सातवाहन वंश
सातवाहन वंश भारत का एक प्राचीन राजवंश था, जिसने दूसरी शताब्दी ई.पू. के अंत में मध्य और दक्षिण भारत पर शासन आरंभ किया। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद, प्रतिष्ठान (गोदावरी नदी के तट पर स्थित पैठन) को राजधानी बनाकर सातवाहनों ने अपनी शक्ति का विस्तार किया। इस राजवंश ने लगभग चार शताब्दियों तक दक्षिणापथ में शासन किया, उत्तरापथ पर आक्रमण कर कुछ समय के लिए मगध को अधीन किया और विदेशी शक आक्रमणकारियों के विरुद्ध सफलता प्राप्त की। भारतीय इतिहास में कोई अन्य राजवंश इतने लंबे समय तक अबाध रूप से शासन नहीं कर सका।
ऐतिहासिक स्रोत
सातवाहन राजाओं के बारे में साहित्यिक और पुरातात्त्विक स्रोतों से महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। साहित्यिक स्रोतों में पुराण प्रमुख हैं, जिनमें इस वंश के तीस राजाओं के नाम उल्लिखित हैं। पुराणों से पता चलता है कि आंध्र जातीय सिमुक ने कण्व वंश के अंतिम शासक को हराकर और शुंगों की अवशिष्ट शक्ति को समाप्त कर सातवाहन वंश की स्थापना की।
इसके अलावा, ऐतरेय ब्राह्मण, मनुस्मृति, महाभारत, सातवाहन राजा हाल की गाथासप्तशती, सातवाहन अमात्य सर्ववर्मा के कातंत्र व्याकरण, गुणाढ्य की बृहत्कथा पर आधारित सोमदेव के कथासरित्सागर और क्षेमेंद्र की बृहत्कथामंजरी से भी सातवाहन राजाओं के विषय में कुछ सूचनाएँ मिलती हैं। यूनानी-रोमन लेखकों जैसे प्लिनी और टॉलमी के विवरण से सातवाहन कालीन इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। पेरीप्लस ऑफ एरीथ्रियन सी के अज्ञात यूनानी लेखक ने भारत और पश्चिमी देशों के बीच व्यापार का वर्णन किया है। पश्चिमी तट पर स्थित भड़ौच (भरुकच्छ) इस काल का सबसे प्रसिद्ध बंदरगाह था, जिसे यूनानी लेखकों ने ‘बेरीगाजा’ कहा है।

सातवाहन कालीन इतिहास के निर्माण में साहित्यिक स्रोतों की अपेक्षा सिक्के, अभिलेख और स्मारक अधिक प्रमाणिक हैं। नागानिका के नानाघाट लेख से सातकर्णि प्रथम की उपलब्धियों का ज्ञान होता है। गौतमीपुत्र सातकर्णि के नासिक से प्राप्त दो लेख उसके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हैं। अन्य महत्त्वपूर्ण अभिलेखों में गौतमीबलश्री का नासिक गुहालेख, वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी का कार्ले गुहालेख और यज्ञश्री सातकर्णि का नासिक गुहालेख शामिल हैं। सातवाहन शासकों के बहुसंख्यक सिक्के विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं, जिनसे राज्य-विस्तार, धर्म एवं व्यापार की प्रगति की सूचना मिलती है। नासिक के जोगलथंबी मुद्राभांड से शक-क्षत्रप नहपान के सिक्के मिले हैं, जो गौतमीपुत्र द्वारा पुनर्टंकित किए गए हैं और नहपान पर उनकी विजय के प्रमाण हैं। पुलुमावी के शीशे के एक सिक्के पर जलपोत का अंकन तत्कालीन समुद्री व्यापार का सूचक है। सातवाहन सिक्के सीसा, तांबा तथा पोटीन के हैं, जिन पर वृषभ, गज, अश्व, सिंह, पर्वत, जहाज, चक्र, स्वास्तिक, कमल, त्रिरत्न, उज्जैन चिन्ह आदि अंकित हैं। सातवाहन काल के अनेक चैत्य एवं विहार नासिक, कार्ले, भाजा आदि स्थानों से मिले हैं, जिनसे तत्कालीन धर्म, कला एवं स्थापत्य के विकास की जानकारी मिलती है।
सातवाहन वंश की उत्पत्ति
