भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद
रॉबर्ट क्लाइव ने अपने कार्यकाल के दौरान बंगाल में अंग्रेजों की स्थिति को सुदृढ़ किया और ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूती प्रदान की। 23 जून 1757 ई. को प्लासी के युद्ध और 1764 ई. में बक्सर के युद्ध में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय को अपनी सूझबूझ, कूटनीति और चतुराई से पराजित कर क्लाइव ने बंगाल में ब्रिटिश प्रभुत्व के विरोध को पूर्णतः समाप्त कर दिया। 1757 से 1760 ई. तक बंगाल के गवर्नर रहने के बाद क्लाइव 1760 ई. में इंग्लैंड लौट गया। उनके बाद हॉलवेल बंगाल का स्थानापन्न गवर्नर बना और तत्पश्चात वैनसिटार्ट ने गवर्नर का पद संभाला।

बक्सर की विजय का समाचार जब इंग्लैंड पहुँचा, तो सभी का मत था कि जिसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव रखी, उसे ही इसे सुदृढ़ करने के लिए पुनः भारत भेजा जाए। इस प्रकार क्लाइव को 1765 ई. में अंग्रेजी प्रदेशों का मुख्य सेनापति और गवर्नर नियुक्त कर भारत भेजा गया। 10 अप्रैल 1765 ई. को उन्होंने दूसरी बार मद्रास में कदम रखा और 3 मई 1765 ई. को कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में कार्यभार ग्रहण किया।
क्लाइव का दूसरा कार्यकाल (1765-1767 ई.)
भारत पहुँचने पर क्लाइव ने देखा कि उत्तर भारत की राजनीतिक व्यवस्था अनिश्चितता की स्थिति में थी। बंगाल का प्रशासन पूरी तरह अव्यवस्थित था। कंपनी के कर्मचारी धन-लोलुपता और उससे उत्पन्न दोषों में इतने डूबे थे कि कंपनी का प्रशासन ठप हो रहा था और जनता पर अत्याचार हो रहे थे। क्लाइव ने असैनिक और सैनिक प्रशासन में कई सुधार किए। उन्होंने कर्मचारियों को निजी व्यापार और उपहार लेने से मना किया। साथ ही, अंग्रेज सैनिक अधिकारियों का भत्ता कम किया और रिश्वत व भ्रष्टाचार रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाए।
इलाहाबाद की संधियाँ
क्लाइव का प्रथम कार्य पराजित शक्तियों के साथ संबंध स्थापित करना था। 1765 ई. में उन्होंने मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय को अंग्रेजी संरक्षण में लिया और उनके साथ इलाहाबाद में एक संधि की। इसके तहत कंपनी ने शाहआलम को इलाहाबाद और कड़ा के जिले अवध के नवाब से लेकर दिए। शाहआलम ने 12 अगस्त 1765 के अपने फरमान द्वारा कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी स्थायी रूप से प्रदान की। बदले में, कंपनी ने सम्राट को 26 लाख रुपये वार्षिक पेंशन और निजामत के व्यय के लिए 53 लाख रुपये देने का वचन दिया। इसे ‘इलाहाबाद की पहली संधि’ कहा जाता है।
