मौर्यकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन (Mauryan Social, Religious and Cultural Life)

मौर्यकालीन सामाजिक जीवन पूर्ववर्ती धर्मशास्त्रों की भाँति कौटिल्य ने भी वर्णाश्रम व्यवस्था को सामाजिक संगठन […]

मौर्यकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन (Mauryan Social, Religious and Cultural Life)

मौर्यकालीन सामाजिक जीवन

पूर्ववर्ती धर्मशास्त्रों की भाँति कौटिल्य ने भी वर्णाश्रम व्यवस्था को सामाजिक संगठन का आधार माना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में समाज के चार वर्णों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र का उल्लेख है। उनके अनुसार वर्णाश्रम व्यवस्था की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है। धर्मशास्त्रों के अनुरूप कौटिल्य ने चारों वर्णों के व्यवसाय निर्धारित किए हैं, किंतु शूद्रों को शिल्पकला और सेवा-वृत्ति के अतिरिक्त कृषि, पशुपालन और वाणिज्य से आजीविका अर्जन की अनुमति दी है। इन व्यवसायों को सम्मिलित रूप से ‘वार्ता’ कहा गया है। निश्चित रूप से इस आर्थिक सुधार का प्रभाव शूद्रों की सामाजिक स्थिति पर पड़ा होगा। वैश्यों के सहायक के रूप में अथवा स्वतंत्र रूप से भी शूद्र कृषि, पशुपालन और व्यापार करते थे। अर्थशास्त्र में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन यह दृष्टिगोचर होता है कि शूद्र को ‘आर्य’ कहा गया है और उसे ‘म्लेच्छ’ से भिन्न बताया गया है। यह कहा गया है कि आर्य शूद्र को दास नहीं बनाया जा सकता, यद्यपि म्लेच्छों में संतान को दास के रूप में बेचना या खरीदना दोषरहित माना गया है।

ब्राह्मण

समाज में ब्राह्मणों का विशिष्ट स्थान था, किंतु मनु तथा पूर्ववर्ती धर्मसूत्रों की भाँति इस तथ्य को बार-बार दोहराने का प्रयास अर्थशास्त्र में नहीं किया गया। ब्राह्मण दो वर्गों में विभाजित थे—उदीची और सतलक्खन। उदीची ब्राह्मण शिक्षित और रूढ़िवादी थे, जो शिक्षक और पुरोहित का कार्य करते थे। सतलक्खन ब्राह्मण सांसारिक और कम शिक्षित थे।

ब्राह्मण समाज का बौद्धिक और धार्मिक नेतृत्व करते थे। मेगस्थनीज ने भी ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ करवाए जाने का उल्लेख किया है। राजा के पुरोहित और कानून-मंत्री प्रायः इसी वर्ग से नियुक्त किए जाते थे। उन्हें आर्थिक और कानूनी विशेषाधिकार प्राप्त थे। राजा के शिक्षकों, यज्ञ कराने वाले पुरोहितों (आचार्यों) और वेदपाठी ब्राह्मणों को कर-मुक्त भूमि दान में दी जाती थी, जिसे ‘ब्रह्मदेय’ कहा जाता था।

वर्णसंकर जातियाँ

ब्राह्मणादि चार वर्णों के अतिरिक्त कौटिल्य ने अनेक वर्णसंकर जातियों का उल्लेख किया है, जिनकी उत्पत्ति धर्मशास्त्रों के अनुसार विभिन्न वर्णों के अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से हुई। इनमें अंबष्ठ, निषाद, पारशव, रथकार, क्षत्ता, वैदेहक, मागध, सूत, पुल्लकस, वेण, चंडाल, श्वपाक इत्यादि शामिल हैं। इनमें से कुछ आदिवासी जातियाँ थीं, जो विशिष्ट व्यवसायों से आजीविका चलाती थीं। कौटिल्य ने चंडालों (अंत्यावसायी) को छोड़कर अन्य सभी वर्णसंकर जातियों को शूद्र माना है।

मौर्य युग में अनेक ऐसी जातियाँ विकसित हो चुकी थीं, जिनका आधार कोई विशेष शिल्प या पेशा था। इस काल में तंतुवाय (जुलाहे), रजक (धोबी), चर्मकार (मोची), दर्जी, सुनार, लोहार, बढ़ई आदि व्यवसायों पर आधारित वर्ग जाति का रूप धारण कर चुके थे। अर्थशास्त्र में इन सभी का समावेश शूद्र वर्ण के अंतर्गत किया गया है। अशोक के शिलालेखों में ‘दास’ और ‘कर्मकर’ का उल्लेख है, जिन्हें शूद्र वर्ग के अंतर्गत ही माना जा सकता है।

जातिप्रथा की कुछ विशेषताओं की पुष्टि मेगस्थनीज की इंडिका से होती है। मेगस्थनीज ने लिखा है कि कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकता था और न ही वह अपने व्यवसाय को दूसरी जाति के व्यवसाय में बदल सकता था। केवल ब्राह्मणों को उनकी विशेष स्थिति के कारण यह अधिकार प्राप्त था। धर्मशास्त्रों में भी ब्राह्मणों को आपातकाल में क्षत्रिय और वैश्य के व्यवसाय अपनाने की अनुमति दी गई है।

मेगस्थनीज ने भारतीय समाज को सात वर्गों में विभाजित किया है—दार्शनिक, किसान, शिकारी एवं पशुपालक, शिल्पी एवं कारीगर, योद्धा, निरीक्षक एवं गुप्तचर, अमात्य एवं सभासद। यह वर्गीकरण भारतीय वर्णव्यवस्था या जातिप्रथा से मेल नहीं खाता। उनके अनुसार दार्शनिक कर से मुक्त थे। उन्होंने दार्शनिकों को दो श्रेणियों में बाँटा है—ब्राह्मण और श्रमण।

ब्राह्मण 37 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे। वे मांस खाते थे, किंतु उन पशुओं का नहीं, जिनका उपयोग श्रम-कार्यों में होता था। ब्राह्मणों को कई पत्नियाँ रखने का अधिकार था। मेगस्थनीज के अनुसार यज्ञ, अत्येष्टि-क्रिया और अन्य धार्मिक कृत्यों के बदले उन्हें बहुमूल्य दक्षिणा मिलती थी।

