भारत में मध्य पाषाण काल (Mesolithic Period in India)

मध्यपाषाण काल की परिभाषा और वैश्विक प्रसार मध्यपाषाण काल, जो यूनानी शब्द ‘मेसोस’ (मध्य) और […]

भारत में मध्य पाषाण काल (Mesolithic Period in India)

मध्यपाषाण काल की परिभाषा और वैश्विक प्रसार

मध्यपाषाण काल, जो यूनानी शब्द ‘मेसोस’ (मध्य) और ‘लिथोस’ (पत्थर) से व्युत्पन्न है, उच्च पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल के बीच का संक्रमणकालीन पुरातात्विक चरण है। इसे ‘उपपुरापाषाण काल’ भी कहा जाता है, विशेष रूप से उत्तरी यूरोप के बाहर लेवेंट तथा काकेशस क्षेत्रों में। यूरेशिया के विभिन्न भागों में इसकी समयावधि भिन्न है; यूरोप में यह लगभग 15,000 से 5,000 ईसा पूर्व तक चली, जबकि मध्य पूर्व (निकट पूर्व उपपुरापाषाण काल) में 20,000 से 10,000 ईसा पूर्व तक। यह अंतिम हिमनदी अधिकतम के बाद शिकारी-संग्राहक संस्कृतियों का अंतिम चरण था, जो नवपाषाण क्रांति की पूर्वसंध्या पर था। सुदूर पूर्व में इस शब्द का कम उपयोग होता है, और यूरेशिया तथा उत्तरी अफ्रीका से परे इसका अस्तित्व न्यूनतम है।

मध्यपाषाण संस्कृति की भारत में खोज

मध्यपाषाण काल की संस्कृति क्षेत्रीय विविधता वाली थी, लेकिन सामान्यतः बड़े जानवरों के सामूहिक शिकार में कमी, व्यापक शिकारी-संग्राहक जीवनशैली तथा पुरापाषाण के भारी उपकरणों के विपरीत छोटे, परिष्कृत पाषाण औजारों (माइक्रोलिथ्स) का विकास प्रमुख था। कुछ क्षेत्रों में मिट्टी के बर्तन और वस्त्रों का प्रारंभिक उपयोग मिलता है, किंतु कृषि के संकेत नवपाषाण में संक्रमण का प्रतीक माने जाते हैं। अधिक स्थायी बस्तियाँ जलस्रोतों के निकट पाई जातीं, जहाँ भोजन प्रचुर था, लेकिन समाज जटिल नहीं थे और दफन प्रथाएँ सरल रहतीं—भव्य टीले नवपाषाण की विशेषता हैं। भारत में इस काल की खोज 1867 ई. में सी.एल. कार्लायल ने विंध्य क्षेत्र के सर्वेक्षण से की, जहाँ जैस्पर, चर्ट या लाल पत्थर से बने सूक्ष्म पाषाण उपकरण (माइक्रोलिथ्स) प्राप्त हुए, जो क्वार्टजाइट के स्थान पर प्रयुक्त हुए। कार्बन डेटिंग से यह संस्कृति 10,000 ईसा पूर्व से 2,000 ईसा पूर्व तक चली।

इस काल में तापमान में परिवर्तन आया तथा मौसम गर्म और शुष्क हो गया। इससे पौधों और जानवरों में परिवर्तन आया, जिसका प्रभाव मानव-जीवन पर भी पड़ा। जीवन-शैली में परिवर्तन के कारण उपकरण-निर्माण की तकनीक में भी बदलाव आया। यद्यपि मानव अभी भी शिकारी और खाद्य-संग्राहक ही था, किंतु बड़े जानवरों के शिकार के स्थान पर छोटे जानवरों का शिकार करने लगा। उपकरण-निर्माण में पत्थर के साथ हड्डी का प्रयोग मानव की जीवन-शैली में बड़े परिवर्तन को प्रतिबिंबित करता है, जो उसे पुरापाषाण काल से मध्य पाषाण काल में ले आया। इस काल के मानव ने उपकरणों और हथियारों में हत्थे का प्रयोग आरंभ किया। आग और कृषि की जानकारी तो अभी नहीं थी, किंतु वह कुत्ते को पालतू बना चुका था। मिट्टी के बर्तन बनाने की शुरुआत मध्य पाषाण काल के अंतिम चरण की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। मध्य पाषाणकालीन संस्कृति के प्रमुख स्थल हैं- राजस्थान में बागोर, गुजरात में लंघनाज, उत्तर प्रदेश में सराय नाहर राय, चोपनी मांडो, महदहा और दमदमा, मध्य प्रदेश में भीमबेतका और आदमगढ़।

