पश्चिमी भारत में सुधार आंदोलन
पश्चिमी भारत में सुधारों की शुरुआत उन्नीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में दो अलग-अलग तरीकों से हुई। एक तरीका प्राचीन संस्कृत ग्रंथों की छानबीन और अनुवाद के माध्यम से भारतीय सभ्यता की गरिमा की खोज का प्राच्यवादी दृष्टिकोण था। इस कार्य में प्रमुख विद्वान सुधारक के.टी. तेलंग, बी.एन. मांडलिक और विशेष रूप से प्रोफेसर आर.जी. भंडारकर थे। दूसरा तरीका सामाजिक सुधारों की अधिक प्रत्यक्ष विधि थी, जो जातिप्रथा जैसी सामाजिक संस्थाओं और विधवा पुनर्विवाह पर लगे प्रतिबंधों पर प्रहार करती थी। गुजरात के मेहताजी दुर्गाराम मंचाराम (1809-1876) ने हिंदू विधवाओं के प्रति दुर्व्यवहार के विरुद्ध लेखन किया। उन्होंने सामाजिक समस्याओं पर चर्चा के लिए 1844 में ‘मानव धर्मसभा’ और ‘यूनिवर्सल रिलीजन सोसाइटी’ की स्थापना की थी। अधिकांश गुजराती सुधारक ‘गुजरात वर्नाक्यूलर सोसाइटी’ (अहमदाबाद) से जुड़े हुए थे। करसनदास मूलजी इस क्षेत्र में अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यकर्ता थे। 1852 में उन्होंने गुजराती भाषा में विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में ‘सत्यप्रकाश’ नामक पत्रिका शुरू की और गुजरात तथा महाराष्ट्र में प्रचलित वल्लभाचार्य संप्रदाय का खुलकर विरोध किया। बंबई में हरिकेशजी ने विधवाओं की व्यथा से प्रभावित होकर विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में सशक्त आंदोलन चलाया और गणपत लक्ष्मणजी ने सामाजिक बुराइयों पर प्रहार किया। 1850 में विष्णु शास्त्री पंडित ने ‘विधवा विवाह समाज’ की स्थापना की।
कुछ पढ़े-लिखे युवकों ने 1848 में छात्रों की एक साहित्यिक और वैज्ञानिक संस्था की स्थापना की। इसकी दो शाखाएँ थीं—गुजराती और मराठी ध्यान मंडलियाँ। ये मंडलियाँ सामाजिक प्रश्नों और सामान्य वैज्ञानिक विषयों पर व्याख्यान आयोजित करती थीं। इस संस्था का उद्देश्य महिलाओं की शिक्षा के लिए स्कूल शुरू करना भी था।
परमहंस सभा
महाराष्ट्र में 1849 में ‘परमहंस सभा’ की स्थापना की गई, जो जाति-पाँति और ऊँच-नीच के बंधनों को तोड़ने में विश्वास रखती थी। इस सभा की बैठकों में इसके सदस्य निम्न जातियों के हाथ से बना भोजन ग्रहण करते थे। वे विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा के पक्षधर थे। इस मंडली की शाखाएँ पूना, सतारा और महाराष्ट्र के अन्य नगरों में भी थीं। इस सभा के प्रभाव से लोगों में यह चर्चा होने लगी थी कि ऊँच-नीच और भेदभाव के कारण देश का बड़ा नुकसान हुआ है और इसे दूर किए बिना देश की प्रगति संभव नहीं है। इस सभा के प्रमुख नेताओं में बालशास्त्री जांभेकर (1812-1846), दादोबा पांडुरंग तारखडकर (1814-1882), भास्कर पांडुरंग तारखडकर (1816-1843), गोपालहरि देशमुख (1823-1892) और आजीवन ब्रह्मचारी विष्णुबाबा उर्फ विष्णु भीखाजी गोखले (1825-1873) थे। बंबई के बालशास्त्री जांभेकर ने ब्राह्मणवादी कट्टरता की आलोचना की और 1832 में ‘दर्पण’ नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन शुरू किया, जिसका उद्देश्य था: “अज्ञान और त्रुटियों के धुंध को दूर करना, जिसके कारण लोगों के दिमाग बंद हो गए थे, तथा लोगों पर ऐसा प्रकाश डालना, जिसके द्वारा यूरोप के लोग, अन्य देशों की तुलना में, दुनिया में आगे बढ़ चुके थे।”
