मगध
मगध महाजनपद प्राचीन भारत में एक प्रमुख राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक जागृति का केंद्र रहा है, जिसने अपने इतिहास में उत्थान और पतन के कई चरणों को देखा। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में सोलह महाजनपदों में से एक के रूप में उभरने वाला मगध, बुद्ध काल तक एक शक्तिशाली और सुव्यवस्थित राजतंत्र बन गया। इसकी प्रारंभिक राजधानी गिरिव्रज थी, जो आज के राजगीर के नाम से जानी जाती है।
मगध का भौगोलिक विस्तार उत्तर में गंगा नदी, पश्चिम में सोन नदी, और दक्षिण में जंगलों से घिरे पठारी क्षेत्रों तक फैला हुआ था। समय के साथ मगध का विकास निरंतर बढ़ता गया और यह भारतीय संस्कृति, सभ्यता, और राजनीति का केंद्र बनकर उभरा। मगध का इतिहास इतना व्यापक और प्रभावशाली रहा कि यह संपूर्ण भारतवर्ष के इतिहास का आधार बन गया। मगध ने केवल राजनीतिक एकीकरण को बढ़ावा ही नहीं दिया, बल्कि सामाजिक और धार्मिक सुधारों के लिए भी एक मजबूत मंच प्रदान किया, जिसने देश की प्रगति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

ऐतिहासिक स्रोत
मगध के इतिहास को समझने के लिए कई प्राचीन स्रोतों का सहारा लिया जाता है। पुराण, सिंहली ग्रंथ जैसे दीपवंश और महावंश, बौद्ध ग्रंथ जैसे भगवती सूत्र, सुत्तनिपात, चुल्लवग्ग, सुमंगलविलासिनी और जातक कथाएँ इसकी जानकारी के प्रमुख स्रोत हैं। इनमें मगध के उदय, इसके विकास, और इसके शासकों की नीतियों के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। पुराणों में मगध के प्राचीन राजवंशों और उनकी उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है, जबकि बौद्ध और जैन ग्रंथों से धार्मिक और सामाजिक परिवर्तनों की जानकारी मिलती है। सिंहली ग्रंथों से विशेष रूप से मगध के शासकों और बौद्ध धर्म के प्रसार पर प्रकाष पड़ता है।
मगध के उत्कर्ष के कारण
मगध का साम्राज्यवाद का उदय और विस्तार प्राक्-मौर्य युगीन भारतीय राजनीति की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। बुद्ध काल में मगध अपने समकालीन महाजनपदों जैसे कोशल, वज्जि, और अवंति को आत्मसात् करते हुए तेजी से उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हुआ। मगध मगध को एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में उत्कर्ष के कई कारण थे-
भौगोलिक स्थिति
मगध की भौगोलिक स्थिति इसके उत्थान में सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान रही। यह उत्तरी भारत के विशाल गंगा मैदान के मध्य में स्थित था, जो इसे प्राकृतिक रूप से सुरक्षित बनाता था। गंगा, सोन, गंडक और घाघरा जैसी नदियों ने मगध को प्राकृतिक किलेबंदी प्रदान की, जिससे शत्रुओं के लिए आक्रमण करना मुश्किल हो जाता था। साथ ही, ये नदियाँ व्यापार और यातायात के लिए महत्त्वपूर्ण मार्ग साबित हुईं, जिसने मगध को आर्थिक और सामरिक दृष्टि से सशक्त बनाया। मगध की दो प्रमुख राजधानियाँ- राजगृह और पाटलिपुत्र सामरिक दृष्टिकोण से आदर्श थीं। राजगृह, जो सात पहाड़ियों से घिरा था, लगभग अभेद्य था, जबकि पाटलिपुत्र, जो गंगा और सोन नदियों के संगम पर स्थित था, चारों ओर नदियों से घिरा होने के कारण शत्रुओं के लिए दुर्गम था। इस भौगोलिक स्थिति ने मगध को एक सुरक्षित और समृद्ध केंद्र बनाया, जो इसके विकास का आधार बना।
प्राकृतिक संसाधन
