काकतीय साम्राज्य की महान शासिका
रुद्रमा देवी, जिन्हें रुद्राम्बा या रुद्रदेव महाराज के नाम से भी जाना जाता है, काकतीय राजवंश की एक प्रमुख शासिका थीं। उन्होंने वर्तमान तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के विशाल क्षेत्रों पर शासन किया और भारतीय इतिहास की सबसे सफल महिला शासकों में से एक मानी जाती हैं। उनके शासनकाल में काकतीय साम्राज्य ने आंतरिक विद्रोहों और बाह्य आक्रमणों का सामना करते हुए अपनी स्वतंत्रता और शक्ति बनाए रखी।
रुद्रमा देवी ने अपने शासनकाल में काकतीय साम्राज्य को कई चुनौतियों का सामना करते हुए सुदृढ़ किया। उन्होंने 1250 के दशक के अंत और 1260 के दशक के आरंभ में पांड्यों के हाथों खोए गए दक्षिणी क्षेत्रों को पुनः प्राप्त किया। इसके अतिरिक्त, उन्होंने उत्तर-पश्चिम से सेउण (यादव) और उत्तर-पूर्व से गजपतियों के आक्रमणों को विफल कर काकतीय सीमाओं की रक्षा की। 1270 और 1280 के दशक में कायस्थ सरदार अंबदेव के विद्रोह के कारण रुद्रमा ने दक्षिणी क्षेत्रों का अधिकांश हिस्सा खो दिया और संभवतः 1289 ई. में अंबदेव के विरुद्ध युद्ध में उनकी मृत्यु हो गई।

रुद्रमा का शासनकाल गैर-कुलीन योद्धाओं के उदय, प्रशासनिक पारदर्शिता और सामाजिक समरसता के लिए उल्लेखनीय था। उन्होंने वारंगल किले को अभेद्य बनाया और मोटुपल्ली बंदरगाह को अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक केंद्र के रूप में विकसित किया। उनकी विरासत काकतीय इतिहास में एक प्रेरणादायक अध्याय के रूप में अमर है।
प्रारंभिक जीवन
रुद्रमा देवी काकतीय राजवंश की प्रमुख शासिका और राजा गणपति देव की पुत्री थीं। कुछ ग्रंथों, जैसे 17वीं शताब्दी के प्रतापचरित और मार्को पोलो (1293 ई.) के विवरण में, भ्रमवश उन्हें गणपति की पत्नी बताया गया है, किंतु समकालीन अभिलेखीय साक्ष्य स्पष्ट रूप से सिद्ध करते हैं कि वह गणपति की पुत्री थीं। गणपति को कोई पुत्र नहीं था, केवल दो पुत्रियाँ थीं- रुद्रमा और उनकी छोटी बहन गणपांबा। गणपति ने रुद्रमा का पुत्रवत पालन-पोषण किया और उन्हें शस्त्रविद्या, युद्धकला, राजनीति और प्रशासन में प्रशिक्षित किया।
रुद्रमा का विवाह निदादावोलु के चालुक्य सामंत इंदुशेखर के पुत्र वीरभद्र से हुआ था। यह विवाह संभवतः 1240 ई. में वेंगी पर काकतीय विजय के बाद तय किया गया था, ताकि निदादावोलु के चालुक्यों की राजनीतिक निष्ठा सुनिश्चित की जा सके। रुद्रमा की बहन गणपांबा का विवाह कोटा परिवार के बीट से हुआ था।
राज्यारोहण