गोपालहरि देशमुख (1823-1892)
गोपालहरि देशमुख, जो ‘लोकहितवादी’ उपनाम से विख्यात हैं, ने आधुनिक मानवतावादी, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और विवेकसंगत सिद्धांतों के आधार पर भारतीय समाज के पुनर्गठन की वकालत की। उन्होंने हिंदू कट्टरपंथ पर तीखा बौद्धिक आक्रमण किया और धार्मिक तथा सामाजिक समानता का प्रचार किया। 1840 के दशक में उन्होंने लिखा था : “पुरोहित बहुत ही अपवित्र हैं, क्योंकि वे कुछ बातों को बिना अर्थ समझे रटते हैं और ज्ञान को इसी रटंत तक सीमित रखते हैं। पंडित पुरोहितों से भी बुरे हैं, क्योंकि वे और भी अज्ञानी और अहंकारी हैं। ब्राह्मण कौन हैं, और किन अर्थों में वे हमसे भिन्न हैं? क्या उनके बीस हाथ हैं, या हममें कोई कमी है? अब जब ऐसे सवाल पूछे जाएँ, तो ब्राह्मणों को अपनी मूर्खतापूर्ण धारणाएँ त्याग देनी चाहिए और यह मान लेना चाहिए कि सभी मनुष्य बराबर हैं, और प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार है।” लोकहितवादी का मानना था कि यदि धर्म सामाजिक सुधार की अनुमति नहीं देता, तो उसे बदल देना चाहिए।
परमहंस सभा बंगाल के डेरोजियोवादियों की मूर्तिभंजक क्रांतिकारी परंपरा का अनुसरण करती थी, लेकिन व्यापक समुदाय से सीधे टकराव से बचने के लिए एक गुप्त सभा की तरह कार्य करती थी। इसलिए 1860 में इसके सदस्यों का भेद खुलने पर यह जल्द ही समाप्त हो गई और इसकी उपलब्धियाँ बहुत सीमित रहीं।
प्रार्थना समाज
1864 में केशवचंद्र सेन (1838-1884) ने बंबई में ब्रह्म समाज की शाखा को ‘प्रार्थना समाज’ के नाम से शुरू किया। इसका उद्देश्य था : जातिप्रथा का उन्मूलन, विधवा विवाह का समर्थन, स्त्री शिक्षा पर जोर और बाल विवाह पर रोक। यह एक प्रकार से ब्रह्म समाज का मराठी संस्करण था। इसमें भारत के, विशेषकर महाराष्ट्र के मध्यकालीन संतों, जैसे ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ और तुकाराम की शिक्षाओं को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त था।
आत्माराम पांडुरंग (1823-1898)
आत्माराम पांडुरंग ने 31 मार्च 1867 को बंबई में प्रार्थना समाज को पुनर्गठित किया, किंतु इसके पीछे वास्तविक प्रेरणा महादेव गोविंद रानाडे (1842-1901) की थी, जिनके योग्य सहायक वासुदेव बाबाजी नौरंगे, रामकृष्ण गोपाल भंडारकर (1837-1925) और नारायण गणेश चंदावरकर (1855-1923) थे। ब्रह्म समाज की तरह प्रार्थना समाज भी एकेश्वरवाद का प्रचार करता था तथा मूर्तिपूजा, पुरोहितों के प्रभुत्व और जाति-भेदों की निंदा करता था। बाद में इसने समन्वयवाद का विकास किया और स्वयं को महाराष्ट्र की भक्ति परंपरा से जोड़ा। के.टी. तेलंग, जो नियमित रूप से प्रार्थना समाज की बैठकों में शामिल होते थे, कभी इसके सदस्य नहीं बने।

प्रार्थना समाज की उपलब्धियाँ
