भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाले अनेक राष्ट्रवादी क्रांतिकारी शरण की खोज, प्रेस कानूनों से मुक्त रहकर क्रांतिकारी साहित्य छापने की संभावना और शास्त्रास्त्रों की तलाश में देश के बाहर ब्रिटेन, फ्रांस, अमरीका, कनाडा, जर्मनी, जापान और सिंगापुर भी अपने केंद्र स्थापित किये। विदेशों में इनकी शाखाएँ मुख्यतः लंदन, पेरिस, सैन फ्रांसिस्को, न्यूयॉर्क और बर्लिन नगर में थीं।
विदेशों में क्रांतिकारी आंदोलन के प्रचार-प्रसार का श्रेय श्यामजी कृष्णवर्मा को है जो तिलक की सिफारिश पर लंदन गये थे। उन्होंने लंदन, पेरिस और जनेवा में भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रचार अभियान चलाया। इसके अलावा, लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर, मैडम भीकाजी कामा, मदनलाल धींगरा, राजा महेंद्र प्रताप, अब्दुल रहीम, मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी, चंबकरमन पिल्लई, सरदारसिंह राणा आदि भारत से बाहर न केवल क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित कर रहे थे, बल्कि समाजवादियों तथा दूसरे साम्राज्यवाद-विरोधियों से भारत की स्वतंत्रता के लिए सहयोग और समर्थन भी माँग रहे थे।
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इंग्लैंड
श्यामजी कृष्णवर्मा (1857-1930)
इंग्लैंड में क्रांतिकारी आंदोलन का नेतृत्व मुख्यतः श्यामजी कृष्णवर्मा, विनायक दामोदर सावरकर और मदनलाल ढींगरा ने किया। पश्चिमी काठियावाड़ प्रदेश के निवासी श्यामजी कृष्णवर्मा कैंब्रिज विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त बैरिस्टर थे। भारत लौटकर उन्होंने कई रियासतों में काम किया, किंतु अंग्रेज रेजीडेंटों के हस्तक्षेप से क्षुब्ध होकर अपनी नौकरी छोड़ दी। उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने के लिए लंदन को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया।
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श्यामजी कृष्णवर्मा ने फरवरी 1905 में लंदन में ‘भारतीय स्वशासन समिति’ (इंडियन होमरूल सोसायटी) का गठन किया, जो शीघ्र ही ‘इंडिया हाउस’ के नाम से प्रसिद्ध हो गई और एक वर्ष के अंदर ही इसकी सदस्य संख्या 119 तक पहुँच गई। इस संस्था का उद्देश्य अंग्रेज सरकार को आतंकित कर स्वराज्य प्राप्त करना था। इस होमरूल सोसायटी ने ‘इंडियन सोशियोलॉजिस्ट’ नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया, जिसमें क्रांतिकारी लेख प्रकाशित होते थे। चंबकरमन पिल्लई श्यामजी कृष्णवर्मा से पत्र-व्यवहार करते थे और उनके ‘इंडियन सोश्योलॉजिस्ट में ब्रिटेन-विरोधी लेख लिखते थे।
‘इंडिया हाउस’ इंडियन होमरूल सोसायटी का प्रधान कार्यालय था जो एक छात्रवृत्ति योजना के अतंर्गत एक-एक हजार रुपये की छः छात्रवृत्तियों के माध्यम से भारत के जुझारू युवकों को विदेश बुलाने और उन्हें शिक्षा देने की व्यवस्था करता था। फलतः कुछ ही समय में इंग्लैंड का ‘इंडिया हाउस’ लंदन में रहनेवाले भारतीयों के लिए आंदोलन का सक्रिय केंद्र बन गया। इंडिया हाउस की छात्रवृत्ति योजना के अतंर्गत ही विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल और मदनलाल ढ़ींगरा इंग्लैंड पहुँचे थे। श्यामजी कृष्णवर्मा गुट के अन्य महत्त्वपूर्ण सदस्यों में वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, वी. एस., अय्यर, तिरुमल आचार्य, सरदारसिंह राणा आदि थे।
