मौर्योत्तरकालीन राज्य-व्यवस्था
मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ ही भारतीय इतिहास की राजनीतिक एकता कुछ समय के लिए खंडित हो गई। देश के उत्तर-पश्चिमी मार्गों से कई विदेशी आक्रांताओं ने आकर भारत के विभिन्न भागों में अपने-अपने राज्य स्थापित किए। दक्षिण में स्थानीय शासक वंश स्वतंत्र हो गए। कुछ समय के लिए मध्य भारत का सिंधु घाटी और गोदावरी क्षेत्र से संबंध टूट गया और मगध के वैभव का स्थान साकल, विदिशा और प्रतिष्ठान जैसे नगरों ने ले लिया।
ऐतिहासिक स्रोत
भारतीय धार्मिक और धर्मेतर साहित्य, विदेशी साहित्यिक ग्रंथों, अभिलेखों, सिक्कों और अन्य पुरातात्त्विक खोजों के आधार पर इस काल के इतिहास की पुनर्रचना की जा सकती है। पुराण और स्मृति-ग्रंथ इस काल की जानकारी के प्रमुख स्रोत हैं। इसके अतिरिक्त, बौद्ध धार्मिक ग्रंथों—जातक कथाएँ, दिव्यावदान, ललितविस्तर, आर्यमंजुश्रीमूलकल्प और मिलिंदपंहो से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है। धर्मेतर साहित्य में पतंजलि का महाभाष्य, गार्गी संहिता, और कालिदास कृत मालविकाग्निमित्रम् से इस काल के संबंध में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं।
एक अज्ञात यूनानी नाविक द्वारा लिखित पेरीप्लस ऑफ दि एरिथ्रियन सी (46 ई.) नामक पुस्तक से ईस्वी सन् की पहली शताब्दी में भारत की व्यापारिक गतिविधियों का विवरण प्राप्त होता है। स्ट्रैबो का भूगोल (ज्योग्राफी) और प्लिनी का प्राकृतिक इतिहास (नेचुरल हिस्ट्री) उन देशों के विविध पक्षों का वर्णन करते हैं, जिनके साथ उस समय भूमध्यसागरीय देशों के व्यापारिक संबंध थे। ये दोनों कृतियाँ ईस्वी सन् की प्रारंभिक दो शताब्दियों की हैं। चीन के राजवंशों के प्रारंभिक इतिहास-ग्रंथ भी इस काल के संबंध में उपयोगी सामग्री प्रदान करते हैं।
इस काल के अभिलेखों में प्रशस्तियाँ और राजाज्ञाएँ प्रमुख हैं। प्रशस्तियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध गौतमीबलश्री का नासिक अभिलेख है, जिसमें गौतमीपुत्र सातकर्णि की उपलब्धियों का वर्णन है। संस्कृत भाषा में लिखा गया रुद्रदामन का गिरनार शिलालेख भी इस काल का एक प्रसिद्ध अभिलेख है।
मौर्योत्तरकालीन इतिहास-लेखन में सिक्के अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। मौर्यकाल में सिक्कों पर केवल देवताओं के चित्र अंकित किए जाते थे, किंतु शासक का नाम या तिथि उत्कीर्ण नहीं होती थी। जब उत्तर-पश्चिमी भारत पर बैक्ट्रिया के यूनानी राजाओं का शासन प्रारंभ हुआ, तो सिक्कों पर राजाओं के नाम और तिथियाँ अंकित की जाने लगीं। शक, पार्थियन, और कुषाण राजाओं ने भी यूनानी शासकों के अनुरूप सिक्के चलाए। भारतीय शक राजाओं और मालव, यौधेय आदि गणराज्यों के इतिहास पर उनके सिक्कों से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। सिक्कों की मात्रा, विभिन्न धातुओं और विविध इकाइयों से यह स्पष्ट होता है कि मुद्रा-प्रणाली सामान्य जन-जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी थी।
मौर्योत्तरकालीन प्रशासन
ई.पू. पहली शताब्दी से लेकर ईस्वी सन् की तृतीय शताब्दी तक भारत का राजनीतिक इतिहास परस्पर संघर्षरत शासकों और विदेशी आक्रांताओं का एक अव्यवस्थित चित्र प्रस्तुत करता है। मौर्योत्तर काल में अधिकांश राज्य छोटे-छोटे थे। यद्यपि उत्तर में कुषाणों और दक्षिण में सातवाहनों ने विस्तृत क्षेत्रों पर शासन किया, किंतु उनके राजनीतिक संगठन में मौर्यों जैसा केंद्रीकरण नहीं था। दोनों राजवंशों के शासकों ने कई छोटे-छोटे राजाओं के साथ सामंती संबंध स्थापित किए थे।
सातवाहन शासकों के कई अधीनस्थ शासक थे, जैसे इक्ष्वाकु, जिन्होंने सातवाहनों के पतन के बाद स्वतंत्र राज्य स्थापित किए। कुषाणों का शासन ऑक्सस से लेकर वाराणसी तक फैला था। उनके द्वारा धारण की गई प्रभावशाली उपाधियों से पता चलता है कि उनके अधीन कई छोटे राज्य थे, जो उन्हें सैनिक सेवाएँ प्रदान करते थे। संभवतः कुषाणों ने भू-धारण अधिकार की अक्षयनीवि प्रणाली भी प्रारंभ की, जिसका अर्थ है भू-राजस्व का स्थायी दान, हालांकि इसका व्यापक प्रचलन गुप्तकाल में दिखाई देता है।
विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए इस काल में राजतंत्र में दैवी तत्त्वों को शामिल करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। जहाँ अशोक स्वयं को ‘देवानांप्रिय’ कहता था, वहीं कुषाण राजाओं ने चीनी शासकों के अनुरूप ‘देवपुत्र’ जैसी उपाधियाँ धारण कीं। इसके अतिरिक्त, रोम के उदाहरण को अपनाकर कुषाण शासकों ने मृत राजाओं की मूर्तियाँ स्थापित करने के लिए मंदिर (देवकुल) बनवाने की प्रथा भी शुरू की। यद्यपि तत्कालीन रचनाओं में राजतंत्र की दैवी उत्पत्ति का संकेत मिलता है, किंतु राजाओं के इस दैवीकरण ने उनकी सत्ता और देश पर नियंत्रण को विशेष रूप से सुदृढ़ नहीं किया। पहले राजाओं की तुलना देवताओं से की जाती थी, किंतु अब देवताओं की तुलना राजाओं से की जाने लगी। पराक्रम की दृष्टि से सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र सातकर्णि की तुलना कई देवताओं से की गई है।
शक और पार्थियन शासकों ने भारत में संयुक्त शासन की प्रथा शुरू की, जिसमें युवराज सत्ता के उपभोग में राजा का समानांतर सहयोगी होता था। शक और कुषाण लोग पार्थियनों के माध्यम से हखामनी राजवंश की क्षत्रप-प्रणाली को भारत में लाए। कुषाणों ने प्रांतों में द्वैध शासकत्व की अनूठी प्रणाली का भी प्रचलन किया।
मौर्योत्तरकालीन राज्य-व्यवस्था की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि ई.पू. दूसरी और पहली शताब्दी में उत्तर भारत में कम से कम एक दर्जन नगर लगभग स्वशासी संगठनों की तरह कार्य करते थे। इन नगरों के व्यापारियों के संघ सिक्के जारी करते थे। हिंद-यूनानी युग से पहले के पाँच सिक्कों में ‘निगम’ शब्द का स्पष्ट उल्लेख मिलता है, जो तक्षशिला में उत्खनन से प्राप्त हुए हैं। गंधिकों (जिनका शाब्दिक अर्थ गंध-विक्रेता है, किंतु वास्तविक अर्थ व्यापारी है) के संघ के सिक्के कोशांबी के आसपास के क्षेत्र में भी पाए गए हैं। त्रिपुरी, महिष्मती, विदिशा, एरण, माध्यमिका, वाराणसी, कोशांबी, भागिल (साँची के निकट), कौरर और संभवतः टगर और अयोध्या से भी सिक्के जारी हुए थे। ये सभी सिक्के ताँबे या इसके मिश्रण से बने थे। ईस्वी सन् की प्रथम दो शताब्दियों के दौरान, जब सातवाहनों और कुषाणों ने अपने राज्य स्थापित किए, तब इन नगरों का स्वायत्त स्वरूप समाप्त हो गया, किंतु शासकों को व्यापारियों के निगमों, जिन्हें ‘निगम सभा’ कहा जाता था, का ध्यान रखना पड़ता था।
मौर्योत्तरकालीन अर्थव्यवस्था
भूमि एवं कृषक
मौर्यों द्वारा अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों पर स्थापित नियंत्रण मौर्योत्तर काल में नहीं दिखाई देता। संभवतः इस काल में भूमि पर किसानों का निजी स्वामित्व था और कृषि क्षेत्रों के विस्तार में राजकीय प्रयासों का स्थान अब निजी प्रयासों ने ले लिया था। मिलिंदपंहो में एक ऐसे व्यक्ति का उल्लेख है, जो भूमि को कृषि-योग्य बनाने के लिए जंगल साफ करता है और अन्य कदम उठाता है। वह भूमि का उपयोग करता है, इसलिए उसे उसका स्वामी माना जाता है। मनु ने भी इसकी पुष्टि की है। उनके अनुसार ऋषिगण उस भूमि को उसी का मानते हैं, जिसने जंगल को काट-कूटकर साफ किया हो और आखेटित हिरण को उसी का मानते हैं, जिसने उसे पहले घायल किया हो। यह संभवतः कृषि को प्रोत्साहन देने के लिए कहा गया था।
दिव्यावदान में किसानों की विशाल संख्या को कठोर श्रम करते हुए और खेती के कार्यों में संलग्न दिखाया गया है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि राज्य का कोई स्वामित्व नहीं था। मिलिंदपंहो में पृथ्वी पर स्थित सभी शहरों, समुद्रतटों, खानों आदि पर राजा के स्वामित्व को मान्यता दी गई है, जिससे सामान्य क्षेत्रीय प्रभुसत्ता का संकेत मिलता है। स्पष्ट है कि राज्य अपने स्वामित्व के अधिकार का उपयोग करता था।