श्रमणों को भी दो श्रेणियों में बाँटा गया है। जो वनों में रहते थे और कंदमूल-फलों पर आजीविका चलाते थे, उन्हें ‘वैखानस’ कहा जाता था और वे वानप्रस्थ आश्रम से संबद्ध थे। दूसरी श्रेणी के श्रमण आयुर्वेद में कुशल होते थे और समाज में सम्मानित थे। स्ट्रैबो ने दार्शनिकों की एक श्रेणी को ‘प्रमोनोई’ (प्रमाणिक) कहा है, जो शास्त्रार्थ से प्रेम करते थे।

इस प्रकार मेगस्थनीज ने मौर्यकालीन भारतीय समाज का जो सप्तवर्गीय चित्रण प्रस्तुत किया है, उसमें जाति, वर्ण और व्यवसाय के अंतर को नजरअंदाज कर दिया गया। संभवतः एक विदेशी होने के कारण मेगस्थनीज भारतीय समाज की जटिलताओं को समझने में असमर्थ रहा।

स्त्रियों की स्थिति

परिवार में स्त्रियों की स्थिति स्मृतिकाल की तुलना में अधिक सुरक्षित थी। उन्हें पुनर्विवाह और नियोग की अनुमति थी। पुनर्विवाह की व्यवस्था के बावजूद समाज में ऐसी विधवाएँ थीं, जो पुनर्विवाह न करके स्वतंत्र रूप से जीवन व्यतीत करती थीं। कौटिल्य ने ऐसी स्त्रियों को ‘स्वच्छंदवासिनी’ कहा है। अर्थशास्त्र में परिव्राजिकाओं (संन्यासिनी) का भी उल्लेख है, जिन्हें समाज में सम्मानित स्थान प्राप्त था। कौटिल्य ने इनके लिए ‘कृत्सकारा’ शब्द का प्रयोग किया है।

फिर भी, मौर्यकाल में स्त्रियों की स्थिति को बहुत उन्नत नहीं माना जा सकता। वे प्रायः विभिन्न पेशों से दूर रहती थीं, केवल बुनाई के पेशे में उनकी भागीदारी अधिक थी। उन्हें बाहर जाने की स्वतंत्रता नहीं थी और वे पति की इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं कर सकती थीं। अभिजात घरों की स्त्रियाँ प्रायः घर के अंदर ही रहती थीं, जिन्हें कौटिल्य ने ‘अनिष्कासिनी’ कहा है। राजघराने के अंतःपुर का उल्लेख अर्थशास्त्र और अशोक के अभिलेखों में हुआ है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से सतीप्रथा के प्रचलन का कोई प्रमाण नहीं मिलता। इस काल के धर्मशास्त्र, बौद्ध और जैन अनुश्रुतियों में भी इसका उल्लेख नहीं है, किंतु यूनानी लेखकों ने उत्तर-पश्चिम में सैनिकों की पत्नियों के सती होने का उल्लेख किया है।

नगर जीवन

नगरों का जीवन चहल-पहल से भरा था। नट, नर्तक, गायक, वादक, तमाशा दिखाने वाले, रस्सी पर नाचने वाले और मदारी गाँवों और नगरों में अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। इन कलाकारों के गाँवों में प्रवेश पर प्रतिबंध था, किंतु नगरों में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं था। नगरों में प्रेक्षाएँ (नाट्य संस्थाएँ) लोकप्रिय थीं। स्त्री और पुरुष कलाकार दोनों प्रेक्षाओं में भाग लेते थे, जिन्हें ‘रंगोपजीवी’ और ‘रंगोपजीविनी’ कहा जाता था।

जनता समाज, विहार-यात्रा और प्रवहण आदि के माध्यम से सामूहिक रूप से मनोरंजन करती थी। समाज में लोग सुरापान, मांस-भक्षण और मल्ल-युद्ध देखकर मनोरंजन करते थे। अशोक को इस प्रकार के समाज पसंद नहीं थे, इसलिए उन्होंने नए समाजों की शुरुआत की, जिनमें हस्ति, अग्नि-स्तंभ और विमानों की झाँकियाँ दिखाई जाती थीं, ताकि लोगों को धर्माचरण की प्रेरणा मिले। कुछ समाज सरस्वती भवन में आयोजित होते थे, जहाँ साहित्यिक नाटकों का अभिनय और गोष्ठियों का आयोजन होता था। विहार-यात्राओं में मृगया और सुरापान की प्रधानता थी। अशोक ने इन यात्राओं पर प्रतिबंध लगाकर धम्म-यात्राएँ शुरू कीं। ‘प्रवहण’ भी एक सामूहिक समारोह था, जिसमें भोज्य और पेय-पदार्थों का प्रचुर उपयोग होता था।

गणिकाएँ

मौर्य युग में कई स्त्रियाँ विवाह द्वारा पारिवारिक जीवन न अपनाकर ‘गणिका’ या ‘वेश्या’ के रूप में जीवन-यापन करती थीं। वे विभिन्न प्रकार से राजा का मनोरंजन करती थीं। स्वतंत्र रूप से वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियाँ ‘रूपाजीवा’ कहलाती थीं।

राज्य गणिकाओं के प्रशिक्षण पर व्यय करता था और ऐसी गणिकाएँ गणिकाध्यक्ष और एक राजपुरुष की देखरेख में कार्य करती थीं। इनसे राज्य को अच्छी आय होती थी। कई गणिकाएँ गुप्तचर विभाग में भी कार्य करती थीं।

मौर्य साम्राज्य की विस्तृत नौकरशाही के लिए यह आवश्यक था कि राज्य प्रत्येक संभव स्रोत से धन अर्जित करे। एक ओर जहाँ कृषि और व्यापार के क्षेत्र से आय बढ़ाना स्वाभाविक था, वहीं जुआघरों, मद्यपान की दुकानों और वेश्यालयों को भी आय का स्रोत बनाया गया। वेश्यालयों के विकास में राज्य ने पूँजी निवेश भी किया। गणिकाओं के प्रशिक्षण और ललित कलाओं में निपुण बनाने में राज्य का जो व्यय होता था, उसके कारण वे गणिकाएँ पूर्णतः राज्य के नियंत्रण में रहती थीं। उनकी आय और संपत्ति पर राज्य का अधिकार था। उनकी मुक्ति तभी संभव थी, जब उनके लिए किए गए खर्च का 24 गुना धन दिया जाए। यह प्रावधान लगभग असंभव था। अतः गणिकाएँ दासी-तुल्य थीं, यद्यपि उन्हें सभी प्रकार के कार्यों में नहीं लगाया जा सकता था।

