1857 की क्रांति : कारण और प्रसार (Revolution of 1857: Causes and Dissemination)

ब्रिटिश राज के विरुद्ध भारतीय जनता के असंतोष और प्रतिरोध की पहली बड़ी अभिव्यक्ति 1857 […]

1857 की क्रांति : कारण और प्रसार (Revolution of 1857: Causes and Dissemination)

ब्रिटिश राज के विरुद्ध भारतीय जनता के असंतोष और प्रतिरोध की पहली बड़ी अभिव्यक्ति 1857 में एक सशस्त्र सिपाही विद्रोह के रूप में हुई। यह सिपाही विद्रोह, जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या 1857 की क्रांति भी कहा जाता है, विश्व इतिहास की एक महानतम घटना है, जिसने यूरोप के सबसे बड़े राज्य, ब्रिटिश साम्राज्य, की जड़ों को हिलाकर रख दिया। इससे पहले किसी भी यूरोपीय साम्राज्य में अथवा एशिया के किसी भाग में इतना बड़ा विद्रोह नहीं हुआ था। यद्यपि इसका आरंभ कंपनी की सेना के भारतीय सिपाहियों ने किया, किंतु जल्द ही इसने एक शक्तिशाली जन-क्रांति का रूप धारण कर लिया, जिसमें सिपाहियों के साथ-साथ भारत के प्रायः सभी वर्गों—स्वत्व से वंचित किए गए मुखियाओं, किसानों, दस्तकारों—ने बढ़-चढ़कर भाग लिया और तीन लाख से अधिक लोग मारे गए। इस क्रांति को भारतीय राष्ट्रवाद की आधारशिला और भारतीय इतिहास का परिवर्तन-बिंदु माना जाता है।

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1857 की क्रांति के प्रमुख कारण

1857 की क्रांति मात्र सिपाहियों के असंतोष या चर्बी वाले कारतूसों का परिणाम नहीं थी। इंग्लैंड में समकालीन रूढ़िवादी दल के प्रमुख नेता बेंजामिन डिज़रायली का विचार था: “यह विद्रोह एक आकस्मिक प्रेरणा नहीं, अपितु एक सचेत संयोग का परिणाम था… साम्राज्य का उत्थान-पतन चर्बी वाले कारतूसों से नहीं होता। ऐसे विद्रोह उचित और पर्याप्त कारणों के एकत्रित होने से होते हैं।” लॉर्ड सेलिसबरी ने भी हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा था कि वह यह मानने को तैयार नहीं हैं कि ऐसा व्यापक और शक्तिशाली आंदोलन चर्बी वाले कारतूस को लेकर हो सकता था।

वस्तुतः यह क्रांति औपनिवेशिक शासन के चरित्र, उसकी नीतियों और कंपनी के शासन के प्रति जनता के संचित असंतोष और घृणा का परिणाम थी। एक शताब्दी से अधिक समय तक अंग्रेज इस देश पर धीरे-धीरे अपना अधिकार बढ़ाते जा रहे थे, और इस काल में भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में विदेशी शासन के प्रति जन-असंतोष और घृणा में वृद्धि होती रही। इस असंतोष और घृणा ने क्रांति के लिए विस्फोटक सामग्री एकत्र कर दी थी, जिसमें चर्बी वाले कारतूस ने चिंगारी का काम किया।

आर्थिक कारण

1857 की महान क्रांति को प्रायः बंगाल की सेना के भारतीय सिपाहियों का गदर मात्र समझा जाता रहा है, किंतु जन-असंतोष का संभवतः सबसे महत्त्वपूर्ण कारण अंग्रेजों द्वारा देश का आर्थिक शोषण तथा देश के परंपरागत आर्थिक ढांचे का विनाश था, जिसने बहुत बड़ी संख्या में किसानों, दस्तकारों तथा हस्त-शिल्पियों को और साथ ही बड़ी संख्या में परंपरागत जमींदारों तथा मुखिया लोगों को निर्धनता के मुंह में झोंक दिया।

भूराजस्व नीति

वास्तव में ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रशासनिक कार्यप्रणाली ‘अयोग्य और अपर्याप्त’ थी। भूराजस्व नीति, भूमि-संबंधी कानून तथा प्रशासन की शोषक प्रणालियों के कारण भूस्वामी और किसान सभी असंतुष्ट थे। पहले कंपनी ऐसे जमींदारों का एक वर्ग कायम रखने की नीति के पक्ष में थी, जो स्वाभाविक रूप से सरकार के पक्षपाती हों। उत्तर-पश्चिमी प्रांत (बाद में आगरा और अवध) के लेफ्टिनेंट गवर्नर थॉमसन का विश्वास था कि बड़े-बड़े जमींदारों से कंपनी को खतरा पैदा हो सकता है, इसलिए उनका विचार था कि जमींदार एक वर्ग के रूप में कायम न रहें और सरकार को रैयत से सीधा संपर्क स्थापित करना चाहिए। इस नई नीति के कारण कंपनी ने बहुत-सी जमींदारियों को खत्म कर दिया और बहुत-से तालुकेदारों और वंशानुगत भूस्वामियों, जो सरकार का भू-राजस्व एकत्र करते थे, को उनके पद और अधिकार से वंचित कर दिया गया।

अवध विलय के समय तालुकेदारों के पास 25,543 गांव थे, जिनमें से 11,903 गांव उन लोगों को दे दिए गए, जो तालुकेदार नहीं थे, अर्थात तालुकेदारों के लगभग आधे गांव छीन लिए गए, कुछ तो अपना सर्वस्व गंवा बैठे थे।

जमींदारियों की जब्ती

मुंबई के प्रसिद्ध ‘इनाम कमीशन’ ने दक्षिण भारत की 20,000 जमींदारियों को जब्त किया। उस समय भारत में सामंतशाही का अंतिम दौर था। सामंत प्रणाली में स्वाभाविक रूप से जनता की वफादारी अपने जमींदार या राजा के प्रति रहती थी। जब जनता ने देखा कि एक के बाद एक भारतीय रियासतें खत्म होती जा रही हैं और जमींदारों का वर्ग भी समाप्त किया जा रहा है, तो इससे उन्हें बड़ा धक्का लगा। उन्होंने अनुभव किया कि कंपनी भारत के सामाजिक और राजनीतिक जीवन के स्वरूप को ही बदल रही है। इससे संपत्ति और प्रतिष्ठा खोने वाले तालुकेदारों और जमींदारों के साथ उनके लोग भी कंपनी राज से बहुत असंतुष्ट थे।

किसानों की दयनीय दशा

खेती करने वाले किसानों की हालत तो और भी खराब थी। ब्रिटिश शासन के प्रारंभ में किसानों को जमींदारों की दया पर छोड़ दिया गया था, जो लगान बढ़ाकर और बेगार तथा अन्य तरीकों से किसानों का शोषण कर रहे थे। 19वीं शताब्दी के पहले चरण में कंपनी को दिया जाने वाला भूराजस्व 70 प्रतिशत तक बढ़ाया गया। इस अमानवीय राजस्व प्रथा को अवध तक फैलाया गया, जहां की संपूर्ण कुलीनता को सरसरी तौर पर अपदस्थ किया जा चुका था। फसल के खराब होने पर किसानों को साहूकार से अधिक ब्याज पर कर्ज लेना पड़ता था और साहूकार अनपढ़, ग्रामीण किसानों को कई तरीकों से ठगते थे। इसके अलावा, निचले स्तरों पर व्याप्त भ्रष्टाचार से भी साधारण जनता बुरी तरह पीड़ित थी। ब्रिटिश कानून व्यवस्था के अंतर्गत भूमि-हस्तांतरण वैध हो जाने के कारण किसानों को प्रायः अपनी जमीन से भी हाथ धोना पड़ता था। 1853 में केवल पश्चिमोत्तर प्रांत में 1,10,000 एकड़ जमीन नीलाम की गई और इसी कारण जब क्रांति का आरंभ हुआ, तो बनिए, महाजन और उनकी संपत्तियां किसानों के हमलों के स्वाभाविक निशाने बने। जमीनों की बिक्री ने केवल छोटी जोत वालों को ही नहीं, गांव के कुलीनों को भी तबाह किया, और ब्रिटिश दीवानी कानून के कार्यकलापों के शिकार होने के नाते ये दोनों ही वर्ग 1857-58 के क्रांतिकारी दौर में, जो कुछ वे खो चुके थे, उसे पाने के साझा प्रयास में एकजुट हो गए।