क्लाइव ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ 16 अगस्त 1765 को दूसरी संधि की, जिसे ‘इलाहाबाद की दूसरी संधि’ के नाम से जाना जाता है। इसके अनुसार, नवाब ने इलाहाबाद और कड़ा के जिले शाहआलम को देने और युद्ध की क्षतिपूर्ति के लिए कंपनी को 50 लाख रुपये देने का वचन दिया। साथ ही, बनारस के जागीरदार बलवंत सिंह को उनकी जागीर में पुनः स्थापित किया गया। नवाब ने कंपनी के साथ आक्रमण और रक्षात्मक संधि की, जिसके तहत उसे कंपनी की आवश्यकता पर निःशुल्क सहायता देनी थी और कंपनी नवाब की सीमाओं की रक्षा के लिए सैनिक सहायता प्रदान करेगी, जिसके लिए नवाब को भुगतान करना होगा। इन संधियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थिति को अत्यंत मजबूत किया। क्लाइव ने अपनी दूरदर्शिता से अवध को मित्र बनाया और मराठों व अहमदशाह अब्दाली जैसे शक्तिशाली शत्रुओं से संघर्ष टाला। शाहआलम को पेंशनर बनाकर कंपनी ने उनके फरमान से अपने राजनीतिक लाभों को कानूनी मान्यता प्रदान की।
बंगाल में द्वैध शासन
क्लाइव ने बंगाल की समस्या को ‘द्वैध शासन’ प्रणाली द्वारा सुलझाने का प्रयास किया। इसमें दीवानी (भू-राजस्व वसूली) का अधिकार कंपनी के पास था, जबकि प्रशासन का दायित्व नवाब के पास था। इस व्यवस्था की विशेषता थी—उत्तरदायित्वरहित अधिकार और अधिकाररहित उत्तरदायित्व। मुगल काल में प्रांतों में दो प्रकार के अधिकारी होते थे: सूबेदार (निजामत अर्थात सैनिक संरक्षण, पुलिस और फौजदारी कानून) और दीवान (कर व्यवस्था और दीवानी कानून)। दोनों एक-दूसरे पर नियंत्रण रखते थे और केंद्रीय सरकार के प्रति उत्तरदायी थे। मुगल सत्ता के कमजोर होने पर बंगाल के नवाब मुर्शिदकुली खाँ ने दीवानी और निजामत दोनों कार्य संभाले।
12 अगस्त 1765 के फरमान से कंपनी को 26 लाख रुपये वार्षिक के बदले बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त हुई। निजामत के लिए 53 लाख रुपये देने का वचन दिया गया, किंतु निजामत (सैन्य प्रबंध और फौजदारी मामले) अभी भी मुस्लिम सूबेदारों के पास था। 1765 ई. में मीरजाफर की मृत्यु के बाद उनके अल्पवयस्क पुत्र नज्मुद्दौला को नवाब बनाया गया और उन पर एक नई संधि थोपी गई। इसके तहत निजामत के लगभग सभी अधिकार—सैनिक संरक्षण, शांति व्यवस्था, बाह्य आक्रमणों से रक्षा, विदेशी मामले और फौजदारी न्याय कंपनी को प्राप्त हो गए। दीवानी मामलों के लिए डिप्टी सूबेदार की नियुक्ति कंपनी द्वारा की जाती थी, जिसे बिना कंपनी की अनुमति के हटाया नहीं जा सकता था।
नवाब द्वारा निजामत के अधिकारों का त्याग बंगाल में ब्रिटिश शासन की स्थापना की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम था। कंपनी ने राजस्व वसूली का अधिकार लिया, जबकि नवाब को शासन की जिम्मेदारी सौंपी गई। इस व्यवस्था को द्वैध शासन इसलिए कहा जाता है, क्योंकि फौजदारी अधिकार नवाब के पास और दीवानी अधिकार अंग्रेजों के पास थे।
क्लाइव शासन का प्रत्यक्ष उत्तरदायित्व नहीं लेना चाहता था। उसने भारतीय अधिकारियों के माध्यम से दीवानी का कार्य संचालित करने का निर्णय लिया और दो नायब दीवानों की नियुक्ति की—बंगाल में मुहम्मद रजा खाँ (मुर्शिदाबाद) और बिहार में शिताबराय (पटना)। इस प्रकार दीवानी और निजामत का कार्य भारतीयों द्वारा संचालित होता था, यद्यपि उत्तरदायित्व कंपनी का था। कंपनी अब बंगाल की पूर्ण स्वामी बन गई थी। यह द्वैध शासन यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों, देशी राजाओं, और ब्रिटिश सरकार को वास्तविक स्थिति से अनभिज्ञ रखने के लिए बनाया गया था। यह व्यवस्था 1765 से 1772 ई. तक चली।
