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सैयद बंधु
‘सैयद बंधु’ से आशय अब्दुल्ला खाँ और सैयद हुसैनअली खाँ बारहा नामक दो भाइयों से है, जो 18वीं शताब्दी के आरंभ में मुगल साम्राज्य में शक्तिशाली अमीर थे। बादशाह औरंगजेब की मृत्यु (1707 ई.) के बाद फैली अराजकता के दौरान ‘सैयद बंधु’ मुगल दरबार में सबसे प्रभावशाली हो गये और अपनी शक्ति तथा प्रभाव के बल पर बादशाह नियुक्त और पदच्युत करने लगे थे। यही कारण है कि भारतीय इतिहास में सैयद बंधुओं को ‘राज-निर्माता’ (किंगमेकर) के नाम से भी जाना जाता है।
सैयद बंधुओं का परिचय
सैयद बंधु सदात-ए-बारा कबीले से संबंधित भारतीय मुसलमान थे, जो अपने-आपको पैगंबर मुहम्मद का वंशज होने का दावा करते थे। उनके पूर्वज कई शताब्दी पहले मेसोपोटामिया से आकर भारत में, विशेषकर पटियाला, दोआब और मुजफ्फरपुर के प्रदेशों में बस गये थे। बाढ़ा या बारहा (संभवतः बारह गाँव से बिगड़कर बना शब्द) के अब्दुल्ला खाँ और हुसैनअली खाँ अबुलफरह के वंश से संबंधित थे।
‘सैयद बंधु’ हिंदुस्तानी दल के नेता थे और प्रायः मुगल-विरोधी और अर्ध राष्ट्रीय हितों का प्रतिनिधित्व करते थे। सैयद बंधुओं में बड़े भाई का नाम हसनअली खाँ (1666-9 अक्टूबर, 1720 ई.) था, जिसे ‘अब्दुल्ला खाँ’ के नाम से जाना जाता था और छोटे भाई का नाम हुसैनअली खाँ (1668-12 अक्टूबर, 1722 ई.) था। सैयद बंधु ‘सैयद मियाँ’ (सैयद अब्दुल्ला खाँ) के पुत्र थे, जो औरंगजेब के समय में दक्कन में बीजापुर और अजमेर का सूबेदार रह चुका था। पतनोन्मुख मुगल काल में जब योग्य शासकों का अभाव था और मुगल शहजादों में सिंहासन पाने के लिए होड़ मची थी, सैयद बंधुओं ने समसामयिक परिस्थितियों का आकलन कर अपनी कूटनीतिक क्षमता के बल पर तत्त्कालीन मुगल दरबार की राजनीति को नियंत्रित करने में सफलता प्राप्त की।
सैयद बंधुओं ने अजमेर में मुगल सत्ता को स्थापित किया और समझौता-वार्ता के द्वारा जाट नेता चूड़ामन को मुगल सत्ता स्वीकार करने के लिए राजी किया। उनके शासन के दौरान विद्रोही सिख नेता बंदासिंह बहादुर को बंदी बनाकर मार डाला गया।
मुगल बादशाह मुहम्मदशाह (1719-1748 ई.) के शासनकाल में राजमाता कुदसिया बेगम ने मुगल बादशाह की प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए मुहम्मद अमीन खाँ, निजाम-उल-मुल्क आसफजाह और हैदरबेग जैसे अमीरों की सहायता से सैयद बंधुओं के विरूद्ध षड्यंत्र किया, जिसके परिणामस्वरूप 1720 ई. में फतेहपुर सीकरी में सैयद हुसैनअली खाँ की हत्या कर दी गई और बाद में अब्दुल्ला खाँ को भी बंदी बनाकर विष देकर मार डाला गया।
सैयद बंधुओं की प्रारंभिक नियुक्तियाँ
औरंगजेब के शासनकाल में सैयद हसनअली (अब्दुल्ला खाँ) बगलाना, होशंगाबाद, खानदेश और नजरबार का सूबेदार रह चुका था। 1705 ई. में वह मराठाओं के विरूद्ध मुगल सम्राट के साथ अंतिम अभियान में औरंगाबाद गया था और 1707 ई. में औरंगजेब के अंतिम संस्कार में भी सम्मिलित हुआ था। हसनअली खाँ का छोटा भाई हुसैनअली खाँ मुगल सम्राट औरंगजेब के शासनकाल में रणथम्भौर और हिंडोन का प्रभारी रह चुका था।
उत्तराधिकार-युद्ध में सैयद बंधुओं की भूमिका
औरंगजेब की मृत्यु (1707 ई.) के बाद होनेवाले मुगल सिंहासन के लिए उत्तराधिकार-युद्ध में सैयद बंधुओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। जब शहजादा मुहम्मद आगरा आते समय लाहौर पहुँचा था, तो सैयद बंधु उसकी सेवा में उपस्थित हुए थे। जाजऊ के युद्ध में उनका एक तीसरा भाई सैयद नूरुद्दीनअली खाँ मारा गया और सैयद हुसैनअली खाँ गंभीर रूप से घायल हो गया था।