भारत में मध्यपाषाण और नवपाषाण काल (The Mesolithic and the Neolithic Period in India)
मध्यपाषाण काल
उपकरण एवं विस्तार

इस काल में जलवायु गर्म होती जा रही थी, जिसके परिणामस्वरूप पशु पुराने स्थानों को छोड़कर पानी की तलाश में नदियों के किनारे चले गए। परिणामतः शिकार के लिए बड़े जानवर मिलना मुश्किल हो गया और मानव छोटे जानवरों का शिकार करने लगा। छोटे जानवरों को मारने के लिए उपकरण भी छोटे-छोटे बने, जिन्हें सूक्ष्म पाषाण उपकरण (माइक्रोलिथ्स) कहा जाता है, जो लगभग 1 सेमी से 8 सेमी तक के होते थे। ब्लेड, कोर, तक्षणी, तीर की नोक जैसे त्रिकोणीय उपकरण, अर्धचंद्राकार आदि इस काल के प्रमुख उपकरण हैं। कुछ सूक्ष्म उपकरण ज्यामितीय आकार के भी हैं। सूक्ष्म उपकरण संयुक्त उपकरणों के महत्त्वपूर्ण तकनीकी विकास के सूचक हैं। इनमें हड्डी, लकड़ी या बाँस का हत्था जोड़ दिया गया, जिससे उपकरणों का प्रयोग न केवल सुविधाजनक हुआ, बल्कि अधिक प्रभावी भी। इनमें मुख्यतः अर्धचंद्राकार, ट्रैपेज़ जैसे औजार थे। बाद में निर्मित ताँबे और लोहे के तीर, काँटे और हँसिया का प्रारंभिक रूप भी इसी काल में विकसित हुआ। यद्यपि ऐसे उपकरणों का उदय पुरापाषाण काल के अंत में हुआ था, किंतु पूर्णता मध्य पाषाण काल में प्राप्त हुई। इस काल में विश्वभर के मानव सूक्ष्म उपकरण बना रहे थे। कहीं-कहीं इनकी लंबाई आधा इंच तक भी होती थी। इन उपकरणों को दबाव तकनीक से बनाया जाता था। सामाजिक रूप से मानव अभी भी खानाबदोश था, किंतु उसके उपकरणों से जीवन-शैली में परिवर्तन स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।

प्रायद्वीपीय भारत

राजस्थान के पंचप्रदा नदी घाटी और साजात क्षेत्र में सूक्ष्म उपकरण बड़ी मात्रा में पाए गए हैं। इस क्षेत्र में तिलवाड़ा और बागोर महत्त्वपूर्ण मध्य पाषाणकालीन स्थल हैं। कोठारी नदी के पास स्थित बागोर वस्तुतः भारत का सबसे बड़ा मध्य पाषाणकालीन स्थल है। यहाँ उत्खनन कार्य 1968-70 ई. में पुराविद् वी.एन. मिश्र ने करवाया था। कश्मीर की पर्वत-श्रेणियाँ, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि क्षेत्रों में छोटे स्तर पर कुछ पुरातात्त्विक खुदाइयाँ की गई हैं। इसके अतिरिक्त मोरहना पहाड़, बाघैखोर, भैंसोर के पास और लेखहिया (मिर्जापुर के पास) से पहली बार गैर-ज्यामितीय और बाद में ज्यामितीय उपकरण प्राप्त हुए हैं। साथ ही कम पके हुए लाल गेरुए मृद्भांड भी मिले हैं। बाद में मिले सूक्ष्म उपकरणों में अर्धचंद्राकार, त्रिकोण, ब्लेड, तक्षणी, खुरचनी, बेधनी, समलंब आदि हैं। उत्तर और मध्य गुजरात के लंघनाज और अखज जैसे स्थलों की रेतीली मिट्टी से प्राप्त पत्थर के वृत्त (क्वार्टजाइट के बने) और क्लोराइट की स्तरित चट्टान से बने पॉलिशदार उपकरण विशेष महत्त्व के हैं। इस प्रकार के उपकरणों से लगता है कि मानव ने नुकीली लकड़ी से जमीन जोतने की गतिविधि आरंभ कर दी थी। उसके लिए पत्थर के वृत्त को लकड़ी के ऊपर वनज के रूप में प्रयोग किया जाता रहा होगा।

