकोण के बारे में पता चलता है। संभवतः उसने शासन के उच्च पदों के लिए केवल उच्च वंश के सदस्यों को स्वीकार करना आरंभ किया था। एक बार उसने एक ऐसे बड़े व्यापारी से मिलना अस्वीकार कर दिया था, जो ऊँचे खानदान का नहीं था। इन कठोर तरीकों से बलबन ने स्थिति पर नियंत्रण कर लिया। लोगों को अपनी शक्ति से प्रभावित करने के लिए उसने अपने दरबार की शानो-शौकत को बढ़ाया। वह जब भी बाहर निकलता था, उसके चारों तरफ अंगरक्षक नंगी तलवारें लिए चलते थे। उसने दरबार में हँसी-मजाक समाप्त कर दिया और यह सिद्ध करने के लिए कि उसके सरदार उसकी बराबरी नहीं कर सकते, उसने उनके साथ शराब पीना बंद कर दिया। उसने ‘सिजदा’ और ‘पाबोस’ के रिवाजों को आवश्यक बना दिया।
यद्यपि बलबन द्वारा अपनाए गए कई रिवाज मूलतः ईरानी थे और उन्हें गैर-इस्लामी समझा जाता था, किंतु उनका विरोध करने की किसी में भी हिम्मत नहीं थी, क्योंकि ऐसे समय में जब मध्य और पश्चिम एशिया में मंगोलों के आक्रमण से अधिकतर इस्लामी साम्राज्य खत्म हो चुके थे, बलबन और दिल्ली सल्तनत को ही इस्लाम के नेता के रूप में देखा जाने लगा था। बलबन का कहना था कि ‘राजा का हृदय ईश्वर की कृपा का विशेष कोष है और समस्त मनुष्य जाति में उसके समान कोई नहीं है।’ ‘एक अनुग्रही राजा सदा ईश्वर के संरक्षण के छत्र से रहित रहता है।’ ‘राजा को इस प्रकार जीवन व्यतीत करना चाहिए कि मुसलमान उसके प्रत्येक कार्य, शब्द या क्रियाकलाप को मान्यता दें और प्रशंसा करें।’ बलबन सुल्तान को पृथ्वी पर नियाबत-ए-खुदाई (अल्लाह का प्रतिनिधि) और जिल्ले इलाही (ईश्वर का प्रतिबिंब) मानता था।
बलबन ने फारसी रीति-रिवाज पर आधारित ‘नवरोज उत्सव’ को प्रारंभ करवाया। अपने विरोधियों के प्रति बलबन ने कठोर ‘लौह एवं रक्त’ नीति का पालन किया। इस नीति के अंतर्गत विद्रोहियों की हत्या कर उनकी स्त्रियों एवं बच्चों को दास बना लिया जाता था।
शक्ति का केंद्रीकरण
खानदानी तुर्क सरदारों का स्वयं को अग्रणी बताते हुए भी बलबन अपनी शक्ति में किसी को, यहाँ तक कि अपने परिवार के सदस्यों को भी, हिस्सेदार बनाने के लिए तैयार नहीं था। उसका एक प्रधान कार्य चिहलगानी की शक्ति को समाप्त कर सम्राट की शक्ति को मजबूत करना था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह अपने संबंधी शेर खाँ को जहर देकर मारने में भी नहीं हिचका। लेकिन साथ-साथ जनता के समर्थन और विश्वास को प्राप्त करने के लिए वह न्याय के मामले में थोड़ा भी पक्षपात नहीं करता था। अपने अधिकार की अवहेलना करने पर वह बड़े से बड़े व्यक्ति को भी नहीं छोड़ता था। इस प्रकार गुलामों के प्रति दुव्यवहार करने पर बदायूँ तथा अवध के शासकों को कड़ी सजा दी गई।
केंद्रीय सेना का संगठन
आंतरिक विद्रोहों तथा पंजाब में जमे हुए मंगोलों से मुकाबला करने के लिए एक शक्तिशाली केंद्रीय सेना का संगठन किया। बलबन ने सैन्य विभाग ‘दीवान-ए-अर्ज’ को पुनर्गठित करवाया तथा उसे वजीर के नियंत्रण से मुक्त कर दिया, जिससे उसे धन की कमी न हो। उसने इमादुलमुल्क को ‘दीवान-ए-अर्ज’ के पद पर प्रतिष्ठित किया। उसकी संगठित सैन्य व्यवस्था का श्रेय इमादुलमुल्क को ही था। साथ ही उसने सैनिकों को पेंशन देकर सेवा मुक्त किया, जो अब सेवा के लायक नहीं रह गए थे, क्योंकि इनमें से अधिकतर सैनिक तुर्क थे और इल्तुतमिश के साथ हिंदुस्तान आए थे। उन्होंने बलबन के इस कदम के विरोध में अपनी आवाज उठाई, किंतु बलबन ने उनकी एक न सुनी। उसने तुर्क प्रभाव को कम करने के लिए फारसी परंपरा पर आधारित ‘सिजदा’ एवं ‘पाबोस’ के प्रचलन को अनिवार्य कर दिया।
