परमार भोज ( Paramara Bhoja)

परमार भोज (1010-1055 ई.) राजा भोज परमार (1010-1055 ई.) की गणना प्राचीन भारत के सबसे […]

परमार भोज ( Paramara Bhoja, 1010-1055 AD)

परमार भोज (1010-1055 ई.)

राजा भोज परमार (1010-1055 ई.) की गणना प्राचीन भारत के सबसे महान और लोकप्रिय शासकों में की जाती है। वह परमार वंश के एक वीर और विद्वान राजा थे, जिनकी राजधानी मध्य प्रदेश के धार (धारानगर) में स्थित थी। राजा भोज को इतिहास में केवल एक शूरवीर योद्धा के रूप में ही नहीं, बल्कि कला, साहित्य, विज्ञान और वास्तुकला के अद्भुत संरक्षक के रूप में भी याद किया जाता है। उनके समय में मालवा न केवल सामरिक दृष्टि से मजबूत हुआ, बल्कि शिक्षा और संस्कृति का भी प्रमुख केंद्र बना।

भोज ने कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की, जिनमें सरस्वतीकंठाभरण, समरांगणसूत्रधार और राजमार्तंड जैसे ग्रंथ विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। इन ग्रंथों से पता चलता है कि भोज साहित्य, धर्म, खगोलशास्त्र, चिकित्सा और स्थापत्य कला जैसी कई विधाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने विद्वानों को संरक्षण देकर अपनी राजधानी धार को ‘विद्या और विद्वानों की भूमि’ बना दिया। यही कारण है कि उन्हें ‘विद्यानिधान भोजराज’ कहा जाता है। स्थापत्य कला में उनके द्वारा निर्मित भोजपुर का शिव मंदिर भारतीय प्राचीन स्थापत्य का बेजोड़ नमूना है, जिसे सोमनाथ का प्रतिरूप माना जाता है। इसके अलावा, भोज ने कृषि और जनकल्याण के लिए कई झीलों और जल संरचनाओं का निर्माण करवाया। राजा भोज परमार की उपलब्धियाँ भारत की गौरवशाली विरासत का हिस्सा हैं।

सिंधुराज के पश्चात् उनके पुत्र भोज परमार राजवंश के शासक हुए, जो इतिहास में विद्या और शौर्य का प्रतीक माने जाते हैं। वास्तव में, भोज की गणना भारत के सबसे विख्यात और लोकप्रिय शासकों में की जाती है क्योंकि उनके शासनकाल में परमार राज्य राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से विकास की पराकाष्ठा पर पहुँच गया। भोज के शासनकाल की घटनाओं की सूचना देने वाले आठ अभिलेख मिले हैं, जो 1011 ई. से 1046 ई. तक के हैं।

परमार भोज की सैनिक उपलब्धियाँ

भोज की सैनिक उपलब्धियों की सूचना उदयपुर प्रशस्ति से मिलती है, जिसके अनुसार उन्होंने अपने पड़ोसियों, जैसे चालुक्यों, चाहमानों, कलचुरियों, शिलाहारों और राष्ट्रकूटों के विरुद्ध अभियान किया और अपने साम्राज्य का विस्तार लाट, कोंकण, मेवाड़ और विदर्भ तक किया।

कल्याणी के चालुक्यों से संघर्ष

भोज ने अपने चिरशत्रु कल्याणी के चालुक्यों से वाक्पति मुंज की हार का बदला लेने के लिए त्रिपुरी के कलचुरि शासक गांगेयदेव और चोल शासक राजेंद्र से मित्रता की। इसके बाद, उन्होंने कल्याणी के चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय के विरुद्ध सैनिक अभियान किया और संभवतः गोदावरी नदी के आसपास के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। लेकिन इस अभियान में उनकी सफलता संदिग्ध है, क्योंकि चालुक्य और परमार दोनों पक्ष अपनी-अपनी जीत का दावा करते हैं। संभवतः इस अभियान के आरंभ में भोज को कुछ सफलता मिली और गोदावरी के आसपास के क्षेत्रों पर उसका अधिकार हो गया।

