परमार वंश भारतीय इतिहास में एक प्रमुख राजपूत राजवंश था, जिसने आठवीं से चौदहवीं शताब्दी तक पश्चिम-मध्य भारत, विशेष रूप से मालवा (मध्य प्रदेश), गुजरात और राजस्थान के कुछ क्षेत्रों पर शासन किया। परमारों के शासनकाल में मालवा ने अभूतपूर्व राजनीतिक और सांस्कृतिक समृद्धि का साक्षात्कार किया। लगभग 972 ई. में सीयक परमार ने राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट पर अधिकार किया और परमारों को एक संप्रभु शक्ति के रूप में स्थापित किया। उसके उत्तराधिकारी वाक्पति मुंजराज के समय तक वर्तमान मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र मुख्य परमार क्षेत्र बन गया, जिसकी राजधानी धारा (धार) थी। मुंज के भतीजे राजा भोज के शासनकाल में इस राजवंश का चरमोत्कर्ष हुआ और परमार राज्य उत्तर में चित्तौड़ से लेकर दक्षिण में कोंकण तक और पश्चिम में साबरमती नदी से लेकर पूर्व में उड़ीसा तक फैल गया।
अपने पड़ोसी गुजरात के चौलुक्यों, कल्याणी के चालुक्यों, त्रिपुरी के कलचुरियों, जेजाकभुक्ति के चंदेलों और अन्य पड़ोसी राज्यों के साथ परस्पर संघर्षों के परिणामस्वरूप परमार शक्ति का कई बार उत्थान-पतन हुआ। बाद के परमार शासकों ने अपनी राजधानी को मांडू (मंडप-दुर्ग) स्थानांतरित किया। अंतिम ज्ञात परमार नरेश महालकदेव दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी द्वारा 1305 ई. में पराजित हुआ और मारा गया। लेकिन अभिलेखीय साक्ष्यों से पता चलता है कि महालकदेव की मृत्यु के बाद भी कुछ वर्षों तक परमारों का शासन चलता रहा।
प्रतिभाशाली परमार शासकों ने अनेक कवियों और विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया और भोज जैसे कुछ नरेष अपनी विद्वता, सैन्य कौशल और सांस्कृतिक संरक्षण के लिए प्रसिद्ध हैं। यद्यपि अधिकांश परमार राजा शैव मतावलंबी थे और उन्होंने कई शिव मंदिरों का निर्माण करवाया, लेकिन उन्होंने जैन धर्म और विद्वानों को भी संरक्षण दिया। इस प्रकार परमार शासकों ने भारतीय संस्कृति, साहित्य और विज्ञान को नई ऊँचाइयाँ प्रदान कीं।
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Toggleपरमार वंश के ऐतिहासिक स्रोत
परमार वंश के इतिहास को जानने में अभिलेखों, साहित्यिक ग्रंथों और विदेशी यात्रियों के विवरणों से सहायता मिलती है। इन स्रोतों से परमारों के राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है।
अभिलेखीय स्रोत
परमार वंश के इतिहास को जानने के लिए अभिलेख प्राथमिक और सबसे विश्वसनीय स्रोत हैं, जो ताम्रपत्रों, शिलापट्टों और मंदिरों पर उत्कीर्ण हैं। इनमें शासकों की वंशावली, उनके सैन्य अभियान, प्रशासनिक व्यवस्था और धार्मिक क्रियाकलापों की जानकारी मिलती है।
परमारों का सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण अभिलेख सीयक द्वितीय का हरसोल अभिलेख (948 ई.) है, जो गुजरात के हरसोल से प्राप्त हुआ है। इस अभिलेख से परमारों की उत्पत्ति, उनकी वंशावली, राष्ट्रकूटों से स्वतंत्रता और प्रारंभिक शासकों की उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है। वाक्पति मुंज का उज्जैन अभिलेख (980 ई.) एक अन्य महत्त्वपूर्ण स्रोत है, जो उसके शासनकाल, सैन्य विजयों और मालवा में परमार शक्ति के स्थापना की जानकारी प्रदान करता है। यह अभिलेख तत्कालीन प्रशासनिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को भी उजागर करता है। राजा भोज के शासनकाल से संबंधित बाँसवाड़ा और बेतमा अभिलेख भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, जिनसे भोज की सैन्य विजयों, साम्राज्य विस्तार और धार्मिक संरक्षण की सूचना मिलती है। इन अभिलेखों से प्रमाणित होता है कि भोज का साम्राज्य चित्तौड़ से कोंकण और साबरमती से उड़ीसा तक विस्तृत था।
उदयादित्य की उदयपुर प्रशस्ति भी परमार इतिहास का एक प्रमुख स्रोत है। यह प्रशस्ति भिलसा (वर्तमान विदिशा) के समीप उदयपुर में नीलकंठेश्वर मंदिर के शिलापट्ट पर उत्कीर्ण है। इसमें परमार वंश की वंशावली, शासकों के नाम और उनकी उपलब्धियों का विस्तृत विवरण है। यह प्रशस्ति उदयादित्य के शासनकाल में मालवा की विजय और विदेशी आक्रमणों से सुरक्षा के प्रयासों को दर्शाती है। साथ ही, यह परमारों की धार्मिक सहिष्णुता और मंदिर निर्माण की परंपरा को भी रेखांकित करती है। लक्ष्मदेव के समय की नागपुर प्रशस्ति से बाद के परमार शासकों की स्थिति, उनके प्रशासन और क्षेत्रीय प्रभाव को समझने में सहायता मिलती है।
मंदिर, किले और सिक्के
परमारकालीन मंदिर, किले और सिक्के भी ऐतिहासिक जानकारी के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। भोजपुर का भोजेश्वर मंदिर और मांडू का किला परमारों की स्थापत्य कला और तकनीकी कौशल के प्रमाण हैं। परमार सिक्कों पर उत्कीर्ण देवी-देवताओं की आकृतियाँ और संस्कृत लेख उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक प्राथमिकताओं को प्रदर्शित करते हैं।
साहित्यिक स्रोत
परमार वंश के इतिहास, संस्कृति और समाज को समझने में साहित्यिक स्रोत भी बहुत उपयोगी हैं। इनमें काव्य, शास्त्र और ऐतिहासिक विवरण शामिल हैं, जो परमार शासकों की विद्वता और उनके दरबार की साहित्यिक समृद्धि के सूचक हैं।
साहित्यिक स्रोतों में पद्मगुप्त ‘परिमल’ द्वारा रचित ‘नवसाहसांकचरित’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। पद्मगुप्त परमार नरेश भोज और सिंधुराज का आश्रित कवि था। इस ग्रंथ में उसने अपने आश्रयदाता राजाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व का वर्णन किया है। यद्यपि इस काव्यात्मक रचना में अतिशयोक्ति है, फिर भी इससे भोज के सैन्य अभियानों, प्रशासन और सांस्कृतिक संरक्षण पर प्रकाश पड़ता है।
जैन लेखक मेरुतुंग का ‘प्रबंधचिंतामणि’ परमार इतिहास का एक अन्य महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत है। इस ग्रंथ में परमारों और गुजरात के चौलुक्य शासकों के बीच संबंधों का वर्णन है। इससे परमार शासकों की उपलब्धियों, धार्मिक संरक्षण और सामाजिक व्यवस्था की जानकारी मिलती है।
परमार शासक भोज ने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की, जो परमार काल की बौद्धिक समृद्धि के सूचक हैं। इनमें ‘समरांगणसूत्रधार’ (वास्तुकला, मूर्तिकला और नगर नियोजन पर), शृंगारप्रकाश (साहित्य और काव्यशास्त्र पर), युक्तिकल्पतरु (शासन, सैन्य और नीति पर) और ‘सरस्वतीकंठाभरण’ (व्याकरण और भाषा पर) शामिल हैं। इन ग्रंथों से न केवल भोज की विद्वता का ज्ञान होता है, बल्कि परमारकालीन प्रशासन, समाज और संस्कृति को समझने में भी सहायता मिलती है।
विदेशी यात्रियों और लेखकों के विवरण
परमार वंश के इतिहास को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में समझने में विदेशी यात्रियों और लेखकों के विवरण विषेष उपयोगी हैं। मुस्लिम लेखकों ने परमार शासकों, विशेषकर भोज की शक्ति, विद्वता और प्रशासनिक कुशलता की प्रशंसा की है। अबुल फजल की ‘आइने-अकबरी’ में भोज को एक महान शासक और विद्वान के रूप में उल्लेखित किया गया है। ग्यारहवीं शताब्दी के मुस्लिम विद्वान अल्बरूनी ने अपनी रचना ‘किताब-उल-हिंद’ में भोज की विद्वता और उसके दरबार की बौद्धिक गतिविधियों की सराहना की है। उसका विवरण परमार काल की वैज्ञानिक और सांस्कृतिक प्रगति को समझने में सहायक है। एक अन्य मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता ने भी अपने लेखन में भोज और परमार शासकों की शक्ति और सांस्कृतिक उपलब्धियों का उल्लेख किया है, जो उनके सैन्य अभियानों और पड़ोसी राज्यों के साथ संबंधों को समझने में सहायक है।
परमारों की उत्पत्ति
परमारों की उत्पत्ति के संबंध में अनेक मत और किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है-
अग्निकुंड का मिथक
परमार वंश के परवर्ती लेखों और पौराणिक कथाओं में परमारों को अग्निवंशी राजपूत बताया गया है। मिथक के अनुसार ऋषि वशिष्ठ की कामधेनु गाय को विश्वामित्र ने छीन लिया था। वशिष्ठ ने आबू पर्वत पर यज्ञ किया, जिसकी अग्नि से एक धनुर्धर वीर उत्पन्न हुआ। इस वीर ने विश्वामित्र को पराजित कर गाय को वशिष्ठ को वापस किया। वशिष्ठ ने इस वीर को ‘परमार’ (शत्रु का नाश करने वाला) नाम दिया, जिसके वंशज ‘परमार’ कहलाए। इस कथा का प्रथम उल्लेख पद्मगुप्त ‘परिमल’ के नवसाहसांकचरित में मिलता है। बाद में, परमारों को राजपूत कुलों में से एक सिद्ध करने के लिए चंदबरदाई ने पृथ्वीराजरासो में इस कथा का विस्तार किया। लेकिन प्रारंभिक परमार लेखों में इस कथा का उल्लेख नहीं है। उस समय प्रायः सभी राजवंश दैवी या वीर उत्पत्ति का दावा करते थे। संभवतः इसी से प्रेरित होकर परमारों ने इस किंवदंती का आविष्कार किया।
गौरीशंकर ओझा के अनुसार परमारों के आदिपुरुष धूमराज का नाम अग्नि से संबंधित होने के कारण संभवतः इस मिथक का निर्माण हुआ, लेकिन यह अनुमान ठोस प्रमाणों पर आधारित नहीं है।
विदेशी उत्पत्ति का मत
कुछ इतिहासकारों ने अग्निकुंड की पौराणिक कथा के आधार पर परमारों को विदेशी मूल का सिद्ध करने का प्रयास किया है। उनके अनुसार परमार और अन्य अग्निवंशी राजपूतों के पूर्वज विदेशी थे, जो पाँचवीं शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत आए और उन्हें अग्नि-अनुष्ठान द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था में शामिल किया गया। चूंकि यह मत अग्निकुंड मिथक पर आधारित है और प्रारंभिक परमार लेखों से इसकी पुष्टि नहीं होती, अतः यह मत भी स्वीकार्य नहीं है।
राष्ट्रकूटों के वंशज
डी.सी. गांगुली जैसे इतिहासकारों का मानना है कि परमार राष्ट्रकूटों के वंशज थे। सीयक द्वितीय के हरसोल ताम्रलेख (949 ई.) में अकालवर्ष नामक एक शासक का उल्लेख है, जिसके लिए ‘तस्मिन कुले’ (उस परिवार में) शब्द का प्रयोग हुआ है और उसके बाद वप्पैराजा (वाक्पति) का उल्लेख है। अकालवर्ष की उपाधि राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय की थी। वाक्पति मुंज की अमोघवर्ष, श्रीवल्लभ और पृथ्वीवल्लभ जैसी उपाधियाँ भी उन्हें राष्ट्रकूटों से जोड़ती हैं।
आइने-अकबरी के अनुसार अग्निकुंड से उत्पन्न धनजी दक्कन से मालवा आया और अपना राज्य स्थापित किया। बाद में, उसके वंशज पुत्रराज की मृत्यु के बाद धनिकों ने परमारों के पूर्वज आदित्य पंवार को नए राजा के रूप में स्थापित किया।