सातवाहन शासकों ने ब्राह्मणों और बौद्ध श्रमणों को राजस्व और प्रशासनिक करों से मुक्त भूमि प्रदान करने की प्रथा शुरू की, जिससे केंद्रीय सत्ता धीरे-धीरे कमजोर हुई। यद्यपि पूर्ववर्ती साहित्य में पुरोहितों को भूमिदान का उल्लेख मिलता है, किंतु अभिलेखों में भूमिदान का प्रथम प्रमाण ई.पू. पहली शताब्दी का है, जब सातवाहनों ने महाराष्ट्र में अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर पुरोहितों को एक गाँव दान दिया था। पहले ये दान केवल कर-मुक्त होते थे, किंतु धीरे-धीरे दानग्रहीता को प्रशासनिक अधिकार भी दिए जाने लगे। प्रशासनिक अधिकार सबसे पहले सातवाहन शासक गौतमीपुत्र सातकर्णि (द्वितीय शताब्दी ई.पू.) ने छोड़े थे। ऐसे आवंटित भूखंडों में न तो राजकीय सेना प्रवेश कर सकती थी, न सरकारी कर्मचारी हस्तक्षेप कर सकते थे, और न ही जिला पुलिस कोई बाधा उत्पन्न कर सकती थी।
यद्यपि ये अनुदान प्रायः धार्मिक दायित्वों के लिए प्रेरित थे, किंतु कुछ अनुदान परती भूमि पर खेती शुरू करने के उद्देश्य से भी दिए जाते थे। पश्चिमी दकन से प्राप्त 130 ई. के एक सातवाहन अभिलेख में कुछ बौद्ध भिक्षुओं को राजकीय भूखंडों के अनुदान का उल्लेख है। इस अभिलेख में कहा गया है कि “जब तक भूमि पर खेती नहीं की जाती, तब तक गाँव नहीं बसाया जा सकता” (त च खेत न कसते चे गामो न वसति)। दान में दिए गए ऐसे ग्राम राज्य के भीतर अर्ध-स्वतंत्र क्षेत्र बन गए, जिसके परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों पर राजा का नियंत्रण धीरे-धीरे कम होता गया।
संभवतः इस काल में कृषि को संरक्षण देने के लिए राज्य द्वारा प्रयास किए गए। मनु ने लिखा है कि ब्राह्मणों के लिए बिना जुती जमीन लेना उतना पाप नहीं, जितना जुती जमीन लेना। खारवेल ने कलिंग में एक पुरानी नहर का विस्तार किया और रुद्रदामन ने सौराष्ट्र में सुदर्शन झील की मरम्मत कराई। इस समय नहरों का उपयोग कम होता था, और सिंचाई मुख्यतः कुओं और तालाबों द्वारा की जाती थी। शक और कुषाण सरदारों ने उत्तर-पश्चिम भारत में संभवतः कुछ सरोवरों का निर्माण करवाया। कुछ व्यक्तियों ने उत्तर प्रदेश में धार्मिक उद्देश्यों से तालाब बनवाए, जहाँ ईस्वी सन् की प्रारंभिक दो शताब्दियों में धर्मार्थ सरोवर बनाने की प्रथा प्रचलित थी।
गाथासप्तशती से पता चलता है कि सिंचाई के लिए रहट का प्रयोग इसी काल में प्रारंभ हुआ। मनु ने निर्देश दिया है कि व्यक्तियों के मकानों, तालाबों, फलोद्यानों, और खेतों को दूसरों द्वारा कब्जा किए जाने से रोका जाए। राजा को कृषि उपकरणों की चोरी, दूषित बीज बेचने, पहले बोए गए बीजों को निकालने और सीमा-चिह्नों को नष्ट करने के अपराधों के लिए अंगभंग जैसे दंड देने का प्रावधान था। इसके बदले राज्य किसानों से कर वसूल करता था। मिलिंदपंहो में गामसामिक (गाँव का मुखिया) का उल्लेख है, जो सभी गृहस्वामियों को बुलाकर राजा की ओर से कर वसूल करता था।
मौर्योत्तरकालीन व्यापार और वाणिज्य
आर्थिक दृष्टि से इस काल में व्यापार और वाणिज्य का उल्लेखनीय विकास हुआ। व्यापार को प्रोत्साहन देने वाले प्रमुख कारक थे: नगरीय और ग्रामीण क्षेत्रों में नए वर्गों का उदय, रोम और चीन के साथ व्यापारिक संबंधों का विकास और दक्षिण-पूर्व एशिया के मसालों के साथ व्यापारिक जुड़ाव। विदेशों में भारतीय वस्तुओं की माँग बढ़ रही थी। इस काल में पश्चिम में रोमन साम्राज्य और उत्तर में चीन में हान साम्राज्य का विकास हो रहा था।
रोमन साम्राज्य में पूर्व के उत्पादों—जैसे गरम मसाले, सुगंधित लकड़ी, रेशम और अन्य वस्त्रों की माँग थी। इसी प्रकार हान साम्राज्य ने व्यापारियों को प्रोत्साहन दिया, जिससे भारत, मध्य एशिया और चीन के बीच संपर्क बढ़े। बढ़ते विदेशी व्यापार ने स्थानीय आभूषण निर्माताओं, वस्त्र उत्पादकों और कृषकों को विविध व्यापार-योग्य वस्तुओं के उत्पादन के लिए प्रेरित किया।