व्यापार और उद्योग-धंधों का विनाश

अंग्रेजों के विरुद्ध असंतोष केवल कृषि-समुदायों तक ही सीमित नहीं था। अंग्रेजों की आर्थिक नीतियां भारतीय व्यापार और उद्योग-धंधों के भी विरुद्ध थीं। जिन प्रदेशों पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया था, वहां के व्यापार पर उन्होंने अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया और अपनी राजनैतिक शक्ति का दुरुपयोग कर भारतीय हस्तशिल्प और व्यापार का सत्यानाश कर दिया, जिससे भारत की परंपरागत अर्थव्यवस्था पूरी तरह नष्ट हो गई और बहुत-से किसान, दस्तकार, मजदूर और कलाकार कंगाल हो गए। 1813 में कंपनी की एकतरफा मुक्त-व्यापार की नीति के कारण स्थानीय उद्यमों को ब्रिटिश आयातित वस्तुओं की भ्रष्ट प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा। अब यूरोपियनों ने भारत में अंग्रेजी वस्तुओं को लाकर बुनकरों, सूती वस्त्रकर्मियों, बढ़इयों, लुहारों और जूता बनाने वालों को बेरोजगार कर दिया। हर प्रकार का दस्तकार भिखारी बन गया। जब रेलवे के विकास ने अंग्रेज व्यापारियों को दूर-दराज के गांवों तक पहुंचा दिया, तो ग्रामीण क्षेत्रों के बचे-खुचे लघु उद्यम भी नष्ट हो गए। कार्ल मार्क्स ने 1853 में लिखा था: “सूती कपड़ा उद्योग के नाश होने पर कृषि पर बोझ बढ़ा और अंत में देश अकिंचन हो गया।” परंपरागत उद्योगों के नष्ट होने और साथ-साथ आधुनिक उद्योगों का विकास न होने की वजह से स्थिति और भी भयावह हो गई।

धार्मिक एवं सामाजिक कारण
मिशनरियों का धर्म-प्रचार

अंग्रेजी शासन के विरोध में जनता के खड़े होने का एक प्रमुख कारण लोगों की यह धारणा थी कि इस शासन के कारण उनका धर्म खतरे में है। इस भय का प्रमुख कारण उन ईसाई मिशनरियों की गतिविधियां थीं, जो ‘हर जगह स्कूलों, अस्पतालों, जेलों और बाजारों में देखे जाते थे।’ ये मिशनरी लोगों को ईसाई बनाने का प्रयास करते तथा हिंदू धर्म और इस्लाम पर सार्वजनिक रूप से तीखा और भौड़ा प्रहार करते थे। वे जनता की पुरानी तथा प्रिय परंपराओं और मान्यताओं की खुलकर हंसी उड़ाते और उनकी निंदा करते थे।

सरकार द्वारा धर्म-प्रचारकों का सहयोग

जनता को आशंका थी कि विदेशी सरकार ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों को संरक्षण देती है। सरकार के कुछ कार्यों तथा बड़े अधिकारियों की कुछ गतिविधियों से इस आशंका को और बल मिला। 1850 में सरकार ने एक कानून बनाया, जिसके अनुसार धर्म बदलकर ईसाई बनने वालों को अपनी पैतृक संपत्ति में अधिकार मिल गया। इसके अलावा, सरकार अपने खर्च पर सेना में ईसाई उपदेशक या पादरी भी रखती थी। अनेक नागरिक और सैनिक अधिकारी मिशनरी प्रचार को प्रोत्साहन देना तथा सरकारी स्कूलों और जेलों तक में ईसाई धर्म की शिक्षा की व्यवस्था करना अपना धार्मिक कर्तव्य समझते थे। मेजर एडवर्ड्स ने कहा भी था: “भारत पर हमारे अधिकार का अंतिम उद्देश्य देश को ईसाई बनाना है।” अंग्रेजी सरकार के इशारे पर अंग्रेज अफसरों ने जिस तरह सामाजिक-धार्मिक परंपराओं, मान्यताओं पर कुठाराघात करना शुरू किया, उससे परंपरावादी हिंदुओं और मुसलमानों को आघात पहुंचा।

सामाजिक-धार्मिक परंपराओं पर कुठाराघात

अंग्रेजी सरकार के इशारे पर अंग्रेज अफसरों ने जिस तरह सामाजिक-धार्मिक परंपराओं, मान्यताओं पर कुठाराघात करना शुरू किया, उससे परंपरावादी हिंदुओं और मुसलमानों को भारी आघात पहुंचा। उन्हें लगा कि एक विदेशी ईसाई सरकार सामाजिक परिवर्तन के नाम पर कानून बनाकर उनके धर्म और संस्कृति को नष्ट करना चाहती है। सती प्रथा का उन्मूलन, विधवा-पुनर्विवाह संबंधी कानून तथा लड़कियों के लिए पश्चिमी शिक्षा की व्यवस्था जैसे सामाजिक सुधारों से भारतीयों को लगा कि सरकार भारतीय धर्म और समाज का ईसाईकरण करने का प्रयास कर रही है। अब स्कूलों और शिक्षा-कार्यालयों को ‘शैतानी दफ्तर’ माना जाने लगा। कई लोग तो रेलवे और भाप-चालित जहाज को भी भारतीय धर्म-परिवर्तन के अप्रत्यक्ष साधन मानते थे।

यही नहीं, पहले के भारतीय शासकों ने मंदिरों और मस्जिदों से जुड़ी जमीन को उनके पुजारियों या सेवा-संस्थाओं को कर-मुक्त रखा था। अब उनसे कर वसूल करने की सरकारी नीति से भी लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट लगी। इसके अलावा, इन जमीनों पर निर्भर अनेक ब्राह्मण और मुस्लिम परिवार गुस्से से उबल उठे और यह प्रचार करने लगे कि अंग्रेज उनके धर्म को नष्ट करने पर तुले हुए हैं।

अंग्रेजों का प्रजातीय अहंकार

अंग्रेजों की धारणा थी कि प्रजातीय दृष्टि से भारतीय नस्ल से उच्च श्रेणी के हैं और उनकी सभ्यता भारतीयों से श्रेष्ठ है। वे भारतीयों को हीन दृष्टि से देखते थे। एक नियम द्वारा यह अनिवार्य कर दिया गया था कि प्रत्येक भारतीय सड़क पर चलते हुए यूरोपियनों को सलाम करे। अंग्रेज भारतीयों को सुअर, काले आदि कहकर अपमानित करते थे, जिससे भारतीयों में अंग्रेजों के प्रति असंतोष होना स्वाभाविक था। इसके अलावा, समाज के मध्य तथा उच्च वर्ग के लोग, खासकर उत्तर भारत में, प्रशासन के अच्छी आय वाले पदों पर शामिल नहीं किए जाते थे, जिसके कारण उनमें भी असंतोष की भावना फैल रही थी।

राजनैतिक कारण
व्यपगत सिद्धांत

लॉर्ड वेलेजली ने सहायक संधि की आड़ लेकर भारतीय रियासतों पर प्रभावशाली नियंत्रण और उनकी धीरे-धीरे समाप्ति की नीति अपनाई थी, किंतु डलहौजी ने नैतिक और राजनैतिक आचार की सभी सीमाओं को तोड़कर एक नया ‘व्यपगत सिद्धांत’ (डॉक्सिन ऑफ लैप्स) गढ़ा। इस सिद्धांत के अनुसार कोई राज्य, क्षेत्र या ब्रिटिश प्रभाव का क्षेत्र कंपनी के अधीन हो जाएगा, यदि क्षेत्र का राजा निःसंतान मर जाता है या शासक कंपनी की नजरों में अयोग्य साबित होता है। इसी व्यपगत सिद्धांत के आधार पर 1848 और 1856 के बीच झांसी (1853), सतारा (1848), नागपुर, संभलपुर, बघाट (1850), उदयपुर (1852) और सैनिक विजय द्वारा पंजाब, पीगू और सिक्किम अंग्रेजी राज्य में मिला लिए गए थे।

अवध की रियासत 70 साल से कंपनी के प्रति वफादार थी। इस दौरान उसने एक बार भी कंपनी के हितों के खिलाफ कोई काम नहीं किया था। जब शासितों के हित का तर्क देकर 1856 में अवध का अधिग्रहण करके नवाब को कलकत्ता भेज दिया गया, तो पूरे भारत में, खासतौर पर अवध में और कंपनी की सेना, विशेषकर बंगाल सेना के सिपाहियों में क्रांति की भावना पैदा हुई और वे कंपनी के शासन का अंत करने की सोचने लगे।

अवध का अधिग्रहण

अवध के अधिग्रहण के लिए डलहौजी ने तर्क दिया था कि वह जनता को नवाब के कुप्रबंधन तथा तालुकेदारों के उत्पीड़न से मुक्ति दिलाएगा, किंतु जनता को कोई राहत नहीं मिली। उलटे, साधारण जनता को अब पहले से अधिक भूराजस्व तथा खाने-पीने की वस्तुओं, मकानों, खोमचों, ठेलों, अफीम और न्याय पर अधिक टैक्स देने पड़ रहे थे। नवाब का प्रशासन और सेना भंग होने से हजारों कुलीन तथा भद्र लोग, अधिकारी और सिपाही बेरोजगार हो गए। लगभग हर किसान के घर में कोई-न-कोई बेरोजगार हुआ। अवध के दरबार तथा कुलीनों की सेवा करने वाले व्यापारियों, दुकानदारों तथा दस्तकारों की जीविका चली गई। इसके अलावा, अधिकांश तालुकेदारों तथा जमींदारों की जागीरें भी अंग्रेजों ने जब्त कर लीं। उनके हथियार जब्त कर लिए गए और किलेबंदियां गिरा दी गईं, जिसके कारण स्थानीय समाज में उनकी स्थिति और शक्ति में काफी गिरावट आई। कानून की दृष्टि में अब वे अपने मामूली काश्तकारों से भिन्न नहीं रहे। संपत्तिहीन बने तालुकेदारों की संख्या लगभग 21,000 थी। अपनी खोई जागीरों और सामाजिक स्थिति को पुनः प्राप्त करने के लिए ये लोग ब्रिटिश शासन के सबसे खतरनाक दुश्मन बन गए।