उत्तराधिकार के युद्ध में सफल होने के बाद बहादुरशाह प्रथम (मुअज्जम) ने सैयद बंधुओं को उचित रूप से पुरस्कृत किया और उन्हें 4000 का मनसबदार बना दिया। बहादुरशाह ने बड़े भाई हसनअली खाँ को ‘अब्दुल्ला खाँ’ तथा ‘सैयद मियाँ’ की उपाधि दी और छोटे भाई हुसैनअली खाँ को बीदर प्रदेश की सूबेदारी प्रदान की, जिससे दोनों भाइयों की शक्ति बहुत बढ़ गई।
शहजादे अज़ीम-उस-शान ने 1 अप्रैल, 1708 ई. को छोटे भाई सैयद हुसैनअली खाँ को बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया, जिसकी राजधानी अजीमाबाद में थी। यही नहीं, अजीम-उस-शान ने बड़े भाई सैयद हसनअली खाँ (अब्दुल्ला खाँ) को 10 जनवरी, 1711 ई. को इलाहाबाद सूबे में अपना नायब नियुक्त कर दिया था। इस प्रकार बहादुरशाह प्रथम के राज्यकाल के अंतिम वर्षों में सैयद बंधु मुगल साम्राज्य में उच्च पदाधिकारी हो गये थे।
सैयद बंधुओं का उत्थान
फर्रुखसियर और सैयदबंधु
बहादुरशाह की मृत्यु (1712 ई.) के समय फर्रुखसियर बंगाल का सूबेदार था। उत्तराधिकर-युद्ध में वह अपने पिता ‘अजीम-उस-शान’ की सहायता के लिए चला, किंतु रास्ते में उसे अपने पिता अजीम-उस-शान की मृत्यु और जहाँदारशाह के बादशाह बनने की सूचना मिली। उसने पटना पहुँचकर स्वयं को ‘बादशाह’ घोषित किया। उसी समय बिहार का नायब सूबेदार ‘हुसैनअली खाँ बारहा’ उससे मिला, जिसे 1708 ई. में शहजादे अजीम-उस-शान ने नियुक्त किया था। फर्रुखसियर ने सैयद बंधु की माता से भेंट की और कहा कि, ‘हुसैनअली खाँ अपना रास्ता निश्चित कर ले या तो वह हमारी सहायता कर हमारा अधिकार दिलवाये अथवा बेंड़ियाँ पहनाकर जहाँदार को सौंप दे।’ हुसैनअली खाँ ने फर्रुखसियर की सहायता करने का वचन दिया और अपने बड़े भाई सैयद हसनअली खाँ (अब्दुल्ला खाँ बारहा) को, जिसे अजीम-उस-शान ने 1711 ई. में इलाहाबाद सूबे में अपना नायब बनाया था, को भी फर्रुखसियर की सहायता करने के लिए राजी कर लिया। इस बीच सैयद हसनअली खाँ के मीरबख्शी अबुलहसन खाँ ने 2 अगस्त, 1712 ई. को ‘सराय आलमचंद की लड़ाई’ में सैयद जहाँदारशाह के नये नायब अब्दुल गफूर को पराजित कर दिया। इस प्रकार सैयद बंधुओं ने जहाँदारशाह के विरूद्ध फर्रुखसियर का साथ देने के लिए मोर्चा खोल दिया।
पटना से शहजादा फर्रुखसियर और सैयद हुसैनअली खाँ अपनी सेना के साथ इलाहाबाद की ओर प्रस्थान किये। अपने सेनापति सैयद अब्दुल गफूर की पराजय के बाद बादशाह जहाँदारशाह ने शहजादे अज्जु-उद-दीन को सेनापति लुत्फुल्ला खाँ और ख्वाजा हुसैन खाँ दौराँ के साथ भेजा। किंतु शहजादा फर्रुखसियर ने 28 नवंबर, 1712 ई. को ‘खजवा (फतेहपुर) की दूसरी लड़ाई’ में शहजादे अज्जु-उद-दीन को हरा दिया। अंततः सैयद बंधुओं की सहायता से फर्रुखसियर ने 10 जनवरी, 1713 ई. को आगरा की लड़ाई में जहाँदारशाह और उसके वजीर जुल्फिकार खाँ को निर्णायक रूप से पराजित कर दिया। यद्यपि फर्रुखसियर का विद्रोह एक जोखिम भरा प्रयास था, फिर भी, सैयद बंधु अपनी वीरता और साहस से फर्रुखसियर को दिल्ली का बादशाह बनाने में सफल हो गये।
पद और उपाधियाँ