गुप्तचर विभाग की स्थापना
बलबन ने राज्य के अंतर्गत होने वाले षड्यंत्रों एवं विद्रोह के विषय में पूर्व जानकारी के लिए गुप्तचर विभाग की स्थापना की। इन गुप्तचरों की नियुक्त बलबन स्वयं करता था और उन्हें पर्याप्त धन उपलब्ध कराता था। कोई भी गुप्तचर खुले दरबार में उससे नहीं मिलता था। यदि कोई गुप्तचर अपने कर्तव्य की पूर्ति नहीं कर पाता था, तो उसे कठोर दंड दिया जाता था। राज्य की सभी प्रकार की सूचना प्राप्त करने के लिए बलबन ने हर विभाग में अपने जासूस तैनात कर दिए।
सीमांत क्षेत्रों की सुरक्षा का उपाय
बलबन ने मंगोलों के आक्रमणों की रोकथाम के उद्देश्य से सीमांत क्षेत्र में सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण किया और इन दुर्गों में साहसी योद्धाओं को नियुक्त किया। पश्चिमोत्तर सीमा-प्रांत पर किलों की कतार बनवाई और प्रत्येक किले में बड़ी संख्या में सेना रखी। कुछ वर्षों के पश्चात् उत्तर-पश्चिमी सीमा को दो भागों में बाँट दिया गया। लाहौर, मुल्तान और दीपालपुर का क्षेत्र शहजादा मुहम्मद को और समाना, कच्छ का क्षेत्र बुगरा खाँ को दिया गया। प्रत्येक शहजादे के लिए प्रायः 18 हजार घुड़सवारों की एक शक्तिशाली सेना रखी गई।
बंगाल के विद्रोह का दमन
अपने शासनकाल में बंगाल का तुर्क विद्रोह, जहाँ के शासक तुगरिल खाँ ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया था, की सूचना पाकर बलबन ने अवध के सूबेदार अमीन खाँ को भेजा, परंतु वह असफल होकर लौटा। अतः क्रोधित होकर बलबन ने उसकी हत्या करवा दी और उसका सिर अयोध्या के फाटक पर लटका दिया और स्वयं इस विद्रोह का कठोरता से दमन किया। बंगाल की तत्कालीन राजधानी लखनौती को उस समय ‘विद्रोह का नगर’ कहा जाता था। तुगरिल को पकड़ने एवं उसकी हत्या करने का श्रेय मलिक मुकद्दीर को मिला। चूंकि इसके पहले तुगरिल को पकड़ने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा था, इसलिए मुकद्दीर की सफलता से प्रसन्न होकर बलबन ने उसे ‘तुगरिलकुश’ (तुगरिल का संहार करनेवाला) की उपाधि प्रदान की और अपने पुत्र बुगरा खाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया। उसने मेवात, दोआब और कटेहर के विद्रोहियों को आतंकित किया।
दोआब एवं पंजाब क्षेत्र में शांति की स्थापना
इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद कानून और व्यवस्था की हालत बिगड़ गई थी। गंगा-यमुना दोआब तथा अवध में सड़कों की स्थिति खराब थी और चारों ओर डाकुओं के भय के कारण वे इतनी असुरक्षित थीं कि पूर्वी क्षेत्रों से संपर्क रखना कठिन हो गया। कुछ राजपूत जमींदारों ने इस क्षेत्र में किले बना लिए थे और अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। मेवातियों में दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में लूटपाट करने का साहस आ गया था। बलबन ने इन तत्वों का बड़ी कठोरता के साथ दमन किया। डाकुओं का पीछा कर उन्हें बर्बरता से मौत के घाट उतार दिया गया। बदायूँ के आसपास के क्षेत्रों में राजपूतों के किलों को तोड़ दिया गया तथा जंगलों को साफ कर वहाँ अफगान सैनिकों की बस्तियाँ बसाई गईं, ताकि वे सड़कों की सुरक्षा कर सकें और राजपूत जमींदारों के शासन के विरुद्ध विद्रोहों को तुरंत कुचल सकें। इसके अतिरिक्त बलबन ने मेवातियों एवं कटेहर में हुए विद्रोह का भी दमन किया तथा दोआब एवं पंजाब क्षेत्र में शांति स्थापित की। इस प्रकार अपनी शक्ति को समेकित करने के बाद बलबन ने एक भव्य उपाधि ‘जिल्ले-इलाही’ धारण की।
