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भारत में हूण सत्ता का उत्थान-पतन
हूण मध्य एशिया की एक खानाबदोश (यायावर) बर्बर जाति थी। हूण जाति ने 165 ई.पू. में चीन की पश्चिमी सीमा पर निवास करनेवाली यू-ची जाति को पराजितकर अपना मूल निवासस्थान छोड़ने पर बाध्य किया। इसके बाद हूण मंगोलिया से पश्चिम की ओर बढ़ते हुए दो धाराओं में विभक्त हो गये- एक, ‘पश्चिमी शाखा’, जिसने वोल्गा की राह पकड़ी, और दूसरी ‘पूर्वी शाखा’ ने वंक्षु (आक्सस) की। प्रथम समूह ने यूराल पर्वत पारकर रोमन साम्राज्य को तहस-नहस कर दिया। हूणों की पूर्वी शाखा का दूसरा समूह पाँचवीं शताब्दी के मध्य तक वंक्षु (आक्सस) की घाटी में शक्तिशाली हो गया। ग्रीक वर्णनों में ‘पूर्वी शाखा’ का श्वेत हूणों के रूप में उल्लेख है।
वंक्षुघाटी के श्वेत हूणों ने ईरान तथा भारतवर्ष, दोनों पर आक्रमण किये। श्वेत हूणों ने अगले वर्षों में काबुल और कंधार पर विजय प्राप्त करके उस पर अधिकार कर लिया। श्वेत हूणों की इसी शाखा ने 455 ई. में भारत के गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया, किंतु तत्कालीन सम्राट स्कंदगुप्त ने 455 से 467 ई. के बीच उन्हें बुरी तरह से पराजित किया। यद्यपि हूणों का यह आक्रमण असफल हो गया, किंतु इससे गुप्त साम्राज्य की जड़ें हिल गईं।
485 ई. में श्वेत हूण फारस को रौंदने में सफल हो गये। हूणों के राजा अक्षांवार ने ईरान के सासानी शासक फिरोज को हराकर मार डाला, जिससे हूणों की शक्ति पर्याप्त बढ़ गई और पाँचवी सदी के खत्म होते-होते वे बल्ख में अपनी राजधानी बनाने में सफल रह।
ऐतिहासिक स्रोत
भारत पर हूणों के आक्रमण और उनकी गतिविधियों के संबंध में कोई स्पष्ट सूचना नहीं है। सिक्कों तथा लेखों के दो राजा- तोरमाण और मिहिरकुल को हूण माना जाता है, यद्यपि उनकी जातीयता का कोई निश्चयात्मक प्रमाण नहीं है। हूणों के संबंध में पहली सूचना ‘सुंग-युन’ के वृतांत से मिलती है, जो 518 ई. में चीन के उत्तरी वाई राजवंश की महारानी के दूत के रूप में उद्यान से गुजरता हुआ 520 ई. में गांधार में हूण सम्राट के यहाँ पहुँचा था।
एरण (विदिशा, मध्य प्रदेश) लेख में ‘महाराजाधिराज तोरमाण’ के प्रथम वर्ष की तिथि का उल्लेख है। ‘कुरा’ (नमक का पहाड़, पंजाब) से प्राप्त एक और अभिलेख में ‘राजाधिराज महाराज तोरमाण-षाहि-जऊ (ब्ल)’ का उल्लेख है, जिसका समीकरण कुछ इतिहासकार एरण लेख के हूण नरेश से करते हैं और कुछ भिन्न मानते हैं। ग्वालियर (मध्य प्रदेश) से मिहिरकुल के पंद्रहवें राज्य वर्ष का एक अभिलेख मिला है, जिसमें उसके पिता के नाम का भी उल्लेख है, किंतु प्रथम दो अक्षर ‘तोर’ ही पठनीय हैं। यशोधर्मन के मंदसौर लेख से पता चलता है कि मिहिरकुल को यशोधर्मन ने पराजित किया था। मथुरा और कोशांबी से तोरमाण और मिहिरकुल की अनेक मुद्राएँ मिली हैं।
