हूण
हूण मध्य एशिया की एक खानाबदोश (यायावर) बर्बर जाति थी। इसने 165 ई.पू. में चीन की पश्चिमी सीमा पर निवास करने वाली यू-ची जाति को पराजित कर उन्हें अपना मूल निवासस्थान छोड़ने के लिए बाध्य किया। इसके बाद हूण मंगोलिया से पश्चिम की ओर बढ़े और दो शाखाओं में विभक्त हो गए : एक ‘पश्चिमी शाखा’, जिसने वोल्गा नदी का मार्ग अपनाया और दूसरी ‘पूर्वी शाखा’, जिसने वंक्षु (ऑक्सस) नदी का। पश्चिमी शाखा ने यूराल पर्वत पार कर रोमन साम्राज्य को तहस-नहस कर दिया। पूर्वी शाखा का दूसरा समूह पाँचवीं शताब्दी के मध्य तक वंक्षु घाटी में शक्तिशाली हो गया। ग्रीक वर्णनों में इस पूर्वी शाखा को ‘श्वेत हूण’ कहा गया है।
वंक्षु घाटी के श्वेत हूणों ने ईरान और भारत पर आक्रमण किए। उन्होंने अगले कुछ वर्षों में काबुल और कंधार पर विजय प्राप्त कर उन पर अधिकार कर लिया। श्वेत हूणों की इसी शाखा ने 455 ई. में भारत के गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया, किंतु तत्कालीन सम्राट स्कंदगुप्त ने 455 से 467 ई. के बीच उन्हें बुरी तरह पराजित किया। यद्यपि यह आक्रमण असफल रहा, इससे गुप्त साम्राज्य की नींव कमजोर हो गई।
485 ई. में श्वेत हूणों ने फारस को रौंदने में सफलता प्राप्त की। हूण राजा अक्षांवर ने ईरान के सासानी शासक फिरोज को हराकर मार डाला, जिससे उनकी शक्ति काफी बढ़ गई। पाँचवीं शताब्दी के अंत तक वे बल्ख में अपनी राजधानी स्थापित करने में सफल रहे।
ऐतिहासिक स्रोत
भारत पर हूणों के आक्रमण और उनकी गतिविधियों के बारे में स्पष्ट सूचनाएँ सीमित हैं। सिक्कों और लेखों में दो राजाओं—तोरमाण और मिहिरकुल को हूण माना जाता है, यद्यपि उनकी जातीयता का निश्चित प्रमाण नहीं है। हूणों के बारे में पहली सूचना चीनी यात्री सुंग-युन के वृत्तांत से मिलती है, जो 518 ई. में चीन के उत्तरी वेई राजवंश की महारानी के दूत के रूप में उदयान (स्वात) से गुजरता हुआ 520 ई. में गांधार में हूण सम्राट के दरबार में पहुँचा था।
एरण (विदिशा, मध्य प्रदेश) के एक लेख में ‘महाराजाधिराज तोरमाण’ के प्रथम शासन वर्ष का उल्लेख है। कुरा (नमक का पहाड़, पंजाब) से प्राप्त एक अन्य अभिलेख में ‘राजाधिराज महाराज तोरमाण-षाहि-जऊ (ब्ल)’ का उल्लेख है। कुछ इतिहासकार इसे एरण लेख के हूण नरेश से जोड़ते हैं, जबकि अन्य इसे भिन्न मानते हैं। ग्वालियर (मध्य प्रदेश) से मिहिरकुल के पंद्रहवें शासन वर्ष का एक अभिलेख मिला है, जिसमें उसके पिता का नाम उल्लिखित है, किंतु केवल प्रथम दो अक्षर ‘तोर’ ही पठनीय हैं। यशोधर्मन के मंदसौर लेख से पता चलता है कि मिहिरकुल को यशोधर्मन ने पराजित किया था। मथुरा और कौशांबी से तोरमाण और मिहिरकुल की अनेक मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं।
चीनी यात्री ह्वेनसांग के वृत्तांत से भी हूणों की गतिविधियों की जानकारी मिलती है, किंतु कुछ स्थानों पर उसका विवरण संदिग्ध प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए, वह दावा करता है कि बालादित्य ने मिहिरकुल को पराजित किया था, किंतु यह घटना उसके भारत आगमन (633 ई.) से ‘कुछ शताब्दियाँ पूर्व’ हुई थी, जो असंभव है।