1286 ई. में बलबन का बड़ा पुत्र मुहम्मद अचानक एक बड़ी मंगोल सेना से घिर जाने के कारण युद्ध करते हुए मारा गया। अपने प्रिय पुत्र मुहम्मद की मृत्यु के सदमे को न बर्दाश्त कर पाने के कारण 80 वर्ष की अवस्था में 1 जनवरी 1287 ई. में बलबन की मृत्यु हो गई। विख्यात कवि अमीर खुसरो, जिसका नाम ‘तूती-ए-हिंद’ (भारत का तोता) था तथा अमीर हसन देहलवी ने अपना साहित्यिक जीवन शहजादा मुहम्मद के समय में शुरू किया था।
बलबन के उत्तराधिकारी
बुगरा खाँ
मृत्यु पूर्व बलबन ने अपने दूसरे पुत्र बुगरा खाँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के आशय से बंगाल से वापस बुलाया, किंतु बुगरा खाँ आराम-पसंद व्यक्तित्व का था। उसने पिता द्वारा उत्तराधिकारी घोषित किए जाने पर भी उत्तराधिकार स्वीकार नहीं किया और चुपके से बंगाल वापस चला गया। उसने बंगाल को स्वतंत्र राज्य घोषित कर लिया। बुगरा खाँ महान संगीत-प्रेमी था। वह गायकों आदि के साथ काफी समय व्यतीत करता था। तदुपरांत बलबन ने अपने पौत्र (मुहम्मद के पुत्र) कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी चुना।
कैकुबाद
बलबन ने अपनी मृत्यु के पूर्व कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। किंतु दिल्ली के कोतवाल फखरुद्दीन ने बलबन की मृत्यु के बाद कूटनीति के द्वारा कैखुसरो को मुल्तान की सूबेदारी देकर 17-18 वर्ष के कैकुबाद को दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा दिया। कैकुबाद सुल्तान बलबन का पौत्र और उसके बड़े पुत्र मुहम्मद का पुत्र था।
फखरुद्दीन के दामाद निजामुद्दीन ने अपने कुचक्र के द्वारा सुल्तान को भोग-विलास में लिप्त कर स्वयं ‘नाइब’ बनकर सुल्तान के संपूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिए। निजामुद्दीन के प्रभाव से मुक्त होने के लिए कैकुबाद ने उसे जहर देकर मरवा दिया और एक गैर-तुर्क सरदार जलालुद्दीन खिलजी को अपना सेनापति बनाया, जिससे तुर्क सरदार रुष्ट हो गए। इसी समय मंगोलों ने तामर खाँ के नेतृत्व में समाना पर आक्रमण किया और कैकुबाद की सेना ने उन्हें वापस खदेड़ दिया। किंतु सल्तनत आंतरिक रूप से अशक्त हो गई थी। कैकुबाद के समय में यात्रा करनेवाले अफ्रीकी यात्री इब्नबतूता ने सुल्तान के शासनकाल को एक ‘बड़ा समारोह’ की संज्ञा दी है। अभी तुर्क सरदार सुल्तान से बदला लेने की बात सोच ही रहे थे कि कैकुबाद को लकवा मार गया। लकवे का रोगी बन जाने के कारण कैकुबाद प्रशासन के कार्यों में पूरी तरह अक्षम हो गया।
क्यूमर्स
कैकुबाद के लकवाग्रस्त हो जाने के कारण तुर्क सरदारों ने उसके तीन वर्षीय पुत्र शम्सुद्दीन क्यूमर्स को सुल्तान घोषित कर दिया। कालांतर में जलालुद्दीन फिरोज खिलजी ने उचित अवसर देखकर शम्सुद्दीन का वध कर दिया। शम्सुद्दीन की हत्या के बाद जलालुद्दीन फिरोज खिलजी ने दिल्ली के तख्त पर स्वयं अधिकार कर लिया और खिलजी वंश की स्थापना की। इस प्रकार ऐबक द्वारा रेखांकित, इल्तुतमिश द्वारा स्थापित तथा बलबन द्वारा सुदृढ़ किया गया दिल्ली का सिंहासन खिलजियों के हाथ में चला गया।