भारतीय इतिहास में सातवाहन राजवंश आंध्र वंश के नाम से भी प्रसिद्ध है। पुराणों में इस वंश के संस्थापक को आंध्र जातीय तथा आंध्र-भृत्य कहा गया है, जबकि इस वंश के राजाओं ने अपने अभिलेखों में स्वयं को सातवाहन कहा है। सातवाहन नरेश आंध्र जाति के थे या उनके पूर्वज आंध्र वंशीय राजाओं के भृत्य थे। प्राचीन काल में कृष्णा-गोदावरी नदियों के बीच का तेलुगु भाषी प्रदेश आंध्र कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण में यहां के निवासियों को ‘अनार्य’ कहा गया है। महाभारत में आंध्रों को ‘म्लेच्छ’ तथा मनुस्मृति में ‘वर्णसंकर’ एवं ‘अंत्यज’ बताया गया है। इस आधार पर आंध्रों को निम्न जातीय माना जा सकता है।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ‘सातवाहन’ कुल का नाम है। सातवाहनों ने अपने अभिलेखों में जाति का उल्लेख न करके केवल कुल नाम का उल्लेख किया है। संभवतः सातवाहन नामक व्यक्ति इस वंश का संस्थापक था। हेमचंद्र रायचौधरी के अनुसार सातवाहन ब्राह्मण थे, जिनमें नागों के रक्त का मिश्रण था। इस वंश के शासक गौतमीपुत्र सातकर्णि को नासिक प्रशस्ति में ‘एकब्राह्मण’ और ‘क्षत्रियों का मान मर्दन करने वाला’ कहा गया है। इस आधार पर कुछ इतिहासकार इस वंश को ब्राह्मण मानते हैं। एक संभावना यह भी है कि सातवाहन शकों द्वारा पराजित होने के बाद अपना मूल स्थान छोड़कर आंध्र प्रदेश में बस गए, इसलिए उन्हें ‘आंध्र’ कहा गया।
‘एकब्राह्मण’ का अर्थ अद्वितीय ज्ञानी भी होता है, और क्षत्रिय-मान-मर्दन के आधार पर सातवाहनों को ब्राह्मण मानना अनुमान पर आधारित है। नंद वंश का शासक महापद्मनंद भी क्षत्रियों का अंत करने वाला ‘द्वितीय परशुराम’ था, लेकिन इस उपाधि के आधार पर नंदों को ब्राह्मण नहीं माना जाता। यदि सातवाहन ब्राह्मण होते, तो ब्राह्मण वंशीय कण्वों और शुंगों की शक्ति का नाश क्यों करते? इस प्रकार सातवाहनों को ब्राह्मण मानकर भारतीय संस्कृति और ब्राह्मण धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का तर्क अनावश्यक है। लगता है, सातवाहन आंध्र जनजाति से संबंधित थे और मौर्यों की अधीनता में शासन कर रहे थे।
सातवाहनों का मूल स्थान
सातवाहनों के मूल स्थान के संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है। रैप्सन, स्मिथ और भंडारकर आंध्र प्रदेश को सातवाहनों का मूल स्थान मानते हैं, लेकिन इन स्थानों से सातवाहनों का कोई अभिलेख या सिक्का अभी तक नहीं मिला है।
अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार सातवाहनों का आदि स्थान महाराष्ट्र था। सातवाहन राजाओं के सर्वाधिक अभिलेख और सिक्के महाराष्ट्र के पैठन (प्रतिष्ठान) के समीपवर्ती क्षेत्रों से प्राप्त हुए हैं। नानाघाट, नासिक, कार्ले और कन्हेरी की गुफाओं में मिले अभिलेख आरंभिक सातवाहन शासकों—सिमुक, कृष्ण और सातकर्णि प्रथम के स्मृति चिह्न हैं। सातकर्णि प्रथम की रानी महारठी वंश की राजकुमारी थी। इससे लगता है कि सातवाहन पहले महाराष्ट्र में शासन करते थे और बाद में शकों द्वारा पराजित होने पर वे आंध्र चले गए, इसलिए उन्हें आंध्र-सातवाहन कहा गया। इनकी शक्ति का केंद्र आंध्र में न होकर महाराष्ट्र के प्रदेश में था और सातवाहनों के सिक्के भी इसी क्षेत्र से मिले हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि सातवाहनों का मूल स्थान पश्चिमी भारत में महाराष्ट्र क्षेत्र का पैठन (प्रतिष्ठान) था। आरंभ में इस वंश का शासन पश्चिमी दक्कन के कुछ हिस्सों तक ही सीमित था।