कर्णाट, लाट और कोंकण की विजय

भोज के सामंत यशोवर्मन के कलवन लेख में भोज को कर्णाट, लाट और कोंकण की विजय का श्रेय दिया गया है। भोज ने 1018 ई. के आसपास लाट के चालुक्य सामंत कीर्तिराज को पराजित कर आत्मसमर्पण के लिए बाध्य किया और यशोवर्मन को लाट का शासक नियुक्त किया।

उत्तरी कोंकण की विजय

1018 और 1020 ई. के बीच भोज ने उत्तरी कोंकण की विजय की, जहाँ शिलाहार वंश के राजा अरिकेसरी का शासन था। मीरज लेख के अनुसार उन्होंने कोंकण नरेश को पराजित कर ‘कोंकण-ग्रहण विजयपर्व’ के रूप में उत्सव मनाया। कोंकण की विजय से चालुक्य साम्राज्य के उत्तर में गोदावरी के निकटवर्ती कुछ क्षेत्र भी भोज के अधिकार में आ गए। लेकिन कोंकण पर भोज की विजय स्थायी नहीं रही और शीघ्र ही चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय ने कोंकण पर पुनः अधिकार कर लिया।

उड़ीसा की विजय

उदयपुर प्रशस्ति के अनुसार भोज ने उड़ीसा के इंद्ररथ को पराजित किया। इंद्ररथ की पहचान कलिंग के सोमवंशी राजा इंद्ररथ से की जाती है, जिसका उल्लेख चोल शासक राजेंद्र के तिरुमलै लेख में भी मिलता है। विद्वानों का मानना है कि चोलों के सहायक के रूप में भोज ने इंद्ररथ को पराजित करने में सफलता पाई थी।

चेदि राज्य की विजय

उदयपुर प्रशस्ति और कलवन लेख से पता चलता है कि भोज ने चेदि वंश के राजा को पराजित किया। यह पराजित चेदि नरेश गांगेयदेव (1015-1041 ई.) रहा होगा, जो भोज का समकालीन था। पहले गांगेयदेव और भोज के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध थे, लेकिन प्रतिहार क्षेत्रों पर अधिकार को लेकर दोनों के बीच शत्रुता हो गई थी।

तोग्गल और तुरुष्क की विजय

उदयपुर प्रशस्ति के अनुसार भोज ने तोग्गल और तुरुष्क को विजित किया। कुछ विद्वान इसे तुर्कों की विजय से जोड़ते हैं और मानते हैं कि भोज ने महमूद गजनवी के किसी सरदार को युद्ध में पराजित किया था, लेकिन यह निष्कर्ष संदिग्ध है।

चंदेलों से संघर्ष

भोज ने पूर्व की ओर साम्राज्य को विस्तारित करने का प्रयास किया, लेकिन समकालीन चंदेल नरेश विद्याधर और उसके ग्वालियर तथा दूबकुंड के कछवाहा सामंतों ने इसे विफल कर दिया। एक चंदेल लेख में कहा गया है कि ‘कलचुरि चंद्र और भोज विद्याधर की गुरु के समान पूजा करते थे।’ ग्वालियर के कछवाहा शासक महीपाल के सासबहू लेख से भी पता चलता है कि कछवाहा सामंत कीर्तिराज ने भोज की सेनाओं को पराजित किया। संभवतः कीर्तिराज ने अपने स्वामी विद्याधर की सहायता से भोज को पराजित किया था। लेकिन विद्याधर की मृत्यु के बाद चंदेल शक्ति कमजोर पड़ गई और कछवाहा सामंत अभिमन्यु को भोज की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।