ह्वेनसांग के वृतांत से भी हूणों की गतिविधियों की सूचना मिलती है, किंतु कहीं-कहीं उसका विवरण संदिग्ध प्रतीत होता है, जैसे- बालादित्य ने मिहिरकुल को पराजित किया था, किंतु उसके आगमन के ‘कुछ शतियों पूर्व’ अर्थात् 633 ई. के कई शताब्दी पहले, जब उसने भारत की यात्रा की थी।
भारतीय साहित्य में हूणों का छिटपुट उल्लेख मिलता है। ‘चंद्रगोमिन’ के व्याकरण में एक सूत्र-वृत्ति में ‘अजयत् जर्तो (गुप्तो?) हूणान्’ शब्द मिलता है। इसका संकेत संभवतः स्कंदगुप्त की हूण-विजय से है। लगभग 778 ई. में रचित एक जैनग्रंथ ‘कुवलयमाला’ के अनुसार तोरामण (तोरराय) ने संपूर्ण जगत् का उपभोग किया। चंद्रभागा (चिनाब) नदी के तट पर उसका निवास था। ‘राजतरंगिणी’ में तोरमाण तथा मिहिरकुल दोनों का उल्लेख है, किंतु उनकी ऐतिहासिक कथा इन दोनों राजाओं के वृतांत से मेल नहीं खाती है। दसवीं शताब्दी के जैन लेखक सोमदेव ने एक हूण राजा की चित्रकूट विजय का वर्णन किया है।
भारत पर हूण आक्रमण
भारत पर हूणों का आक्रमण तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरकुल के नेतृत्व में हुआ, जो भारतीय इतिहास में अपनी खूंखार और ध्वंसात्मक प्रवृत्ति के लिए प्रसिद्ध हैं। हूणों ने पाँचवीं शताब्दी के मध्य में कुमारगुप्त के राज्यकाल (414-455 ई.) के अंतिम वर्षों में भारत पर पहला आक्रमण किया था।
भितरी लेख से पता चलता है कि 455 से 467 ई. के बीच स्कंदगुप्त ने उन्हें पीछे धकेल दिया था। भितरी प्रशस्ति के अनुसार जिस समय स्कंदगुप्त ने युद्ध-क्षेत्र में हूणों को ललकारा, उस समय उसके बाहुबल से पृथ्वी कंपित हो उठी थी। ‘चंद्र-व्याकरण’ में भी ‘अजयत् गुप्तो हूणन्’ (गुप्तों ने हूणों को जीत लिया) का उल्लेख मिलता है। संभवतः यहाँ स्कंदगुप्त की हूण-विजय की ओर ही संकेत है।
सोमदेव के ‘कथासरित्सागर’ में वर्णन मिलता है कि उज्जयिनी के नरेश महेंद्रादित्य के पुत्र विक्रमादित्य ने भी हूणों को पराजित किया था। लगता है कि ‘कथासरित्सागर’ में भी स्कंदगुप्त (विक्रमादित्य) की ओर संकेत किया गया है। जूनागढ़ लेख के अनुसार भी स्कंदगुप्त ‘मलेच्छों’ का विजेता था। यहाँ मलेच्छों से तात्पर्य हूणों से ही प्रतीत होता है।
स्कंदगुप्त का हूण प्रतिद्वंद्वी खुशनेवाज बताया गया है। ‘सुंग-युन’ तथा ‘कास्मस’ के अनुसार हूण शक्ति का प्रधान अधिष्ठान सिंधु नदी के पश्चिम की ओर था। जैन ग्रंथों से ज्ञात होता है कि तोरमाण की राजधानी चिनाब नदी के तट पर थी। ह्वेनसांग के अनुसार मिहिरकुल की राजधानी ‘साकल’ (स्यालकोट) थी।
तोरमाण (500-515 ई.)