आगरा की लड़ाई (1713 ई.) में अपनी विजय के बाद अनुग्रहीत फर्रुखसियर ने आगरा से दिल्ली के रास्ते में, और दिल्ली आने के बाद भी अपने सेनापतियों और अमीरों को कई नई नियुक्तियाँ और नई उपाधियाँ प्रदान की। फर्रुखसियर ने सैयद अब्दुल्ला खाँ बारहा (हसनअली खाँ) को अपना वजीर अथवा प्रधानमंत्री नियुक्त किया और नवाब कुत्ब-उल-मुल्क, यामिन-उद-दौला, सैयद मियाँ सानी, बहादुर जफरजंग, सिपाहसालार और यार-ए-वफादार की पदवी से विभूषित किया। उसे 7000 का मनसब और मुल्तान की सूबेदारी भी दी गई। इसी प्रकार, उसके छोटे भाई हुसैनअली खाँ बारहा को उमादत-उल-मुल्क, अमीर-उल-उमरा, बहादुर, फिरोजजंग, सिपहसालार की उपाधियों के साथ प्रथम मीरबख्शी, जो वस्तुतः मुख्य सेनापति था, के पद पर नियुक्त किया गया। हुसैनअली खाँ को भी 7000 का मनसब और बिहार की सूबदारी दी गई। सैयद बंधुओं को अपने प्रांतों का प्रशासन अपने नायबों (सहायकों) द्वारा कराने की सुविधा भी दी गई।
मुगल दरबार में दलबंदी
मुगल मूल रूप से तुर्क-मंगोल मूल के थे और मध्य एशियाई प्रभावों तथा राजपूतों से वैवाहिक संबंधों के कारण भारतीय संस्कृति का पालन करते थे। अकबर के बाद प्रायः सभी मुगल सम्राटों के दरबार में तुर्की और ईरानी अमीरों के साथ-साथ बड़ी संख्या में उच्च जाति के हिंदू भी थे। इस प्रकार मुगल दरबार में ईरानी, तूरानी और हिंदुस्तानी तीन दल के अमीर थे। इनमें सैयद बंधु हिंदुस्तानी दल का प्रतिनिधित्व करते थे और सबसे शक्तिशाली थे।
सैयद बंधुओं ने शीघ्र ही बादशाह और प्रशासन को अपने नियंत्रण में कर लिया और बादशाह की इच्छा के विरुद्ध अपने विश्वासपात्रों को महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करना आरंभ कर दिया। सैयद बंधुओं के बढ़ते प्रभाव के कारण तूरानी और ईरानी सरदारों की ईर्ष्या भड़क उठी और उन्होंने सैयद बंधुओं को अपमानित करने और उन्हें हराने के लिए प्रयास करना आरंभ कर दिया। खाफी खाँ के अनुसार, ‘यह फर्रुखसियर की पहली भूल थी कि उसने सैयद अब्दुल्ला खाँ को अपना वजीर नियुक्त किया और फिर वह उससे छुटकारा नहीं पा सका।’ संभवतः फर्रुखसियर के पास इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं था।
सैयद बंधुओं के विरूद्ध षड्यंत्र और मीर जुमला
चूंकि सम्राट फर्रुखसियर स्वयं सैयद बंधुओं को उखाड़ फेंकने में असमर्थ था, इसलिए उसने एक नया दल बनाया, जिसमें खान-ए दौराँ, मीर जुमला, शाइस्ता खाँ और इत्काद खाँ सम्मिलित थे। बादशाह के कृपापात्र मीर जुमला ने सैयद बंधुओं का सक्रिय विरोध करना आरंभ किया। उसे तूरानी सरदारों की सहानुभूति और समर्थन भी प्राप्त था। बादशाह ने मीर जुमला को अपनी ओर से राजाज्ञाओं पर हस्ताक्षर करने की अनुमति दे दी और कहा कि, ‘मीर जुमला के शब्द और हस्ताक्षर मेरे शब्द और हस्ताक्षर हैं।’
दूसरी ओर, अब्दुल्ला खाँ का कहना था कि मनसब देना और पदोन्नति अथवा कोई नियुक्ति प्रधानमंत्री से परामर्श के बिना नहीं हो सकती है। खाफी खाँ का मानना है कि सैयद बंधु अपने स्थान पर सही थे और बादशाह का अपनी शक्ति को मीर जुमला को हस्तांतरित करना वजारत के पद के नियमों के विरुद्ध था।
मीर जुमला ने सैयद बंधुओं के विरुद्ध एक के बाद कई षड्यंत्र रचा। मीर जुमला के प्रभाव में आकर बादशाह ने सैयद हुसैनअली खाँ बारहा को दक्कन का सूबेदार नियुक्त किया। हुसैनअली खाँ अपने भाई को दरबार के षड्यंत्रों के बीच अकेला नहीं छोड़ना चाहता था। अतः उसने सूबेदारी को अपने नायब द्वारा कार्यान्वित करने की बादशाह से अनुमति माँगी अर्थात् वह दिल्ली में रहेगा और उसका नायब उसकी ओर से दक्कन के सूबेदार का काम करेगा।
