पल्लवकालीन प्रशासन (Pallava Administration)

पल्लवों ने अपने लगभग 600 वर्षों के शासनकाल (लगभग 275-907 ई.) में दक्षिण भारत के […]

पल्लवकालीन प्रशासन (Pallava Administration)

पल्लवों ने अपने लगभग 600 वर्षों के शासनकाल (लगभग 275-907 ई.) में दक्षिण भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनके शासनकाल में आशातीत साहित्यिक प्रगति हुई और राजधानी काँची अध्ययन-अध्यापन का प्रमुख केंद्र बन गई। पल्लवों ने स्थानीय तमिल साहित्य के साथ-साथ संस्कृत साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया। भारवि और दंडी जैसे कवि उनके युग की देन हैं। साहित्य एवं विद्या का उदार संरक्षक होने के साथ-साथ कई पल्लव शासक स्वयं विद्वान थे।

पल्लव शासक प्रायः वैष्णव और शैव धर्म के अनुयायी थे। पल्लव शासकों के संरक्षण में अनेक वैष्णव तथा शैव संतों ने भक्ति साहित्य की रचना की। पल्लव धर्मसहिष्णु थे और उन्होंने बौद्धों व जैनों को भी संरक्षण प्रदान किया। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने काँची में बौद्ध और जैन विहारों का उल्लेख किया है, जहाँ वे स्वतंत्रतापूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। कई पल्लव शासकों ने घटिकाओं (ब्राह्मण शिक्षण संस्थाओं) और अन्य शिक्षण संस्थाओं को दान दिया। पल्लवों की सबसे बड़ी उपलब्धि उनकी वास्तुकला थी। उन्होंने द्रविड़ शैली को विकसित किया, जिसे राजसिंह, महेंद्र, मामल्ल और अपराजित शैली के नाम से जाना जाता है।

 प्रशासन

पल्लवों ने एक सुव्यवस्थित और प्रभावी प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की, जिसका अनुकरण बाद के दक्षिण भारतीय राज्यों ने किया। उनका राज्य मंडलम नामक प्रांतों में विभाजित था, जिनका प्रशासन प्रांतीय राज्यपालों और सामंतों द्वारा होता था। स्थानीय स्तर पर उर (गाँव) और नाडु जैसी इकाइयाँ थीं, जो स्वायत्त सभाओं द्वारा संचालित होती थीं और कर संग्रह, भूमि प्रबंधन और सामुदायिक कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। भू-राजस्व, प्रशासन की आय का प्राथमिक स्रोत था, जिसके लिए व्यवस्थित भूमि सर्वेक्षण किए जाते थे। पल्लवों की शक्तिशाली सेना ने क्षेत्रीय विस्तार और व्यापार में सहायता की।

केंद्रीय शासन

पल्लव शासकों का प्रशासनिक ढाँचा अत्यंत संगठित, केंद्रीकृत और प्रभावी था, जो सामंती व्यवस्था और केंद्रीय शासन के सामंजस्य का मिश्रण था। राजा राज्य का सर्वोच्च अधिकारी, सैन्य प्रमुख, न्यायाधीश होता था। राजा को भूमि पर दैवी अधिकार प्राप्त माना जाता था। पल्लव नरेश न केवल शासक था, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का संरक्षक भी था। वह धर्म-महाराज या महाराजाधिराज जैसे उपाधियाँ धारण करता था।

युवराज (उत्तराधिकारी राजकुमार) का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण था। वह भूमि-दान और प्रशासनिक कार्य कर सकता था। पल्लव शासन में ब्राह्मण, क्षत्रिय और अन्य सामाजिक वर्गों का महत्त्व था और यह व्यवस्था सामंतवादी और केंद्रीकृत शासन के मिश्रण पर आधारित थी। पल्लवों ने न केवल प्रशासनिक दक्षता दिखाई बल्कि कला, संस्कृति और धर्म के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

