1784 का पिट्स इंडिया एक्ट (Pitt’s India Act of 1784)

1784 का पिट्स इंडिया एक्ट 1772 और 1781 में ईस्ट इंडिया कंपनी के मामलों की […]

1784 का पिट्स इंडिया ऐक्ट (Pitt’s India Act of 1784)

1784 का पिट्स इंडिया एक्ट

1772 और 1781 में ईस्ट इंडिया कंपनी के मामलों की छानबीन के लिए एक प्रवर समिति और एक गुप्त समिति की नियुक्ति की गई थी। प्रवर समिति ने उच्चतम न्यायालय और बंगाल परिषद् के आपसी संबंधों की जाँच की, जबकि गुप्त समिति ने अंग्ल-मराठा युद्ध के कारणों की जाँच की। संसद का कंपनी के मामलों में हस्तक्षेप उस समय आवश्यक हो गया जब मराठा युद्ध के कारण कंपनी की वित्तीय कठिनाइयाँ बढ़ गईं और उसने सरकार से 10 लाख पाउंड का एक और ऋण माँगा। अप्रैल 1783 में गुप्त समिति के अध्यक्ष डुंडास द्वारा प्रस्तुत विधेयक को अस्वीकार कर दिया गया।

इसके बाद चार्ल्स फॉक्स ने नवंबर 1783 में इंडिया बिल प्रस्तुत किया, जिसे वस्तुतः एडमंड बर्क और फिलिप फ्रांसिस ने तैयार किया था। इसके अनुसार कंपनी की राजनीतिक और सैनिक शक्ति सात आयुक्तों के बोर्ड को सौंपी जानी थी और व्यापारिक कार्य उनके अधीनस्थ नौ उपनिदेशकों को। यदि यह बिल पारित हो जाता, तो कंपनी एक राजनीतिक शक्ति के रूप में समाप्त हो जाती, किंतु यह बिल पारित नहीं हो सका और लॉर्ड नॉर्थ तथा फॉक्स की संयुक्त सरकार को इस्तीफा देना पड़ा। यह पहला और अंतिम अवसर था जब एक अंग्रेजी सरकार भारतीय मामले पर टूट गई।

जनवरी 1784 में विलियम पिट (कनिष्ठ) इंग्लैंड का प्रधानमंत्री बना और उसने एक नया विधेयक प्रस्तुत किया, किंतु शीघ्र ही मंत्रिमंडल टूट गया। मई 1784 में जब नई संसद का गठन हुआ, तो वही जनवरी वाला विधेयक जुलाई 1784 में कॉमन्स सभा में और अगस्त में लॉर्ड्स सभा में पारित हुआ। पिट ने विधेयक के लिए कंपनी की स्वीकृति पहले ही ले ली थी, इसलिए इसके विरोध की कोई संभावना नहीं थी। फॉक्स और पिट दोनों के विधेयक लगभग एक ही प्रकार के थे; भिन्नता केवल इस बात में थी कि फॉक्स के बिल से कंपनी के संरक्षण को समाप्त कर दिया गया था, जबकि पिट के बिल में इसे जारी रखा गया। पिट ने स्वयं कहा था: ‘फॉक्स के विधेयक से व्यक्तियों को स्थायित्व मिलना था, जबकि मेरे विधेयक से एक प्रणाली को स्थायित्व मिला।’ चूंकि विलियम पिट कनिष्ठ ने इस एक्ट को प्रस्तावित किया था, इसलिए इसे ‘पिट का इंडिया एक्ट’ कहा जाता है। इस एक्ट को ‘ईस्ट इंडिया कंपनी अधिनियम 1784’ के रूप में भी जाना जाता है।

पिट का इंडिया एक्ट के प्रमुख प्रावधान

पिट का इंडिया एक्ट कंपनी पर अधिकाधिक नियंत्रण स्थापित करने, भारत में कंपनी की गिरती साख को बचाने और रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के उद्देश्य से पारित किया गया था। इस एक्ट द्वारा कंपनी की सरकार पर नियंत्रण की दोहरी व्यवस्था- नियंत्रण बोर्ड और निदेशक मंडल की स्थापना की गई। इस अधिनियम ने भारत के ब्रिटिश राज्य पर कंपनी और इंग्लैंड की सरकार का संयुक्त शासन स्थापित कर दिया।