स्कंदगुप्त की मृत्यु के लगभग 33 वर्षों के उपरांत लगभग 500 ई. में हूणों ने गंगाघाटी पर पुनः आक्रमण किया। हूणों के द्वितीय उत्थान का नेता तोरमाण था, किंतु यह निश्चित नहीं है कि वह गांधार की हूण शासन-सत्ता का प्रतिनिधि था अथवा पंजाब में एक पृथक राज्य का शासक।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार तोरमाण एक कुषाण राजा था और हूणों से मैत्री-संबंध होने के कारण उसने हूण सेना का नेतृत्व किया था, इसलिए उसे भूलवश हूण मान लिया गया है। स्टेनकेनो जैसे अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार तोरमाण हूण शासक था, कुषाण नहीं। जो भी हो, तोरमाण भारत में हूण शासन का संस्थापक माना जाता है। स्रोतों से पता चलता है कि तोरमाण अपनी विजयवाहिनी सेना को मालवा तक ले गया था।
मध्य भारत के एरण (मध्य प्रदेश) नामक स्थान से वाराह-प्रतिमा पर खुदा हुआ तोरमाण का एक लेख मिला है, जिससे पता चलता है कि धान्यविष्णु उसके शासनकाल के प्रथम वर्ष में उसका सामंत था। बुधगुप्त के गुप्त संवत् 165 (484 ई.) के एरण लेख से लगता है कि बुधगुप्त की मृत्यु (500 ई.) के बाद ही इस क्षेत्र पर तोरमाण ने अधिकार किया था क्योंकि इसके पूर्व धान्यविष्णु का भाई मातृविष्णु इस क्षेत्र पर गुप्तों की ओर से शासन कर रहा था। एरण से गुप्त शासक भानुगुप्त का गुप्त संवत् 191 (510 ई.) का एक लेख मिला है, जिसके अनुसार उसका मित्र गोपराज उसकी ओर से लड़ता हुआ मारा गया था। यह युद्ध संभवतः तोरमाण के विरुद्ध ही रहा होगा।
तोरमाण ने कई विजय अभियान किये थे और एक बड़े विस्तृत भू-भाग पर अपना साम्राज्य स्थापित किया था। अपनी विजयों के बाद तोरमाण ने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी। ‘कुरा’ (नमक का पहाड़, पंजाब) से प्राप्त एक और अभिलेख में ‘राजाधिराज महाराज तोरमाण-षाहि-जऊ (ब्ल)’ का उल्लेख मिलता है। राजाधिराज महाराज तोरमाण-षाहि-जऊ (ब्ल) का समीकरण स्मिथ, स्टेनकेनो जैसे इतिहासकार एरण लेख के हूण राजा से करते हैं क्योंकि उसकी उपाधि ‘षाहिजऊ (ब्ल)’ तुर्की भाषा का शब्द है, जिसका हिंदी रूपांतर ‘सामंत’ होता है। किंतु ब्यूलर, कीलहर्न जैसे इतिहासकार कुरा लेख के तोरमाण को एरण लेख से भिन्न मानते हैं।
चीनी स्रोतों से पता चलता है कि तोरमाण बैक्ट्रिया के सार्वभौम हूण शासक का सामंत था और अफगानिस्तान तथा गांधार पर शासन करता था। संभवतः एरण विजय के बाद तोरमाण ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। कोशांबी से तोरमाण की दो मुद्राएँ मिली हैं। प्रथम के ऊपर ‘तोरमाण’ तथा दूसरी के ऊपर ‘हूणराज’ उत्कीर्ण मिलता है। अभिलेख एवं सिक्कों से स्पष्ट है कि तोरमाण पंजाब से एरण तक के प्रदेश का शासक था।