रोमन साम्राज्य के उदय से ई.पू. पहली शताब्दी में भारतीय व्यापार को काफी प्रोत्साहन मिला, क्योंकि इसका पूर्वी भाग भारत में निर्मित विलासिता की वस्तुओं का बड़ा ग्राहक बन गया। रोमवासी मुख्य रूप से मसालों का आयात करते थे, जिनमें दक्षिण भारत की काली मिर्च, जिसे ‘यवनप्रिय’ कहा जाता था, विशेष रूप से प्रसिद्ध थी। रोमन साम्राज्य की मसालों की आवश्यकता केवल भारतीय सामग्री से पूरी नहीं होती थी, इसलिए भारतीय व्यापारी दक्षिण-पूर्व एशिया से संपर्क स्थापित करने लगे।
इसके अतिरिक्त, लोहे की वस्तुएँ (विशेषकर बर्तन), मलमल, कीमती पत्थर, हाथी दाँत और पाकशाला की वस्तुएँ रोम भेजी जाती थीं। मध्य और दक्षिण भारत से मलमल, मोती और मणि-माणिक्य का निर्यात होता था। ये सभी संगठित व्यापार का हिस्सा थे। रेशम भी एक महत्त्वपूर्ण वस्तु थी। भारतीय व्यापारी चीन से कच्चा रेशम, रेशमी वस्त्र और रेशम के धागे खरीदकर रोमन व्यापारियों तक पहुँचाते थे। पेरीप्लस ऑफ दि एरिथ्रियन सी से पता चलता है कि भारत रोमन साम्राज्य को मोती, हाथी दाँत, तोते, शेर और चीते निर्यात करता था। इसके बदले, रोमवासी भारत को सुराहीनुमा मदिरा-पात्र (एम्फोरा) और लाल चमकीले ऐरेटाई मृद्भांड निर्यात करते थे, जिनके अवशेष पश्चिम बंगाल के तामलुक, पांडिचेरी के निकट अरिकामेडु और दक्षिण भारत के कई स्थानों की खुदाई से प्राप्त हुए हैं।
तमिल कवि नाविकयार ने लिखा है कि स्थानीय शासकों के लिए पश्चिमी देशों से सुरा और सुंदरियों का आयात किया जाता था। व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में था और अपने निर्यात के बदले भारत में अन्य सामानों के साथ-साथ रोम से भारी मात्रा में सोने और चाँदी के सिक्के आयात होते थे। प्रायद्वीपीय भारत में अब तक रोमन सिक्कों के 129 संग्रह मिले हैं। प्लिनी ने बार-बार दुख प्रकट किया है कि भारत के साथ व्यापार के कारण रोम का सोना भारी मात्रा में बाहर चला जा रहा था।
मौर्योत्तरकालीन व्यापारिक मार्ग
मौर्यों ने आंतरिक यातायात के साधनों और मार्गों को विकसित कर व्यापार की प्रगति का आधार तैयार किया था। पाटलिपुत्र को तक्षशिला से जोड़ने वाला मार्ग मौर्यों की देन था। स्थल मार्ग से पाटलिपुत्र ताम्रलिप्ति से जुड़ा था, जो बर्मा और श्रीलंका के जहाजों के लिए प्रमुख बंदरगाह था। उत्तरापथ तक्षशिला से होकर आधुनिक पंजाब, यमुना के तट और मथुरा तक जाता था, फिर मथुरा से उज्जैन में एक अन्य मार्ग से मिलता था, जो भृगुकच्छ (भड़ौच) तक जाता था।
दक्षिण भारत के स्थल मार्गों का विकास मौर्योत्तर काल में हुआ। दक्षिणापथ में एक मार्ग अवंति से विंध्य क्षेत्र पार करता हुआ अमरावती तक पहुँचता था, दूसरा प्रतिष्ठान से नासिक, तीसरा भृगुकच्छ से सोपारा और कल्याण और चौथा मुसिरी से पुहार तक जाता था। ये मार्ग नदी-घाटियों, तटीय प्रदेशों और पर्वतीय दर्रों के साथ विकसित किए गए थे।
विदेशी आक्रांताओं के कारण भारत के विभिन्न भाग मध्य एशिया और पश्चिम एशिया को जाने वाले व्यापारिक मार्गों से जुड़ गए। एक स्थल मार्ग तक्षशिला से काबुल तक जाता था, जहाँ से विभिन्न दिशाओं में मार्ग थे। उत्तरवर्ती मार्ग बैक्ट्रिया से होकर कैस्पियन सागर और कृष्ण सागर तक जाता था। मध्य एशिया से एक व्यापारिक मार्ग, जिसे ‘रेशम मार्ग’ कहा जाता था, चीन को रोमन साम्राज्य के पश्चिमी प्रांतों से जोड़ता था। इस मार्ग से रेशम का समस्त व्यापार होता था।
ईस्वी सन् की पहली शताब्दी (46 ई.) में हिप्पालस नामक ग्रीक नाविक ने अरब सागर में चलने वाली मानसून हवाओं की जानकारी दी, जिससे भारत और पश्चिमी एशिया के बंदरगाहों के बीच यात्रा का समय कम हो गया। पश्चिम और दक्षिण भारत का व्यापार दक्षिण अरब, लाल सागर और एलेक्जेंड्रिया से होता था।
मौर्योत्तरकालीन व्यापारिक केंद्र और बंदरगाह
पेरीप्लस के अनुसार सिंधु नदी के पास वारविकम नामक एक व्यापारिक प्रतिष्ठान था। सोपारा (सुरपराक) कल्याण का एक बंदरगाह था। पेरीप्लस में बेरीगाजा (भड़ौच) का भी उल्लेख है, जो उस काल का सबसे महत्त्वपूर्ण बंदरगाह था। भड़ौच से सुंदर कुमारियों का आयात होता था।
