उत्तर वैदिककालीन संस्कृति (Post Vedic Culture, 1000–500 BC)

भौगोलिक विस्तार ऋक्-संहिता से इतर संहिता ग्रंथों, ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों का रचनाकाल लगभग ई.पू. […]

उत्तर वैदिककालीन संस्कृति (Post-Vedic Culture 1000–500 BC)

भौगोलिक विस्तार

ऋक्-संहिता से इतर संहिता ग्रंथों, ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों का रचनाकाल लगभग ई.पू. 1000 से 500 तक माना जाता है। उत्तर वैदिककालीन साहित्य से स्पष्ट है कि आर्य सप्तसैंधव प्रदेश से पूर्व की ओर बढ़े और यमुना, गंगा तथा सदानीरा (गंडक) नदियों के मैदानों को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया। गंगा-यमुना दोआब और इसके आसपास का क्षेत्र ब्रह्मर्षि देश कहलाता था। इसके बाद आर्य संस्कृति कोशल, काशी और विदेह (उत्तरी बिहार) तक फैली। इस काल में सभ्यता का केंद्र हिमाचल और विंध्याचल के बीच का मध्यदेश (आर्यावर्त) बन गया। आर्यों का विस्तार व्यापक हुआ, क्योंकि वे लोहे के हथियारों और अश्वचालित रथों का उपयोग करने लगे थे।

विदेध माधव की कथा

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार विदेध माधव ने वैष्वानर अग्नि को मुख में धारण किया था। घृत का नाम लेने पर वह अग्नि उनके मुँह से निकलकर पृथ्वी पर जा पहुँची। उस समय विदेध माधव सरस्वती के तट पर निवास करते थे। यह अग्नि सब कुछ जलाती हुई पूर्व दिशा की ओर बढ़ी और उनके पीछे-पीछे विदेध माधव और उनका पुरोहित गौतम राहुगण चले। यह अग्नि नदियों को जलाती गई, किंतु सदानीरा नदी, जो हिमालय से बहती थी, को नहीं जला सकी। मगध और अंग प्रदेश आर्य क्षेत्र से बाहर थे और दक्षिणी बिहार ‘असनातनी संप्रदायों’ का केंद्र था। विंध्य प्रदेश को उत्तर वैदिककालीन साहित्य की भौगोलिक पृष्ठभूमि की दक्षिणी सीमा माना जा सकता है। दक्षिण में आंध्र, शबर और पुलिंद जैसी जातियों की सत्ता थी, जो वैदिक सभ्यता से दूर थीं।

पुरातात्त्विक प्रमाण

उत्तर वैदिककालीन साहित्य की पुष्टि के लिए पुरातात्त्विक साक्ष्य उपलब्ध हैं। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से प्राप्त चित्रित धूसर मृद्भांड तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में केंद्रित उत्तरी काली पॉलिश वाले मृद्भांडों की संस्कृतियाँ उत्तर वैदिककालीन संस्कृति के अवशेष हैं। ये संस्कृतियाँ स्थायी जीवन की ओर संकेत करती हैं।

उत्तर वैदिककालीन पॉलिश वाले मृद्भांड और प्रौद्योगिकी

उत्तर वैदिक काल में उत्तरी भारत में लौह-तकनीक का आगमन हुआ और व्यवस्थित कृषि शुरू हुई। उत्तर वैदिक साहित्य में ‘श्याम अयस’ या ‘कृष्ण अयस’ के रूप में लोहे के अनेक उल्लेख मिलते हैं। गंधार, बलूचिस्तान, पूर्वी पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ई.पू. 1000 से लोहे के उपयोग के प्रमाण हैं। गंधार में कब्रों में मृतकों के साथ लोहे के उपकरण पाए गए हैं। हस्तिनापुर, आलमगीरपुर, अतरंजीखेड़ा और बटेसर जैसे स्थलों से लोहे के बाणाग्र, भाले के अग्रभाग, चाकू, चिमटे, पिन और कीलें प्राप्त हुई हैं। अतरंजीखेड़ा से एक दराँती और नोह से एक लौह कुल्हाड़ी मिली है। लेकिन हल का फाल दुर्लभ है; केवल अतरंजीखेड़ा से एक हल का फाल मिला है, जो चित्रित धूसर मृद्भांड काल के अंत का है। हरियाणा के कुरुक्षेत्र के निकट भगवानपुरा से पकी ईंटों का तेरह कक्षीय भवन मिला है, जो गंगा घाटी में स्थायी बस्तियों और समृद्ध ग्रामीण जीवन का सूचक है।