1250 के दशक के अंत में पांड्यों के खिलाफ दक्षिणी सीमा पर पराजय के बाद गणपति ने संभवतः संन्यास ले लिया। उनका कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं था, इसलिए उन्होंने 1260 ई. में रुद्रमा को ‘रुद्रदेव’ नाम देकर सहशासक नियुक्त किया। 1263 ई. तक रुद्रमा रुद्रदेव महाराज के पुरुष उपनाम से शासन करने लगीं, ताकि परंपरागत विरोध का सामना किया जा सके। काकतीय महाप्रधान पेड्डा मल्लया प्रेग्गदा के 1266 ई. के त्रिपुरांतकम शिलालेख में गणपति को शासक के रूप में उल्लेखित किया गया है, न कि रुद्रमा को। वहीं 1269 ई. के दुग्गि शिलालेख में रुद्रमा को ‘पट्टोद्धृति’ (उत्तराधिकारी) के रूप में वर्णित किया गया है, जिससे पता चलता है कि 1269 ई. में गणपति जीवित थे और रुद्रमा का संप्रभु शासिका के रूप में औपचारिक अभिषेक लगभग 1269 ई. में हुआ। गणपतिदेव संभवतः 1269-1270 ई. तक जीवित रहे, लेकिन शासन का समस्त भार रुद्रमा और उनके मंत्रियों पर था।
आंतरिक और बाह्य चुनौतियाँ
रुद्रमा के शासनकाल के प्रारंभिक वर्ष अत्यंत चुनौतीपूर्ण रहे। प्रतापचरित के अनुसार एक महिला का शासिका बनना कई सामंतों और राजपरिवार के सदस्यों को स्वीकार्य नहीं था, जिसके कारण विद्रोह भड़क उठे। इस ग्रंथ में कहा गया है कि गणपति की कनिष्ठ रानियों के पुत्रों- मुरारिदेव और हरिहरदेव ने काकतीय राजधानी वारंगल पर कब्जा कर लिया और रुद्रमा को वहाँ से खदेड़ दिया। रुद्रमा ने अपने विश्वस्त सहयोगियों, जैसे महाप्रधान प्रासादित्य, निंकमल्ल, मालिकार्जुन और कन्नर नायक की सहायता से विद्रोहियों को पराजित कर वारंगल दुर्ग को पुनः अपने नियंत्रण में लिया। प्रतापचरित में प्रासादित्य को ‘काकतीयराज्यस्थापनाचार्य’ (काकतीय राज्य का आधार स्तंभ) और ‘रायपितामह’ की उपाधियाँ दी गई हैं, जो उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका का सूचक है। कई अन्य सरदारों ने भी ऐसी उपाधियाँ धारण कीं, जिससे संकेत मिलता है कि उन्होंने रुद्रमा को विद्रोह दबाने में सहायता प्रदान की थी। लेकिन इस विवरण की विश्वसनीयता संदिग्ध है, क्योंकि किसी अन्य समकालीन स्रोत से इसका समर्थन नहीं होता। फिर भी, इतना स्पष्ट है कि अधिकांश काकतीय सामंत रुद्रमा के प्रति निष्ठावान रहे और उनके शासन को समर्थन दिए।
रुद्रमा को पांड्यों, सेउणों (यादवों) और गजपतियों से निरंतर बाह्य खतरों का सामना करना पड़ा। अभिलेखीय स्रोतों से पता चलता है कि 1260 के दशक में काकतीयों ने अपने कई क्षेत्र खो दिए, जो गणपति के शासनकाल में उनके साम्राज्य का हिस्सा थे। सबसे दक्षिणी क्षेत्र पांड्यों के नियंत्रण में चले गए, तटीय आंध्र के कुछ हिस्से गजपतियों ने छीन लिए और तेलंगाना के उत्तर-पश्चिमी हिस्से सेउण (यादव) के अधीन हो गए। वेंगी क्षेत्र से 1262-1278 ई. की अवधि के कोई काकतीय अभिलेख नहीं मिलत हैं, जिससे लगता है कि उनके पूर्व सामंत, जैसे कोन हैहय और चालुक्य सरदार अब काकतीय आधिपत्य को स्वीकार नहीं करते थे। संभव है कि निदादावोलु के चालुक्यों को स्वायत्तता प्रदान की गई रही हो, क्योंकि इस परिवार के वीरभद्र रुद्रमा के पति थे, यद्यपि यह निश्चित नहीं है। रुद्रमा ने इन बाह्य चुनौतियों का डटकर मुकाबला किया और कई क्षेत्रों पर पुनः नियंत्रण स्थापित किया।