चाहमानों की विजय

मालवा के पश्चिमोत्तर में चाहमानों का राज्य था। इसलिए भोज का उनके साथ संघर्ष होना स्वाभाविक था। पृथ्वीराजविजय के अनुसार भोज ने चाहमान शासक वीर्याराम को पराजित कर मार डाला और कुछ समय के लिए शाकंभरी पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में परमारों का सेनापति साढ़ मारा गया। लेकिन वीर्याराम के उत्तराधिकारी चामुंडराज ने शाकंभरी पर पुनः अधिकार कर लिया।

चालुक्य नरेश भीम पर आक्रमण

प्रबंधचिंतामणि के अनुसार भोज ने अपने जैन सेनानायक कुलचंद्र के नेतृत्व में एक सेना चालुक्य नरेश भीम पर आक्रमण करने के लिए भेजी। उस समय भीम सिंध अभियान पर गया हुआ था। उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर कुलचंद्र ने चालुक्यों की राजधानी अन्हिलवाड़ को बुरी तरह लूटा। उदयपुर प्रशस्ति में कहा गया है कि भोज ने अपने भृत्यों के माध्यम से भीम पर विजय पाई।

तुर्क आक्रांताओं के विरुद्ध सहयोग

मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार सोमनाथ को आक्रांत करने के बाद महमूद गजनवी ने परमदेव नामक एक हिंदू राजा के साथ संघर्ष से बचने के लिए अपना मार्ग बदल दिया था। कुछ इतिहासकार इस परमदेव की पहचान परमार शासक भोज के रूप में करते हैं।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार भोज ने महमूद गजनवी के विरुद्ध काबुलशाही शासक आनंदपाल की सहायता की थी। संभवतः भोज उस गठबंधन में शामिल थे, जिसने 1043 ई. के आसपास हाँसी, थानेसर और अन्य क्षेत्रों से महमूद गजनवी के राज्यपालों को निष्कासित किया था।

असफलता और मृत्यु

भोज को अपने जीवन के अंतिम दिनों में भारी असफलताओं का सामना करना पड़ा। 1042 ई. के आसपास चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम ने धारा पर आक्रमण किया और भोज को पराजित होकर अपनी राजधानी छोड़कर भागना पड़ा। चालुक्यों ने धारा को लूटकर जला दिया। सोमेश्वर की इस विजय की पुष्टि नगाई लेख (1058 ई.) और बिल्हणकृत विक्रमांकदेवचरित से होती है, जिसके अनुसार भोज ने भागकर अपने जीवन की रक्षा की।

भोज ने चालुक्य सेना के लौटने के बाद मालवा पर पुनः अधिकार किया, लेकिन इस पराजय से उनके राज्य की दक्षिणी सीमा गोदावरी से सिमटकर नर्मदा तक हो गई।

भोज के शासनकाल के अंत में गुजरात के चालुक्यों और कलचुरियों ने उनके विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा बनाया। इस संयुक्त मोर्चे का नेता कलचुरि नरेश लक्ष्मीकर्ण (1041-1073 ई.) था। चालुक्य नरेश भीम प्रथम (1022-1064 ई.) और कलचुरि लक्ष्मीकर्ण की संयुक्त सेना ने भोज की राजधानी धारा पर आक्रमण की योजना बनाई। प्रबंधचिंतामणि के अनुसार इसी दौरान अवसादग्रस्त भोज की मृत्यु (लगभग 1055 ई.) हो गई। भोज के मरते ही कलचुरि लक्ष्मीकर्ण और चालुक्य भीम की संयुक्त सेना ने धारा नगरी पर आक्रमण कर उसे बुरी तरह लूटकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और धारा सहित राज्य के एक बड़े भाग पर अधिकार कर लिया।