मीर जुमला के प्रभाव में आकर बादशाह ने सैयद हुसैनअली खाँ के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और उसे दक्कन जाने का आदेश दिया। अंततः इस मामले को लेकर बात इतनी बढ़ गई कि सैयद बंधु दरबार में आना ही छोड़ दिये और अपनी सुरक्षा का पूरा इंतजाम कर लिये।
बाद में, राजमाता के बीच-बचाव के कारण सैयद बंधुओं और बादशाह में बाहरी शिष्टाचार पुनः स्थापित हुआ और यह निश्चित हुआ कि हुसैनअली खाँ ही दक्कन की सूबेदारी सँभालने जायेगा, किंतु इसी प्रकार मीर जुमला को भी पटना जाना होगा।
इसी बीच बादशाह बहादुरशाह एक निम्न कुल के कश्मीरी ‘बदनाम’ व्यक्ति ‘मुहम्मद मुराद’ अथवा ‘इत्काद खाँ’ के प्रभाव में आ गया और अब्दुल्ला खाँ के स्थान पर उसे वजीर बनाने का प्रयास किया। बादशाह ने ईद-उल-फितर के अवसर पर लगभग 70,000 सैनिक एकत्र कर लिये । सैयद अब्दुल्ला खाँ ने भी डर कर एक विशाल सेना एकत्रित कर ली क्योंकि अफवाह थी कि अब्दुल्ला खाँ को बंदी बना लिया जायेगा। ऐसा लग रहा था कि बादशाह और वजीर की सेनाओं के बीच संघर्ष होकर ही रहेगा। सैयद अब्दुल्ला खाँ ने महत्त्वपूर्ण सरदारों को लालच देकर अपनी ओर मिला लिया था, जिसमें सरबुलंद खाँ, निजाम-उल-मुल्क और अजीतसिंह जैसे लोग भी शामिल थे।
दकन में सैयद हुसैनअली खाँ
सैयद हुसैनअली खाँ अपना पूरा ध्यान दकन में केंद्रित नहीं कर सका क्योंकि उसका ध्यान मुगल दरबार की राजनीति की ओर भी लगा हुआ था। उसने अपने स्वार्थ के लिए मराठों का समर्थन प्राप्त करने की चेष्टा की और इस उद्देश्य से उसने शाहू के प्रतिनिधि शंकरजी माल्हर से वार्ता आरंभ की। उसने मराठों से समझौता कर उन्हें ‘चौथ’ और ‘सरदेशमुखी’ वसूल करने का अधिकार दिलाने का वचन दिया, जिसके बदले मराठों ने 15 हजार सैनिकों के साथ मुगल बादशाह की सेवा का वचन दिया। हुसैनअली खाँ ने शाहू से की जाने वाली इस संधि का मसविदा पुष्टि के लिए बादशाह फर्रुखसियर के पास दिल्ली भेजा, जिसे बादशाह ने अपने विश्वासपात्र अमीरों की सलाह पर अस्वीकार कर दिया।
बादशाह फर्रुखसियर ने पुनः सैयद हुसैनअली के विरुद्ध षड्यंत्र किया। उसने शाहू और कर्नाटक के जागीरदारों को गुप्त-संदेश भेजा कि वे सैयद हुसैनअली का आदेश न मानें, किंतु हुसैनअली बादशाह से ज्यादा चालाक था। उसने दक्कन में अपनी कार्य-प्रणाली बदल दी। हुसैनअली ने दक्षिण में मुगल शासन स्थापित करने के बजाय मराठों से मित्रता कर ली और शाहू से 1719 ई. में एक संधि कर ली, जिसके अनुसार उसने मराठों को बहुत सारी रियायतें दे दी और इसके बदले मराठों ने दिल्ली में हो रहे सत्ता-संघर्ष में सैयद हुसैनअली की सैनिक सहायता करने का वचन दिया।
सैयद हुसैनअली खाँ का दिल्ली की ओर प्रस्थान (1718 ई.)
इस बीच दक्षिण में अफवाह फैली की बादशाह सैयद हुसैनअली खाँ के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने वाला है। अक्टूबर, 1718 ई. में सैयद हुसैनअली खाँ दिल्ली चढ़ आया। उसके साथ बालाजी पेशवा भी था, जिसके अधीन 15 हजार मराठा सैनिक भी थे। हुसैनअली खाँ ने एक स्वतंत्र शासक की भाँति नक्कारा बजाते हुए दिल्ली में प्रवेश किया, जो शाही प्रतिष्ठा के विपरीत था।
बादशाह और सैयद बंधुओं की टक्कर निश्चित थी, किंतु जब सैयद बंधुओं ने बादशाह के सामने अपनी माँगें रखी, तो बादशाह ने उनकी सभी माँगों को स्वीकार कर लिया। अब बादशाह की समस्त अभिभावकता सैयद बंधुओं के हाथों में आ गई। सभी दुर्गों की रक्षा सैयद बंधुओं द्वारा नियुक्त व्यक्तियों के हाथ में दे दी गई और इत्काद खाँ को पदच्युत कर दिया गया।
फर्रुखसियर का वध (1719 ई.)
