उत्तरी भारत में कुषाणों के पतन और गुप्तों के उदय से पूर्व के काल को स्मिथ जैसे इतिहासकारों ने ‘अंधकार युग’ कहा था। इसका कारण यह था कि इस काल का इतिहास बहुत स्पष्ट नहीं था। अनेक अभिलेखीय और मुद्रा-साक्ष्यों से पता चलता है कि यह राजनीतिक अशांति और अव्यवस्था का युग था। तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध और चौथी शताब्दी के प्रारंभ में किसी सार्वभौम शक्ति के अभाव में उत्तरी भारत में नई-नई राजनीतिक शक्तियों का उदय हुआ, जो अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रयास कर रही थीं। इस अशांति, अव्यवस्था और अराजकता के काल को वस्तुतः ‘राजनीतिक प्रतिस्पर्धा’ का युग कहा जा सकता है।

प्राक्-गुप्त युग में भारत की राजनैतिक दशा
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इस समय भारत में दो प्रकार के राज्य व्यवस्थाएँ विद्यमान थीं—राजतंत्र और गणतंत्र। इसके अतिरिक्त, कुछ विदेशी शक्तियाँ भी अपने प्रभाव-क्षेत्र का विस्तार करने में सक्रिय थीं। उस समय भारत के विभिन्न क्षेत्रों में शासन करने वाले राज्यों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है:
राजतंत्र
गुप्तों के उदय से पूर्व उत्तर और दक्षिण भारत में अनेक शक्तिशाली राजतंत्रों का अस्तित्व था। उनका विवरण निम्नलिखित है:
नागवंश
कुषाणों के पतन के पश्चात् मध्य भारत और उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में शक्तिशाली नागवंशों का उदय हुआ। गंगाघाटी में कुषाण सत्ता के विनाश का श्रेय नागवंश को दिया जाता है। पुराणों के विवरण से पता चलता है कि पद्मावती, मथुरा, विदिशा, और कांतिपुर में शक्तिशाली नाग कुलों का शासन था। गुप्तों के उदय से पूर्व मथुरा में सात और पद्मावती में नौ नाग राजा शासन कर चुके थे। पुराणों में उल्लिखित है:
नव नागास्तु भोक्ष्यन्ति पुरीं चम्पावतीं नृपाः।
मथुरां च पुरीं रम्यां नागा भोक्ष्यन्ति सप्त वै।
गुप्तों के उदय के समय नागों की तीन प्रमुख शाखाएँ थीं—पद्मावती, मथुरा, और अहिछत्र।
पद्मावती का नागकुल अधिक महत्त्वपूर्ण था। इसकी पहचान मध्य प्रदेश के ग्वालियर के समीप स्थित आधुनिक पद्मपवैया से की जाती है। पद्मावती के नाग अपने कंधों पर शिवलिंग वहन करते थे, इसलिए उन्हें ‘भारशिव’ कहा गया। वाकाटक लेखों में पद्मावती के नागवंशी शासक भवनाग को ‘भारशिवानां महाराज’ कहा गया है। भारशिव नागों ने गंगा नदी के तट पर दस अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था। इनके सिक्कों पर शैव धर्म के प्रतीक त्रिशूल और नंदी का अंकन मिलता है। भारशिवों का वाकाटकों के साथ वैवाहिक संबंध था। भवनाग (लगभग 305 ई.) की पुत्री का विवाह वाकाटक नरेश प्रवरसेन प्रथम के पुत्र के साथ हुआ था। समुद्रगुप्त के समय पद्मावती के भारशिव नागवंश का शासक नागसेन था, जिसका उल्लेख प्रयाग-प्रशस्ति में मिलता है।