कौंडोक साइला (घंटाशाला) और निट्रिग आंध्र प्रदेश के तट पर स्थित थे। पोलूरा कलिंग (आधुनिक उड़ीसा) में था। उड़ीसा में ही फ्लूरो (दंतपुर) नामक नगर था, जो हाथी दाँत के लिए प्रसिद्ध था। टेमाटाइलस निचली गंगा पर स्थित था। मालाबार तट पर मुजिरस और तमिल तट पर पुहार (कावेरीपट्टनम) बंदरगाह थे। टॉल्मी के अनुसार तमिल तट पर नेगपट्टनम एक अन्य बंदरगाह था। पेरीप्लस और टॉल्मी में समिल्ला (चौल), नौरा (कन्नौर या मंगलौर), टिंडीस, कारालुगी और मुजिरस जैसे अन्य बंदरगाहों का उल्लेख है। अरिकामेडु को पेरीप्लस में पेडूक कहा गया है, जहाँ खुदाई में एक विशाल रोमन बस्ती के प्रमाण मिले हैं। बैक्ट्रिया, सीरिया और एलेक्जेंड्रिया मुख्य व्यापारिक डिपो थे। अरब से घोड़े आयात किए जाते थे। परिपतन (देवल) सिंधु का बंदरगाह था।
मौर्योत्तरकालीन मुद्रा-प्रणाली
कुछ विद्वानों का मानना है कि प्रायद्वीपीय भारत में लोग सोने या चाँदी की मुद्रा का उपयोग नहीं जानते थे। वास्तव में ई.पू. और ईस्वी सन् की प्रारंभिक शताब्दियों में व्यापार के विकास के साथ मुद्रा-प्रणाली में उल्लेखनीय प्रगति हुई। रोम से आने वाला सोना अधिकतर सर्राफ के काम आता था और संभवतः बड़े व्यापारिक लेन-देन में भी प्रयुक्त होता था।
ईसा से पाँच सौ वर्ष पहले भारतीय क्षत्रप फारस के साम्राज्य को प्रतिवर्ष 320 टैलेंट सोना भेंट (शुल्क) के रूप में देते थे। जब पश्चिमी जगत में स्वर्ण मुद्राओं का प्रचलन हुआ, तो भारतीय राजाओं ने व्यापार में सुविधा और राष्ट्रीय मान को बनाए रखने के लिए सोने के सिक्के जारी किए।
व्यापारिक विकास के साथ मौद्रिक व्यवस्था में परिवर्तन और बड़ी संख्या में सिक्कों का प्रचलन इस युग का विशिष्ट लक्षण रहा। आंध्रों के समय के कुछ चाँदी के सिक्के और अभिलेखीय साक्ष्य चाँदी के पणों के चलन का संकेत देते हैं। उत्तर में इंडो-ग्रीक शासकों ने सोने के सिक्के चलाए और कुषाण शासकों ने इनका बड़े पैमाने पर उपयोग किया। सिंधु क्षेत्र और संभवतः धालभूम की सोने की खानों पर कुषाणों का अधिकार था। भारत और रोमन साम्राज्य के व्यापारिक संबंधों के कारण भारी मात्रा में रोमन स्वर्ण मुद्राएँ भारत में आईं।

इंडो-ग्रीक शासकों ने ‘द्रकम्मा’ नामक सिक्का चलाया। कुछ यूनानी शासकों और शकों ने चाँदी के सिक्के चलाए, किंतु कुषाणों के चाँदी के सिक्के नहीं मिले हैं। पेरीप्लस के अनुसार दक्षिणापथ में इंडो-ग्रीक और शकों के सिक्के प्रचलित थे। कुषाण सिक्के अपनी बनावट और योजना में पह्लव सिक्कों से कहीं अधिक सुंदर हैं। कुषाणकालीन ठप्पा बनाने की कला में पश्चिमी शैली का स्पष्ट अनुकरण दिखाई देता है। रोमन मुद्रा ऑरई अंतरराष्ट्रीय व्यापार में स्वीकृत थी, इसलिए कुषाण शासकों ने इनके तौल और मान का अनुकरण किया। कुषाणों की सोने की दीनार मुद्राएँ प्रायः रोम के ऑरई सिक्कों के तौल और मान के निकट थीं। कुषाण सिक्कों का औसत वजन 123.2 ग्राम था, जबकि इंडो-ग्रीक के सोने के सिक्के का वजन 134.4 ग्राम था। सिक्कों को ढालने और ठप्पा अंकित करने से पहले साफ करने की प्रक्रिया का वर्णन मिलिंदपंहो जैसे ग्रंथों में मिलता है। सोने के सिक्के निष्क, सुवर्ण और पण कहलाते थे; चाँदी के सिक्के शतमान, पूरण और धरण; तथा ताँबे और रांगे के सिक्के काकणि कहलाते थे।
सातवाहन नरेशों ने भी विभिन्न प्रकार के सिक्के प्रचलित किए। अवंति से प्राप्त एक सातवाहन ताँबे के सिक्के पर नाव का चिह्न है। सातवाहनों ने सीसे के सिक्के भी चलाए। कार्षापण सोना, चाँदी, ताँबा और सीसा चारों धातुओं में होता था। कनिष्क के सिक्कों पर 35 देवताओं का अंकन है, जिनमें बौद्ध देवता (अद्वैत बुद्ध, शाक्यमुनि), ब्राह्मण देवता (महासेन, स्कंद, कुमार, विशाख, उमा, वरुण), और ईरानी देवता (मिथ्र, हेलियोस, शेलेन, हेराक्लीज) शामिल हैं।