बादशाह और सैयद बंधुओं के बीच अविश्वास इतना बढ़ चुका था कि सैयद बंधुओं ने बादशाह के ससुर अजीतसिंह सहित कुछ अमीरों से परामर्श कर फर्रुखसियर को सिंहासन से अपदस्थ करने का निश्चय किया। अंततः सैयद बंधुओं के आदेश से अफगान सैनिकों के एक दल ने शाही हरम से बादशाह फर्रुखसियर को घसीटकर बाहर निकाला, उसे अंधा करके बंदीगृह में डाल दिया और 28 फरवरी, 1719 ई. को रफी-उद-दरजात को बादशह घोषित किया गया। बाद में, 28 अप्रैल, 1719 ई. को सैयद बंधुओं ने फर्रुखसियर की हत्या कर दी।
सैयद बंधुओं का प्रभुत्व
रफी-उद-दरजात
फर्रुखसियर के वध के बाद सैयद बंधुओं का प्रभाव दिल्ली पर पूर्णरूपेण स्थापित हो गया। उन्होंने ‘शम्सउद्दीन अबुल बरकत रफी-उद-दरजात’ को, जो रफी-उस-शान का पुत्र तथा बहादुरशाह का पौत्र था, 28 फरवरी, 1719 ई. को मुगल बादशाह घोषित किया। सैयद अब्दुल्ला खाँ बारहा तथा सैयद हुसैनअली खाँ बारहा क्रमशः ‘वजीर’ और ‘मीरबख्शी’ के पदों पर बने रहे। सैयद हिम्मत खाँ बारहा को बादशाह रफी-उद-दरजात का ‘अतालीक’ (संरक्षक) नियुक्त किया गया। फर्रुखसियर के प्रमुख विश्वासपात्रों की जागीरें अधिकृत कर ली गईं, किंतु फर्रुखसियर की विधवा इंदिरा कांवर, जो महाराजा अजीतसिंह की पुत्री थी, के वेतन एवं जागीर में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया।
राजा अजीतसिंह तथा राजा रतनचंद्र की प्रार्थना पर बादशाह ने ‘जजिया’ की वसूली बंद कर दी। बादशाह ने संभाजी के पुत्र मदनसिंह तथा उसके परिवार के अनेक सदस्यों को, जो राजधानी में नजरबंद थे, रिहा कर दिया और मराठों को दक्षिण के प्रांतों में ‘चौथ’ तथा ‘सरदेशमुखी’ की वसूली के साथ-साथ ‘स्वराज’ का अधिकार भी दे दिया। बालाजी पेशवा के नेतृत्ववाली मराठा सेना ने 30 मार्च, 1719 ई. ने दिल्ली से दक्षिण के लिए प्रस्थान किया। किंतु जून, 1719 ई. में क्षय रोग (फेफड़ों की बीमारी) से रफी-उद-दरजात की मृत्यु हो गई।
रफी-उद-दौला
सैयद बंधुओं ने 6 जून, 1719 ई. को रफी-उद-दरजात के बड़े भाई ‘रफी-उद-दौला’ को ‘शाहजहाँ सानी’ (द्वितीय) की पदवी के साथ ‘तख्ते ताऊस’ पर प्रतिष्ठित किया। उसका नाम खुतवा में पढ़ा गया और सिक्कों पर भी अंकित किया गया। किंतु प्रशासन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ और वह भी अपने भाई रफी-उद-दरजात की भाँति नाममात्र का बादशाह था।
बादशाह रफी-उद-दौला भी अपने भाई रफी-उद-दरजात की भाँति ही अस्वस्थ एवं दुर्बल था। 16 जुलाई, 1719 ई. को उसने वजीर सैयद अब्दुल्ला खाँ के साथ आगरा की ओर प्रस्थान किया, किंतु 24 जुलाई, 1719 ई. को वह फतेहपुर सीकरी के निकट बीमार पड़ा और 18 सितंबर, 1719 ई. को उसकी भी (फेफड़ों की बीमारी से) मृत्यु हो गई।
इसके बाद सैयद बंधुओं ने सैयद गुलामअली खाँ द्वारा दिल्ली से लाये गये जहाँशाह के 18 वर्षीय पुत्र ‘रोशन अख्तर’ को फतेहपुर सीकरी के निकट विद्यापुर के शाही शिविर में ‘फतह नासिरुद्दीन मुहम्मदशाह गाजी’ के नाम से 28 सितंबर, 1719 ई. को राज्याभिषेक किया।
मुहम्मदशाह और सैयदबंधु