भारतीय साहित्य में हूणों का छिटपुट उल्लेख मिलता है। चंद्रगोमिन के व्याकरण में एक सूत्र-वृत्ति में ‘अजयत् जर्तो हूणान्’ (गुप्तों ने हूणों को जीता) शब्द मिलता है, जो संभवतः स्कंदगुप्त की हूण-विजय की ओर संकेत करता है। लगभग 778 ई. में रचित जैन ग्रंथ ‘कुवलयमाला’ के अनुसार तोरमाण (तोरराय) ने संपूर्ण विश्व का उपभोग किया और उसका निवास चंद्रभागा (चिनाब) नदी के तट पर था। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में तोरमाण और मिहिरकुल दोनों का उल्लेख है, किंतु उनकी ऐतिहासिक कथा इनके वृत्तांतों से पूर्णतः मेल नहीं खाती। दसवीं शताब्दी के जैन लेखक सोमदेव ने एक हूण राजा की चित्रकूट विजय का वर्णन किया है।
भारत पर हूण आक्रमण
भारत पर हूणों का आक्रमण तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरकुल के नेतृत्व में हुआ, जो अपनी क्रूर और ध्वंसात्मक प्रवृत्ति के लिए कुख्यात हैं। हूणों ने पाँचवीं शताब्दी के मध्य में कुमारगुप्त (414-455 ई.) के शासनकाल के अंतिम वर्षों में भारत पर पहला आक्रमण किया।
भितरी लेख के अनुसार 455 से 467 ई. के बीच स्कंदगुप्त ने हूणों को पराजित कर पीछे धकेल दिया। भितरी प्रशस्ति में वर्णित है कि जब स्कंदगुप्त ने युद्धक्षेत्र में हूणों को ललकारा, तो उनके बाहुबल से पृथ्वी काँप उठी। ‘चंद्र-व्याकरण’ में भी ‘अजयत् गुप्तो हूणान्’ का उल्लेख है, जो संभवतः स्कंदगुप्त की हूण-विजय को दर्शाता है।
सोमदेव के ‘कथासरित्सागर’ में उल्लेख है कि उज्जयिनी के नरेश महेंद्रादित्य के पुत्र विक्रमादित्य ने हूणों को पराजित किया। यह संभवतः स्कंदगुप्त (विक्रमादित्य) की ओर संकेत करता है। जूनागढ़ लेख के अनुसार स्कंदगुप्त ‘म्लेच्छों’ का विजेता था, जिसमें म्लेच्छों से तात्पर्य हूणों से ही प्रतीत होता है।
स्कंदगुप्त का हूण प्रतिद्वंद्वी खुशनवाज था। सुंग-युन और यूनानी भूगोलवेत्ता कॉस्मास के अनुसार, हूण शक्ति का केंद्र सिंधु नदी के पश्चिम में था। जैन ग्रंथों से पता चलता है कि तोरमाण की राजधानी चिनाब नदी के तट पर थी। ह्वेनसांग के अनुसार मिहिरकुल की राजधानी साकल (स्यालकोट) थी।
तोरमाण (500-515 ई.)
स्कंदगुप्त की मृत्यु के लगभग 33 वर्ष बाद, 500 ई. के आसपास हूणों ने गंगा घाटी पर पुनः आक्रमण किया। इस दूसरे उत्थान का नेता तोरमाण था। यह स्पष्ट नहीं है कि वह गांधार की हूण शासन-सत्ता का प्रतिनिधि था या पंजाब में एक स्वतंत्र राज्य का शासक।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि तोरमाण एक कुषाण राजा था, जिसने हूणों से मैत्री के कारण उनकी सेना का नेतृत्व किया और इसीलिए उसे भूलवश हूण माना गया। हालांकि, स्टेनकोन जैसे अधिकांश इतिहासकार उसे हूण शासक मानते हैं। तोरमाण को भारत में हूण शासन का संस्थापक माना जाता है। स्रोतों से पता चलता है कि उसने अपनी विजयवाहिनी सेना को मालवा तक ले जाकर एक विशाल भू-भाग पर साम्राज्य स्थापित किया। उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की।