उत्तर वैदिक संस्कृति (Post-Vedic Culture 1000–500 BC)
उत्तर वैदिककालीन पाॅलिशवाले मृद्भांड

उत्तर वैदिक संस्कृति का आधार

उत्तर वैदिक काल में आर्य जनजातियाँ अधीनस्थ श्रम और परिष्कृत खाद्य-उत्पादन तकनीकों के साथ दोआब क्षेत्र में स्थायी बस्तियाँ बसाने लगीं। इस संस्कृति का आधार लोहा, व्यापक अष्वपालन, हल-कृषि का विस्तार और पूर्ववर्ती काल की तुलना में परिष्कृत अर्थव्यवस्था थी। दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. के अंत में दोआब और पश्चिमी गांगेय मैदान में छोटी बस्तियों के स्थान पर उन्नत कृषकों की बड़ी बस्तियाँ स्थापित हुईं, जिन्होंने प्रथम सहस्राब्दी ई.पू. के पूर्वार्द्ध तक लौह-प्रौद्योगिकी अपनाई। मध्य गांगेय मैदान और दक्षिण बिहार में लौह-प्रौद्योगिकी का उपयोग कृष्ण-लाल-मृद्भांड संस्कृति से समर्थित था।

क्षेत्रीय जनपदों का उदय

उत्तर वैदिक काल में कबायली संगठन में दरार पड़ी, जिससे छोटे कबीले विलीन होकर बड़े क्षेत्रीय जनपद बनने लगे। पुरु और भरत कबीले मिलकर कुरु तथा तुर्वश और क्रिवि कबीले मिलकर पांचाल कहलाए। इनका आधिपत्य दिल्ली और दोआब के मध्य एवं ऊपरी भागों तक था। ब्राह्मण ग्रंथों में कुरु-पांचाल युग्म का उल्लेख वैदिक सभ्यता के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि के रूप में मिलता है। लौह-तकनीक ने इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, क्योंकि अतरंजीखेड़ा, हस्तिनापुर, आलमगीरपुर, नोह और बटेसर जैसे स्थान कुरु-पांचाल प्रदेश में हैं, जहाँ से लौह बरछी-शीर्ष और बाणाग्र प्राप्त हुए हैं। उत्तर वैदिक साहित्य में कुरु-पांचाल शासकों द्वारा अष्वमेध यज्ञ कराए जाने का उल्लेख है, जो उनकी सैन्य-शक्ति का सूचक है। ऐतरेय और जैमिनीय ब्राह्मण में विदर्भ, पुंड और अन्य राज्य भी आर्यों के अधीन आने का उल्लेख है। त्रिककुद, कैज और मैनाम जैसे हिमालयी पर्वतों का भी जिक्र है।

राजनीतिक व्यवस्था

उत्तर वैदिक काल में पैतृक राजतंत्र और राष्ट्र की अवधारणा स्पष्ट थी। अथर्ववेद में राजा को क्षेत्र का स्वामी बताया गया है, जिसे वरुण, बृहस्पति, इंद्र और अग्नि दृढ़ता प्रदान करते हैं। शतपथ ब्राह्मण और तैत्तिरीय संहिता में कर्मकांड द्वारा राजा के राष्ट्र प्राप्त करने और साम्राज्य के पोषक होने का उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण में दुष्टरीतु पौंसायन सृंजयों की दसवीं पीढ़ी का प्रतिनिधि था और ऐतरेय ब्राह्मण में ‘दश-पुरुषं राज्यं’ का वर्णन है। राजा का पद धार्मिक अनुमोदन पर आधारित था। शतपथ ब्राह्मण में राजा के निर्वाचन और राजसूय यज्ञ द्वारा राज्याभिषेक की परंपरा का उल्लेख है। राजा तेरह रत्नियों (अधिकारियों) से समर्थन प्राप्त करता था। भरत दौषयंति और शतनिक सत्राजित द्वारा अष्वमेध यज्ञ का उल्लेख भी है।