रुद्रमादेवी की उपलब्धियाँ
तटीय आंध्र में गजपतियों के साथ संघर्ष
1260-1270 के दशक में गजपति राजा नरसिंह प्रथम और उनके पुत्र भानुदेव प्रथम ने तटीय आंध्र और वेंगी पर कब्जा कर लिया, जो गणपतिदेव के शासनकाल में काकतीय साम्राज्य का हिस्सा थे। 1262 ई. के द्राक्षारम शिलालेख में ‘नरसिंहनरधिप’ मनुष्यों के स्वामी) का उल्लेख है, जिसका आशय संभवतः गजपति राजा नरसिंह प्रथम से है। भानुदेव प्रथम के द्राक्षारम से प्राप्त शिलालेखों से ज्ञात होता है कि 1274 ई. के आसपास वेंगी पर आक्रमण किया। इस आक्रमण में ओड्डादि के मत्स्य प्रमुख अर्जुनदेव सहित अन्य स्थानीय प्रमुख भी गजपतियों के साथ थे।
रुद्रमा ने अपने सेनापतियों पोट्टि नायक और प्रोलि नायक के नेतृत्व में एक सेना भेजकर गजपति आक्रमण का मुकाबला किया। इन दोनों भाइयों ने गजपति सेनाओं को पराजित कर वेंगी और गोदावरी घाटी पर काकतीय नियंत्रण पुनः स्थापित किया। इस उपलब्धि के लिए उन्हें ‘गजपतिमत्तमातंगसिंह’ और ‘ओडिआर्यमनमर्दन’ की उपाधियाँ दी गईं। रुद्रमा की सेना ने तटीय आंध्र के अधिकांश हिस्सों में काकतीय प्रभुत्व को स्थापित किया, जिसके परिणामस्वरूप गजपति शक्ति गोदावरी नदी के उत्तर तक सीमित हो गई।
1278-1279 ई. के करपर्ती सूर्य रेड्डी के शिलालेख में उन्होंने स्वयं को ‘काकतीय रुद्रदेव महाराज’ (रुद्रमा) का सेवक बताया गया है, जो तटीय आंध्र में काकतीय शासन की पुनर्स्थापना का सूचक है। पश्चिमी गोदावरी और कृष्णा जिले के द्राक्षाराम जैसे स्थानों से प्राप्त अभिलेख इन क्षेत्रों पर रुद्रमा के शासनकाल में काकतीय प्रभुत्व की पुष्टि करते हैं। अभिलेखीय साक्ष्यों से स्पष्ट है कि रुद्रमा के शेष शासनकाल में तटीय आंध्र पर काकतीय नियंत्रण निर्विवाद रूप से बना रहा।
पांड्यों और दक्षिणी क्षेत्रों में संघर्ष
गणपति के शासनकाल के अंत में पांड्य राजा जटावर्मन सुंदरपांड्य प्रथम ने नेल्लोर सहित काकतीय साम्राज्य के सबसे दक्षिणी भागों पर विजय प्राप्त कर ली थी। बाद के वर्षों में पांड्य सामंतों ने इन क्षेत्रों पर शासन किया। पांड्य राजकुमार विक्रम के एक तिथिविहीन चिदंबरम शिलालेख में दावा किया गया है कि उन्होंने उत्तर की ओर कूच नहीं किया, क्योंकि वे एक ऐसी महिला (रुद्रमा) से युद्ध नहीं करना चाहते थे, जिसने राजा का वेश धारण किया था। इतिहासकारों का मानना है कि यह उनके असफल अभियान के लिए एक सौम्य आवरण है। इस दौरान कालूकाड प्रमुख केशवदेव और उनके भाई रायमुरारी सोमदेव जैसे पांड्य सहयोगियों ने इस क्षेत्र का अधिकांश हिस्सा नियंत्रित किया।