दास प्रथा

मेगस्थनीज ने लिखा है कि सभी भारतवासी समान हैं और उनमें कोई दास नहीं है। डायोडोरस ने कहा है कि कानून के अनुसार कोई भी किसी भी परिस्थिति में दास नहीं हो सकता था। स्ट्रैबो ने मेगस्थनीज को उद्धृत करते हुए कहा है कि भारतीयों में किसी ने दास नहीं रखे। एक अन्य स्थान पर स्ट्रैबो ने कहा है कि चूँकि उनके पास दास नहीं हैं, अतः उन्हें बच्चों की अधिक आवश्यकता होती है।

किंतु इन विदेशी उल्लेखों को शब्दशः स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि कम से कम बुद्धकाल से ही दासों को उत्पादन के कार्यों में लगाया जाता था और पालि त्रिपिटक में इसके असंख्य उल्लेख मिलते हैं। संभव है कि मेगस्थनीज को दासों के प्रति स्वामियों का व्यवहार निर्मल और सद्भावनापूर्ण लगा हो अथवा उन्होंने किसी विशेष क्षेत्र का ही उल्लेख किया हो। मेगस्थनीज के कथन का यह अर्थ हो सकता है कि स्वतंत्र लोगों को आजीवन दासता में परिवर्तित करने की सीमाएँ थीं।

वस्तुतः मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था में दासों का महत्त्वपूर्ण योगदान था। त्रिपिटक की तुलना में कौटिल्य ने दासों का अधिक विस्तृत वर्गीकरण किया है। जहाँ त्रिपिटक में दासों के चार प्रकार बताए गए हैं, वहीं कौटिल्य ने नौ प्रकार के दासों का उल्लेख किया है और दास प्रथा की कानूनी वैधता को स्वीकार किया है। बौद्ध ग्रंथों और अर्थशास्त्र में उत्पत्ति और कार्यों के आधार पर किए गए दासों के वर्गीकरण से लगता है कि वे संपत्ति का एक रूप थे। इन कृतियों में दास-संबंधी परिभाषाएँ और व्याख्याएँ वैदिक काल के दास और आर्य के बीच के अंतर को नहीं दर्शातीं। इस काल में सांस्कृतिक और नृजातीय विभिन्नताओं को आधार नहीं माना गया; दास प्रथा केवल आर्थिक कारणों से संबंधित थी।

केंद्रीय राजतंत्रात्मक व्यवस्था पर आधारित मौर्य साम्राज्य की स्थापना से दास प्रथा में अन्य रूपांतरण हुए। अभियान करके जबरदस्ती लोगों का अपहरण करने की नीति पर कौटिल्य द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों का निर्वचन इसी प्रकार किया जा सकता है। देश की राजनीतिक एकता के पश्चात् ऐसे अभियानों का महत्त्व कम हो गया, किंतु इस एकीकरण ने एक ऐसी प्रक्रिया को जन्म दिया, जो देश के आर्थिक एकीकरण और साम्राज्य के कोने-कोने में व्यापार के विकास को प्रोत्साहित करती थी। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप नगरों का उदय हुआ और व्यापारियों का प्रभाव बढ़ा। सेट्ठियों के स्वार्थ न केवल नगरों में थे, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों से भी जुड़े थे। वे भूस्वामी थे, और कभी-कभी संपूर्ण गाँव उनके अधीन होते थे। इन भूमियों पर उनके दास कार्य करते थे या उन्हें किराए पर उठाया जाता था। दास-श्रम द्वारा भूमि-कर्षण सामान्य बात थी। मौर्य शासकों ने इसे समाप्त करने का कोई प्रयास नहीं किया। अशोक के काल में कलिंग युद्ध के पश्चात् हजारों लोग बंदी बनाए गए थे और संभव है कि उनमें से कुछ मगध के बाजारों में पहुँचे हों और कुछ को उन उत्पादक गतिविधियों में लगाया गया हो, जिनके माध्यम से मध्य गंगाघाटी की संस्कृति के तत्त्व दूरस्थ कबायली क्षेत्रों में प्रसारित किए गए। कौटिल्य के विवरणों से स्पष्ट है कि राज्य की भूमि पर कृषि-कार्य, खदानों, कारखानों और सुरक्षा-प्रबंधों में दासों और दासियों का उपयोग होता था।

दासप्रथा पर आधारित अन्य प्राचीन समाजों की भाँति भारत में भी दासों के व्यक्तित्व और उनके श्रम के निपटारे में स्वामी को असीमित अधिकार प्राप्त थे। एक दास के रूप में जो व्यक्ति किसी अन्य की संपत्ति था, वह सभ्य समाज का सदस्य नहीं माना जाता था। यह धारणा पूर्ण दासों के लिए सही थी, किंतु कुछ लोग अस्थायी रूप से बंधक और आश्रित थे।

दास प्रथा से संबंधित कौटिल्य के विवरण का एक महत्त्वपूर्ण अंग ‘आहितक’ का वर्णन है। कौटिल्य ने आजीवन दासों और निश्चित काल के लिए समझौते द्वारा उत्पन्न दासों (आहितक) में अंतर किया है। आहितक लोग एक निश्चित अवधि के लिए सेवा करने के लिए उत्तरदायी थे और यह अवधि समाप्त होने पर वे स्वतंत्र व्यक्तित्व के अधिकारी हो जाते थे। उन्हें कर्मकांडीय अशौचकृत्यों के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता था, न उन्हें बेचा जा सकता था और न ही धारक बनाया जा सकता था। स्वामी की इच्छा के बिना समय आने पर वे स्वतंत्र हो जाते थे।