राजा की उपाधियाँ और अधिकार

ऋग्वेद काल की तुलना में उत्तर वैदिक काल में राजा के अधिकार बढ़ गए। उन्हें अधिराज, राजाधिराज, सम्राट और एकराट् जैसी उपाधियाँ मिलीं। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार पूर्व का शासक सम्राट, पश्चिम का स्वराट, उत्तर का विराट, दक्षिण का भोज और मध्य देश का राजा कहलाता था। अथर्ववेद में समुद्र-पर्यंत पृथ्वी का शासक एकराट् होता था। कृषि के विकास ने भूमि स्वामित्व के आधार पर राजा की शक्ति को बढ़ाया। ‘राष्ट्र’ शब्द का प्रयोग उत्तर वैदिक काल में क्षेत्र के लिए हुआ। शतपथ ब्राह्मण में ‘राष्ट्री’ शब्द उस राज्य के लिए है, जो जनता की संपत्ति का उपभोग करता था।

कर प्रणाली

उत्तर वैदिक काल में ‘कर’ इकट्ठा करने की प्रथा शुरू हुई। प्रारंभ में यह स्वैच्छिक भेंट थी, लेकिन बाद में यह अनिवार्य ‘बलि’ बन गई। मुद्रा प्रणाली का अभाव था, इसलिए कर वस्तुओं के रूप में लिया जाता था। तैत्तिरीय संहिता और ऐतरेय ब्राह्मण में राजा को ‘विशमत्ता’ (उत्पादक वर्गों का भक्षक) कहा गया है। वैश्य और गायों से कर लिया जाता था। ब्राह्मणों और क्षत्रियों को कर से मुक्त रखा गया था। ब्राह्मणों से शुल्क लेने वाले राज्य की निंदा की गई।

सामाजिक और सैन्य संगठन

कृषकों पर क्षत्रियों का प्रभुत्त्व स्थापित करने के लिए ब्राह्मणों ने अनुष्ठानों का विकास किया। वैश्यों की तुलना में सैन्य-श्रेष्ठता और आनुष्ठानिक समर्थन के कारण अभिजात वर्ग प्रबल था। प्रजा द्वारा राजा को निष्कासित करने के उदाहरण, जैसे सृंजयों द्वारा दुष्ट ऋतु पौंसायन का निष्कासन तैत्तिरीय संहिता और शतपथ ब्राह्मण में मिलते हैं। तांड्य ब्राह्मण में प्रजा द्वारा राजा के विनाश के लिए विशेष यज्ञ का उल्लेख है। सभा और समिति राजा की निरंकुशता पर अंकुश लगाती थीं। अथर्ववेद में इन्हें ‘प्रजापति की पुत्रियाँ’ कहा गया है।

स्थायी सेना और प्रशासन

उत्तर वैदिक काल में स्थायी सेना की अवधारणा के बीज दिखाई देते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में कुरु नरेश के 64 योद्धाओं (उनके पुत्र और पौत्र) का उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण में पांचाल नरेश शोण सात्रसाह के 6,033 बख्तरबंद योद्धाओं का जिक्र है। रत्निन् या ‘वीर’ जैसे पदाधिकारी राजा की सहायता करते थे, जिनमें ब्राह्मण (पुरोहित), राजन्य, सेनानी, सूत, ग्रामणी, क्षत्र, संगहीता, भाग्दुध, अक्षवाप, गोविकर्तन और पालागल शामिल थे। सेनानी सेना का प्रबंध करता था, रथपति क्षेत्र का शासक था और उग्र या जीवग्रम पुलिस अधिकारी थे। दूत या प्रहित गुप्तचर का कार्य करते थे। ग्राम्यवादिन गाँव का न्यायाधीश था और शतिपति सौ ग्रामों का प्रमुख था।