अविश्वास का वातावरण

डलहौजी की विलय नीति से सभी भारतीय राजाओं के कान खड़े हो गए। देसी नरेशों को लगने लगा कि सभी रियासतों का अस्तित्व खतरे में है, बस केवल समय का प्रश्न है। कंपनी द्वारा तोड़ी गई संधियों और वादों के कारण कंपनी की राजनैतिक विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग चुका था। मालेसन ने सही कहा था कि डलहौजी की नीति ने और अन्य ऊंचे पदाधिकारियों के कथनों और लेखों ने एक प्रकार का ‘अविश्वास का वातावरण’ उत्पन्न कर दिया था और भारतीयों को लगने लगा था कि अंग्रेज ‘मेमने के रूप में भेड़िए हैं।’ राज्य हड़पने या उन्हें अधीन बनाने की यह नीति नानासाहब, झांसी की रानी तथा बहादुरशाह जैसे अनेक शासकों को अंग्रेजों का कट्टर दुश्मन बनाने के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार थी। नाना साहब आखिरी पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। अंग्रेज बाजीराव को जो पेंशन दे रहे थे, उसे नाना साहब को देने से इनकार कर दिया तथा उन्हें अपनी पैतृक राजधानी पूना से बहुत दूर, कानपुर (बिठूर) में रहने पर बाध्य किया। इसी तरह झांसी को हड़पने की अंग्रेजों की जिद ने स्वाभिमानी रानी लक्ष्मीबाई का गुस्सा भड़काया। रानी की इच्छा थी कि उनके स्वर्गीय पति के सिंहासन पर उनका दत्तक पुत्र बैठे।

मुगल सम्राट के प्रति दुर्व्यवहार

1849 में डलहौजी ने मुगल वंश की प्रतिष्ठा पर यह घोषणा करके चोट की थी कि बहादुरशाह के उत्तराधिकारी शहजादा फकीरुद्दीन को ऐतिहासिक लालकिला छोड़कर दिल्ली के बाहर कुतुबमीनार के पास एक बहुत छोटे निवास स्थान में रहना होगा। 1856 में फकीरुद्दीन की मृत्यु के बाद लॉर्ड केनिंग ने घोषणा की कि बहादुरशाह के उत्तराधिकारी शहजादे को ‘बादशाह’ की उपाधि और ‘महल’ दोनों छोड़ने होंगे। इस घोषणा से भारतीय जनमानस, विशेषकर मुसलमानों का चिंतित और असंतुष्ट होना स्वाभाविक था। उन्हें लगा कि अंग्रेज तैमूर के वंश को नीचा दिखाना चाहते हैं।

ब्रिटिश शासन का विदेशी चरित्र

ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध भारतीयों में असंतोष का एक और प्रमुख कारण उसका विदेशी चरित्र था। अंग्रेज भारत में लगातार परदेसी ही बने रहे। उनके और भारतीय लोगों के बीच कोई संबंध या संपर्क नहीं रहा। पहले के विदेशी शासकों की तरह अंग्रेजों ने उच्च वर्गों के भारतीयों से भी सामाजिक मेलजोल नहीं बढ़ाया। उलटे, वे प्रजातीय श्रेष्ठता के नशे में चूर रहे तथा भारतीयों के साथ अपमानजनक और घृणित बर्ताव करते रहे। वे भारतीयों को ‘काले’ अथवा ‘सुअर’ कहते थे और प्रत्येक अवसर पर उनका अपमान करते थे। सैयद अहमद खां ने बाद में लिखा: “उच्चतम श्रेणियों के देसी लोग तक भी बिना आंतरिक डर के तथा बिना कांपे हुए कभी अधिकारियों के सामने उपस्थित नहीं हुए।” वास्तव में अंग्रेज भारत में बसने या इसे अपना घर बनाने नहीं आए थे। उनका प्रमुख उद्देश्य धन कमाना और उस धन को लेकर ब्रिटेन लौटना होता था। भारतवासी अपने नए शासकों के इस विदेशी चरित्र को अच्छी तरह पहचानते थे। वे कभी भी अंग्रेजों को अपना शुभचिंतक नहीं माने और उनके हर क्रियाकलाप को संदेह की दृष्टि से देखते रहे। इस तरह उनके अंदर एक धुंधली-सी ब्रिटिश-विरोधी भावना पहले से ही मौजूद थी, जो 1857 के विद्रोह से पहले भी अनेक अंग्रेज-विरोधी जन-विद्रोहों में अभिव्यक्त होती रही।

सैनिक कारण

1857 की क्रांति कंपनी के सिपाहियों के विद्रोह से आरंभ हुई थी। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि जिन सिपाहियों ने अपनी निष्ठापूर्ण सेवा से कंपनी को भारत-विजय में समर्थ बनाया था और जिन्हें अच्छी प्रतिष्ठा और आर्थिक सुरक्षा प्राप्त थी, वे एकाएक विद्रोही क्यों हो गए? इसका सीधा-सा उत्तर है कि सिपाही भी भारतीय समाज के अंग थे और इसलिए दूसरे भारतीयों पर जो गुजरती थी, उसे ये भी कुछ हद तक महसूस कर दुखी होते थे। समाज के दूसरे वर्गों, खासकर किसानों की आशाएं, इच्छाएं और दुख-दर्द इन सिपाहियों के बीच भी प्रतिबिंबित होते थे। यह सिपाही दरअसल ‘वर्दीधारी किसान’ ही था। अगर ब्रिटिश सरकार के विनाशकारी आर्थिक कृत्यों से उनके निकट-संबंधी पीड़ित होते थे, तो उस पीड़ा को ये सिपाही भी महसूस करते थे।

धार्मिक या जातिगत शिकायतें

सिपाही भी इस सामान्य विश्वास से ग्रस्त थे कि अंग्रेज उनके धर्मों में दखलंदाजी कर रहे हैं और सभी भारतीयों को ईसाई बनाने पर तुले हुए हैं। उनके अनुभव भी उनके इस विश्वास को बल देते थे क्योंकि उन्हें पता था कि सेना में राज्य के खर्च पर ईसाई धर्मोपदेशक मौजूद थे। इसके अलावा, कुछ ब्रिटिश अधिकारी भी धार्मिक जोश में सिपाहियों के बीच ईसाई धर्म का प्रचार किया करते थे।

सिपाहियों की अपनी धार्मिक या जातिगत शिकायतें भी थीं। सैनिक अधिकारियों की ओर से सिपाहियों को जाति या पंथ के चिह्नों के धारण करने, दाढ़ी रखने या पगड़ी पहनने पर प्रतिबंध था। सिपाही लंबे समय से शिकायतों से भरे हुए थे और 1856 में उनकी धार्मिक आस्थाओं का सेवा की नई दशाओं से टकराव हो चुका था। लॉर्ड केनिंग द्वारा जारी किए गए ‘सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम’ के अनुसार हर नए भर्ती होने वाले सिपाही को आवश्यकता पड़ने पर समुद्रपार जाकर भी सेवा करने की जमानत देनी पड़ती थी। इससे भी सिपाहियों की भावनाओं को चोट पहुंची, क्योंकि उस समय की हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार समुद्र-यात्रा पाप थी और इसके दंड में किसी को जाति से बाहर भी कर दिया जाता था। सीताराम नाम का एक सिपाही जब अफगानिस्तान से लौटा, तो न केवल उसे अपने गांव, बल्कि अपनी बैरक में भी जाति से बाहर कर दिया गया। यही नहीं, सिंध या पंजाब में तैनाती के समय सिपाहियों का विदेश सेवा भत्ता (बट्टा) भी समाप्त कर दिया गया, जिसके कारण अधिकांश सिपाहियों के वेतन में भारी कटौती हुई।

सिपाहियों के प्रति अपमानजनक व्यवहार

सिपाहियों की कई दूसरी शिकायतें भी थीं। ब्रिटिश अधिकारी सिपाहियों से अक्सर अपमानजनक व्यवहार करते थे। एक तत्कालीन ब्रिटिश प्रेक्षक ने लिखा है: “अधिकारी और सिपाही परस्पर मित्र नहीं, एक-दूसरे के लिए अजनबी ही रहे हैं। सिपाही को एक हीन प्राणी माना जाता है। उसे डांटा-फटकारा जाता है। उसके साथ बुरा बर्ताव होता है, उसे नीग्रो जैसा समझा जाता है। उसे ‘सुअर’ कहकर पुकारा जाता है… छोटे अधिकारी… उसे एक हीन प्राणी मानकर व्यवहार करते हैं।” अगर भारतीय सिपाही श्रेष्ठ योद्धा भी हो, तो भी उसे कम पैसा दिया जाता था और अंग्रेज सिपाही से भी बुरे ढंग से रखा या खिलाया-पिलाया जाता था। उसकी पदोन्नति की आशाएं नहीं के बराबर थीं। कोई भी भारतीय सिपाही असाधारण योग्यता या बहादुरी दिखाने पर भी 60-70 रुपये मासिक पाने वाले जमादार (सेकेंड लेफ्टिनेंट) से ऊपर नहीं उठ सकता था। टी.आर. होम्स ने लिखा है: “सिपाही जानता था कि वह चाहे जितनी कर्तव्यनिष्ठा दिखाए, चाहे जितना बहादुर सैनिक बन जाए, उसे अंग्रेज सैनिक के बराबर वेतन कभी नहीं मिलेगा। 30 वर्ष की कर्तव्यनिष्ठ सेवा भी उसे अंग्रेज अफसर का मातहत होने से बचा नहीं सकेगी।”