सातवाहन वंश के आरंभिक शासक
इस वंश का आरंभ सिमुक नामक व्यक्ति ने दक्षिण में कृष्णा और गोदावरी नदियों की घाटी में किया। पुराणों के अनुसार आंध्र जातीय सिमुक ने कण्व वंश के अंतिम राजा सुशर्मा को हराकर और शुंगों की अवशिष्ट शक्ति को समाप्त कर मगध के राजसिंहासन पर अपना अधिकार स्थापित किया। सिमुक का उल्लेख नानाघाट चित्रफलक अभिलेख में मिलता है और उसके कुछ सिक्के भी प्राप्त हुए हैं।
हाथीगुम्फा लेख के अनुसार कलिंग राजा खारवेल सातवाहन वंश के सातकर्णि का समकालीन था और खारवेल को पहली शताब्दी ई.पू. में रखा जाता है। यदि सातकर्णि खारवेल का समकालीन था, तो सिमुक का काल उससे पूर्व रहा होगा। सिमुक ने 23 वर्ष शासन किया। संभवतः लगभग 230 ई.पू. में सिमुक ने मौर्य साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह किया और प्रतिष्ठान को राजधानी बनाकर स्वतंत्र रूप से शासन किया। जैन गाथाओं के अनुसार सिमुक ने अनेक बौद्ध और जैन मंदिरों का निर्माण कराया।
सिमुक की मृत्यु के समय उसका पुत्र सातकर्णि वयस्क नहीं था, इसलिए सिमुक का भाई कृष्ण (कान्ह) सातवाहन राज्य का स्वामी बना। कृष्ण ने सातवाहन साम्राज्य का विस्तार किया और गोदावरी के तट पर प्रतिष्ठान को अपनी राजधानी बनाया। उसके ‘श्रमण’ नामक एक महामात्य ने नासिक में एक गुहा का निर्माण करवाया। पुराणों के अनुसार उसने 18 वर्ष तक राज्य किया।
सातकर्णि प्रथम
कृष्ण के बाद सिमुक का पुत्र सातकर्णि प्रथम प्रतिष्ठान के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ, जो आरंभिक सातवाहन शासकों में सबसे महान था। सातकर्णि एक शक्तिशाली राजा था। उसका विवाह शक्तिशाली अंगीय कुलीन महारथी सरदार की पुत्री नयनिका या नागानिका के साथ हुआ। इस वैवाहिक संबंध से सातकर्णि की शक्ति बढ़ी, क्योंकि उसके सिक्कों पर ससुर महारठी त्राणकयिरो का नाम भी अंकित है।
सातकर्णि प्रथम की उपलब्धियाँ
नानाघाट लेख के अनुसार सातकर्णि ने पश्चिमी मालवा, अनूप (नर्मदा घाटी) तथा विदर्भ के प्रदेशों पर विजय प्राप्त की। संभवतः सातकर्णि ने शुंगों के कुछ प्रदेशों पर भी अधिकार किया। सातकर्णि के अमात्य वशिष्ठीपुत्र आनंद ने साँची स्तूप के तोरण पर अपना लेख खुदवाया, जो पूर्वी मालवा पर उसके अधिकार का प्रमाण है। पश्चिमी मालवा से प्राप्त ‘श्रीसात’ नामधारी सिक्के इस क्षेत्र पर उसके अधिकार के सूचक हैं।
हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसकी पूर्वी सीमा कलिंग शासक खारवेल की पश्चिमी सीमा से लगी हुई थी। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि कृष्णा नदी के दक्षिणी भाग पर खारवेल ने आक्रमण किया था। हाथीगुम्फा शिलालेख से ज्ञात होता है कि खारवेल ने विजय-यात्रा करते हुए सातकर्णि की उपेक्षा करते हुए कण्वेणा नदी तक आक्रमण किया और असिक नगर में आतंक फैलाया। यह क्षेत्र संभवतः सातकर्णि के अधिकार में था, लेकिन दोनों सेनाओं का आमना-सामना नहीं हुआ। यदि खारवेल विजयी होता, तो अपने लेख में इसका उल्लेख अवश्य करता। अधिकांश विद्वानों की मान्यता है कि सातकर्णि प्रथम के खारवेल से मैत्रीपूर्ण संबंध थे।
सातकर्णि प्रथम ने अपनी विजयों द्वारा राज्य का विस्तार कर राजसूय यज्ञ और दो अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया और ‘दक्षिणापथपति’ तथा ‘अप्रतिहत चक्र’ जैसी उपाधियाँ धारण कीं। उसने ब्राह्मण पुरोहितों को 47,200 गायें, 10 हाथी, 1,000 घोड़े, 1 रथ और 68,000 कार्षापण दान किए। अश्वमेध यज्ञ के बाद उसने अपनी रानी के नाम पर रजत मुद्राएँ उत्कीर्ण करवाईं, जिन पर अश्व का अंकन मिलता है।