द्वैध शासन का औचित्य
क्लाइव की द्वैध शासन प्रणाली जटिल और विचित्र थी। शासन का कार्य नवाब के नाम पर चलता था, किंतु उसकी शक्ति नाममात्र की थी। वह कंपनी का पेंशनर था, क्योंकि कंपनी उसे शासन के लिए निश्चित राशि देती थी। वास्तविक शक्ति कंपनी के पास थी, जो नवाब का निर्देशन करती थी। दीवानी अधिकारों से कंपनी का बंगाल की आय पर पूर्ण नियंत्रण था, किंतु वह शासन के लिए उत्तरदायी नहीं थी।
इस प्रकार बंगाल में दो सरकारें थीं—कंपनी की वास्तविक सत्ता और नवाब की छायामात्र सत्ता। यह प्रणाली कंपनी के हितों के लिए उपयुक्त थी, क्योंकि:
- कंपनी के पास भारतीय भाषाओं और रीति-रिवाजों से परिचित कर्मचारियों की कमी थी। क्लाइव ने लिखा था कि तीन गुना कर्मचारी भी प्रशासन के लिए पर्याप्त नहीं होते।
- इंग्लैंड में कंपनी को व्यापारिक संस्था माना जाता था। प्रत्यक्ष शासन लेने पर ब्रिटिश संसद हस्तक्षेप कर सकती थी।
- प्रत्यक्ष शासन से अन्य यूरोपीय शक्तियों (पुर्तगाली, फ्रांसीसी) से संघर्ष का खतरा था। क्लाइव ने इस धोखे को बनाए रखा ताकि वास्तविक स्थिति छिपी रहे।
- प्रत्यक्ष सत्ता लेने से भारतीय शासक और मराठे एकजुट हो सकते थे, जिसका सामना कंपनी नहीं कर सकती थी।
- द्वैध शासन ने नवाबों के साथ संघर्ष समाप्त किया, क्योंकि 53 लाख रुपये की राशि शासन के लिए अपर्याप्त थी।
- नवाब को शासक बनाए रखकर क्लाइव ने भारतीयों और देशी शासकों में संदेह उत्पन्न होने से रोका।
द्वैध शासन की कमियाँ
द्वैध शासन दोषपूर्ण और अव्यावहारिक था, जिससे बंगाल में अव्यवस्था और अराजकता फैली। 24 मई 1769 को नवाब ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा : “बंगाल का सुंदर देश भारतीयों के अधीन प्रगतिशील था, किंतु अंग्रेजों की अधीनता में इसका अधःपतन अंतिम सीमा पर पहुँच गया।”
प्रशासनिक अराजकता
कंपनी के पास सत्ता थी, किंतु वह उत्तरदायी नहीं थी, जबकि नवाब के पास उत्तरदायित्व था, पर शक्ति नहीं। इससे शीघ्र ही अव्यवस्था फैली। नवाब में कानून लागू करने और न्याय देने की सामर्थ्य नहीं थी। कंपनी के कर्मचारी न्यायिक प्रशासन में हस्तक्षेप करते और नवाब के कर्मचारियों को डराते थे। 1858 ई. में ब्रिटिश संसद में जॉर्ज कार्नवाल ने कहा : “1765-1784 ई. तक ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार से अधिक भ्रष्ट और बुरी सरकार विश्व में कहीं नहीं थी।” नवाब को शासन के लिए अपर्याप्त धन मिलता था और सेना रखने का अधिकार नहीं था। इससे उसकी सैन्य शक्ति कमजोर हुई।
कृषि का ह्रास
