मौर्योत्तरकालीन समाज, धार्मिक जीवन, कलात्मक एवं साहित्यिक विकास (Post-Mauryan Society, Religious Life, Artistic and Literary Development)

मौर्योत्तरकालीन समाज, धार्मिक जीवन, कलात्मक एवं साहित्यिक विकास (Post-Mauryan Society, Religious Life, Artistic and Literary Development)

मौर्योत्तरकालीन समाज, धार्मिक जीवन, कलात्मक एवं साहित्यिक विकास

मौर्योत्तरकालीन सामाज

मौयोत्तर काल के शुंग और संभवतः सातवाहन वंश के शासक ब्राह्मण थे। अतः इस काल में भी चार वर्णों पर आधारित सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मणों की स्थिति सर्वश्रेष्ठ थी। तत्कालीन स्मृतियों विशेषकर मनुस्मृति में स्पष्ट शब्दों में ब्राह्मणों की सर्वश्रेष्ठता की पुष्टि की गई है। मनु के अनुसार ब्राह्मणों को प्राणदंड नहीं दिया जा सकता था और ब्राह्मण के लिए शूद्र का भोजन वर्जित था।

इस काल में भी कारीगर आदि अधिकाशतः शूद्र वर्ण से ही आते थे, किंतु उनके धन एवं प्रतिष्ठा में अब वृद्धि हो गई थी। मौर्यकाल में समस्त आर्थिक कार्रवाइयों पर राज्य का नियंत्रण था, किंतु इस साम्राज्य के पतन के साथ ही वह नियंत्रण भी समाप्त हो गया और शिल्पियों आदि को कुछ वैयक्तिक स्वतंत्रता प्राप्त हो गई। याज्ञवल्क्य स्मृति में शूद्रों को कृषक, कारीगर एवं व्यापारी बनने की स्वीकृति प्रदान की गई है। इस प्रकार वैश्यों एवं शूद्रों के बीच का अंतर कुछ कम हो गया, फिर भी मनु द्वारा शूद्रों के लिए बड़े कठोर नियम बनाये गये। मनु के अनुसार शूद्रों का कार्य तीनों उच्चतर वर्णों की सेवा करना था, अतः ब्राह्मणों पर आक्रमण करने के अपराध की सजाएँ शूद्रों के लिए बहुत ही कठोर थीं।

शूद्र वर्ग में इस कठोरता के कारण असंतोष होना स्वाभाविक था। इसमें आश्चर्य नहीं कि वर्ण व्यवस्था को मान्यता न देने वाले विदेशी शासकों के अधीन जो शूद्र थे, वे ब्राह्मणों के विरुद्ध हो गये हों। संभवतः यही कारण है कि मनुस्मृति में शूद्रों की बैर-भावपूर्ण कार्रवाइयों के विरुद्ध कई सुरक्षा उपायों का उल्लेख किया गया है। मनु की प्रतिक्रिया वास्तव में उस काल की परिस्थितियों में घोर ब्राह्मण-कट्टरता की प्रतिक्रिया है।

विदेशी जातियों का भारतीय समाज में विलय

इस काल में वर्ण पर आधारित परंपरागत समाज-व्यवस्था को विदेशियों के आक्रमण से भी खतरा उत्पन्न हो गया था। भारत में यवन, शक, कुषाण आदि विदेशी शासकों की उपस्थिति, जिनके पास राजनीतिक एवं आर्थिक शक्ति थी, वर्णव्यवस्था के लिए संकट उत्पन्न कर रही थी। ब्राह्मण उन्हें ‘म्लेच्छ’ कहकर उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते थे, उनके साथ समझौता करना ही था। इस कारण स्मृतिकारों ने उन्हें बड़े कौशल से निम्नकोटि के क्षत्रिय की उपाधि प्रदान कर दी। इस प्रकार प्रत्यक्षतः धर्म ने विदेशियों एवं अनार्यों के आर्यीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