श्यामजी कृष्णवर्मा की जुझारू वृत्ति कुछ-कुछ सैद्धांतिक रही और बड़ी सीमा तक अहिंसक आंदोलन तक सीमित रही। फिर भी, श्यामजी कृष्णवर्मा की राजनीतिक गतिविधियों से अनेक भारतीय नववयुकों में सोई हुई राष्ट्रीय भावना जाग उठी। किंतु जब श्यामजी कृष्णवर्मा की गतिविधियों के विरुद्ध 1907 में हाउस ऑफ कॉमन्स में प्रस्ताव लया गया, तो वे लंदन छोड़कर पेरिस चले गये। ‘इंडियन सोशियोलॉजिस्ट’ 1909 तक लंदन से प्रकाशित होती रही, किंतु इसके बाद इसका प्रकाशन पेरिस से होने लगा।
विनायक दामोदर सावरकार
पूना के फर्ग्यूसन कॉलेज के एक तरुण स्नातक वी.डी. सावरकर श्यामजी कृष्णवर्मा की छात्रवृत्ति का लाभ उठाकर जून 1906 में लंदन पहुँचे। लंदन जाने से पहले सावरकार ने पहले महाराष्ट्र में ‘मित्रमेला’ का गठन किया था, जो 1904 में मेजिनी की ‘यंग इटली’ की तर्ज पर ‘अभिनव भारत’ में परिवर्तित हो गई थी।
विनायक दामोदर सावरकार के लंदन पहुँचने पर 1907 के बाद नासिक के क्रांतिकारी गुट का इंडिया हाउस पर अधिकार हो गया और इंडिया हाउस अंग्रेज-विरोधी गतिविधियों का केंद्र बन गया। सावरकार ने इंडिया हाउस की ओर से 9 मई 1908 में 1857 की क्रांति की स्वर्ण-जयंती मनाई, जिसके बाद प्रतिवर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की वार्षिकी मनाई जाने लगी। सावरकर पहले इतिहासकार हैं जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘द इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस’ में 1857 के सिपाही विद्रोह को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम बताया था। सावरकार ने इटली के देशभक्त मैजिनी की ‘आत्मकथा’ का मराठी भाषा में अनुवाद किया ताकि भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत हो सके। इसके साथ ही, लंदन में ‘ग्रेव वार्निग’ नामक एक पैम्फ्लेट भी बाँटा गया और उसकी कुछ प्रतियाँ भारत भी भेजी गईं।
कर्जन वाइली की हत्या
1909 में ब्रिटिश सरकार ने सावरकर के छोटे भाई गणेश सावरकर को राष्ट्रवादी कविताएँ लिखने और क्रांतिकारी दल को संगठित करने के अपराध में आजीवन कारावास की सजा दी थी। इसका बदला लेने के लिए अमृतसर से आये इंजीनियरिंग के एक छात्र मदनलाल ढ़ीगरा ने 1 जुलाई 1909 को इंडिया हाउस के नौकरशाह कर्जन वाइली की इंपीरियल इंस्टीट्यूट (लंदन) में गोली मारकर हत्या कर दी। इस अपराध के लिए धींगरा को फाँसी दी गई, लेकिन फाँसी पर चढ़ते-चढ़ते वह स्मरणीय देशभक्ति की घोषणा करते गये: ‘‘मुझ जैसा गरीब बेटा माँ की मुक्ति की वेदी पर अपना रक्त ही बलिदान कर सकता है……।’’
यद्यपि भारत के विपिनचंद्र पाल, सुरेंद्रनाथ बनर्जी तथा गोखले जैसे कई नेताओं ने शहीद ढ़ीगरा की कड़े शब्दों में निंदा की, किंतु कई अंग्रेज राजनीतिज्ञों ने उनकी प्रशंसा की और आयरलैंड के अखबारों ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा था : ‘‘मदनलाल ढ़ीगरा को, जिन्होंने अपने देश के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया, आयरलैंड अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।’’
सावरकर की गिरफ्तारी
कर्ज़न वाइली की हत्या को ब्रिटिश सरकार ने गंभीर रूप में लिया। इंग्लैंड के सम्राट ने गवर्नर-जनरल को पत्र लिखकर चेतावनी दी कि वे ऐसे युवकों को इंग्लैंड में न आने देने के लिए आवश्यक कदम उठायें। एक के बाद एक होनेवाली हत्या की घटनाओं से ब्रिटिश अधिकारियों को स्पष्ट हो गया था कि भारत तथा भारत से बाहर की क्रांतिकारी समितियों में घनिष्ठ संबंध है। जब नासिक के जैक्सन हत्याकांड में लंदन से भेजी गई ब्राउनिंग पिस्तौल के प्रयोग का प्रमाण मिला, तो ब्रिटिश अधिकारियों को पक्का यकीन हो गया कि हत्या के पीछे गहरी साज़िश है।