आर्थिक जीवन

ऋग्वेद काल में पशुचारण आधारित समाज उत्तर वैदिक काल में कृषि-प्रधान हो गया। अथर्ववेद में मवेशियों की वृद्धि के लिए प्रार्थनाएँ हैं, लेकिन कृषि मुख्य व्यवसाय थी। तैत्तिरीय उपनिषद् में अन्न उपार्जन को व्रत बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में जुताई (कर्षण), बुआई (वपन), कटाई (कर्तन) और मड़ाई (मर्दन) का उल्लेख है। चार से चौबीस बैलों द्वारा खींचे जाने वाले हलों का जिक्र है। लकड़ी और ‘खदिर’ (खैर) के फाल प्रचलित थे, लेकिन ‘प्रवीरवंत’ और ‘पवीरव’ (धातु के फाल) का भी उल्लेख है। अतरंजीखेड़ा से दराँती के अवशेष मिले हैं। धान, जौ, चावल (ब्रीहि), उड़द, तिल और बाजरे (श्यामाक) की खेती होती थी। छांदोग्य उपनिषद् में अन्न का महत्त्व बताया गया है। साठ दिनों में पकने वाली ‘षष्टिक’ धान का उल्लेख है।

कृषि प्रणाली और शिल्प

प्राकृतिक गोबर खाद, सिंचाई और ऋतुओं का ज्ञान से कृषि को उन्नत बनाया। अथर्ववेद में ‘कृषिदासियों’, नहर खोदने और टिड्डियों से फसल नष्ट होने का उल्लेख मिलता है। भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व शुरू हुआ, जिसके लिए उर्वरासा, उर्वरापत्ति, क्षेत्रसा और क्षेत्रपति जैसे शब्द मिलते हैं। पशुओं के कानों पर स्वामित्व के चिन्ह लगाए जाते थे। कृषकों का अधिशेष उत्पादन पुरोहितों, कर्मचारियों और राजाओं का भरण-पोषण करता था। लौह-प्रौद्योगिकी ने शिल्पों को बढ़ावा दिया। वाजसनेयी संहिता में सोना, ताँबा और सीसा का उल्लेख है। अथर्ववेद में ताँबे से गेंद बनाने का जिक्र है। व्यवसायों में महुआ, सारथी, व्याघ्र, गड़ेरिया, धीवर, मणिकार, रस्सी बाँटने वाले, टोकरी बुनने वाले, धोबी, लुहार, नाई, रंगसाज, जुलाहे, खटिक, धातु शोधक, रथकार, बढ़ई, चर्मकार, स्वर्णकार, कुम्हार और व्यापारी शामिल थे। शतपथ ब्राह्मण में नट और बाँसुरीवादक का उल्लेख है। स्त्रियाँ रंगाई और कसीदाकारी करती थीं। सौ पतवारों वाली नाव का जिक्र नाव निर्माण उद्योग का प्रमाण है।

व्यापार और दान

वणिकों और व्यापारियों के संगठन थे, जिनका प्रमुख ‘श्रेष्ठी’ कहलाता था। निष्क, अष्टप्रद और शतमान जैसे शब्द कदाचित् मुद्रा के अर्थ में प्रयुक्त होते थे। तैत्तिरीय संहिता में ‘कुसीद’ (ऋण) और शतपथ ब्राह्मण में ‘कुसीदिन’ (उधार देने वाला) का उल्लेख है। संपत्ति और दान की अवधारणा में परिवर्तन हुआ। भौतिक वस्तुओं और स्वर्ग प्राप्ति के लिए कर्मकांड में सामान्य जनों को शामिल किया गया। गाय, बछड़े, बैल, स्वर्ण, पका चावल, झोंपड़ियाँ और जुताई किए खेत दान में दिए जाते थे। ‘इष्ट’ और ‘पूर्त’ दान में भेद था। पूर्त-दान में कुएँ, तालाब, मंदिर, बगीचे और भूमि शामिल थे। शूद्र भी पूर्त-दान कर सकते थे। राजन्य करों पर और ब्राह्मण आनुष्ठानिक भेंटों पर नियंत्रण रखते थे।

सामाजिक संरचना

उत्पादन व्यवस्था का प्रभाव

उत्तर वैदिककालीन जटिल उत्पादन व्यवस्था ने सामाजिक संरचना को प्रभावित किया। समुदाय के अधिकांश लोग कृषक बन चुके थे। ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच विभाजन का आधार पशुपालन के दौर से मौजूद था। ऋग्वेद की दान-स्तुतियों में ब्राह्मण और राजन्य-क्षत्रिय एक-दूसरे को प्रतिष्ठा प्रदान करते थे। ब्राह्मण राजन्य की ओर से देवताओं से प्रार्थना करते, युद्ध और गो-हरण में उनकी सफलता सुनिश्चित करते, जिससे राजन्य को शक्ति और राजनीतिक प्रतिष्ठा प्राप्त होती थी। बदले में राजन्य ब्राह्मणों को संपत्ति देकर उनकी आय का प्रमुख स्रोत बनते थे।