वर्णसंकर की अवधारणा

यद्यपि मनु कट्टर ब्राह्मणवादी थे, किंतु उनकी स्मृति में जिन 60 वर्णसंकरों का उल्लेख है, उससे स्पष्ट होता है कि वे पर्याप्त यथार्थवादी भी थे। विदेशी लोगों के आगमन से जो एक सामाजिक तनाव उत्पन्न हुआ, उसका एक प्रायोगिक समाधान वर्णसंकर की परिकल्पना में दृष्टिगोचर होता है। सामाजिक तनाव का एक पक्ष वह भी था जो पुराणों में कलियुग के चित्रण में परिलक्षित होता है। इस तनावपूर्ण स्थिति का प्रमुख कारण मुख्य उत्पादक वर्गों, यथा- वैश्यों एवं शूद्रों द्वारा विरोध की भावना को प्रकट करना था। मनु ने तो यहाँ तक कहा है कि जब तक इन लोगों को डंडे के बल से दबाया नहीं जायेगा, काम चलेगा ही नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि विद्रोह का एक महत्त्वपूर्ण रूप राजकीय करों का न देना था। स्पष्टतः इससे समाज में एक तनाव की स्थिति उत्पन्न हुई होगी। संभवतः इसी स्थिति से निबटने के लिए राजाओं ने भूमिदान की प्रथा को प्रोत्साहन दिया, क्योंकि कालांतर में इसके माध्यम से कर एकत्र करने का उत्तरदायित्व स्थानीय बिचौलियों का हो गया, जिन्हें पुलिस अधिकार भी प्राप्त थे।

धर्म की भूमिका

जहाँ तक विदेशियों के एकीकरण का सवाल है, वर्णसंकर की परिकल्पना के अतिरिक्त धर्म का भी आश्रय लिया गया। विभिन्न धर्मों में एक प्रकार की होड़ हो गई कि वे किस प्रकार इन विदेशी शासकों का समर्थन प्राप्त करते हैं। पारंपरिक ब्राह्मण धर्म का भी रूपांतरण हो रहा था। इस काल में भक्ति-भावना के पुट का उदय विशेष रूप से हुआ। वैष्णव, शैव एवं सभी धर्मों ने अपने द्वार विदेशियों के लिए खोल दिये। मनुस्मृति में कहा गया है कि पवित्र धार्मिक संस्कारों तथा ब्राह्मणों की अवहेलना करने के कारण ही वैष्णव धर्म ने यवन, शक जैसी जातियों को ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत समाविष्ट एवं समायोजित करने के लिए एक प्रबल साधन प्रदान किया।

भागवत पुराण में कहा गया है कि ये जातियाँ विष्णु पूजन से पवित्र हो गई हैं और यदि विदेशी जातियाँ विष्णु पूजन करती हैं तो पवित्र हो जाती हैं। बेसनगर अभिलेख से पता चलता है कि यवन राजदूत होलियोडोरस ने भागवत धर्म को अंगीकार कर लिया था और भगवान वासुदेव के सम्मान में एक गरुड़ध्वज समर्पित किया था।

स्त्रियों की स्थिति

मौर्योत्तरकालीन समाज में स्त्रियों को सम्मानजनक दृष्टि से देखा जाता था। सातवाहन काल में स्त्रियों की स्थिति पहले की अपेक्षा अधिक ठीक थी। सातवाहन राजाओं द्वारा अपने नाम के साथ माता का नाम जोड़ने की प्रथा, जैसे गौतमीपुत्र सातकर्णि, वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी, समाज में स्त्रियों की उच्च स्थिति के परिचायक हैं। रानी नायनिका ने अपने अल्पव्यस्क पुत्र की संरक्षिका के रूप में शासन किया था। गौतमी ने बलश्री को विदुषी और धर्मपरायण बताया है।

इस काल स्त्री शिक्षा की ओर ध्यान दिया जाता था। अनेक महिलाएँ शिक्षिका बनकर शिक्षण-कार्य द्वारा जीवन-यापन करती थीं। ऐसी स्त्रियों को उपाध्याया कहा जाता था। परिवार की संपूर्ण संपत्ति में स्त्री का भाग होता था। पर्दा प्रथा के प्रमाण नहीं मिलते हैं, किंतु विवाह की आयु निरंतर घटती जा रही थी।