इसके बाद भारत सरकार के आदेश पर लंदन पुलिस ने 13 मार्च 1910 को दामोदर सावरकर को गिरफ्तार कर मोरिया नामक जहाज से भारत भेज दिया और उन्हें ‘नासिक षड्यंत्र केस’ के अंतर्गत आजीवन कालापानी की सजा दी गई। सावरकर की गिरफ्तारी और उन पर चले मुकदमे से स्पष्ट हो गया कि अब ब्रिटिश-विरोधी गतिविधियों के लिए लंदन सुरक्षित जगह नहीं है। अब भारतीय क्रांतिकारियों ने पेरिस या अन्य यूरोपीय राजधानियों को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया।
फ्रांस (पेरिस और जेनेवा)
यूरोप में भारतीय क्रांतिकारियों ने लंदन के स्थान पर पेरिस और जेनेवा को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया। पेरिस इंडियन सोसायटी के सदस्यों में मैडम भीकाजी कामा के अलावा सरदारसिंह रेवाभाई राणा, के.आर. कोटवाल आदि प्रमुख थे।
भीखाजी रुस्तम कामा (1861-1936)
महाराष्ट्र के पारसी परिवार से संबंधित मैडम कामा स्वास्थ्य लाभ के लिए 1902 में यूरोप गईं और ज्यां लांगे जैसे फ्रांसीसी समाजवादियों के संपर्क में आईं। उन्होंने 22 अगस्त, 1907 को रेवाभाई राणा के साथ स्टुटगार्ट (जर्मनी) में सातवीं अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस में भाग लिया और वहाँ भारत की ओर से हरा, पीला व लाल रंग का तिरंगा झंडा फहराया, जिस पर देवनागरी लिपि में ‘वंदेमातरम्’ अंकित था। इस अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में बोलते हुए मैडम कामा ने कहा था : ‘‘भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है।’’ उन्होंने लोगों से भारत को दासता से मुक्ति दिलाने में सहयोग की अपील की और भारतवासियों का आह्वान किया : ‘‘आगे बढ़ो, हम हिंदुस्तानी हैं और हिंदुस्तान हिंदुस्तानियों का है।’’ मैडम कामा के सहयोगी उन्हें ‘भारतीय क्रांति की माता’ (मदर ऑफ इंडियन रिवॉल्यूशन) कहते थे।
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1907 में जब श्यामजी कृष्णवर्मा लंदन से फ्रांस पहुँचे तो मैडम कामा की गतिविधियाँ और तेज हो गईं। उन्होंने सितंबर 1909 में जेनेवा में भारतीय स्वाधीनता का मासिक मुखपत्र ‘वंदेमातरम्’ निकालना प्रारंभ किया, जो प्रवासी भारतीयों में काफी लोकप्रिय था। इस पत्र के प्रकाशन में लाला हरदयाल भी उनकी सहायता करते थे, किंतु लालाजी 1911 में अमेरिका चले गये।
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प्रथम विश्वयुद्ध के समय फ्रांस और इंग्लैंड में मित्रता हो जाने के कारण मैडम कामा को निर्वासित जीवन जीना पड़ा, जिससे पेरिस में भी क्रांतिकारी गतिविधियाँ मंद पड़ने लगीं। विश्वयुद्ध के बाद मैडम कामा पुनः पेरिस लौटीं और भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयास करती रहीं। वह 1934 में भारत वापस आई, किंतु दो ही वर्ष बाद 13 अगस्त 1936 को इस ‘भारतीय राष्ट्रीयता की महान पुजारिन की मृत्यु हो गई।
जर्मनी (बर्लिन)
