परमेश्वरवर्मन द्वितीय की मृत्यु के बाद पल्लव राज्य में राजनीतिक संकट और अराजकता फैल गई थी क्योंकि उसके अल्पवयस्क पुत्र चित्रमाय को सिंहासन से वंचित कर दिया गया था। इस स्थिति में सामंतों, पदाधिकारियों, ब्राह्मणों और व्यापारियों ने हिरण्यवर्मन के 12 वर्षीय पुत्र नंदिवर्मन द्वितीय को 730 ई. में पल्लव राजगद्दी पर बिठाया। नंदिवर्मन द्वितीय, जो सिंहविष्णु के भाई भीमवर्मन की शाखा से संबंध था, ने इस कठिन समय में पल्लव साम्राज्य को पुनः संगठित किया। उसके शासनकाल में चालुक्य, राष्ट्रकूट, चोल और पांड्य राज्यों से लड़ाइयाँ हुईं, लेकिन उसने काँची जैसी महत्त्वपूर्ण स्थलों की रक्षा की। नंदिवर्मन द्वितीय वैष्णव धर्म का अनुयायी था और कला-संस्कृति के संरक्षण में भी सक्रिय रहा। उसने काँची में मुक्तेष्वर और वैकुंठपेरुमल मंदिरों का निर्माण करवाया। उसके लंबे शासनकाल (730-796 ई.) ने पल्लव साम्राज्य को एक बार फिर से पुनःस्थापित किया।
परमेश्वरवर्मन द्वितीय की मृत्यु के बाद पल्लव राज्य में राजनीतिक संकट और अराजकता फैल गई थी क्योंकि उसके अल्पवयस्क पुत्र चित्रमाय को सिंहासन से वंचित कर दिया गया था। इस स्थिति में सामंतों, पदाधिकारियों, ब्राह्मणों और व्यापारियों ने हिरण्यवर्मन के 12 वर्षीय पुत्र नंदिवर्मन द्वितीय को 730 ई. में पल्लव राजगद्दी पर बिठाया। नंदिवर्मन द्वितीय, जो सिंहविष्णु के भाई भीमवर्मन की शाखा से संबंध था, ने इस कठिन समय में पल्लव साम्राज्य को पुनः संगठित किया। उसके शासनकाल में चालुक्य, राष्ट्रकूट, चोल और पांड्य राज्यों से लड़ाइयाँ हुईं, लेकिन उसने काँची जैसी महत्त्वपूर्ण स्थलों की रक्षा की। नंदिवर्मन द्वितीय वैष्णव धर्म का अनुयायी था और कला-संस्कृति के संरक्षण में भी सक्रिय रहा। उसने काँची में मुक्तेष्वर और वैकुंठपेरुमल मंदिरों का निर्माण करवाया। उसके लंबे शासनकाल (730-796 ई.) ने पल्लव साम्राज्य को एक बार फिर से पुनःस्थापित किया।
परमेश्वरवर्मन द्वितीय की मृत्यु के बाद पल्लव राज्य में राजनीतिक संकट और अराजकता फैल गई। उसके अल्पवयस्क पुत्र चित्रमाय को सिंहासन से वंचित कर सामंतों, पदाधिकारियों, ब्राह्मणों और व्यापारियों ने हिरण्यवर्मन के 12 वर्षीय पुत्र नंदिवर्मन द्वितीय को 730 ई. में पल्लव राजगद्दी पर आसीन किया।
उदयेंदिरम् अभिलेख में नंदिवर्मन द्वितीय को परमेश्वरवर्मन द्वितीय का पुत्र बताया गया है (तस्य परमेश्वरवर्मणः पुत्रोः नंदिवर्मन्), लेकिन इस अभिलेख की प्रामाणिकता संदिग्ध है। अन्य स्रोतों में नंदिवर्मन को हिरण्यवर्मन का पुत्र कहा गया है। नंदिवर्मन द्वितीय के राज्याभिषेक के अनुष्ठानों का चित्रण काँची के वैकुंठपेरुमाल मंदिर की मूर्तियों पर उत्कीर्ण लेखों में मिलता है।
कोरंगुडी अभिलेख में हिरण्यवर्मन को काँची का स्वतंत्र शासक बताया गया है, किंतु वैलूरपाल्यम और बाहूर अभिलेखों में उल्लिखित पल्लव शासकों में उसका नाम नहीं है। संभवतः हिरण्यवर्मन पल्लवों की सगोत्री शाखा से संबंधित था और परमेश्वरवर्मन द्वितीय के समय सामंत या किसी क्षेत्र का स्वतंत्र शासक था। परमेश्वरवर्मन की मृत्यु के बाद उत्पन्न राजनीतिक अराजकता का लाभ उठाकर उसने अपनी शक्ति बढ़ाई और अपने पुत्र नंदिवर्मन द्वितीय को काँची के सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया।