इस काल से प्राप्त बड़ी संख्या में मुद्राएँ न केवल समृद्धि का प्रतीक हैं, बल्कि व्यापारिक गतिविधियों के विस्तार को भी दर्शाती हैं। संभवतः सोने और चाँदी के सिक्के दैनिक जीवन में प्रयुक्त नहीं होते थे। पतंजलि ने दैनिक मजदूरों को निष्कों में भुगतान का उल्लेख किया है, किंतु ये संभवतः सोने के सिक्के नहीं थे। दैनिक व्यापारिक उपयोग के लिए कुषाण शासकों, नाग शासकों और अन्य देशी राजवंशों (यौधेय, कोशांबी, मथुरा, अवंति और अहिछत्र के मित्र राजवंश) ने ताँबे के सिक्के प्रचलित किए। इस युग में मुद्रा-अर्थव्यवस्था शहरों और आसपास के क्षेत्रों में अभूतपूर्व गहराई तक प्रवेश कर चुकी थी।
भारतीय मुद्रा की कलात्मकता पर विदेशी विजेताओं का गहरा प्रभाव पड़ा। बैक्ट्रियाई शासकों के सिक्कों पर शासक की आकृति और नाम उत्कीर्ण होता था। प्रारंभिक सिक्कों में प्रदर्शित पौराणिक कथाएँ ग्रीक थीं। अब सिक्कों पर उत्कीर्ण आकृतियाँ ग्रीक स्रोतों से ली जाने लगीं और कथाएँ खरोष्ठी और ग्रीक दोनों लिपियों में लिखी जाने लगीं। मुद्राओं की यह कलात्मकता और विनिमय में नियमित उपयोग इस युग की एक बड़ी देन है।
मौर्योत्तरकालीन शिल्प और उद्योग
मौर्योत्तर काल में कलाओं और शिल्पों पर राज्य का नियंत्रण नहीं था, जिसके परिणामस्वरूप उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों में तकनीकी विकास हुआ। प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथों और अर्थशास्त्र में दस्तकारों की उतनी विविधता नहीं दिखती, जितनी इस काल में देखने को मिलती है। दीघनिकाय में लगभग दो दर्जन व्यवसायों का उल्लेख है। ई.पू. दूसरी शताब्दी के बौद्ध ग्रंथ महावस्तु में राजगृह नगर में 36 प्रकार के कामगारों की सूची दी गई है।
मिलिंदपंहो में 75 विभिन्न व्यवसायों का उल्लेख है, जिनमें से 60 शिल्पों से संबंधित हैं। इनमें आठ शिल्प धातु-उत्पादों—सोना, चाँदी, सीसा, टीन, ताँबा, पीतल, लोहा और हीरा-जवाहरात से जुड़े थे। एक विशेष प्रकार की पीतल (आरकूट), जस्ता, सुरमा, और लाल संखिया का भी उल्लेख है। पतंजलि के महाभाष्य से भी विविध शिल्पों का ज्ञान होता है। उद्योगों के विकास ने शिल्पों में विशिष्टीकरण को प्रोत्साहित किया, जिससे तकनीकी कौशल बढ़ा।
इस काल में सूती और रेशमी वस्त्रों, हथियारों और विलासिता की वस्तुओं के निर्माण में काफी प्रगति हुई। बुद्ध की विमाता गौतमी ने वस्त्र-निर्माण की पाँच प्रक्रियाओं का उत्तरदायित्व लिया था। दिव्यावदान में खालिकचक्र (तेल पेरने के लिए कोल्हू) का उल्लेख है, जिससे तेल निकालने के काम में प्रगति का पता चलता है। चीनी रेशम के आयात से रेशम उद्योग को प्रोत्साहन मिला। शिल्पी गाँवों में भी बसते थे। स्वर्णकार, बढ़ई (वर्धकी), माली (मालाकार), बाँस के टोकरी निर्माता (बेसकार), गंधिक, मछुआरे (धनक), कुम्हार (कुलाल), लुहार, धनुष-निर्माता (धनुषकार) और रंगरेज (रंजक) जैसे व्यवसायों से संबंधित लोगों के गाँवों में निवास करने का उल्लेख मिलता है। तेलंगाना के करीमनगर गाँव में विभिन्न शिल्पी अलग-अलग बसते थे।
धातुकर्म के क्षेत्र में पर्याप्त विकास और विशिष्टीकरण हुआ। विशेष रूप से लोहे की ढलाई के तकनीकी ज्ञान में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। पेरीप्लस के अनुसार, भारतीय इस्पात इतना विकसित था कि वह विश्व में अद्वितीय था और अरियाका (काठियावाड़) से पूर्वी अफ्रीका भेजा जाता था। आंध्र क्षेत्र में करीमनगर और नालगोंडा जिलों से बहुत सी लोहे की सामग्रियाँ प्राप्त हुई हैं। प्लिनी के अनुसार भारत में पीतल और सीसे का उत्पादन नहीं होता था।
देश के विभिन्न क्षेत्र विभिन्न वस्तुओं के लिए प्रसिद्ध थे। मथुरा और वाराणसी कपड़ा उत्पादन के प्रमुख केंद्र थे। पतंजलि के अनुसार मथुरा शाटक (एक विशेष प्रकार का कपड़ा) के निर्माण के लिए विख्यात था। महाभारत, मिलिंदपंहो और दिव्यावदान के अनुसार गंगा बेसिन, वाराणसी, कोयम्बटूर और अपरान्त (महाराष्ट्र) में विभिन्न प्रकार के सूती वस्त्र निर्मित होते थे। मगध वृक्षों के रेशों से बने वस्त्रों और बंगाल मलमल के लिए प्रसिद्ध था। बंग और पुंड्र क्षेत्र के मलमल को गंगई कहा जाता था। मसिलिया और अरगुरु (उरैयूर) भी मलमल के लिए विख्यात थे। मनु ने बुनकरों के उत्पाद पर कर लगाने की व्यवस्था दी है।