वर्ण-व्यवस्था

उत्तर वैदिक समाज वर्ण-व्यवस्था पर आधारित था। ब्राह्मण धार्मिक अनुष्ठानों के प्रतिष्ठापक (बुद्धिजीवी), क्षत्रिय योद्धा और शासक, वैश्य कृषि और पशुपालन में संलग्न और शूद्र तीनों उच्च वर्णों के सामूहिक दास थे। वैश्यों को सैनिक सेवाएँ भी देनी पड़ती थीं और उनकी तादात्म्यता बल से थी। ब्राह्मण और क्षत्रिय अनुत्पादक होने के बावजूद विशेषाधिकार प्राप्त थे, क्योंकि वे उत्पादन को नियंत्रित करते थे। वैश्य और शूद्र उत्पादन के लिए उत्तरदायी थे। यथार्थ में क्षत्रिय ब्राह्मणों के निकट और शूद्र वैश्यों के निकट थे। शूद्रों की स्थिति सबसे दयनीय थी; उनकी सेवा करना कर्तव्य था और राजा उन्हें आतंकित या दंडित कर सकता था। चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था शूद्रों और वैश्यों पर ब्राह्मण-क्षत्रिय प्रभुत्त्व का सैद्धांतिक आधार थी।

सामाजिक जीवन के अन्य पहलू

उत्तर वैदिक काल में ‘कुल’ का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है, जो ऋग्वेद में नहीं मिलता। एकपत्नीविवाह मान्य था, पर बहुपत्नीविवाह भी प्रचलित था, जिसमें पहली पत्नी को विशेषाधिकार प्राप्त था। विवाह के लिए लड़कियों का क्रय-विक्रय होता था, पर इसे उचित नहीं माना जाता था। पितृप्रधान समाज में पुत्र-जन्म की कामना की जाती थी। पुत्री को दुःखों का स्रोत और पुत्र को परिवार का रक्षक माना जाता था। उपनिषदों में याज्ञवल्क्य-गार्गी संवाद से पता चलता है कि कुछ स्त्रियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त करती थीं, लेकिन उनकी सीमाएँ थीं। मैत्रायणी संहिता में स्त्रियों को पासा और सुरा के साथ तीन प्रमुख बुराइयों में गिना गया है। स्त्रियों को ऋण लेते समय बंधक के रूप में, गायों की तरह उधार देने और ब्याज पर दी जाने वाली वस्तुओं में शामिल किया जाता था। उधार ली गई स्त्री को लौटाते समय उसकी संतान भी देनी पड़ती थी। स्त्रियों को संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलता था। वशिष्ठ धर्मसूत्र के अनुसार शूद्र स्त्रियाँ केवल आमोद-प्रमोद के लिए थीं, धार्मिक कृत्यों के लिए नहीं।

ब्राह्मण-क्षत्रिय संबंध और द्वंद्व

धार्मिक अनुष्ठानों ने ब्राह्मणों और क्षत्रियों का वैश्यों और शूद्रों पर प्रभुत्त्व सुदृढ़ किया, पर राजा और पुरोहितों के संबंध हमेशा मधुर नहीं थे। सुदास और वशिष्ठ, शृंजय वैतहव्यस और भृगुओं, श्यपर्ण और विष्वंतर सौशदमन तथा जनमेजय और असित्मृगस् के बीच विवाद के उदाहरण मिलते हैं। पुरोहित परिवारों में भी संरक्षण के लिए संघर्ष था। सामाजिक अधिशेष के लिए संघर्ष में शतपथ ब्राह्मण जैसे ग्रंथों में ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच एकता पर बल दिया गया है। वैश्यों के विरोध का उल्लेख नहीं है, पर धार्मिक अनुष्ठानों से विद्रोह की संभावना को कम किया जाता था। उपनिषदों में कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत इसी उद्देश्य से प्रतिपादित हुआ।