मौर्योत्तरकालीन धर्म

ई.पू. तथा ई. सन् की प्रारंभिक शताब्दियों में विदेशी जातियों ने वैष्णव एवं शैव देवताओं को समर्थन दिया। बेसनगर का अभिलेख यवन राजदूत हेलियोडोरस का वर्णन भागवत के रूप में करता है, जिसने भगवान् वसुदेव को गरुड़ध्वज प्रदान किया था। महाक्षत्रप शोडास के समय के एक अन्य अभिलेख में वसुदेव के मंदिर के प्रवेश-द्वार तथा वेदिकाओं के निर्माण का उल्लेख है। कुषाण राजा भी वैष्णव, शैव प्रभाव से अछूते नहीं थे। उनमें से एक ने भगवान् का नाम वासुदेव ही धारण कर लिया था। हुविष्क की एक सुवर्ण मुद्रा पर एक देवता अपने एक हाथ में चक्र और दूसरे में ऊर्ध्वलिंग लिये चित्रित किया गया है, जिससे अनुमान किया जाता है कि यह समन्वित देवता हरिहर की प्रतिमा का पूर्वरूप है।

बौद्ध धर्म

विदेशी शासकों के द्वारा बौद्ध धर्म अपनाये जाने से भी उनका भारतीय सामाजिक व्यवस्था में समावेश आसान हो गया, क्योंकि इससे जाति, वर्ण आदि से संबद्ध कोई समस्या उठने की संभावना नहीं थी। बहुत से विदेशी शासकों ने बौद्ध धर्म को प्रश्रय दिया। इंडो-ग्रीक शासकों ने अपने सिक्कों पर बौद्ध-चिन्ह अंकित किये और कुषाणों ने भी बौद्ध-प्रतिष्ठानों को बहुत दान दिया, विशेषकर कनिष्क का बौद्ध धर्म के प्रति योगदान तो विशेष रूप से प्रशंसनीय है। उसके समय में कई बौद्ध धर्म-प्रचारक विदेशों में भेजे गये जिसके फलस्वरूप बौद्ध धर्म विभिन्न देशों के संपर्क में आया।

देश के भीतर बौद्ध धर्म को संपन्न व्यापारी वर्ग का समर्थन प्राप्त हुआ। इस समय के अनेक विहार आदि व्यापारियों के उदार अनुदान के ही परिणाम हैं। व्यापार के माध्यम से बौद्ध धर्म पश्चिमी तथा मध्य एशिया भी पहुँचा। देश के अधिकतर विहार व्यापारिक मार्गों या पश्चिमी तट के पर्वतीय दर्रों पर स्थित थे। बड़े-बड़े अनुदानों के परिणामस्वरूप बौद्ध विहार धन के भंडार हो गये थे। भिक्षु-भिक्षुणियों ने भी बौद्ध-विहारों को दान दिया था। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि वे अब इस प्रारंभिक बौद्ध नीति को नहीं मानते थे कि भिक्षु एवं भिक्षुणी को अपनी समस्त इहलौकिक वस्तुओं का परित्याग कर देना चाहिए। अतः बौद्ध धर्म के स्वरूप में परिवर्तन अनिवार्य हो गया था।

महायान बौद्ध धर्म का उदय

बुद्ध की मृत्यु के तुरंत बाद ही उनकी शिक्षाओं के तात्पर्य के संबंध में वाद-विवाद प्रारंभ हो गया था और कई परिषदों द्वारा उस विवाद को सुलझाने की असफल चेष्टा की गई। कनिष्क के समय तक आते-आते बौद्ध धर्म की 18 विभिन्न शाखाएँ हो गई थीं।