गांगुली का मत ठोस प्रमाणों पर आधारित नहीं है। आइने-अकबरी की कथा से आदित्य पंवार का दक्कन से संबंध अस्पष्ट है। परमारों ने संभवतः मालवा में वैधता के लिए राष्ट्रकूट उपाधियों का उपयोग किया। दशरथ शर्मा के अनुसार यदि परमार राष्ट्रकूटों के वंशज होते, तो एक पीढ़ी में अपनी प्रतिष्ठित उत्पत्ति नहीं भूल जाते। अतः परमार दक्कन या राष्ट्रकूटों से संबंधित नहीं थे।
मालवों के वंशज
दिनेशचंद्र सरकार का अनुमान है कि परमार मालवों के वंशज थे। किंतु प्रारंभिक परमार शासकों को मालव कहे जाने का कोई प्रमाण नहीं है। मालवा क्षेत्र पर शासन करने के कारण बाद में उन्हें मालव कहा जाने लगा। अतः यह मत भी स्वीकार्य नहीं है।
वशिष्ठ गोत्र के ब्राह्म-क्षत्रिय
दशरथ शर्मा जैसे कुछ इतिहासकारों के अनुसार परमार मूलरूप से वशिष्ठ गोत्र के ब्राह्मण थे, जो बाद में शासन करने के कारण क्षत्रिय बन गए। हलायुध ने पिंगल-सूत्रवृत्ति में परमारों को ‘ब्रह्म-क्षत्र कुलीन’ कहा है। उदयपुर लेख में इस वंश के पहले शासक को ‘द्विजवर्गरत्न’ और पटनारायण मंदिर शिलालेख में वशिष्ठ गोत्र का बताया गया है। पिपलियानगर शिलालेख में परमार वंश को क्षत्रियों का ‘शिखा-गहना’ (क्षत्रिय कुल का शीर्ष आभूषण) के रूप में वर्णित किया गया है, जो उनकी उच्च क्षत्रिय स्थिति को दर्शाता है। साथ ही, प्रभावकारचरित में परमार राजा वाक्पति को क्षत्रिय वंश का बताया गया है, जो उनके क्षत्रिय कुल की पुष्टि करता है। इससे लगता है कि परमार पहले ब्राह्मण थे, जो बाद में अपनी शासकीय भूमिका के कारण क्षत्रिय कहलाए। समकालीन स्रोतों पर आधारित होने के कारण यह मत सबसे अधिक स्वीकार्य है।
इस प्रकार परमारों की उत्पत्ति के संबंध में अग्निकुंड मिथक और विदेशी उत्पत्ति के मत पौराणिक और अनुमानपरक हैं। राष्ट्रकूट या मालव उत्पत्ति के मत भी ठोस प्रमाणों के अभाव में मान्य नहीं हैं। परमार वशिष्ठ गोत्र के ब्राह्मण थे, जो शासकीय भूमिका के कारण क्षत्रिय बने। बाद में, उन्होंने अग्निकुंड जैसे मिथकों के माध्यम से अपनी दैवी उत्पत्ति का प्रचार किया।
परमारों का मूलस्थान
परमारों के मूलस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। अग्निकुंड मिथक के आधार पर सी.वी. वैद्य और वी.ए. स्मिथ जैसे कुछ विद्वानों का अनुमान है कि परमारों का मूल स्थान माउंट आबू था। यह मिथक परमारों को अग्नि से उत्पन्न राजवंश के रूप में चित्रित करता है। डी.सी. गांगुली ने हरसोल ताम्रलेख और आइने-अकबरी के आधार पर तर्क दिया कि परमार दक्कन क्षेत्र से आए थे।
परमारों के सबसे पुराने शिलालेख, जो सीयक द्वितीय के हैं, गुजरात से प्राप्त हुए हैं। इन शिलालेखों का संबंध भूमि-अनुदान से है, जिसके आधार पर माना जाता है कि परमार आरंभ में गुजरात से संबंधित थे। ऐतिहासिक साक्ष्यों, जैसे उदयपुर प्रशस्ति और धार के शिलालेखों के आधार पर कुछ इतिहासकारों का मानना है कि प्रारंभिक परमार शासक, जिनकी राजधानी मालवा में धारा थी, गुर्जर-प्रतिहारों के आक्रमण के कारण अस्थायी रूप से गुजरात चले गए। नवसाहसांकचरित में उल्लेख है कि परमार राजा वैरीसिंह ने शत्रुओं के भय से मालवा छोड़ दिया। 945-946 ई. के एक गुर्जर-प्रतिहार शिलालेख से पता चलता है कि राजा महेंद्रपाल ने मालवा पर पुनः अधिकार कर लिया। यह परमारों के मालवा से विस्थापन और गुर्जर-प्रतिहारों के प्रभाव का सूचक है।
इस प्रकार परमारों का मूलस्थान निश्चित रूप से निर्धारित करना कठिन है। माउंट आबू, दक्कन और गुजरात से उनके संबंध के साक्ष्य मौजूद हैं, लेकिन गुजरात से प्राप्त प्रारंभिक शिलालेख और मालवा के साथ उनके ऐतिहासिक संबंध से प्रतीत होता है कि वे संभवतः गुजरात से प्रारंभ होकर मालवा में स्थापित हुए। गुर्जर-प्रतिहार आक्रमणों के कारण उनके अस्थायी विस्थापन ने भी उनके भौगोलिक आधार को प्रभावित किया।
मालवा के प्रारंभिक परमार शासक
उपेंद्र अथवा कृष्णराज (लगभग 800-818 ई.)
परमार वंश का संस्थापक उपेंद्र या कृष्णराज (लगभग 800-818 ई.) था। इस समय परमार प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों के सामंत थे। उपेंद्र ने छोटे-छोटे स्थानीय कबीलों को एकजुट कर मालवा में अपनी स्थिति सुदृढ़ की। उदयपुर प्रशस्ति में कहा गया है कि उपेंद्र ने अपने पराक्रम से राजत्व का उच्च पद प्राप्त किया (शौर्याज्जितोत्तुंगनृपत्वमाणः)।
ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि 808-812 ई. के मध्य राष्ट्रकूटों ने मालवा से गुर्जर-प्रतिहारों को निष्कासित किया। इस समय मालवा का लाट क्षेत्र राष्ट्रकूट राजा गोविंद तृतीय के अधीन था। गोविंद तृतीय के पुत्र अमोघवर्ष प्रथम के 871 ई. के संजन ताम्रपत्रलेख में उल्लेख है कि उसके पिता ने मालवा में एक सामंत नियुक्त किया था। संभवतः यह सामंत उपेंद्र ही था। इस प्रारंभिक काल में परमारों ने धारा (धार) को अपनी राजधानी बनाया।
उदयपुर प्रशस्ति से पता चलता है कि उपेंद्र के बाद कई प्रारंभिक शासक हुए, जैसे वैरीसिंह प्रथम (लगभग 818-843 ई.), सीयक प्रथम (843-893 ई.), वाक्पति प्रथम (लगभग 893-918 ई.) और वैरीसिंह द्वितीय (लगभग 918-948 ई.)। इन प्रारंभिक राजाओं की ऐतिहासिकता के संबंध में इतिहासकारों के बीच विवाद है, लेकिन अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि उदयपुर प्रशस्ति में वर्णित प्रारंभिक शासक काल्पनिक नहीं हैं। इन शासकों के नाम अन्य शिलालेखों में इसलिए नहीं मिलते, क्योंकि वे स्वतंत्र शासक नहीं, बल्कि मान्यखेट के राष्ट्रकूटों के अधीन सामंत थे।
इस प्रकार परमार वंश की स्थापना नवीं शताब्दी में उपेंद्र (कृष्णराज) द्वारा हुई, जो मालवा में राष्ट्रकूटों के अधीन शासन करता था। 10वीं शताब्दी तक आते-आते परमारों का स्वतंत्र शक्ति के रूप में उत्थान हुआ।
परमार साम्राज्य का विकास और स्वतंत्रता
9वीं शताब्दी में परमारों ने धीरे-धीरे स्वतंत्रता की ओर कदम बढ़ाया। वाक्पति प्रथम (लगभग 893-918 ई.) इस काल का एक महत्त्वपूर्ण शासक था। उसके समय में परमारों ने मालवा में अपनी स्थिति सुदृढ़ की और राष्ट्रकूटों के साथ गठबंधन किया। वाक्पति ने धारा को एक मजबूत किलेबंद शहर के रूप में विकसित किया। 10वीं शताब्दी में वैरीसिंह द्वितीय (लगभग 918-948 ई.) और सीयक द्वितीय (लगभग 948-972 ई.) ने परमार वंश को स्वतंत्र शक्ति के रूप में स्थापित किया।
हर्ष अथवा सीयक द्वितीय (948-974 ई.)
परमार वंश का पहला ज्ञात स्वतंत्र शासक हर्ष अथवा सीयक द्वितीय था, जो वैरीसिंह द्वितीय (लगभग 918-948 ई.) का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उसके शासनकाल में मालवा में परमारों के स्वतंत्र राज्य की नींव पड़ी। सीयक द्वितीय के हरसोल ताम्रलेख (949 ई.) से पता चलता है कि वह आरंभ में राष्ट्रकूटों का सामंत था। उसने राष्ट्रकूटों के सामंत के रूप में प्रतिहारों के विरुद्ध अभियानों में भाग लिया, जिससे मालवा और गुजरात में उसकी स्थिति सुदृढ़ हुई। शिलालेख में उसकी उपाधि ‘महाराजाधिराजपरमेश्वर’ मिलती है जिससे प्रतीत होता है कि वह राष्ट्रकूटों की नाममात्र की अधीनता स्वीकार करता था।
सीयक ने हृासोन्मुख गुर्जर-प्रतिहार राजसत्ता का पूर्ण लाभ उठाया। उसने राष्ट्रकूटों को पराजित कर मालवा में परमारों के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। इसके बाद, उसने अन्य क्षेत्रों में विजय अभियान किया और गुजरात और राजस्थान के कुछ हिस्सों तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उसने धारा (धार, मध्य प्रदेश) को अपनी राजधानी बनाया और परमार वंश को मालवा में एक शक्तिशाली शक्ति के रूप में स्थापित किया। वास्तव में, सीयक की उपलब्धियाँ परमार वंश के स्वर्णकाल की शुरुआत का प्रतीक थीं।
सीयक द्वितीय की राजनीतिक उपलब्धियाँ
योगराज की पराजय
सीयक द्वितीय के हरसोल लेख के अनुसार उसने योगराज नामक किसी शत्रु को पराजित किया। योगराज की पहचान अस्पष्ट है। संभवतः वह गुजरात के चौलुक्य वंश से संबंधित था या प्रतिहार नरेश महेंद्रपाल प्रथम का कोई सामंत था।
हूणमंडल की विजय
नवसाहसांकचरित के अनुसार सीयक ने मालवा के उत्तर में शासन करने वाले हूणों को पराजित कर हूणमंडल पर अधिकार किया। हूणमंडल से तात्पर्य मध्य प्रदेश के इंदौर के समीपवर्ती क्षेत्र से है, जिसे जीतकर सीयक ने अपने साम्राज्य में शामिल किया। इस आक्रमण के दौरान सीयक ने हूण राजकुमारों की हत्या कर उनकी रानियों को विधवा बना दिया।
राष्ट्रकूटों के विरुद्ध सफलता
सीयक की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि 972 ई. में राष्ट्रकूट नरेश खोट्टिग को नर्मदा नदी के तट पर पराजित करना थी। उसने राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट तक खोट्टिग का पीछा किया। राष्ट्रकूटों के साथ संघर्ष में सीयक का एक सेनापति भी मारा गया। उदयपुर प्रशस्ति में काव्यात्मक रूप से कहा गया है कि सीयक ने ‘गरुड़ की भाँति भयंकरता दिखाते हुए खोट्टिग की लक्ष्मी को छीन लिया’। इस विजय से स्पष्ट है कि सीयक ने राष्ट्रकूटों की अधीनता का जुआ उतार फेंका और परमारों के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।
चंदेलों द्वारा पराजय
सीयक की वर्धमान शक्ति पर जेजाकभुक्ति के चंदेलों ने अंकुश लगाया। खजुराहो लेख के अनुसार जेजाकभुक्ति के चंदेल शासक यशोवर्मन ने सीयक को पराजित किया, जो ‘मालवों के लिए काल’ के समान था। ऐसा प्रतीत होता है कि यशोवर्मन का उद्देश्य परमारों को आतंकित करना था, क्योंकि उसने परमार राज्य के किसी भाग पर अधिकार नहीं किया।
अपनी स्वतंत्रता घोषित करने के बाद सीयक ने सम्राटोचित विरुद धारण किए। उनकी राजसभा में प्राकृत शब्दकोष ‘पाइय-लच्छी’ के रचयिता धनपाल रहते थे, जो उनके सांस्कृतिक संरक्षण का सूचक है।
इस प्रकार सीयक द्वितीय ने राष्ट्रकूटों की अधीनता से मुक्त होकर मालवा में परमार वंश के स्वतंत्र शासन की स्थापना की, जो दक्षिण में ताप्ती नदी, उत्तर में झालावर, पूर्व में भिलसा और पश्चिम में साबरमती से घिरा हुआ था। उसकी विजयों ने परमार राज्य को सुदृढ़ किया, लेकिन चंदेल आक्रमण ने उसकी शक्ति को सीमित कर दिया।
परमार वंश का स्वर्णकाल (ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी)
वाक्पति द्वितीय (मुंज) (974-995 ई.)