नियंत्रण बोर्ड

1784 के अधिनियम से कंपनी के लंदन स्थित प्रशासन में परिवर्तन हुए, जिससे सरकार का कंपनी के मामलों में नियंत्रण बढ़ गया। यद्यपि कंपनी के व्यापार को अछूता छोड़ा गया, किंतु एक्ट की धारा 1 के अनुसार सभी असैनिक, सैनिक और राजस्व मामलों की देखभाल के लिए इंग्लैंड में छह आयुक्तों (कमिश्नरों) वाले एक नियंत्रक बोर्ड की स्थापना की गई। इन छह सदस्यों की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जानी थी, जिसमें एक ब्रिटेन का वित्त मंत्री, दूसरा विदेश सचिव और चार अन्य प्रिवी काउंसिल के सदस्य होते। तीन निदेशकों की एक गुप्त समिति द्वारा बोर्ड के सभी मुख्य आदेश भारत को भेजे जाने थे।

धारा 11 में यह प्रावधान किया गया कि कंपनी को भेजे जाने वाले सभी आदेश नियंत्रण बोर्ड की अनुमति के पश्चात् तीन निदेशकों की गुप्त समिति द्वारा ही भारत भेजे जाएंगे। इस प्रकार निदेशक मंडल नियंत्रण बोर्ड की पूर्व अनुमति के बिना कोई भी पत्र (सरकारी आदेश-पत्र) भारत नहीं भेज सकता था।

अधिनियम की धारा 18 और 19 के द्वारा भारत के गवर्नर-जनरल की परिषद के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गई। इस संबंध में कहा गया कि तत्कालीन परिषद के चारों सदस्य अपना काम करते रहेंगे। उनमें से किसी के त्यागपत्र देने, हटाए जाने या मृत्यु हो जाने के बाद संख्या घटाई जाएगी।

अधिनियम के अनुसार प्रांतीय कमांडर प्रांतीय परिषद के सदस्य होंगे, किंतु जब भारत का प्रधान कमांडर किसी प्रांत की राजधानी में होगा, तो उस समय वह प्रांतीय परिषद का सदस्य होगा। गवर्नर-जनरल की नियुक्ति पहले की भाँति निदेशक मंडल करेगा, किंतु इंग्लैंड का सम्राट उसे वापस बुला सकता था। गवर्नर-जनरल को देसी राजाओं से युद्ध या संधि करने से पूर्व कंपनी के निदेशकों से स्वीकृति लेना आवश्यक था।

इस अधिनियम में कंपनी के भारतीय अधिकृत प्रदेशों को पहली बार ‘ब्रिटिश अधिकृत प्रदेश’ कहा गया। इसी अधिनियम के अनुसार बंबई और मद्रास की प्रेसीडेंसी भी गवर्नर-जनरल और उसकी परिषद के अधीन कर दी गईं।

इस अधिनियम में कहा गया था कि भारत में अंग्रेजी राज्य बढ़ाने और अन्य देशों के राजाओं को अधीन करने का प्रयास अंग्रेजी राष्ट्र की इच्छा, प्रतिष्ठा और नीति के विरुद्ध है। इस एक्ट के द्वारा न केवल आक्रामक युद्धों को समाप्त कर दिया गया, बल्कि कर्नाटक और अवध से की गई प्रत्याभूति संधियों को भी समाप्त कर दिया गया।

इस अधिनियम द्वारा भारत में अंग्रेजों द्वारा किए गए अपराधिक कृत्यों की सुनवाई के लिए इंग्लैंड में तीन न्यायाधीशों, चार पीयर्स और कॉमन्स सभा के छह सदस्यों को सम्मिलित कर एक विशेष न्यायालय की स्थापना की गई। कंपनी के कर्मचारियों को भेंट या उपहार लेने पर पूर्णतः प्रतिबंध लगा दिया गया।

पिट के अधिनियम द्वारा दोहरी शासन प्रणाली- एक कंपनी द्वारा और दूसरी संसदीय बोर्ड द्वारा स्थापित की गई, जो 1858 तक चली। बाद में एक्ट में संशोधन कर गवर्नर-जनरल को यह अधिकार दिया गया कि आवश्यकता पड़ने पर वह अपनी परिषद के निर्णय को अस्वीकार कर सकता था।