प्रार्थना समाज के प्रयासों से अनेक अनाथालयों, विधवाश्रमों और रात्रि पाठशालाओं की स्थापना हुई। महादेव गोविंद रानाडे ने महाराष्ट्र में 1861 में ‘विधवा पुनर्विवाह संघ’ (व्हिडो रीमैरिज एसोसिएशन) की स्थापना कर सामाजिक सुधारों का श्रीगणेश किया था। उन्होंने अछूतों, विधवाओं और पीड़ितों की स्थिति सुधारने के लिए पंढरपुर में अनाथाश्रम खोला और शिक्षा के विकास के लिए ‘दक्षिण शिक्षा समाज’ नामक संस्था का गठन किया। 1878 में प्रार्थना समाज द्वारा स्थापित रात्रि विद्यालय जनशिक्षा और प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहे। इस समाज ने 1882 में ‘आर्य महिला समाज’ की स्थापना कर नारी-जागरण की योजनाएँ शुरू कीं। लालशंकर उमाशंकर के प्रयासों से 1875 में पंढरपुर में स्थापित ‘वासुदेव बाबाजी नौरंगे बालकाश्रम’ भी प्रार्थना समाज के संरक्षण में आ गया। प्रार्थना समाज ने 1917 में ‘राममोहन अंग्रेजी विद्यालय’ की स्थापना की, जिसके संरक्षण में आज भी बंबई और उसके आसपास के क्षेत्रों में दस से अधिक विद्यालय चल रहे हैं।
बंगाल के ब्रह्म समाज के विपरीत प्रार्थना समाज ने समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया। रानाडे के शब्दों में, “बंबई प्रेसीडेंसी में आंदोलन का प्रमुख तत्त्व उसका यह लक्ष्य था कि अतीत से नाता न तोड़ा जाए और हमारे समाज के सारे संबंध भंग न हों।” प्रार्थना समाज सुधारों को समाज के ढाँचे को तोड़ने वाली उथल-पुथल के रूप में नहीं, बल्कि क्रमिक ढंग से लाना चाहता था। इस क्रमिकवादी दृष्टिकोण ने प्रार्थना समाज को व्यापक समाज के लिए अधिक स्वीकार्य बना दिया। पूना, सूरत, अहमदाबाद, कराची, किरकी, कोल्हापुर और सतारा में इसकी शाखाएँ स्थापित हुईं। इसके कार्यकलाप दक्षिण भारत में भी फैले, जहाँ आंदोलन का नेतृत्व तेलुगु सुधारक वीरेशलिंगम पंतुलु कर रहे थे।
बीसवीं सदी के आरंभ तक मद्रास प्रेसीडेंसी में इसकी अठारह शाखाएँ थीं। 1875 में जब स्वामी दयानंद सरस्वती ने गुजरात और महाराष्ट्र का दौरा किया और एक अधिक अतिवादी धार्मिक आंदोलन की संभावनाएँ प्रस्तुत कीं, तो एस.पी. केलकर के नेतृत्व में समाज के सदस्यों का एक समूह दयानंद की आर्य विचारधारा की ओर आकर्षित हुआ और अलग हो गया। यद्यपि यह विरोधी गुट प्रार्थना समाज में वापस लौट आया, किंतु यहीं से पश्चिमी भारत में एक अलग प्रकार की धार्मिक राजनीति का आरंभ हुआ, जिसकी पहचान सुधारवाद से अधिक ‘सांस्कृतिक श्रेष्ठतावाद’ थी।
ज्योतिबा फुले (1827-1890)
महाराष्ट्र के पुणे में माली (पिछड़ी) जाति में जन्मे ज्योतिबा फुले (1827-1890) एक महान शिक्षाविद्, सामाजिक सुधारों के पुरोधा और अस्पृश्यता तथा जातिवाद के कलंक को मिटाने वाले युगद्रष्टा थे। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को तत्कालीन ब्रिटिश भारत के खानवाडी (पुणे) में हुआ था। उनकी माता का नाम चिमनाबाई और पिता का नाम गोविंदराव था। एक वर्ष की आयु में उनकी माता का देहांत हो गया, जिसके बाद उनका पालन-पोषण सगुणाबाई नामक एक दाई ने किया। उन्हें महात्मा फुले और ज्योतिबा फुले के नाम से भी जाना जाता है।
ज्योतिबा का परिवार कई पीढ़ियों पहले सतारा से पुणे आकर बसा था। यहाँ उन्होंने फूलों का व्यवसाय शुरू किया और गजरा व माला बनाने का काम किया, जिसके कारण उन्हें ‘फुले’ के नाम से जाना गया। ज्योतिबा ने प्रारंभ में मराठी भाषा में शिक्षा प्राप्त की, लेकिन जातिगत भेदभाव के कारण उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई। बाद में 21 वर्ष की आयु में उन्होंने अंग्रेजी में सातवीं कक्षा तक की पढ़ाई पूरी की। 1840 में उनका विवाह सावित्रीबाई फुले से हुआ, जो बाद में स्वयं एक प्रसिद्ध समाजसेवी बनीं। स्त्री शिक्षा और दलितों के अधिकारों के लिए पति-पत्नी ने मिलकर कार्य किया।