रुद्रमा के अधीनस्थ कायस्थ जन्निगदेव ने दक्षिणी क्षेत्रों पर काकतीय प्रभुत्व को पुनः स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके 1264 ई. और 1269 ई. के शिलालेखों में दावा किया गया है कि उन्होंने उत्तर में पनुगल से दक्षिण में कैवरमकोटा तक फैले क्षेत्र पर शासन किया, जो उन्हें गणपति ने जागीर के रूप में प्रदान किया था। जन्निगदेव के प्रधान नागराज के 1264 ई. के नंदलूर शिलालेख में सौम्यनाथ स्वामी मंदिर को दान देने का उल्लेख है। सिद्धवटम के निकट 1268 ई. के क्षतिग्रस्त अटलुरु शिलालेख से जन्निगदेव के इस क्षेत्र पर नियंत्रण की पुष्टि होती है। इस अभिलेख से पता चलता है कि काकतीयों ने कडप्पा और चित्तूर के कुछ हिस्सों पर पुनः नियंत्रण स्थापित कर लिया था।
पांड्य राजा जटावर्मन सुंदर पांड्य प्रथम ने नेल्लोर और आसपास के क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित कर वीर राजेंद्र चोल (राजेंद्रचोल तृतीय) को शासक नियुक्त किया। कायस्थ प्रमुख अंबदेव ने काकतीय आधिपत्य को अस्वीकार कर पांड्यों से गठजोड़ किया और वेल्लूरी पट्टनम में स्वतंत्र सत्ता स्थापित की। नेल्लोर के गंगगोपाल और काँची के कोप्पेरुंजिंग जैसे सामंतों ने भी स्वतंत्रता की घोषणा की।
1270-1280 के दशक में अंबदेव के विद्रोह के कारण रुद्रमा ने दक्षिणी क्षेत्रों का अधिकांश हिस्सा खो दिया। रुद्रमा के जागीरदार महामंडलेश्वर नागदेव महाराज ने 1271-1275 ई. के दौरान नेल्लोर पर शासन किया और पांड्य जागीरदार वीरराजेंद्र चोल को वहाँ से खदेड़ दिया। यद्यपि काकतीय अधीनस्थों ने जल्द ही इन क्षेत्रों को प्रतिद्वंद्वी सरदारों, संभवतः पांड्य सामंतों के हाथों खो दिया। तेलुगु चोड सरदार विजय गंडगोपाल ने कायस्थों को विस्थापित कर दिया और पूर्व चोड शासक मनुमसिद्धि द्वितीय के पुत्र तिरुकलत्तीदेव द्वितीय (त्रिभुवन चक्रवर्ती इरुमादि) ने 1263 ई. में नागदेव को नेल्लोर से खदेड़ दिया। बाद में, 1279-1283 ई. के बीच एक अन्य चोड प्रमुख मनुमगंडगोपाल ने तिरुकलत्तीदेव को विस्थापित कर दिया।
यादवों (सेउनों) के साथ संघर्ष
रुद्रमा के शासनकाल में सेउण (यादव) राजा महादेव ने काकतीय साम्राज्य पर आक्रमण किया। सेउण अभिलेखों और हेमाद्रि के व्रतखंड में महादेव को ‘तिलिंगराय के शिररूपी कमल का उच्छेदक’ कहा गया है। इन अभिलेखों में दावा किया गया है कि महादेव ने काकतीय राज्य पर आक्रमण कर लूटपाट की, जिसमें उन्होंने ‘हाथियों और पाँच वाद्य यंत्रों को युद्ध में छीन लिया’ और रुद्रमा को ‘नारी’ समझकर छोड़ दिया। यह दावा स्पष्टतः अतिशयोक्तिपूर्ण है क्योंकि तेलंगाना के अभिलेखों से पता चलता है कि रुद्रमा ने सेउण के आक्रमण को विफल किया और उनके क्षेत्र के एक हिस्से पर अधिकार कर लिया। बीदर किले के एक खंडित शिलालेख में रुद्रमा के अधीनस्थ सिंद परिवार के भैरव का उल्लेख है, जो उनके सभी अभियानों में सेनापति के रूप में साथ थे। इस शिलालेख में रुद्रमा की उपाधि ‘रायगजकेसरी’ का उल्लेख है, जो उन्हें अपने पिता गणपति से विरासत में मिली थी। यह शिलालेख संभवतः बेदादकोटा (बीदर) क्षेत्र में सेउण के विरुद्ध रुद्रमा के आक्रमण के दौरान जारी किया गया था।