परमार शासक सीयक के दो पुत्र थे- मुंज (दत्तक) और सिंधुराज (जैविक)। सीयक की मृत्यु के बाद उसका दत्तक पुत्र मुंज परमार वंश की गद्दी पर बैठा। प्रबंधचिंतामणि के अनुसार सीयक को लंबे समय तक कोई संतान नहीं हुई। संयोगवश, उसे मुंज घास में पड़ा एक नवजात शिशु मिला, जिसे उसने गोद लिया और घास में पाए जाने के कारण उसका नाम ‘मुंज’ रखा। बाद में, सीयक की पत्नी से सिंधुराज का जन्म हुआ। सीयक ने मुंज को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, यद्यपि कुछ विद्वानों को इस कथा की ऐतिहासिकता पर संदेह है। मुंज को वाक्पति द्वितीय और उत्पलराज के नाम से भी जाना जाता है।
वाक्पति द्वितीय (मुंज) की सैन्य उपलब्धियाँ
वाक्पति द्वितीय (मुंज) एक शक्तिशाली शासक था, जिसने अपने सैनिक अभियानों के द्वारा परमार साम्राज्य का विस्तार कोंकण, गुजरात और मेवाड़ तक किया। उसकी विजयों की सूची उदयपुर प्रशस्ति में मिलती है।
कलचुरियों पर विजय
उदयपुर प्रशस्ति के अनुसार मुंज ने कलचुरि शासक युवराज द्वितीय को हराकर त्रिपुरी (उनकी राजधानी) को लूटा। लेकिन वह त्रिपुरी को अधिक समय तक अपने अधिकार में नहीं रख सका और उसे कलचुरि नरेश से संधिकर उसकी राजधानी वापस करनी पड़ी।
हूणों पर सफलता
एक लेख के अनुसार मुंज ने हूणमंडल क्षेत्र में वणिका ग्राम को ब्राह्मणों को दान दिया, जो हूण क्षेत्र पर उसकी विजय का प्रमाण है। यह क्षेत्र तोरमाण और मिहिरकुल के विशाल साम्राज्य का अंतिम अवशेष था।
मेवाड़ के गुहिलों पर विजय
मुंज ने मेवाड़ के गुहिलवंशी शासक शक्तिकुमार को हराकर उसकी राजधानी आघाट (अहर, उदयपुर) को लूटा। राष्ट्रकूटवंशी धवल के बीजापुर लेख के अनुसार गुहिल नरेश ने भागकर उसके दरबार में शरण ली। इस युद्ध में गुर्जर क्षेत्र के किसी शासक ने शक्तिकुमार की मदद की, लेकिन वह भी मुंज द्वारा पराजित हुआ। इस पराजित नरेश की पहचान दशरथ शर्मा और एच.सी. राय चालुक्य नरेश मूलराज से करते हैं, जबकि मजूमदार जैसे इतिहासकारों के अनुसार वह कन्नौज के प्रतिहारों का कोई सामंत था।
चाहमानों पर विजय
परमार नरेश वाक्पति मुंज का शाकम्भरी और नड्डुल के चाहमानों से भी युद्ध हुआ। उसने नड्डुल के चाहमान शासक बलिराज को हराकर आबू पर्वत तथा जोधपुर के दक्षिणी भाग पर अधिकार कर लिया।
लाट राज्य पर आक्रमण
पश्चिम में मुंज ने लाट राज्य पर आक्रमण किया। इस समय लाट प्रदेश पर कल्याणी के चालुक्यों का अधिकार था, जहाँ तैलप द्वितीय का सामंत वारप्प और उसका पुत्र गोगीराज शासन कर रहे थे। मुंज ने वारप्प को पराजित किया, जिसके कारण चालुक्य नरेश तैलप से उसका संघर्ष आरंभ हो गया।
चालुक्य राज्य पर आक्रमण और मृत्यु
वाक्पति द्वितीय की सबसे प्रमुख सैन्य उपलब्धि चालुक्य शासक तैलप द्वितीय के विरूद्ध अभियान थी। प्रबंधचिंतामणि के अनुसार वाक्पति मुंज ने तैलप की सेनाओं को छह बार पराजित किया। लेकिन बाद में उसने मंत्री रुद्रादित्य के परामर्श की उपेक्षा करते हुए गोदावरी नदी पार कर स्वयं चालुक्य राज्य पर आक्रमण किया। फलतः वह चालुक्य सेना द्वारा बंदी बना लिया गया और बंदीगृह में 995 ईस्वी में उसका वध कर दिया गया। तैलप ने परमार राज्य के नर्मदा के दक्षिणी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इस घटना का उल्लेख प्रबंधचिंतामणि के अलावा कैथोम और गडग जैसे चालुक्य लेखों में भी मिलता है।
वाक्पति मुंज की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
वाक्पति द्वितीय (मुंज) स्वयं उच्चकोटि का कवि और विद्या-कला का संरक्षक था। उसने भारत के विभिन्न हिस्सों से मालवा में विद्वानों को आमंत्रित किया, जिनमें पद्मगुप्त, धनंजय, धनिक, हलायुध आदि थे। पद्मगुप्त ने नवसाहसांकचरित, धनंजय ने दशरूपक, धनिक ने दशरूपावलोक और हलायुध ने अभिधानरत्नमाला तथा मृतसंजीवनी की रचना की। पद्मगुप्त ‘परिमल’ ने मुंज की विद्वता की प्रशंसा में लिखा कि विक्रमादित्य के चले जाने और सातवाहन के अस्त हो जाने पर सरस्वती को कवियों के मित्र मुंज के दरबार में ही आश्रय मिला।
एक महान निर्माता के रूप में वाक्पति मुंज ने उज्जैन, धर्मपुरी, माहेश्वर आदि में अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। उसने अपनी राजधानी धारा में मुंजसागर झील और गुजरात में मुंजपुर नगर बसाया।
मुंज ने उत्पलराज, श्रीवल्लभ, पृथ्वीवल्लभ और अमोघवर्ष जैसी प्रसिद्ध उपाधियाँ धारण की। वह प्रबंधचिंतामणि की अनेक कथाओं का नायक है।
इस प्रकार वाक्पति मुंज एक शक्तिशाली शासक, कवि और संरक्षक था। उसने धार को एक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित किया। लेकिन चालुक्य शासक तैलप द्वितीय के हाथों उसकी पराजय और मृत्यु ने उसके साम्राज्य की सीमाओं को सीमित कर दिया।
सिंधुराज (995-1010 ई.)
वाक्पति द्वितीय मुंजराज के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उसकी मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई सिंधुराज (995-1010 ई.) परमार वंश का शासक बना। उसने कुमारनारायण और साहसांक जैसी उपाधियाँ धारण कीं।
सिंधुराज की उपलब्धियाँ
सिंधुराज एक महान विजेता और साम्राज्य निर्माता शासक था। उसने अपनी सैन्य शक्ति को पुनर्गठित करके परमार साम्राज्य की खोई प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने का प्रयत्न किया।
चालुक्यों पर विजय
मुंज की पराजय और मृत्यु के बाद कल्याणी के चालुक्य शासक तैलप द्वितीय ने परमारों के दक्षिणी क्षेत्र छीन लिए थे। नवसाहसांकचरित के अनुसार सिंधुराज ने ‘कुंतलेश्वर’ द्वारा अधिग्रहीत अपने राज्य को तलवार के बल पर पुनः अपने अधिकार में किया। यहाँ ‘कुंतलेश्वर’ से तात्पर्य सत्याश्रय से है, जो सिंधुराज का समकालीन था।
कोशल, लाट, अपरांत और मुरल पर विजय
पद्मगुप्त के नवसाहसांकचरित में सिंधुराज को कोशल, लाट, अपरांत और मुरल का विजेता बताया गया है। कोशल से तात्पर्य दक्षिणी कोसल (छत्तीसगढ़ का रायपुर-बिलासपुर) से है। सिंधुराज ने कोशल के सोमवंशी राजाओं को पराजित किया। लाट प्रदेश गुजरात में था, जहाँ कल्याणी के चालुक्यों का सामंत गोंगीराज शासन कर रहा था। सिंधुराज ने उस पर आक्रमण कर उसे पराजित किया। इसके बाद, उसने अपरांत (कोंकण) के शिलाहारों को अपने अधीन किया। मुरल की पहचान निश्चित नहीं है। यह राज्य संभवतः अपरांत और केरल के बीच स्थित था।
वज्रकुश पर विजय
स्रोतों से ज्ञात होता है कि बस्तर राज्य के नलवंशी शासक ने वज्र (वैरगढ़, मध्य प्रदेश) के अनार्य शासक वज्रकुश के विरुद्ध सिंधुराज से सहायता माँगी। सिंधुराज ने विद्याधरों को साथ लेकर गोदावरी पार की और अनार्य शासक वज्रकुश की हत्या कर दी। विद्याधर थाना जिले के शिलाहार थे, जिनका शासक अपराजित था। नल शासक ने कृतज्ञतावश अपनी पुत्री शशिप्रभा का विवाह सिंधुराज से किया।
हूणों का दमन
उत्तर की ओर सिंधुराज ने हूणमंडल के शासक को पराजित किया। उदयपुर प्रशस्ति और नवसाहसांकचरित दोनों में हूणों के पूर्ण दमन का उल्लेख मिलता है।
वागड़ में विद्रोह का दमन
ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि वागड़ के परमार सामंत चंडप ने विद्रोह किया, जिसे सिंधुराज ने बड़ी सरलता से कुचल दिया।
सिंधुराज की असफलता
जयसिंह सूरि के कुमारपालचरित और वाडनगर लेख के अनुसार सिंधुराज को गुजरात के चालुक्य शासक मूलराज प्रथम के पुत्र चामुंडराज के हाथों पराजित होना पड़ा। संभवतः इस युद्ध में सिंधुराज को युद्धभूमि से भागकर अपनी जान बचानी पड़ी।
इस असफलता के बावजूद, सिंधुराज एक योग्य शासक था, जिसके शासनकाल में परमार वंश की प्रतिष्ठा पुनर्स्थापित हुई। उसके दरबारी कवि पद्मगुप्त ‘परिमल’ ने उसकी जीवनी नवसाहसांकचरित की रचना की, जो उसके शासन और विजयों का प्रामाणिक स्रोत है। तिलकमंजरी का रचनाकार धनपाल संभवतः उसका दरबारी कवि था। सिंधुराज की मृत्यु 1010 ई. के आसपास हुई।
परमार शासक भोज (1010-1055 ई.)