मुद्राओं पर दस नागवंशी राजाओं के नाम मिलते हैं, जैसे—भीमनाग, विभुनाग, प्रभाकरनाग, स्कंदनाग, बृहस्पतिनाग, व्याघ्रनाग, वसुनाग, देवनाग, भवनाग और गणपतिनाग। संभवतः इनमें से कुछ पद्मावती और कुछ मथुरा के शासक थे। समुद्रगुप्त के समय मथुरा में गणपतिनाग का शासन था, क्योंकि उनकी अधिकतर मुद्राएँ मथुरा से प्राप्त हुई हैं। संभव है कि गणपतिनाग विदिशा के नागकुल से संबंधित रहा हो, क्योंकि उस समय विदिशा में भी एक नागवंश शासन कर रहा था।
गुप्तों के उदय के समय अहिछत्र में भी संभवतः नागवंश की एक शाखा शासन कर रही थी। समुद्रगुप्त द्वारा पराजित अच्युत नामक शासक की मुद्राएँ नागवंशी शासकों की मुद्राओं से मिलती-जुलती हैं। प्रयाग-प्रशस्ति में नागदत्त नामक एक आर्यावर्त नरेश का उल्लेख है, जो नाम से नागवंशी प्रतीत होता है। अल्तेकर का अनुमान है कि वह गंगा-यमुना दोआब के ऊपरी भाग में कहीं शासन करता था। इस प्रकार, तीसरी शताब्दी के अंत में पद्मावती और मथुरा के नागवंशी मथुरा, आगरा, धौलपुर, कानपुर, ग्वालियर और बाँदा तक फैले थे।
मौखरि वंश
नागों की राजधानी पद्मावती के पश्चिम में लगभग 150 मील की दूरी पर बड़वा (प्राचीन कोटा रियासत, राजस्थान) में तीसरी शताब्दी ई. के प्रथम चरण में मौखरियों की एक शाखा शासन कर रही थी। पाणिनि और पतंजलि मौखरियों से परिचित थे। कनिंघम को गया जिले से एक मिट्टी की मुहर मिली थी, जिस पर मौर्यकाल की ब्राह्मी लिपि में ‘मोखलिनम्’ शब्द अंकित है। इससे मौखरियों की प्राचीनता चौथी शताब्दी ई.पू. तक जाती है। 239 ई. में बड़वा के मौखरि वंश का शासन ‘महासेनापति’ बल के हाथों में था। ‘महासेनापति’ उपाधि से प्रतीत होता है कि मौखरि संभवतः पश्चिमी क्षत्रपों या नागों के सामंत थे। वे वैदिक धर्म के अनुयायी थे। बल के तीन पुत्र थे, जिनमें से प्रत्येक ने एक-एक त्रिरात्र यज्ञ संपन्न किया था। इन यज्ञों की स्मृति में उन्होंने पाषाण-यूपों का निर्माण करवाया था, जिन पर उत्कीर्ण लेख इस वंश के इतिहास के एकमात्र स्रोत हैं।
वर्मन् वंश
मौखरियों की तरह उस समय कुछ अन्य राजवंशों के शासक अपने नाम के अंत में ‘वर्मन्’ शब्द का प्रयोग करते थे। ऐसा एक राजवंश मालवा में शासन कर रहा था, जिसके शासकों का उल्लेख मंदसौर लेख में मिलता है। इसी राजवंश में यशोधर्मन् उत्पन्न हुआ, जो औलिकर वंश से संबंधित था। सुसुनियां पहाड़ी के एक लेख के अनुसार एक अन्य वर्मन् वंश पश्चिमी बंगाल के बांकुड़ा जिले में शासन करता था, जिसकी राजधानी पोखरण थी। इस राजवंश में सिंहवर्मा और चंद्रवर्मा जैसे शासक हुए। चंद्रवर्मा का उल्लेख प्रयाग-प्रशस्ति में मिलता है।
इसके पूर्व में असम (कामरूप) में भी एक वर्मन् वंश शासन कर रहा था, जिसका सुप्रसिद्ध शासक हर्ष का समकालीन भास्करवर्मा था। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि उनके नौवें पूर्वज बलवर्मा की पहचान प्रयाग-प्रशस्ति के बलवर्मा से की जा सकती है।
मघ राजवंश