प्रतापचरित में दावा किया गया है कि रुद्रमा की सेना ने महादेव की विशाल सेना, जिसमें तीन लाख पैदल और एक लाख घुड़सवार शामिल थे, को नष्ट कर दिया। रुद्रमा ने महादेव का पीछा सेउण राजधानी देवगिरि तक किया, जहाँ महादेव को एक करोड़ स्वर्ण सिक्कों की राशि देकर देनी पड़ी। इसके बाद, रुद्रमा ने देवगिरि में एक विजय-स्तंभ स्थापित किया और वारंगल लौट गईं। अभिलेखीय और मुद्राशास्त्रीय साक्ष्य पुष्टि करते हैं कि रुद्रमा ने सेउण के आक्रमण को विफल किया था।
1260 ई. में यादवों ने संभूणपाल को उनके राज्य से खदेड़ दिया, जिसे काकतीयों ने संरक्षण देकर पनुगल का शासक बनाया था। 1267 ई. के पनुगल शिलालेख में सेउण राजकुमार शारंग पाणिदेव द्वारा छाया सोमनाथ मंदिर को दिए गए उपहार का उल्लेख है, जिसमें उन्हें सेउण राजा सिंहण का पुत्र और काकतीय मनुमरुद्रदेव (रुद्रमा) का अधीनस्थ बताया गया है। इतिहासकारों का मानना है कि शारंग पाणिदेव ने सेउण के आक्रमण के दौरान पनुगल पर कब्जा कर लिया था, लेकिन सेउण की हार के बाद उन्होंने काकतीय अधीनता स्वीकार कर ली। अन्य इतिहासकार मानते हैं कि शारंग पाणिदेव (सर्जनापाणिदेव) एक सेउण राजकुमार थे, जिन्होंने महादेव के साथ मतभेदों के कारण काकतीयों के यहाँ शरण ली थी। 1294 ई. में रायचूर किले के अभियान में काकतीय सेनापतियों गोणविठ्ठल, मनुम गंडगोपाल और प्रोलि नायक ने यादवों को पराजित कर कृष्णा-तुंगभद्रा दोआब क्षेत्र पर कब्जा किया, जिसने काकतीय सत्ता को और सुदृढ़ किया। 1922 ई. में कैकालुरु के पास रचपटनम में सेउण राजाओं द्वारा जारी 43 स्वर्ण सिक्कें मिले हैं, जो संभवतः प्रतापचरितम में उल्लिखित युद्ध में क्षतिपूर्ति के रूप में दिए गए थे।
अंबदेव का विद्रोह और अंतिम विजय
काकतीय साम्राज्य के दक्षिणी भाग के कायस्थ परिवार के सामंत जन्निगदेव और त्रिपुरारीदेव रुद्रमा के प्रति वफादार थे। उनके छोटे भाई अंबदेव, जो 1272 ई. में कायस्थ प्रमुख बने, कुछ समय तक रुद्रमा के प्रति वफादार रहे क्योंकि उनकी उपाधि ‘राय-स्थापनाचार्य’ (राज्य का आधार स्तंभ) मिलती है। यद्यपि उनके शिलालेखों में किसी अधिपति का उल्लेख नहीं है, जिससे लगता है कि उन्होंने जल्द ही रुद्रमा के प्रति अपनी निष्ठा त्यागकर स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। अंबदेव के 1290 ई. के त्रिपुरांतकम शिलालेख में उनकी सैन्य सफलताओं का वर्णन है, जिसमें रुद्रमा के सामंतों और सहयोगियों पर विजय शामिल है। 1273 ई. में उन्होंने गुरिंदला (गुरजाला) क्षेत्र के शासक श्रीपति गणपति को पराजित किया, जो 1268 ई. के मुतुकुर शिलालेख के अनुसार रुद्रमा के सामंत थे। अंबदेव का दावा है कि उन्होंने युद्ध में 75 सरदारों (नायकों) के सिर काट दिए, जो संभवतः रुद्रमा के अधीनस्थ थे। यह संख्या और सिर काटने का दावा काव्यात्मक अतिशयोक्ति हो सकता है, जिसका अर्थ काकतीय सेना की पराजय से लगाया जा सकता है। अंबदेव ने पांड्य सामंत कोप्पेरुंजिंग (कदव-राय) का विनाश किया, जो संभवतः उस समय काकतीय सहयोगी था। 