एरण (मध्य प्रदेश) से प्राप्त वाराह प्रतिमा पर तोरमाण का एक लेख मिला है, जिसमें उल्लेख है कि धान्यविष्णु उसके शासनकाल के प्रथम वर्ष में उसका सामंत था। बुधगुप्त के गुप्त संवत 165 (484 ई.) के एरण लेख से प्रतीत होता है कि बुधगुप्त की मृत्यु (500 ई.) के बाद तोरमाण ने इस क्षेत्र पर अधिकार किया, क्योंकि इससे पहले धान्यविष्णु का भाई मातृविष्णु गुप्तों की ओर से शासन कर रहा था। एरण से गुप्त शासक भानुगुप्त का गुप्त संवत 191 (510 ई.) का लेख मिला है, जिसमें उल्लेख है कि उसका मित्र गोपराज तोरमाण के विरुद्ध युद्ध में मारा गया।
कुरा (नमक का पहाड़, पंजाब) के अभिलेख में ‘राजाधिराज महाराज तोरमाण-षाहि-जऊ (ब्ल)’ का उल्लेख है। स्मिथ और स्टेनकोन जैसे इतिहासकार इसे एरण लेख के हूण राजा से जोड़ते हैं, क्योंकि ‘षाहि-जऊ (ब्ल)’ तुर्की भाषा का शब्द है, जिसका हिंदी रूपांतर ‘सामंत’ है। हालांकि, ब्यूलर और कीलहॉर्न इसे भिन्न मानते हैं।
चीनी स्रोतों के अनुसार तोरमाण बैक्ट्रिया के सर्वोच्च हूण शासक का सामंत था और अफगानिस्तान तथा गांधार पर शासन करता था। संभवतः एरण विजय के बाद उसने अपनी स्वतंत्रता घोषित की। कौशांबी से उसकी दो मुद्राएँ मिली हैं: एक पर ‘तोरमाण’ और दूसरी पर ‘हूणराज’ उत्कीर्ण है। अभिलेखों और सिक्कों से स्पष्ट है कि तोरमाण पंजाब से एरण तक के क्षेत्र का शासक था।
जैन ग्रंथ ‘कुवलयमाला’ में उल्लेख है कि तोरमाण (तोरराय) ने संपूर्ण विश्व का उपभोग किया और उसकी राजधानी चंद्रभागा (चिनाब) नदी के तट पर पवैया में थी। ‘आर्यमंजुश्रीमूलकल्प’ से पता चलता है कि तोरमाण ने मगध तक विजय प्राप्त की और वाराणसी व आसपास के क्षेत्रों में प्रभाव बढ़ाया। ह्वेनसांग के अनुसार मगध शासक बालादित्य मिहिरकुल की अधीनता स्वीकार करता था, किंतु संभवतः तोरमाण ने ही बालादित्य को पराजित कर हूण सत्ता के अधीन किया।
तोरमाण की ताम्र मुद्राएँ पंजाब और सतलज-यमुना दोआब से मिली हैं। उसके पुत्र मिहिरकुल के ग्वालियर लेख से पता चलता है कि उसने सत्य और न्यायपूर्वक शासन किया। संभवतः तोरमाण की मृत्यु 515 ई. में हुई। ‘आर्यमंजुश्रीमूलकल्प’ के अनुसार उसने मृत्यु से पहले अपने पुत्र मिहिरकुल को उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
मिहिरकुल (515-530 ई.)
तोरमाण का पुत्र मिहिरकुल एक ऐतिहासिक श्वेत हूण शासक था। वह 515 ई. के आसपास सिंहासन पर बैठा। संस्कृत में मिहिरकुल का अर्थ ‘सूर्य का वंश’ (सूर्यवंशी) है। सुंग-युन के वृत्तांत के अनुसार मिहिरकुल की राजधानी गांधार में थी और वह बौद्ध-विरोधी था। 520 ई. में वह कश्मीर के साथ युद्ध में उलझा था। उसके शासन के पंद्रहवें वर्ष का लेख ग्वालियर से मिला है।
कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में दावा किया गया है कि मिहिरकुल का राज्य कश्मीर और गांधार से लेकर लंका तक फैला था, किंतु यह तथ्यहीन है। कल्हण ने तोरमाण को मिहिरकुल से अठारहवीं पीढ़ी बाद रखा, जबकि मिहिरकुल उसका पुत्र था। ह्वेनसांग के अनुसार मिहिरकुल की राजधानी साकल (स्यालकोट) थी और वह भारत के बड़े भू-भाग का स्वामी था। उसने पड़ोसी राज्यों को वश में कर ‘पंचभारत’ का स्वामी बन गया था।
प्रारंभ में मिहिरकुल की रुचि बौद्ध धर्म में थी, किंतु एक पुराने कर्मचारी-भिक्षु से विवाद के बाद वह रुष्ट हो गया और उसने घोषणा की कि “पाँचों भारत द्वीपों में सभी भिक्षुओं को नष्ट कर दिया जाए, बौद्ध धर्म को उखाड़ फेंका जाए और कुछ भी शेष न रहे।”