नागों की राजधानी पद्मावती के दक्षिण-पूर्व में बघेलखंड (रीवा मंडल) में मघों का राज्य था। इस वंश के शासकों के क्रमबद्ध इतिहास और उनके काल की घटनाओं के विषय में अधिक जानकारी नहीं है। इस वंश का प्रथम ज्ञात राजा वासिष्ठीपुत्र भीमसेन था। उनके पुत्र का नाम कौत्सीपुत्र पोठसिरि था, जो एक योग्य शासक था। उनकी राजधानी बंधोगढ़ में थी। लगभग 155 ई. के आसपास इस वंश के भद्रमघ ने कोशांबी को कुषाणों से छीन लिया। शक संवत् 81 (159 ई.) का उनका एक लेख यहाँ से प्राप्त हुआ है। भद्रमघ ने सिक्के भी जारी किए थे। उनके पश्चात् गौतमीपुत्र शिवमघ और फिर वैश्रवण ने शासन किया। वैश्रवण के समय में मघ राज्य फतेहपुर तक विस्तृत हो गया। कोशांबी के मघों ने लगभग 121 प्रकार के सिक्के जारी किए थे। अल्तेकर के अनुसार, 225 ई. से 265 ई. के बीच शतमघ और विजयमघ नामक इस वंश के दो शासकों ने शासन किया।
अन्य राजतंत्र
प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि गुप्तों के उदय से पूर्व उत्तर और उत्तर-पूर्वी भारत में पाँच अन्य राज्य थे—समतट, डवाक, कामरूप, कर्त्तृपुर और नेपाल। समतट से तात्पर्य पूर्वी बंगाल से है। डवाक असम के नवगाँव जिले में स्थित था। कामरूप और नेपाल का आशय आधुनिक असम और नेपाल से है। कर्त्तृपुर की पहचान कुमायूँ जिले के भूतपूर्व कतुरियाराज से की जाती है। इन राज्यों के शासकों के विषय में अधिक जानकारी नहीं है। अयोध्या में भी इस समय एक शक्तिशाली राजतंत्र था। अयोध्या से प्राप्त सिक्कों में धनदेव, विशाखदेव, मूलदेव आदि राजाओं के नाम मिलते हैं।
वाकाटक राजवंश
इस राजवंश की स्थापना तीसरी शताब्दी ई. के मध्य विष्णुवृद्धि गोत्र के ब्राह्मण विंध्यशक्ति ने की थी। उनके पूर्वज सातवाहनों के अधीन बरार के स्थानीय शासक थे। सातवाहनों के पतन के बाद विंध्यशक्ति ने अपनी स्वतंत्रता घोषित की। उनका साम्राज्य विंध्य पर्वत के उत्तर में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। गुप्तों के उदय के समय प्रवरसेन प्रथम वाकाटकों का शक्तिशाली शासक था, जिसने ‘सम्राट’ की उपाधि धारण की थी। पुराणों के अनुसार उन्होंने चार अश्वमेध यज्ञ संपन्न किए। इस समय वाकाटकों का साम्राज्य उत्तर में मध्य प्रदेश और बुंदेलखंड से लेकर दक्षिण में उत्तरी हैदराबाद तक फैला था।
पल्लव राजवंश
दक्षिण भारत की एक महत्त्वपूर्ण शक्ति पल्लव वंश की थी। ऐसा प्रतीत होता है कि वाकाटकों की तरह पल्लव भी प्रारंभ में सातवाहनों के अधीन थे, किंतु बाद में स्वतंत्र हो गए। उनकी राजधानी काँची (आधुनिक कांचीपुरम, तमिलनाडु) में थी। उत्तर की ओर उनके साम्राज्य में आंध्र प्रदेश का एक भाग शामिल था। पश्चिम में उनका साम्राज्य पश्चिमी समुद्रतट तक विस्तृत था। पल्लव वंश के प्रारंभिक राजाओं में स्कंदवर्मन का नाम मिलता है। समुद्रगुप्त के समय पल्लव वंश का शासक विष्णुगोप था।
अन्य दक्षिणी राजतंत्र
वाकाटकों और पल्लवों के अतिरिक्त दक्षिणापथ में अन्य कई शक्तियाँ सक्रिय थीं। दक्षिण-पश्चिम में सातवाहनों के बाद आभीर, आंध्र प्रदेश में इक्ष्वाकु और कुंतल में चुटुशातकर्णि वंशों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की थी।
आभीर