जैनग्रंथ ‘कुवलयमाला’ में तोरमाण का एक उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार तोरामण (तोरराय) ने संपूर्ण जगत का उपभोग किया। तोरमाण की राजधानी चंद्रभागा नदी (चिनाब) के तट पर स्थित ‘पवैया’ में थी। तोरमाण का गुरु हरिगुप्त स्वयं गुप्त राजवंश का वंशज था और चंद्रभागा नदी (चिनाब) के तट पर रहा करता था। ‘आर्यमंजुश्रीमूलकल्प’ से भी पता चलता है कि तोरमाण ने मगध तक के प्रदेश की विजय की तथा वाराणसी और उसके आसपास के क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ाया था। ह्वेनसांग के विवरण से भी पता चलता है कि मगध शासक बालादित्य हूण नरेश मिहिरकुल की अधीनता स्वीकार करता था। हो सकता है कि तोरमाण ने ही बालादित्य को पराजित कर हूण सत्ता के अधीन किया हो।
तोरमाण की ताम्र-मुद्राएँ पंजाब एवं सतलज-यमुना के दोआबवाले प्रदेश से मिली हैं। तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल के ग्वालियर लेख से पता चलता है कि उसने सत्य एवं न्यायपूर्वक शासन किया। संभवतः तोरमाण की मृत्यु 515 ई. में हुई। ‘आर्यमंजुश्रीमूलकल्प’ से पता चलता है कि तोरमाण ने मृत्यु के पूर्व ही अपने पुत्र मिहिरकुल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था।
मिहिरकुल (515-530 ई.)
तोरमाण का पुत्र मिहिरकुल एक ऐतिहासिक श्वेत हूण शासक था। मिहिरकुल 515 ई. के आसपास गद्दी पर बैठा था। संस्कृत में मिहिरकुल का अर्थ है- ‘सूर्य का वंश’ अर्थात् सूर्यवंशी। सुंग-युन के वृत्तांत से पता चलता है कि मिहिरकुल की राजधानी गांधार में थी और वह बौद्ध-विरोधी था। मिहिरकुल के आगमन के समय (520 ई.) वह कश्मीर के साथ युद्ध में फँसा हुआ था। उसके शासन के पंद्रहवें वर्ष का लेख ग्वालियर से मिला है। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार इसका राज्य कश्मीर तथा गांधार से लेकर दक्षिण में लंका तक फैला हुआ था, किंतु इस वृतांत में तथ्य नहीं है। कल्हण ने तोरमाण को मिहिरकुल से अठारहवीं पीढ़ी बाद रखा है, जबकि मिहिरकुल तोरमाण का पुत्र था। ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि साकल अथवा स्यालकोट मिहिरकुल की राजधानी थी और वह भारत के बड़े भाग का स्वामी था। मिहिरकुल ने पड़ोसी राज्यों को वशवर्ती कर लिया तथा ‘पंचभारत’ का स्वामी बन गया था।
आरंभ में मिहिरकुल की रुचि बौद्ध धर्म में थी, किंतु राजपरिवार के एक पुराने कर्मचारी-भिक्षु से मिलने पर वह रुष्ट हो गया और उसने घोषणा कर दी कि ‘पाँचों भारत द्वीपों में सभी भिक्षुओं को नष्ट कर दिया जाये, बौद्ध धर्म को उखाड़ फेंका जाये और कुछ बचा न रह पाये।’
संभवतः मिहिरकुल के नेतृत्व में हूण पंजाब, मथुरा के नगरों को लूटते हुए, ग्वालियर होते हुए मध्य भारत तक पहुँच गये थे। दसवीं शताब्दी के जैन लेखक सोमदेव ने एक हूण राजा द्वारा चित्रकूट के विजय की दंतकथा का वर्णन किया है। ह्वेनसांग की मानें तो गुप्त सम्राट को विवश होकर हूण सम्राट की सेवा में कर-उपहार प्रस्तुत करने के लिए उपस्थित होना पड़ा था।