परंपरा के अनुसार कनिष्क के समय में चौथी बौद्ध संगीति में बौद्ध धर्म औपचारिक रूप से हीनयान एवं महायान नामक दो शाखाओं में बंट गया। इस काल की यह विशेषता थी कि ज्ञानमार्ग अथवा कर्ममार्ग की अपेक्षा भक्तिमार्ग अधिक लोकप्रिय हो रहा था। बौद्ध धर्म में महायान संप्रदाय का उदय इस प्रवृत्ति का द्योतक है। हीनयान संप्रदाय में बुद्ध मानव के पथ-प्रदर्शक मात्र थे, किंतु अब वे देवता माने जाने लगे।

महायान शाखा की प्रमुख विशेषता थी बोधिसत्व की अवधारणा, जिसने अन्य प्राणियों के कल्याण के लिए कई बार जन्म लिया है और जो भविष्य में भी प्राणियों के त्राण के लिए आयेगा। बुद्ध का यह रूप मैत्रेय बुद्ध के नाम से विख्यात हुआ। समय के साथ-साथ बोधिसत्वों की एक श्रृंखला विकसित हो गई। हीनयान में प्रत्येक के सामने व्यक्तिगत निर्वाण प्राप्ति के लिए अर्हत् पद प्राप्त करने का आदर्श था, जबकि महायान संप्रदाय ने प्रत्येक व्यक्ति के सामने बोधिसत्व का आदर्श रखा। बुद्ध को एक धार्मिक उपदेशक के रूप में न देखकर एक परित्राता भगवान् के रूप में देखा जाने लगा और उनकी मूर्तियों की उपासना प्रारंभ हो गई। बुद्ध के जीवन-चिन्हों की उपासना पूर्ववत् चलती रही, किंतु अब उसका स्थान मूर्तिपूजा लेने लगी।

इस प्रकार महायान बौद्ध धर्म में भक्ति की अवधारणा का विकास हुआ। बुद्ध के दिव्य गुणों पर जोर देने के लिए इस काल में उनकी जीवनकथा फिर से लिखी गई। इस उद्देश्य से लिखी प्रारंभिक पुस्तकों में ‘महावस्तु’, ‘ललितविस्तर’ और अश्वघोषकृत ‘बुद्धचरित’ विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।

जैन धर्म

बौद्ध धर्म की भाँति ही जैन धर्म में भी परिवर्तन आया। ईसा की प्रथम शताब्दी के आसपास जैन धर्म में भी विभाजन हो गया। रूढ़िवादी जैन दिगंबर एवं उदारवादी जैन श्वेतांबर कहलाये। बौद्ध धर्म की भाँति ही जैन धर्म में भी मूर्तिपूजा का विकास हुआ।

ब्राह्मण धर्म

बौद्ध एवं जैन धर्म वैदिक धर्म के विरुद्ध थे जिसमें पशु बलि और याज्ञिक अनुष्ठान आदि सम्मिलित थे। लोग भक्ति पर आधारित मूर्तिपूजक संप्रदाय की ओर आकृष्ट होने लगे। बौद्ध धर्म तथा अन्य शास्त्र-विरोधी धार्मिक संप्रदायों के भीषण प्रहारों ने वैदिक प्रथाओं तथा ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा एवं प्रभुत्व को काफी आघात पहुँचाया। यज्ञीय-कर्मकांडों की माँग में कमी हो जाने के कारण ब्राह्मणों की स्थिति गिर रही थी, इसलिए वे जीविका के कुछ अन्य साधनों का आश्रय लेने के लिए बाध्य हुए जिनका विधान मनु ने अपनी स्मृति में किया है।

दूसरी ओर नये आर्थिक एवं राजनीतिक तत्त्वों से उत्पन्न स्थिति से निबटने के लिए तथा ब्राह्मणधर्मी सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए ब्राह्मणों ने अनेक लोकप्रिय उपासना-विधियों को अपना लिया।

वैदिक देवताओं के स्थान पर नवीन देववर्ग का उदय हुआ, जिनमें ब्रह्मा-विष्णु-महेश की त्रिमूर्ति बहुत ही विख्यात है। ब्रह्मा को स्रष्टा, विष्णु को भर्ता एवं शिव को संहारकर्ता के रूप में मान्यता मिली। धीरे-धीरे शिव एवं विष्णु अधिक प्रचलित देवता हो गये एवं उनके अनुयायी शैव एवं वैष्णव कहे जाने लगे। अब नवोदित ब्राह्मण धर्म में भी वैदिक धर्म के कर्मकांडों के स्थान पर भक्ति को प्रधानता प्रदान की गई।