इस वंश का संस्थापक ईश्वरसेन था, जिसने लगभग 248-249 ई. में कलचुरि-चेदि संवत् की स्थापना की। उनके पिता का नाम शिवदत्त था। नासिक से उनके शासनकाल के नौवें वर्ष का एक लेख मिला है, जिससे पता चलता है कि नासिक क्षेत्र पर उनका अधिकार था। अपरान्त और लाट प्रदेश पर भी उनका प्रभाव था, क्योंकि वहाँ कलचुरि-चेदि संवत् का प्रचलन था। आभीरों का शासन चौथी शताब्दी ई. तक चला।
इक्ष्वाकु
इस वंश के लोग कृष्णा-गुंटूर क्षेत्र में शासन करते थे। पुराणों में उन्हें ‘श्रीपर्वतीय’ (श्रीपर्वत का शासक) और ‘आंध्रभृत्य’ (आंध्रों का सेवक) कहा गया है। संभवतः प्रारंभ में इक्ष्वाकु सातवाहनों के सामंत थे, किंतु उनके पतन के बाद उन्होंने अपनी स्वतंत्रता घोषित की। इस वंश का संस्थापक श्रीशांतमूल था। अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने के उपलक्ष्य में उन्होंने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। वे वैदिक धर्म के अनुयायी थे। उनका पुत्र और उत्तराधिकारी माठरीपुत्र वीरपुरुषदत्त था, जिसने 20 वर्ष तक शासन किया। उनके लेख अमरावती और नागार्जुनकोंडा से मिले हैं, जिनमें बौद्ध संस्थाओं को दिए गए दानों का उल्लेख है। वीरपुरुषदत्त का पुत्र और उत्तराधिकारी शांतमूल द्वितीय था, जिसने लगभग ग्यारह वर्ष शासन किया। इसके बाद इक्ष्वाकु वंश की स्वतंत्र सत्ता का पतन हो गया। इस वंश ने तीसरी शताब्दी के अंत तक आंध्र क्षेत्र की निचली कृष्णा घाटी में शासन किया। बाद में उनका राज्य काँची के पल्लवों के अधीन हो गया। इक्ष्वाकु बौद्ध मत के पोषक थे।
चुटुशातकर्णि वंश
महाराष्ट्र और कुंतल प्रदेश में तीसरी शताब्दी में चुटुशातकर्णि वंश का शासन स्थापित हुआ। कुछ इतिहासकार उन्हें सातवाहनों की एक शाखा मानते हैं, जबकि कुछ उन्हें नागकुल से संबंधित मानते हैं। उनका अंत कदंबों द्वारा किया गया।
इसके अतिरिक्त, अन्य छोटे-छोटे राजवंश भी दक्षिण भारत में सक्रिय थे। कृष्णा और मसुलीपट्नम के बीच बृहत्फलायन और कृष्णा-गोदावरी के बीच शालंकायन राजवंश, जो पहले इक्ष्वाकुओं के अधीन थे, ने कुछ समय के लिए अपनी स्वतंत्रता स्थापित की। बृहत्फलायनों की राजधानी पिथुंड और शालंकायनों की राजधानी वेंगी थी। बाद में दोनों राजवंश पल्लवों के अधीन हो गए। सुदूर दक्षिण में चोल, चेर और पांड्य राजवंशों का शासन था। समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में दक्षिणापथ के बारह राजाओं का उल्लेख है, जो दक्षिणी कोशल से काँची तक फैले थे।
गणतंत्र और जनजातीय राज्य
कुषाण सत्ता के पतन में गणराज्यों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। भारत में गणराज्यों की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। प्राक्-गुप्त युग में ये गणराज्य पूर्वी पंजाब, राजस्थान, मालवा, और मध्य प्रदेश के विभिन्न भागों में फैले थे। इनमें औदुम्बर, मालव, अर्जुनायन, यौधेय, शिवि, लिच्छवि, आभीर, मद्रक, सनकानीक, प्रार्जुन, काक और खरपरिक विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
औदुम्बर