इस समय सैयद बंधु अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष पर थे। मुहम्मदशाह नाममात्र का बादशाह था। उसकी वास्तविक शक्तियों का प्रयोग सैयद बंधुओं द्वारा किया जाता था। सैयद बंधुओं का इतना प्रभुत्व था कि उन्हीं के कार्यकर्त्ता महलों के परिचारक थे, उन्हीं के सैनिक रक्षक थे और बादशाह का राजकीय कार्यों में कोई दखल नहीं था। खाफी खाँ लिखता है कि, ‘सम्राट के चारों ओर भृत्य और पदाधिकारी पहले की ही तरह सैयद अब्दुल्ला के व्यक्ति थे। अब्दुल्ला के अनुचरों ने एक प्रकार से सम्राट को बंदी बना रखा था। यदि वह बाहर जाता अथवा शिकार पर जाता, तो यही लोग उसे घेरे रहते और उसे लेकर जाते अथवा वापस लाते।’ राजमाता ने एक स्थान पर लिखा है कि, ‘बादशाह को केवल नमाज पढ़ने के लिए जाने की अनुमति थी, अन्यथा वह सभी प्रकार से सैयद बंधुओं के अधीन था।’
सैयद बंधुओं के विरुद्ध असंतोष
सैयद बंधुओं की इस प्रभुता से तूरानी तथा ईरानी उमरा, दोनों ही असंतुष्ट थे क्योंकि सैयद बंधुओं के प्रभाव से उनकी शक्ति लगभग शून्य हो चुकी थी। सैयद भाइयों ने प्रशासन में बारहा के सैयदों, भारतीय मुसलमानों और हिंदुओं को प्रमुख स्थान दिया था। वास्तव में, सैयद बंधु हिंदुओं के समर्थन पर निर्भर थे। अनाज के एक साधारण व्यापारी ‘रत्नचंद’ को ‘राजा’ की उपाधि दी गई थी और उसे शासन तथा राज्य के बहुत सारे अधिकार दिये गये थे। खाफी खाँ के अनुसार रत्नचंद की पहुँच दीवानी, माल और कानूनी, सभी मामलों में थी, यहाँ तक कि काजियों और अन्य पदाधिकारियों की नियुक्ति में भी उसी का हाथ होता था। इससे दूसरे पदाधिकारियों की अनदेखी होने लगी और केवल उसकी ही आज्ञा का पालन होने लगा था।
दो राजपूत महाराजे- आमेर के जयसिंह और जोधपुर के अजीतसिंह भी सैयद बंधुओं के अंतरंग थे। मराठे भी उनके समर्थक थे। फलतः ‘जजिया’ को पुनः हटा दिया गया और अहमदनगर के सूबेदार अजीतसिंह ने वहाँ ‘गोहत्या’ पर प्रतिबंध लगा दिया।
मुगल प्रतिक्रांति और निजाम-उल-मुल्क
मुगल रक्त का गौरव और साम्राज्य की भावना एकीकरण की एक बहुत बड़ी भावना थी। राजमाता कुदसिया बेगम सैयद बंधुओं के प्रभाव को समाप्त कर मुगल बादशाह की शक्ति और प्रतिष्ठा को पुनः प्रतिष्ठित करना चाहती थी। तूरानी अमीर वर्ग का नेता मुहम्मद अमीन खाँ भी सैयदों का घोर विरोधी था और वह भी किसी तरह सैयदों के प्रभाव को समाप्त करने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार था। सैयद बंधुओं के बढ़ते प्रभाव और शक्ति से ईरानी और तूरानी अमीरों ने सैयद बंधुओं के विरूद्ध प्रतिक्रांति की योजना बनाई। इस ‘मुगल प्रतिक्रांति’ का नेता चिनकिलिच खाँ था, जिसे प्रायः ‘निजाम-उल-मुल्क’ के नाम से जाना जाता है। अब निजाम-उल-मुल्क ने राजमाता कुदसिया बेगम और मुहम्मद अमीन खाँ के साथ मिलकर सैयद बंधुओं को रास्ते से हटाने की योजाना बनाई।
प्रतिक्रांति के दमन के लिए सैयद बंधुओं ने मराठों के विरुद्ध मालवा की सुरक्षा का बहाना बनाकर निजाम-उल-मुल्क को दिल्ली से मालवा स्थानांतरित कर दिया। निजाम-उल-मुल्क जानता था कि बल-प्रयोग से राज्य-परिवर्तन संभव नहीं है, इसलिए वह दक्कन की ओर चला गया। सैयद बंधुओं और मराठों के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध थे। सैयद अब्दुल्ला खाँ ने शाहू को लिखा कि वह निजाम-उल-मुल्क के विरुद्ध अभियान में आलमअली खाँ की सहायता करे। सैयद अब्दुल्ला ने आलमअली खाँ को अपने एक पत्र में लिखा कि वह शंकरजी मल्हार के परामर्श से युद्ध की तैयारी करे।
निजाम-उल-मुल्क ने 14 हजार सैनिकों के साथ नर्मदा पार किया और असीरगढ़ तथा बुरहानपुर के दुर्गों को जीत लिया, जिससे उसकी शक्ति बढ़ गई और मई, 1720 ई. में प्रांतीय अधिकारियों ने उसके समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। उसने जून, 1720 ई. में दिलावरअली खाँ को पराजित करके मार डाला, जिससे सैयद बंधुओं की स्थिति डावांडोल हो गई।