सैन्य-संगठन की खामियां

मुंबई, मद्रास और बंगाल प्रेसीडेंसी की अपनी अलग सेना और सेना-प्रमुख होता था। इस सेना में अंग्रेजी सेना से अधिक भारतीय सिपाही थे। मुंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी की सेना में अलग-अलग क्षेत्रों के प्रायः छोटी जातियों के लोग थे, जिसके कारण ये सेनाएं विभिन्नता से पूर्ण थीं और इनमें किसी एक क्षेत्र के लोगों का प्रभुत्व नहीं था। किंतु बंगाल प्रेसीडेंसी की सेना में न केवल अंग्रेजों की सैन्य-उपस्थिति सबसे कम थी, बल्कि इस सेना में भर्ती किए गए 60 प्रतिशत सिपाही मुख्यतः अवध और गंगा के मैदानी इलाकों के थे। भूमिहार, राजपूत और ब्राह्मणों की सवर्ण पृष्ठभूमि के कारण उनमें एक महान भाईचारा था, जिसमें सभी सदस्य एकता से कार्य करते थे। चार्ल्स नेपियर को इन ‘उच्च जातीय’ भाड़े के सैनिकों पर कोई विश्वास नहीं था। 1856 में अवध के अधिग्रहण ने इन सिपाहियों की वफादारी को झकझोर दिया, क्योंकि लगभग 75,000 सैनिक तो उसी क्षेत्र से भर्ती किए गए थे। सर जेम्स आउट्रम ने पहले ही डलहौजी को सचेत किया था: “संभवतः बिना किसी अपवाद के, अवध का हरेक खेतिहर परिवार… ब्रिटिश सेना में अपना एक सदस्य भेजता है।” अवध सिपाहियों का घर था, उसके हड़पे जाने से सिपाहियों को लगा कि “उनकी सेवा और बलिदान से कंपनी ने जो शक्ति अर्जित की है, वही आज उनके राजा को समाप्त करने में प्रयोग की जा रही है।” इसके अलावा, ये वर्दीधारी किसान अवध के चलताऊ बंदोबस्तों के कारण किसानों की बिगड़ती दशा को लेकर भी चिंतित थे। विद्रोह से पहले ये सिपाही लगभग 14,000 प्रार्थना-पत्र मालगुजारी व्यवस्था के कारण पैदा समस्याओं के बारे में दे चुके थे। दूसरे शब्दों में, सिपाहियों ने हथियार उठाकर अंग्रेजों के विरुद्ध खुली बगावत की, तो केवल ‘कारतूस’ के कारण नहीं की।

सिपाहियों का असंतोष

सिपाहियों के असंतोष के पीछे एक लंबा इतिहास रहा है। बंगाल में बहुत पहले, 1764 में ही एक सिपाही विद्रोह हो चुका था। अधिकारियों ने 30 सिपाहियों को तोपों से उड़ाकर विद्रोह को दबा दिया था। 1806 में वेल्लूर में सिपाहियों ने विद्रोह किया, किंतु जिलेप्सी ने भयानक हिंसा का सहारा लेकर उसका दमन कर दिया था। 1824 में बैरकपुर की 47वीं रेजीमेंट के समुद्री रास्ते से बर्मा जाने से इनकार करने पर वह रेजीमेंट तोड़ दी गई थी। उसके निहत्थे सिपाहियों पर तोपखाने के गोले बरसाए गए थे और सिपाहियों के नेताओं को फांसी दे दी गई थी। 1844 में वेतन और भत्ते के सवाल पर सात बटालियनों ने विद्रोह किया था। इसी तरह अफगान युद्ध से कुछ ही पहले अफगानिस्तान में सिपाही विद्रोह करने वाले थे। सेना में व्याप्त असंतोष को समाप्त करने के लिए एक मुसलमान और एक हिंदू सूबेदार को गोली मार दी गई थी। सिपाहियों में असंतोष इस कदर व्याप्त था कि 1858 में बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर फ्रेडरिक हैलीडे को कहना पड़ा था कि “बंगाल की फौज कमोबेश बागी और हमेशा विद्रोह के लिए तैयार थी और तय है कि कभी-न-कभी अगर संयोगवश उत्तेजना और अवसर मिले, तो वह विद्रोह कर बैठती।” इस प्रकार भारतीय जनता के साथ-साथ सिपाहियों के बीच विदेशी शासन के प्रति व्यापक और तीखी नापसंदगी, बल्कि घृणा भी मौजूद थी।

तात्कालिक कारण

1857 की क्रांति के लिए बारूद जमा हो चुका था, केवल इसमें एक चिंगारी की देर थी। चर्बी मिले कारतूसों की घटना ने यह चिंगारी भी बारूद को दिखा दी और सिपाहियों के विद्रोह पर उतर आने पर साधारण जनता भी उठ खड़ी हुई।

गाय और सुअर की चर्बी वाले कारतूस

1856 में सरकार ने पुरानी और कई दशकों से उपयोग में लाई जा रही ब्राउन बेस बंदूक के स्थान पर 0.577 कैलिबर की अधिक शक्तिशाली और अचूक एनफील्ड राइफल को प्रयोग करने का निश्चय किया। नई राइफल में गोली दागने की आधुनिक प्रणाली (पर्क्यूशन कैप) का प्रयोग किया गया था। इस राइफल में कारतूस के ऊपरी भाग को दांतों से काटकर खोलना पड़ता था। जनवरी 1857 में बंगाल सेना में यह अफवाह फैल गई कि चर्बी वाले कारतूस में सुअर और गाय की चर्बी लगी है। यह हिंदू और मुसलमान, दोनों की धार्मिक भावनाओं के विरुद्ध था। सैनिक अधिकारियों ने इस अफवाह की जांच किए बिना तुरंत इसका खंडन कर दिया। बाद में पता चला कि वूलिच शस्त्रागार में वास्तव में गाय और बैल की चर्बी प्रयोग की जाती थी। अंग्रेज अफसरों ने सुझाव दिया कि सिपाही नए कारतूस बनाएं, जिसमें बकरे या मधुमक्खी की चर्बी प्रयोग की जाए। इस सुझाव ने सिपाहियों के बीच फैली अफवाह को और पुख्ता कर दिया। सिपाहियों को विश्वास हो गया कि चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग उन्हें धर्मभ्रष्ट करने का कुत्सित प्रयास है। इस प्रकार जब कंपनी औरंगजेब की भूमिका में थी, तो सैनिकों को शिवाजी बनना ही था।

1857 की क्रांति का आरंभ

24 जनवरी 1857 को कलकत्ता में आगजनी की कई घटनाओं के कारण वातावरण में पहले से तनाव व्याप्त था। 26 फरवरी 1857 को कलकत्ता से 120 मील दूर स्थित बरहमपुर के 19वीं बंगाल नेटिव इनफैंट्री के सिपाहियों ने चर्बी वाले नए कारतूसों को प्रयोग करने से इनकार कर दिया। इन सिपाहियों पर अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर दंडित किया गया। इसके तत्काल पश्चात् 29 मार्च 1857 को कलकत्ता के निकट स्थित बैरकपुर परेड मैदान में 34वीं देसी सैनिक छावनी के सिपाहियों ने इन कारतूसों को प्रयोग करने से मना कर दिया और मंगल पांडे नामक सिपाही ने रेजीमेंट के अफसर लेफ्टिनेंट बाग की गोली मारकर हत्या कर दी। जनरल जॉन हियरसे के अनुसार, “मंगल पांडे किसी प्रकार के मजहबी पागलपन में था।”

जनरल ने जमादार ईश्वरी प्रसाद को मंगल पांडे को गिरफ्तार करने का आदेश दिया, किंतु सिवाय एक सिपाही शेख पलटू को छोड़कर सारी रेजीमेंट ने मंगल पांडे को गिरफ्तार करने से इनकार कर दिया। ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों ने इस सिपाही विद्रोह को सरलता से नियंत्रित कर लिया और 34वीं एन.आई. बटालियन को भंग कर दिया। 6 अप्रैल 1857 को मंगल पांडे का कोर्ट मार्शल किया गया और 8 अप्रैल को फांसी दे दी गई। जमादार ईश्वरी प्रसाद को भी 22 अप्रैल को फांसी पर लटका दिया गया। सिपाही शेख पलटू को तरक्की देकर बंगाल सेना में जमादार बना दिया गया।