गुजरात में वलसाना और हीरपुर, उत्तर प्रदेश में सराय नाहर राय, मोरहना पहाड़, चोपनी मांडो और लेखहिया, मध्य प्रदेश में भीमबेतका, आदमगढ़ और होशंगाबाद, बिहार में रांची, पलामू, भागलपुर एवं राजगीर आदि प्रायद्वीपीय भारत के कुछ महत्त्वपूर्ण मध्य पाषाणकालीन स्थल हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, सिंगरौली, बाँदा एवं विंध्य क्षेत्र से भी कुछ अवशेष प्राप्त हुए हैं।

पूर्वी भारत

पूर्वी भारत में सूक्ष्म उपकरण मुख्यतः ओडिशा और बंगाल के लेटराइट मैदानों, छोटा नागपुर के पठार से प्राप्त हुए हैं। यहाँ से प्राप्त सूक्ष्म उपकरण गैर-ज्यामितीय हैं, अतः त्रिकोण, समलंब आदि अनुपस्थित हैं। सामान्यतः सफेद क्वार्ट्ज के उपकरण बनाए गए हैं, किंतु चर्ट, चौल्सेडनी, क्रिस्टल, क्वार्टजाइट और लकड़ी के उपकरणों के अवशेष भी पाए गए हैं। पश्चिम बंगाल के बर्धमान जिले में दामोदर नदी के किनारे वीरभानपुर तथा ओडिशा में मयूरभंज, क्योझोर, कुचई और सुंदरगढ़, मेघालय की गारो पहाड़ियों से भी सूक्ष्म पाषाण उपकरण मिले हैं।

कृष्णा-गोदावरी डेल्टा

कृष्णा-गोदावरी डेल्टा में प्रचुर मात्रा में सूक्ष्म उपकरण प्राप्त हुए हैं और कुछ मामलों में वे नवपाषाण काल तक सुरक्षित रहे। तमिलनाडु के संगनकुल्लू से कोर, शल्क, तक्षणी और चापाकार उपकरण प्राप्त हुए हैं। आंध्र प्रदेश के कुर्नूल और रानीगुंटा से भी सूक्ष्म उपकरण मिले हैं। उल्लेखनीय है कि इनमें से कुछ स्थल क्रमानुसार बाद के काल के हैं, किंतु उन पर मध्यपाषाण काल का प्रभाव है, इसलिए इन्हें मध्य पाषाणकालीन स्थलों की सूची में रखा गया है। केवल बागोर (राजस्थान), सराय नाहर राय, महदहा (प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश) और आदमगढ़ (मध्य प्रदेश) ही कालक्रमानुसार और भौतिक संस्कृति के आधार पर पूरी तरह मध्य पाषाणकालीन स्थल हैं।

मध्य पाषाणकालीन संस्कृति

इस काल का मानव पुरापाषाण काल के मानव से थोड़ा भिन्न था। यह अंतर उसके औजारों, सामाजिक गठन, धार्मिक विश्वास तथा अर्थव्यवस्था में दिखाई देता है। इस काल को ‘संक्रमण काल’ कहते हैं। दक्षिण भारत के वीरभानपुर तथा मिर्जापुर के प्राक्-मृद्भांड और गैर-ज्यामितीय स्तर इस काल के प्रारंभिक चरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। मिर्जापुर और उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के अन्य स्थल तथा उत्तरी गुजरात में लंघनाज जैसे स्थल संभवतः अगले चरण का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन स्थलों पर पशुओं को पालतू बनाने या प्रारंभिक कृषि के यद्यपि कोई प्रमाण नहीं मिलते, किंतु यहाँ से मृद्भांड प्राप्त हुए हैं। यद्यपि ये मृद्भांड बहुत कम पके हुए और सीमित संख्या में मिलते हैं, किंतु मृद्भांडों की उपस्थिति से लगता है कि मानव ने इस चरण में अस्थायी निवास-स्थान बनाना आरंभ कर दिया था।