स्त्री शिक्षा के जनक
मानव अधिकारों, सामाजिक न्याय और समानता के लिए जीवनभर संघर्ष करने वाले ज्योतिबा ने शिक्षा के क्षेत्र में औपचारिक कार्य शुरू करने के लिए अगस्त 1848 में बुधवार पेठ मुहल्ले में भिडे के मकान में निम्न जातियों की लड़कियों के लिए पहला विद्यालय खोला, जो स्त्री शिक्षा और उनकी स्थिति सुधारने की दिशा में पहला कदम था। किंतु कट्टरपंथी ब्राह्मणों के विरोध के कारण यह विद्यालय केवल छह महीने तक चल सका।
ज्योतिबा के स्त्री शिक्षा के प्रयासों में उच्च वर्ग के कुछ पितृसत्तात्मक व्यक्तियों ने बाधाएँ डालने की हरसंभव कोशिश की। जब ज्योतिबा नहीं रुके, तो उनके पिता पर दबाव डालकर उन्हें पत्नी सहित घर से निकाल दिया गया। इससे उनके कार्य और जीवन में कुछ समय के लिए व्यवधान आया, लेकिन शीघ्र ही वे अपने उद्देश्य की ओर फिर से अग्रसर हो गए।
1851 में ज्योतिबा ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई के साथ गंज पेठ में निम्न जातियों की लड़कियों के लिए दूसरा स्कूल खोला। जब इस स्कूल में पढ़ाने के लिए कोई अध्यापिका नहीं मिली, तो ज्योतिबा ने सावित्रीबाई को शिक्षित कर भारत की प्रथम महिला शिक्षिका बनाया।
ज्योतिबा ने शीघ्र ही सभी वर्गों के अनाथों और स्त्रियों के लिए विद्यालयों की एक शृंखला स्थापित की। 1855 में उन्होंने प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों के लिए पहली रात्रि पाठशाला खोली, जिसमें दिनभर काम करने वाले मजदूर, किसान और गृहणियाँ पढ़ने आती थीं। मुंबई के सरकारी शिक्षा अभिलेखों के अनुसार पुणे और उसके आसपास के क्षेत्रों में ज्योतिबा ने लगभग अठारह पाठशालाएँ स्थापित कीं।
‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना (24 सितंबर 1873)
ज्योतिबा फुले ने दलितों और महिलाओं के उत्थान के लिए अनेक कार्य किए। 24 सितंबर 1873 को उन्होंने ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना कर पूना जैसे कट्टरता के गढ़ में ब्राह्मण वर्चस्व और उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों के सामाजिक-सांस्कृतिक उत्पीड़न और अन्याय के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बजाया। उन्होंने समाज के जातिगत विभाजन का हमेशा विरोध किया और जातिप्रथा को समाप्त करने के उद्देश्य से बिना पंडितों के विवाह संस्कार शुरू किए। उन्होंने अपव्यय, जाति-पाँति, ऊँच-नीच, मूर्तिपूजा और देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना का विरोध किया और निम्न जातियों से अपने पारिवारिक उत्सवों, व्रतों, जन्मोत्सवों, मुंडन संस्कारों और विवाह जैसे समारोहों में ब्राह्मण पुरोहितों का पूर्ण बहिष्कार करने का आह्वान किया। इसके अलावा, फुले ने स्त्रियों और विधवाओं के अधिकारों और उनके उद्धार के लिए भी सराहनीय कार्य किए। उन्होंने बाल विवाह का विरोध किया और विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया, जिसके कारण उन्हें ‘स्त्री उद्धारकर्ता’ की उपाधि दी गई।