भोज का साम्राज्य-विस्तार

यद्यपि भोज का अंत दुखद हुआ, फिर भी वह अपने युग के एक पराक्रमी शासक थे। उन्होंने अपने समकालीन उत्तर और दक्षिण की प्रायः सभी शक्तियों से संघर्ष किया और परमार सत्ता का विस्तार किया। उदयपुर लेख में उनकी प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि ‘पृथु की तुलना करने वाले भोज ने कैलाश से मलय पर्वत तक तथा उदयाचल से अस्ताचल तक की समस्त पृथ्वी पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उन्होंने अपने धनुष-बाण से पृथ्वी के समस्त राजाओं को उखाड़कर उन्हें विभिन्न दिशाओं में बिखेर दिया।’

अपने उत्कर्ष काल में भोज के साम्राज्य का विस्तार उत्तर में चित्तौड़ से लेकर दक्षिण में ऊपरी कोंकण तक और पश्चिम में साबरमती नदी से पूरब में उड़ीसा तक था। यद्यपि उनकी क्षेत्रीय विजयें अल्पकालिक थीं, लेकिन उनके सेनानायकों—कुलचंद्र, साढ़ और सूरादित्य ने परमार साम्राज्य के विस्तार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

राजा भोज की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

परमार भोज भारतीय इतिहास में एक महान शासक, विद्वान और कला-साहित्य के संरक्षक के रूप में प्रसिद्ध हैं। परमार वंश के इस चक्रवर्ती सम्राट ने न केवल अपने साम्राज्य का विस्तार किया, बल्कि प्रशासन, शिक्षा, साहित्य, कला और विज्ञान के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान दिया। उनकी बहुमुखी प्रतिभा और विद्वता के कारण ‘कविराज’ की उपाधि प्राप्त हुई थी।

भोज स्वयं एक महान विद्वान और कवि थे। उन्होंने संस्कृत में कई ग्रंथों की रचना की, जो ज्योतिष, व्याकरण, वास्तुशास्त्र, राजनीति, चिकित्सा, नीतिशास्त्र आदि विविध विषयों पर आधारित हैं। भोज की प्रमुख साहित्यिक रचनाओं में समरांगणसूत्रधार, युक्तिकल्पतरु, सरस्वतीकंठाभरण, आयुर्वेदसर्वस्व, व्यवहारमंजरी, चारुचर्या, शृंगारमंजरी, सिद्धांतसंग्रह, योगसूत्रवृत्ति, तत्वप्रकाश, चंपूरामायण, विद्याविनोद, शृंगारप्रकाश, शब्दानुशासन, राजमृगांक और कूर्मशतक महत्त्वपूर्ण हैं।

समरांगणसूत्रधार भोज का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है, जो वास्तुशास्त्र, मूर्तिकला और नगर नियोजन पर एक विस्तृत रचना है, जिसमें मंदिर निर्माण, नगर नियोजन और यंत्र निर्माण के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। साथ ही, मशीनों और यांत्रिकी के तकनीकी पहलुओं का भी उल्लेख है। युक्तिकल्पतरु राजनीति, शस्त्र विद्या और शासन प्रणाली पर आधारित है। सरस्वतीकंठाभरण व्याकरण और काव्यशास्त्र पर आधारित ग्रंथ है। आयुर्वेदसर्वस्व चिकित्सा और आयुर्वेद पर आधारित ग्रंथ है, जिसमें औषधियों, रोग निदान और उपचार के तरीकों का वर्णन है। व्यवहारमंजरी हिंदू विधि या धर्मशास्त्र पर, चारुचर्या व्यक्तिगत स्वच्छता एवं सौंदर्य पर और शृंगारमंजरी शृंगार पर आधारित ग्रंथ हैं। सिद्धांतसंग्रह ज्योतिष और गणित पर आधारित एक ग्रंथ है, जबकि योगसूत्रवृत्ति योग दर्शन पर टीका है। तत्वप्रकाश विभिन्न दार्शनिक विषयों पर और चंपूरामायण रामायण पर आधारित एक काव्य ग्रंथ है। विद्याविनोद विभिन्न विद्याओं और ज्ञान के क्षेत्रों पर आधारित है, जिसमें दर्शन, गणित और ज्योतिष जैसे विषय शामिल हैं। शृंगारप्रकाश, शब्दानुशासन, राजमृगांक और कूर्मशतक भी विभिन्न विषयों पर आधारित हैं। यही कारण है कि परमार भोज को सरस्वती देवी का भक्त माना जाता था।