अर्थशास्त्र के अनुसार सही अर्थों में केवल बर्बर म्लेच्छ, जो वर्ण से बाहर थे, और अनार्य (जिनमें शूद्र शामिल हैं) समाज के सदस्य स्थायी रूप से दास बनाए जा सकते थे। यह निर्धारित करना कठिन है कि इस नियम का वास्तविकता में कितना पालन होता था, किंतु बंधक रखने की सीमाओं को सीमित करने और समुदाय में स्वतंत्र सदस्यों को दास में परिवर्तित करने की संभावनाओं को कम करने के प्रयास प्राचीन समाजों की विशेषता थी। कुल मिलाकर राज्य दासों के स्तर को नियंत्रित करने और दास प्रथा की समस्याओं का स्पष्टीकरण करने के लिए इच्छुक था।

मौर्यकालीन धर्म और धार्मिक विश्वास

धार्मिक दृष्टि से मौर्य काल में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इस दौरान बौद्ध धर्म का व्यापक प्रसार हुआ और इसे कई शासकों का संरक्षण प्राप्त हुआ। मौर्यकाल में यज्ञ जैसे कर्मकांड प्रचलित थे। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में जैन धर्म स्वीकार किया था, जबकि सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध धर्म अपनाया। इसके पश्चात् अशोक ने दक्षिण एशिया और अन्य क्षेत्रों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अथक प्रयास किए। आरंभ में अशोक वैदिक धर्म का अनुयायी था और कई अभिलेखों में उन्हें ‘देवानांप्रिय’ कहकर संबोधित किया गया है। बौद्ध धर्म का अनुयायी होने के बावजूद अशोक सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था।

यह सत्य है कि मौर्यकाल में धार्मिक दृष्टि से वैदिक धर्म की प्रधानता थी, किंतु कर्मकांडप्रधान वैदिक धर्म मुख्यतः अभिजात ब्राह्मणों और क्षत्रियों तक सीमित था। मेगस्थनीज के अनुसार ब्राह्मणों का समाज में प्रमुख स्थान था। दार्शनिक संख्या में कम थे, किंतु उन्हें सबसे श्रेष्ठ माना जाता था और वे यज्ञादि कार्यों में संलग्न थे। कौटिल्य के अनुसार ‘त्रयी’ अर्थात् तीन वेदों के अनुसार आचरण करने से संसार सुखी रहेगा और अवसाद को प्राप्त नहीं होगा। तदनुसार राजकुमार के लिए चोलकर्म, उपनयन, गोदान आदि वैदिक संस्कार निर्धारित किए गए थे। ऋत्विक, आचार्य और पुरोहित को राज्य से नियत वार्षिक वेतन मिलता था। वैदिक ग्रंथों और कर्मकांडों का उल्लेख तत्कालीन बौद्ध ग्रंथों में प्रायः मिलता है।

वेदों में निष्णात कुछ ब्राह्मण वेदों की शिक्षा देते थे और अश्वमेध, वाजपेय जैसे बड़े यज्ञ करते थे। उन्हें पालि ग्रंथों में ‘ब्राह्मणनिस्साल’ कहा गया है। ऐसे ब्राह्मणों को राज्य से कर-मुक्त ‘ब्रह्मदेय’ भूमि दान में मिलती थी। अर्थशास्त्र में इन यज्ञों की निंदा की गई है, क्योंकि इनमें गौ और बैल का वध होता था, जो कृषि की दृष्टि से उपयोगी थे। उपनिषदों के अध्यात्म-जीवन, चिंतन और मनन का सम्मान समाप्त नहीं हुआ था। सुत्तनिपात में ऐसे ऋषियों का उल्लेख है, जो पंचेंद्रिय सुखों को त्यागकर इंद्रिय-संयम रखते थे। विद्या और पवित्रता ही उनका धन था। वे भिक्षा में प्राप्त ‘ब्रीही’ से यज्ञ करते थे। यूनानी लेखकों के अनुसार ये वानप्रस्थाश्रम में रहने वाले ब्राह्मण कुटियों में निवास करते थे, जहाँ वे संयमपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए विद्याध्ययन और मनन में समय बिताते थे। मेगस्थनीज ने मंडनिस और सिकंदर के बीच वार्तालाप का वृत्तांत दिया है, जो मौर्यकालीन ब्राह्मण ऋषियों की जीवन-चर्या पर प्रकाश डालता है।

मौर्यकाल में वैदिक धर्म के अतिरिक्त एक अन्य प्रकार का धार्मिक जीवन भी प्रचलित था, जिसकी मुख्य विशेषता विभिन्न देवताओं की पूजा थी। ब्रह्मा, इंद्र, यम, वरुण, कुबेर, शिव, कार्तिकेय, संकर्षण, जयंत, अपराजित आदि देवताओं का उल्लेख मिलता है। इनमें से कई देवताओं के स्थान थे। स्थानीय और कुल-देवताओं के स्थान भी होते थे। इनकी पूजा पुष्प और सुगंधित पदार्थों से की जाती थी। नमस्कार, प्रणतिपात, या उपहारों से देवताओं को संतुष्ट किया जाता था। इन देवस्थानों पर मेले और उत्सव आयोजित होते थे। यह जनसाधारण का धर्म था।

देवताओं की पूजा के साथ-साथ भूत-प्रेत और राक्षसों के अस्तित्व में जनसाधारण का विश्वास था। इन्हें अभिचार विद्या में कुशल व्यक्तियों की सहायता से संतुष्ट किया जाता था। अक्षय धन, दीर्घायु और शत्रु-नाश जैसे उद्देश्यों के लिए अभिचार क्रियाएँ की जाती थीं। चैत्य-वृक्षों और नागपूजा का प्रचलन जनसाधारण में था। अशोक ने अपने नौवें शिलालेख में बीमारी, विवाह, पुत्रोत्पत्ति और यात्रा के अवसर पर किए जाने वाले मांगलिक कार्यों का उल्लेख किया है। अशोक ने अपने शिलालेखों में ब्राह्मणों, निर्ग्रंथों (जैन) और आजीवकों का उल्लेख किया है। अपने राज्याभिषेक के बारहवें वर्ष में अशोक ने बराबर की पहाड़ियों में आजीवकों को दो गुफाएँ प्रदान की थीं। संपूर्ण मौर्यकाल में आजीवकों का प्रभाव बना रहा। अशोक के पौत्र दशरथ ने भी नागार्जुन की पहाड़ियों में कुछ गुफाएँ आजीवकों को भेंट की थीं।

