नरसिंहवर्मन प्रथम (Narasimhavarman I, 630-668 AD)

नरसिंहवर्मन प्रथम (630-668 ई.) पल्लव वश का एक महत्त्वपूर्ण शासक था, जिसने अपने शासनकाल में […]

नरसिंहवर्मन प्रथम (Narasimhavarman I, 630-668 AD)

नरसिंहवर्मन प्रथम (630-668 ई.) पल्लव वश का एक महत्त्वपूर्ण शासक था, जिसने अपने शासनकाल में दक्षिण भारतीय संस्कृति, कला और सैन्य शक्ति को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। वह अपने पिता महेंद्रवर्मन प्रथम के उत्तराधिकारी थे और उसके समय में पल्लव साम्राज्य की प्रमुखता बनी रही। नरसिंहवर्मन को ‘मामल्लष्’ या ‘महामल्ल’ भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है ‘महान पहलवान’। उसने अपने पिता की कला और स्थापत्य की परंपरा को आगे बढ़ाया और काशीपुरी, मामल्लपुरम जैसे स्थलों पर विशाल मंदिर और स्मारक का निर्माण करवाया। उसके नेतृत्व में पल्लवों ने चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय के साथ कई युद्ध लड़े और उसे पराजित किया। उसने वातापी पर विजय प्राप्त की। उसने लंका पर आक्रमण कर राजकीय और धार्मिक दोनों मामलों में सफलता प्राप्त की। नरसिंहवर्मन प्रथम की वीरता और सामरिक कौशल ने दक्षिण भारत में पल्लव राजवंश की स्थिति को सुदृढ़ किया और उसका नाम इतिहास में अमर हो गया।

महेंद्रवर्मन के बाद उसका पुत्र और उत्तराधिकारी नरसिंहवर्मन प्रथम लगभग 630 ई. में पल्लव सिंहासन पर आसीन हुआ। वह अपने पिता की तरह महान विजेता और कुशल प्रशासक था। अपने असाधारण पौरुष, साहस और पराक्रम के द्वारा उसने पल्लवों को दक्षिण भारत की प्रमुख शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया और अपनी मामल्लन (महान पहलवान) की उपाधि को सार्थक किया, जिससे पल्लव साम्राज्य अपराजेय हो गया।

नरसिंहवर्मन की सैनिक उपलब्धियाँ

चालुक्यों के विरुद्ध सफलता

नरसिंहवर्मन ने अपने परंपरागत शत्रु चालुक्यों के विरूद्ध उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की। संभवतः पल्लवों ने 630 ई. के आसपास चालुक्यों के महत्त्वपूर्ण क्षेत्र कर्मराष्ट्र पर अधिकार करने का प्रयास किया। इसके प्रत्युत्तर में चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय ने पल्लवों पर आक्रमण किया। पुलकेशिन के 631 ई. के कोप्परम ताम्रपट्टों के अनुसार उसने कर्मराष्ट्र में एक ग्राम दान में दिया था, जिससे स्पष्ट है कि इस समय तक चालुक्यों ने इस क्षेत्र पर पुनः अधिकार कर लिया था।

कर्मराष्ट्र की विजय के बाद पुलकेशिन द्वितीय ने रायलसीमा में शासन करने वाले पल्लवों के सामंत बाणों को पराजित कर पल्लव राज्य पर आक्रमण किया। इस चालुक्य-पल्लव संघर्ष में पुलकेशिन द्वितीय को पराजित होकर भागना पड़ा।

कूरम अभिलेख के अनुसार नरसिंहवर्मन ने सहस्रबाहु कार्तवीर्य के समान अनुपम शौर्य प्रदर्शित किया और परियाल, शुरमार (चित्तूर) और मणिमंगलम के युद्धों में पुलकेशिन द्वितीय को पराजित कर उसकी पीठ पर ‘विजय’ अक्षर अंकित किया।

नरसिंहवर्मन केवल चालुक्यों को पराजित कर और उन्हें अपने राज्य से खदेड़कर ही संतुष्ट नहीं हुआ। कशाक्कुडि अभिलेख के अनुसार उसके सेनापति शिरुत्तोंड ने पुलकेशिन की राजधानी वातापि पर आक्रमण कर उसे उसी प्रकार नष्ट किया, जिस प्रकार अगस्त्य ऋषि ने वातापी राक्षस का अंत किया था। वैलूरपाल्यम अभिलेख के अनुसार नरसिंहवर्मन ने बादामी के अरिवर्ग को पराजित कर वहाँ के विजय-स्तंभ पर अधिकार किया (नरसिवर्मा वातापिमध्ये विजितारिवर्गः स्तितंजयस्तम्भमलयमद्यः)।

नरसिंहवर्मन ने यह विजय अभियान अपने शासनकाल के 13वें वर्ष (लगभग 642 ई.) में किया। इस युद्ध में पुलकेशिन द्वितीय मारा गया और शिरुत्तोंड बड़ी मात्रा में धन-संपत्ति लेकर लौटा। पेरियपुराणम और नंदिवर्मन तृतीय के वैलूरपाल्यम अभिलेख से पता चलता है कि इस विजय की स्मृति में नरसिंहवर्मन ने वातापि में एक कीर्ति-स्तंभ स्थापित किया और वातापीकोंड (वातापी को जीतने वाला) की उपाधि धारण की। इस पराजय के परिणामस्वरूप चालुक्य साम्राज्य के दक्षिणी क्षेत्रों पर कुछ समय के लिए पल्लवों का प्रभुत्व स्थापित हो गया।