पांड्यों, पश्चिमी गंगों और चालुक्यों से युद्ध
सिंहासन से वंचित होने के कारण परमेश्वरवर्मन द्वितीय के पुत्र चित्रमाय ने पल्लवों के परंपरागत शत्रुओं- पांड्यों, पश्चिमी गंगों और चालुक्यों का गठबंधन बनाकर नंदिवर्मन द्वितीय के विरुद्ध विद्रोह किया। इस गठबंधन का नेतृत्व संभवतः पांड्य शासक मानवर्मन राजसिंह प्रथम ‘परांकुश’ (735-765 ई.) ने किया। चित्रमाय और उसके सहयोगियों ने 740 ई. के आसपास नंदिवर्मन को पराजित कर कुंभकोणम के निकट नंदिपुर के दुर्ग में शरण लेने के लिए विवश किया। चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीय के केंदूर अभिलेख से भी पता चलता है कि उसने ‘प्रकृति अमित्र’ (स्वाभाविक शत्रु) के विरुद्ध विशाल सेना भेजकर तुंडक प्रदेश पर अधिकार किया और नंदिवर्मन द्वितीय को काँची से भागने के लिए विवश किया। काँचीपुरम अभिलेख के अनुसार विक्रमादित्य द्वितीय ने काँची पर विजय के बाद न तो कोई तोड़फोड़ की और न ही नगर को हानि पहुँचाई। उसने अनाथों और मंदिरों को धन-संपत्ति दान किया।
नंदिवर्मन द्वितीय के शासनकाल के 12वें वर्ष के उदयेंदिरम् अभिलेख से पता चलता है कि उसके विश्वसनीय सामंत और सेनानायक उदयचंद्र ने अपनी वीरता और कूटनीति के बल पर विरोधी गठबंधन के सभी शत्रु शासकों को पराजित किया। उसने नंदिवर्मन को कारागार से मुक्त कराकर पुनः पल्लव सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया।
गंगों के विरुद्ध संघर्ष
तांडनतोट्टम् अभिलेख में उल्लेख है कि पल्लवों ने गंगवाड़ी पर आक्रमण कर गंग शासक शिवमार (679-726 ई.) या श्रीपुरुष (726-788) को पराजित किया और उससे उग्रोदय नामक मणिजड़ित बहुमूल्य हार अपहृत किया। इसके विपरीत, पश्चिमी गंगों के हेल्लेगरे अभिलेख या अन्य समकालीन स्रोत दावा करते हैं कि राजा श्रीपुरुष (726-788 ई.) ने राजा श्रीपुरुष ने पल्लव राजा नंदिवर्मन पल्लवमल्ल से सफलतापूर्वक युद्ध किया तथा उत्तरी अर्काट में पेनकुलिकोट्टई को अस्थायी रूप से अपने नियंत्रण में ले लिया, जिसके कारण उसे परमानदी की उपाधि मिली। इन परस्पर विरोधी विवरणों से लगता है कि सीमांत विवादों में श्रीपुरुष को पल्लवों के विरूद्ध सफलता मिली थी।
राष्ट्रकूटों का आक्रमण
नंदिवर्मन द्वितीय के शासनकाल के अंतिम वर्षों में राष्ट्रकूटों ने पल्लव राज्य पर आक्रमण किया। कडव अभिलेख के अनुसार दंतिदुर्ग (लगभग 735-756 ई.) ने 750 ईस्वी के आसपास नंदिवर्मन द्वितीय को पराजित कर काँची पर अधिकार किया। दंतिदुर्ग की इस सफलता की पुष्टि एलोरा और बेगुम्रा अभिलेख से भी होती है। ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि काँची पहुँचकर दंतिदुर्ग ने नंदिवर्मन के साथ संधि की और अपनी पुत्री रेवा (रेवाकनिम्मदी) का विवाह नंदिवर्मन द्वितीय के साथ किया। वैलूरपाल्यम अभिलेख में रेवा को नंदिवर्मन द्वितीय की पत्नी बताया गया है।
कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि दंतिदुर्ग ने उस पल्लव राजा को हराया था, जिसके विरुद्ध नंदिवर्मन को राज्यारोहण के बाद युद्ध करना पड़ा था। नंदिवर्मन द्वितीय को राज्यारोहण के बाद कई विरोधियों का सामना करना पड़ा था। संभव है कि दंतिदुर्ग द्वारा पराजित शासक पल्लव राजकुमार चित्रमाय रहा हो, जो पल्लव सिंहासन पर दावा कर रहा था। सत्यता जो भी हो, यह स्पष्ट है कि पल्लव राजवंश उस समय आंतरिक संघर्षों और बाहरी आक्रमणों का सामना कर रहा था।
पांड्यों के विरुद्ध संघ
पांड्य पल्लवों के परंपरागत शत्रु थे। पांड्य शासक मानवर्मन राजसिंह ने चित्रमाय की सहायता की थी। 765 ई. के आसपास राजसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र पांड्य जटिल परांतक (लगभग 765- 815 ई.), जिसे वरगुण प्रथम या जटिल परांतक नेडुजड्डेयन के नाम से भी जाना जाता है, की विस्तारवादी योजनाओं पर अंकुश लगाने के लिए नंदिवर्मन द्वितीय ने कोंगु, केरल और तगदूर के शासकों का एक संघ बनाया। लेकिन पांड्यों के विरुद्ध उसे कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली।
स्रोतों के अनुसार नंदिवर्मन द्वितीय और राष्ट्रकूट गोविंद द्वितीय (774-780 ई.) ने गंग शासक श्रीपुरुष (726-788 ई.), (जिसे कहीं-कहीं श्रीमार कहा गया है) को उसके भाई दुग्गमार ऐरयप्प के विरुद्ध सहायता दी और दोनों उसके राज्याभिषेक में उपस्थित थे। नंदिवर्मन और श्रीमार ने गोविंद द्वितीय की भी उसके भाई ध्रुव के विरुद्ध सहायता की। किंतु गृहयुद्ध में गोविंद द्वितीय की असफलता के बाद ध्रुव (780-793 ई.) ने राष्ट्रकूट सिंहासन पर अधिकार किया और नंदिवर्मन तथा उसके सहयोगियों को दंडित करने के लिए उन पर आक्रमण किया। ध्रुव ने नंदिवर्मन को आत्मसमर्पण के लिए विवश किया।
नंदिवर्मन द्वितीय की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
नंदिवर्मन द्वितीय का अंतिम अभिलेख उसके शासनकाल के 65वें वर्ष का है, जो महाबलीपुरम् से प्राप्त हुआ है। इससे स्पष्ट है कि उसने कम से कम 65 वर्ष तक शासन किया। यद्यपि उसकी सैन्य और कूटनीतिक योग्यता सीमित थी, फिर भी उसके लंबे शासनकाल में पल्लव साम्राज्य सुरक्षित रहा, जिसका श्रेय उसे और उसके सेनानायक उदयचंद्र को जाता है।
पूर्ववर्ती पल्लव शासकों की भाँति नंदिवर्मन द्वितीय के शासनकाल में कला, साहित्य और संस्कृति का संवर्द्धन हुआ। उसने काँची में मुक्तेश्वर और वैकुंठपेरुमल जैसे मंदिरों का निर्माण करवाया। उसने साहित्य को भी संरक्षण प्रदान किया। वह वैष्णव धर्म का अनुयायी था और उसके समय में तिरुमंगै आलवार ने वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार किया। उदयेंदिरम् अभिलेख के आधार पर कुछ इतिहासकार उसे अश्वमेध यज्ञ करने का भी श्रेय देते हैं, लेकिन इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है।
कशाक्कुडि अभिलेख में उनकी पल्लवमल्ल, क्षत्रियमल्ल, राजाधिराज, परमेश्वर और महाराज जैसी उपाधियाँ मिलती हैं और उसे वेदों व धर्मशास्त्रों का विद्वान बताया गया है। उसका शासन 796 ई. के आसपास समाप्त हुआ।