कारतूसों में चर्बी लगी होने की सूचना ने उत्तर भारत की समस्त सैनिक छावनियों को भी अशांत कर दिया था। अंबाला, लखनऊ और मेरठ की छावनियों से अवज्ञा, भड़कावे और लूटपाट की घटनाओं की खबरें आ रही थीं। मेरठ में 24 अप्रैल को तीसरी देसी घुड़सवार सेना के 85 सिपाहियों ने गाय और सुअर की चर्बी से बने कारतूसों को लेने से मना कर दिया। 9 मई को मेरठ परेड ग्राउंड में इन्हीं 85 सिपाहियों के कोर्ट मार्शल की घटना ने 1857 की क्रांति की तात्कालिक पृष्ठभूमि तैयार की। कोर्ट मार्शल के साथ उन्हें 10 साल की सजा सुनाई गई थी। अंततः 10 मई रविवार की शाम 6.30 बजे 20वीं पैदल सेना और 11वीं पैदल सेना के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और तीसरी देसी घुड़सवार सेना के 85 कैदी साथियों को विक्टोरिया पार्क जेल से छुड़ा लिया। सिपाहियों ने अपने यूरोपीय अधिकारियों, उनकी पत्नियों और बच्चों को मार डाला। उस समय जनरल हेविट के पास 2,200 यूरोपीय सैनिक थे, किंतु उन्होंने इस तूफान को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया।

क्रांतिकारियों का दिल्ली पर अधिकार

क्रांतिकारी सिपाही सूर्यास्त के बाद दिल्ली की ओर चल पड़े। सत्ता के केंद्र और प्रतीक के रूप में दिल्ली पर कब्जे के साथ 1857 की क्रांति की शुरुआत हुई। 12 मई को क्रांतिकारी सिपाहियों ने दिल्ली शहर पर अधिकार कर मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय को हिंदुस्तान का सम्राट घोषित किया। दिल्ली पर कब्जा करने के अभियान में कंपनी के राजनीतिक एजेंट साइमन फ्रेजर समेत सैकड़ों अंग्रेज मारे गए। दिल्ली पर कब्जे और बहादुरशाह द्वितीय द्वारा खुद को हिंदुस्तान का सम्राट घोषित किए जाने से इस क्रांति को एक सकारात्मक राजनीतिक अर्थ मिला। केवल इस एक कार्य के द्वारा सिपाहियों ने एक फौजी विद्रोह को एक क्रांतिकारी युद्ध में बदल दिया। यही कारण है कि पूरे देश के क्रांतिकारी सिपाहियों के कदम अपने आप दिल्ली की ओर मुड़ गए और क्रांति में भाग लेने वाले सभी भारतीय राजाओं ने मुगल सम्राट के प्रति अपनी वफादारी घोषित करने में कोई देर नहीं की। फिर सिपाहियों के कहने पर या संभवतः उनके दबाव में बहादुरशाह ने भारत के सभी राजाओं और सरदारों को पत्र लिखा और उनसे अपील की कि ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ने और उसे हटाने के लिए वे भारतीय राज्यों का एक महासंघ स्थापित करें।

1857 की क्रांति : कारण और प्रसार (Revolution of 1857: Causes and Dissemination)
क्रांतिकारी सिपाहियों ने मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय हिंदुस्तान का सम्राट घोषित किया

क्रांति की व्यापकता और तीव्रता

मेरठ का विद्रोह और दिल्ली पर कब्जा तो बस एक शुरुआत थी। इसके बाद जल्द ही समूचे उत्तर भारत और पश्चिम व मध्य भारत के कुछ हिस्सों में सिपाहियों और नागरिकों के बीच क्रांति की तेज लहर चल पड़ी। कंपनी के 2,32,224 सिपाहियों में से लगभग आधे सिपाहियों ने अपनी-अपनी रेजीमेंटों को छोड़ दिया और सेना के उस आदर्श को फूंक मारकर उड़ा दिया, जिसे वर्षों के प्रशिक्षण और अनुशासन के जरिए उन्हें सिखाया गया था। अनेक रियासतों में शासक तो वफादार बने रहे, किंतु उनकी फौजों में क्रांति भड़क उठी या भड़कने के करीब आ गई। इंदौर के अनेक फौजी विद्रोह करके क्रांतिकारियों से आ मिले। इसी तरह ग्वालियर के 20,000 से अधिक फौजी तात्या टोपे और झांसी की रानी के साथ चले गए। गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग ने 19 जून को हताशा भरे शब्दों में लिखा: “रुहेलखंड और दोआबे में दिल्ली से कानपुर और इलाहाबाद तक देश न केवल हमारे विरुद्ध बगावत कर बैठा है, बल्कि एक सिरे से विधि-विरुद्ध हो चुका है।”

दिल्ली पर कब्जे के एक महीने के भीतर क्रांति लगभग सभी बड़े केंद्रों—कानपुर, लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद, बरेली, जगदीशपुर और झांसी तक फैल गई और चिढ़ी हुई ग्रामीण जनता भी क्रांतिकारियों की मदद के लिए आगे आ गई। क्रांतिकारियों ने हर जगह अंग्रेजी प्रशासन के पांव उखाड़ दिए। चूंकि क्रांतिकारियों के पास अपना कोई नेता नहीं था, इसलिए उन्होंने स्थानीय सामंतों, नवाबों और राजाओं को अपने साथ लिया और उन्हें नेतृत्व की जिम्मेदारी सौंपी।

लखनऊ

लखनऊ (उत्तर प्रदेश) 1857 की महान क्रांति का एक प्रमुख केंद्र था, जहाँ 4 जून को विद्रोह शुरू हुआ और इसका नेतृत्व अवध की बेगम हजरत महल ने किया। उन्होंने सिपाहियों, किसानों और जमींदारों को संगठित कर अंग्रेजी शासन के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। उनके नेतृत्व में क्रांतिकारी सिपाहियों ने लखनऊ पर कब्जा कर लिया और ब्रिटिश रेजीडेंसी को घेर लिया। इस घेरे के दौरान ब्रिटिश रेजीडेंट हेनरी लॉरेंस मारा गया। बेगम के युवा पुत्र बिरजिस कादिर को नवाब घोषित किया गया और उन्होंने एक समानांतर प्रशासन स्थापित किया, जिसमें हिंदुओं और मुसलमानों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त कर धार्मिक एकता का उदाहरण प्रस्तुत किया।
लखनऊ में क्रांति को और बल मिला जब एक दलित महिला योद्धा ऊदा देवी अपने पति मक्का पासी के साथ विद्रोह में शामिल हुईं। मक्का पासी 22वीं नेटिव इन्फैंट्री के सिपाही थे, उन्होंने सिपाहियों को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऊदा देवी ने साहसिक रूप से पुरुष सैनिक के वेश में नवंबर 1857 में सिकंदरबाग की लड़ाई में हिस्सा लिया और पेड़ पर चढ़कर कई अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया। ऊदा देवी का बलिदान दलित समुदाय और महिलाओं की क्रांति में भागीदारी का प्रतीक बन गया।
ब्रिटिश सेना ने लखनऊ को पुनः अधिकार के लिए कई प्रयास किए। हेवलॉक और आउट्रम के शुरुआती हमले विफल रहे, लेकिन नवंबर 1857 में जनरल कॉलिन कैंपबेल ने गोरखा रेजिमेंट की सहायता से लखनऊ में प्रवेश किया और रेजीडेंसी में फँसे यूरोपियनों को बचा लिया। मार्च 1858 में अंग्रेजों ने लखनऊ पर पूरी तरह कब्जा कर लिया। बेगम हजरत महल ने नेपाल की तराई में जाकर छापामार युद्ध जारी रखा और सितंबर 1858 तक छिटपुट हमले चलते रहे। बेगम हजरत महल और ऊदा देवी जैसे नेताओं की वीरता ने लखनऊ को 1857 की क्रांति का एक प्रेरणादायी केंद्र बना दिया, जो सामाजिक-आर्थिक शोषण और धार्मिक-सांस्कृतिक एकता के लिए लड़ी गई लड़ाई का प्रतीक है।