भारतीय क्रांतिकारियों का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बर्लिन (जर्मनी) भी था। वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय ने 1909 के बाद से ही बर्लिन को अपनी गतिविधियों का केंद्र बना लिया था और 20 नवंबर 1909 से ‘तलवार’ का प्रकाशन करने लगे थे। प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ होते ही अविनाश भट्टाचार्य, वीरेंद्रनाथ और चंबकलाल पिल्लई आदि ने सितंबर 1914 में बर्लिन समिति की स्थापना की और अमेरिका तथा भारत के क्रांतिकारियों से सहयोग और संपर्क किया। इसके पहले जून 1912 में ज्यूरिख में चंबकरमन पिल्लई की अध्यक्षता में ‘इंटरनेशनल प्रो इंडियन कमेटी’ (अंतर्राष्ट्रीय भारत समर्थक समिति) की स्थापना की गई थी, जिसका मुख्य कार्य स्विट्जरलैंड और जर्मनी के पत्रों में ब्रिटिश विरोधी लेख प्रकाशित करवाना और भारत के पक्ष में प्रचार करना था। यह समिति ‘प्रो इंडिया’ नामक राष्ट्रीय विचारों की एक मासिक पत्रिका भी प्रकाशित करती थी।
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, भूपेन दत्त और लाला हरदयाल लाला हरदयाल (1884-1939) जैसे लोगों ने जर्मन विदेश विभाग के बैरन ओपेनहेम के सहयोग से 1915 में भारतीय स्वतंत्रता समिति (आई.आई.सी.) की स्थापना की, जो एक प्रकार से बर्लिन समिति का नया संस्करण थी।
भारतीय स्वतंत्रता समिति का उद्देश्य विदेशों में बसे भारतीयों को संगठित करना और ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध विद्रोह के लिए धन, जन और हथियार उपलब्ध कराना था। सैन फ्रांसिस्को की गदर पार्टी इस समिति से बहुत प्रभावित थी। इस समिति ने मध्य पूर्वी शहरों- इस्ताम्बुल, बगदाद और काबुल में ब्रिटिश विरोधी भावनाओं को भड़काने के लिए मिशन भेजे और उत्तर-पश्चिम सीमांत क्षेत्र में कबाइली लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट कर विद्रोह करने की योजना बनाई।
किंतु अमेरिका के विश्वयुद्ध में शामिल हो जाने पर नवंबर 1918 में भारतीय स्वतंत्रता समिति (बर्लिन समिति) को औपचारिक रूप से भंग कर दिया गया। बाद में, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी जर्मनी जाकर बर्लिन में आजाद भारत केंद्र (फ्री इंडिया सेंटर), इंडियन लीजियन के नाम से भारतीय राष्ट्रीय सेना और आजाद हिंद रेडियो की स्थापना की।
अमेरिका और कनाडा
भारत और यूरोप से क्रांतिकारी आंदोलन कनाडा और अमेरिका भी पहुँचा। 20वीं सदी के आरंभिक वर्षों में पंजाब से लोग अधिकतर बर्मा, मलाया, सिंगापुर, कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका में जाकर बस गये थे। अमेरिका और कनाडा के प्रवासी भारतीयों ने भारत को अंग्रेज़ों की पराधीनता से मुक्त कराने के उद्देश्य से गदर पार्टी के नेतृत्व में गदर आंदोलन का संचालन किया।
अन्य देशों में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
सिंगापुर
गदर आंदोलन की प्रेरणा से 15 फरवरी 1915 को सिंगापुर में विद्रोह हुआ। इस विद्रोह में पंजाबी मुसलमानों की पाँचवीं लाईट इन्फैंट्री बटालियन एवं 36वीं सिख बटालियन का हाथ था। इसके नेता जमादार चिश्तीखान, जमादार अब्दुल गनी और सूबेदार डंडेखान थे। ब्रिटिश सरकार की दमनात्मक कार्यवाही में 37 सैनिकों को मृत्युदंड और 41 को आजीवन कारावास की सजा मिली।
इसके बाद, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने जापानी सरकार के हरसंभव सहयोग के आश्वासन के बाद सिंगापुर में आजाद हिंद फौज का पुनर्गठन कर आजाद हिंद सरकार की अस्थायी सरकार का गठन किया और अपने सैनिकों को ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया। रंगून को आधार बनाकर आजाद हिंद फौज के सैनिकों ने इंफाल और कोहिमा में भीषण संघर्ष किया, किंतु परिस्थितियों के प्रतिकूल होने के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा। विस्तृत विवरण के लिए देखें-सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज।