मगध प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से बहुत समृद्ध रहा है। इसके निकटवर्ती जंगलों में प्रचुर मात्रा में हाथी पाए जाते थे, जो प्राचीन युद्धों में सेना का महत्त्वपूर्ण हिस्सा थे। मगध क्षेत्र में कच्चा लोहा और ताँबा जैसे खनिज प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे, जिनका उपयोग उच्च गुणवत्ता के अस्त्र-शस्त्र और कृषि उपकरण बनाने में हुआ। लोहे की खानों ने जंगलों को साफ करने में मदद की, जिससे कृषि योग्य भूमि का विस्तार हुआ और नए उद्योगों का विकास संभव हो सका। मगध के शासकों ने इन संसाधनों का बुद्धिमानी से उपयोग अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाने के लिए किया, जो उनके प्रतिद्वंद्वियों के लिए सुलभ नहीं थी। यह प्राकृतिक संपदा मगध को सैन्य और आर्थिक दृष्टि से अन्य महाजनपदों से आगे रखती थी।
आर्थिक संपन्नता
मगध की आर्थिक समृद्धि इसके उत्थान का एक प्रमुख कारक थी। इसका क्षेत्र अत्यंत उपजाऊ था और प्रचुर वर्षा के कारण कम परिश्रम में अधिक कृषि उत्पादन प्राप्त होता था। इस अतिरिक्त उत्पादन ने व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा दिया, जिससे मगध आर्थिक रूप से संपन्न हुआ। सिक्कों का प्रचलन, नए उद्योगों की स्थापना और नगरों का विकास आर्थिक समृद्धि के महत्त्वपूर्ण संकेतक थे। गंगा और सोन नदियों की निकटता ने जलमार्गों के माध्यम से व्यापार को सुगम बनाया, जिससे मगध व्यापारिक गतिविधियों का केंद्र बन गया। इस आर्थिक समृद्धि ने मगध को सैन्य और प्रशासनिक गतिविधियों के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराए, जो इसके शक्ति संचय में सहायक बने।
स्वतंत्र वातावरण
मगध का सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण अन्य महाजनपदों से भिन्न और अधिक स्वतंत्र था। यह विभिन्न जातीय और सांस्कृतिक धाराओं का संगम स्थल था। मगध जरासंध, बिंबिसार और अजातशत्रु जैसे शक्तिशाली शासकों की जन्मभूमि थी, साथ ही यह जैन और बौद्ध धर्मों के उदय का केंद्र भी था, जो वैदिक धर्म के कठोर सामाजिक बंधनों के प्रतिरोधी थे। मगध को ‘अनार्यों का देश’ माना जाता था, जहाँ ब्राह्मण संस्कृति के सामाजिक नियमों में शिथिलता थी। जैन और बौद्ध धर्मों के सार्वभौमिक दृष्टिकोण ने मगध के सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण को व्यापक बनाया, जिससे यह एक शक्तिशाली साम्राज्य का केंद्र बन सका। इस स्वतंत्र वातावरण ने मगध को धार्मिक और सामाजिक सुधारों का नेतृत्व करने में सक्षम बनाया।
योग्य और कुशल शासक
किसी भी राष्ट्र की प्रगति के लिए कुशल, पराक्रमी और नीति-निपुण शासक होना आवश्यक है। मगध इस दृष्टि से अत्यंत भाग्यशाली रहा, क्योंकि उसे बिंबिसार, अजातशत्रु, शिशुनाग और महापद्मनंद जैसे प्रतिभाशाली शासक मिले। इन शासकों ने अपनी महत्त्वाकांक्षी विजय नीतियों और दूरदर्शी प्रशासन के माध्यम से मगध को एक शक्तिशाली साम्राज्य बनाया। उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपयोग किया और कूटनीति, सैन्य शक्ति और प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से मगध को प्रथम साम्राज्य के रूप में स्थापित किया। इन शासकों की दूरदर्शिता और नेतृत्व ने मगध को न केवल स्थानीय स्तर पर मजबूत किया, बल्कि इसे क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावशाली बनाया।
मगध का आरंभिक इतिहास