पहले युग की तरह ही मध्यपाषाण काल के मानव की अर्थव्यवस्था शिकार एवं अन्न-संग्रह पर आधारित थी। किंतु इस काल के अंतिम चरण में कुछ साक्ष्य संकेत देते हैं कि राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदेश में शिकारी खाद्य-संग्राहकों ने कुछ कृषि उपक्रम अपनाना आरंभ कर दिया था। बागोर जैसे स्थानों पर प्रारंभिक कृषि एवं पशुपालन के संकेत मिलते हैं। बागोर और आदमगढ़ में 6000 ईसा पूर्व के लगभग मध्य पाषाणयुगीन मानव की गतिविधियों का संबंध भेड़ और बकरी के साथ होने के साक्ष्य मिले हैं। इससे लगता है कि इस काल के मानव ने कुछ सीमा तक स्थायी जीवन-शैली अपना ली थी।

बागोर और लंघनाज से प्राप्त साक्ष्यों से लगता है कि ये मध्य पाषाणकालीन समूह हड़प्पा सभ्यता और अन्य ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों से संपर्क में थे तथा इनसे व्यापार भी करते थे। बागोर से हड़प्पा संस्कृति के प्रकार के तीन ताँबे के तीर के नोक प्राप्त हुए हैं।

इस काल में मानव ने अन्न को पकाकर खाने की कला सीख ली थी। गर्त-चूल्हों से प्राप्त अधजली हड्डियों से लगता है कि मानव मांस को भूनकर खाने लगा था। चोपनी मांडो एवं सराय नाहर राय से भूमिगत गर्त चूल्हे एवं हाथ से बने बर्तनों के साक्ष्य मिले हैं। महदहा से आवास-निर्माण, शव-दफन, गर्त-चूल्हे तथा सिल-लोढ़ेनुमा उपकरण के अवशेष पाए गए हैं। इन साक्ष्यों के बावजूद कृषि और पशुपालन को अर्थव्यवस्था का पूर्ण अंग नहीं माना जा सकता।

मृतकों को जानबूझकर दफ़नाने का पहला संकेत मध्यपाषाण काल ​​का है। राजस्थान के बागोर, गुजरात के लंगहनाज और मध्य प्रदेश के भीमबेटका में दफ़नाने के स्थल खोजे गए हैं।  मध्य पाषाणकालीन मानव अस्थिपंजर के अवशेष प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) के सराय नाहर राय, महदहा, दमदमा से प्राप्त हुए हैं। चोपनी मांडो से प्राप्त शवाधानों का सिर पश्चिम दिशा की ओर है। मानव अस्थिपंजर के साथ कहीं-कहीं कुत्ते के अस्थिपंजर भी मिले हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि कुत्ता प्राचीन काल से मनुष्य का सहचर रहा है।

उच्च पुरापाषाण काल और मध्य पाषाणकालीन मानव द्वारा निवास के लिए प्रयुक्त शैलाश्रयों में मानव-निर्मित चित्र बड़ी संख्या में मिलते हैं। चट्टानों पर रंगों से और खोदकर बने चित्रों से मध्य पाषाणकालीन मानव के सामाजिक, आर्थिक जीवन तथा गतिविधियों के विषय में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं।

शैल चित्रकारी के नमूने पाकिस्तान में चारगुल से लेकर पूर्व में ओडिशा और उत्तर में कुमाऊँ पहाड़ियों से दक्षिण में केरल तक प्राप्त होते हैं। इन चित्रों में प्रयुक्त रंग लाल, हरा, सफेद और पीला हैं। मध्य पाषाणकालीन चित्रकारी के उदाहरण उत्तर प्रदेश में मोरहना पहाड़, मध्य प्रदेश में भीमबेतका, आदमगढ़, लखाजौर, कर्नाटक में कुपागल्लू जैसे स्थलों से बड़ी संख्या में मिले हैं। ये चित्र विभिन्न विषयों पर बनाए गए हैं, जिनमें मुख्यतः जानवरों के शिकार, खाद्य-संग्रह, मछली पकड़ना और अन्य मानव-गतिविधियाँ हैं। सर्वाधिक चित्र जानवरों के हैं, जो समूह और एकल रूपों में चित्रित हैं। गुफाओं से प्राप्त शैल चित्रों में सामूहिक शिकार के चित्र सामाजिक संगठन की सुदृढ़ता के सूचक हैं। आदमगढ़ से गैंडे के शिकार के चित्र बड़े जानवरों के सामूहिक शिकार का संकेत देते हैं। नृत्य, दौड़ना, शिकार, खेल और युद्ध आदि गतिविधियों का चित्रण भी इनमें है। अंतिम संस्कार, बच्चों के जन्म-पालन-पोषण तथा यौन-गतिविधियों में सामूहिक भागीदारी भी प्रतिबिंबित होती है।

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