सैयद हुसैनअली खाँ ने निजाम-उल-मुल्क को एक फरमान भेजा जिसके द्वारा उसे दक्षिण की सूबेदारी दी गई थी। यह सैयद हुसैनअली की एक चाल थी जिसके द्वारा वह सैनिक तैयारी के लिए कुछ समय चाहता था। निजाम-उल-मुल्क ने आलमकुली खाँ को, जो सैयद हुसैनअली का दत्तक पुत्र और दकन का नायब सूबेदार था, फरमान की प्रतिलिपि भेजते हुए सेना भंग करने और परिवार के साथ उत्तर जाने का आदेश दिया। किंतु आलमअली खाँ इसकी उपेक्षा करते हुए उत्तर की ओर बढ़ता रहा। 9 अगस्त, 1720 ई. को बालापुर में उसकी सेना तथा निजाम-उल-मुल्क की सेना के बीच निर्णायक युद्ध हुआ, जिसमें आलमअली खाँ तथा सैयद आलम बारहा सहित अनेक सैनिक मारे गये। दक्षिण की इन पराजयों से सैयद बंधुओं की शक्ति और प्रतिष्ठा नष्ट होने लगी।
सैयद हुसैनअली खाँ की हत्या का षड्यंत्र
सैयद हुसैनअली खाँ ने निजाम-उल-मुल्क के विरुद्ध स्वयं दक्षिण जाने का निश्चय किया। यद्यपि मुहम्मद अमीन खाँ ने सैयद हुसैनअली खाँ को निजाम से समझौता करने और उसे दक्षिण का सूबेदार नियुक्त करने का परामर्श दिया था, किंतु सैयद बंधु उसे एक विश्वासघाती और सारे फसाद का जड़ समझते थे। उन्होंने कई बार उसकी हत्या करने की योजना बनाई, किंतु मुगल अमीरों के डर से नहीं मार सके। सैयद हुसैनअली को भय था कि यदि मुहम्मद अमीन खाँ दिल्ली में रहा, तो विद्रोह कर सकता है, अतः उसे भी दक्षिण अभियान में अपने साथ ले लिया।
किंतु मुहम्मद अमीन खाँ बुद्धिमान और दूरदर्शी कूटनीतिज्ञ था। वह अच्छी तरह जानता था कि अवसर पाते ही सैयद बंधु उसकी हत्या कर देंगे। संभवतः वह स्वयं दुविधा में था क्योंकि वह न तो सैयद हुसैनअली खाँ की विजय चाहता था और न ही निजाम की। जहाँ सैयद हुसैनअली खाँ की विजय से तूरानी उमरा के गुट का सर्वनाश हो जाता, वहीं निजाम की विजय से उसके वजीर बनने का अवसर निकल जाता। यदि निजाम-उल-मुल्क सैयद हुसैनअली खाँ के विरुद्ध सफल हो जाता, तो बादशाह उसे वजीर के पद से सम्मानित करता। किंतु परिस्थितियों से लगता था कि आगामी युद्ध में सैयद बंधु ही विजयी होंगे क्योंकि उनके पास 50 हजार सैनिकों की सशक्त सेना थी और बादशाह मुहम्मदशाह भी उनके साथ जा रहा था।
अब दिल्ली में मुहम्मद अमीन खाँ ने एतमादुद्दौला, सआदतअली खाँ, हैदरकुली खाँ तथा हैदरबेग (हैदर खाँ) से सहयोग से सैयद हुसैनअली के विरुद्ध षड्यंत्र रचा, जिसमें हैदरबेग ने हुसैनअली खाँ को मारने का बीड़ा उठाया। यह योजना बहुत गुप्त रखी गई, केवल राजमाता कुदसिया बेगम को ही इसकी जानकारी थी, जो अब्दुल्ला खाँ पर आश्रित थीं।
हुसैनअली खाँ की हत्या (1720 ई.)
सितंबर, 1720 ई. को सैयद हुसैनअली खाँ ने बादशाह मुहम्मदशाह के साथ दिल्ली से अजमेर होते हुए दक्षिण के लिए प्रस्थान किया। आगरा के निकट करोली नामक गाँव से सैयद अब्दुल्ला खाँ अपने अधिकारियों सहित दिल्ली के लिए निकला। 8 अक्टूबर, 1720 ई. को आगरा से 75 मील उत्तर-पश्चिम में शाही शिविर लगाया गया। उसी दिन जब सैयद हुसैनअली खाँ बादशाह से मिलकर एक पालकी में बैठकर अपने शिविर की ओर लौट रहा था, तो योजनानुसार हैदरबेग (हैदर खाँ) ने उसे मुहम्मद अमीन खाँ के विरुद्ध एक याचिका दी। जब सैयद हुसैनअली याचिका को पढ़ने लगा, तो हैदर खाँ ने छुरे से उसकी हत्या कर दी और इस प्रकार अर्विन के शब्दों में, ‘भारतीय कर्बला में दूसरे यजीद ने दूसरे हुसैन को शहीद कर दिया।
इब्राहीम को बादशाह घोषित करना (1720 ई.)