मगध का प्रथम उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है, जो इसके प्राचीन महत्त्व को दर्शाता है। इसका इतिहास बौद्ध ग्रंथों, महाभारत, और पुराणों में विस्तार से वर्णित है। पुराणों के अनुसार मगध का प्राचीनतम राजवंश बृहद्रथ वंश था, जिसकी स्थापना चेदिराज वसु के पुत्र बृहद्रथ ने की। महाभारत और पुराणों के अनुसार बृहद्रथ और जरासंध इस वंश के प्रमुख शासक थे। जरासंध ने काशी, कोशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, बंग, कलिंग, कश्मीर और गांधार जैसे राज्यों को पराजित कर अपनी शक्ति का विस्तार किया। इसके बाद प्रद्योत वंश का शासन स्थापित हुआ, जिसे समाप्त कर शिशुनाग ने अपने वंश की स्थापना की। शिशुनाग वंश के बाद नंद वंश ने शासन सँभाला।
बौद्ध ग्रंथ प्रद्योत को अवंति से जोड़ते हैं और शिशुनाग वंश का उल्लेख नहीं करते। उनके अनुसार बिंबिसार हर्यंक वंश का प्रथम शासक था, जिसके बाद शिशुनाग और फिर नंद वंश का शासन रहा। बौद्ध ग्रंथों का क्रम अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है, क्योंकि यह ऐतिहासिक घटनाओं को अधिक सुसंगत ढंग से प्रस्तुत करता है। इस प्रकार मगध का आरंभिक इतिहास इन विभिन्न स्रोतों से मिलती-जुलती जानकारियों के आधार पर समझा जा सकता है।
हर्यंक वंश
मगध साम्राज्य की स्थापना का श्रेय बिंबिसार को जाता है। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि बिंबिसार किस कुल से संबंधित थे। विभिन्न इतिहासकारों ने उसे शिशुनाग, हर्यंक या नागकुल से संबंधित बताया है। पुराणों के आधार पर कुछ इतिहासकार बिंबिसार को शिशुनाग वंश से जोड़ते हैं, लेकिन बौद्ध ग्रंथों के उल्लेखों से यह स्थापना असत्य प्रतीत होती है। अश्वघोष के बुद्धचरित में बिंबिसार को हर्यंक कुल का बताया गया है, जबकि भंडारकर उन्हें नागकुल से जोड़ते हैं। भंडारकर के अनुसार उस समय उत्तरी भारत में दो नागवंश थे और बिंबिसार बड़े नाग कुल से संबंधित थे, जिसका अंतिम शासक नागदास था। शिशुनाग भी संभवतः इसी नागकुल से थे और नागरिकों द्वारा उन्हें राजा बनाए जाने के बाद इसे शिशुनाग वंश नाम दिया गया। प्रोफेसर जसवंत सिंह नेगी का सुझाव है कि बिंबिसार की मुद्राओं पर हरि (नाग) का चिह्न उत्कीर्ण था, जिसके कारण उन्हें हर्यंक कुल का कहा गया है। संभवतः हर्यंक वंश नागकुल की एक उपशाखा थी। इस विवाद के बावजूद बिंबिसार का मगध के उत्थान में योगदान निर्विवाद है।
बिंबिसार
बिंबिसार ने ईसा पूर्व 544 में हर्यंक वंश की स्थापना की। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार उन्हें 15 वर्ष की आयु में उनके पिता ने मगध का राजा बनाया। उनके पिता का नाम भट्टिय, महापद्य, हेमजित, क्षेमजित या क्षेत्रौजा के रूप में मिलता है। दीपवंश में उन्हें बोधिस नामक राजगृह के शासक के पुत्र के रूप में वर्णित किया गया है, जिससे स्पष्ट है कि वे परंपरागत उत्तराधिकारी थे। जैन साहित्य में उन्हें ‘श्रेणिक’ कहा गया, जो उनका उपनाम था। बिंबिसार ने अपनी कूटनीति, सैन्य शक्ति, और प्रशासनिक कुशलता से मगध को एक शक्तिशाली साम्राज्य बनाया।
वैवाहिक संबंध
बिंबिसार ने कूटनीति के माध्यम से अपने समकालीन राजवंशों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए, जिससे मगध की स्थिति मजबूत हुई। उन्होंने लिच्छवि गणराज्य के शासक चेटक की पुत्री चेलना से विवाह किया, जिससे उत्तरी सीमा सुरक्षित हुई और वैशाली के व्यापारिक क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित हुआ। विनयपिटक के अनुसार इस विवाह ने लिच्छवियों के रात्रिकालीन आक्रमणों पर अंकुश लगाया और राजधानी में शांति स्थापित की। उनकी प्रिय महारानी कोशलाधिपति महाकोशल की पुत्री कोसलादेवी थी। इस विवाह से कोशल के साथ मैत्री हुई और उन्हें दहेज में काशी का एक समृद्ध गाँव प्राप्त हुआ, जिसकी आय एक लाख थी। उन्होंने मद्र देश की राजकुमारी क्षेमा से विवाह कर मद्रों का समर्थन प्राप्त किया। वैदेही वासवी नामक रानी ने बंदी अवस्था में उनकी सेवा की। महावग्ग के अनुसार बिंबिसार की 500 रानियाँ थीं, जिससे अन्य राज्यों से भी उनके वैवाहिक संबंधों का अनुमान लगता है।