1281 ई. से कुछ समय पहले, अंबदेव ने नेल्लोर के सिंहासन पर मनुम गंडगोपाल को नियुक्त किया। उन्होंने एरुवा क्षेत्र के तेलुगु चोड शासक मनुमलिदेव को हराया और उसके प्रदेशों पर कब्जा कर लिया। मनुमलिदेव के शिलालेखों में किसी अधिपति का उल्लेख नहीं है, लेकिन वह संभवतः काकतीयों का अधीनस्थ था। अंबदेव ने पांड्य शासक मारवर्मन कुलशेखर और उसके सहयोगी कालूकाड सरदारों को भी पराजित किया। उन्होंने बोल्लया नामक सरदार के साथ वैवाहिक संबंध़ स्थापित किया और पेंडेकल्लू क्षेत्र पर विजय प्राप्त की। इन विजयों के साथ अंबदेव ने एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया, जिसमें कृष्णा नदी के दक्षिण में काकतीय क्षेत्र के अधिकांश पूर्व दक्षिण-पश्चिमी हिस्से शामिल थे। परिणामस्वरूप रुद्रमा की मृत्यु के समय काकतीय साम्राज्य उनके पिता से विरासत में मिले साम्राज्य से छोटा था, यद्यपि यह गणपति के शासनकाल के शुरुआती भाग की तुलना में अभी भी बड़ा था।
रुद्रमा की मृत्यु
1289 ई. के चंदुपतला शिलालेख में रुद्रमा की मृत्यु का उल्लेख है। 27 नवंबर 1289 को योद्धा पुव्वुल मुम्मादी द्वारा जारी इस शिलालेख में रुद्रमा (काकती रुद्रमादेवी) और उनके सेनापति मल्लिकार्जुन नायक की योग्यता के लिए भगवान सोमनाथदेव को कुछ भूमि दान दी गई थी। शिलालेख से संकेत मिलता है कि दोनों ने कुछ दिन पहले ‘शिवलोक प्राप्त कर लिया था,’ अर्थात् उनकी मृत्यु हो चुकी थी। मल्लिकार्जुन के पुत्र इम्मादी मल्लिकार्जुन नायक द्वारा 1290 ई. में जारी एक शिलालेख पुष्टि करता है कि मल्लिकार्जुन रुद्रमा का सेनापति था। अंबदेव के 1290 ई. के त्रिपुरांतकम शिलालेख में दावा किया गया है कि उसने मल्लिकार्जुन को ‘सात अंगों से वंचित कर देवताओं और ब्राह्मणों का शत्रु’ घोषित किया। यह मल्लिकार्जुन रुद्रमा का सेनापति प्रतीत होता है। अंबदेव ने आंध्र के सभी राजाओं को पराजित करने का भी दावा किया, जिससे संकेत मिलता है कि वह रुद्रमा की हत्या के लिए जिम्मेदार था। तेलंगाना के बोल्लिकुंटा में पोचलम्मा मंदिर में दो मूर्तियों की पहचान रुद्रमा के चित्रण के रूप में की गई है। पहली मूर्ति में उन्हें बाएँ हाथ में लगाम और दाहिने हाथ में तलवार लिए घोड़े पर सवार दिखाया गया है, जिसमें एक शाही छत्र भी मौजूद है। दूसरी मूर्ति में उन्हें थका हुआ, उदास और बाईं ओर झुके हुए बैठे दिखाया गया है, जिसमें शाही छत्र गायब है, संभवतः युद्ध में हार का प्रतीक। इस मूर्ति में एक भैंसा- मृत्यु के देवता यम का वाहन दिखाया गया है, जो अंबदेव के विरुद्ध युद्ध में रुद्रमा की मृत्यु का प्रतीकात्मक अंकन है। प्रारंभिक इतिहासकारों का मानना था कि रुद्रमा 1295 ई. तक जीवित थीं, क्योंकि 1292 ई. के इंकिराला शिलालेख में प्रतापरुद्र को ‘कुमार रुद्र’ कहा गया है। यद्यपि चंदुपतल शिलालेख से स्पष्ट है कि उनकी मृत्यु 27 नवंबर 1289 से पहले हो चुकी थी। प्रतापरुद्र को सिंहासनारोहण के बाद भी कुछ वर्षों तक ‘कुमार रुद्र’ कहा गया, जो उस समय की प्रथा थी।