गुप्तकाल में मथुरा हिंदू, बौद्ध, जैन सभी धर्मों के मंदिर, स्तूप, संघाराम और चैत्य थे। मिहिरकुल ने मथुरा के समृद्धशाली और सांस्कृतिक नगर को जी भरकर लूटा और बहुमूल्य सांस्कृतिक भंडार को नष्ट कर दिया। मिहिरकुल के अत्याचारों का वर्णन कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ और ह्वेनसांग के वृतांत में भी है। एक यूनानी भौगोलिक कास्मस ने श्वेत हूण सम्राट ‘गोल्लास’ का उल्लेख करते हुए लिखा है कि, ‘भारत के ऊपर अर्थात् सुदूर उत्तर की ओर हूण हैं। ऐसा कहा जाता है कि वह नामी हूण, जिसका नाम गोल्लास है, युद्धभूमि में जाते समय दो हजार हाथियों तथा घुड़सवारों की बड़ी सेना ले जाता है। वह भारत का अधिपति है और प्रजा को उत्पीड़ित करता हुआ उन्हें कर-सम्मानादि देने को विवश करता है।… फिसोन (सिंधु) नदी भारत के सभी प्रदेशों को हूणों के देश से पृथक् करती है।’
कदाचित इस गोल्लास की समानता मिहिरकुल से की जा सकती है। कास्मस यह भी बताता है कि उसने मध्य भारत के एक नगर का घेरा डाला और बाद में उसके ऊपर अधिकार कर लिया था। इस नगर का तात्पर्य ग्वालियर से ही है, जहाँ से मिहिरकुल के पंद्रहवें वर्ष का एक लेख मिला है जिसमें मातृचेट नामक एक व्यक्ति द्वारा सूर्यमंदिर की स्थापना का उल्लेख है। कास्मस हूण नायक का वर्णन भारत के अधिपति के रूप में करता है। ग्वालियर लेख में मिहिरकुल को ‘महान् पराक्रमी’ तथा ‘पृथ्वी का स्वामी’ बताया गया है। ह्वेनसांग के विवरण और मंदसौर लेख से स्पष्ट है कि मिहिरकुल को मगध नरेश बालादित्य और मालवा के शासक यशोधर्मन ने पराजित कर उत्तरी भारत से उखाड़ फेंका था।
मिहिरकुल को सबसे पहले किसने पराजित किया, यह विवाद का विषय है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि मालवा के राजा यशोधर्मन और मगध के राजा बालादित्य ने 528 ई. में हूणों के विरुद्ध एक संघ बनाया था और भारत के शेष राजाओं के साथ मिलकर मिहिरकुल को परास्त किया था। किंतु अब यह असत्य प्रमाणित हो चुका है।
छठीं शताब्दी ई. में मालवा के पराक्रमी शासक यशोधर्मन ने मिहिरकुल को पराजित किया था। मंदसौर लेख में यशोधर्मन की गर्वोक्ति है कि ‘विख्यात राजा मिहिरकुल भी उसके चरणों में सम्मानोपहार लाया था।’ लेख में काव्यात्मक ढ़ंग से कहा गया है कि ‘जिसने भगवान शिव के सिवाय अन्य किसी के सामने मस्तक नहीं झुकाया था, जिसकी भुजाओं से आलिंगित होने के कारण हिमालय व्यर्थ ही दुर्गम होने का अभिमान करता था, ऐसे मिहिरकुल के मस्तक को अपने बाहुबल से यशोधर्मन ने नीचे झुकाकर उसे पीड़ित कर दिया और उसके बालों की जूट में लगे पुष्पों द्वारा अपने दोनों पैरों की पूजा करवाई।’