चूंकि पुलकेशिन द्वितीय के छोटे भाई वेंगी के शासक विष्णुवर्धन की अंतिम ज्ञात तिथि भी 641-42 ई. है, इस आधार पर कुछ विद्वान मानते हैं कि वह भी युद्ध में मारा गया। दोनों भाइयों की मृत्यु के बाद चालुक्य राज्य लगभग 13 वर्षों तक राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता से ग्रस्त रहा।

सिंहल के विरुद्ध सफलता

नरसिंहवर्मन को दूसरी महत्त्वपूर्ण सफलता सिंहल (श्रीलंका) के विरुद्ध मिली। महावंश के अनुसार सिंहल के शासक कस्सप के पुत्र मानवर्मन ने राजसिंहासन से अपदस्थ किए जाने के बाद 640 ई. के आसपास नरसिंहवर्मन के राज्य में शरण ली। वह अपनी सेवा और निष्ठा से नरसिंहवर्मन का कृपापात्र बन गया। उसने पुलकेशिन द्वितीय के आक्रमण के समय भी नरसिंहवर्मन की सहायता की।

चालुक्यों से निपटने के बाद नरसिंहवर्मन ने मानवर्मन को श्रीलंका के सिंहासन पर प्रतिष्ठित करने के लिए अपनी नौसेना के साथ उसे श्रीलंका भेजा। जब मानवर्मन ने पल्लव सेना के साथ श्रीलंका पर आक्रमण किया, तो उसका प्रतिद्वंद्वी दत्तोपतिस्स भाग गया। नरसिंहवर्मन की अस्वस्थता के कारण पल्लव सेना लौट आई, जिसके कारण मानवर्मन को पुनः नरसिंहवर्मन की शरण लेनी पड़ी। कुछ समय बाद नरसिंहवर्मन और अधिक शक्तिशाली नौसेना लेकर स्वयं महाबलीपुरम तक गया।

महाबलीपुरम में पल्लव सैनिकों को श्रीलंका ले जाने के लिए जलयानों की सुदृढ़ व्यवस्था थी, लेकिन पल्लव सेना ने सिंहल जाने से इनकार कर दिया। अंततः नरसिंहवर्मन ने अपने आभूषण, राजमुकुट और राजकीय चिह्न मानवर्मन को पहनाया, जिससे पल्लव सेना उसे नरसिंहवर्मन समझकर साथ चल पड़ी। इस अभियान में मानवर्मन को निर्णायक सफलता मिली। उसका प्रतिद्वंद्वी हत्थदत्त पराजित होकर मारा गया और दूसरे शत्रु पोत्थकुत्त ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली। इस विजय के कारण कशाक्कुडि अभिलेख में नरसिंहवर्मन की तुलना लंका-विजेता राम से की गई है (लंकाजयाधरितराम पराक्रमश्री)।

कहा जाता है कि नरसिंहवर्मन ने चोल, चेर, कालभ्र और पांड्य राज्यों को भी पराजित किया, किंतु इन विजयों का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। फिर भी, चालुक्यों और सिंहल के विरुद्ध उसकी सफलताओं के परिणामस्वरूप उसका साम्राज्य बादामी से लेकर सिंहल तक विस्तृत था।

अपने शासन के अंतिम दिनों में नरसिंहवर्मन को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। पुलकेशिन द्वितीय के पुत्र और उत्तराधिकारी विक्रमादित्य प्रथम (655-680 ई.) ने अपने नाना गंग शासक दुर्विनीत और अन्य समर्थकों की सहायता से लगभग 655 ई. में पल्लवों को पराजित कर चालुक्य राज्य से बाहर खदेड़ दिया। हैदराबाद अभिलेख और गदवाल अभिलेखों के अनुसार उसने नरसिंहवर्मन के यश और प्रताप को नष्ट किया और महामल्ल के परिवार का विनाश कर राजमल्ल की उपाधि धारण की (मुदित नरसिंहयशसा योराजमल्ल शब्द बिहितमहामल्ल कुलनाश)। विक्रमादित्य का 660 ई. का तलमंचि अभिलेख कर्मराष्ट्र पर उसके अधिकार को प्रमाणित करता है।

नरसिंहवर्मन की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

नरसिंहवर्मन एक विजेता और साम्राज्य-निर्माता होने के साथ-साथ कला और स्थापत्य का संरक्षक भी था। उसके शासनकाल में वास्तुकला में सिंहशीर्षक स्तंभ निर्माण की विशिष्ट मामल्ल शैली का विकास हुआ। उसने मामल्लपुरम (महाबलीपुरम) नगर की स्थापना की और सप्तरथ (सात पैगोडा) का निर्माण करवाया, जो स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।

कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि महाबलीपुरम के पत्तन (बंदरगाह) का निर्माण भी नरसिंहवर्मन ने करवाया था, किंतु एन. सुब्रमण्यम जैसे विद्वान मानते हैं कि यह पत्तन उसके शासनकाल से पहले से विद्यमान था, क्योंकि प्रारंभिक तीन आलवारों ने इसका उल्लेख किया है।

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने नरसिंहवर्मन के शासनकाल में काँची की यात्रा की। उसने वहाँ की समृद्धि, मंदिरों, बौद्ध विहारों और विद्यालयों का विस्तृत वर्णन किया है। उसके अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय का प्रसिद्ध आचार्य धर्मपाल काँची का निवासी था। इस प्रकार नरसिंहवर्मन के शासनकाल में पल्लव सभ्यता और संस्कृति अपने विकास के उच्चतम शिखर पर पहुँच गई। उसका शासनकाल लगभग 668 ई. में समाप्त हुआ।

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