बिंबिसार ने अवंति के राजा चंड प्रद्योत के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए और उनके पांडुरोग की चिकित्सा के लिए राजवैद्य जीवक को भेजा। उनका सिंधु के शासक रुद्रायण और गांधार के पुष्करसारिन से भी मैत्री-संबंध था। इन संबंधों ने उनकी आक्रामक नीति को मजबूती प्रदान की और मगध के विस्तार में सहायता की।
अंग राज्य की विजय
वैवाहिक और मैत्रीपूर्ण संबंधों से अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद बिंबिसार ने सैन्य शक्ति का उपयोग किया। उन्होंने पडोसी अंग राज्य पर आक्रमण किया, जो मगध का पुराना प्रतिद्वंद्वी था। अंग नरेश ब्रह्मदत्त ने कभी बिंबिसार के पिता को पराजित किया था और विधुरपंडित जातक के अनुसार अंग ने राजगृह पर भी कब्जा किया था। बिंबिसार ने ब्रह्मदत्त को पराजित कर मार डाला और अंग को मगध में मिला लिया। उन्होंने अपने पुत्र अजातशत्रु को वहाँ उपराजा नियुक्त किया। इस विजय से मगध के विस्तार का जो दौर शुरू हुआ, वह बाद में अशोक की कलिंग विजय तक चला। बुद्धघोष के अनुसार बिंबिसार के राज्य में 80,000 गाँव थे और इसका विस्तार लगभग 900 मील था। इस विजय ने मगध को बिहार के अधिकांश क्षेत्र पर नियंत्रण प्रदान किया।
कुशल प्रशासक
बिंबिसार एक कुशल प्रशासक थे। उन्होंने शासन संचालन के लिए उपराजा, मांडलिक, सेनापति, महामात्र, व्यावहारिक महामात्र, सर्वत्थक महामात्र और ग्रामभोजक जैसे अधिकारियों की नियुक्ति की। सर्वत्थक महामात्र सामान्य प्रशासन का प्रमुख था, जबकि व्यावहारिक महामात्र सेना का प्रधान था। वे भारतीय इतिहास में स्थायी सेना रखने वाले पहले शासक थे। प्रांतों में राजकुमारों को उपराजा नियुक्त किया जाता था। वह अधिकारियों को उनके गुण-दोष के आधार पर पुरस्कृत या दंडित करते थे। परंपरा के अनुसार उन्होंने राजगृह नगर की स्थापना की और इसे एक समृद्ध केंद्र बनाया।
बिंबिसार का व्यक्तिगत धर्म
बिंबिसार का व्यक्तिगत धर्म अस्पष्ट है। बौद्ध ग्रंथ उन्हें बौद्ध और जैन ग्रंथ जैन धर्म का अनुयायी बताते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार वह अपनी पत्नी चेलना के प्रभाव से जैन धर्म के अनुयायी बन गए थे। बाद में विनयपिटक के अनुसार बुद्ध के प्रभाव में वह बौद्ध हो गए और वेलुवन उद्यान बौद्ध संघ को दान दिया। उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं को निःशुल्क जल-यात्रा की अनुमति दी और राजवैद्य जीवक को बुद्ध की सेवा में नियुक्त किया। वह जैन और ब्राह्मण धर्मों के प्रति भी सहिष्णु थे। दीर्घनिकाय के अनुसार उन्होंने चंपा के ब्राह्मण सोनदंड को वहाँ की संपूर्ण आय दान दे दी थी। इस धार्मिक सहिष्णुता ने मगध को धार्मिक सुधारों का केंद्र बना दिया।
बिंबिसार का अंत