ज्योतिबा फुले का साहित्य
ज्योतिबा बहुमुखी प्रतिभा के धनी और उच्च कोटि के लेखक थे। उन्होंने निम्न और अछूत जातियों को जागरूक करने के लिए ‘गुलामगिरी’ (1873), ‘शिवाजी की जवानी’, ‘किसान का कोड़ा’, ‘धर्म तृतीय रत्न’ (पुराणों का भंडाफोड़), ‘इशारा’ (1885) जैसी क्रांतिकारी पुस्तकों की रचना की। उन्होंने ‘सतसार’ नामक पत्रिका के दो अंक भी निकाले। उनकी एक पुस्तिका ‘कैफियत’ में पात्रों के माध्यम से महारानी से यह प्रार्थना की गई कि वह दलितों को उनके अधिकार दिलवाएँ। ‘गुलामगिरी’ को गैर-ब्राह्मणों और अछूतों की ‘मुक्ति का घोषणा-पत्र’ माना जाता है।
1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना के बाद उनके सामाजिक कार्यों की सराहना देशभर में होने लगी। फुले की समाजसेवा से प्रभावित होकर मुंबई की एक विशाल सभा में 11 मई 1888 को विट्ठलराव कृष्णाजी वंडेकर ने उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि से सम्मानित किया। उनकी मृत्यु 28 नवंबर 1890 को 63 वर्ष की आयु में पुणे (महाराष्ट्र) में हुई।
जहाँ राममोहन रॉय से लेकर रानाडे तक ऊँची जातियों के प्रायः सभी सुधारकों ने केवल अपने समाज की परंपरागत और परिस्थितिजन्य कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया, वहीं ज्योतिबा ने सदियों से दासता का जीवन जी रही निम्न जातियों में शिक्षा के माध्यम से मुक्ति की चेतना का प्रसार कर पुरातनवाद को ध्वस्त करने के अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त की। फुले का महत्त्व केवल इतना ही नहीं है कि उन्होंने पहली बार जातिगत विषमता के विरुद्ध आवाज उठाई, बल्कि इससे बढ़कर उन्होंने साहस के साथ एक विरोध का दर्शन, एक संगठनात्मक ढाँचा और एक कार्यक्रम प्रस्तुत किया।
सावित्रीबाई फुले (1831-1897)
महात्मा ज्योतिबा की पत्नी सावित्रीबाई फुले (1831-1897) ने पुणे जैसे रूढ़िवादी शहर में न केवल स्वयं शिक्षा प्राप्त की, बल्कि अन्य लड़कियों के लिए भी शिक्षा का प्रबंध किया और हजारों वर्षों से शूद्रों, अछूतों और स्त्रियों के लिए बंद शिक्षा के द्वार को एक झटके में खोल दिया। उन्होंने 1852 में ‘महिला मंडल’ का गठन कर भारतीय महिला आंदोलन की शुरुआत की, विधवाओं की सुरक्षा के लिए भारत का पहला ‘बाल हत्या प्रतिबंधक गृह’ खोला और निराश्रित महिलाओं के लिए अनाथाश्रम स्थापित किया। उन्होंने एक विधवा ब्राह्मणी काशीबाई को आत्महत्या करने से रोककर अपने घर में उसकी प्रसूति करवाई और उसके बच्चे यशवंत को गोद लिया। महाराष्ट्र में 1897 में प्लेग पीड़ितों की मदद करते हुए सावित्रीबाई स्वयं प्लेग से पीड़ित हो गईं और 10 मार्च 1897 को उनका देहांत हो गया। भारतीय समाज का एक हिस्सा सावित्रीबाई फुले के जन्मदिन 3 जनवरी को ‘भारतीय शिक्षा दिवस’ और उनके देहांत के दिन 10 मार्च को ‘भारतीय महिला दिवस’ के रूप में मनाता है।

गोपाल गणेश अगरकर (1856-1895)
फुले के विचारों से प्रभावित गोपाल गणेश अगरकर (1856-1895) ने भी बाल विवाह, वृद्ध विवाह और सामाजिक कुरीतियों का डटकर विरोध किया। उन्होंने तिलक के रूढ़िवादी और संकीर्ण विचारों, जैसे वर्ण-व्यवस्था, जाति-पाँति और धार्मिक ग्रंथों में उनकी आस्था का विरोध किया और व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सामाजिक जीवन में समानता तथा प्रतिष्ठा-भाव का समर्थन किया।