यशोधर्मन की मिहिरकुल को संकेत करने की शैली, विशेषतः यह कि उसका सिर इससे पहले कभी किसी के आगे नहीं झुका था- इस विचार से मेल नहीं खाता कि वह बालादित्य के हाथों पराजित हो चुका था। ह्वेनसांग का कथन सत्य माना जाना चाहिए कि मिहिरकुल की शक्ति का अंतिम विनाश बालादित्य द्वारा हुआ और परिणामतः यशोधर्मन की विजय उस घटना की पूर्ववर्तिनी थी। संभवतः यशोधर्मन ने एक सामंत राजा की हैसियत से मिहिरकुल के विरुद्ध अभियान में नरसिंहगुप्त का साथ दिया और इसके बाद दृढ़ता से अपनी स्वतंत्र सत्ता घोषित करके अपने अधिपति के ही विरुद्ध विजयी आक्रमणों की परंपरा बाँध दी और बाद में मिहिरकुल के विरुद्ध उसकी पुरानी सफलताओं को उसकी स्वतंत्र विजय के रूप में मान लिया गया।
मंदसौर लेख की भाषा से लगता है कि मिहिरकुल मात्र पराजित हुआ था, उसका राज्य और प्रभुत्व नष्ट नहीं हुआ था। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि मिहिरकुल उसके 10-15 वर्ष बाद तक जीवित रहा। यशोधर्मन ने मिहिरकुल को 532 ई. से पूर्व पराजित किया होगा क्योंकि 532 ई. के मंदसौर के दूसरे लेख से पता चलता है कि यशोधर्मन ने उत्तर तथा उत्तर-पूर्व राजाओं को पराजित कर ‘राजाधिराज परमेश्वर’ की उपाधि धारण की थी।
ह्वेनसांग के वृत्तांतानुसार ‘भारत के राजा बालादित्य की बौद्ध धर्म में अगाध श्रद्धा थी। जब बालादित्य ने मिहिरकुल के क्रूर अत्याचारों को सुना, तो उसने बड़ी दृढ़ता से अपने राज्य के सीमांत प्रांतों पर कड़ा पहरा बैठा दिया और कर-सम्मान देने से इनकार कर दिया। जब मिहिरकुल ने बालादित्य के प्रदेशों पर आक्रमण किया तो उसने सेना सहित एक द्वीप में शरण ली, किंतु एक तंग रास्ते में मिहिरकुल को बालादित्य के सैनिकों ने घेर लिया। बालादित्य की जिद थी कि वह मिहिरकुल को मार डालेगा, किंतु माँ के कहने पर उसे छोड़ दिया। इस बीच मिहिरकुल के भाई ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। इधर-उधर भटककर मिहिरकुल को कश्मीर में शरण मिली, किंतु अवसर मिलते ही उसने अपने आश्रयदाता की हत्या करके कश्मीर का राज्य हथिया लिया। तब फिर उसने गंधार पर चढ़ाई की और 1,600 स्तूपों एवं संघारामों को नष्ट करवा दिया। इसके एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो गई।
ह्वेनसांग द्वारा उल्लिखित बालादित्य के संबंध में यद्यपि विवाद है, किंतु लगता है कि वह गुप्त सम्राट नरसिंहगुप्त बालादित्य ही था क्योंकि संपूर्ण गुप्तवंश में मात्र वही एक ऐसा शासक है जिसके नाम के साथ ‘बालादित्य’ उपाधि अंकित मिलती है। माना जा सकता है कि स्कंदगुप्त के स्वाभिमानी उत्तराधिकारी बालादित्य ने मिहिरकुल को पराजित किया और गुप्त साम्राज्य को हूण लूट-खसोट एवं उच्छेदों से बचा लिया।
मिहिरकुल शैव मतानुयायी था तथा बौद्धों का घोर शत्रु था। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ से पता चलता है कि उसने श्रीनगर में एक शिव मंदिर का निर्माण करवाया था। कल्हण के अनुसार महिरकुल ‘विनाश का देवता’ था, जबकि जैन लेखक उसे ‘दुष्टों में प्रथम’ मानते हैं। छठीं शताब्दी के मध्य में पश्चिमी तुर्क और सासानी शासकों ने संगठित रूप से 563-67 ई. के बीच हूणों को पराजित कर उनके राजा को मार डाला, जिससे उनकी रही-सही शक्ति नष्ट हो गई।