अंबदेव के खिलाफ अभियान और काकतीय पुनर्विजय
1290-1291 ई. में रुद्रमा के दत्तक पुत्र (दौहित्र) कुमार रुद्रदेव ने अंबदेव के खिलाफ अभियान शुरू किया। शिवयोगसार के अनुसार काकतीय सेनापतियों ने एक ही दिन में 72 किलों पर कब्जा किया, जिसके परिणामस्वरूप त्रिपुरांतकम क्षेत्र काकतीय नियंत्रण में आ गया। 1293 ई. में अंबदेव को त्रिपुरांतकम से पूरी तरह खदेड़ दिया गया, यद्यपि वह 1304 ई. तक मुल्किनाडु में शासक बना रहा। 1309 ई. में प्रतापरुद्र द्वितीय ने अंबदेव के राज्य पर पूर्ण कब्जा कर लिया।
रुद्रमादेवी की सुधार
प्रशासनिक व्यवस्था
रुद्रमा का शासनकाल प्रशासनिक पारदर्शिता, सामाजिक समरसता और समावेशी नीतियों के लिए प्रसिद्ध था। उन्होंने पुरुष वेश में राजदरबार में बैठकर शासकीय कार्यों का संचालन किया, अधिकारियों से परामर्श किया, शासकीय आदेश जारी किए और विदेशी राजदूतों से भेंट की। युद्धों में स्वयं सेना का नेतृत्व करने में उनकी महारत थी। उनके पति वीरभद्र का ऐतिहासिक अभिलेखों में बहुत कम उल्लेख है और उन्होंने प्रशासन में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई।
रुद्रमा ने गैर-कुलीन और प्रतिभाशाली योद्धाओं को सेना और प्रशासन में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया, जिससे कुलीन परिवारों का प्रभाव कम हुआ और अधिकारियों का महत्त्व बढ़ा। गणपति के शासनकाल में 34 ज्ञात अधीनस्थों में 47 प्रतिशत सरदार और राजकुमार थे, जबकि 26 प्रतिशत अधिकारी थे। रुद्रमा के शासनकाल में 63 अधीनस्थों में केवल 17 प्रतिशत सरदार और राजकुमार थे, जबकि 38 प्रतिशत अधिकारी थे। इस बदलाव ने योग्यता आधारित चयन को प्रोत्साहित किया। बाद में, उनके उत्तराधिकारी प्रतापरुद्र और विजयनगर सम्राटों ने भी इस नीति को अपनाया। काकतीय प्रशासन में अंगरक्षक पद पहली बार उनके शासनकाल में अस्तित्व में आया, जो प्रतापरुद्र के शासनकाल में लगभग लुप्त हो गया। मलयाल और रेचेर्ला जैसे प्रमुख सेवानिवृत्त हो गए, जबकि गोना परिवार के रेड्डी और वेलामास महत्त्वपूर्ण जनरलों के रूप में उभरे।
सैन्य सुधार
रुद्रमा ने सैन्य संगठन में महत्त्वपूर्ण सुधार किए। उन्होंने गैर-कुलीन योद्धाओं को सेना में शामिल कर सैन्य शक्ति को विविध और सशक्त बनाया। युद्धों में उनकी व्यक्तिगत भागीदारी ने सेना का मनोबल बढ़ाया। उन्होंने वारंगल किले की भीतरी दीवार, जो 0.75 मील (1.21 किमी) व्यास की थी, की ऊँचाई 20 फीट (6.1 मीटर) तक बढ़ाई। यह दीवार ग्रेनाइट से निर्मित थी और एक चौड़ी खाई से घिरी थी, जिसमें 45 बुर्ज थे, जिनकी ऊँचाई 40-60 फीट थी। उन्होंने 1.5 मील (2.4 किमी) व्यास वाली एक बाहरी मिट्टी की दीवार भी बनवाई, जो 150 फीट (46 मीटर) चौड़ी खाई से घिरी थी। इन निर्माणों ने वारंगल को अभेद्य बनाया।