मौर्यकालीन शिक्षा, भाषा और साहित्य

मौर्यकाल में शिक्षा, भाषा और साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। मौर्य शासकों के संरक्षण में शिक्षा को अनुकूल अवसर मिला। तक्षशिला उच्च शिक्षा का प्रसिद्ध केंद्र था, जहाँ दूर-दूर से विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने आते थे। कोशलराज प्रसेनजित, सम्राट बिंबिसार का राजवैद्य जीवक और चंद्रगुप्त मौर्य तक्षशिला में अध्ययन कर चुके थे। तक्षशिला के आचार्य अपने ज्ञान के लिए विख्यात थे। यहाँ तीनों वेदों के साथ-साथ शिल्प, धनुर्विद्या, हस्तिविद्या, मंत्रविद्या और चिकित्साशास्त्र की शिक्षा दी जाती थी।

तक्षशिला जैसे उच्च शिक्षा केंद्रों के अतिरिक्त गुरुकुलों, मठों, और विहारों में भी शिक्षा दी जाती थी। राजगृह, वैशाली, श्रावस्ती और कपिलवस्तु जैसे नगर शिक्षा के प्रसिद्ध केंद्र थे। इन शिक्षा केंद्रों को राज्य से आर्थिक सहायता मिलती थी। इसके अतिरिक्त, कई आचार्य, पुरोहित और श्रोत्रिय व्यक्तिगत रूप से शिक्षा प्रदान करते थे। शिक्षा केंद्रों या विद्यापीठों में दो प्रकार के अंतेवासी शिक्षा ग्रहण करते थे—धम्मनतेवासिक, जो दिन में आचार्य का कार्य करते थे और रात्रि में शिक्षा प्राप्त करते थे,तथा आचार्य भागदायक, जो आचार्य के निवास में रहकर उनके ज्येष्ठ पुत्र की तरह शिक्षा ग्रहण करते थे और अपना सारा समय ज्ञानार्जन में लगाते थे।

मौर्यकाल में तीन भाषाओं—संस्कृत, प्राकृत, और पालि का प्रचलन था। पालि एक जनभाषा थी। अशोक ने पालि को साम्राज्य की राजभाषा बनाया और अपने अभिलेख इसी भाषा में उत्कीर्ण कराए। इस युग में इन तीनों भाषाओं में श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई। कौटिल्य का अर्थशास्त्र, भद्रबाहु का कल्पसूत्र और बौद्ध ग्रंथ आर्यमंजुश्रीमूलकल्प मौर्यकालीन साहित्य की अनुपम कृतियाँ हैं। इसके अतिरिक्त, पतंजलि का महाभाष्य, हरिषेण का जैन वृहत्कथाकोष और अभिनवगुप्त का नाट्यशास्त्र भी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। समाति, यवकृत, प्रियंसु, सुमनोत्तरा, भीमरथ, वारुवदत्ता और देवासुर की रचनाएँ भी इस युग की हैं।

धार्मिक साहित्य के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हुईं। जैन आचार्य भद्रबाहु ने निर्युक्ति पर भाष्य लिखा। जैन लेखकों जंबूस्वामी, प्रभव और स्वयंभव की रचनाएँ इस काल में लिखी गईं। आचारांग सूत्र, समवायांग सूत्र और प्रश्न-व्याकरण इस युग की रचनाएँ हैं। बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक का प्रणयन इसी काल में हुआ। वैदिक साहित्य के अंतर्गत भी कई रचनाएँ इस काल की हैं।

मौर्यकालीन कलात्मक उपलब्धियाँ

कला की दृष्टि से हड़प्पा सभ्यता और मौर्यकाल के बीच लगभग 1500 वर्ष का अंतराल है। इस बीच की कला के भौतिक अवशेष उपलब्ध नहीं हैं। महाकाव्यों और बौद्ध ग्रंथों में हाथी दाँत, मिट्टी, और धातुओं के कार्यों का उल्लेख है, किंतु मौर्यकाल से पूर्व वास्तुकला और मूर्तिकला के स्पष्ट उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। मौर्यकाल में ही कलात्मक गतिविधियों का इतिहास प्रारंभ होता है। राज्य की समृद्धि और मौर्य शासकों की प्रेरणा से कलाकारों और कलाकृतियों को प्रोत्साहन मिला।

मौर्य कला के रूप

मौर्य युगीन कला के दो रूप मिलते हैं—राजतक्षकों द्वारा निर्मित दरबारी कला, जो मौर्य प्रासादों और अशोक-स्तंभों में दिखाई देती है और लोकप्रिय कला, जो परखम के यक्ष, दीदारगंज की चामर-ग्राहिणी और बेसनगर की यक्षिणी में दृष्टिगोचर होती है। दरबारी कला की प्रेरणा का स्रोत स्वयं सम्राट था। यक्ष-यक्षिणियों में लोककला का रूप मिलता है। काष्ठ और मिट्टी के माध्यम से लोककला की परंपरा जो पूर्व युगों से चली आ रही थी, इस काल में पाषाण के माध्यम से अभिव्यक्त हुई।

राजकीय कला

राजकीय कला का प्रथम उदाहरण चंद्रगुप्त का राजप्रासाद है। एरियन के अनुसार इस प्रासाद की शान-शौकत का मुकाबला न सूसा और न ही एकबतना के प्रासाद कर सकते थे। यह प्रासाद संभवतः वर्तमान पटना के निकट कुम्रहार गाँव के समीप था। कुम्रहार की खुदाई में इस प्रासाद के सभा-भवन के अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिनसे इसकी विशालता का अनुमान लगाया जा सकता है। यह सभा-भवन खंभों पर आधारित था।

1914-15 और 1951 की खुदाई में कुल 40 पाषाण-स्तंभ प्राप्त हुए हैं, जो अब भग्नावस्था में हैं। सभा-भवन का फर्श और छत लकड़ी के बने थे। भवन की लंबाई 140 फीट और चौड़ाई 120 फीट थी। स्तंभ बलुआ पत्थर के थे, जिनमें चमकदार पॉलिश थी। फाह्यान के अनुसार यह प्रासाद मानवकृति नहीं, बल्कि देवों द्वारा निर्मित प्रतीत होता था। प्रासाद के प्रस्तर-स्तंभों पर सुंदर उकेरन और उभरे चित्र बने थे। फाह्यान के वृत्तांत से लगता है कि अशोक के समय इस भवन का विस्तार हुआ था।