मिहिरकुल के नेतृत्व में हूणों ने पंजाब और मथुरा के नगरों को लूटा, ग्वालियर होते हुए मध्य भारत तक पहुँचे। दसवीं शताब्दी के जैन लेखक सोमदेव ने एक हूण राजा द्वारा चित्रकूट विजय की दंतकथा का वर्णन किया है। ह्वेनसांग के अनुसार गुप्त सम्राट को विवश होकर हूण सम्राट को कर-उपहार देना पड़ा।
मथुरा में हिंदू, बौद्ध और जैन मंदिर, स्तूप और संघाराम थे। मिहिरकुल ने मथुरा के समृद्ध और सांस्कृतिक नगर को लूटा और बहुमूल्य सांस्कृतिक भंडार को नष्ट किया। उसके अत्याचारों का वर्णन ‘राजतरंगिणी’ और ह्वेनसांग के वृत्तांतों में मिलता है। यूनानी भूगोलवेत्ता कॉस्मास ने श्वेत हूण सम्राट ‘गोल्लास’ का उल्लेख किया, जिसे संभवतः मिहिरकुल से जोड़ा जा सकता है। कॉस्मास के अनुसार गोल्लास दो हजार हाथियों और घुड़सवारों की सेना के साथ युद्ध में जाता था, भारत का अधिपति था और प्रजा को कर देने के लिए विवश करता था। कॉस्मास ने यह भी बताया कि उसने मध्य भारत के एक नगर (संभवतः ग्वालियर) का घेराव कर अधिकार किया। ग्वालियर लेख में मिहिरकुल को ‘महान पराक्रमी’ और ‘पृथ्वी का स्वामी’ कहा गया है, जिसमें मातृचेट नामक व्यक्ति द्वारा सूर्यमंदिर की स्थापना का उल्लेख है।
ह्वेनसांग और मंदसौर लेख से स्पष्ट है कि मिहिरकुल को मगध नरेश बालादित्य और मालवा के शासक यशोधर्मन ने पराजित कर उत्तरी भारत से खदेड़ दिया। मिहिरकुल को सबसे पहले किसने पराजित किया, यह विवादास्पद है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि यशोधर्मन और बालादित्य ने 528 ई. में हूणों के विरुद्ध एक संघ बनाया और अन्य राजाओं के साथ मिलकर मिहिरकुल को परास्त किया, किंतु यह असत्य सिद्ध हुआ है।
छठी शताब्दी में मालवा के पराक्रमी शासक यशोधर्मन ने मिहिरकुल को पराजित किया। मंदसौर लेख में यशोधर्मन की गर्वोक्ति है : “विख्यात राजा मिहिरकुल भी उसके चरणों में सम्मानोपहार लाया।” लेख में काव्यात्मक रूप से कहा गया है : “जिसने भगवान शिव के सिवाय किसी के सामने मस्तक नहीं झुकाया, जिसकी भुजाओं से आलिंगित होने के कारण हिमालय व्यर्थ ही दुर्गम होने का अभिमान करता था, ऐसे मिहिरकुल के मस्तक को यशोधर्मन ने अपने बाहुबल से झुकाकर पीड़ित किया और उसके बालों में लगे पुष्पों से अपने पैरों की पूजा करवाई।”
यशोधर्मन की यह शैली, विशेष रूप से यह कि मिहिरकुल का सिर पहले कभी नहीं झुका, इस विचार से मेल नहीं खाती कि वह बालादित्य से पहले पराजित हुआ था। ह्वेनसांग का कथन सत्य प्रतीत होता है कि मिहिरकुल का अंतिम विनाश बालादित्य ने किया और यशोधर्मन की विजय उससे पहले हुई। संभवतः यशोधर्मन ने एक सामंत के रूप में नरसिंहगुप्त का साथ दिया और बाद में स्वतंत्र सत्ता घोषित कर अपने अधिपति के विरुद्ध विजयी अभियान चलाए। मंदसौर लेख से लगता है कि मिहिरकुल केवल पराजित हुआ, उसका राज्य और प्रभुत्व पूर्णतः नष्ट नहीं हुआ। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि वह 10-15 वर्ष तक जीवित रहा। यशोधर्मन ने मिहिरकुल को 532 ई. से पहले पराजित किया, क्योंकि 532 ई. के मंदसौर के दूसरे लेख से पता चलता है कि यशोधर्मन ने उत्तर और उत्तर-पूर्व के राजाओं को हराकर ‘राजाधिराज परमेश्वर’ की उपाधि धारण की।