अफगानिस्तान
रेशमी पत्र आंदोलन’ या रेशमी रूमाल आंदोलन
प्रथम विश्व युद्ध के आरंभ में देवबंदी उलेमा उबैदुल्लाह सिंधी, महमूद अल-हसन और मुहम्मद मियाँ जैसे कुछ जुझारू नवयुवकों ने अफगानिस्तान, ओटोमन साम्राज्य (तुर्की) और जर्मनी के सहयोग से अंग्रेजों को भारत को निकालने के लिए अफगानिस्तान-ईरान के जनजातीय क्षेत्र में एक सशस्त्र विद्रोह की योजना बनाई। चूकि इस विद्रोह की योजना रेशम के वस्त्रों पर लिखी गई थी, इसलिए इस आंदोलन को ‘रेशमी पत्र आंदोलन’ या रेशमी रूमाल आंदोलन (तहरीक-ए-रेशमी रूमाल) के नाम से जाना जाता है।
उबैदुल्लाह सिंधी अफगानिस्तान के शासक अमीर हबीबुल्लाह को अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध छेड़ने के लिए राजी करने में सफल रहे। मौलाना महमूद अल हसन ने सऊदी अरब जाकर हेजाज के तुर्की गवर्नर गालिब पाशा और जर्मनी से सशस़्त्र विद्रोह के लिए सहायता माँगी। विद्रोह को संगठित करने के उद्देश्य से बर्लिन की भारतीय स्वतंत्रता समिति ने अफगानिस्तान-ईरान सीमा पर एक इंडो-जर्मन-तुर्की मिशन स्थापित किया और दिसंबर 1915 में काबुल में देवबंदियों से मुलाकात की।
किंतु अगस्त 1916 में मुल्तान में ब्रिटिश अधिकारियों ने पीले रेशमी वस्त्रों पर लिखे गये तीन पत्रों को पकड़ लिया, जो देवबंदी नेता मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी ने अब्दुर्रहीम और महमूद हसन देवबंदी को लिखे थे। इन रेशमी पत्रों से विद्रोह की पूरी योजना का पर्दाफाश हो गया। रेशमी पत्र आंदोलन में शामिल भारतीयों को कैदकर ‘सिल्क पेपर षड्यंत्र केस’ (9 जुलाई 1916) के नाम से मुकदमा चलाया गया और उन पर ‘ताजे-बरतानिया के खिलाफ युद्ध छेड़ने’ का आरोप लगाया गया।
यद्यपि रेशमी पत्र आंदोलन अपने तात्कालिक उद्देश्य में विफल रहा, लेकिन इसके द्वारा प्रसारित आदर्शों ने भारतीयों के मन में विद्रोह की आग को जलाये रखा। तीन साल बाद 1920 में जब मौलाना महमूद रिहा होकर मुंबई पहुँचे, तो महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने उनका एक नायक की तरह स्वागत किया। रेशम-पत्र आंदोलन की स्मृति में जनवरी 2013 में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने एक स्मारक डाकटिकट जारी किया था।
काबुल
अस्थायी स्वतंत्र भारत सरकार का गठन
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान बर्लिन की भारतीय स्वतंत्रता समिति (बर्लिन कमेटी) ने एक मिशन राजा महेंद्र प्रताप के नेतृत्व में काबुल भेजा। आर्यन पेशवा के नाम से प्रसिद्ध राजा राजा महेंद्र प्रताप ने अपने अट्ठाइसवें जन्मदिन पर 1 दिसंबर 1915 को काबुल में ‘अस्थायी स्वतंत्र भारत सरकार’ का गठन किया। महेंद्र प्रताप का जन्म 1 दिसंबर 1886 को मुरसान रियासत के एक जाट शासक घनश्याम सिंह के तृतीय पुत्र के रूप में हुआ था। तीन वर्ष की अवस्था में उन्हें हाथरस के राजा हरनारायण सिंह ने गोद ले लिया था। उनका विवाह 1902 में जिंद रियासत के कायस्थ परिवार की कन्या बलवीर कौर से हुआ था।