कानपुर

कानपुर (उत्तर प्रदेश) 1857 की महान क्रांति का एक प्रमुख केंद्र था, जहाँ अंतिम मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब (धोंडूपंत) ने क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया। अंग्रेजों ने नाना साहब को पेशवा के उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता देने से इनकार कर उनकी पेंशन बंद कर दी और उन्हें पूना से निर्वासित कर दिया था। उस समय वह कानपुर के निकट बिठूर में रह रहे थे, जहाँ सिपाहियों और स्थानीय जनता में अंग्रेजी शासन की भू-राजस्व नीतियों और शोषण के खिलाफ गहरा असंतोष था। 5 जून 1857 को नाना साहब ने 2वीं कैवेलरी और 1वीं नेटिव इन्फैंट्री के विद्रोही सिपाहियों के साथ मिलकर कानपुर पर कब्जा कर लिया। उन्होंने दिल्ली के मुगल सम्राट बहादुरशाह ‘जफर’ को भारत का सम्राट घोषित किया और स्वयं को उनका प्रतिनिधि पेशवा घोषित कर एक समानांतर प्रशासन स्थापित किया।
कानपुर में क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश छावनी को घेर लिया, जिसके कमांडर जनरल ह्यू व्हीलर थे। इस घेराबंदी में नाना साहब की करीबी सहयोगी एक प्रभावशाली तवायफ अजीजनबाई ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अजीजनबाई ने न केवल आर्थिक सहायता प्रदान की, बल्कि स्थानीय लोगों और सिपाहियों को संगठित करने में भी योगदान दिया। उनकी बुद्धिमत्ता और सामाजिक प्रभाव ने क्रांतिकारियों को एकजुट करने में मदद की। घेराबंदी के दौरान भारी नुकसान होने के बाद 27 जून 1857 को व्हीलर ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसी दौरान सतीचौरा घाट पर नावों में सवार होने के दौरान ब्रिटिश सैनिकों और नागरिकों पर हमला हुआ, जिसे इतिहास में विवादास्पद ‘सतीचौरा नरसंहार’ के रूप में जाना जाता है।
जुलाई 1857 में जनरल हेवलॉक ने कानपुर पर पुनः कब्जा कर लिया, लेकिन नाना साहब ने हार नहीं मानी। अपने विष्वसनीय सेनापति तात्या टोपे और सलाहकार अजीमुल्लाह खान के साथ मिलकर उन्होंने नवंबर 1857 में कानपुर को फिर से अंग्रेजों से छीन लिया। तात्या टोपे की सैन्य रणनीति और अजीमुल्लाह के क्रांतिकारी पर्चों व पत्रों के माध्यम से जनता को संगठित करने की कुशलता ने इस जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अजीजनबाई ने भी इस दौरान सिपाहियों का मनोबल बढ़ाने और सूचनाएँ एकत्र करने में सहायता की। लेकिन 6 दिसंबर 1857 को सर कॉलिन कैंपबेल के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने भारी सैन्य बल और तोपखाने के साथ कानपुर पर अंतिम रूप से कब्जा कर लिया।
इस हार के बाद नाना साहब, तात्या टोपे और अजीजनबाई ने नेपाल की तराई और मध्य भारत में जाकर छापामार युद्ध जारी रखा। अजीजनबाई ने युद्ध में सक्रिय रूप से भाग लिया और कई बार ब्रिटिश ठिकानों पर हमलों में शामिल हुईं। उनकी वीरता और बलिदान की कहानियाँ स्थानीय लोककथाओं में आज भी जीवित हैं। कानपुर का विद्रोह नाना साहब, तात्या टोपे, अजीमुल्लाह और अजीजनबाई जैसे नेताओं की वीरता, रणनीति और सामाजिक एकता के कारण 1857 की क्रांति का एक महत्वपूर्ण अध्याय बन गया।

झांसी

झांसी (उत्तर प्रदेश) 1857 की महान क्रांति का एक प्रमुख केंद्र था, जहाँ वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई और उनकी विष्वसनीय सहयोगी झलकारीबाई ने क्रांतिकारी सिपाहियों का नेतृत्व किया। अंग्रेजों की ‘व्यपगत सिद्धांत’ की नीति के तहत लॉर्ड डलहौजी ने लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र दामोदर राव को उनके पति राजा गंगाधर राव का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और 1853 में झांसी को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन कर लिया। इस अन्यायपूर्ण निर्णय के खिलाफ रानी ने लंदन तक अपनी फरियाद की, कई ब्रिटिश अधिकारियों से भेंट की और अपनी रियासत को बचाने की हरसंभव कोशिश की, लेकिन उनकी अपीलों को ठुकरा दिया गया। क्रांति के प्रारंभ में भी रानी ने अंग्रेजों से बातचीत की कोशिश की और यह प्रस्ताव रखा कि यदि उनकी माँगें मान ली जाएँ तो झांसी अंग्रेजों के लिए खतरा नहीं बनेगा। किंतु अंग्रेजों के अड़ियल रवैये ने उन्हें विद्रोह की राह पर चलने को विवष कर दिया।
जून 1857 में झांसी की सैनिक छावनी में 12वीं नेटिव इन्फैंट्री और अन्य रेजिमेंट के सिपाहियों ने बगावत कर विधवा रानी लक्ष्मीबाई को रियासत की शासिका घोषित कर दिया। रानी ने तुरंत क्रांतिकारियों का नेतृत्व सँभाल लिया। उनकी सेना में एक कोली समुदाय की वीरांगना झलकारीबाई ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। झलकारीबाई को रानी का हमशक्ल माना जाता था, जिसके कारण उन्होंने कई बार रानी के स्थान पर रणनीतिक मोर्चों पर नेतृत्व किया। रानी लक्ष्मीबाई की महिला दस्ता की महिलाएँ गोला-बारूद बाँटने और तोपें चलाने में कुषल थीं। उनकी सेना ने अंग्रेजों के खिलाफ भयंकर युद्ध लड़ा, जिसमें रानी स्वयं घोड़े पर सवार होकर तलवार लिए युद्धभूमि में उतर पड़ीं।
मार्च-अप्रैल 1858 में जनरल ह्यू रोज के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने झांसी पर हमला किया। रानी और झलकारीबाई ने किले की रक्षा के लिए वीरतापूर्वक लड़ाई लड़ी, लेकिन भारी सैन्य बल और तोपखाने के सामने 3 अप्रैल 1858 को अंग्रेजों ने झांसी पर कब्जा कर लिया। इसके बाद रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे और उनके अफगान रक्षकों के साथ काल्पी भाग गईं, जहाँ से उन्होंने ग्वालियर पर आक्रमण की योजना बनाई। जून 1858 में रानी और तात्या टोपे ने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। ग्वालियर के महाराजा जयाजीराव सिंधिया, जो अंग्रेजों के प्रति वफादार थे, ने रानी के खिलाफ युद्ध करने की कोशिश की, लेकिन उनकी सेना का बड़ा हिस्सा रानी से मिल गया, जिसके परिणामस्वरूप सिंधिया को आगरा भागकर अंग्रेजों की शरण लेनी पड़ी।
17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय की लड़ाई में रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुईं। इस युद्ध में झलकारीबाई ने भी रानी की जगह मोर्चा सँभाला और अपनी वीरता से अंग्रेजों को चकित कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई और झलकारीबाई की वीरता, नेतृत्व और बलिदान ने 1857 की क्रांति को एक प्रेरणादायी अध्याय बना दिया। इस प्रकार 1857 का विद्रोह केवल सैन्य विद्रोह नहीं था, बल्कि हिंदू-मुस्लिम एकता और महिलाओं की सशक्त भागीदारी का प्रतीक भी था, जिसने पूरे भारत में स्वतंत्रता की भावना को प्रज्वलित कर दिया।

बरेली

बरेली (उत्तर प्रदेश) 1857 की महान क्रांति का एक प्रमुख केंद्र था, जहाँ रुहेलखंड के भूतपूर्व शासक हाफिज रहमत खान के उत्तराधिकारी खान बहादुर खान ने विद्रोह का नेतृत्व किया। उन्होंने स्वयं को ‘नवाब नाजिम’ घोषित कर बरेली में स्वतंत्र प्रशासन स्थापित किया। शुरू में ब्रिटिश पेंशन पर निर्भर खान बहादुर ने क्रांति में रुचि नहीं दिखाई, लेकिन मेरठ और दिल्ली से विद्रोह की लहर फैलने पर वे सक्रिय हो गए। मई 1857 में बरेली की 68वीं नेटिव इन्फैंट्री और 8वीं कैवेलरी रेजिमेंट के सिपाहियों ने बगावत शुरू की, जिसका नेतृत्व खान बहादुर ने संभाला। उन्होंने लगभग 40,000 सैनिकों, जिसमें सिपाही, स्थानीय जमींदार, किसान और स्वयंसेवक शामिल थे, को संगठित कर एक मजबूत सेना बनाई।

खान बहादुर के नेतृत्व में विद्रोहियों ने बरेली पर कब्जा कर लिया, ब्रिटिश अधिकारियों को खदेड़ दिया, जेल तोड़ी, और खजाने पर अधिकार कर लिया। उन्होंने एक समानांतर प्रशासन स्थापित किया, जिसमें कर संग्रह, न्याय व्यवस्था और सैन्य संगठन शामिल थे। उनकी सेना ने रुहेलखंड के आसपास के क्षेत्रों, जैसे शाहजहाँपुर, पीलीभीत और मुरादाबाद में भी विद्रोह को फैलाया और ब्रिटिश ठिकानों पर हमले किए। खान बहादुर की रणनीति में गुरिल्ला युद्ध और खुले युद्ध दोनों शामिल थे, जिससे अंग्रेजों को कड़ा मुकाबला करना पड़ा।

1858 की शुरुआत में ब्रिटिश सेना ने, जनरल कॉलिन कैंपबेल के नेतृत्व में, बरेली पर पुनः कब्जे के लिए जोरदार जवाबी हमला शुरू किया। मई 1858 में बरेली की निर्णायक लड़ाई में खान बहादुर की सेना को हार का सामना करना पड़ा। भारी तोपखाने और संगठित ब्रिटिश सेना के सामने विद्रोही टिक न सके। हार के बाद खान बहादुर नेपाल की तराई क्षेत्र में भाग गए, जहाँ उन्होंने छापामार युद्ध जारी रखा। बाद में वे पकड़े गए और 1860 में अंग्रेजों ने उन्हें फाँसी दे दी। बरेली का विद्रोह, खान बहादुर के नेतृत्व में, रुहेलखंड में स्वतंत्रता की भावना को प्रज्वलित करने और अंग्रेजी शासन को चुनौती देने में महत्वपूर्ण रहा। यह विद्रोह स्थानीय असंतोष, विशेष रूप से अंग्रेजों की भू-राजस्व नीतियों और सामाजिक-आर्थिक शोषण के खिलाफ एक शक्तिशाली प्रतिक्रिया थी।