ह्वेनसांग के अनुसार बालादित्य की बौद्ध धर्म में गहरी श्रद्धा थी। जब उसने मिहिरकुल के अत्याचार सुने, तो उसने अपने राज्य के सीमांत प्रांतों पर कड़ा पहरा बिठाया और कर देने से इनकार किया। मिहिरकुल के आक्रमण के दौरान बालादित्य ने सेना सहित एक द्वीप में शरण ली। एक तंग रास्ते में उसके सैनिकों ने मिहिरकुल को घेर लिया। बालादित्य ने उसे मारने की ठानी, किंतु माँ के कहने पर छोड़ दिया। इस बीच मिहिरकुल के भाई ने उसके राज्य पर कब्जा कर लिया। भटकते हुए मिहिरकुल को कश्मीर में शरण मिली, किंतु उसने अपने आश्रयदाता की हत्या कर कश्मीर का राज्य हथिया लिया। इसके बाद उसने गांधार पर चढ़ाई की और 1,600 स्तूपों व संघारामों को नष्ट करवाया। एक वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई।
ह्वेनसांग द्वारा उल्लिखित बालादित्य संभवतः गुप्त सम्राट नरसिंहगुप्त बालादित्य था, क्योंकि गुप्त वंश में केवल वही शासक ‘बालादित्य’ उपाधि के साथ जाना जाता है। स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारी बालादित्य ने मिहिरकुल को पराजित कर गुप्त साम्राज्य को हूणों की लूट और विनाश से बचाया।
मिहिरकुल शैव मतानुयायी और बौद्धों का घोर शत्रु था। ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार उसने श्रीनगर में एक शिव मंदिर बनवाया। कल्हण उसे ‘विनाश का देवता’ और जैन लेखक उसे ‘दुष्टों में प्रथम’ मानते हैं। छठी शताब्दी के मध्य में पश्चिमी तुर्क और सासानी शासकों ने 563-567 ई. के बीच हूणों को पराजित कर उनके राजा को मार डाला, जिससे उनकी शक्ति पूर्णतः नष्ट हो गई।
हूण शक्ति का विनाश
550 ई. के आसपास हूणों ने गंगा घाटी पर कब्जा करने का प्रयास किया, किंतु मौखरि नरेश ईशानवर्मा ने उन्हें पराजित किया। अफसढ़ लेख में मौखरि सेना को हूण-विजेता कहा गया है। हरहा लेख में ईशानवर्मा द्वारा पराजित ‘शूलिकों’ को कुछ इतिहासकार हूणों से जोड़ते हैं। संभवतः इस आक्रमण का नेता मिहिरकुल का भाई था, जिसने बालादित्य द्वारा मिहिरकुल की पराजय का लाभ उठाकर राज्य हथिया लिया था। ‘मुद्राराक्षस’ से पता चलता है कि मौखरि नरेश अवंतिवर्मा ने ‘म्लेच्छों’ को पराजित किया, जो संभवतः हूण ही थे।
छठी शताब्दी के अंत या सातवीं शताब्दी के प्रारंभ में हूणों ने उत्तर-पश्चिम भारत पर पुनः आक्रमण किया, किंतु थानेश्वर के वर्धन वंश ने उन्हें परास्त किया। ‘हर्षचरित’ में प्रभाकरवर्धन को ‘हूणरूपी हिरण के लिए सिंह’ (हूणहरिणकेसरी) कहा गया है। उन्होंने अपने पुत्र राज्यवर्धन को हूणों का सामना करने के लिए उत्तर-पश्चिम भेजा। ‘हर्षचरित’ के अनुसार राज्यवर्धन ने हूणों के साथ भीषण युद्ध किया, जिसमें उसके शरीर पर बाणों के कई घाव हुए, किंतु वह हूणों को भारत से खदेड़ने में सफल रहा। इसके बाद हूणों की गतिविधियाँ कुछ समय के लिए शांत हो गईं।