मंत्रिपरिषद और प्रशासनिक अधिकारी

पल्लव शासन में राजा सर्वोच्च शक्ति का केंद्र था। राजा की सहायता के लिए एक सक्षम मंत्रिपरिषद होती थी, जिसे अमात्य और रहस्यादिकद कहा जाता था। मंत्रिपरिषद के सदस्यों का चयन मुख्यतः वीरता, सामाजिक स्थिति, योग्यता और विश्वसनीयता के आधार पर किया जाता था, जो राजा को विभिन्न महत्त्वपूर्ण विषयों में सलाह देते थे। विभिन्न विभागों की विस्तृत जानकारी नहीं मिलती, लेकिन प्रमुख विषयों पर यह परिषद राजा को परामर्श देती थी।

पल्लव शिलालेखों में कई प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों के पदनाम मिलते हैं, जैसे- मंडल का शासक राष्ट्रिक था और सैन्य मामलों का प्रमुख महासेनापति होता था, जो युद्ध और रक्षा रणनीतियों का प्रबंधन करता था। महादंडनायक न्याय और दंड व्यवस्था का प्रभारी था। अमात्य राजा का सलाहकार और प्रशासनिक कार्यों की देखरेख करता था। विदेशी मामलों और संधियों का प्रभारी संधिविग्रहिक होता था। आरक्षाधिकृत सुरक्षा अधिकारी था। तैर्थिक नामक अधिकारी तीर्थों, नदियों और जलाशयों का देखरेख करता था। देशाधिकृत जिले का अधिकारी था। नैयोजिक कोई अमात्य या मंत्री था। मंडपी कर संग्रह अधिकारी था।

गाँव का अधिकारी ग्रामभोजक कहलाता था। कर्णम गाँव स्तर पर लेखा-जोखा और दस्तावेज रखने वाला कर्मचारी था। इनके अलावा, गौत्मिक, भट्टमनुष्य, संचरंतक आदि स्थानीय पदाधिकारी थे।

प्रशासनिक इकाइयाँ-राष्ट्र, कोट्टम, नाडु और ग्राम

प्रशासनिक सुविधा के लिए पल्लव राज्य को विभिन्न इकाइयों में विभाजित किया गया था। पल्लव प्रशासन की सबसे बड़ी इकाई मंडलम या राष्ट्र थी, जिसका शासक राष्ट्रिक या मंडलाधिकारी होता था। मंडलाधिकारी के पास अपनी सेना और न्यायालय होते थे।

मंडलम या राष्ट्र का विभाजन कोट्टम (जिला) में किया गया था, जिसका प्रशासन राजा द्वारा नियुक्त देशाधिकृत या देशाध्यक्ष सँभालता था। कोट्टम (जिला) नाडु (तालुक) में विभाजित थे, जिसका शासन स्थानीय परिषद नत्तार (सामंत) द्वारा संचालित किया जाता था।

स्थानीय प्रशासन-ग्राम

प्रशासन की सबसे छोटी इकाई उर (ग्राम) थी, जिसका प्रशासन ग्राम पंचायतें या ग्राम समितियाँ देखती थीं। ग्राम सभा के सदस्य सभासद कहलाते थे, जो स्थानीय निर्णय लेने में भाग लेते थे।

गाँव दो प्रकार के होते थे- ब्रह्मदेय गाँव, जो ब्राह्मणों को दान में दिए गए थे और कर मुक्त थे। सामान्य गाँव में विभिन्न जातियाँ रहती थीं और प्रजा को भूमि की उपज का छठे से दसवें भाग तक कर के रूप में देना पड़ता था।

गाँव की सभा (मत्रम) की बैठकें अकसर किसी वृक्ष के होती थीं और सार्वजनिक कार्यों तथा सथानीय स्तर न्यायिक दायित्व का भी निवर्हन करती थीं। पल्लव शिलालेखों से पता चलता है कि प्रशासन में स्थानीय स्वायत्तता को महत्त्व दिया जाता था, लेकिन राजा का अंतिम नियंत्रण बना रहता था।