महर्षि धोंडो केशव कर्वे
महाराष्ट्र के मुरुड (रत्नागिरि) में जन्मे डॉ. डी.के. कर्वे (1858-1962) एक अन्य महान सुधारक थे। फर्ग्यूसन कॉलेज में अध्यापन करते हुए उन्होंने समाजसेवा के क्षेत्र में कदम रखा और अपनी पहली पत्नी राधाबाई के निधन के बाद 1893 में अपने मित्र की विधवा बहन गोदाबाई से विवाह किया। 1896 में उन्होंने पूना के हिंगणे में दान में मिली एक कुटिया में विधवा आश्रम और अनाथ बालिका आश्रम की स्थापना की। महिलाओं के लिए कर्वे ने 1907 में एक महिला विद्यालय और 1916 में एक महिला विश्वविद्यालय की नींव डाली, जो कालांतर में विधवाओं को समाज में पुनर्स्थापित करने और आत्मनिर्भर बनाने का अनूठा संस्थान बन गया। इंडियन सोशल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने समाज में व्याप्त बुराइयों को समाप्त करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने गाँवों में शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने और इसके प्रसार के लिए 50 से अधिक प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना की। भारत सरकार ने 1958 में उनकी जन्म-शताब्दी के अवसर पर उन्हें ‘भारत रत्न’ की उपाधि से सम्मानित किया।

दक्षिण भारत में सुधार आंदोलन
दक्षिण भारत में सुधार आंदोलन की गति अपेक्षाकृत धीमी रही। इसके कई कारण थे। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में दक्षिण में आधुनिक शिक्षा का अभाव इसका एक प्रमुख कारण था। सामाजिक विद्रोह के अभाव का दूसरा प्रमुख कारण वहाँ का सामाजिक ढाँचा था, जिसमें बहुसंख्यक निम्न वर्गों पर ब्राह्मणों की स्पष्ट प्रभुता थी। सभी सुधारकों की पृष्ठभूमि प्रायः उच्च वर्ग की थी और ब्राह्मण किसी भी ऐसे मौलिक सामाजिक परिवर्तन का समर्थन नहीं कर सकते थे, जिसमें उनकी अपनी प्रभुता पर आँच आती। बंगाल और बंबई के नगरीय क्षेत्रों में ब्राह्मणों का कुछ अन्य उच्चवर्गीय जातियों के साथ सामाजिक मिश्रण शुरू हो गया था, लेकिन दक्षिण में ऐसा नहीं था। वहाँ जातिप्रथा अभी भी कठोर थी, और ऐसे में कोई भी उच्चवर्गीय व्यक्ति सुधार के लिए अपनी जाति से बहिष्कृत होना नहीं चाहता था।
मिशनरी गतिविधियों और धर्म परिवर्तन के विरुद्ध 1820 के दशक में मद्रास में ‘विभूति संगम’ (सेक्रेड ऐशेज सोसाइटी) बना, जो अतिवादी शनार ईसाइयों को पुनः हिंदू बनाने का उपदेश देता था। फिर 1840 के दशक में ‘धर्म सभा’ की स्थापना हुई, जिसके संरक्षक मुख्यतः ब्राह्मण और सवर्ण हिंदू थे। ये दोनों संगठन परिवर्तन के रूढ़िवादी विरोध, कठोर वर्णाश्रम धर्म के पालन और जातिगत बहिष्कार का समर्थन करते थे। इस प्रकार, मद्रास या संभवतः संपूर्ण दक्षिण में बौद्धिक जीवन या तो देश के अन्य भागों में हो रही गतिविधियों का प्रतिबिंब मात्र था या दक्षिण के ईसाई मिशनरियों की शिक्षण संस्थाओं के इर्द-गिर्द सीमित था।
वीरेशलिंगम पंतुलु
