नरसिंहवर्मन द्वितीय (Narasimhavarman II, 695-722 AD)

परमेश्वरवर्मन प्रथम के पश्चात, लगभग 695 ई. में उसके पुत्र नरसिंहवर्मन द्वितीय ने पल्लव साम्राज्य […]

Narasimhavarman II, 695-722 AD

परमेश्वरवर्मन प्रथम के पश्चात, लगभग 695 ई. में उसके पुत्र नरसिंहवर्मन द्वितीय ने पल्लव साम्राज्य की बागडोर सँभाली। सामान्यतः राजसिंह के नाम से विख्यात, नरसिंहवर्मन द्वितीय का शासनकाल पल्लव वंश के स्वर्णिम युग का प्रतीक माना जाता है, जो अपनी सांस्कृतिक और स्थापत्य उपलब्धियों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। उसके के शासनकाल में काँची में निर्मित कैलाशनाथ मंदिर, जिसे राजसिंहेश्वर मंदिर भी कहा जाता है, द्रविड़ स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट नमूना है। यह मंदिर न केवल उनकी धार्मिक सहिष्णुता और कला के प्रति प्रेम को दर्शाता है, बल्कि पल्लव शिल्पकला की श्रेष्ठता को भी उजागर करता है।

अभिलेखों में नरसिंहवर्मन की रणंजय, रणविक्रम, अमित्रमल्ल, अरिमर्दन, आहवकेशरि, परचक्रमर्दन, पार्थविक्रम और समरधनंजय जैसी उपाधियाँ मिलती हैं, लेकिन उसकी सामरिक उपलब्धियों का स्पष्ट विवरण नहीं मिलता।

कैलाशनाथ मंदिर पर उत्कीर्ण नरसिंह द्वितीय के एक अभिलेख में कहा गया है कि उसने अपनी शक्ति और नीतिनिपुणता से शत्रुओं को परास्त किया और अन्य राजाओं को अपने अधीन किया। कशाक्कुडि अभिलेख में उसकी तुलना विष्णु के नरसिंह अवतार से की गई है और वैलूरपाल्यम अभिलेख में उसे महेंद्र के समान बताया गया है। किंतु इन स्रोतों से उसकी सैन्य उपलब्धियों का स्पष्ट सूचना नहीं मिलती है।

नरसिंहवर्मन द्वितीय का शासनकाल सामान्यतः शांतिपूर्ण रहा। उसका चीन के साथ मित्रतापूर्ण संबंध था और उसने नागपट्टिनम में चीनी बौद्धों के लिए एक विहार का निर्माण करवाया। चीनी कोश त्सो-फुओ-युयान-कोई (1013 ई.) के अनुसार श्रीनरसिंह (नरसिंहवर्मन द्वितीय) ने 720 ई. में एक दूतमंडल चीनी दरबार में भेजा। इस दूतमंडल ने बताया कि नरसिंहवर्मन द्वितीय अरबों (तारिक-ताचे) और तिब्बतियों (तोज-पो) के विरुद्ध सैन्य कार्यवाही की तैयारी कर रहा है, तो चीनी सम्राट ने प्रसन्न होकर उसे ‘दक्षिण भारत के सम्राट’ की उपाधि प्रदान की।

नरसिंहवर्मन द्वितीय की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

नरसिंहवर्मन द्वितीय के शासनकाल में साहित्य, कला, विशेषकर वास्तुकला और शिक्षा का अभूतपूर्व विकास हुआ, जिससे काँची संस्कृति का प्रमुख केंद्र बन गया। उसके काल में निर्मित काँची के कैलाशनाथ, ऐरावतेश्वर मंदिर और महाबलीपुरम् का समुद्रतटीय मंदिर अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध हैं। उसने मंदिर वास्तु में एक नवीन कला शैली को जन्म दिया, जो ‘राजसिंह शैली’ के नाम से प्रसिद्ध है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि महाबलीपुरम् के अधिकांश स्मारकों का निर्माण उसके शासनकाल में हुआ।

नरसिंहवर्मन द्वितीय शैव धर्म का अनुयायी था। उसकी ईशानशरण, देवदेवीभक्त, शंकरभक्त और ईश्वरभक्त जैसी उपाधियाँ उसकी धार्मिक निष्ठा का प्रमाण हैं। वह अन्य धर्मों के प्रति भी उदार था और श्रीपतिवल्लभ उपाधि विष्णु के प्रति उसकी श्रद्धा का सूचक है।

नरसिंहवर्मन संस्कृत साहित्य और कला का उदार संरक्षक था। कहा जाता है कि प्रसिद्ध संस्कृत कवि दंडी उसके सभापंडित थे। वैलूरपाल्यम अभिलेख के अनुसार उसने काँची के घटिका विद्यालयों को पुनर्जीवित किया। कशाक्कुडि अभिलेख से पता चलता है कि उसने चारों वेदों में पारंगत ब्राह्मणों को भूमिदान दिया। कुछ विद्वानों का मानना है कि भास के नाटकों की रचना उसके काल में हुई, यद्यपि यह विवादास्पद है।

वेल्लोर से प्राप्त कुछ सिक्कों पर श्रीमार या श्रीनिधि लेख अंकित है, जो नरसिंहवर्मन द्वितीय के बताए जाते हैं। उसकी वाद्यविद्याधर, वीणानारद और अतोदय-तुम्बुरु जैसी उपाधियाँ उसकी संगीत के प्रति रुचि का परिचायक हैं। संभवतः इसीलिए चालुक्यों ने उसे पराजित करने के बाद उसके वाद्ययंत्रों को अपहृत किया था। पल्लव अभिलेखों में उसकी विदुषी अग्रमहिषी रंगपताका के रचनात्मक व्यक्तित्व का भी उल्लेख है। नरसिंहवर्मन द्वितीय ने संभवतः 722 ई. तक शासन किया।

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