मेगस्थनीज के अनुसार पाटलिपुत्र सोन और गंगा के संगम पर बसा था। नगर की लंबाई 9.5 मील और चौड़ाई 1.5 मील थी। इसके चारों ओर लकड़ी की प्राचीर थी, जिसमें तीर चलाने के लिए छिद्र बने थे। प्राचीर के चारों ओर 60 फीट गहरी और 600 फीट चौड़ी खाई थी। नगर में 64 द्वार और 570 बुर्ज थे। हाल की खुदाई में बुलंदीबाग में प्राचीर का एक हिस्सा प्राप्त हुआ है, जो 150 फीट लंबा है। लकड़ी के खंभों की दो पंक्तियाँ मिली हैं, जिनके बीच 14.5 फीट का अंतर है, जो लकड़ी के स्लीपरों से ढका था। खंभों की ऊँचाई जमीन से 12.5 फीट और जमीन के अंदर 5 फीट थी। यूनानी लेखकों के अनुसार नदी-तट पर बसे नगरों में काष्ठ-शिल्प का उपयोग प्रचलित था। पाटलिपुत्र में सभा-मंडप में शिला-स्तंभों का उपयोग एक नई प्रथा थी।

अशोकीय एकाश्मक स्तंभ

मौर्यकालीन कला के सर्वोत्कृष्ट नमूने अशोक के एकाश्मक स्तंभ हैं, जिन्हें उन्होंने धम्म-प्रचार के लिए देश के विभिन्न भागों में स्थापित किया था। ये स्तंभ संकिसा, निग्लीव, लुंबिनी, सारनाथ, बसरा-बीसरा (वैशाली) और साँची जैसे स्थानों से प्राप्त हुए हैं। इनकी संख्या बीस से अधिक है और ये चुनार (बनारस के निकट) के बलुआ पत्थर से बने हैं। चुनार की खानों से प्राप्त पांडुरंग के सूक्ष्म दानेदार कड़े पत्थर पर छोटी-छोटी काली चित्तियाँ हैं।

वैशाली का अशोक-स्तंभ

चुनार की खानों से पत्थर काटकर निकालना, एकाश्मक खंभों को तराशकर वर्तमान रूप देना और इन्हें देश के विभिन्न भागों में पहुँचाना शिल्पकला और तकनीकी कौशल का अनोखा उदाहरण है। फाह्यान ने छह और ह्वेनसांग ने बारह अशोक-स्तंभ देखे थे, किंतु उनमें से कुछ नष्ट हो गए हैं।

इन स्तंभों के दो मुख्य भाग हैं—स्तंभ-यष्टि या गावदंड लाट और शीर्ष भाग। लाट एक शुंडाकार दंड है, जिसकी लंबाई 40 से 50 फीट है। शीर्ष भाग को कला की दृष्टि से कई भागों में बाँटा जा सकता है। सबसे नीचे रस्सी की आकृति को मेखला कहा गया। शीर्ष का मुख्य अंश घंटाकृति है, जो हखामनी स्तंभों के घंटों से मिलती-जुलती है। भारतीय विद्वान इसे ‘अवांगमुखी’ कमल या पूर्णकुंभ कहते हैं।

घंटाकृति के ऊपर गोल अंड या चौकी है, जिसे आधार पीठिका कहा जाता है। कुछ चौकियों (जैसे सारनाथ स्तंभ-शीर्ष) पर चार पशु—अश्व, सिंह, वृषभ, हस्ति और चार छोटे चक्र, तथा कुछ पर हंस-पंक्ति अंकित है। सारनाथ को छोड़कर सभी स्तंभों पर एक पशु की आकृति है, किंतु सारनाथ में चार सिंह पीठ से पीठ सटाए बनाए गए हैं।

मौर्यकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन
वैशाली का अशोक-स्तंभ

धौली का प्रस्तर-हस्ति सुडौल और कला की दृष्टि से परिपक्व है। हस्ति की छवि का अंकन और रूपांकन विशिष्ट है और उसकी रेखाओं का प्रवाह सुंदर है। इसमें आकार की विशालता के साथ शांतिपूर्ण गरिमा है।

संकिसा की गजमूर्ति में संतुलन का अभाव है, क्योंकि स्तंभ की ऊँचाई की तुलना में हाथी अत्यंत छोटा है, जो प्रारंभिक अवस्था को दर्शाता है। लौरियानंदनगढ़ की सिंह-मूर्ति में बखिरा सिंह-मूर्ति की तुलना में अधिक दृढ़ता है, जिसमें मांसपेशियों और शिराओं का सफल चित्रण है।

रामपुरवा का नटवा बैल

रामपुरवा से प्राप्त दो वृषभ और सिंह-शीर्षों में अधिक विकास दृष्टिगोचर होता है। रामपुरवा में नटवा बैल ललित मुद्रा में खड़ा है। साँची सिंह-शीर्ष में भी चार पशु पीठ सटाए बैठे हैं और गोल अंड पर चुगते हंसों की पंक्ति रामपुरवा शीर्ष की भाँति उत्कीर्ण है।

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रमपुरवा का नटवा बैल
सारनाथ का सिंह-स्तंभ

अशोक के एकाश्मक स्तंभों का सर्वोत्कृष्ट नमूना सारनाथ का सिंह-स्तंभ है। मौर्य शिल्पियों के रूप-विधान का इससे बेहतर उदाहरण नहीं है। इस शीर्ष पर चार सिंह पीठ सटाए बैठे हैं। इनके बीच एक बड़ा पत्थर का चक्र है, जो बुद्ध द्वारा किए गए धर्मचक्रप्रवर्तन का प्रतीक है। चक्र में संभवतः 32 तीलियाँ थीं। सिंहों के नीचे चार छोटे चक्र हैं, जिनमें 24-24 तीलियाँ हैं। सिंहों में शक्ति का प्रदर्शन, उनकी फूली नसों में स्वाभाविकता और नीचे उकेरी गई आकृतियों में प्राणवान वास्तविकता है, जो आरंभिक कला की छाया से मुक्त है। शिल्पकारों ने सिंहों के रूप को प्राकृतिक सच्चाई के साथ प्रकट किया है।