औदुम्बर गणराज्य कांगड़ा घाटी के पूर्वी भाग और गुरदासपुर तथा होशियारपुर जिलों में था। औदुम्बरों और उनके गण का उल्लेख अष्टाध्यायी, बृहत्संहिता, मारकंडेय पुराण और विष्णु पुराण में मिलता है। इन्हें विश्वामित्र का वंशज और कौशिक गोत्र का बताया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुषाणों से पहले इस गणराज्य का स्वतंत्र अस्तित्व था, और कुषाणों ने इन्हें जीतकर अपने अधीन कर लिया था। इनके सबसे प्राचीन सिक्कों पर महादेव या शिव का नाम अंकित है, जिनकी भाषा खरोष्ठी और ब्राह्मी है। इनके कुछ चौकोर ताँबे के सिक्कों पर एक शिव मंदिर का चित्र, ध्वज, त्रिशूल और भाले का अंकन है। इनके सिक्कों पर धरघोष, शिवदास, और रुद्रदास जैसे राजाओं के नाम मिलते हैं। कुछ राजाओं के नाम के अंत में ‘मित्र’ शब्द भी मिलता है, जैसे—आर्यमित्र, महीमित्र, भूमिमित्र, और महाभूमिमित्र।
मालव
सिकंदर के आक्रमण के समय मालव गणराज्य के लोग पंजाब में निवास करते थे। बाद में वे पूर्वी राजपूताना में बस गए। उनकी राजधानी मालवनगर थी, जिसकी पहचान जयपुर के निकट नागर या कार्कोट नागर से की गई है। पाणिनि ने उनका उल्लेख ‘आयुधजीवी’ संघ के रूप में किया है। इनके लगभग 6,000 सिक्के मिले हैं, जिन पर ‘मालवानामजय’, ‘मालवजय’ और ‘मालवगणस्य’ उत्कीर्ण है। विद्वानों ने इन सिक्कों की प्राचीनता दूसरी से तीसरी शताब्दी ई. के मध्य निर्धारित की है। सिक्कों पर अंकित लेख गणतंत्र शासन-पद्धति के प्रचलन को दर्शाते हैं। नहपान के नासिक लेख से पता चलता है कि उसने मालवों को पराजित किया था। गुप्तों के उदय से पूर्व संभवतः वे मंदसौर (प्राचीन दशपुर) में शासन करते थे। यहाँ से प्राप्त लेखों में मालव-संवत् का प्रयोग मिलता है। चौथी शताब्दी के अंत तक उनका राजनैतिक अस्तित्व किसी न किसी रूप में बना रहा। समुद्रगुप्त ने उन्हें पराजित कर अपने अधीन कर लिया।
अर्जुनायन
यह गण आगरा और जयपुर क्षेत्र में शासन करता था। प्रथम शताब्दी के आसपास के उनके कुछ सिक्कों पर ‘अर्जुनायन’ और ‘अर्जुनायानाम् जयः’ अंकित है, जो उनके गणराज्य की पुष्टि करता है। प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि उन्होंने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की थी।
यौधेय
गुप्तों से पूर्व यौधेय उत्तरी राजपूताना और दक्षिण-पूर्वी पंजाब में निवास करते थे। पाणिनि ने उन्हें ‘आयुधजीवी’ संघ कहा है। जूनागढ़ लेख में उन्हें ‘वीर’ और ‘स्वाभिमानी’ बताया गया है, जिन्हें रुद्रदामन ने कठिन संघर्ष के बाद विजित किया था। लेख के अनुसार, वे अत्यंत शक्तिशाली और साधन-संपन्न थे (सर्वक्षत्रविष्कृत वीरशब्दजातोत्सेकाविधेयानाम् यौधेयानाम्)। कुषाणों ने उन्हें परास्त कर अपने अधीन किया था, किंतु कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद वे स्वतंत्र हो गए।
यौधेयों के सिक्के सहारनपुर, देहरादून, दिल्ली, रोहतक, लुधियाना और कांगड़ा से प्राप्त हुए हैं, जो दूसरी शताब्दी ई.पू. के अंत से चौथी शताब्दी ई. के प्रारंभ तक के हैं। उनके प्रारंभिक सिक्कों (लगभग प्रथम शताब्दी ई.पू.) पर ‘यौधेयन’ और बाद के सिक्कों पर ‘यौधेय गणस्य जय’ उत्कीर्ण है। लुधियाना से प्राप्त एक मिट्टी की मुहर पर ‘यौधेयानाम् जयमन्यधराणाम्’ लेख है, जो संभवतः किसी विजय मंत्र की ओर संकेत करता है। बाद के सिक्के तीसरी-चौथी शताब्दी के हैं। यौधेयों के सिक्कों के अधिकांश साँचे हरियाणा के रोहतक और लुधियाना जिले में सुनेत से मिले हैं। इससे स्पष्ट है कि कुषाणों को हराकर यौधेयों ने इन क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था।