बिंबिसार ने 52 वर्षों तक शासन किया, लेकिन उनका अंत अत्यंत दुखद था। बौद्ध और जैन ग्रंथों के अनुसार उनके पुत्र अजातशत्रु ने बुद्ध के विरोधी देवदत्त के उकसावे पर उन्हें बंदी बनाकर कारागार में डाला और भोजन बंद कर दिया। कोसलादेवी गुप्त रूप से उन्हें भोजन देती थी, लेकिन अजातशत्रु ने इसे भी रोक दिया और उनके पैरों में घाव करवाए। अंततः ईसा पूर्व 492 में क्षुधा और पीड़ा से उनकी मृत्यु हो गई। जैन ग्रंथों में बताया गया है कि चेलना उनकी देखभाल करती थी। एक दिन अजातशत्रु चेलना की बात सुनकर उनकी बेडियाँ तोड़ने गया, लेकिन बिंबिसार ने मृत्यु के भय से विषपान कर आत्महत्या कर ली। सत्यता जो भी हो, यह निश्चित है कि बिंबिसार के अंतिम दिन कष्टदायक थे और उन्हें अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन और प्राण दोनों त्यागने पड़े थे।
अजातशत्रु
बिंबिसार के बाद उनका पुत्र ‘कुणिक’ अजातशत्रु मगध का शासक बना। वह अपने पिता की तरह महत्त्वाकांक्षी और साम्राज्यवादी थे। सिंहासनारूढ़ होने पर उन्हें कई समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपनी बुद्धिमानी, सैन्य शक्ति और कूटनीति से इनका समाधान किया और मगध के साम्राज्य को चरमोत्कर्ष तक पहुँचाया।

कोशल से संघर्ष
बिंबिसार की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी कोसलादेवी की भी मृत्यु हो गई। इसके बाद कोशल नरेश प्रसेनजित ने अजातशत्रु के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया और काशी पर कब्जा कर लिया। संयुक्तनिकाय के अनुसार पहले युद्ध में प्रसेनजित पराजित हुए और श्रावस्ती में शरण लेनी पड़ी। दूसरे युद्ध में अजातशत्रु हार गए और बंदी बना लिए गए। बाद में दोनों में संधि हो गई, जिसके अनुसार काशी अजातशत्रु को लौटा दी गई और प्रसेनजित ने अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह अजातशत्रु से कर दिया। इस संधि ने मगध-कोशल संबंधों को सुदृढ़ कर दिया, जिससे मगध के विस्तार को गति मिली।
मगध-वज्जि संघर्ष
अजातशत्रु गणराज्यों की स्वतंत्रता को समाप्त करना चाहते थे, क्योंकि यह मगध के वास्तविक विस्तार में बाधक थी। कोशल से निपटने के बाद उन्होंने वज्जि संघ पर ध्यान केंद्रित किया, जिसका प्रमुख वैशाली था और जहाँ लिच्छवियों का शासन था। सुमंगलविलासिनी के अनुसार संघर्ष का कारण गंगा के किनारे रत्नों की खान थी, जिस पर वज्जियों ने कब्जा कर लिया था। जैन ग्रंथों के अनुसार इसका कारण बिंबिसार द्वारा अपनी पत्नी चेलना से उत्पन्न पुत्रों हल्ल और बेहल्ल को दिए गए सेयनाग हाथी और रत्न हार को वापस माँगना था। जब हल्ल और बेहल्ल ने इसे लौटाने से इनकार कर दिया और अपने नाना चेटक के पास चले गए, तो अजातशत्रु ने युद्ध शुरू कर दिया। वास्तविक कारण गंगा के व्यापार पर नियंत्रण था, और अन्य सभी कारण बहाने मात्र थे।
अजातशत्रु लिच्छवियों की शक्ति से परिचित थे। निरयावलिसूत्र के अनुसार चेटक ने नौ लिच्छवियों, नौ मल्लों और काशी-कोशल के अठारह गणराज्यों को संगठित कर एक मोर्चा बनाया। अजातशत्रु ने पाटलिपुत्र में एक सुदृढ़ दुर्ग बनवाया और बुद्ध से सलाह ली। बुद्ध ने बताया कि वज्जि संघ की एकता के रहते उन्हें जीतना असंभव है। अजातशत्रु ने अपने कूटनीतिज्ञ मंत्री वस्सकार के माध्यम से वज्जि सरदारों में फूट डलवाई और फिर एक बड़ी सेना के साथ आक्रमण किया। निरयावलिसूत्र के अनुसार उन्होंने युद्ध में टैंक जैसा हथियार रथमूसल और पत्थर फेंकने वाला प्रक्षेपास्त्र महाशिलाकंटक जैसे नवीन हथियारों का उपयोग किया। भीषण युद्ध के बाद उन्होंने वज्जि और मल्ल संघ को पराजित कर मगध में मिला लिया, जिससे मगध की सीमाएँ पूर्वी उत्तर प्रदेश तक विस्तृत हो गईं।
अवंति से संबंध