मौर्योत्तरकालीन कलात्मक गतिविधियाँ

मौर्योत्तरकालीन भारत में कलात्मक गतिविधियों को प्रोत्साहित किया गया। धनी व्यापारियों की विभिन्न श्रेणियों एवं शासकों द्वारा इसे बहुत प्रोत्साहन दिया गया। वास्तुकला का विशेष विकास इस काल की प्रमुख विशेषता रही है। इस समय के वास्तु कलाकारों ने स्मारकों, स्तूपों, गुहा-मंदिरों (जिन्हें ‘चैत्य’ कहा जाता है) एवं संघारामों अथवा विहारों एवं भवनों का निर्माण बड़ी संख्या में किया। कात्यायन ने शिल्पों के लिए ‘कारि’ शब्द का प्रयोग किया है। पर्वतों में खोदी गई गुफाएँ मंदिरों एवं भिक्षुओं के निवास-स्थान के रूप में प्रयुक्त होती थीं। पश्चिम दक्कन में सातवाहन एवं उनके उत्तरवर्ती राजाओं ने बहुत सी बड़ी-बड़ी गुफाएं खुदवाईं। इनमें कार्ले की गुफाएँ प्राचीनतम् हैं, जिनका सौन्दर्य अत्यंत विकसित है। इन गुफाओं के आकार में धीरे-धीरे वृद्धि होती गई, जैसा कि अजंता एवं एलोरा की गुफाओं से प्रतीत होता है, जिनमें से कुछ गुफाएँ इस काल की भी हैं।

मूर्तिकला का प्रयोग बड़े-बड़े बौद्ध स्तूपों के तोरणों एवं बाड़ों के बनाने में भी हुआ है जैसा कि भरहुत एवं साँची में देखने को मिलता है। दक्कन में अमरावती में भी ईसा की दूसरी शती के लगभग मूर्तिकला का विकास हुआ। नागार्जुनकोंडा में भी इसी काल के अवशेष मिले हैं। यहाँ स्तूप के निकट कुछ शिलाखंड मिले हैं, जिन पर बुद्ध के जीवन के कुछ दृश्य अंकित किये गये हैं। इस समय वास्तु-शिल्प इतना अधिक विकसित हो गया था कि एक प्रासाद को बनाने में 18 शिल्पों के जानने वाले कर्मकारों के काम करने की चर्चा मिलती है। संभवतः इन शिल्पकारों में मूर्तिकार, वास्तु-शिल्पकार, चित्रकार, जौहरी, लुहार, बढ़ई, स्वर्णकार आदि रहे होंगे।

गांधार कला

मूर्तिकला का विकास मौर्यकाल में ही हो गया था और इस युग में भी उत्कृष्ट मूर्तियों का निर्माण संभव हुआ। कुषाण काल में मूर्तिकारों को पश्चिमी जगत् के कलाकारों ने प्रभावित किया जिसके परिणामस्वरूप ई.पू. प्रथम शताब्दी के मध्य से उत्तर-पश्चिम में गंधार में कला की एक और शैली का विकास हुआ, जिसे गांधार शैली कहते हैं। इस शैली को ग्रीक-बौद्ध शैली भी कहा जाता है। इस कला के मुख्य केंद्र थे- तक्षशिला, पुष्कलावती, नगरहार, स्वातघाटी या उड्डीयान, बामियान तथा बाहनीक या बैक्ट्रिया। इस काल की विषय-वस्तु बौद्ध परंपरा से ली गई थी, किंतु निर्माण का ढंग यूनानी था। इस कला में पहली बार बुद्ध की सुंदर मूर्तियाँ बनाई गईं। गांधार शैली की प्रारंभिक बौद्ध मूर्तियों में बुद्ध का मुख ग्रीक देवता अपोलो से मिलता-जुलता है। मूर्तियों का परिवेश रोमन टोगा जैसा है। मूर्तियों में शरीर की संरचना, मांसपेशियों और शरीर के कपड़ों को सुंदरता से दिखाया गया है। बाल के अलंकरण पर विशेष ध्यान दिया गया है। ई. सन् की तीसरी शती में गांधार कला के उदाहरण हद्दा और जौलियन में मिले हैं, जो कला की दृष्टि से बहुत उत्कृष्ट हैं। यही कला हद्दा (नगरहार) से बामियान और वहाँ से चीनी तुर्किस्तान और चीन पहुँची।