अशोक के स्तंभों, विशेषतः सारनाथ स्तंभ की चमकीली पॉलिश, घंटाकृति और शीर्ष भाग की पशु-आकृतियों के कारण जॉन मार्शल और पर्सी ब्राउन जैसे विद्वानों ने इन्हें ईरानी स्तंभों की अनुकृति माना है। चौकी पर हंसों की उकेरी गई आकृतियों और अन्य सज्जाओं में यूनानी प्रभाव भी दिखाई देता है। भारतीय विद्वानों के अनुसार अशोक के स्तंभों की कला का स्रोत भारतीय है।

वस्तुतः मौर्य स्तंभ-शीर्षों की पशु-मूर्तियाँ, विशेषकर सारनाथ का सिंह-स्तंभ और रामपुरवा का बैल प्राचीन सिंधुघाटी की परंपरा के अनुकूल हैं। वासुदेव शरण अग्रवाल ने महाभारत और आपस्तंबसूत्र के आधार पर सिद्ध किया है कि चमकीली पॉलिश की कला ईरान से पहले भारत में प्रचलित थी। मौर्यकाल से पूर्व और मौर्यकालीन स्थानों पर प्राप्त काली पॉलिश वाले मृद्भांडों से भी यह सिद्ध होता है कि ओपदार चमक में रुचि थी। यह रहस्य केवल राजशिल्पियों तक सीमित नहीं था। पिपरहवा स्तूप से प्राप्त स्फटिक मंजूषा, पाटलिपुत्र के दो यक्ष और दीदारगंज की यक्षी में भी यह पॉलिश मिलती है। सारनाथ के धर्मचक्र की कल्पना पूर्णतः भारतीय है।

ईरानी और मौर्य स्तंभों में कई मूलभूत अंतर हैं। स्वतंत्र स्तंभों की कल्पना भारतीय है और अशोक के स्तंभ एकाश्मक हैं, जबकि ईरानी स्तंभ अलग-अलग पाषाण खंडों से बने हैं। ईरानी स्तंभ विशाल भवनों में लगाए गए थे, जबकि अशोक के स्तंभ स्वतंत्र रूप से विकसित हुए हैं। अशोक के स्तंभ बिना चौकी या आधार के भूमि पर टिकाए गए हैं, जबकि ईरानी स्तंभ चौकी पर टिकाए गए हैं। अशोक के स्तंभों के शीर्ष पर पशु-आकृतियाँ हैं, जबकि ईरानी स्तंभों पर मानव आकृतियाँ मिलती हैं। ईरानी स्तंभ गढ़े हुए हैं, किंतु अशोक के स्तंभ सपाट हैं। अशोक के स्तंभ नीचे से ऊपर क्रमशः पतले होते हैं, जबकि ईरानी स्तंभों की चौड़ाई एकसमान है। स्तंभ शीर्षकों के अलंकरणों में भी अंतर है। मौर्यकालीन घंटा ‘घटपल्लव’ या ‘पूर्णघट’ के रूप में बनाया गया है, जो बाहर की ओर लहराती कमल की पंखुड़ियों से ढका है। यदि इसे घंटा मान भी लिया जाए, तो यह ईरानी घंटा से भिन्न है। मौर्यकालीन शिल्पियों ने चिर-परिचित परंपरा को अपनाकर अपनी प्रतिभा से उसे नवीन आकार प्रदान किया। यदि ईरानी प्रभाव को स्वीकार भी किया जाए, तो अशोक स्तंभों की संगतराशी, मूर्तिकला और अलंकरण को हखामनी, ईरानी या यूनानी मूलाकृतियों की नकल नहीं माना जा सकता। भारतीय कलाकारों ने विदेशी कला-लक्षणों का सम्यक् अध्ययन करके उनका रूपांतरण किया और उन्हें अपने ढंग से अभिव्यक्त किया।

स्तूप

अशोक ने स्तूप-निर्माण की परंपरा को प्रोत्साहन दिया। बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने बुद्ध के अस्थि-अवशेषों पर निर्मित आठ स्तूपों को तोड़कर अवशेषों को पुनर्वितरित कर 84,000 स्तूपों का निर्माण करवाया। यह संख्या अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकती है, किंतु अशोक ने बड़ी संख्या में स्तूप बनवाए होंगे। साँची और भरहुत स्तूपों का निर्माण मूल रूप में अशोक ने करवाया था और शुंग काल में साँची स्तूप का विस्तार हुआ।

साँची का स्तूप

‘स्तूप’ (पालि में थूप) का अर्थ चिता पर निर्मित टीला है, जो प्रारंभ में मिट्टी का बनाया जाता था। ऋग्वेद में भी ‘स्तूप’ शब्द का उल्लेख मिलता है। महापरिनिर्वाणसुत्त में उल्लेख है कि बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद से कहा था कि उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके अवशेषों पर चक्रवर्ती राजाओं की तरह स्तूप बनाया जाए।

बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को आठ भागों में बाँटकर उन पर स्तूप बनाए गए। कालांतर में बौद्ध संघ ने इसे अपनी व्यवस्था में शामिल किया। चूँकि इनमें बुद्ध या उनके प्रमुख शिष्यों की अस्थियाँ थीं, ये बौद्धों के तीर्थस्थल बन गए।

स्तूपों के प्रकार

बौद्ध साहित्य में चार प्रकार के स्तूपों का उल्लेख है—शारीरिक स्तूप, जिसमें अस्थियाँ या अवशेष रखे जाते हैं; पारिभोगिक स्तूप, जिसमें बुद्ध से संबंधित वस्तुएँ (जैसे पादुका, दंड, भिक्षापात्र) रखी जाती थीं; उद्देशिक स्तूप, जो बुद्ध के जीवन से संबंधित पवित्र स्थलों पर बनाए गए थे और संकल्पित स्तूप, जो बौद्ध उपासकों ने श्रद्धा या पुण्य-लाभ के लिए बनवाए थे।