सिंधुराज के पश्चात उसका पुत्र भोज परमार वंश का शासक हुआ, जो इतिहास में विद्या और शौर्य का प्रतीक माना जाता है। वास्तव में, भोज की गणना भारत के सबसे विख्यात और लोकप्रिय शासकों में की जाती है क्योंकि उसके शासनकाल में परमार राज्य राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से विकास की पराकाष्ठा पर पहुँच गया। भोज के शासनकाल की घटनाओं की सूचना देने वाले आठ अभिलेख मिले हैं, जो 1011 ईस्वी से 1046 ईस्वी तक के हैं।
परमार भोज की सैनिक उपलब्धियाँ
भोज की सैनिक उपलब्धियों की सूचना उदयपुर प्रशस्ति से मिलती है, जिसके अनुसार उसने अपने पड़ोसियों, जैसे चालुक्यों, चाहमानों, कलचुरियों, शिलाहारों और राष्ट्रकूटों के विरूद्ध अभियान किया और अपने साम्राज्य का विस्तार लाट, कोंकण, मेवाड़ और विदर्भ तक किया।
कल्याणी के चालुक्यों से संघर्ष
भोज ने अपने चिरशत्रु कल्याणी के चालुक्यों से वाक्पति मुंज की हार का बदला लेने के लिए त्रिपुरी के कलचुरि शासक गांगेयदेव और चोल शासक राजेंद्र से मित्रता की। इसके बाद, उसने कल्याणी के चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय के विरुद्ध सैनिक अभियान किया और संभवतः गोदावरी नदी के आसपास के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। लेकिन इस अभियान में उसकी सफलता संदिग्ध है, क्योंकि चालुक्य और परमार दोनों पक्ष अपनी-अपनी जीत का दावा करते हैं। संभवतः इस अभियान के आरंभ में भोज को कुछ सफलता मिली और गोदावरी के आसपास के क्षेत्रों पर उसका अधिकार हो गया।
कर्णाट, लाट और कोंकण की विजय
भोज के सामंत यशोवर्मन के कलवन लेख में भोज को कर्णाट, लाट और कोंकण की विजय का श्रेय दिया गया है। भोज ने 1018 ईस्वी के आसपास लाट के चालुक्य सामंत कीर्तिवर्मन को पराजित कर आत्मसमर्पण के लिए बाध्य किया और यशोवर्मन को लाट का शासक नियुक्त किया।
उत्तरी कोंकण की विजय
1018 और 1020 ईस्वी के बीच भोज ने उत्तरी कोंकण की विजय की, जहाँ शिलाहार वंश के राजा अरिकेसरी का शासन था। मीरज लेख के अनुसार भोज ने कोंकण नरेश को पराजित कर ‘कोंकण-ग्रहण विजयपर्व’ के रूप में उत्सव मनाया। कोंकण की विजय से चालुक्य साम्राज्य के उत्तर में गोदावरी के निकटवर्ती कुछ क्षेत्र भी भोज के अधिकार में आ गए। लेकिन कोंकण पर भोज की विजय स्थायी नहीं रही और शीघ्र ही चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय ने कोंकण पर पुनः अधिकार कर लिया।
उड़ीसा की विजय
उदयपुर प्रशस्ति के अनुसार भोज ने उड़ीसा के इंद्ररथ को पराजित किया। इंद्ररथ की पहचान कलिंग के सोमवंशी राजा इंद्रनाथ से की जाती है, जिसका उल्लेख चोल शासक राजेंद्र के तिरुमलै लेख में भी मिलता है। विद्वानों का मानना है कि चोलों के सहायक के रूप में भोज ने इंद्ररथ को पराजित करने में सफलता पाई थी।
चेदि राज्य की विजय
उदयपुर प्रशस्ति और कलवन लेख से पता चलता है कि भोज ने चेदि वंश के राजा को पराजित किया। यह पराजित चेदि नरेश गांगेयदेव रहा होगा, जो भोज का समकालीन था। पहले गांगेयदेव और भोज के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध थे, लेकिन प्रतिहार क्षेत्रों पर अधिकार को लेकर दोनों के बीच शत्रुता हो गई थी।
तोग्गल और तुरुष्क की विजय
उदयपुर प्रशस्ति के अनुसार भोज ने तोग्गल और तुरुष्क को विजित किया। कुछ विद्वान इसे तुर्कों की विजय से जोड़ते हैं और मानते हैं कि भोज ने महमूद गजनवी के किसी सरदार को युद्ध में पराजित किया था, लेकिन यह निष्कर्ष संदिग्ध है।
चंदेलों से संघर्ष
भोज ने पूर्व की ओर साम्राज्य को विस्तारित करने का प्रयास किया, लेकिन समकालीन चंदेल नरेश विद्याधर और उसके ग्वालियर तथा दूबकुंड के कछवाहा सामंतों ने इसे विफल कर दिया। एक चंदेल लेख में कहा गया है कि ‘कलचुरि चंद्र और भोज विद्याधर की गुरु के समान पूजा करते थे।’ ग्वालियर के कछवाहा शासक महीपाल के सासबहू लेख से भी पता चलता है कि कछवाहा सामंत कीर्तिराज ने भोज की सेनाओं को पराजित किया। संभवतः कीर्तिराज ने अपने स्वामी विद्याधर की सहायता से भोज को पराजित किया था। लेकिन विद्याधर की मृत्यु के बाद चंदेल शक्ति कमजोर पड़ गई और कछवाहा सामंत अभिमन्यु को भोज की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।
चाहमानों की विजय
मालवा के पश्चिमोत्तर में चाहमानों का राज्य था। इसलिए भोज का उनके साथ संघर्ष होना स्वाभाविक था। पृथ्वीराजविजय के अनुसार भोज ने चाहमान शासक वीर्याराम को पराजित कर मार डाला और कुछ समय के लिए शाकम्भरी पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में परमारों का सेनापति साढ़ मारा गया। लेकिन वीर्याराम के उत्तराधिकारी चामुंडराज ने शाकम्भरी पर पुनः अधिकार कर लिया।
चालुक्य नरेश भीम पर आक्रमण
प्रबंधचिंतामणि के अनुसार भोज ने अपने जैन सेनानायक कुलचंद्र के नेतृत्व में एक सेना चालुक्य नरेश भीम पर आक्रमण करने के लिए भेजी। उस समय भीम सिंध अभियान पर गया हुआ था। उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर कुलचंद्र ने चालुक्यों की राजधानी अन्हिलवाड़ को बुरी तरह लूटा। उदयपुर प्रशस्ति में कहा गया है कि भोज ने अपने भृत्यों के माध्यम से भीम पर विजय पाई।
तुर्क आक्रांताओं के विरुद्ध सहयोग
मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार सोमनाथ को आक्रांत करने के बाद महमूद गजनवी ने परमदेव नामक एक हिंदू राजा के साथ संघर्ष से बचने के लिए अपना मार्ग बदल दिया था। कुछ इतिहासकार इस परमदेव की पहचान परमार शासक भोज के रूप में करते हैं।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार भोज ने महमूद गजनवी के विरुद्ध काबुलशाही शासक आनंदपाल की सहायता की थी। संभवतः भोज उस गठबंधन में शामिल था, जिसने 1043 ईस्वी के आसपास हाँसी, थानेसर और अन्य क्षेत्रों से महमूद गजनवी के राज्यपालों को निष्कासित किया था।
असफलता और मृत्यु
भोज को अपने जीवन के अंतिम दिनों में भारी असफलताओं का सामना करना पड़ा। 1042 ईस्वी के आसपास चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम ने धारा पर आक्रमण किया और भोज को पराजित होकर अपनी राजधानी छोड़कर भागना पड़ा। चालुक्यों ने धारा को लूटकर जला दिया। सोमेश्वर की इस विजय की पुष्टि नगाई लेख (1058 ई.) और बिल्हणकृत विक्रमांकदेवचरित से होती है, जिसके अनुसार भोज ने भागकर अपने जीवन की रक्षा की।
भोज ने चालुक्य सेना के लौटने के बाद मालवा पर पुनः अधिकार किया, लेकिन इस पराजय से उसके राज्य की दक्षिणी सीमा गोदावरी से सिमटकर नर्मदा तक हो गई।
भोज के शासनकाल के अंत में चालुक्यों और कलचुरियों ने उसके विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा बनाया। इस संयुक्त मोर्चे का नेता कलचुरि नरेश लक्ष्मीकर्ण था। चालुक्यों और कलचुरियों की संयुक्त सेना ने भोज की राजधानी धारा पर आक्रमण किया। प्रबंधचिंतामणि के अनुसार इसी दौरान अवसादग्रस्त भोज की मृत्यु (लगभग 1055 ई.) हो गई। भोज के मरते ही कलचुरि लक्ष्मीकर्ण और चालुक्य भीम की संयुक्त सेना ने धारा नगरी पर आक्रमण कर उसे बुरी तरह लूटकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और धारा सहित राज्य के एक बड़े भाग पर अधिकार कर लिया।
भोज का साम्राज्य-विस्तार
यद्यपि भोज का अंत दुखद हुआ, फिर भी वह अपने युग का एक पराक्रमी शासक था। उसने अपने समकालीन उत्तर और दक्षिण की प्रायः सभी शक्तियों से संघर्ष किया और परमार सत्ता का विस्तार किया। उदयपुर लेख में उसकी प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि ‘पृथु की तुलना करने वाले भोज ने कैलाश से मलय पर्वत तक तथा उदयाचल से अस्ताचल तक की समस्त पृथ्वी पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसने अपने धनुष-बाण से पृथ्वी के समस्त राजाओं को उखाड़कर उन्हें विभिन्न दिशाओं में बिखेर दिया।’
अपने उत्कर्ष काल में भोज के साम्राज्य का विस्तार उत्तर में चित्तौड़ से लेकर दक्षिण में ऊपरी कोंकण तक और पश्चिम में साबरमती नदी से पूरब में उड़ीसा तक था। यद्यपि उसकी क्षेत्रीय विजयें अल्पकालिक थीं, लेकिन उसके सेनानायकों- कुलचंद्र, साढ़ और सूरादित्य ने परमार साम्राज्य के विस्तार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
राजा भोज की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
राजा भोज भारतीय इतिहास में एक महान शासक, विद्वान और कला-साहित्य के संरक्षक के रूप में प्रसिद्ध है। परमार वंश के इस चक्रवर्ती सम्राट ने न केवल अपने साम्राज्य का विस्तार किया, बल्कि प्रशासन, शिक्षा, साहित्य, कला और विज्ञान के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान दिया। उसकी बहुमुखी प्रतिभा और विद्वता के कारण ‘कविराज’ की उपाधि प्राप्त हुई थी।
भोज स्वयं एक महान विद्वान और कवि थे। उसने संस्कृत में कई ग्रंथों की रचना की, जो ज्योतिष, व्याकरण, वास्तुशास्त्र, राजनीति, चिकित्सा नीतिशास्त्र आदि विविध विषयों पर आधारित हैं। भोज की प्रमुख साहित्यिक रचनाओं में समरांगण सूत्रधार, युक्तिकल्पतरु, सरस्वतीकंठाभरण, आयुर्वेद सर्वस्व, व्यवहारमंजरी, चारुचर्या, शृंगारमंजरी, सिद्धांत संग्रह, योगसूत्रवृत्ति, तत्वप्रकाश, चंपूरामायण, विद्या विनोद, शृंगारप्रकाश, शब्दानुशासन, राजमृगांक और कूर्मशतक महत्त्वपूर्ण हैं।