हूण शक्ति का विनाश
550 ई. के आसपास हूणों ने गंगाघाटी पर अधिकार करने का प्रयास किया, किंतु उन्हें मौखरि नरेश ईशानवर्मा ने पराजित कर दिया। अफसढ़ लेख में मौखरि सेना को हूण विजेता कहा गया है। हरहा लेख में ईशानवर्मा द्वारा पराजित किये जानेवाले ‘शूलिकों’ को भी कुछ इतिहासकार हूणों से समीकृत करते हैं। संभवतः इस हूण आक्रमण का नेता मिहिरकुल का भाई रहा होगा जिसने बालादित्य के हाथों मिहिरकुल की पराजय का लाभ उठाकर राज्य पर अधिकार कर लिया था। ‘मुद्राराक्षस’ से पता चलता है कि मौखरि नरेश अवंतिवर्मा ने ‘म्लेच्छों’ को पराजित किया था। हो सकता है कि इन म्लेच्छों से तात्पर्य हूणों से ही हो।
छठीं शताब्दी के अंत अथवा सातवीं शताब्दी के आरंभ में उत्तर-पश्चिमी भारत पर हूणों ने पुनः धावा बोला, किंतु इस बार थानेश्वर के वर्धनों ने हूणों को परास्त किया। ‘हर्षचरित’ में प्रभाकरवर्धन को ‘हूणरूपी हिरण के लिए सिंह के समान’ (हूणहरिणकेसरी) कहा गया है। प्रभाकरवर्धन ने अपने बड़े पुत्र राज्यवर्धन को हूणों का सामना करने के लिए उत्तर-पश्चिम की ओर भेजा था। ‘हर्षचरित’ से ज्ञात होता है कि राज्यवर्धन ने हूणों के साथ भीषण संघर्ष किया, जिससे उसके शरीर पर बाणों के कई घाव हो गये थे। इसके बावजूद राज्यवर्धन हूणों को भारत-भूमि से बाहर खदेड़ने में सफल रहा और हूणों की गतिविधियाँ कुछ समय के लिए शांत हो गईं।
राजपूतकाल के कई अभिलेखों और ग्रंथों में हूणों का उल्लेख मिलता है। हूणों से निरंतर संबद्ध रहने के कारण मालवा का समीपवर्ती क्षेत्र ‘हूणमंडल’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया था। गुर्जर-प्रतिहार, चेदि, राष्ट्रकूट, पाल तथा परमार वंशों के समय में उन्होंने कुछ उपद्रव अवश्य किया, किंतु भारतीय नरेशों ने उन्हें पराजित कर उन्हें अपने नियंत्रण में रखा। गुर्जर-प्रतिहार शासक महेंद्रपाल प्रथम के 899 ई. के ऊर्णालेख से पता चलता है कि महेंद्रपाल के सामंत बलवर्मा ने ‘हूण जाति से पृथ्वी को मुक्त किया था।’ बादललेख से ज्ञात होता है कि पाल शासक देवपाल (810-850 ई.) ने ‘हूणों के दर्प को चूर्ण कर दिया। इन हूणों का तात्पर्य मालवा के हूणों से ही है।
पद्मगुप्त के ‘नवसाहसांकचरित’ से पता चलता है कि परमार नरेश सीयक द्वितीय ने ‘हूण राजकुमारों को मारकर उनके रनिवासों को वैधव्यगृहों में बदल दिया था।’ इसकी पुष्टि मोड़ी के शिवमंदिर लेख से भी होती है। सीयक द्वितीय के बाद उसके पुत्रों-मुंज तथा सिंधुराज ने भी हूणों को पराजित किया था। अभिलेखों से पता चलता है कि मुंज ने हूणों को पराजित किया था और हूणमंडल (हूंदवाड़ा) के ‘वाणिका’ ग्राम को एक ब्राह्मण को दान दिया था। उदयपुर के लेख से पता चलता है कि सिंधुराज ने हूणों को पराजित कर उनके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया था। कलचुरि नरेश कर्ण ने भी हूणों को पराजित किया था, जिसका उल्लेख भेड़ाघाट अभिलेख में मिलता है।