फैजाबाद

फैजाबाद (वर्तमान अयोध्या, उत्तर प्रदेश) 1857 की महान क्रांति का एक प्रमुख केंद्र था, जहाँ मौलवी अहमदुल्लाह शाह ने विद्रोह का नेतृत्व किया। मद्रास (वर्तमान चेन्नई) के निवासी, विद्वान और कट्टर देशभक्त मौलवी अहमदुल्लाह ने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का प्रचार बहुत पहले शुरू कर दिया था। जनवरी 1857 में फैजाबाद पहुँचकर उन्होंने अपने जोशीले भाषणों और धार्मिक प्रभाव से सिपाहियों, जमींदारों और किसानों को अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एकजुट किया। मई 1857 में मेरठ और दिल्ली से शुरू हुई बगावत अवध तक फैलने पर वे प्रमुख क्रांतिकारी नेता बनकर उभरे। उन्होंने 22वीं नेटिव इन्फैंट्री के सिपाहियों और स्थानीय समर्थकों के साथ मिलकर फैजाबाद पर कब्जा किया, ब्रिटिश अधिकारियों को खदेड़ा, और सरकारी खजाने व हथियारों पर अधिकार कर लिया। लखनऊ, सुल्तानपुर और बाराबंकी में विद्रोह फैलाने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। 1858 में जनरल कॉलिन कैंपबेल के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने फैजाबाद पर पुनः कब्जा कर लिया। हार के बाद मौलवी अहमदुल्लाह नेपाल की तराई में भागे और छापामार युद्ध जारी रखा, लेकिन जून 1858 में पवई (मध्य प्रदेश) में विश्वासघात के कारण उनकी हत्या हो गई। उनकी वीरता और बलिदान ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी।

इलाहाबाद

मेरठ से विद्रोह की खबर फैलने के बाद, इलाहाबाद (प्रयागराज, उत्तर प्रदेश) में 6 जून 1857 को क्रांति की शुरुआत हुई। प्रयागराज में 1857 की क्रांति का नेतृत्व मुख्य रूप से एक अध्यापक मौलवी लियाकत अली वहाबी ने किया, जिन्होंने भारतीय सिपाहियों तथा स्थानीय जनता को संगठित कर ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत का संचालन किया। 6ठी औद-इंडिया इन्फैंट्री (ओआई) रेजिमेंट के भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। उन्होंने यमुना नदी के किनारे स्थित किले पर कब्जा करने की कोशिश की, जेल तोड़कर कैदियों को मुक्त किया और ब्रिटिश अधिकारियों के घरों में आग लगा दी। ब्रिटिश कर्नल जॉन शेरर ने शहर के यूरोपीय इलाकों में बचाव की व्यवस्था की, लेकिन सिपाहियों ने कई ब्रिटिश परिवारों की हत्या कर दी। 11 जून तक ब्रिटिश सेनाओं ने कर्नल जेम्स नील के नेतृत्व में पुनः कब्जा कर लिया, जिसमें विद्रोहियों को दबाने के लिए तोपों का प्रयोग किया गया और सैकड़ों भारतीयों को फाँसी दी गई।

बनारस

बनारस (वाराणसी) में क्रांति 4 जून 1857 को भड़की, जब मेरठ विद्रोह की सूचना मिलने पर 37वीं नेटिव इन्फैंट्री और लुधियाना रेजिमेंट के सिपाहियों ने बगावत कर दी। सिपाहियों ने ब्रिटिश अधिकारियों पर हमला किया, हथियारागार लूटा और शहर में आगजनी की। बनारस के राजा ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह ब्रिटिश समर्थक रहे और उन्होंने ब्रिटिशों की मदद की, जिससे विद्रोह को संगठित होने का मौका नहीं मिला। ब्रिटिश कमिश्नर हेनरी कार्टर और कर्नल जेम्स नील ने 5-6 जून तक पलटवार कर विद्रोह दबा दिया और शहर पर पुनः नियंत्रण स्थापित किया। सिपाही इलाहाबाद और अन्य जगहों की ओर भागे। बनारस में विद्रोह असंगठित रहा क्योंकि राजा की वफादारी और ब्रिटिश सेना की त्वरित कार्रवाई से यह फैल नहीं सका।

गोरखपुर

गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) 1857 की महान क्रांति का एक महत्वपूर्ण केंद्र था, जहाँ जून 1857 में विद्रोह शुरू हुआ। मेरठ और दिल्ली की विद्रोह की खबर फैलने पर 17वीं नेटिव इन्फैंट्री रेजिमेंट के सिपाहियों ने बगावत की, खजाना लूटा, जेल तोड़ी और ब्रिटिश संपत्तियों में आग लगाई। ब्रिटिश कलेक्टर जॉन ड्रमंड और मजिस्ट्रेट पंकहर्स्ट भाग निकले। विद्रोह ग्रामीण क्षेत्रों में फैला, जहाँ किसान और जमींदार शामिल हुए। स्थानीय जमींदार और अम्बापुर के राजा राधा सिंह, पुलिस अधीक्षक नाजिम अली, मौलवी और सिपाहियों ने नेतृत्व किया। जून-जुलाई 1857 में सिपाहियों ने गोरखपुर पर कब्जा किया और आजमगढ़, बस्ती, देवरिया में ब्रिटिश ठिकानों पर हमले किए। अगस्त-सितंबर में कर्नल रोवन के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने 28 अगस्त को अम्बापुर की लड़ाई में राधा सिंह को हराया, शहर पर पुनः कब्जा किया, गाँव जलाए और सैकड़ों विद्रोहियों को फाँसी दी या गोली मारी। राधा सिंह भागे, लेकिन बाद में पकड़े गए और फाँसी पर चढ़ाए गए। विद्रोह का मुख्य कारण किसानों का असंतोष, लगान और भूमि विवाद थे।

जगदीशपुर

बिहार के जगदीशपुर में 1857 की महान क्रांति का नेतृत्व जमींदार बाबू कुंवर सिंह ने किया। सत्तर वर्ष की आयु में भी उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ अदम्य साहस और रणनीतिक कुशलता का परिचय दिया। अंग्रेजों की भू-राजस्व नीतियों और जबरन वसूली ने उन्हें आर्थिक रूप से तबाह कर दिया था, जिससे उनके मन में गहरा असंतोष था। जुलाई 1857 में दीनापुर (दानापुर) के विद्रोही सिपाहियों के आरा पहुँचने पर कुंवर सिंह ने उनकी कमान संभाली और उनकी प्रेरणा से पटना, आरा, गया, छपरा, मोतिहारी, मुजफ्फरनगर आदि स्थानों पर भी क्रांति की ज्वाला धधक उठी। आरा में उन्होंने स्थानीय लोगों और सिपाहियों को संगठित कर ब्रिटिश अधिकारियों को खदेड़ा और गुरिल्ला युद्ध रणनीति से अंग्रेजों को भारी नुकसान पहुँचाया। 1858 में आजमगढ़ के पास हुई लड़ाई में वह गंभीर रूप से घायल हुए, फिर भी जगदीशपुर लौटकर अपने किले को मुक्त कराया। अप्रैल 1858 में उनका निधन हुआ, लेकिन उनके भाई अमर सिंह ने क्रांति को आगे बढ़ाया।

क्रांति का अन्य क्षेत्रों में प्रसार

1857 की महान क्रांति भारत के विभिन्न हिस्सों में एक राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में फैल गई, जिसमें सभी वर्गों, समुदायों और क्षेत्रों ने हिस्सा लिया। यह केवल बड़े शहरों तक सीमित नहीं रही, बल्कि छोटे कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों तक इसका प्रभाव रहा। पंजाब में लाहौर, फिरोजपुर, अमृतसर, जालंधर, रावलपिंडी, झेलम, सियालकोट, अंबाला और गुरदासपुर में सिपाहियों और स्थानीय जनता ने विद्रोह में भाग लिया। लाहौर में सिपाहियों ने ब्रिटिश अधिकारियों पर हमले किए, जबकि अमृतसर और जालंधर में जमींदारों और किसानों ने समर्थन दिया। हरियाणा में गुड़गांव (वर्तमान गुरुग्राम), मेवात, बहादुरगढ़, नारनौल, हिसार और झज्जर में क्रांति चरम पर थी। गुड़गाँव में राव तुलाराम और हिसार में स्थानीय नेताओं ने विद्रोह को संगठित कर अंग्रेजों को कड़ी चुनौती दी।
बंगाल में कोलकाता को छोड़कर बैरकपुर, बरहामपुर और दानापुर जैसी सैनिक छावनियाँ विद्रोह की चपेट में थीं। मुंबई प्रेसीडेंसी में नासिक, अहमदनगर और कोल्हापुर में सिपाहियों ने विद्रोह किया, यद्यपि इसका प्रभाव अपेक्षाकृत कम रहा। मध्य भारत में ग्वालियर, इंदौर, सागर, बुंदेलखंड और रायपुर विद्रोह के प्रमुख केंद्र बने। ग्वालियर में रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने विद्रोह को नेतृत्व प्रदान किया, जबकि सागर और बुंदेलखंड में जमींदारों और आदिवासी समुदायों ने अंग्रेजों के विरूद्ध गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया। आंध्र प्रदेश में रॉयलसीमा, हैदराबाद और राजमुंदरी में किसानों ने भारी लगान और शोषण के खिलाफ विद्रोह में हिस्सा लिया। दक्षिण भारत में मद्रास (चेन्नई) इस क्रांति से लगभग अछूता रहा, लेकिन मौलवी अहमदुल्लाह जैसे नेताओं ने वहाँ क्रांतिकारी विचारों का प्रचार किया।
क्रांति का प्रभाव भारत की सीमाओं को पार कर गया। गोवा में पुर्तगाली उपनिवेशों और पांडिचेरी में फ्रांसीसी शासन के अधीन भी बगावत की चिनगारी भड़क उठी। दक्षिण एशिया में नेपाल, अफगानिस्तान, भूटान और तिब्बत में क्रांति की गूँज सुनाई दी। नेपाल में जंग बहादुर ने अंग्रेजों का साथ दिया, लेकिन कई नेपाली सैनिकों और स्थानीय लोगों ने विद्रोहियों का समर्थन किया।
इस प्रकार यह क्रांति हिंदू, मुस्लिम, सिख, जाट, आदिवासी, किसान, जमींदार और सिपाहियों का एकजुट प्रयास थी। इस क्रांति ने पूरे दक्षिण एशिया में स्वतंत्रता की भावना को प्रज्वलित किया और भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में इतिहास में अमर हो गई।