कर और राजस्व व्यवस्था

शिलालेखों से पता चलता है कि राजकीय आय के प्रमुख स्रोत विभिन्न प्रकार के वसूले जाने वाले कर थे।  राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भूमिकर था, जो भूमि की उपज के छठे से दसवें भाग तक लिया जाता था। यह कर नकद या वस्तु के रूप में दिया जा सकता था। पल्लव शासकों ने सिंचाई व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया, जिससे कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई और राज्य की आय बढ़ी।

पशुपालन, सिंचाई, व्यापार और यात्रा पर भी कर लगाया जाता था। उपरिकर और विष्टि (श्रम कर) का उल्लेख मिलता है। इसके साथ ही, लघु शिल्प, खनिज और बंदरगाहों से राज्य को अतिरिक्त राजस्व मिलता था। युद्धों में जीते गए क्षेत्रों से प्राप्त धन और अपराधियों को दिये गये दंड और जुर्माने से भी राज्य की आमदनी होती थी। स्थानीय स्तर पर 18 प्रकार के पारंपरिक करों का उल्लेख मिलता है। मंदिरों और धार्मिक संस्थाओं को दान की गई ब्रह्मदेय भूमि और गाँव कर-मुक्त होते थे।

राजकीय आय का बड़ा भाग सेना के रखरखाव, हथियारों और युद्ध सामग्री पर खर्च किया जाता था। अधिकारियों और कर्मचारियों को वेतन, भत्ते और अन्य सुविधाएँ दी जाती थीं। किलों, मंदिरों, मठों के निर्माण और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए भी धन खर्च किया जाता था। पल्लव शासकों ने मामल्लपुरम के रथ मंदिर और काँची के कैलाशनाथ मंदिर जैसे भव्य स्मारकों का निर्माण करवाया। सार्वजनिक कार्यों जैसे सड़कों, तालाबों तथा नहरों के निर्माण और रखरखाव पर भी धन व्यय किया जाता था। राज्य की ओर से गरीबों और जरूरतमंदों के लिए दान और सहायता जैसे कल्याणकारी कार्य भी किए जाते थे।

सैन्य व्यवस्था

पल्लवों की सैन्य व्यवस्था अत्यंत संगठित और शक्तिशाली थी, जिसमें पैदल, अश्वारोही और हाथीदल के साथ-साथ एक शक्तिशाली नौसेना भी थी, जिसके केंद्र महाबलिपुरम और नेगपत्तन थे। सबसे बड़ी संख्या पैदल सैनिकों की थी। अश्वारोही सेना त्वरित हमलों के लिए उपयोगी थी। युद्ध में हाथियों का उपयोग शक्ति प्रदर्शन और दुश्मनों को भयभीत करने के लिए किया जाता था। पल्लवों की नौसेना दक्षिण-पूर्व एशिया और श्रीलंका के साथ व्यापार और युद्ध के लिए महत्त्वपूर्ण थी। सैन्य प्रशिक्षण और युद्ध रणनीतियों में पल्लवों की कुशलता ने उन्हें दक्षिण भारत में एक प्रमुख शक्ति बनाया।

न्याय-प्रणाली

पल्लव काल में सर्वोच्च न्यायाधीश राजा स्वयं था। ग्राम सभा गाँवों में न्यायिक कार्य भी करती थी। न्याय धर्मशास्त्रों और रूढ़ियों के आधार पर किए जाते थे। अंतिम अपीलीय अधिकारी राजा था।

इस प्रकार पल्लवकालीन प्रशासन में शक्ति का केंद्रीकरण था और स्थानीय स्तर पर अधिकारों का सुचारू संयोजन सुनिश्चित किया गया था। प्रशासन की प्रत्येक इकाई और अधिकारी को स्पष्ट दायित्व सौंपे गए थे। राज्य की आय का सबसे बड़ा स्रोत भूराजस्व था और कर-संग्रह व्यवस्थित और संगठित रूप से किया जाता था। राज्य के व्यय का अधिकांश हिस्सा सेना, प्रशासन एवं धार्मिक गतिविधियों पर व्यय किया जाता था। पल्लव सैन्य संगठन, प्रशासनिक कुशलता और आर्थिक प्रबंधन के कारण दक्षिण भारत का प्रमुख राजवंश साबित हुआ।

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