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राजा महेंद्र प्रताप स्वयं काबुल की अस्थायी सरकार के राष्ट्रपति और बरकतुल्लाह प्रधानमंत्री थे। मंत्रिमंडल के अन्य सदस्यों में मौलाना अब्दुल्ला, मौलाना बशीर, चंबकरमन पिल्लई, शमशेरसिंह, डॉ, मथुरासिंह, खुदाबख्श और मुहम्मद अली थे। जनरल मौलाना महमूद और उबैदुल्लाह के अधीन एक सेना ‘जुनूद-ए-रब्बानिया’ भी प्रस्तावित की गई थी। महेंद्र प्रताप ने अपनी अंतरिम सरकार के समर्थन के लिए रूस, तुर्की, जापान आदि देशों की सरकारों से संपर्क किया, किंतु इस प्रयास का कोई विशेष परिणाम नहीं निकला। इस सरकार के एक प्रतिनिधि मथुरासिंह को रूस में गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में 1917 में लाहौर में फाँसी दे गई। बाद में, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने जापान के सहयोग से सिंगापुर में पुनः एक अंतरिम आजाद हिंद सरकार का गठन किया था।
विदेशों में क्रांतिकारी गतिविधियों का मूल्यांकन
भारतीय क्रांतिकारियों के विदेश-भ्रमण ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को कई तरह से प्रभावित किया। इसने न केवल प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभिक वर्षों में ब्रिटिश सरकार को गंभीर खतरे में डाला, बल्कि आरंभिक संघर्षशील राष्ट्रवाद की तीव्र हिंदू धार्मिकता, आंचलिकता और अपेक्षाकृत सीमित सामाजिक दृष्टिकोण का अंत भी किया। अरबिंद घोष के आक्रामक हिंदू पर्चे ‘भवानी मंदिर’ (1905) में ‘संसार के आर्यीकरण की आवश्यकता’ की बात कही गई थी, लेकिन लंदन स्थित समूह के पर्चे ‘ओह मार्टियर्स’ (1907) ने 1857 के हिंदू-मुसलमानों के एकजुट विद्रोह की याद दिला दी : ‘‘कैसे फिरंगियों का राज बिखर गया था और हिंदुओं और मुसलमानों की साझी सहमति से स्वदेशी राज स्थापित हुए थे।’’
भारतीय क्रांतिकारियों के विदेश-भ्रमण से साम्राज्यवाद-विरोधी एक अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि का भी उदय हुआ : ‘‘ढ़ीगरा की पिस्तौल की आवाज को आयरिश कुटीर कृषक ने अपनी एकाकी कुटिया में सुना है, मिस्र के किसान ने खेतों में और जुलू श्रमिक ने अंधेरी खदानों में सुना है…। दरअसल आयरिश जुझारू संगठनों के साथ भारतीय क्रांतिकारियों के संबंध बहुत घनिष्ठ थे। भारतीय कस्टम अधिकारी ‘इंडियन सोशियोलॉजिस्ट’, ‘वंदेमातरम्’ और चट्टोपाध्याय के ‘तलवार’ (बर्लिन), तारकनाथ दास के ‘फ्री हिंदुस्तान’ (बैंकोवर) एवं ‘गदर’ जैसी पत्र-पत्रिकाओं के साथ न्यूयार्क से प्रकाशित होनेवाली जी.एफ. फ्रीमन के ‘गैलिक अमरीकन’ को भी बराबर जब्त कर रहे थे।
भारत से बाहर जानेवाले क्रांतिकारियों ने अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन से भी संबंध स्थापित किये। ब्रिटिश मार्क्सवादी संगठन सोशल डेमोक्रेटिक फेडरेशन के हिंडमैन श्यामजी कृष्णवर्मा के इंडिया हाउस में होनेवाली सभाओं को संबोधित करते थे। अगस्त 1907 में मैडम कामा ने दूसरी इंटरनेशनल की स्टुटगॉर्ट कांग्रेस में स्वतंत्र भारत का तिरंगा झंडा लहराया और हरदयाल अराजकतावादी-संघवादी इंडस्ट्रियल वर्कर्स ऑफ दि वर्ल्ड की सैन फ्रांसिस्को शाखा के सचिव का कार्यभार सँभाले। वे ‘माडर्न रिव्यू’ के मार्च 1912 अंक में कार्ल मार्क्स पर लेख लिखनेवाले संभवतः पहले भारतीय भी थे। इसी परिवेश से रूस की 1917 की अक्टूबर क्रांति के बाद नरेन भट्टाचार्य (एम.एन. राय), वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय और अवनी मुखर्जी जैसे पहले भारतीय कम्युनिस्ट नेता निकले।
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