समरांगण सूत्रधार भोज का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है, जो वास्तुशास्त्र, मूर्तिकला और नगर नियोजन पर एक विस्तृत रचना है, जिसमें मंदिर निर्माण, नगर नियोजन और यंत्र निर्माण के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। साथ ही, मशीनों और यांत्रिकी के तकनीकी पहलुओं का भी उल्लेख है। युक्तिकल्पतरु राजनीति, शस्त्र विद्या और शासन प्रणाली पर आधारित है। सरस्वती कंठाभरण व्याकरण और काव्यशास्त्र पर आधारित ग्रंथ है। आयुर्वेद सर्वस्व चिकित्सा और आयुर्वेद पर आधारित ग्रंथ है, जिसमें औषधियों, रोग निदान और उपचार के तरीकों का वर्णन है। व्यवहारमंजरी हिंदू विधि या धर्मशास्त्र पर, चारुचर्या व्यक्तिगत स्वच्छता एवं सौंदर्य पर और शृंगारमंजरी श्रृंगार पर आधारित ग्रंथ हैं। सिद्धांत संग्रह ज्योतिष और गणित पर आधारित एक ग्रंथ है, जबकि योगसूत्रवृत्ति योग दर्शन पर टीका है। तत्वप्रकाश विभिन्न दार्शनिक विषयों पर और चंपूरामायण रामायण पर आधारित एक काव्य ग्रंथ है। विद्या विनोद विभिन्न विद्याओं और ज्ञान के क्षेत्रों पर आधारित है, जिसमें दर्शन, गणित और ज्योतिष जैसे विषय शामिल हैं। इनके अलावा, शृंगारप्रकाश, शब्दानुशासन, राजमृगांक और कूर्मशतक भी भोज की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं, जो विभिन्न विषयों पर आधारित हैं। यही कारण है कि परमार भोज को सरस्वती देवी का भक्त माना जाता था।
राजा भोज ने मालवा में वास्तुशिल्प और जल प्रबंधन के क्षेत्र में भी अद्भुत परियोजनाएँ शुरू की, जो अभियांत्रिकी और कला के प्रति उसके प्रेम का परिचायक हैं। उसने राजधानी धारा (धार) को एक सांस्कृतिक और शैक्षिक केंद्र के रूप में विकसित किया और वहाँ के सरस्वती मंदिर में भोजशाला नामक एक प्रसिद्ध संस्कृत विद्यालय तथा पुस्तकालय की स्थापना की, जिसके कारण मालवा विद्या और कला का प्रसिद्ध केंद्र बन गया। संस्कृत विद्यालय में स्थापित सरस्वती की प्रतिमा आज भी ब्रिटिश म्यूजियम, लंदन में सुरक्षित है। धार का किला और विजय-स्तंभ जैसी अन्य संरचनाएँ उसकी वास्तुशिल्पीय रुचि का प्रमाण हैं। भोज ने जनकल्याण और धार्मिक उद्देश्यों के लिए मालवा के विभिन्न हिस्सों में कई मंदिरों और सार्वजनिक भवनों का निर्माण करवाया।
राजा भोज ने भोजपुर नगर की स्थापना की और वहाँ भोजेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया, जो भोज के शासनकाल की सबसे प्रसिद्ध वास्तुशिल्पीय कृति है। इस मंदिर में स्थापित विशाल शिवलिंग भारत के सबसे बड़े शिवलिंगों में से एक है। यद्यपि मंदिर का निर्माण अधूरा रह गया, लेकिन इसकी भव्यता और वास्तुशिल्पीय आकृति आज भी प्रभावशाली है। यह मंदिर भोज के समरांगण सूत्रधार में वर्णित वास्तु सिद्धांतों का जीवंत उदाहरण है। परमार भोज ने चित्तौड़ में त्रिभुवन नारायण मंदिर का भी निर्माण करवाया, जो शिव को समर्पित है और तत्कालीन स्थापत्य की उत्कृष्टता का प्रतीक है। यही नहीं, भोपाल (भोजपाल) शहर की स्थापना का श्रेय भी भोज को दिया जाता है।
भोज ने जल संरक्षण की कई परियोजनाओं को प्रोत्साहन दिया। उसने जल संरक्षण और सिंचाई के लिए भोजपुर नगर में तीन बाँध बनवाया और भोजसर (भोजताल) नामक एक विशाल कृत्रिम झील का निर्माण करवाया, जो परमारकालीन जल प्रबंधन और अभियांत्रिकी का उत्कृष्ट उदाहरण है।
भोज की राजसभा में भास्कर भट्ट, दामोदर मिश्र और धनपाल जैसे विद्वान थे। उसकी उदारता और दानशीलता के संबंध में कहा जाता है कि वह प्रत्येक कवि को प्रत्येक श्लोक पर एक लाख मुद्राएँ पुरस्कार देता था।
इस प्रकार परमार भोज एक पराक्रमी और विद्वान शासक था, जिसने परमार वंश को राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रगति के शिखर पर पहुँचाया। उसकी मृत्यु (1055 ई.) से धारा नगरी, विद्या और विद्वान निराश्रित हो गए। एक लोकोक्ति में कहा गया है: ‘भोजराज के निधन के साथ ही धारा नगरी निराधार हो गई, सरस्वती बिना अवलंब के रह गई और सभी पंडित खंडित हो गए’-
अद्य धारा निराधारा निरावलंबा सरस्वती,
पंडिताः खंडिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते।।
विघटन और परवर्ती परमार शासक (1055-1310 ई.)
भोज की मृत्यु (1055 ई.) के साथ ही परमार वंश के गौरवशाली युग का अंत हो गया। उसके उत्तराधिकारी परवर्ती परमार शासक लगभग 1310 ईस्वी तक शासन करते रहे, लेकिन उनका कोई उल्लेखनीय राजनीतिक महत्त्व नहीं रहा।
जयसिंह प्रथम (1055-1060 ई.)
भोज की मृत्यु के बाद कलचुरि राजा कर्ण और चालुक्य राजा भीम प्रथम ने संयुक्त रूप से मालवा पर आक्रमण किया, जिससे परमारों की शक्ति क्षीण हो गई। जयसिंह और भोज के भाई उदयादित्य सिंहासन के दावेदार थे। चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रथम और उसके पुत्र राजकुमार विक्रमादित्य षष्ठ की सहायता से जयसिंह परमार सिंहासन पर बैठा। विक्रमादित्य षष्ठ के दरबारी कवि बिल्हण के अनुसार उसके संरक्षक ने मालवा में एक राजा के शासन को पुनः स्थापित करने में मदद की। यद्यपि बिल्हण ने मालवा के राजा का नाम नहीं लिया, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि वह जयसिंह ही था।
जयसिंह का उल्लेख केवल 1055-56 ईस्वी के मंधाता ताम्रलेख में मिलता है, जिसमें उसे ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर जयसिंहदेव’ कहा गया है। उदयपुर प्रशस्ति और नागपुर प्रशस्ति में भोज के बाद उसके भाई उदयादित्य का राजा के रूप में उल्लेख मिलता है।
लेकिन चालुक्य सोमेश्वर द्वितीय के सिंहासनारूढ़ होने पर स्थिति बदल गई। सोमेश्वर प्रथम की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों-सोमेश्वर द्वितीय और विक्रमादित्य षष्ठ के बीच उत्तराधिकार का युद्ध हुआ। सोमश्वर द्वितीय ने जयसिंह को विक्रमादित्य षष्ठ का सहयोगी मानकर कलचुरि राजा कर्ण और अन्य राजाओं के साथ मिलकर मालवा पर आक्रमण किया। इस युद्ध में जयसिंह पराजित हुआ और संभवतः मारा गया।
उदयादित्य (1060-1087 ई.)
जयसिंह प्रथम के बाद भोज का भाई उदयादित्य राजा बना, यद्यपि उदयपुर प्रशस्ति और नागपुर शिलालेख में भोज के बाद उदयादित्य का ही नाम मिलता है।
प्रारंभ में उदयादित्य को कलचुरि राजा कर्ण के विरुद्ध सफलता नहीं मिली। बाद में, उसने मेवाड़ के गुहिलोतों, नड्डुल और शाकम्भरी के चाहमानों से वैवाहिक संबंध स्थापित किए और चाहमान नरेश विग्रहराज की सहायता से कर्ण को पराजित कर धारा को मुक्त कराया। लेकिन कल्याणी के चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ ने परमार राज्य पर आक्रमण कर गोदावरी के दक्षिणी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।
उदयादित्य ने भिलसा के पास उदयपुर नगर बसाया और वहाँ नीलकंठेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया। इंदौर के एक गाँव में कई जैन और हिंदू मंदिर हैं, जिनमें से अधिकांश का निर्माण संभवतः उदयादित्य ने करवाया था।
उदयादित्य के तीन पुत्र- लक्ष्मदेव, नरवर्मन, जगदेव और एक पुत्री श्यामलदेवी थी।
लक्ष्मदेव (1087-1092 ई.)
उदयादित्य का उत्तराधिकारी उसका बड़ा पुत्र लक्ष्मदेव (1087-1092 ई.) हुआ। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि लक्ष्मदेव कभी राजा नहीं बना और उदयादित्य ने उसके भाई नरवर्मन को अपना उत्तराधिकारी बनाया, क्योंकि लक्ष्मदेव का नाम जयवर्मन द्वितीय के 1274 ईस्वी के मंधाता ताम्रलेख में वर्णित परमार राजाओं की सूची में नहीं है और उदयादित्य के उत्तराधिकारी के रूप में नरवर्मन का नाम मिलता है।
1104-05 ईस्वी की नागपुर प्रशस्ति में लक्ष्मदेव को चारों दिशाओं में विजय का श्रेय दिया गया है, जिसे काव्यात्मक अतिशयोक्ति माना जाता है। फिर भी, ऐसा प्रतीत होता है कि त्रिपुरी के कलचुरि राजा कर्ण की मृत्यु के बाद लक्ष्मदेव ने उसके उत्तराधिकारी यशःकर्ण को पराजित कर मालवा के समीपवर्ती क्षेत्र जीत लिए।
संभवतः उसने पालों की दुर्बलता का लाभ उठाकर बिहार और बंगाल में स्थित कुछ पाल क्षेत्रों पर भी आक्रमण किया। किंतु तुर्कों (महमूद गजनवी) के विरुद्ध उसे सफलता नहीं मिली और उज्जैन पर महमूद ने अधिकार कर लिया।
नरवर्मन (1092-1134 ई.)
लक्ष्मदेव के बाद उसका छोटा भाई नरवर्मन (निर्वाणनारायण) राजा बना, जिसे नरवर्मादेव के नाम से भी जाना जाता है। वह उदयादित्य का पुत्र था। मालवा के एक खंडित शिलालेख में कहा गया है कि ‘निर्वाणनारायण’ (नरवर्मन) ने उत्तर में हिमालय, दक्षिण में मलयाचल और पश्चिम में द्वारिका तक के क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की। लेकिन यह विवरण पारंपरिक काव्यात्मक अतिशयोक्ति मात्र है।
नरवर्मन एक दुर्बल शासक था और उसे न केवल कई पड़ोसियों से पराजित होना पड़ा, बल्कि अपने अधीनस्थों के विद्रोह का भी सामना करना पड़ा। जेजाकभुक्ति के चंदेल शासक मदनवर्मन ने नरवर्मन को पराजित कर मालवा के उत्तर-पूर्वी भिलसा क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। इसके अतिरिक्त, शाकम्भरी के चाहमान शासक अजयराज और उसके पुत्र अर्णाेराज ने भी नरवर्मन को पराजित किया। बिजौलिया लेख में कहा गया है कि अजयराज के पुत्र अर्णाेराज ने निर्वाणनारायण (नरवर्मन) का अपमान किया था।
चालुक्यों के तलवाड़ा शिलालेख से पता चलता है कि पश्चिम में अन्हिलवाड़ के चालुक्य शासक जयसिंह सिद्धराज ने नड्डुल के चाहमानों के सहयोग से नरवर्मन के राज्य पर कई बार आक्रमण कर उसे पराजित किया। कुछ स्रोतों के अनुसार नरवर्मन या उनका उत्तराधिकारी यशोवर्मन चालुक्यों द्वारा बंदी बनाए गए थे। इससे प्रतीत होता है कि चालुक्य-परमार युद्ध नरवर्मन के शासनकाल में शुरू हुआ और यशोवर्मन के शासनकाल में समाप्त हुआ। इस प्रकार नरवर्मन की पराजयों के कारण परमारों की शक्ति कमजोर हो गई।
सांस्कृतिक दृष्टि से नरवर्मन का शासनकाल महत्त्वपूर्ण था। वह स्वयं विद्वान और कवि था। उसने अनेक भजनों की रचना की और संभवतः नागपुर प्रशस्ति की भी रचना की। उसने उज्जैन के महाकाल मंदिर का जीर्णाेद्धार करवाया। उसके द्वारा जारी किए गए सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्के इंदौर से प्राप्त हुए हैं।
यशोवर्मन (1134-1142 ई.)