साधारणतः स्तूपों का संबंध बौद्ध मत से रहा है। अशोक से पूर्व किसी स्तूप के अवशेष नहीं मिले हैं। ह्वेनसांग ने सातवीं शताब्दी में अफगानिस्तान और भारत के विभिन्न भागों में अशोक द्वारा निर्मित स्तूपों का उल्लेख किया है। ये तक्षशिला, श्रीनगर, थानेश्वर, मथुरा, गया और बनारस जैसे नगरों में थे, और इनकी ऊँचाई 300 फीट तक थी। पिपरहवा (बस्ती, उत्तर प्रदेश) से अशोक के एक स्तूप के भग्नावशेष मिले हैं। सारनाथ में अशोककालीन धर्मराजिका स्तूप का निचला भाग आज भी विद्यमान है। तक्षशिला में भी एक अशोककालीन स्तूप के अवशेष उपलब्ध हैं।

मौर्यकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन
साँची का स्तूप

सर मार्शल के अनुसार अशोककालीन साँची स्तूप का आकार वर्तमान स्तूपों का आधा था। इसका व्यास 70 फीट और ऊँचाई 35 फीट थी। यह ईंटों से निर्मित अर्द्धगोलाकार था, जिसमें उठी हुई मेधी, चतुर्दिक काष्ठ-वेदिका और शीर्ष पर पत्थर का छत्र था।

अशोक के बाद स्तूपों को प्रस्तर-शिलाओं से आच्छादित किया जाने लगा। काष्ठ-वेदिका के स्थान पर प्रस्तर-वेदिका और तोरणद्वारों का संयोजन हुआ और स्तूप-शीर्ष पर हर्मिका बनाकर मध्य में यष्टि और छत्र स्थापित किए गए।

गुहा-वास्तु

अशोक ने चट्टानों को काटकर आवासगृह के रूप में कंदराओं के निर्माण द्वारा वास्तुकला में एक नई शैली शुरू की। गया के निकट बराबर पहाड़ी पर ऐसी कई गुफाएँ हैं, जिन्हें आवास-योग्य बनाकर आजीवकों को दान दिया गया। अशोक ने अपने राज्याभिषेक के बारहवें वर्ष में सुदामा गुहा आजीवक भिक्षुओं को दान में दी थी।

मौर्यकाल में बराबर की पहाड़ी को खलतिक पर्वत कहा जाता था। इस गुफा में दो प्रकोष्ठ हैं। एक कक्ष गोल व्यास का है, जिसकी छत अर्धवृत्ताकार या खरबूजिया आकार की है। इसका मुख-मंडप आयताकार है, किंतु छत गोलाकार है। दोनों कोष्ठों की भित्तियों और छतों पर शीशे जैसी चमकती पॉलिश है। इससे पता चलता है कि चैत्यगृह का मौलिक विकास अशोक के समय में शुरू हुआ था, और इस शैली का पूर्ण विकास महाराष्ट्र के भाजा, कन्हेरी और कार्ले चैत्यगृहों में दिखाई देता है।

गोपी गुफा

अशोक के पौत्र दशरथ ने नागार्जुनी पहाड़ियों में आजीवकों को तीन गुफाएँ प्रदान की थीं, जिनमें ‘गोपी गुफा’ सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इन गुफाओं के बाहर इनके निर्माण से संबंधित अभिलेख मिलते हैं। इनका विन्यास सुरंग जैसा है, जिसमें ढोलाकार छत और दो गोल मंडप हैं—एक गर्भगृह और दूसरा मुखमंडप। वास्तुकला की दृष्टि से इनका अधिक महत्त्व नहीं है, किंतु इनमें अशोककालीन गृहशिल्प की पूर्ण रक्षा हुई है।

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गोपी गुफा
लोक कला

मौर्यकाल की लोककला का ज्ञान उन महाकाय यक्ष-यक्षिणी मूर्तियों से होता है, जो मथुरा, पाटलिपुत्र, विदिशा, कलिंग और पश्चिम में सूर्पारक तक पाई जाती हैं। इन मूर्तियों की अपनी विशिष्ट देशज शैली है। इनका निर्माण स्थानीय मूर्तिकारों द्वारा किया गया था। इनके संरक्षक स्थानीय प्रांतपति या नागरिक थे, जिनके प्रोत्साहन से अतिमानवीय महाकाय मूर्तियाँ खुले आकाश के नीचे स्थापित की जाती थीं। यक्ष-यक्षिणी जैसे देवी-देवताओं की आराधना प्राचीन काल से प्रचलित थी, जो संभवतः प्राक्-आर्य परंपरा से संबंधित थी। मौर्यकाल से पूर्व ऐसी प्रतिमाएँ अनुपलब्ध हैं, किंतु साहित्यिक साक्ष्य उनकी प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं।

दीदारगंज की यक्षिणी

भारत के विभिन्न भागों से यक्ष-यक्षिणी मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनका निर्माण मौर्यकाल से कुषाणकाल के मध्य हुआ। मथुरा जिले के परखम ग्राम से प्राप्त यक्ष मूर्ति, पटना से प्राप्त यक्ष मूर्ति (जिस पर ओपदार चमक और एक लेख है), दीदारगंज की चामर-ग्राहिणी यक्षिणी, और बेसनगर की यक्षिणी विशेष उल्लेखनीय हैं। मथुरा के बरोदा ग्राम से भी एक यक्ष मूर्ति मिली है। ये मूर्तियाँ महाकाय हैं, और इनमें मांसपेशियों की बलिष्ठता और दृढ़ता जीवंत रूप से व्यक्त हुई है। ये पृथक् रूप से खड़ी हैं, पर दर्शन का प्रभाव सम्मुखीन है, मानो शिल्पी ने उन्हें सामने से देखने के लिए बनाया हो। इनका वेश सिर पर पगड़ी, कंधों और भुजाओं पर उत्तरीय, नीचे धोती, जो कटि में मेखला से बँधी है, कानों में भारी कुंडल, गले में कंठा, छाती पर तिकोना हार और बाँहों पर अंगद है। मूर्तियों को थोड़ा घटोदर दिखाया गया है, जैसा कि परखम की मूर्ति में देखने को मिलता है।

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दीदारगंज की यक्षिणी
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