गुलाम वंश का पतन
1290 ईस्वी में दिल्ली की गलियों में सत्ता के बदलाव की गंध फैली हुई थी। दिल्ली सल्तनत का प्रथम राजवंश, गुलाम वंश, जो कभी मुहम्मद गोरी के गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक की तलवार की धार से जन्मा था, अब अपनी अंतिम सांसें ले रहा था। कुतुब मीनार की ऊँची मीनारें अभी भी आसमान को छू रही थीं, जो इल्तुतमिश की महानता की गवाह थीं, लेकिन सिंहासन पर बैठा युवा सुल्तान मुइजुद्दीन कैकुबाद अब मात्र एक कठपुतली बन चुका था। उसके महल में विलासिता की मदिरा बहती थी, संगीत की धुनें गूँजती थीं, लेकिन बाहर की दुनिया में तूफान मंडरा रहा था। खिलजी सरदार जलालुद्दीन फिरोज एक महँवाकांक्षी योद्धा सत्ता की बागडोर हथियाने को आतुर था। एक रात की साजिश में कैकुबाद की हत्या कर दी गई और उसके शिशु उत्तराधिकारी क्यूमर्स को गद्दी से हटा दिया गया। इस तरह 84 वर्षों के गुलाम वंश का अंत हो गया और खिलजी युग का उदय हुआ।
गुलाम वंश का पतन कोई आकस्मिक घटना नहीं था, बल्कि वर्षों की कमजोरियों का परिणाम था। इस वंश के पतन के कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
कमजोर उत्तराधिकारियों की शृंखला
गुलाम वंश की नींव गुलामों की वफादारी पर टिकी थी, लेकिन उत्तराधिकार की समस्या सदैव उसकी कमजोरी रहा। इल्तुतमिश एक कुशल योद्धा और प्रशासक था। उसने ‘इक्ता’ प्रथा शुरू की, सेना को संगठित किया और मंगोल आक्रमणों को रोका। लेकिन उसके बाद उसका पुत्र रुकनुद्दीन फिरोज (1236 ई.) मात्र छह महीने में विलासिता और क्रूरता के कारण गद्दी से उतार दिया गया। फिर इल्तुतमिश की पुत्री रजिया सुल्तान इतिहास की पहली मुस्लिम महिला सुल्तान बनी। वह बहादुर थी, स्वयं युद्ध लड़ती थी, लेकिन एक महिला शासक को तुर्क अमीर बर्दाश्त नहीं कर सके और वह षडयंत्र का षिकार हो गई।
गुलाम वंश पर असली संकट बलबन के बाद आया। बलबन (1266-1287 ई.) ने लौह और रक्त की नीति अपनाई और कठोरता से शासन किया। उसने ‘जमींदारी’ प्रथा को कुचला, मंगोलों को खदेड़ा और दरबार में फारसी रीति-रिवाज स्थापित किए। लेकिन मृत्युशय्या पर उसने अपने पोते कैकुबाद को गद्दी सौंपी, जो मात्र 17 वर्ष का था। बलबन का पोता कैकुबाद रोगग्रस्त और विलासी निकला। वह शासन की बागडोर अमीरों के हाथ में छोड़कर किलोखरी के महल में संगीत और नृत्य में डूबा रहने लगा। इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी अपनी ‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ में लिखते हैं कि कैकुबाद का शरीर लकवे से ग्रस्त हो गया और वह निर्णय लेने में असमर्थ था। उसके बाद उसके तीन वर्षीय पुत्र क्यूमर्स गद्दी पर बैठाया गया, लेकिन वह तो मात्र नाम का सुल्तान था।
आंतरिक कलह और तुर्की अमीरों का विद्रोह
इल्तुतमिश के समय से ही तुर्की अमीरों का समूह ‘चिहलगानी’ या ‘चालीसा’ सत्ता का केंद्र बन गया था और यही गुलाम वंश के पतन का कारण बने। कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु (1210 ई.) के बाद आराम शाह को इन अमीरों ने हटा दिया। रजिया सुल्तान के समय (1236-1240 ई.) इन अमीरों ने उसका विरोध किया क्योंकि वह एक स्त्री थी और अपने प्रिय अबीसीनियन गुलाम याकूत को ऊँचा पद दे दिया था। 1240 ई. में भटिंडा के युद्ध में रजिया हार गई कैद हुई और अंततः मारी गई। यह घटना वंश की एकता को तोड़ने वाली थी।