‘पेरीप्लस ऑफ एरीथ्रियन सी’ से पता चलता है कि ‘एल्डर सैरागोनस’ शक्तिशाली राजा के काल में ‘सुप्पर’ तथा ‘कलीन’ (सोपारा तथा कल्यान) के बंदरगाह अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए सुरक्षित थे। ‘एल्डर सैरागोनस’ की पहचान ‘सातकर्णि प्रथम’ से की जा सकती है।
सातकर्णि अधिक समय तक शासन नहीं कर सका। संभवतः एक युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई और उसका शासनकाल केवल दस वर्ष (लगभग 180-170 ई.पू.) रहा। उसके दोनों पुत्र—वेदश्री तथा शक्तिश्री—अभी वयस्क नहीं थे, इसलिए उसकी मृत्यु के बाद शासन-सूत्र रानी नागानिका ने संभाला।
शक-सातवाहन संघर्ष
पुराणों में सातकर्णि प्रथम के बाद शासन करने वाले लगभग उन्नीस सातवाहन राजाओं के केवल नाम मिलते हैं। संभवतः कुछ काल के लिए सातवाहनों की शक्ति कमजोर पड़ी। रोमन-यूनानी स्रोतों से पता चलता है कि भारत-रोम व्यापार के कारण पश्चिमी तट के बंदरगाह आरंभिक सातवाहन काल से फल-फूल रहे थे। इस समृद्ध व्यापारिक क्षेत्र पर आधिपत्य के लिए पश्चिमी शक-क्षत्रपों और सातवाहनों के बीच संघर्ष हुआ। शक-सातवाहन संघर्ष के पहले चरण में क्षत्रप नहपान द्वारा नासिक और पश्चिमी दक्कन के क्षेत्रों पर आक्रमण की सूचना मिलती है। लगता है कि क्षहरात वंश के शक-क्षत्रपों ने सातवाहनों को पश्चिमी दक्कन से निष्कासित कर दिया। शक-क्षत्रप नहपान के सिक्के एवं अभिलेख नासिक प्रदेश के आसपास प्राप्त हुए हैं, जो इस क्षेत्र पर शक आधिपत्य के सूचक हैं। लेकिन सातवाहनों ने अपने महान शासक गौतमीपुत्र सातकर्णि के नेतृत्व में पुनः अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की।
गौतमीपुत्र सातकर्णि
गौतमीपुत्र सातकर्णि की उपलब्धियों का ज्ञान उसके शिलालेखों और सिक्कों से होता है। पुराणों के अनुसार वह सातवाहन वंश का 23वां शासक था। उसके पिता का नाम शिवस्वाति और माता का नाम गौतमी बलश्री था। उसके तीन अभिलेख—एक कार्ले से और दो नासिक से मिले हैं। कार्ले और नासिक के पहले अभिलेख उसके शासन के 18वें वर्ष के हैं, जबकि नासिक का दूसरा अभिलेख 24वें वर्ष का है। गौतमी बलश्री की नासिक प्रशस्ति और पुलुमावी के नासिक गुहालेख से भी उसकी सैनिक सफलताओं और उपलब्धियों की सूचनाएँ मिलती हैं। नासिक जिले के जोगलथंबी से शक-क्षत्रप नहपान के सिक्कों का ढेर प्राप्त हुआ है, जिसमें दो तिहाई सिक्कों पर गौतमीपुत्र का नाम पुनर्टंकित है। इससे स्पष्ट है कि वह नहपान का समकालीन था और उसने नहपान को पराभूत कर समीपवर्ती प्रदेशों से शक शासन का उन्मूलन किया। इस प्रकार शकों के उत्कर्ष के कारण पश्चिमी भारत में सातवाहन सत्ता क्षीण हो गई थी, लेकिन गौतमीपुत्र के नेतृत्व में सातवाहनों की शक्ति का पुनरुद्धार हुआ।
पश्चिमी दक्कन के क्षहरात वंशीय क्षत्रपों पर विजय