गुजरात के पश्चिमी चालुक्यों के साथ भी हूणों के साथ युद्ध और उनकी पराजय का उल्लेख लेखों में मिलता है। इस प्रकार कई राजपूत राजवंशों के साथ हूणों का संघर्ष हुआ, किंतु हूण हर बार पराजित कर दिये गये।
हूण आक्रमण का प्रभाव
हूण आक्रमण के कारण भारत में राजनैतिक अस्थिरता आई, जिसके कारण अनेक विघटनकारी प्रवृत्तियाँ सक्रिय हो उठीं और गुप्त साम्राज्य के पतन प्रक्रिया तेज हो गई। हूणों की नृशंसता से भारतीय जन-जीवन और अर्थव्यवस्था की बहुत क्षति हुई। हूण आक्रमण से जाति और वर्ण की व्यवस्था से बोझिल हिंदू समाज में अनेक ढ़ाँचागत परिवर्तन हुए।
अधिकांश हूणों ने हिंदुओं में घुलमिल कर भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपना लिया और यहाँ स्थाई तौर पर निवास करने लगे। कालांतर में हूण भारतीय वंशों में वैववाहिक संबंध स्थापित करने लगे। खैरालेख से ज्ञात होता है कि कलचुरि नरेश कर्ण ने हूणवंशीय कन्या आवल्लदेवी से विवाह किया था। इससे पता चलता है कि हूण इस समय भारतीय समाज में समाहित होकर कर महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिये थे। यही कारण है कि टाड जैसे इतिहासकार मानते हैं कि राजपूतों की उत्पत्ति हूणों से हुई। विश्वास किया जाता है कि पूर्वमध्यकालीन राजपूत वंशों के रक्त में हूणों के रक्त का मिश्रण था।
हूण आक्रमण से भारत की आर्थिक दशा पर बुरा प्रभाव पड़ा जो स्कंदगुप्त और उसके उत्तराधिकारियों के सिक्कों में आई गिरावट से पता चलता है। स्कंदगुप्त के बाद तो स्वर्ण सिक्कों को प्रचलित कराने की परंपरा ही समाप्त हो गई।
हूणों ने ससैनियन सिक्कों का अनुकरण कर चाँदी और ताँबे के सिक्कों का प्रचलन करवाया। इनके सिक्के गुजरात, राजस्थान से मिले हैं। इन्हें भारतीय परंपरा में ‘गधैया’ या ‘गधिया’ कहा जाता है।
हूणों ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति के केंद्र समृद्धशाली नगरों को लूटा, मंदिरों को ध्वस्त किया और मठों का विनाश किया। हूणों के आक्रमण के कारण व्यापारिक मार्ग अशांत हो गये और अंततः बंद कर दिये गये, जिससे भारत का मध्य एशिया के साथ होनेवाला व्यापार-वाणिज्य अवरुद्ध हो गया। मध्य एशिया के साथ व्यापार बंद होने के कारण भारतीय दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर उन्मुख हुए। हूण आक्रमण के कारण भारतीय साहित्य एवं कला को भी गहरा आघात पहुँचा। मिहिरकुल के समय में तक्षशिला, नालंदा, कोशांबी, पाटलिपुत्र जैसे प्राचीन नगर या तो ध्वस्त कर दिये गये या उन्हें भारी क्षति पहुँचाई गई। चीनी स्रोतों से पता चलता है कि मिहिरकुल ने अकेले गंधार में ही 1,600 स्तूपों और संघारामों को नष्ट किया था।
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