गांधार कला के अंतर्गत मूर्तियों में शरीर की आकृति को सर्वथा यथार्थ दिखाने का प्रयत्न किया गया है, वहीं मथुरा शैली में निर्मित मूर्तियों की मुखाकृति में आध्यात्मिक सुख और शांति व्यक्त की गई है। दूसरे शब्दों में, गांधार कला यथार्थवादी थी और मथुरा की आदर्शवादी। गांधार कला में बुद्ध और बोधिसत्त्व की मूर्तियों के अतिरिक्त अन्य प्रकार की मूतियां भी बनीं। कपिशा या बेग्राम से हाथीदाँत के फलकों पर मथुरा और अमरावती के सदृश प्रसाधिका, नृत्य-दृश्य, पानगोष्ठी, हंसक्रीड़ा, शुकक्रीड़ा तथा प्रसाधनरत स्त्रियों के चित्रण मिलते हैं जिनकी भाव-भंगिमा अत्यंत मोहक और जीवंत है।

मथुरा कला

कुषाण काल में ही स्वदेशी भावना से प्रेरित कलाकारों ने ऐसी कला को विकसित किया जो पाश्चात्य कला से पूर्णतः अप्रभावित थी, जिसे मथुरा कला शैली के नाम से जाना जाता है। जैन धर्म के अनुयायियों ने मथुरा में मूर्तिकला की एक शैली को प्रश्रय दिया, जहाँ शिल्पियों ने महावीर की एक मूर्ति बनाई। जहाँ गांधार कला पर यूनानी प्रभाव दिखाई देता है, वहीं मथुरा कला मूलतः भारतीय शैली में विकसित हुई और कुषाण शासकों का प्रश्रय पाकर फली-फूली। मथुरा में लाल रंग के पत्थरों से बुद्ध और बोधिसत्त्व की सुंदर मूर्तियाँ बनीं। वासुदेवशरण अग्रवाल का मानना है कि बुद्ध की पहली मूर्ति मथुरा कला में ही बनी, किंतु अधिकांश विद्वानों का मानना है कि गांधार कला में बुद्ध की प्रथम मूर्ति बनी थी। प्रायः कहा जाता है कि कुषाणों के संरक्षण के फलस्वरूप बौद्ध धर्म का विकास हुआ। इसके अतिरिक्त जैन तीर्थंकरों, ब्राह्मण धर्म से संबद्ध देवी-देवताओं, अलौकिक शक्तियों की भी मूर्तियाँ बनाई गईं। मथुरा की मूर्तियाँ भी सजीव और भव्य हैं, किंतु गांधार कला जैसी मोहक नहीं हैं।

जहाँ तक ब्राह्मण धर्म का सवाल है, उसके भी अवशेष कुछ कम नहीं हैं। मथुरा, लखनऊ, बनारस (भारत कला भवन) आदि अनेकों संग्रहालयों में इस काल के विष्णु, शिव, स्कंद-कार्तिकेय के निरूपणों के उदाहरण मिलते हैं। कृष्ण-लीला के कुछ अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं सुंदर निरूपण इसी काल में मथुरा शैली में मिलते हैं।