प्रशासनिक अभिकरण ‘जलसा’

क्रांति के पहले किसी प्रकार की योजना या संगठन का भले ही अभाव रहा हो, किंतु क्रांति शुरू होते ही क्रांतिकारियों ने संगठन बनाने की कोशिश शुरू कर दी थी। दिल्ली पर कब्जा होते ही आसपास के सभी राज्यों और राजस्थान के शासकों को एक चिट्ठी भेजकर उनके समर्थन की कामना की गई और उन्हें हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया गया। दिल्ली में छह सैनिकों और चार नागरिकों का एक प्रशासनिक अभिकरण बनाया गया, जिसने ‘जलसा’ के नाम से दिल्ली का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। सारे निर्णय बहुमत से लिए जाते थे। अभिकरण सम्राट के नाम पर राजकाज का संचालन करता था। एक ब्रिटिश अधिकारी ने लिखा है कि दिल्ली की सरकार का स्वरूप कुछ-कुछ तानाशाही की तरह का था। सम्राट सर्वोच्च था और संवैधानिक सम्राट की तरह ही उसका सम्मान किया जाता था। लेकिन संसद के स्थान पर सैनिकों की एक परिषद थी, जिसमें सत्ता निहित थी। इसी तरह दूसरे केंद्रों में भी संगठन बनाने के प्रयास किए गए थे।

क्रांति का जन-चरित्र

यह क्रांति जितनी व्यापक थी, उतनी ही इसमें गहराई भी थी। किसानों, दस्तकारों, दिहाड़ी मजदूरों और जमींदारों की व्यापक भागीदारी ने क्रांति को उसकी वास्तविक शक्ति दी तथा इसे ‘जन-क्रांति’ का चरित्र भी दिया, खासकर उन क्षेत्रों में जो आज उत्तर प्रदेश तथा बिहार में शामिल हैं। इस क्षेत्र में किसानों तथा जमींदारों ने सूदखोरों तथा अपनी जमीन से बेदखल करने वाले नए जमींदारों पर हमले करके अपनी तकलीफों को खुलकर जाहिर किया। क्रांति का लाभ उठाकर उन्होंने सूदखोरों की खाताबहियों तथा कर्जों के दस्तावेजों को नष्ट कर दिया। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा स्थापित अदालतों, तहसीलों, कार्यालयों, मालगुजारी के दस्तावेजों तथा थानों पर हमले किए। कई लड़ाइयों में सामान्य जनता की भागीदारी सिपाहियों से भी अधिक थी। एक अनुमान के अनुसार अवध में अंग्रेजों से लड़ते हुए मरने वाले लगभग डेढ़ लाख लोगों में एक लाख से अधिक सामान्य नागरिक थे। सबसे बड़ी बात यह कि जहां जनता क्रांति में शामिल नहीं हुई, वहां भी लोगों ने क्रांतिकारियों के साथ सहानुभूति दिखाई, वे क्रांतिकारियों की हर जीत पर खुश होते रहे और अंग्रेजों के वफादार रहने वाले सैनिकों का सामाजिक बहिष्कार करते रहे।

1857 की क्रांति का जन-चरित्र उस समय उभरकर सामने आया, जब अंग्रेजों ने इसे कुचलने की कोशिश की। उन्हें केवल क्रांतिकारी सिपाहियों से ही नहीं निपटना पड़ा, बल्कि दिल्ली, अवध, पश्चिमोत्तर प्रांत, आगरा, मध्य भारत और पश्चिम बिहार की जनता के खिलाफ भी एक भरपूर और निर्मम लड़ाई लड़नी पड़ी। गांव के गांव जला दिए गए तथा ग्रामीण और नगरीय जनता का भीषण कत्लेआम किया गया। उन्हें लोगों को बिना किसी मुकदमे के फांसी देना और फांसी के बाद सबके सामने पेड़ों से लटकाना पड़ा। इससे पता चलता है कि इन क्षेत्रों में क्रांति कितनी गहराई तक फैल चुकी थी।

हिंदू-मुस्लिम एकता

1857 की क्रांति की शक्ति बहुत कुछ हिंदू-मुस्लिम एकता में निहित थी। सभी क्रांतिकारियों ने एक मुसलमान बहादुरशाह को अपना सम्राट स्वीकार कर लिया था। हिंदू और मुसलमान क्रांतिकारी और सिपाही एक-दूसरे की भावनाओं का पूरा-पूरा सम्मान करते थे, जैसे क्रांति जहां भी सफल हुई, वहां हिंदुओं की भावनाओं का आदर करते हुए तुरंत गोहत्या बंद करने के आदेश जारी किए गए। इसके अलावा, नेतृत्व में हर स्तर पर हिंदुओं तथा मुसलमानों को समान प्रतिनिधित्व दिया गया। एक ब्रिटिश अधिकारी एचिंसन ने बड़े बुझे मन से स्वीकार किया था: “इस मामले में हम मुसलमानों को हिंदुओं से नहीं लड़ा सकते।”

क्या 1857 की क्रांति सुनियोजित थी?

1857 का आंदोलन सिपाहियों और कसमसाती जनता के असंतोष के संगम से उपजी अप्रत्याशित क्रांति थी। प्रश्न उठता है कि क्या यह सुनियोजित क्रांति थी या एकाएक भड़का क्रांति? यह क्रांति किसी सुनियोजित योजना का परिणाम था, इसके सबूत नहीं मिलते। नेताओं के काम करने के तरीकों से भी नहीं लगता कि उन्होंने पहले कोई योजना बनाई थी। संभव है कि योजना बनाने की बात सोची गई हो, किंतु उसे अंतिम रूप दिया गया था, ऐसा नहीं लगता।

नाना साहब का मार्च और अप्रैल 1857 में लखनऊ व अंबाला जाना और मई में क्रांति आरंभ हो जाना, यह प्रमाणित नहीं करता कि उन्होंने क्रांति की योजना बनाई थी। यह कहना भी सही नहीं है कि मुंशी अजीमुल्लाह खां और रंगो बापू ने क्रांति की योजना बनाई थी। वस्तुतः नाना साहब के प्रतिनिधि अजीमुल्लाह खां लंदन में यह वकालत करने के लिए गए थे कि बाजीराव को मिलने वाली पेंशन नाना साहब को दे दी जाए। वे भारत लौटते समय तुर्की गए और वहां क्रीमिया युद्ध के मैदान में उमर पाशा से मिले थे। इसी प्रकार सतारा को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने के डलहौजी के निर्णय के खिलाफ अपील करने के लिए रंगो बापू को लंदन भेजा गया था। इन दोनों व्यक्तियों के व्यक्तिगत कार्यों से लंदन जाने से अनुमान लगाया जाता है कि वे क्रांति की योजना में शामिल थे। किंतु इस तरह के अनुमानों का कोई प्रमाण नहीं है। बिठूर जीतने के बाद नाना साहब के सभी कागज-पत्र अंग्रेजों के हाथ लगे, जिसमें अजीमुल्लाह खां का उमर पाशा के नाम लिखा एक पत्र भी मिला था, जो कभी भेजा ही नहीं गया। इसमें मात्र यह बताया गया था कि भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति कर दी है। अजीमुल्लाह खां के इस पत्र या किसी अन्य पत्र से भी यह नहीं पता चलता कि उसने कभी भारतीय क्रांति की योजना बनाई थी। इस प्रकार 1857 की क्रांति को अंग्रेजों के विरुद्ध किसी सुनियोजित योजना का परिणाम नहीं माना जा सकता।

चपातियों और कमल के फूलों के माध्यम से जगह-जगह संदेश पहुंचाने या ‘भारत में ब्रिटिश शासन सिर्फ सौ वर्ष तक चलेगा’ जैसी भविष्यवाणी वाली कहानी पर भी विश्वास करने का कोई ठोस आधार नहीं है। सच तो यह है कि यह क्रांति बहादुरशाह के लिए उतना ही आश्चर्यजनक थी, जितना अंग्रेजों के लिए। बहादुरशाह के विरुद्ध चलाए गए मुकदमे में भी अंग्रेजों को आयोजित क्रांति का कोई सबूत नहीं मिला। इस प्रकार इस बात में गंभीर संदेह है कि योजना बनी और आंदोलन चला।

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