राजपूतकाल के कई अभिलेखों और ग्रंथों में हूणों का उल्लेख मिलता है। मालवा का निकटवर्ती क्षेत्र हूणों से निरंतर संपर्क के कारण ‘हूणमंडल’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गुर्जर-प्रतिहार, चेदि, राष्ट्रकूट, पाल और परमार वंशों के समय हूणों ने कुछ उपद्रव किया, किंतु भारतीय शासकों ने उन्हें पराजित कर नियंत्रित रखा। गुर्जर-प्रतिहार शासक महेंद्रपाल प्रथम के 899 ई. के ऊर्णालेख से पता चलता है कि उनके सामंत बलवर्मा ने ‘हूण जाति से पृथ्वी को मुक्त किया।’ बादल लेख के अनुसार, पाल शासक देवपाल (810-850 ई.) ने ‘हूणों के दर्प को चूर्ण किया।’ इन हूणों से तात्पर्य मालवा के हूणों से है।
पद्मगुप्त के ‘नवसाहसांकचरित’ में उल्लेख है कि परमार नरेश सीयक द्वितीय ने ‘हूण राजकुमारों को मारकर उनके रनिवासों को वैधव्यगृहों में बदल दिया।’ यह मोड़ी के शिवमंदिर लेख से पुष्ट होता है। सीयक द्वितीय के पुत्रों मुंज और सिंधुराज ने भी हूणों को पराजित किया। अभिलेखों से पता चलता है कि मुंज ने हूणमंडल (हूंदवाड़ा) के ‘वाणिका’ ग्राम को एक ब्राह्मण को दान दिया। उदयपुर लेख के अनुसार सिंधुराज ने हूणों को पराजित कर उनके राज्य को अपने में मिला लिया। कलचुरि नरेश कर्ण ने भी हूणों को पराजित किया, जिसका उल्लेख भेड़ाघाट अभिलेख में है।
गुजरात के पश्चिमी चालुक्यों के साथ भी हूणों के युद्ध और पराजय का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार कई राजपूत वंशों ने हूणों को बार-बार परास्त किया।
हूण आक्रमण का प्रभाव
हूण आक्रमणों से भारत में राजनैतिक अस्थिरता आई, जिसने विघटनकारी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया और गुप्त साम्राज्य के पतन को त्वरित किया। हूणों की क्रूरता से जन-जीवन और अर्थव्यवस्था को भारी क्षति पहुँची। उनके आक्रमणों ने जाति और वर्ण व्यवस्था से जटिल हिंदू समाज में संरचनात्मक परिवर्तन लाए।
अधिकांश हूण भारतीय समाज में घुल-मिल गए और भारतीय सभ्यता व संस्कृति को अपनाकर स्थायी रूप से यहाँ बस गए। कालांतर में उन्होंने वैवाहिक संबंध स्थापित किए। खैरालेख से पता चलता है कि कलचुरि नरेश कर्ण ने हूणवंशीय कन्या आवल्लदेवी से विवाह किया, जिससे हूणों का भारतीय समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान स्पष्ट होता है। टॉड जैसे इतिहासकार मानते हैं कि राजपूतों की उत्पत्ति हूणों से हुई, और पूर्वमध्यकालीन राजपूत वंशों में हूण रक्त का मिश्रण था।
हूण आक्रमणों से भारत की आर्थिक स्थिति बिगड़ी, जैसा कि स्कंदगुप्त और उनके उत्तराधिकारियों के सिक्कों की गुणवत्ता में कमी से पता चलता है। स्कंदगुप्त के बाद स्वर्ण सिक्कों की परंपरा समाप्त हो गई। हूणों ने सासानी सिक्कों का अनुकरण कर चाँदी और ताँबे के सिक्कों का प्रचलन शुरू किया, जिन्हें भारतीय परंपरा में ‘गधैया’ या ‘गधिया’ कहा जाता है। ये सिक्के गुजरात और राजस्थान से प्राप्त हुए हैं।
हूणों ने समृद्ध नगरों को लूटा, मंदिरों और मठों को नष्ट किया। उनके आक्रमणों से व्यापारिक मार्ग अशांत हो गए और अंततः बंद हो गए, जिससे मध्य एशिया के साथ भारत का व्यापार अवरुद्ध हुआ। इसके परिणामस्वरूप भारत दक्षिण-पूर्व एशिया की ओर उन्मुख हुआ। हूण आक्रमणों ने भारतीय साहित्य और कला को भी गहरा आघात पहुँचाया। मिहिरकुल ने तक्षशिला, नालंदा, कौशांबी और पाटलिपुत्र जैसे नगरों को ध्वस्त किया या भारी क्षति पहुँचाई। चीनी स्रोतों के अनुसार, उसने गांधार में 1,600 स्तूपों और संघारामों को नष्ट किया।