द्वैध शासन ने कृषि को नष्ट कर दिया। भू-राजस्व अधिक बोली लगाने वाले ठेकेदारों को दिया जाता था, जिनकी भूमि में कोई रुचि नहीं थी। वे अधिकतम लगान वसूलते थे, जिससे किसानों का शोषण बढ़ा। कई किसानों को अपने बच्चे बेचने या भूमि छोड़कर भागना पड़ा। खेती योग्य भूमि जंगल में बदल गई। 1769 ई. में रेजिडेंट बेचर ने लिखा : “कंपनी के दीवानी संभालने के बाद बंगाल की स्थिति और खराब हो गई। यह समृद्ध देश अब विनाश की ओर जा रहा है।”
1770 ई. में बंगाल में अकाल पड़ा, जिसमें एक तिहाई जनता मारी गई। कंपनी के कर्मचारियों ने आवश्यक वस्तुओं की कीमतें बढ़ाकर लाभ कमाया और लगान माफ करने के बजाय दोगुना कर दिया। किसानों के सामान नीलाम करवाए गए, जिससे वे बेघर हो गए। के.एम. पणिक्कर ने लिखा : “भारतीय इतिहास में कभी ऐसी विपत्तियाँ नहीं देखी गईं, जैसी द्वैध शासन में बंगाल ने झेलीं।”
व्यापार-वाणिज्य का विनाश
कंपनी के कर्मचारियों ने सत्ता का दुरुपयोग कर निजी व्यापार से धन कमाया, जिससे कंपनी की आर्थिक स्थिति बिगड़ी। मैकाले ने लिखा : “कर्मचारियों की धन-लोलुपता से मानव-चित्त आतंकित हो उठता है।” दस्तकों के दुरुपयोग से भारतीय व्यापारियों का व्यवसाय करना असंभव हो गया। कंपनी ने बंगाल, बिहार, और उड़ीसा के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित किया और भारतीय व्यापारियों को कम कीमत पर माल बेचने के लिए मजबूर किया।
उद्योग-धंधों का नाश
द्वैध शासन ने बंगाल के रेशमी और सूती वस्त्र उद्योग को नष्ट कर दिया। कंपनी ने रेशम उद्योग को हतोत्साहित किया, क्योंकि यह इंग्लैंड के रेशम उद्योग को नुकसान पहुँचाता था। 1769 ई. में कंपनी के डायरेक्टरों ने कच्चे रेशम के उत्पादन को प्रोत्साहन और रेशमी कपड़ा बुनने को निरुत्साहित करने का आदेश दिया। जुलाहों को कंपनी के लिए काम करने को मजबूर किया गया और कम कीमत दी गई। असहमति पर उनके अंगूठे काट लिए जाते थे। इससे कारीगर बंगाल छोड़कर भाग गए और कपड़ा उद्योग नष्ट हो गया।
आर्थिक शोषण
1767 ई. में इंग्लैंड की सरकार ने कंपनी से 4 लाख पाउंड का ऋण माँगा, जिससे कंपनी की आर्थिक स्थिति और खराब हुई। बोल्ट्स ने लिखा : “जब राष्ट्र फल के पीछे था, कंपनी पेड़ उखाड़ रही थी।” अधिक उत्पादन पर अधिक कर देने से किसान और जुलाहे केवल निर्वाह के लिए उत्पादन करने लगे, जिससे समाज निर्जन हो गया।
क्लाइव का उत्तराधिकारी वेरेल्स्ट (1767-1769 ई.) और फिर कर्टियर (1769-1772 ई.) बने। इनके कमजोर शासन में द्वैध शासन के दोष स्पष्ट हो गए। 1772 ई. में वॉरेन हेस्टिंग्स गवर्नर बने और उन्होंने इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया।
क्लाइव के प्रशासनिक सुधार
क्लाइव संकल्पशील और साहसी था और उसके सैनिक गुण उसके प्रशासन में झलकते थे। उसके द्वारा किए गए सुधार निम्नलिखित है:
असैनिक सुधार