आधुनिक भारत के महान बुद्धिजीवियों में से एक वीरेशलिंगम पंतुलु (1848-1919) स्त्री शिक्षा और सहशिक्षा के समर्थक थे। उन्होंने अपने विचारों को कार्यान्वित करने के लिए 1874 में धवलेश्वरम में और 1884 में इन्निसपेटा में कन्या पाठशालाएँ स्थापित कीं और राजमुंदरी से ‘विवेकवर्धनी’ (1874) नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। अपने लेखों और ‘ब्रह्मविवाहम’ जैसे नाटकों के माध्यम से उन्होंने बाल विवाह और दहेज प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों का उपहास किया। उन्होंने 1878 में ‘सोसाइटी फॉर सोशल रिफॉर्म’ (संघ-संस्कारण-समाजम) और ‘राजमुंदरी सोशल रिफॉर्म एसोसिएशन’ नामक संगठनों का गठन किया।

मद्रास प्रेसीडेंसी में तेलुगु भाषी क्षेत्रों में विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में आंदोलन की शुरुआत वीरेशलिंगम पंतुलु ने की। उन्होंने 1879 में विधवा विवाह का खुला समर्थन करते हुए एक ‘विधवा विवाह समुदाय’ का गठन किया (मद्रास में 1874 में भी एक विधवा विवाह समुदाय स्थापित हुआ था, जो बहुत सक्रिय नहीं हो सका)। 1881 में उन्होंने घोर विरोध के बीच राजमुंदरी में एक सवर्ण विधवा का विवाह करवाया। 1883 में उन्होंने महिलाओं के हितों को समर्पित एक मासिक पत्रिका ‘सतीहितबोधिनी’ शुरू की, जिसके परिणामस्वरूप 1891 में नगर के गणमान्य नागरिकों के संरक्षण में एक ‘विधवा पुनर्विवाह संगठन’ (व्हिडो रीमैरिज एसोसिएशन) की स्थापना हुई। किंतु इस उत्साह के बावजूद, सुधारक केवल तीन विवाह ही आयोजित कर सके। वीरेशलिंगम ने विधवाओं के लिए 1897 में मद्रास में और 1905 में राजमुंदरी में निवास गृह बनवाए।
1893 में सरकार ने वीरेशलिंगम को ‘राय बहादुर’ की उपाधि प्रदान की, लेकिन उन्हें अधिक खुशी तब हुई जब वे 1898 में अखिल भारतीय समाज सुधार कांग्रेस के सभापति चुने गए। 1899 में वे मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज में तेलुगु के अध्यापक नियुक्त हुए। इस पद पर नियुक्त होने वाले वे आंध्र प्रदेश के पहले व्यक्ति थे। सेवा से अवकाश के बाद वे पुनः विधवाओं और अनाथ स्त्रियों के उत्थान में जुट गए। 1905 में उन्होंने ‘हितकारिणी समाजम’ स्थापित किया, जिसे 1908 में सरकार ने मान्यता प्रदान की। उन्होंने देवदासी प्रथा और वेश्यावृत्ति का भी विरोध किया। वीरेशलिंगम आजीवन नारी कल्याण के लिए कार्य करते रहे, यही कारण है कि रानाडे ने उन्हें दक्षिण भारत का ‘ईश्वरचंद्र विद्यासागर’ कहा था। वे आधुनिक तेलुगु गद्य साहित्य के प्रवर्तक, प्रथम उपन्यासकार, प्रथम नाटककार और आधुनिक पत्रकारिता के प्रवर्तक माने जाते हैं।
श्रीघरलु नायडू
श्रीघरलु नायडू ने ब्रह्म समाज से प्रेरित होकर 1867 में मद्रास में ‘वेद समाज’ की स्थापना की, जिसे 1871 में ‘ब्रह्म समाज ऑफ साउथ इंडिया’ के नाम से संगठित किया गया। बंगाल के साधारण ब्रह्म समाजी नेता शिवनाथ शास्त्री ने मद्रास जाकर इस आंदोलन को शक्ति प्रदान की। एम. बुचियाह और आर. वेंकटरत्नम इस समाज के प्रमुख नेता थे।
इन संगठनों के अलावा, दक्षिण भारत में 1877 में माधवाचार्य के दर्शन पर आधारित ‘माधव सिद्धांत उन्नयिनी सभा’ और 1886 में तिनवेल्ली में ‘शैव सिद्धांत सभा’ का गठन किया गया। किंतु दक्षिण में ब्रह्म समाज आंदोलन की गति बहुत धीमी रही। मद्रास में ब्रह्म समाज से अधिक प्रार्थना समाज का प्रभाव था।