राजा भोज ने मालवा में वास्तुशिल्प और जल प्रबंधन के क्षेत्र में भी अद्भुत परियोजनाएँ शुरू की, जो अभियांत्रिकी और कला के प्रति उसके प्रेम का परिचायक हैं। उन्होंने राजधानी धारा (धार) को एक सांस्कृतिक और शैक्षिक केंद्र के रूप में विकसित किया और वहाँ के सरस्वती मंदिर में भोजशाला नामक एक प्रसिद्ध संस्कृत विद्यालय तथा पुस्तकालय की स्थापना की, जिसके कारण मालवा विद्या और कला का प्रसिद्ध केंद्र बन गया। संस्कृत विद्यालय में स्थापित सरस्वती की प्रतिमा आज भी ब्रिटिश म्यूजियम, लंदन में सुरक्षित है। धार का किला और विजय-स्तंभ जैसी अन्य संरचनाएँ उनकी वास्तुशिल्पीय रुचि का प्रमाण हैं। भोज ने जनकल्याण और धार्मिक उद्देश्यों के लिए मालवा के विभिन्न हिस्सों में कई मंदिरों और सार्वजनिक भवनों का निर्माण करवाया।

राजा भोज ने भोजपुर नगर की स्थापना की और वहाँ भोजेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया, जो भोज के शासनकाल की सबसे प्रसिद्ध वास्तुशिल्पीय कृति है। इस मंदिर में स्थापित विशाल शिवलिंग भारत के सबसे बड़े शिवलिंगों में से एक है। यद्यपि मंदिर का निर्माण अधूरा रह गया, लेकिन इसकी भव्यता और वास्तुशिल्पीय आकृति आज भी प्रभावशाली है। यह मंदिर भोज के समरांगणसूत्रधार में वर्णित वास्तु सिद्धांतों का जीवंत उदाहरण है। परमार भोज ने चित्तौड़ में त्रिभुवननारायण मंदिर का भी निर्माण करवाया, जो शिव को समर्पित है और तत्कालीन स्थापत्य की उत्कृष्टता का प्रतीक है। यही नहीं, भोपाल (भोजपाल) शहर की स्थापना का श्रेय भी भोज को दिया जाता है।

भोज ने जल संरक्षण की कई परियोजनाओं को प्रोत्साहन दिया। उसने जल संरक्षण और सिंचाई के लिए भोजपुर नगर में तीन बाँध बनवाया और भोजसर (भोजताल) नामक एक विशाल कृत्रिम झील का निर्माण करवाया, जो परमारकालीन जल प्रबंधन और अभियांत्रिकी का उत्कृष्ट उदाहरण है।

भोज की राजसभा में भास्कर भट्ट, दामोदर मिश्र और धनपाल जैसे विद्वान थे। उनकी उदारता और दानशीलता के संबंध में कहा जाता है कि वह प्रत्येक कवि को प्रत्येक श्लोक पर एक लाख मुद्राएँ पुरस्कार देते थे।

इस प्रकार परमार भोज एक पराक्रमी और विद्वान शासक थे, जिन्होंने परमार वंश को राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रगति के शिखर पर पहुँचाया। उनकी मृत्यु (1055 ई.) से धारा नगरी, विद्या और विद्वान तीनों निराश्रित हो गए। एक लोकोक्ति में कहा गया है: ‘भोजराज के निधन के साथ ही धारा नगरी निराधार हो गई, सरस्वती बिना अवलंब के रह गई और सभी पंडित खंडित हो गए’—

अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती,

पंडिताः खंडिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते॥

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