चित्रकला

चित्रकला के सबसे अधिक प्राचीन उदाहरण अजंता की गुफा संख्या 9 व 10 में मिलते हैं। गुफा संख्या 9 में सोलह उपासकों को स्तूप की ओर बढ़ते हुए दिखाया गया है। गुफा संख्या 10 में जातक कथाएं अंकित हैं। इसमें उपासकों को बोधिवृक्ष और स्तूप की पूजा करते हुए दिखाया गया है। इस काल की अधिकतर कलाकृतियाँ बौद्ध धर्म से संबंधित हैं और इनमें से अधिकतर धनी व्यापारियों द्वारा बनवाई हुई हैं।

मौर्योत्तर काल में साहित्यिक विकास

मौर्योत्तर काल में साहित्य के भी विभिन्न रूपों का विकास हुआ। इस समय संस्कृत, प्राकृत और तमिल भाषा और साहित्य का विकास हुआ। सातवाहन नरेश कवियों के आश्रयदाता तथा प्राकृत भाषा के परिपोषक थे। उनके शासनकाल में प्राकृत भाषा और साहित्य की बड़ी प्रगति हुई। एक सातवाहन शासक द्वारा हाल छद्मनाम से लिखी गई ‘गाथा-सप्तशती’ प्राकृत भाषा की सुंदर काव्य रचना है, यद्यपि इस काल में साहित्य रचना में संस्कृत भाषा का प्रचलन अधिक था।

ई.पू. दूसरी शती के मध्य में पतंजलि ने अपना ‘महाभाष्य’ लिखा, जो उनके पूर्ववर्ती वैयाकरण पाणिनी की प्रसिद्ध रचना अष्टाध्यायी की टीका है। चिकित्साशास्त्र पर भी मौलिक ग्रंथ लिखे गये, जिनमें सबसे प्रसिद्ध चरककृत ‘संहिता’ है। चरक कुषाण शासक कनिष्क के समकालीन थे। इस क्षेत्र में एक अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति सुश्रुत हैं। चिकित्साशास्त्र एवं ज्योतिषशास्त्र में भारत ने पश्चिमी जगत् से संपर्क का बहुत लाभ उठाया। कुछ विद्वानों के अनुसार भरत का ‘नाट्यशास्त्र’ और वात्स्यायन का ‘कामसूत्र’ भी इसी काल की रचनाएँ हैं। भारत की सर्वप्रसिद्ध स्मृति ‘मनुस्मृति’ ई.पू. दूसरी शती से ईसा की दूसरी शती के मध्य लिखी गई।

इसी समय में ब्राह्मणों ने महाकाव्यों में भी संशोधन किये। संस्कृत काव्य की प्रारंभिक शैली की महत्त्वपूर्ण रचना अश्वघोष की ‘बुद्धचरित’ है। अश्वघोष भी कनिष्क के समकालीन थे। इन्हीं का एक अन्य छंदबद्ध काव्य ‘सौंदरानंद’ है, जो बुद्ध के सौतेले भाई आनंद के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के प्रसंग पर आधारित है। अश्वघोष के नाटकों के कुछ भाग मध्य एशिया के एक विहार में प्राप्त हुए थे।

संभवतः सबसे पहले संपूर्ण नाटक रचने का श्रेय भास को है। इनका प्रसिद्ध नाटक है ‘स्वप्नवासवदत्तम्’, जो राजा उदयन एवं वासवदत्ता की प्रेमकथा पर आधारित है। अब सामान्यतः संस्कृत भाषा की क्लिष्टता में वृद्धि हो रही थी और यह केवल ब्राह्मणों की भाषा न रहकर शासकवर्ग की भाषा बनती जा रही थी और राजकीय अभिलेखों की भाषा आडम्बरपूर्ण होती जा रही थी।

मौर्यों एवं सातवाहनों द्वारा प्रयुक्त सामान्य प्राकृत भाषा का स्थान अब संस्कृत ले रही थी। अब अभिलेखों में प्राकृत भाषा के बदले संस्कृत भाषा पर विशेष बल दिया जाने लगा था। रुद्रदामन् का गिरनार अभिलेख संस्कृत काव्य का पहला और अनूठा उदाहरण है। कुषाणकालीन सुई-बिहार के अभिलेख में भी संस्कृत भाषा का प्रयोग किया गया है।

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