परमेश्वरवर्मन प्रथम (670-695 ई.) महेंद्रवर्मन द्वितीय का पुत्र और पल्लव वंश का उत्तराधिकारी था, जिसके शासनकाल में चालुक्य नरेश विक्रमादित्य प्रथम से कड़ी टक्कर हुई। प्रारंभिक संघर्ष में कांची नगर पर चालुक्यों का अधिकार हो गया, लेकिन परमेश्वरवर्मन ने शीघ्र ही अपनी सैन्यशक्ति संगठित कर पेरुवलनल्लूर के युद्ध में चालुक्य सेना को परास्त किया और पल्लवों की विजय सुनिश्चित की। वे परम शैव थे, जिन्होंने कूरम के शिव मंदिर एवं मामल्लपुरम् के गणेश मंदिर जैसी स्थापत्य धरोहरों का निर्माण कराया और ‘विद्याविनीत पल्लव परमेश्वरगहम्’ की प्रतिष्ठा स्थापित की। उनकी उपाधियाँ अत्यंतकाम, विद्याविनीत, रणंजय आदि उनके सैनिक, धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान का प्रमाण हैं
महेंद्रवर्मन द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका पुत्र परमेश्वरवर्मन प्रथम लगभग 670 ई. में पल्लव वंश का शासक बना। उसके शासनकाल में भी पल्लव-चालुक्य संघर्ष चलता रहा। उसका समकालीन चालुक्य शासक विक्रमादित्य प्रथम था।
विक्रमादित्य प्रथम के गदवाल अभिलेख से पता चलता है कि उसने ईश्वरपोत (परमेश्वरवर्मन प्रथम) के विरुद्ध विजय प्राप्त की, नरसिंहवर्मन प्रथम के परिवार को नष्ट किया और प्राचीर व परिखा से सुरक्षित काँची नगर पर अधिकार कर राजमल्ल की उपाधि धारण की। इस घटना की पुष्टि केंदूर दानपत्र से भी होती है, जिसमें कहा गया है कि विक्रमादित्य प्रथम का चरणकमल पल्लवपति के मुकुट द्वारा चुम्बित था (कांचीपतिमुकुटचुम्बित पादाम्बुजस्य विक्रमादित्यः)।
यह युद्ध परमेश्वरवर्मन प्रथम के शासन के चौथे वर्ष में कावेरी नदी के दक्षिणी तट पर उरगपुर (उरैयूर) में हुआ। इसी स्थान से विक्रमादित्य प्रथम ने अपने शासन के 20वें वर्ष (लगभग 674 ई.) में गदवाल दानपत्र जारी किया। संभवतः इस पराजय के कारण परमेश्वरवर्मन प्रथम को अपनी राजधानी छोड़कर अन्यत्र शरण लेनी पड़ी।
परमेश्वरवर्मन प्रथम ने 674-678 ई. के बीच अपनी हार का बदला लिया। कूरम अभिलेख के अनुसार उसने लाखों सैनिकों वाली विक्रमादित्य की सेना को पराजित कर उसे रणक्षेत्र से भगा दिया। वैलूरपाल्यम अभिलेख में उसे ‘शत्रुओं के मद को नष्ट करने वाला सूर्य’ (चालुक्यशक्ति का संहार करने वाला दिवाकर) कहा गया है (चालुक्यक्षितिमृत्सैन्यध्वान्तध्वंस दिवाकरणः)। महेंद्रवर्मन के उदयेंदिरम् अभिलेख के अनुसार यह युद्ध उरैयूर से लगभग तीन कि.मी. उत्तर-पश्चिम में पेरुवलनल्लूर नामक स्थान पर हुआ। इससे स्पष्ट है कि परमेश्वरवर्मन चालुक्यों को अपने शासित क्षेत्र से पूरी तरह निष्कासित करने में सफल रहा।
गंग शासक भूविक्रम (655-679 ई.) के वेदिरुर अभिलेख के अनुसार परमेश्वरवर्मन ने विलंद (तुमकुर, कर्नाटक) में किसी पल्लवनरेंद्रपति से युद्ध किया। हेल्लेगेरे और ब्रिटिश म्यूजियम के अभिलेखों में कहा गया है कि भूविक्रम ने युद्धभूमि में पल्लव शासक का रत्नजटित हार छीन लिया। यद्यपि इन साक्ष्यों में पल्लव राजा का नाम स्पष्ट नहीं है, संभव है कि यह सफलता भूविक्रम ने परमेश्वरवर्मन प्रथम के विरुद्ध प्राप्त की हो।
पल्लवकालीन प्रसिद्ध वैष्णव संत तिरुमंगै आलवार के अनुसार नांगूर सरदारों ने पांड्यों और किसी उत्तरी शक्तिशाली शासक को पराजित किया। चूँकि नांगूर उस समय पल्लवों की अधीनता में थे, संभव है कि नांगूर शासकों ने अपने स्वामी परमेश्वरवर्मन प्रथम की ओर से किसी उत्तरी शासक (संभवतः चालुक्यों) के विरुद्ध सैन्य अभियान में भाग लेकर विजय प्राप्त की हो।
परमेश्वरवर्मन प्रथम की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
परमेश्वरवर्मन प्रथम पल्लव राजवंश का एक महत्त्वपूर्ण शासक था, जिसने विपरीत परिस्थितियों में भी वीरता के साथ पल्लव साम्राज्य को सुरक्षित रखा। उसने चालुक्य शासक विक्रमादित्य प्रथम का डटकर मुकाबला किया और पेरुवलनल्लूर के युद्ध में उसे परास्त कर चालुक्यों के सामरिक हौसले को चकनाचूर कर दिया। अपने पूर्वजों की तरह उसने अत्यंतकाम, विद्याविनीत, उग्रदंड, लोकादित्य, चित्रमाय, गुणभाजन, श्रीभर, एकमल्ल और रणंजय जैसी उपाधियाँ धारण की और अनेक धार्मिक कृत्यों का संपादन किया।
आंध्र प्रदेश के कुरनूल से प्राप्त 7वीं शताब्दी के रेचुरु शिलालेख में परमेश्वरवर्मन प्रथम की प्रशंसा की गई है और उसे अश्वमेध यज्ञ सहित अनेक यज्ञों (यथावदामृत अश्वमेधाद्यनेक क्रतुयाजिन) का याजक बताया गया है। इस आधार पर इतिहासकार परमेश्वरवर्मन को अश्वमेध यज्ञ का आयोजक मानते हैं। लेकिन इसकी पुष्टि किसी अन्य प्रमाणिक स्रोत से नहीं होती है।
परमेश्वरवर्मन प्रथम परम शैव था और उसने परममाहेश्वर की उपाधि धारण की। कूरम अभिलेख में ‘सदाशिव’ की प्रार्थना का उल्लेख है, जो दक्षिण भारत के अभिलेखों में संभवतः सबसे प्राचीन है। उसने पल्लवयुगीन द्राविड़ वास्तुकला को समृद्ध किया और काँची के निकट कूरम में एक भव्य शिवमंदिर का निर्माण करवाया, जिसका नाम ‘विद्याविनीत पल्लव परमेश्वर गृहम्’ रखा गया। कूरम अभिलेख के अनुसार इस मंदिर में महाभारत के नित्य पाठ का प्रबंध भी किया गया था। मामल्लपुरम् का गणेश मंदिर और कुछ अन्य स्मारक भी संभवतः उसके शासनकाल में निर्मित हुए। उसने लगभग 695 ई. तक शासन किया।