कुछ दक्षिण भारतीय नगरों में रंगरेजी एक महत्त्वपूर्ण व्यवसाय था। तमिलनाडु के तिरुचिरपल्ली के उपनगर उरैयूर में ईंटों से बनी एक रंगाई की टंकी खुदाई में मिली है। ऐसी ही टंकियाँ अरिकामेडु में भी पाई गई हैं। मगध में लोहा प्रचुर मात्रा में था और बाहर भेजा जाता था। राजस्थान में ताँबे की खानें थीं। हिमालय की ढलानों में कस्तूरी और केसर का उत्पादन होता था। पंजाब की नमक की पहाड़ी नमक का प्रमुख स्रोत थी। दक्षिण भारत में मसाले, सोना, रत्न और चंदन की लकड़ी प्राप्त होती थी। कश्मीर, कोसल, विदर्भ और कलिंग हीरों के लिए विख्यात थे। प्लिनी ने भारत को रत्नों की एकमात्र जननी और सबसे महँगी वस्तुओं की जन्मदात्री कहा है। पेरीप्लस के अनुसार मोती कोलची (कोरकोई क्षेत्र) और निचली गंगा से और टॉल्मी के अनुसार, सुदूर दक्षिण और पेरीमोला (चौल) बंदरगाह से प्राप्त होते थे। हीरे कोसा (बैराट), सबराई (संबलपुर) और एडम नदी के मुहाने से प्राप्त किए जाते थे। गोमेद और कालोनियन दक्कन के पहाड़ों में पाए जाते थे। महाभारत से पता चलता है कि सोना दक्षिण-पूर्व एशिया, छोटानागपुर और असम की नदियों की रेत से प्राप्त होता था। पेरीप्लस के अनुसार सुवर्ण (बुलियन) फारस की खाड़ी से पूर्वी अरब होकर पश्चिम भारत में आता था। उज्जैन मनके बनाने का प्रमुख केंद्र था, जहाँ अर्ध-बहुमूल्य पत्थरों, काँच, हाथी दाँत और मिट्टी के मनके बनाए जाते थे। अफगानिस्तान के प्राचीन कपिसा में हाथी दाँत की आकृतियाँ भारी संख्या में प्राप्त हुई हैं।
श्रेणी, संघ और निगम
व्यापारिक प्रगति के परिणामस्वरूप उत्पादन और वितरण की व्यवस्था को संगठित करने की आवश्यकता ने शिल्प-श्रेणियों के महत्त्व को उजागर किया। श्रेणियों के सबसे प्रारंभिक अभिलेखीय साक्ष्य मौर्योत्तर काल में मथुरा क्षेत्र और पश्चिमी दक्कन के अभिलेखों में मिलते हैं। विभिन्न शिल्पकारों और व्यापारियों ने अपने मुखिया के नेतृत्व में श्रेणियाँ, निगम, पूग, और सार्थ जैसे संगठन बनाए।
‘श्रेष्ठि’ वित्तीय व्यवस्था की देखरेख करते थे। ‘श्रेणी’ एक सामान्य शब्द था, जिसमें सभी प्रकार के गिल्ड शामिल थे। व्यापारियों का संघ ‘निगम’ कहलाता था। ‘पूग’ किसी विशेष क्षेत्र के विभिन्न व्यापारियों, शिल्पियों और व्यवसायियों के हितों का संरक्षण करता था। ‘सार्थ’ पारगमन व्यापार से जुड़ा था और एक सार्थवाह नामक प्रमुख के अधीन होता था। विक्रेता और क्रेता के बीच सौदेबाजी ‘पणितव्य’ कहलाती थी।
श्रेणी सदस्यों के व्यवहार को एक श्रेणी न्यायाधिकरण के माध्यम से नियंत्रित करती थी। श्रेणी धर्म को कानून के समान मान्यता प्राप्त थी। श्रेणी अपने सदस्यों के व्यक्तिगत जीवन में भी हस्तक्षेप करती थी। उदाहरण के लिए यदि कोई विवाहित स्त्री भिक्षुणी बनकर संघ में शामिल होना चाहती थी, तो उसे पति और उसकी श्रेणी दोनों की अनुमति लेनी पड़ती थी। गौतम के अनुसार व्यापारियों और शिल्पियों को अपने सदस्यों को नियंत्रित करने के लिए विधि बनाने का अधिकार था। श्रेणी एक अध्यक्ष या मुखिया के अधीन होती थी, जिसे परामर्श देने के लिए 2, 3, या 5 सदस्यों की समिति (समुकहितवादिन) होती थी। बृहस्पति के अनुसार संघ प्रमुख को दोषी सदस्यों को दंडित करने का अधिकार था। सामान्यतः राजा श्रेणी के विधि निर्माण में हस्तक्षेप नहीं करता था, किंतु अध्यक्ष और समिति के बीच विवाद होने पर राजा निर्णय दे सकता था।
श्रेणियों की सदस्यता शिल्पकारों और कामगारों को समाज में प्रतिष्ठा और सुरक्षा प्रदान करती थी। प्रत्येक श्रेणी का अपना सैनिक बल, तमगा, पताका, और मुहर होती थी। श्रेणियाँ कभी-कभी धरोहर रखने और महाजनी का कार्य भी करती थीं। धार्मिक आधार पर उदारतापूर्वक दान देना श्रेणियों के विज्ञापन का सर्वोत्तम तरीका था। पश्चिमी दक्कन, साँची, भरहुत, मथुरा और बोधगया के अभिलेखों में अत्तार, जुलाहे, स्वर्णकार आदि की श्रेणियों द्वारा बौद्ध भिक्षुओं को गुफाएँ, स्तंभ, शिलाएँ और हौज दान देने का उल्लेख है।