नरवर्मन का उत्तराधिकारी उसका पुत्र यशोवर्मन हुआ, जिसका उल्लेख 1135 ईस्वी के उज्जैन अभिलेख में ‘महाराजा यशोवर्मादेव’ के रूप में मिलता है।
चालुक्यों के आक्रमणों के कारण यशोवर्मन अपने साम्राज्य को व्यवस्थित नहीं रख सका, जिससे परमार साम्राज्य बिखरता चला गया। चालुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज ने नड्डुल के चाहमान आशाराज के साथ मिलकर यशोवर्मन को बंदी बना लिया। इस विजय के परिणामस्वरूप जयसिंह ने राजधानी धारा सहित परमार साम्राज्य के एक बड़े भाग पर अधिकार कर लिया और ‘अवंतिनाथ’ की उपाधि धारण की।
1134 ईस्वी के एक शिलालेख में यशोवर्मन को ‘महाराजाधिराज’ कहा गया है, लेकिन 1135 ईस्वी के एक अन्य शिलालेख में उसकी उपाधि ‘महाराजा’ मिलती है। इससे प्रतीत होता है कि यशोवर्मन अपनी संप्रभुता खोकर चालुक्यों के अधीनस्थ सामंत के रूप में निचली काली सिंधु घाटी में एक छोटे से हिस्से पर शासन करने लगा। इस प्रकार धारा और उज्जैन 1136-1143 ईस्वी के दौरान चालुक्यों के नियंत्रण में रहे।
जयवर्मन प्रथम (1142-1155 ई.)
यशोवर्मन का उत्तराधिकारी उनका पुत्र जयवर्मन (1142-1155 ई.) हुआ, जिसे अर्जुनवर्मन के पिपलियानगर शिलालेख में ‘अजयवर्मन’ कहा गया है। चालुक्य राजा जयसिंह सिद्धराज के 1138 ईस्वी के उज्जैन शिलालेख से पता चलता है कि उसने परमार साम्राज्य के एक बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया। परमार शक्ति को पूरब में चंदेलों और दक्षिण में चालुक्यों से भी खतरा था। फिर भी, एक अनुदान शिलालेख से ज्ञात होता है कि जयवर्मन ने 1142-1143 ईस्वी के आसपास मालवा की राजधानी धारा पर पुनः अधिकार कर लिया।
कुछ समय बाद, कल्याणी के चालुक्य शासक जगदेकमल्ल और होयसल शासक नरसिंहवर्मन प्रथम ने चालुक्य नरेश जयसिंह की शक्ति को नष्ट कर मालवा पर अधिकार कर लिया और अपनी ओर से बल्लाल को मालवा का राज्यपाल नियुक्त किया। जयवर्मन अपने दक्षिण-पूर्वी पड़ोसी त्रिपुरी के कलचुरियों के क्षेत्र के निकट भोपाल क्षेत्र में चला गया। संभवतः 1155 ईस्वी के आसपास चालुक्यों के विरुद्ध संघर्ष में उसकी मृत्यु हो गई।
जयवर्मन के बाद परमार शासकों की वंशावली स्पष्ट नहीं है, क्योंकि विभिन्न शिलालेखों में उसके उत्तराधिकारियों के संबंध में अलग-अलग सूचनाएँ मिलती हैं। बल्लाल को 1160 ईस्वी के वेरावल शिलालेख में धारा का राजा, माउंट आबू शिलालेख में मालवा का राजा और हेमचंद्र के दिव्याश्रयकाव्य में अवंती का राजा बताया गया है, जो संभवतः होयसलों या कल्याणी के चालुक्यों का सामंत था। 1150 के दशक में चालुक्य जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल ने बल्लाल को अपदस्थ कर भिलसा तक के संपूर्ण परमार क्षेत्र पर पुनः अधिकार कर लिया और इस प्रकार मालवा गुजरात के चालुक्य राज्य का एक प्रांत बन गया।
महाकुमार शासक (1155-1175 ई.)
महाकुमार की उपाधि धारण करने वाले परमार भोपाल के आसपास के क्षेत्रों में शासन करते थे, क्योंकि इस क्षेत्र से उनके शिलालेख प्राप्त हुए हैं। जयवर्मन के समय में ही परमार भोपाल क्षेत्र में चले गए थे, क्योंकि एक शिलालेख के अनुसार उसने महाद्वादशक-मंडल क्षेत्र में भूमि अनुदान दिया था। 1155 ईस्वी के आसपास चालुक्यों के विरुद्ध संघर्ष में जयवर्मन की मृत्यु के बाद ‘महाकुमार’ उपाधिधारी लक्ष्मीवर्मन, उसके पुत्र हरिश्चंद्र और फिर उसके पोते उदयवर्मन ने भोपाल के आसपास के क्षेत्रों पर शासन किया। इन अर्ध-स्वतंत्र महाकुमारों ने अपने पैतृक परमार राज्य को पुनः प्राप्त करने का कोई प्रयास नहीं किया।
विंध्यवर्मन (1175-1193 ई.)
लगभग दो दशक बाद, संभवतः 1175 ईस्वी के आसपास जयवर्मन का पुत्र विंध्यवर्मन परमार गद्दी पर बैठा। उसने चालुक्य राजा मूलराज द्वितीय को पराजित कर पूर्वी परमार क्षेत्र के एक बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया। अर्जुनवर्मन प्रथम के एक शिलालेख से पता चलता है कि विंध्यवर्मन ने गुजरात के राजा को हराया था।
विंध्यवर्मन के समय में भी मालवा पर होयसलों और देवगिरी के यादवों के आक्रमण होते रहे और उसे चालुक्य सेनापति कुमार से पराजित होना पड़ा। फिर भी, 1192 ईस्वी तक वह मालवा में परमार संप्रभुता की पुनर्स्थापना में सफल रहा।
विंध्यवर्मन के कवि मंत्री बिल्हण ने विष्णुस्तोत्र की रचना की। यह बिल्हण संभवतः ग्यारहवीं शताब्दी के कवि बिल्हण का पुत्र या पौत्र था। विंध्यवर्मन ने जैन विद्वान आचार्य महावीर को संरक्षण प्रदान किया था।
सुभटवर्मन (1193-1210 ई.)
विंध्यवर्मन का उत्तराधिकारी उसका पुत्र सुभटवर्मन हुआ, जिसे ‘सोहदा’ के नाम से भी जाना जाता है। ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि तुर्क आक्रमणों से चालुक्यों की शक्ति क्षीण हो गई थी, जिसका लाभ उठाकर सुभटवर्मन ने 1204 ईस्वी के आसपास दक्षिणी गुजरात के लाट क्षेत्र पर आक्रमण किया। सोमेश्वर द्वारा रचित लवन के डभोई प्रशस्ति से पता चलता है कि उसने चालुक्यों को पराजित कर उनकी राजधानी अन्हिलवाड़ को लूटा और दरभावती (डभोई) पर अधिकार कर लिया। यही नहीं, वह गुजरात के नगरों को लूटता हुआ सोमनाथ तक बढ़ गया, लेकिन चालुक्य नरेश भीम के सामंत लवनप्रसाद ने उसे पीछे खदेड़ दिया।
एक शिलालेख से सूचना मिलती है कि संभवतः यादव राजा जैतुगी ने मालवों (परमारों) को पराजित किया था। संभवतः सुभटवर्मन के गुजरात अभियान में व्यस्तता का लाभ उठाकर यादव सेनापति सहदेव ने मालवा पर छापा मारा था।
सुभटवर्मन द्वारा विष्णुमंदिर को दो बाग दान दिए जाने की सूचना मिलती है।
अर्जुनवर्मन प्रथम (1210-1218 ई.)
सुभटवर्मन के बाद उसका पुत्र अर्जुनवर्मन मालवा का राजा हुआ। धार प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उसने चौलुक्य जयंतसिंह को पर्व पर्वत घाटी (संभवतः पावागढ़) में पराजित किया और उसकी पुत्री जयश्री से विवाह किया।
चौदहवीं सदी के लेखक मेरुतुंग ने अर्जुनवर्मन को ‘गुजरात का विध्वंसक’ कहा है। संभवतः अर्जुन ने जयंतसिंह (जयसिंह) को पराजित कर कुछ समय के लिए चौलुक्य (सोलंकी) सिंहासन पर अधिकार कर लिया। अर्जुन के 1211 ईस्वी के पिपलियानगर अनुदान में भी जयंत पर उसकी विजय का उल्लेख मिलता है। अर्जुनवर्मन के शासनकाल में यादव शासक सिंहण ने दक्षिणी गुजरात के लाट क्षेत्र पर आक्रमण किया, लेकिन अर्जुन के चाहमान सेनापति सलखानसिंह ने उसे पराजित कर दिया। बाद में, यादव सेनापति खोलेश्वर ने लाट में परमारों को पराजित किया। संभवतः यादव आक्रमण के दौरान ही अर्जुनवर्मन की मृत्यु हुई।
अर्जुनवर्मन को शिलालेखों में ‘भोज का पुनर्जन्म’ बताया गया है। उसने ‘त्रिविधवीरक्षमणि’ की उपाधि धारण की। वह स्वयं विद्वान और कुशल कवि था। उसने अमरुशतक पर एक टीका लिखी। मदन और आशाराम जैसे विद्वान उसके दरबार की शोभा थे। पारिजातमंजरी नाटक उसके काल में लिखा गया, जिसके कुछ अंश पाषाण-स्तंभों पर उत्कीर्ण किए गए थे।
देवपाल (1218-1239 ई.)