अवंति मगध का प्रमुख प्रतिद्वंद्वी था। मज्झिमनिकाय के अनुसार अवंति नरेश प्रद्योत के भय से अजातशत्रु ने राजगृह का दुर्गीकरण करवाया। दोनों के बीच कोई प्रत्यक्ष युद्ध नहीं हुआ, संभवतः दोनों एक-दूसरे की शक्ति से परिचित थे। स्वप्नवासवदत्ता के अनुसार अजातशत्रु की पुत्री का विवाह वत्सराज उदयन से हुआ, जिससे वत्स मगध का मित्र बन गया और अवंति की सहायता नहीं कर सका। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि उदयन ने मगध और अवंति के बीच कूटनीतिक सुलह में मध्यस्थता की थी।
धर्म और धार्मिक नीति
अजातशत्रु एक उदार धार्मिक सम्राट था। संभवतः वे प्रारंभ में जैन धर्म का अनुयायी थे। उनके शासनकाल में गौतम बुद्ध और महावीर का महापरिनिर्वाण हुआ। भरहुत स्तूप की वेदिका पर उन्हें बुद्ध की वंदना करते दिखाया गया है, जिससे लगता है कि वह बाद में बौद्ध हो गए थे। उन्होंने बुद्ध के अवशेषों पर राजगृह में स्तूप बनवाया और ईसा पूर्व 483 (या 467?) में सप्तपर्णि गुफा में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन किया, जिसमें सुत्तपिटक और विनयपिटक संकलित किए गए। सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उन्होंने 32 वर्ष शासन किया और ईसा पूर्व 460 में अपने पुत्र उदायिन द्वारा मार डाले गए।
उदायिन
ईसा पूर्व 460 में उदायिन मगध का शासक बना। बौद्ध ग्रंथ उन्हें पितृहंता कहते हैं, जबकि जैन ग्रंथ परिशिष्टपर्वन उन्हें पितृभक्त बताते हैं। उनकी माता का नाम पद्मावती था। वे अपने पिता के शासनकाल में चंपा के उपराजा थे। उदायिन अपने पिता की तरह वीर और विस्तारवादी थे। उन्होंने गंगा और सोन के संगम पर पाटलिपुत्र नगर बसाया और राजधानी राजगृह से स्थानांतरित की। अवंति के साथ शत्रुता बनी रही, लेकिन कोई निर्णायक युद्ध नहीं हुआ। एक दिन उपदेश सुनते समय अवंति के गुप्तचर ने उनकी छुरा भोंककर हत्या कर दी। उदायिन जैन धर्मानुयायी थे और उन्होंने एक जैन चैत्यगृह बनवाया।
उदायिन के उत्तराधिकारी
बौद्ध ग्रंथों के अनुसार उदायिन के तीन पुत्र-अनिरुद्ध, मुंडक और नागदासक पितृहंता थे और बारी-बारी से शासक हुए। नागदासक (पुराणों में ‘दर्शक’) अंतिम विलासी राजा थे। शासन की शिथिलता से जनता में असंतोष फैल गया और विद्रोह के बाद शिशुनाग को राजा बनाया गया। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि शिशुनाग नागदासक के सेनापति थे, जिन्होंने अवंति पर आक्रमण किया और नागदासक को हटाकर ईसा पूर्व 412 में शिशुनाग वंश की स्थापना की।
शिशुनाग वंश
शिशुनाग ने ईसा पूर्व 412 में मगध की गद्दी सँभाली। महावंशटीका के अनुसार वह लिच्छवि राजा की वेश्या पत्नी के पुत्र थे, जबकि पुराण उन्हें क्षत्रिय बताते हैं। उन्होंने मगध के प्रबल प्रतिद्वंद्वी अवंति को पराजित कर मगध में मिलाया, जिससे वत्स भी उनके अधीन हो गया। इस विजय ने मगध को बंगाल से मालवा तक विस्तृत किया। उन्होंने वैशाली को दूसरी राजधानी बनाया, जो कालांतर में प्रमुख राजधानी बनी। ईसा पूर्व 394 में उनकी मृत्यु हो गई।
कालाशोक या काकवर्ण
कालाशोक शिशुनाग का पुत्र था, जो ईसा पूर्व 394 में मगध के शासक बना। उन्होंने राजधानी पाटलिपुत्र स्थानांतरित की। उनके शासनकाल में वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति हुई, जिसमें बौद्ध संघ स्थविर और महासांघिक संप्रदायों में विभाजित हो गया। हर्षचरित के अनुसार पाटलिपुत्र में नापित महापद्मनंद ने उनकी चाकू मारकर हत्या कर दी। उनकी मृत्यु ईसा पूर्व 366 में हुई। महाबोधिवंश के अनुसार उनके दस पुत्रों ने 22 वर्ष शासन किया, जिनमें नंदिवर्धन प्रमुख था। पुराणों के अनुसार महानंदिन अंतिम शासक था। शिशुनाग वंश का अंत ईसा पूर्व 344 में हुआ।