पुरातात्त्विक साक्ष्य

उत्तर वैदिक काल की सामाजिक संरचना की तुलना यूनान और ईरान के आदिम समाजों से की जा सकती है। ब्राह्मण वर्ग का विकास प्राक्-आर्यों के साथ सम्मिश्रण से हुआ। प्राक्-चित्रित धूसर मृद्भांड और चित्रित धूसर मृद्भांड स्थलों पर याज्ञिक गड्ढे और अतरंजीखेड़ा से वृत्ताकार अग्निकुंड मिले हैं। कोशांबी से यज्ञवेदी और श्रावस्ती से छोटे मृद्भांडों वाले गड्ढे अनुष्ठानों की निरंतरता की सूचना देते हैं।

धार्मिक विश्वास और प्रथाएँ

उत्तर वैदिक काल में धार्मिक आस्थाएँ भौतिक पृष्ठभूमि से प्रभावित थीं। ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ-अनुष्ठान और कर्मकांडीय व्यवस्था को बढ़ावा दिया गया, जबकि उपनिषदों ने इसका विरोध किया। यज्ञों में अग्निष्टोम, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, आग्रयण, निरुढ़-पशुवध, सौत्रामणि, पिंडपितृ, षोडसी, अतिरात्र और पुरुषमेध शामिल थे। पुरुषमेध में मानव बलि का विधान था। यज्ञों में ब्राह्मणों को गाय, सोना, वस्त्र, भूमि, तालाब और बाग दान दिए जाते थे। अष्वमेध, वाजपेय और राजसूय जैसे यज्ञ कृषि-उत्पादन और राजनीतिक शक्ति को बढ़ाने के लिए थे। यज्ञों में सम्भोग-क्रिया उर्वरता और प्रजनन का प्रतीक थी। मगध के व्रात्य मुखिया को वैदिक समाज में शामिल करने के लिए कर्मकांड आयोजित किए जाते थे।

देवी-देवता और उपासना

ऋग्वैदिक देवता वरुण और इंद्र का महत्त्व कम हुआ और प्रजापति, विष्णु और रुद्र-शिव प्रमुख हुए। प्रजापति को विष्व का निर्माता और नियामक माना गया, जो बाद में ब्रह्मा कहलाए। रुद्र का स्वरूप शिव के रूप में संहारक था। विष्णु सर्वश्रेष्ठ देवता बन गए। त्रिमूर्ति-ब्रह्मा, विष्णु, महेश की उपासना शुरू हुई। संभवतः देवी को शक्ति के रूप में दुर्गा के विभिन्न रूपों में पूजा जाने लगा। पशु पूजा के साक्ष्य नहीं मिलते हैं, पर भूत-प्रेत, जादू-टोना, इंद्रजाल और वशीकरण जैसे अंधविश्वास धर्म में शामिल हुए। अप्सरा, गंधर्व और नाग को देवरूप में माना गया। स्वर्ग और नरक की अवधारणा पहली बार सामने आई।

उपनिषदीय विचारधारा

लगभग ई.पू. 600 के आसपास उपनिषदों की रचना हुई, जो अवैदिक विचारधारा और यज्ञीय कर्मकांडों के विरोध से प्रभावित थी। उपनिषदों ने यज्ञों को भवसागर पार करने के लिए कमजोर नौका बताया गया है। ज्ञान मार्ग के माध्यम से ब्रह्मन् और आत्मन् के अद्वैत का प्रतिपादन किया गया। ‘अहं ब्रह्मास्मि’, ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ और ‘तत्त्वमसि’ जैसे महावाक्य इस तादात्म्य के सूचक हैं। यह कबायली जीवन के विघटन से उत्पन्न आध्यात्मिक अराजकता को संबोधित करता था।

इस प्रकार वैदिक एवं अवैदिक विचारधाराओं के सम्मिश्रण से निवृत्तिमार्गी प्रवृत्तियों का विकास हुआ और काया-क्लेश तथा संन्यास को भी एक जीवन-दर्शन के रूप में मान्यता मिली। ब्राह्मण चिंतकों ने इसी निवृत्तिमार्गी विचारधारा को अपनी संस्कृति में स्थान देने के लिए मानव जीवन के लिए आश्रमों का विधान किया।

error: Content is protected !!
Scroll to Top