सैयद अब्दुल्ला खाँ अपने भाई सैयद हुसैनअली खाँ की हत्या से बहुत दुखी हुआ। उसके स्थान पर मुहम्मद अमीन खाँ को वजीर भी बना दिया गया था। उसके सहयोगियों ने उसे मुहम्मदशाह के विरुद्ध सैनिक अभियान करने की सलाह दी, किंतु वह बादशाह की शक्ति से परिचित था। अब उसने नया बादशाह बनाने की सोची और रफी-उस-शान के ज्येष्ठ पुत्र ‘इब्राहीम’ को 15 अक्टूबर, 1720 ई. को मुहम्मदशाह के स्थान पर मुगल बादशाह घोषित किया। उसका नाम ‘खुतबा’ में पढ़ा गया और सिक्कों पर भी अंकित किया गया। सैयद अब्दुल्ला खाँ ने शीघ्रता से सैनिकों की भर्ती की, जिससे उसके सैनिकों की संख्या लगभग एक लाख पहुँच गई।
सैयद अब्दुल्ला खाँ की पराजय (1720 ई.)
सैनिक तैयारियों के बाद सैयद अब्दुल्ला खाँ 28 अक्टूबर, 1720 ई. को दिल्ली से आगरा के लिए चल पड़ा और 12 नवंबर को हरियाणा के पलवल के पास हसनपुर नामक स्थान पर पहुँच गया। दूसरे दिन 13 नवंबर, 1720 ई. को शाही सेना ने ‘हसनपुर के युद्ध’ में सैयद अब्दुल्ला खाँ को पराजित कर बंदी बना लिया, किंतु बादशाह इब्राहीम युद्ध-स्थल से भागने में सफल हुआ।
सैयद अब्दुल्ला खाँ की हत्या (1722 ई.)
हसनपुर में सैयद अब्दुल्ला को बंदी बनाकर दिल्ली ले जाया गया और बंदीगृह में डाल दिया गया। अंत में, दो वर्ष बाद, 11 अक्टूबर, 1722 ई. को विष देकर सैयद अब्दुल्ला खाँ की हत्या कर दी गई। इस प्रकार सैयद बंधुओं का दुःखद अंत हो गया और सैयद बंधु इतिहास बनकर रह गये।
सैयद बंधुओं का मूल्यांकन
कम से कम फर्रुखसियर ने सैयद बंधुओं के साथ न्याय नहीं किया। बादशाह द्वारा निरंतर किये जा रहे षड्यंत्रों के कारण सैयद बंधु निराशा की चरमसीमा तक पहुँच गये थे। उन्हें आभास हो गया था कि बादशाह फर्रुखसियर के रहते वे सुरक्षित नहीं हैं, इसलिए उन्होंने बादशाह को समाप्त करने में ही अपनी भलाई समझी, जो संभवतः उचित ही था। सैयद बंधु अपने प्रभाव से अपने प्रतिद्वंदियों को निरस्त्र करने में सफल रहे और बहादुरशाह प्रथम के बाद होनेवाले सम्राटों को उन्होंने लगभग शक्तिविहीन कर दिया था।
सैयद बंधु हिंदुस्तानी मुसलमान थे और वे इसमें गौरव का अनुभव करते थे। वे तूरानी दल की श्रेष्ठता को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे और न ही उनमें किसी प्रकार की हीनभावना थी। किंतु यह कहना उचित नहीं है कि वे मुगलों या विदेशी शासकों के स्थान पर ‘राष्ट्रीय शासन’ स्थापित करना चाहते थे।
धार्मिक क्षेत्र में सैयद बंधुओं ने सहिष्णुता की नीति अपनाई, जो अकबर के दिनों की याद दिलाती है। उन्होंने 1713 ई. में जजिया को हटा दिया और जब उसे पुनः लगाया गया, तो फिर हटा दिया। उन्होंने हिंदुओं का विश्वास जीतने का प्रयास किया और उन्हें ऊँचे पदों पर आसीन किया, जैसे दीवान के रूप में रत्नचंद की नियुक्ति। उन्होंने राजपूतों को भी अपनी ओर मिलाया और महाराजा अजीतसिंह को विद्रोही से मित्र बना लिया था। यहाँ तक कि सैयद बंधुओं ने राजा अजीतसिंह की पुत्री का विवाह बादशाह फर्रुखसियर के साथ करवा दिया था।
सैयद बंधुओं ने जाटों से भी सहानुभूति दिखाई और उन्हीं के हस्तक्षेप से जाटों ने थूरी दुर्ग का घेरा उठा लिया तथा चूड़ामन अप्रैल, 1718 ई. में दिल्ली आया। सबसे बड़ी बात यह थी कि मराठों ने भी सैयद बंधुओं का साथ दिया और छत्रपति मुगल बादशाह का नायक बन गया। यदि उनकी प्रबुद्ध धार्मिक नीति का अनुसरण उत्तरवर्ती मुगल बादशाह करते, तो संभवतः भारत का इतिहास कुछ भिन्न होता। खाफी खाँ ने लिखा है कि जो लोग कट्टरपंथी और स्वार्थी नहीं थे, उन्हें सैयद बंधुओं के शासन से कोई शिकायत नहीं थी। सैयद बंध अपने समय के हातिम थे।
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