मथुरा क्षेत्र के एक लेख में उल्लेख है कि एक प्रमुख ने आटा पीसने वालों की श्रेणी के पास कुछ राशि जमा कराई थी, जिसके मासिक ब्याज से प्रतिदिन सौ ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था। पश्चिमी दक्कन में गोवर्धन नगर शिल्प-श्रेणियों का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था। दूसरी शताब्दी के एक सातवाहन लेख में उल्लेख है कि बौद्ध धर्म के अनुयायी कुम्हारों, तेलियों और बुनकरों के पास पण (चाँदी के सिक्के) जमा कराते थे, ताकि भिक्षुओं के लिए अन्न, वस्त्र आदि उपलब्ध कराए जा सकें। स्पष्ट है कि श्रेणियाँ इस जमा धन का उपयोग कच्चा माल और औजार खरीदने, उत्पादन बढ़ाने और बिक्री से प्राप्त आय से पूँजी पर ब्याज देने के लिए करती थीं।
संभवतः उत्पादन में वृद्धि के लिए श्रेणियों ने अपने कारीगरों के अतिरिक्त बाहरी कारीगरों को भी बुलाया होगा। मौर्यकाल की तुलना में इस काल में कारीगरों को अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। अपने धन के कारण मौर्योत्तर प्रशासनिक व्यवस्था में व्यापारियों और शिल्पकारों की श्रेणियों का महत्त्वपूर्ण योगदान था। कई नगरों में उन्होंने अपने सिक्के तक प्रचलित किए, जो सामान्यतः शासकों का कार्य था।
बाट, माप और विनिमय
प्राचीन काल के बाटों में प्रस्थ, आढ़क, द्रोण, और खारी शामिल थे, जो क्रमशः बढ़ते क्रम में थे। खारी और द्रोण अनाज के माप थे। अर्थशास्त्र में पल, माष, कर्षापण, सर्प और कुडव जैसे अन्य बाटों का उल्लेख है। कुडव अनाज का माप था, जो लकड़ी या लोहे का बना होता था। दिव्यावदान में अंजलि, मनिका, विलभागम और प्रबोध का उल्लेख है। उत्तरकालीन अभिलेखों में मणि, पलिका, तली और तुला जैसे स्थानीय मापों का उल्लेख है। काल और स्थान से संबंधित मापों में अक्ष, पद, अरत्नी, प्रदेश, वित्सती और दिष्टि महत्त्वपूर्ण हैं। मिलिंदपंहो में जाली बाटों का उल्लेख है, जिनका प्रयोग निषिद्ध था।
महाजनी व्यवस्था
प्रारंभिक धर्मसूत्रों में ब्याज की चर्चा मिलती है। सामान्यतः प्रचलित दर 1.25 प्रतिशत मासिक (15 प्रतिशत वार्षिक) थी, किंतु विभिन्न सूत्रकारों ने अलग-अलग दरें बताई हैं। गौतम इसे 2 प्रतिशत मासिक मानता है। मनु ने विभिन्न वर्णों के लिए अलग-अलग दरें दी हैं: ब्राह्मण के लिए 2 प्रतिशत, क्षत्रिय के लिए 3 प्रतिशत, वैश्य के लिए 4 प्रतिशत और शूद्र के लिए 5 प्रतिशत मासिक। असुरक्षित कर्ज के लिए दर अधिक थी। अर्थशास्त्र के अनुसार सामान्य कर्ज की दर 5 प्रतिशत मासिक थी, किंतु जंगल से गुजरने वाले से 10 प्रतिशत और समुद्र-यात्रा करने वाले से 20 प्रतिशत मासिक लिया जाता था। जब सूद की राशि उधार ली गई रकम से अधिक हो जाती थी, तो सूद की अदायगी बंद हो जाती थी। पति अपनी पत्नी के ऋण के लिए उत्तरदायी था, किंतु पत्नी पति के ऋण के लिए नहीं।
शहरी केंद्रों का विकास
मौर्योत्तर काल शहरीकरण के साक्ष्यों की दृष्टि से अभूतपूर्व था। मुद्रा-व्यवस्था, शिल्पकला और व्यापार की प्रगति के परिणामस्वरूप देश में कई नगरों का विकास हुआ। वाराणसी कपड़ा उत्पादन और हाथी दाँत का महत्त्वपूर्ण केंद्र था। वैशाली (उत्तरी बिहार) से प्राप्त मुहरें व्यापारिक गतिविधियों को दर्शाती हैं। तामलुक और चंद्रकेतुगढ़ बंगाल के प्रमुख व्यापारिक केंद्र थे। उज्जैन मनका उत्पादन के लिए विख्यात था।
ईस्वी सन् की प्रथम तीन शताब्दियों में गंगा घाटी, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे क्षेत्रों में शहरीकरण अपने उत्कर्ष पर था। कुषाण और सातवाहन स्थलों की खुदाई में भवनों की अच्छी संरचना मिली है। इस काल में कई स्थानों पर छत बनाने के लिए पकी टाइलों का उपयोग हुआ। उत्तर प्रदेश के उत्तर-पूर्वी भाग में मथुरा और सिद्धार्थनगर जिले के गनवरिया जैसे स्थानों पर पकी ईंटों की कंक्रीट में चूना मिलाकर फर्श बनाया जाता था, जिससे सुर्खी के उपयोग का संकेत मिलता है। पके खपड़ों का उपयोग छाजन के लिए होने के प्रमाण भी मिलते हैं। इससे स्पष्ट है कि ईस्वी सन् की प्रारंभिक शताब्दियों में निर्मित भवन ठोस और टिकाऊ थे।