1786 का अधिनियम

पिट का इंडिया एक्ट द्वारा गवर्नर-जनरल की स्थिति को सुदृढ़ करने के बाद भी कोई विशेष लाभ नहीं हुआ, और अधिनियम की यह धारणा गलत सिद्ध हुई कि प्रधान कमांडर सामान्यतः गवर्नर-जनरल के दृष्टिकोण का समर्थन करेंगे। गवर्नर-जनरल और प्रधान कमांडर के आपसी मतभेदों के कारण 1785 में हेस्टिंग्स को त्यागपत्र देकर स्वदेश लौटना पड़ा, और मैकफर्सन को बीस माह तक परिषद की बैठकों में इसी प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

1786 में लॉर्ड कॉर्नवालिस गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया। वह अपने पूर्ववर्ती गवर्नर-जनरलों की कठिनाइयों से परिचित था, इसलिए पद स्वीकार करने से पूर्व उसने गवर्नर-जनरल और प्रधान कमांडर दोनों की शक्तियों की माँग की, साथ ही यह भी माँग की कि उसे विशेष परिस्थिति में अपनी परिषद के निर्णयों को रद्द करने और अपने निर्णयों को लागू करने की स्वतंत्रता दी जाए। ब्रिटिश संसद भी भारत में एक सुदृढ़ केंद्रीय सरकार चाहती थी, इसलिए कॉर्नवालिस के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया और 1786 में संशोधन एक्ट पारित हुआ।

इस संशोधन एक्ट द्वारा गवर्नर-जनरल की शक्ति में वृद्धि कर उसे विशेष परिस्थितियों में अपनी परिषद के निर्णय को रद्द करने और अपने निर्णयों को लागू करने का अधिकार दे दिया गया। इस अधिनियम के अनुसार कॉर्नवालिस ने गवर्नर-जनरल के साथ-साथ प्रधान कमांडर का पद भी ग्रहण किया।

1788 का व्याख्यात्मक अधिनियम

पिट का एक्ट का उद्देश्य नियंत्रण बोर्ड को अधिकृत बनाना था, किंतु सर्वाेच्च शक्ति को लेकर नियंत्रण बोर्ड और निदेशक मंडल में विवाद बढ़ता जा रहा था। कंपनी के खर्च पर भारत में ब्रिटिश सैन्य टुकड़ियों की माँग को लेकर निदेशकों और नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों में उग्र विवाद हुआ। किंतु नियंत्रण बोर्ड ने 1784 अधिनियम के अनुसार भारतीय खर्च पर चार सैन्य टुकड़ियों को भारत भेज दिया। नियंत्रण बोर्ड की इस कार्रवाई को निदेशकों ने चुनौती दी। नियंत्रण बोर्ड ने उत्तर दिया कि 1781 के अधिनियम में कोई परिवर्तन न होने के कारण कंपनी को ऐसे खर्च को वहन करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। इस प्रकार के विवादों को समाप्त करने के लिए पिट ने संसद में एक व्याख्यात्मक विधेयक प्रस्तुत किया, जिसके द्वारा नियंत्रण बोर्ड के अधिकारों को सर्वाेच्च बना दिया गया। किंतु पिट ने इस विधेयक में नियंत्रण बोर्ड के अधिकारों को भी नियंत्रित करने का प्रावधान किया। नियंत्रण बोर्ड को किसी अधिकारी के वेतन में वृद्धि करने या पूर्व-निर्मित व्यवस्था को छोड़कर नौकरी के लिए ग्रेच्युटी की सुविधा प्रदान करने का अधिकार नहीं था। इसके लिए उसे निदेशकों के साथ-साथ संसद की सहमति लेना अनिवार्य था। अब निदेशकों के लिए कंपनी की वार्षिक प्राप्ति और भुगतान के लिए लेखा-जोखा का विवरण संसद में प्रस्तुत करना अनिवार्य कर दिया गया।

यद्यपि पिट का इंडिया एक्ट द्वारा ब्रिटिश सरकार का कंपनी के प्रशासन पर नियंत्रण स्थापित हुआ था, किंतु सरकार इससे पूर्णतः संतुष्ट नहीं थी। कंपनी के प्रशासन पर प्रभावी नियंत्रण स्थापित करने के लिए सरकार ने 1793 से 1853 के बीच चार चार्टर एक्ट्स पारित किए, जिससे कंपनी की शक्तियाँ कम होती चली गईं और भारत में एक शासकीय पद्धति का विकास हुआ।

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