गौतमीपुत्र सातकर्णि का पहला उद्देश्य पश्चिमी दक्कन के समृद्ध क्षेत्रों को क्षहरात वंशीय क्षत्रपों से मुक्त कराकर अपने वंश के गौरव को पुनर्स्थापित करना था। उसने सैनिक तैयारी करके क्षहरातों पर आक्रमण किया। इस अभियान में क्षहरात शासक नहपान और उषावदात पराजित हुए तथा मारे गए। अपनी विजय के बाद उसने नासिक के बौद्ध संघ को ‘अजकालकिय’ नामक क्षेत्र दान दिया। उसने कार्ले के भिक्षु संघ को ‘करजक’ (पुणे जिले में स्थित) नामक गाँव दान दिया, जो पहले उषावदात के अधिकार में था। उषावदात नहपान का दामाद था और उसके राज्यों के दक्षिणी प्रांतों का राज्यपाल था, जिसमें नासिक तथा पूना के क्षेत्र शामिल थे।
भू-आवंटन की कार्यवाही सैनिक अभियान के दौरान की गई। स्पष्ट है कि इस प्रदेश में गौतमीपुत्र की उपस्थिति क्षहरातों के विरुद्ध अभियान का द्योतक है। गोवर्धन के अमात्य को जारी एक राजाज्ञा में वह स्वयं को ‘वेणुकटक स्वामी’ कहता है। इससे पता चलता है कि उसने वैनगंगा का तटवर्ती क्षेत्र शक-क्षत्रपों से जीत लिया। गौतमीपुत्र की इस सफलता की पुष्टि जोगलथंबी मुद्राभांड के सिक्कों से भी होती है। इस मुद्राभांड से प्राप्त 13,250 मुद्राओं में से करीब दो तिहाई नहपान की मुद्राएँ गौतमीपुत्र द्वारा पुनर्टंकित हैं। मुद्राओं के मुख भाग पर चैत्य तथा मुद्रालेख ‘रञो गौतमीपुतस’ तथा ब्राह्मी और खरोष्ठी में नहपान के मुद्रालेख का अंश है। पृष्ठ भाग पर उज्जैन चिन्ह तथा यूनानी में नहपान के लेख का अंश उत्कीर्ण है।
जैन ग्रंथ आवश्यकसूत्र की ‘निर्युक्ति’ नामक टीका में भी सालवाहन राजा द्वारा नहपान-विजय का उल्लेख मिलता है। कालकाचार्य कथानक से पता चलता है कि प्रतिष्ठान का राजा विक्रमादित्य ने शकों का संहार किया था, लेकिन यह मत विवादास्पद है और गौतमीपुत्र को विक्रमादित्य से जोड़ना मिथकीय है।
नासिक प्रशस्ति में गौतमीपुत्र को शकों, यवनों, पह्लवों का निषूदक, सातवाहन कुल के यश का प्रतिष्ठापक, अनेक युद्धों में शत्रु सेनाओं को जीतने वाला, एकशूर, शत्रुओं के लिए दुर्घर्ष जैसे विशेषणों से सुशोभित किया गया है, जो उसकी सफलताओं के प्रमाण हैं। लेख से स्पष्ट है कि गौतमीपुत्र ने क्षहरात वंशीय नहपान के साथ उसके सहयोगी यवनों और पह्लवों को भी पराभूत किया। नहपान को परास्त करने से गौतमीपुत्र की साम्राज्य सीमा विस्तृत हो गई।
उत्तरी तथा दक्षिणी भारत की विजय
गौतमीपुत्र सातकर्णि अपने वंश का सबसे प्रतापी शासक था (लगभग 106-130 ई.)। उसके द्वारा उत्तरी तथा दक्षिणी भारत के अनेक क्षेत्रों पर विजय की पुष्टि उसकी माता गौतमी बलश्री के नासिक प्रशस्ति से होती है। इस लेख के अनुसार उसने असिक (कृष्णा का तटीय प्रदेश), अश्मक (गोदावरी का तटीय प्रदेश), मूलक (पैठन का समीपवर्ती क्षेत्र), सुराष्ट्र (दक्षिणी काठियावाड़), कुकुर (पश्चिमी राजपूताना), अपरांत (उत्तरी कोंकण), अनूप (नर्मदा घाटी), विदर्भ (बरार), आकर (पूर्वी मालवा) और अवंति (पश्चिमी मालवा) के राजाओं को पराजित किया। वह विंध्य, ऋक्षवत (सतपुड़ा), पारिजात (पश्चिमी विंध्याचल), सह्य (सह्याद्रि), कृष्णगिरि, श्रीपर्वत, मलय, महेंद्र और चकोर पर्वतों का पति था। प्रशस्ति में कहा गया है कि उसके घोड़े तीन समुद्रों (पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिणी) का जल पीते थे। उसके कुछ सिक्के आंध्र प्रदेश में मिले हैं।
आंध्र प्रदेश की विजय
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि गौतमीपुत्र सातकर्णि ने आंध्र प्रदेश को जीतकर अपने राज्य में मिलाया। संभवतः उसने आंध्र प्रदेश के कुछ क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की। इस प्रकार गौतमीपुत्र ने शकों, यवनों तथा पह्लवों की शक्ति का दमन कर सातवाहन वंश के गौरव की पुनर्स्थापना की। उसकी विजयों के परिणामस्वरूप उत्तरी महाराष्ट्र, कोंकण, नर्मदा घाटी, सौराष्ट्र, मालवा, पश्चिमी राजपूताना तथा आंध्र प्रदेश के कुछ क्षेत्र उसके अधीन हो गए। गौतमीपुत्र सातकर्णि सच्चे अर्थों में ‘दक्षिणापथपति’ था।