नंद वंश
नंद वंश ने पांचवीं-चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में उत्तरी भारत पर शासन किया। इसकी जानकारी पुराण, जैन, बौद्ध ग्रंथों और यूनानी लेखकों से मिलती है। नंद शासकों की प्रवृत्तियाँ भारतीय परंपराओं के विपरीत थीं। पुराणों में महापद्मनंद को शिशुनाग वंश के अंतिम राजा महानंदिन की शूद्रा पत्नी का पुत्र बताया गया है। जैन ग्रंथों के अनुसार वह नापित पिता और वेश्या माता की संतान थे। यूनानी लेखकों के अनुसार उनके पिता नाई थे। उन्होंने रानी का प्रेम प्राप्त कर राजा की हत्या की और सत्ता को हथिया लिया।
महापद्मनंद
महापद्मनंद नंद वंश का प्रथम और सबसे शक्तिशाली शासक थे। पुराणों में उन्हें शिशुनाग वंश का बताया गया है, जो संभवतः उनके वैधता स्थापित करने के प्रयास का परिणाम है, लेकिन बौद्ध और जैन ग्रंथ उन्हें नंद वंश का संस्थापक बताते हैं। इन ग्रंथों के अनुसार उन्होंने शिशुनाग वंश के अंतिम शासक महानंदिन के पतन के बाद सत्ता हथिया लिया। उनकी ‘एकराट’ (एकमात्र शासक), ‘सर्वक्षत्रांतक’ (सभी क्षत्रियों का विनाशक) और ‘द्वितीय परशुराम’ (परशुराम के समकक्ष क्षत्रिय-वधकर्ता) जैसी उपाधियाँ मिलती हैं, जो उनके सैन्य बल और विजयों की व्यापकता का प्रमाण हैं।

महापद्मनंद की विजयों ने भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया। उन्होंने इक्ष्वाकु (अयोध्या और श्रावस्ती के आसपास का कोशल क्षेत्र), पांचाल (उत्तर-पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बरेली और रामपुर क्षेत्र), कौरव्य (दिल्ली, कुरुक्षेत्र, और थानेश्वर), काशी (वाराणसी क्षेत्र), हैहय (नर्मदा तट के दक्षिणी क्षेत्र), अश्मक (गोदावरी घाटी), वीतिहोत्र (दक्षिणापथ में अश्मक और हैहय के निकटवर्ती क्षेत्र), कलिंग (उड़ीसा का वैतरणी और वराह नदी के बीच का भाग), शूरसेन (मथुरा क्षेत्र), और मिथिला (बिहार का मुजफ्फरपुर-दरभंगा क्षेत्र और नेपाल तराई का कुछ हिस्सा) जैसे विविध और शक्तिशाली राज्यों को अपने अधीन किया। उनका साम्राज्य हिमालय से लेकर नर्मदा नदी तक और पश्चिम में सिंधु नदी से लेकर पूर्व में मगध तक फैला हुआ था।
खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से महापद्मनंद की कलिंग विजय की पुष्टि होती है। इस अभिलेख से पता चलता है कि वह कलिंग से एक जिन प्रतिमा को मगध लाए और वहाँ एक नहर का निर्माण करवाए, जो उनकी आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभावशाली नीतियों का संकेत है। इसी तरह मैसूर से प्राप्त बारहवीं शताब्दी के अभिलेखों में कुंतल (संभवतः कर्नाटक क्षेत्र) पर उनकी विजय का उल्लेख मिलता है। कर्टियस और डियोडोरस जैसे यूनानी लेखकों के अनुसार उनका साम्राज्य पश्चिम में व्यास नदी (बीस नदी) तक फैला था, जो सिकंदर के आक्रमण के समय नंदों की शक्ति का प्रमाण है।

महापद्मनंद की सैन्य शक्ति का आधार उनकी विशाल सेना और प्रचुर संसाधन थे। पुराणों के अनुसार उन्होंने एक ऐसी सेना तैयार की थी जो हिमालय और विंध्याचल के बीच किसी भी विरोध को दबाने में सक्षम थी। उन्होंने विजित राज्यों से भारी धन एकत्र किया और व्यापारिक मार्गों को नियंत्रित किया। कथासरित्सागर जैसे साहित्यिक स्रोतों में नंदों की संपत्ति को ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राओं तक आँका गया है, जो उनकी आर्थिक समृद्धि का प्रमाण है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने लोहे और अन्य खनिजों का उपयोग कर उन्नत हथियारों का निर्माण करवाया।