कंपनी अब एक राजनीतिक संस्था बन चुकी थी, इसलिए प्रशासनिक सुधार आवश्यक थे। बंगाल के युद्धों से गवर्नर, पार्षद, और कर्मचारी भ्रष्ट हो गए थे। क्लाइव ने निजी व्यापार और उपहार लेने पर प्रतिबंध लगाया और आंतरिक कर अनिवार्य किया। हानि की क्षतिपूर्ति के लिए उन्होंने ‘सोसायटी फॉर ट्रेड’ बनाई, जिसे नमक, सुपारी और तंबाकू के व्यापार का एकाधिकार दिया गया। इस व्यापार का लाभ अधिकारियों में बाँटा जाता था (गवर्नर को 17,500 पाउंड, कर्नल को 7,000 पाउंड, मेजर को 2,000 पाउंड, आदि)। इससे आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़े और जनता को कठिनाइयाँ हुईं। 1766 ई. में कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने इस योजना को अस्वीकार किया और 1768 ई. में यह समाप्त हो गई।
सैनिक सुधार
1763 ई. में कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने सैनिकों के दोहरे भत्ते बंद किए थे, किंतु इसका पालन नहीं हुआ। क्लाइव ने जनवरी 1766 से यह भत्ता केवल उन सैनिकों को सीमित किया, जो बंगाल और बिहार की सीमा से बाहर कार्य करते थे।
श्वेत विद्रोह
मुंगेर और इलाहाबाद के श्वेत सैनिक अधिकारियों ने इस व्यवस्था का विरोध किया और सामूहिक त्यागपत्र की धमकी दी, जिसे ‘श्वेत विद्रोह’ कहा जाता है। वे मराठों के संभावित आक्रमण से क्लाइव के डरने की आशा रखते थे। एक अधिकारी ने क्लाइव की हत्या की योजना भी बनाई। क्लाइव ने दृढ़ता से त्यागपत्र स्वीकार किए, नेताओं को बंदी बनाया और मुकदमा चलाया। छोटे अधिकारियों को कमीशन दिए गए और मद्रास से अतिरिक्त अधिकारी बुलाए गए। इस प्रकार क्लाइव ने विद्रोह को दबा दिया।
क्लाइव का मूल्यांकन
रॉबर्ट क्लाइव का जन्म 29 सितंबर 1725 ई. में हुआ था। वह ब्रिटिश सेना में सैनिक के रूप में नियुक्त हुआ और गवर्नर के लिए पत्र लिखने का कार्य करता था। अपनी सूझबूझ और बुद्धिमत्ता से उसने उच्च पद प्राप्त किया। वह 1757-1760 और 1765-1767 ई. में बंगाल का गवर्नर रहा।
क्लाइव को भारत में ब्रिटिश शासन का संस्थापक माना जाता है। उसने समय की नब्ज पहचानी और सही दिशा में कदम बढ़ाया। अर्काट का घेरा उसकी कूटनीतिक चाल थी, जिसने कर्नाटक में फ्रांसीसियों को परास्त किया। प्लासी (1757 ई.) और बक्सर (1764 ई.) की विजयों ने मुगल प्रभुत्व समाप्त किया। उसने बंगाल के संसाधनों का उपयोग कर फ्रांसीसियों को दक्षिण भारत से बाहर किया और कंपनी को व्यापारिक से राजनीतिक सत्ता बनाया। बर्क ने उसे “बड़ी नींव रखने वाला” कहा है। पर्सीवल स्पीयर ने उसे ब्रिटिश शासन का अग्रदूत और नई संभावनाओं का खोजकर्ता बताया है।
हालाँकि, क्लाइव की धन-लोलुपता और कुटिलता की आलोचना भी हुई। ब्रिटिश संसद में उन पर अवैध उपहार लेने और भ्रष्ट परंपरा शुरू करने के आरोप लगे। ‘सोसायटी फॉर ट्रेड’ और द्वैध शासन से बंगाल का शोषण हुआ। के.एम. पणिक्कर ने लिखा : “1765-1772 ई. में कंपनी ने बंगाल में डाकुओं का शासन स्थापित किया और जनता को अपार कष्ट सहना पड़ा।”
क्लाइव कुशल राजनीतिज्ञ नहीं था। वह अंतर्दर्शी था, किंतु दूरदर्शी नहीं। उसकी अल्पदृष्टि और कामचलाऊ नीतियाँ उसकी असफलताओं का सूचक हैं। फिर भी, भारत में ब्रिटिश शासन की नींव रखने में उसका योगदान निर्विवाद है।