अर्जुनवर्मन के बाद देवपाल राजा हुआ, लेकिन वह अर्जुनवर्मन का पुत्र न होकर भोपाल क्षेत्र के एक महाकुमार उपाधिधारी परमार हरिश्चंद्र का पुत्र था। देवपाल के शासनकाल में भी परमारों का चालुक्यों (सोलंकी) और देवगिरी के यादवों के साथ संघर्ष चलता रहा। यादव राजा सिंहण ने लाट पर आक्रमण कर परमार सामंत संग्रामसिंह को हराया।
दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने 1233-34 ईस्वी के दौरान भिलसा पर अधिकार कर लिया। लेकिन देवपाल ने भैलस्वामिन नगर के पास सल्तनत के गवर्नर को पराजित कर भिलसा को पुनः जीत लिया। इसकी पुष्टि देवपाल के पुत्र जयवर्मन द्वितीय के 1274 ईस्वी के शिलालेख से होती है। जयवर्मन के शासनकाल का 1263 ईस्वी का एक शिलालेख भिलसा से मिला है। जैन लेखक नयचंद्रसूरी के हम्मीर महाकाव्य के अनुसार देवपाल को रणथंभौर के वागभट्ट ने मार डाला।
इस प्रकार परवर्ती परमार शासकों का शासनकाल कमजोर और अस्थिर रहा। चालुक्य, चंदेल, कलचुरि, यादव और तुर्क आक्रमणों से परमार साम्राज्य का तीव्रता से हृास हुआ और तेरहवीं शताब्दी के अंत तक परमार केवल स्थानीय शासक के रूप में सीमित हो गए।
परमार सत्ता का अंत
देवपाल के उत्तराधिकारी जैतुगिदेव (1239-1256 ई.) के शासनकाल का कोई अभिलेख उपलब्ध नहीं है। उसने ‘बालनारायण’ की उपाधि धारण की। जैतुगिदेव को यादव राजा कृष्ण, दिल्ली के सुल्तान बलबन और बघेला राजकुमार विशालदेव के आक्रमणों का सामना करना पड़ा।
जैतुगिदेव का उत्तराधिकारी जयवर्मन या जयसिंह द्वितीय (1256-1274 ई.) हुआ, जिसे मंधाता ताम्रलेख (1274 ई.) में ‘जयसिंह’ कहा गया है। उसने सामरिक कारणों से धारा को छोड़कर मांडू (मंडप-दुर्ग) को अपनी राजधानी बनाया।
जयवर्मन (जयसिंह) के समय दिल्ली के सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद का सेनापति बलबन परमार क्षेत्र की उत्तरी सीमा तक पहुँच गया। संभवतः उसी समय जयवर्मन को यादव राजा कृष्ण और बघेला राजा विशालदेव के आक्रमणों का सामना करना पड़ा, जिससे परमारों की शक्ति और क्षीण हो गई। जयवर्मन का उत्तराधिकारी उसका पुत्र अर्जुनवर्मन द्वितीय (1274-1283 ई.) एक दुर्बल शासक था। 1275 ईस्वी के आसपास उसके मंत्री गोगा ने अर्जुन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। लेखों से पता चलता है कि 1270 के दशक में देवगिरी के यादव राजा रामचंद्र ने और 1280 के दशक में रणथंभौर के चाहमान शासक हम्मीर ने मालवा पर आक्रमण किया। जैन कवि नयचंद्रसूरी के हम्मीर महाकाव्य के अनुसार हम्मीर ने सरसापुर के अर्जुन और धारा के भोज को पराजित किया। संभवतः गोगादेव ने धारा पर अधिकार कर भोज द्वितीय (1283-1295 ई.) को नाममात्र का राजा बनाया, जबकि अर्जुन द्वितीय राज्य के अन्य हिस्से पर शासन करता रहा। सोलहवीं सदी के इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार गोगा ‘मालवा का राजा’ था। इस प्रकार परमार शक्ति और कमजोर हो गई।
भोज द्वितीय के महालकदेव (1295-1305 ई.) धार का राजा हुआ, जो अंतिम ज्ञात परमार शासक है। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने 1305 ईस्वी में मालवा के परमार क्षेत्र पर आक्रमण किया। अमीर खुसरो के तारीख-ए-अलई के अनुसार राय महालकदेव और उनके प्रधान कोकाप्रभु (गोगा) ने खिलजी सेना का सामना किया। दिल्ली की सेना ने परमार सेना को हरा दिया और ‘पृथ्वी को हिंदू रक्त से सिक्त कर दिया’। इस संघर्ष में गोगा और महालकदेव दोनों मारे गए।
यह स्पष्ट नहीं है कि मालवा पर दिल्ली की सेना ने कब पूर्ण अधिकार किया। उदयपुर के एक शिलालेख से संकेत मिलता है कि 1310 ईस्वी तक परमार वंश मालवा के उत्तर-पूर्वी भाग में शासन करता रहा। 1338 ईस्वी के एक शिलालेख से पता चलता है कि यह क्षेत्र दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के अधिकार में था।
परमार वंश की अन्य शाखाएँ
ऐतिहासिक स्रोतों और शिलालेखों से पता चला है कि परमारों की मालवा शाखा के अतिरिक्त, अन्य कई शाखाओं ने भी आबू, वागड़, जालोर और भीनमाल जैसे क्षेत्रों में शासन किया।
आबू के परमार
आबू की परमार शाखा ने माउंट आबू (राजस्थान) और आसपास के क्षेत्रों, जैसे सिरोही, पालनपुर तथा मारवाड़ के कुछ हिस्सों पर 10वीं शताब्दी के अंत से 13वीं शताब्दी के अंत तक शासन किया। इसकी राजधानी चंद्रावती (सिरोही के निकट) थी। इस शाखा का मूल पुरुष धूमराज (धोमराज) को माना जाता है, जिसका उल्लेख शिलालेखों और ताम्रपत्रों में मिलता है। सिंधुराज इस शाखा का एक प्रतापी शासक था, जिसका उल्लेख विक्रम संवत 1218 (1161 ई.) के किराडू शिलालेख में मिलता है। सिंधुराज के पुत्र उत्पलराज ने ओसियां में सचियाय माता का मंदिर बनवाया, जो परमारों की कुलदेवी थी। एक अन्य शासक धरणीवराह (960-995 ई.) था, जिसके शिलालेखों में उसकी युद्धकुशलता का वर्णन है। धरणीवराह को सोलंकी शासक मूलराज से हार का सामना करना पड़ा, लेकिन बाद में उसने आबू पर पुनः नियंत्रण कर लिया।
आबू के परमारों ने चंद्रावती को एक सांस्कृतिक और धार्मिक केंद्र के रूप में विकसित किया। उनके मंदिर और शिलालेख उनकी वास्तुशिल्पीय उपलब्धियों के प्रमाण हैं। उन्होंने सोलंकी शासक के दंडपति विमलशाह के सहयोग से दिलवाड़ा के जैन मंदिरों के निर्माण में योगदान दिया। 13वीं शताब्दी के अंत तक सोलंकी और अन्य स्थानीय शक्तियों के दबाव में यह शाखा कमजोर हो गई।
वागड़ के परमार
परमारों की एक अन्य शाखा ने दसवीं शताब्दी के मध्य से बारहवीं शताब्दी के मध्य तक 10वीं शताब्दी के मध्य से 12वीं शताब्दी के मध्य तक वागड़ क्षेत्र पर शासन किया, जिसमें आधुनिक बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, दक्षिणी राजस्थान और गुजरात के कुछ हिस्से शामिल थे। इनकी राजधानी अर्थुना (बाँसवाड़ा) थी।
वागड़ की परमार शाखा की स्थापना वैरसिंह प्रथम के पुत्र अबरसिंह ने की थी, जो मालवा के परमारों का सामंत था। इस शाखा के परमारों ने राजधानी अर्थुना में कई जैन और हिंदू मंदिरों का निर्माण करवाया, जो परमार वास्तुशिल्पीय शैली के परिचायक हैं। 11वीं शताब्दी में अहदा के गुहिलोतों ने वागड़ पर नियंत्रण कर लिया, जिसके बाद इस शाखा का प्रभाव समाप्त हो गया।
जालोर के परमार
जालोर शाखा के परमार संभवतः आबू के परमारों की ही एक शाखा थे। उन्होंने 10वीं शताब्दी के अंत से 12वीं शताब्दी के अंत तक शासन किया। इस शाखा का संस्थापक संभवतः मालवा के परमार शासक वाक्पति (मुंज) का पुत्र चंदन था, जिसे उसने जालोर का शासक नियुक्त किया था।
जालोर के परमारों ने जालोर के प्रसिद्ध किले के साथ-साथ इस क्षेत्र में कई मंदिर और स्थानीय संरचनाओं का निर्माण करवाया। 12वीं शताब्दी के अंत तक सोलंकी और चौहान जैसे शक्तिशाली राजवंशों के दबाव में जालोर के परमार कमजोर हो गए।
भीनमाल (किराडू) के परमार
इस शाखा के परमारों ने 10वीं शताब्दी के अंत से 12वीं शताब्दी के अंत तक आधुनिक बाड़मेर, राजस्थान के भीनमाल और किराडू में शासन किया। इस शाखा का संस्थापक मालवा के वाक्पति (मुंज) का भतीजा दुशाल माना जाता है, जिसे भीनमाल का प्रशासक नियुक्त किया गया था। किराडू के परमारों के शिलालेखों में उनके स्थानीय शासन और सांस्कृतिक योगदान का उल्लेख मिलता है।
इस शाखा के परमारों ने किराडू में कई सुंदर मंदिर बनवाए, जो परमार वास्तुशिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इन मंदिरों में हिंदू और जैन दोनों परंपराओं का समन्वय है, जो इस क्षेत्र की धार्मिक सहिष्णुता के सूचक हैं। 12वीं शताब्दी के अंत तक सोलंकी और अन्य स्थानीय शक्तियों के प्रभाव से इस शाखा का अंत हो गया।
अन्य क्षेत्रों में परमार शाखाएँ
परमारों की एक शाखा दांता (गुजरात) में शासन करती थी, जो मालवा के परमार राजा उदयादित्य के पुत्र जगदेव के वंशज थे। मालवा पर मुस्लिम आक्रमणों के बाद, राजा भोज के वंशज सांगण ने अजमेर क्षेत्र में पीसांगन में एक परमार शाखा की स्थापना की। इस शाखा के शासक महिपाल (महपा) और उसके वंशज महपावत पंवार कहलाए। परमारों की एक शाखा 688 ई. के आसपास उत्तराखंड के गढ़वाल में स्थापित हुई, जिसका संस्थापक कनकपाल को माना जाता है। इस शाखा ने चाँदपुर गढ़ को केंद्र बनाकर शासन किया। पाकिस्तान के सिंध प्रांत के अमरकोट में भी परमारों की एक शाखा का प्रमाण मिलता है।
इस प्रकार परमार वंश की विभिन्न शाखाएँ 12वीं-13वीं शताब्दी तक क्षेत्रीय शक्तियों, जैसे सोलंकी, चौहान और बाद में दिल्ली सल्तनत के आक्रमणों के कारण कमजोर हो गईं। चौदहवीं सदी की शुरुआत में मालवा के परमारों की सत्ता का अंत हो गया और 1310-1338 ईस्वी के बीच मालवा पूर्ण रूप से दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया। लेकिन परमारों की राजनीतिक और सांस्कृतिक विरासत आज भी जीवित है।
परमार वंश की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
परमार वंश की राजनीतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक उपलब्धियाँ भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। प्रतिभाशाली परमार नरेशों के संरक्षण में मालवा भारत का प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र बन गया। प्रशासन, धर्म, कला, स्थापत्य, साहित्य, सैन्य और आर्थिक क्षेत्रों में उनकी उपलब्धियाँ प्रशंसनीय हैं।
प्रशासनिक व्यवस्था
परमार शासकों ने मालवा में एक सुव्यवस्थित प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की। उन्होंने सामंतों और स्थानीय शासकों के साथ मिलकर प्रशासन संचालित किया। राजा भोज ने अपने प्रशासन में विद्वानों और सलाहकारों को शामिल किया, जिससे नीतिगत निर्णयों में बौद्धिकता झलकती थी। कर संग्रह, न्याय व्यवस्था और सैन्य संगठन को व्यवस्थित करने में परमारों ने विशेष ध्यान दिया।
सैन्य व्यवस्था