गौतमीपुत्र सातकर्णि का प्रशासन
गौतमीपुत्र सातकर्णि विजेता होने के साथ-साथ योग्य प्रशासक भी था। उसने अपने साम्राज्य को आहारों में विभाजित किया और प्रत्येक आहार में एक विश्वसनीय अमात्य की नियुक्ति की। वह दुर्बलों, निर्बलों और दुखी लोगों के कल्याण पर ध्यान देता था और अपनी प्रजा के दुख में दुखी तथा सुख में सुखी होने वाला सम्राट था। उसने शास्त्रोक्त ढंग से शासन करते हुए प्रजा से अनावश्यक कर नहीं वसूला और वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा की। प्रशस्ति के अनुसार वह राम, केशव, अर्जुन तथा भीम के समान पराक्रमी तथा नहुष, जनमेजय, सागर, ययाति, राम, अम्बरीष के समान तेजस्वी था। वह एक महान निर्माता भी था। उसने नासिक जिले में वेणकटक नामक नगर का निर्माण कराया।
गौतमीपुत्र सातकर्णि का काल
सातकर्णि के काल के संबंध में इतिहासकारों में विवाद है। पुराणों के अनुसार उसने 56 वर्ष शासन किया। यदि सातवाहन वंश का आरंभ सिमुक द्वारा लगभग 230 ई.पू. माना जाए, तो पुराणों की वंशावली के अनुसार इस ‘शक-निषूदक’ राजा का शासन काल लगभग 106-130 ई. था।
गौतमीपुत्र सातकर्णि की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
नासिक प्रशस्ति में गौतमीपुत्र सातकर्णि को वेदों का आश्रय, अद्वितीय ब्राह्मण और द्विजों तथा द्विजेतर जातियों के कुलों का वर्धन करने वाला कहा गया है। उसने नासिक के बौद्ध संघ को ‘अजकालकिय’ क्षेत्र तथा कार्ले के भिक्षु संघ को ‘करजक’ गाँव दान दिया। इन विवरणों से लगता है कि गौतमीपुत्र व्यक्तिगत रूप से वैदिक धर्म का पोषक था, लेकिन उसके राज्य में बौद्ध जैसे श्रमण समुदाय राज्य और प्रजा के बीच लोकप्रिय और सम्मानित थे।

गौतमीपुत्र सातकर्णि का व्यक्तित्व
गौतमीपुत्र सातकर्णि बहुमुखी प्रतिभा संपन्न शासक था। वह पराक्रमी विजेता होने के साथ-साथ विद्वान भी था। नासिक प्रशस्ति में उसके व्यक्तिगत गुणों का उल्लेख है। उसका मुख-मंडल दीप्तिमान था, बाल सुंदर तथा भुजाएँ बलिष्ठ थीं। उसका स्वभाव मृदु और करुणामय था। सभी की रक्षा करने को वह सदैव तत्पर रहता था। वह गुणवानों का आश्रयदाता, संपत्ति का भंडार तथा सद्वृत्तियों का स्रोत था। वह उज्ज्वल चरित्र वाला एक धर्मप्राण शासक था।
वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी
गौतमीपुत्र सातकर्णि के बाद उसका पुत्र वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी (लगभग 130-159 ई.) सातवाहन साम्राज्य का स्वामी हुआ। पुराणों में उसे पुलुमावी कहा गया है। उसके अभिलेख नासिक, कार्ले और अमरावती में मिले हैं। पुराणों के अनुसार उसने 28 वर्ष तक शासन किया।
वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी शक्तिशाली शासक था, लेकिन इस समय पश्चिम भारत में शकों की शक्ति बढ़ रही थी। पुलुमावी कार्दमक वंशीय शासकों—चष्टन और रुद्रदामन—का समकालीन था। टॉलमी ने अपने भूगोल में चष्टन को पश्चिमी मालवा तथा उज्जैन का स्वामी कहा है। चष्टन की मुद्राएँ गुजरात में काठियावाड़ से मिली हैं, लेकिन उसके पुत्र जयदामन की मुद्राएँ पुष्कर से भी प्राप्त हुई हैं। यह प्रदेश पूर्व में सातवाहनों के अधिकार में था। चष्टन ने अपने कुछ सिक्कों पर सातवाहनों के मुद्रा-चिह्न ‘चैत्य’ को अंकित करवाया। स्पष्ट है कि इन प्रदेशों को चष्टन ने पुलुमावी से छीना होगा। चष्टन के उत्तराधिकारी रुद्रदामन ने सातवाहनों के कुकुर, सुराष्ट्र, मरु, श्वभ्र, अवंति तथा आकर प्रांतों पर अधिकार कर लिया। अपने जूनागढ़ अभिलेख में रुद्रदामन दावा करता है कि उसने दक्षिणापथ के सातकर्णि को दो बार पराजित किया, लेकिन निकट संबंधी होने के कारण उसका विनाश नहीं किया। कन्हेरी अभिलेख के आधार पर कुछ इतिहासकार मानते हैं कि पुलुमावी के उत्तराधिकारी शिवश्री सातकर्णि ने महाक्षत्रप रुद्रदामन की पुत्री से विवाह किया।
शक प्रदेशों पर आक्रमण
रुद्रदामन की मृत्यु के बाद पुलुमावी ने शक प्रदेशों पर सफल आक्रमण किया एवं अपने कुछ खोए हुए प्रदेशों को पुनः प्राप्त किया। उसने पूर्व और दक्षिण में आंध्र तथा चोल देशों पर विजय प्राप्त की। पुलुमावी एकमात्र ऐसा सातवाहन शासक है, जिसका उल्लेख अमरावती के एक लेख में हुआ है। संभवतः इसी समय आंध्र प्रदेश में सातवाहन सत्ता का विस्तार हुआ। उसके सिक्के दक्षिण में अनेक स्थानों से उपलब्ध हुए हैं। चोल-मंडल के तट से पुलुमावी के शीशे के ऐसे सिक्के मिले हैं, जिन पर दो मस्तूल वाले जहाज का अंकन है। आंध्र और चोल के समुद्र तट पर अधिकार हो जाने से सातवाहन राजाओं की सामुद्रिक शक्ति बढ़ी और जहाज के चित्र वाले सिक्के प्रचलित किए गए। इस युग में अनेक भारतीय समुद्र पार कर अन्य देशों में उपनिवेश स्थापित कर रहे थे और पूर्वी एशिया के क्षेत्रों में भारतीय बस्तियों का सूत्रपात हो रहा था।

मगध पर अधिकार
पुराणों के अनुसार अंतिम कण्व राजा सुशर्मा को हराकर आंध्र वंश के राजा सिमुक ने मगध पर अपना अधिकार स्थापित किया। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि सातवाहन शासक पुलुमावी ने कण्व वंश का अंत कर मगध पर सत्ता स्थापित की, लेकिन यह विवादास्पद है। मगध सातवाहन साम्राज्य में सम्मिलित हुआ और उसके राजा दक्षिणापथपति के साथ उत्तरापथ के भी स्वामी बने।
परवर्ती सातवाहन शासक
वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी के बाद कृष्ण द्वितीय सातवाहन साम्राज्य का स्वामी बना। उसके बाद हाल राजा हुआ।
हाल
हाल साहित्य और संस्कृति का संरक्षक था। उसके संरक्षण से प्राकृत साहित्य की उन्नति हुई। वह स्वयं प्राकृत भाषा का उत्कृष्ट कवि था और अनेक कवियों का आश्रयदाता था। हाल की रचना ‘गाथा सप्तशती’ प्राकृत भाषा की प्रसिद्ध पुस्तक है। उसका शासन काल लगभग पहली शताब्दी ई. में था।
पत्तलक, पुरिकसेन, स्वाति और स्कंदसाति
राजा हाल के बाद क्रमशः पत्तलक, पुरिकसेन, स्वाति और स्कंदसाति सातवाहन साम्राज्य के राजा हुए। इनका शासन काल कुल मिलाकर लगभग 50 वर्ष था।
महेंद्र सातकर्णि
स्कंदसाति के बाद महेंद्र सातकर्णि राजा बना। ‘पेरीप्लस ऑफ एरीथ्रियन सी’ के ग्रीक लेखक ने इसे ‘मम्बर’ के नाम से संबोधित किया है। इस ग्रंथ में भरुकच्छ के बंदरगाह से लेकर मम्बर द्वारा शासित आर्य देश तक का उल्लेख मिलता है।
कुंतल सातकर्णि