महापद्मनंद की शूद्र उत्पत्ति के कारण उन्हें ऊँची जातियों, विशेषकर क्षत्रियों के विरोध का सामना करना पड़ा। इसीलिए उन्हें ‘सर्वक्षत्रांतक’ कहा गया है, जो संभवतः उनके द्वारा क्षत्रिय राजवंशों के विनाश का सूचक है। फिर भी, वह जैन धर्म के अनुयायी थे और अपने शासन में जैन मंत्रियों, जैसे कल्पक को उच्च पदों पर नियुक्त किया। यह नीति न केवल धार्मिक सहिष्णुता दिखाती है, बल्कि निम्न वर्गों को सत्ता में शामिल करने की उनकी रणनीति भी प्रतिबिंबित करती है।
महापद्मनंद के उत्तराधिकारी
महापद्मनंद की मृत्यु के बाद उनके आठ पुत्रों (नवनंदों) ने शासन सँभाला, जिनमें धननंद सबसे प्रसिद्ध थे। पुराणों में उनके 88 वर्षों के शासनकाल और उनके पुत्रों के 12 वर्षों के शासन का उल्लेख विवादास्पद है, क्योंकि यह कालानुक्रमिक रूप से संभव नहीं लगता। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार नवनंदों का शासन लगभग 40 वर्षों (ईसा पूर्व 364-324) तक रहा, जो अधिक विश्वसनीय माना जाता है।
धननंद
नंद वंश का अंतिम शासक धननंद सिकंदर के समकालीन था। उनकी संपत्ति और सेना असीम थी। यूनानी लेखक कर्टियस के अनुसार उनकी सेना में दो लाख पैदल, 20,000 घुड़सवार, 2,000 रथ और 3,000 हाथी थे। उनका साम्राज्य हिमालय से गोदावरी और सिंधु से मगध तक था। महावंशटीका के अनुसार वह लालची और कृपण थे, जिसके कारण उन्हें धननंद कहा गया। कथासरित्सागर के अनुसार उनके पास 11 करोड़ स्वर्णमुद्राएँ थीं। उनकी अलोकप्रियता और चाणक्य के अपमान के कारण चंद्रगुप्त मौर्य ने उन्हें पराजित किया। मुद्राराक्षस के अनुसार चाणक्य की कूटनीति और चंद्रगुप्त की सैन्य शक्ति ने ईसा पूर्व 324 में नंद वंश का अंत किया।
नंद शासकों का महत्त्व
नंद वंश का शासन भारतीय इतिहास में सामाजिक और राजनीतिक क्रांति का प्रतीक था। शूद्र कुलोत्पत्ति के बावजूद नंद शासकों ने भारत के राजनीतिक एकीकरण को गति दी और उत्तर भारत में एकछत्र शासन स्थापित किया। महापद्मनंद ने गंगा घाटी की सीमाओं को पार कर विंध्य तक साम्राज्य विस्तार किया, जो भारतीय इतिहास में एक अभूतपूर्व उपलब्धि थी। उनकी शक्तिशाली सेना ने विदेशी आक्रमणों को रोका और परवर्ती मौर्य शासकों के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया।
मगध की आर्थिक समृद्धि ने पाटलिपुत्र को शिक्षा और साहित्य का केंद्र बनाया। पाणिनि, वर्ष, उपवर्ष, वररुचि और कात्यायन जैसे विद्वान नंद काल में सक्रिय थे। नंद शासक जैन धर्म के पोषक थे और उन्होंने कई जैन मंत्रियों, जैसे कल्पक, शकटाल और स्थूलभद्र को नियुक्त किया। मुद्राराक्षस भी उनके जैन मतानुयायी होने की पुष्टि करता है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी नंदों की अतुल संपत्ति का उल्लेख किया, जिनके अनुसार पाटलिपुत्र में पाँच स्तूप नंदों के कोषागारों का प्रतीक थे।
इस प्रकार मगध बुद्धकालीन राजतंत्रों में सबसे शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में उत्थान हुआ। नंद शासकों ने राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों से मगध को प्रगति के शिखर पर पहुँचाया, जिससे मौर्य साम्राज्य की स्थापना के लिए एक ठोस पृष्ठभूमि तैयार हो गई।