निर्माण कार्य और स्थापत्य
रुद्रमा ने कला और स्थापत्य में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनके शासनकाल में वारंगल का ‘थाउजेंड पिलर टेम्पल’ उल्लेखनीय है। उन्होंने वारंगल किले में अपने कुलदेवता स्वयंभूदेव (शिव) को समर्पित एक रंगमंडप बनवाया। इस संरचना के खंडहरों में मिली एक मूर्ति में रुद्रमा को सिंह पर सवार योद्धा के रूप में दर्शाया गया है, जो खंजर और ढाल धारण किए हैं। मूर्ति में एक हाथी अपनी सूंड में कमल पकड़े हुए दिखाया गया है, जो उनकी उपाधि ‘रायगजकेसरी’ का प्रतीक है।
रुद्रमा ने सिंचाई टैंकों और नहरों का व्यापक विकास करवाया, जिससे कृषि और व्यापार को बढ़ावा मिला।
व्यापार और मोटुपल्ली बंदरगाह
रुद्रमा के शासनकाल में मोटुपल्ली बंदरगाह एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ। मार्को पोलो ने इसे ‘मुत्फिली’ नाम से संबोधित किया और रुद्रमा की योग्यता, कुशल शासन और शांतिप्रियता की प्रशंसा की। इस बंदरगाह से चीन के कुबलाई खाँ के दरबार के लिए कीमती पत्थर, उच्च कोटि के हीरे और बकरम का निर्यात होता था।
उत्तराधिकार
रुद्रमा अपुत्रक थीं और उनकी तीन बेटियाँ थीं- मुम्मडम्मा, रुद्रमा (उनके नाम पर), और रुय्यमा (रुय्यम्बा)। विद्यानाथ के प्रतापरुद्र यशोभूषण के अनुसार मुम्मडम्मा का विवाह महादेव से हुआ, जिससे वीररुद्र (प्रतापरुद्र द्वितीय) का जन्म हुआ। राजकुमारी रुद्रमा ने सेउण (यादव) राजकुमार येल्लानदेव (एलानदेव) से विवाह किया, जिनके पास गुंटूर के पास एक जागीर थी, जैसा उनके अलापाडु शिलालेख से पता चलता है। रुय्यमा ने इंदुलुरी परिवार के मंत्री और कमांडर अन्नया-देवा से विवाह किया, जो गन्नाया का पुत्र था। रुद्रमा ने मुम्मडम्मा के पुत्र प्रतापरुद्र को गोद लेकर उत्तराधिकारी घोषित किया। 1289 ई. में रुद्रमा की मृत्यु हो के बाद प्रतापरुद्र ने 35 वर्ष की आयु में सिंहासन सँभाला। उनकी नानी के शासनकाल में सक्रियता के कारण उन्हें सत्ता प्राप्ति के समय आंतरिक संकट का सामना नहीं करना पड़ा।
रुद्रमादेवी का मूल्यांकन
रुद्रमा देवी काकतीय वंश की एक असाधारण शासिका थीं। उन्होंने पुरुषों की भाँति शासन किया, प्रारंभिक विद्रोहियों और बाह्य शत्रुओं (पांड्य, सेउण और गजपति) का कुशलतापूर्वक दमन किया और युद्धों में स्वयं नेतृत्व किया। उनके पिता गणपति ने उनमें विश्वास जताते हुए ‘रुद्रदेव’ नाम दिया, जिसे उन्होंने पूर्णतः सार्थक किया। उनके शासनकाल में काकतीय साम्राज्य ने अपनी स्वतंत्रता और शक्ति बनाए रखी। उन्होंने प्रशासनिक पारदर्शिता, सामाजिक समरसता और काकतीय संस्कृति, स्थापत्य, और सैन्य संगठन में नवाचार किए। उनकी विरासत काकतीय इतिहास में अमर है और वे भारतीय इतिहास की सर्वाधिक शक्तिसंपन्न महिला शासिकाओं में से एक हैं।