बलबन ने इन अमीरों को कुचलने की कोशिश की। उसने ‘खूनी न्याय’ अपनाया और कई तुर्की सरदारों को मार डाला तथा उनके परिवारों को निर्वासित कर दिया। लेकिन इससे वंश का तुर्की आधार कमजोर हो गया। तुर्की अमीरों की जगह खिलजी, अफगान और अन्य जातियों के सरदार उभरे। जलालुद्दीन खिलजी, जो बलबन के समय में वजीर था, ने इसी कमजोरी का फायदा उठाया। दरबार में गुटबाजी, ईर्ष्या और सत्ता संघर्ष ने वंश को खोखला कर दिया था।
प्रशासनिक ढीलापन
गुलाम वंश के शासक युद्ध और क्षेत्र विस्तार में माहिर थे, लेकिन प्रशासन में लापरवाह सिद्ध हुए। इल्तुतमिश ने सिक्के चलाए और इक्ता प्रथा शुरू की, लेकिन बाद के शासक कुछ नही कर पाए। कर वसूली अनियमित थी, किसान भारी करों से पीड़ित थे, जिससे विद्रोह भड़के। बलबन ने सैन्य सुधार किए, लेकिन कैकुबाद के समय सेना भ्रष्ट हो गई। जासूसी तंत्र (बरीद) कमजोर पड़ गया, जिससे विद्रोहों की खबर देर से मिलती थी। प्रजा असंतुष्ट थी, हिंदू राजपूत और मुस्लिम सूफी दोनों ही शासन से नाराज थे। भोग-विलास ने खजाने को खाली कर दिया और भ्रष्ट अमीरों ने राज्य को लूटा। इस प्रशासनिक शून्यता ने राज्य को आंतरिक विद्रोहों के लिए खुला छोड़ दिया।
बाहरी आक्रमण और सीमाओं की असुरक्षा
उत्तर-पश्चिम से मंगोलों का खतरा लगातार मंडराता रहा। चंगेज खान के आक्रमण (1221 ई.) को इल्तुतमिश ने रोक दिया था, बलबन ने भी सीमाओं पर किले बनवाए और सेना तैनात की। लेकिन कैकुबाद के समय मंगोल फिर टूट पड़े। 1285 ई. में मंगोलों ने लाहौर पर हमला किया और कमजोर सुल्तान कुछ न कर सका। साथ ही, दक्षिण में राजपूत राज्यों, जैसे रणथम्भोर, चित्तौड़ के विद्रोह ने सल्तनत को खंडित किया। बंगाल और मुल्तान जैसे प्रांतों में स्थानीय गवर्नर स्वतंत्र हो गए। इन बाहरी दबावों ने वंश की सैन्य शक्ति को तोड़ दिया और जलालुद्दीन जैसे सरदारों को अवसर दिया कि वह सुल्तान को हटाकर खुद सत्ता हथिया ले।
रजिया सुल्तान की त्रासदी
रजिया का पतन (1240 ई.) वंश के पतन का पूर्वानुमान था। वह कुशल थी, उसने विद्रोह दबाए और सेना का नेतृत्व किया। लेकिन तुर्की अमीरों ने उसे ‘स्त्री’ कहकर उसके शासन को स्वीकार नहीं किया। याकूत के साथ उसके संबंधों की अफवाहें फैलाई गईं। वह भटिंडा के अमीर अल्तुनिया से विवाह के बाद भी वह हार गई और बाद में मार दी गई। इस घटना ने उत्तराधिकार की लड़ाई को जन्म दिया। इससे वंश में अस्थिरता आई और बाद के सुलतान सदैव अमीरों की कठपुतली बने रहे।
इन सभी कारणों ने मिलकर गुलाम वंश को इतिहास के पन्नों में दफन कर दिया। यह वंश कुतुब मीनार, अलाई दरवाजा जैसी वास्तुकला और इंडो-इस्लामिक संस्कृति का बीज बो गया, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता ने इसे नष्ट कर दिया। इतिहासकार फरिश्ता और बरनी की रचनाएँ बताती हैं कि कैसे एक गुलामों के वंश का उदय और पतन हुआ। यदि इल्तुतमिश या बलबन जैसे शासक और होते, तो शायद कहानी कुद अलग होती। लेकिन इतिहास ने खिलजियों को आमंत्रित किया और दिल्ली की सल्तनत के विस्तार का नया युग आरंभ हुआ।