सैन्य संगठन के क्षेत्र में परमारों द्वारा निर्मित किले, जैसे धार और मांडू के किले, उनकी सैन्य रणनीति के परिचायक हैं। परमार सेना में घुड़सवार, हाथी, धनुर्धारी और पैदल सैनिक शामिल थे। राजा भोज को युद्ध रणनीतियों में विशेषज्ञता प्राप्त थी, जिसका उल्लेख उसके ग्रंथ युक्तिकल्पतरु में मिलता है। उसने अपनी सैन्य शक्ति को संगठित कर चालुक्य, चंदेल और अन्य पड़ोसी राज्यों के साथ संतुलन बनाए रखा। उसकी नौसेना कोंकण और साबरमती नदी क्षेत्रों में सक्रिय थी, जो उनकी सामुद्रिक शक्ति का प्रमाण है। भोज के सेनानायकों- कुलचंद्र, साढ़ और सूरादित्य ने परमार साम्राज्य के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सीयक द्वितीय और भोज ने पड़ोसी शक्तियों के साथ युद्धों में अपनी सैन्य शक्ति और रणनीति का प्रदर्शन किया।
आर्थिक व्यवस्था
परमार शासकों ने राज्य की समृद्धि और आर्थिक विकास के लिए व्यापार तथा कृषि को प्रोत्साहित किया। मालवा का कृषि उत्पादन, विशेषकर अनाज और कपास उनकी आर्थिक समृद्धि का आधार था। भोज ताल जैसे जलाशयों और सिंचाई व्यवस्था से कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई, जिससे आर्थिक समृद्धि बढ़ी। उन्होंने सड़कों और बाजारों की सुरक्षा सुनिश्चित की, जिससे व्यापार-वाणिज्य को बढ़ावा मिला।
परमार शासकों ने सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्के चलवाए, जिससे अर्थव्यवस्था को गति मिली। इन सिक्कों पर उत्कीर्ण देवी-देवताओं की आकृतियाँ और संस्कृत लेख उनकी सांस्कृतिक तथा आर्थिक समृद्धि के सूचक हैं।
नगर नियोजन और जल प्रबंधन
परमार शासकों, विशेष रूप से राजा भोज ने नगर नियोजन, जल प्रबंधन और मंदिर निर्माण में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया। उनके ग्रंथ समरांगण सूत्रधार में वास्तुशास्त्र, यंत्र निर्माण और यांत्रिक उपकरणों का वर्णन है, जो उनके तकनीकी दृष्टिकोण का प्रमाण है। भोज ने राजधानी धारा नगरी को सुसज्जित किया और वहाँ महलों, मंदिरों तथा सांस्कृतिक केंद्रों की स्थापना की। उन्होंने जल संरक्षण और सिंचाई के लिए भोपाल के निकट भोजसर (भोजताल) झील का निर्माण करवाया, जो परमारकालीन अभियांत्रिकी का उत्कृष्ट उदाहरण है। धार के निकटवर्ती क्षेत्रों में जलाशयों के निर्माण से कृषि और व्यापार को प्रोत्साहन मिला।
साहित्यिक योगदान
परमार वंश, विशेषकर राजा भोज का शासनकाल संस्कृत साहित्य और विद्या का स्वर्णयुग था। धारा और उज्जैन संस्कृत काव्य, शास्त्र, दर्शन तथा जैन साहित्य के प्रमुख केंद्र थे। भोज ने धारा में भोजशाला की स्थापना की, जो संस्कृत अध्ययन का प्रमुख केंद्र थी। भोज-प्रबंध में उनके बचपन में मस्तिष्क शल्य चिकित्सा का उल्लेख है, जो तत्कालीन चिकित्सा विज्ञान की उन्नति का प्रमाण है। भोज को उनकी विद्वता के कारण ‘कविराज’ की उपाधि प्राप्त थी। उसने संस्कृत में विविध विषयों पर ग्रंथ लिखे। उसकी रचना समरांगणसूत्रधार वास्तुशास्त्र, नगर नियोजन और यंत्र निर्माण पर एक विस्तृत ग्रंथ है तथा शृंगारप्रकाश साहित्य, काव्यशास्त्र और अलंकार शास्त्र पर आधारित है। युक्तिकल्पतरु शासन, सैन्य रणनीति और नीति से संबंधित है; जबकि सरस्वतीकंठाभरण से व्याकरण और भाषा विज्ञान की जानकारी मिलती है। आयुर्वेद सर्वस्व चिकित्सा विज्ञान पर आधारित है, जिसमें औषधियों और उपचार विधियों का वर्णन है। सिद्धांत संग्रह ज्योतिष और गणित पर आधारित है, जो उसके वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचायक है। परमार भोज की अन्य रचनाएँ शृंगारमंजरी, भोजचंपू, कूर्मशतक, तत्वप्रकाश, शब्दानुशासन और राजमृगांक भी महत्त्वपूर्ण हैं। राजा भोज के इन ग्रंथों ने भारतीय ज्ञान परंपरा को समृद्ध किया।
परमार शासकों ने अपने दरबार में अनेक कवियों, विद्वानों तथा दार्शनिकों को संरक्षण प्रदान किया। उनके दरबारी कवि पद्मगुप्त ‘परिमल’ ने नवसाहसांकचरित की रचना की। जैन विद्वान मेरुतुंग ने प्रबंधचिंतामणि लिखा, जिसमें परमार-चौलुक्य संबंध और तत्कालीन समाज का विवरण है। नरवर्मन ने भजन और संभवतः नागपुर प्रशस्ति रची। अर्जुनवर्मन ने अमरुशतक पर टीका लिखी और उसके दरबार में पारिजातमंजरी नाटक की रचना हुई। परमारों ने संस्कृत के साथ प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के विकास को भी प्रोत्साहन दिया।
धार्मिक योगदान
अधिकांश परमार शासक शैव मतावलंबी थे। उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर, विदिशा के पास उदयपुर का नीलकंठेश्वर मंदिर और भोपाल के भोजपुर का भोजेश्वर मंदिर उनके धार्मिक संरक्षण के प्रमुख उदाहरण हैं। उन्होंने जैन और वैष्णव धर्मों को भी संरक्षण प्रदान किया। जैन विद्वानों हेमचंद्राचार्य, मेरुतुंग और धनपाल को परमारों ने आश्रय दिया, जिससे जैन साहित्य का विकास हुआ। उन्होंने आबू पर्वत के दिलवाड़ा जैन मंदिरों के निर्माण में योगदान दिया और उदयपुर तथा धार में कई जैन मंदिर बनवाए।
चित्तौड़ में भोज द्वारा निर्मित त्रिभुवननारायण मंदिर उसकी वैष्णव भक्ति का प्रतीक है। परमार शासकों ने वैदिक परंपराओं को प्रोत्साहन दिया, ब्राह्मणों को दान दिया और उत्सवों तथा यज्ञों का आयोजन किया। इस प्रकार परमारों ने धार्मिक सहिष्णुता नीति अपनाई और विभिन्न समुदायों के बीच सामंजस्य बनाए रखा। परमार वंश ने सामाजिक समरसता और कल्याण में भी योगदान दिया। उन्होंने विभिन्न समुदायों को संरक्षण प्रदान किया और जनकल्याणकारी कार्यों, जैसे जल संरक्षण तथा मंदिर निर्माण को प्राथमिकता दी।
वास्तुशास्त्र और कला
परमार शासकों ने मालवा और आसपास के क्षेत्रों में अनेक मंदिरों, मठों जलाशयों, दुर्गों तथा इमारतों का निर्माण करवाया, जो उनकी सांस्कृतिक समृद्धि, तकनीकी कौशल और स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। भोज के समरांगण सूत्रधार में मंदिर निर्माण, नगर नियोजन और यंत्र निर्माण की विस्तृत जानकारी मिलती है। भोजपुर का भोजेश्वर मंदिर अपनी विशालता, नक्काशी और नागर शैली के लिए प्रसिद्ध है। मालवा में निर्मित मंदिर जैसे विदिशा का नीलकंठेश्वर, उदयपुर का उदयेश्वर और नीमच का सिद्धनाथ मंदिर परमार शिल्प तथा मूर्तिकला की उत्कृष्टता के प्रतीक हैं। आबू पर्वत के जैन मंदिर उनकी धार्मिक सहिष्णुता के उदाहरण हैं। मांडू का किला उनकी स्थापत्य कुशलता का सूचक है, जो जयवर्मन द्वितीय के समय में राजधानी बना।
परमार शासकों ने नृत्य, संगीत और चित्रकला को भी प्रोत्साहन दिया। उनके दरबार में सांस्कृतिक उत्सव और काव्य सभाएँ आयोजित होती थीं। भोज की रचना सरस्वती कंठाभरण काव्यशास्त्र और साहित्यिक सौंदर्य पर ही आधारित है।
इस प्रकार परमार वंश ने मालवा को सांस्कृतिक, धार्मिक और बौद्धिक दृष्टि से समृद्ध बनाया। साहित्य, स्थापत्य, कला और धार्मिक सहिष्णुता के क्षेत्र में उनका अभूतपूर्व योगदान रहा है। उनकी सैन्य तथा आर्थिक व्यवस्था ने इन सांस्कृतिक गतिविधियों को आधार प्रदान किया। परमारों का इतिहास उनकी सैन्य शक्ति, सांस्कृतिक योगदान, धार्मिक संरक्षण और स्थापत्य उपलब्धियों के लिए प्रसिद्ध है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
- परमार वंश के इतिहास का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
- परमार भोज की राजनीतिक उपलब्धियों की विवेचना कीजिए।
- राजा भोज के सांस्कृतिक और धार्मिक योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
- राजा भोज द्वारा प्रारंभ की गई प्रमुख परियोजनाओं का वर्णन कीजिए।
- परमार वंश के साहित्यिक योगदान पर प्रकाश डालिए।
लघु उत्तरीय प्रश्न
- परमार भोज को ‘कविराज’ की उपाधि क्यों दी गई?
- राजा भोज द्वारा निर्मित प्रमुख मंदिर का नाम बताइए।
- भोजशाला का उद्देश्य क्या था?
- परमार भोज के दो प्रमुख ग्रंथों के नाम बताइए।
- भोज द्वारा रचित समरांगणसूत्रधार का मुख्य विषय क्या है?
बहुविकल्पीय प्रश्न
1. परमार वंश की स्थापना किसने की थी?
(A) उपेंद्र
(B) सीयक द्वितीय
(C) वाक्पति मुंज
(D) भोज
(A) महाराष्ट्र
(B) राजस्थान
(C) मध्य प्रदेश
(D) गुजरात
(A) सीयक द्वितीय
(B) परमार भोज
(C) वाक्पति मुंज
(D) जयसिंह
(A) उज्जैन
(B) धारा
(C) कन्नौज
(D) तंजावुर
(A) कोंकण
(B) बंगाल
(C) कश्मीर
(D) असम
(A) समरांगणसूत्रधार
(B) कादंबरी
(C) नैषधीयचरित
(D) गीतगोविंद
(A) ज्योतिष
(B) वास्तुशास्त्र
(C) आयुर्वेद
(D) काव्यशास्त्र
(A) सैन्य प्रशिक्षण
(B) संस्कृत शिक्षा
(C) जल संरक्षण
(D) मंदिर निर्माण
(A) दुर्गा
(B) सरस्वती
(C) लक्ष्मी
(D) काली
(A) भोजसर
(B) पुष्कर झील
(C) सुदर्शन झील
(D) मानसरोवर
(A) युक्तिकल्पतरु
(B) सरस्वतीकंठाभरण
(C) तिलकमंजरी
(D) सिद्धान्तसंग्रह
(A) कालिदास
(B) धनपाल
(C) बाणभट्ट
(D) हर्षवर्धन
(A) जयसिंह
(B) कीर्तिवर्मन
(C) सोमेश्वर
(D) विक्रमादित्य
(A) भोपाल
(B) इंदौर
(C) ग्वालियर
(D) जबलपुर
(A) वाक्पति मुंज
(B) परमार भोज
(C) यशोवर्मन
(D) सीयक द्वितीय
(A) भोजप्रबंध
(B) राजतरंगिणी
(C) हर्षचरित
(D) कथासरित्सागर
(A) जैन धर्म
(B) शैव धर्म
(C) बौद्ध धर्म
(D) शैव और जैन दोनों
(A) महमूद गजनवी
(B) राष्ट्रकूट शासक खोट्टिग
(C) चालुक्य शासक तैलप द्वितीय
(D) चंदेल शासक धंग
(A) भोजेश्वर मंदिर
(B) कंदरिया महादेव मंदिर
(C) सूर्य मंदिर
(D) कैलास मंदिर, एलोरा
(A) भोजसर
(B) पुष्कर झील
(C) मानसरोवर झील
(D) डल झील
(A) चालुक्य तैलप द्वितीय
(B) राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय
(C) चंदेल यशोवर्मन
(D) पाल महिपाल
(A) संस्कृत
(B) प्राकृत
(C) अपभ्रंश
(D) उपरोक्त सभी
(A) युक्तिकल्पतरु
(B) सरस्वतीकंठाभरण
(C) प्रभावकचरित
(D) श्रीपालचरित
(A) परमभट्टारक
(B) कालजयी
(C) सिद्धराज
(D) महेंद्र
(A) महमूद गजनवी
(B) तैमूर
(C) नादिर शाह
(D) अलेक्जेंडर
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