कुणिंद
यमुना और सतलज के बीच की संकरी भूमि कुणिंदों के अधिकार में थी। कुणिंद यौधेयों के पड़ोसी, समकालीन, और उनके स्वाधीनता संग्राम में सहायक थे। कुणिंदों के एक राजा अमोधभूति ने इंडो-यूनानी आकार के सिक्कों का प्रचलन किया था। इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने इंडो-यूनानी साम्राज्य के अवशेषों पर लगभग प्रथम शताब्दी ई.पू. के अंत में अपने राज्य का निर्माण किया। उनके कुछ सिक्कों पर केवल ‘कुणिंद’ और कुछ पर ‘कुणिंदगणस्य’ अंकित है। विद्वानों ने इनका काल प्रथम शताब्दी ई.पू. से दूसरी शताब्दी ई. तक निर्धारित किया है। टॉलमी के भूगोल में ‘कुलिंद्रेने’ शब्द मिलता है, जिसका आशय व्यास और गंगा नदियों के बीच के ऊपरी प्रदेश से है। विष्णु पुराण में कुणिंदों को पर्वत घाटी का निवासी (कुलिंदोपत्यका) कहा गया है। ऐसा लगता है कि शकों के आक्रमण का सामना करने के लिए यौधेय, कुणिंद, और अर्जुनायन गणों का एक संघ बना था। अमोधभूति के बाद कुणिंद कुलूतों द्वारा पराजित हो गए।
शिवि
सिकंदर के आक्रमण के समय शिवि लोग झेलम और चिनाब के संगम के निचले भाग में निवास करते थे। बाद में उन्होंने चित्तौड़ के समीप माध्यमिका में अपना राज्य स्थापित किया। यहाँ से उनके कुछ सिक्के मिले हैं, जिनका काल दूसरी या प्रथम शताब्दी ई.पू. निर्धारित किया गया है।
लिच्छवि
गुप्तों के उदय से पूर्व गंगा घाटी में कई शताब्दियों बाद लिच्छवि पुनः शक्तिशाली हो गए थे। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय लिच्छवियों के दो राज्य थे—एक उत्तरी बिहार में, जिसकी राजधानी वैशाली थी और दूसरा नेपाल में, जिसका उल्लेख प्रयाग-प्रशस्ति में मिलता है। गुप्त नरेश चंद्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर अपने राजवंश की शक्ति और प्रतिष्ठा बढ़ाई थी।
आभीर
पेरीप्लस में इसे ‘अबिरिया’ कहा गया है। आभीरों के लेख महाराष्ट्र में भी मिलते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि उनका वहाँ भी शासन था। उनकी एक दूसरी शाखा भिलसा और झाँसी के मध्य अहिरबार में शासन करती थी। गुप्तों के उदय तक ये दोनों शाखाएँ विद्यमान थीं।
मद्रक
यह गणराज्य रावी और चिनाब नदियों के बीच के क्षेत्र में स्थित था। मद्रकों ने यह क्षेत्र चौथी शताब्दी के प्रारंभ में गदरों से जीता था। संभवतः उनकी राजधानी स्यालकोट थी। अभी तक मद्रकों का कोई सिक्का प्राप्त नहीं हुआ है।
प्रार्जुन
कुछ विद्वान मध्य प्रदेश के वर्तमान नरसिंहपुर जिले में प्रार्जुन गणराज्य की स्थिति बताते हैं।
सनकानीक
ये भिलसा के आसपास के क्षेत्र में शासन करते थे। चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ के उदयगिरि से प्राप्त एक लेख में इस जाति के एक सामंत का उल्लेख है।