महेंद्र सातकर्णि के बाद कुंतल सातकर्णि ने शासन किया। इसके समय में नए विदेशी (यू-ची) आक्रमण हुए। सातवाहन शासकों ने इन आक्रमणकारियों का मुकाबला किया। कुंतल सातकर्णि ने यू-ची सेनाओं को पराजित कर सातवाहन साम्राज्य के गौरव को स्थापित किया। कथासरित्सागर से पता चलता है कि उसका साम्राज्य दक्कन, काठियावाड़, मध्य प्रदेश, बंग, अंग और कलिंग तक विस्तृत था। उत्तर के कई शासक उसके करद थे। उसने म्लेच्छों (शक व यू-ची) का संहार किया।
कुंतल सातकर्णि गुणाढ्य नामक प्रसिद्ध लेखक का आश्रयदाता था, जिसने प्राकृत भाषा में ‘बृहत्कथा’ की रचना की। गुणाढ्यकृत बृहत्कथा उपलब्ध नहीं है, लेकिन सोमदेव के ‘कथासरित्सागर’ व क्षेमेंद्र की ‘बृहत्कथामंजरी’ से उसके बारे में सूचनाएँ मिलती हैं। बृहत्कथा का एक तमिल अनुवाद भी दक्षिण भारत में मिलता है। यह सातवाहन साम्राज्य के वैभव का परिणाम था कि बृहत्कथा की कीर्ति सारे भारत में फैली।
सातवाहन राजा प्राकृत भाषा बोलते थे, लेकिन कुंतल सातकर्णि की रानी मलयवती की भाषा संस्कृत थी। राजा को संस्कृत सिखाने के लिए उसके अमात्य सर्ववर्मा ने सरल रीति से ‘कातंत्र व्याकरण’ की रचना की। व्याकरण से राजा इतना प्रसन्न हुआ कि उसने पुरस्कार स्वरूप भरुकच्छ प्रदेश का शासन सर्ववर्मा को दे दिया।

सातवाहन शक्ति का पतन
कुंतल सातकर्णि के बाद सुंदर सातकर्णि और फिर वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी द्वितीय ने शासन किया। संभवतः इसके समय में सातवाहन साम्राज्य का पतन आरंभ हुआ। यज्ञश्री सातकर्णि (दूसरी शताब्दी ई. के अंत में) सातवाहन वंश का अंतिम महत्त्वपूर्ण शासक था। उसने क्षत्रपों पर विजय प्राप्त की, लेकिन उसके उत्तराधिकारी सीमित क्षेत्र पर शासन कर सके। मुद्रा-प्रचलन के स्थानीय स्वरूप और प्राप्ति स्थलों से सातवाहन साम्राज्य के संकुचन की सूचना मिलती है।
तीसरी शताब्दी ई. में सातवाहनों की शक्ति क्रमशः क्षीण हुई और स्थानीय शासक स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने लगे। आंध्र प्रदेश में इक्ष्वाकुओं ने सत्ता स्थापित की, दक्षिण-पूर्वी क्षेत्रों में पल्लवों ने स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। पश्चिमी दक्कन में चुटु, आभीर और कुरु जैसी नई शक्तियाँ उभरीं। आभीरों ने महाराष्ट्र छीन लिया। उत्तरी कनारा और मैसूर में कुंतल और चुटु एवं उसके बाद कदम्ब शक्तिशाली हुए। बरार क्षेत्र में चौथी शताब्दी के आरंभ में वाकाटक अपराजेय राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरे। इस समय तक सातवाहन साम्राज्य पूर्णतः विखंडित हो चुका था। हालांकि स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं कि वहाँ कोई केंद्रीकृत प्रशासनिक प्रणाली थी, लेकिन संपूर्ण साम्राज्य में एक व्यापक मुद्रा-प्रणाली लागू थी।
सातवाहन शासन का महत्त्व
दक्षिण भारत के इतिहास में सातवाहनों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सातवाहन शासकों ने शकों से संघर्ष कर एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित किया, दक्षिण भारत को प्रशासनिक सुदृढ़ता प्रदान की, सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को सुव्यवस्थित किया और धर्म, कला, शिक्षा तथा साहित्य का विकास किया। इस काल में भारत-रोमन व्यापार चरमोत्कर्ष पर पहुंचा। इससे भारत में भौतिक समृद्धि आई, जिसकी झलक बौद्ध और ब्राह्मणवादी समुदायों को दिए गए उदार संरक्षण में दिखाई देती है। वस्तुतः जो कार्य उत्तरी भारत में कुषाणों ने किया, वही दक्षिण में सातवाहनों ने किया।