काक
इस जाति का राज्य भिलसा से बीस मील उत्तर काकपुर में था। कुछ विद्वान इन्हें साँची का शासक मानते हैं।
खरपरिक
प्रयाग-प्रशस्ति में उल्लिखित खरपरिक गणजाति मध्य प्रदेश के दमोह जिले में शासन करती थी।
इन प्रमुख गणराज्यों के अतिरिक्त गुप्तों के उदय से पूर्व उत्तमभद्र, कुलूत और वृष्णि जैसे कुछ छोटे गणराज्य भी थे। उत्तमभद्र राजस्थान के किसी क्षेत्र में निवास करते थे। उनके सिक्कों पर चक्र का चिह्न अंकित है। महाभारत के अनुसार, वासुदेव कृष्ण इस संघ के सदस्य थे। कुलूतों के सिक्कों पर वीरयशस् और भद्रयशस् नामक दो राजाओं के नाम मिलते हैं। गुप्तों के उदय से बहुत पहले इन गणराज्यों का अस्तित्व समाप्त हो गया था।
विदेशी शक्तियाँ
गुप्तों के उदय से पूर्व भारत के पश्चिमी क्षेत्रों में कई विदेशी शक्तियाँ विद्यमान थीं। गुजरात और काठियावाड़ में पश्चिमी क्षत्रपों (कार्दमक शक) का राज्य था। पश्चिमोत्तर सीमाओं पर पर्सिया के ससानी नरेशों के आक्रमण हो रहे थे। 283 ई. में ससानी नरेश वहराम द्वितीय ने अफगानिस्तान, पश्चिमोत्तर सीमा-प्रांत और सिंध को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। इसके अतिरिक्त, शक, कुषाण और मुरुंड जैसी विदेशी जातियाँ भी शासन कर रही थीं।
शक
प्रयाग-प्रशस्ति में शकों का उल्लेख है। शक लोग गुजरात, काठियावाड़ और मालवा में शासन करते थे। उनकी राजधानी उज्जयिनी थी। तीसरी शताब्दी में इक्ष्वाकु वंशीय आंध्र नरेश ने शक राजकन्या रुद्रधर भट्टारिका से विवाह किया, जो उज्जयिनी के शक क्षत्रप रुद्रसेन प्रथम की पुत्री थी।
कुषाण
गुप्तों के उदय के समय कुषाणों की एक शाखा उत्तर-पश्चिम भारत में शासन कर रही थी, जिन्हें उत्तर कुषाण या किदार कुषाण कहा जाता है। इस वंश का संस्थापक किदार था, जिसकी राजधानी पेशावर में थी। वह ससानी नरेश शापुर द्वितीय की अधीनता स्वीकार करता था। ससानी नरेश शापुर प्रथम (242-272 ई.) ने किदार कुषाणों को पराजित कर पेशावर से सिंधु नदी घाटी तक का क्षेत्र जीत लिया था। किदार ने अपनी शक्ति बढ़ाकर कश्मीर और पंजाब को जीता, जिसके कारण शापुर द्वितीय को पुनः आक्रमण कर उसे अपने अधीन करना पड़ा। कालांतर में किदार ने गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त से संबंध स्थापित करने के लिए बहुमूल्य उपहार भेंट किए। गुप्तों की सहायता से संभवतः किदार ने ससानी अधीनता से मुक्ति प्राप्त की।
मुरुंड
गुप्तों के उदय से पूर्व मुरुंड नामक विदेशी जाति गंगाघाटी में कहीं शासन कर रही थी। चीनी स्रोतों में मुरुंड को ‘मेउलुन’ कहा गया है। इनके अनुसार, उनकी राजधानी विशाला (गंगा) के मुहाने से सात हजार ली की दूरी पर थी। संभवतः उनकी राजधानी गंगा तट पर कान्यकुब्ज में थी।
पश्चिमोत्तर सीमा, उत्तरी और पूर्वी भारत में कुषाणों के पतन के बाद विभिन्न राजनीतिक शक्तियों का उदय हुआ। गुप्तों के राजनीतिक उत्कर्ष और साम्राज्य-विस्तार ने इन स्वतंत्र राज्यों की सत्ता समाप्त कर भारत में पुनः राजनीतिक एकता का युग प्रारंभ किया।










