मौर्य सम्राट बिंदुसार (Mauryan Emperor Bindusara, BC 298- BC 273)

चंद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उनका पुत्र बिंदुसार ई.पू. 298 में मगध का शासक हुआ। […]

मौर्य सम्राट बिंदुसार (Mauryan Emperor Bindusara, BC 298- BC 273)

चंद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उनका पुत्र बिंदुसार ई.पू. 298 में मगध का शासक हुआ। मौर्य राजवंश के इस द्वितीय शासक को ब्राह्मण तथा बौद्ध ग्रंथों एवं यूनानी-रोमन लेखकों ने विविध नामों से उल्लिखित किया है। पुराणों में उन्हें बिंदुसार ‘भद्रसार’ व ‘नंदसार’ आदि नामों से पुकारा गया है। विशेषकर विष्णु पुराण में चंद्रगुप्त के पश्चात् बिंदुसार (तस्यापि पुत्रो बिंदुसारो भविष्यति), ब्रह्मांड पुराण में ‘भद्रसार’ (भविता भद्रसारस्तु पंचविंशत् समानृपाः) तथा वायु पुराण में ‘नंदसार’ (भविता नंदसारस्तु पंचविंशत् समानृपाः) का नाम मिलता है। जैन ग्रंथ परिशिष्टपर्वन् तथा बौद्ध ग्रंथ महावस्तु में उन्हें ‘बिंदुसार’ ही कहा गया है। एक अन्य जैन ग्रंथ राजवलिकथा में उन्हें ‘सिंहसेन’ कहा गया है।

रोमन-यूनानी लेखकों में एथेनियस बिंदुसार को ‘अमित्रोकेटीज’ तथा स्ट्रैबो ‘अलित्रोकेटीज’ कहता है। फ्लीट के अनुसार ‘अमित्रोकेटीज’ व ‘अलित्रोकेटीज’ ‘अमित्रखाद’ का यूनानी रूपांतर है, जिसका संस्कृत रूपांतर ‘अमित्रघात’ या ‘अमित्रखाद’ (शत्रुनाशक) है। ‘अमित्रणां हंता’ का उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है और महाभारत में यह शब्द राजाओं एवं योद्धाओं के लिए प्रयुक्त किया गया है। संभवतः यह बिंदुसार का विरुद रहा होगा। लगता है कि ‘अमित्रघात’ एक परंपरागत उपाधि थी, जिसे शासक यदा-कदा धारण करते थे।

परिशिष्टपर्वन् में बिंदुसार के जन्म के संबंध में एक रोचक कथा मिलती है। इसके अनुसार चाणक्य चंद्रगुप्त के प्राणों की रक्षा एवं षड्यंत्रों के प्रति सजग रहता था। उसे डर था कि कोई चंद्रगुप्त की विष या विष-कन्या द्वारा हत्या करवा सकता है, इसलिए वह उन्हें विष का अभ्यास करवाता था। इसके लिए शासक को प्रतिदिन भोजन में विष दिया जाता था। एक दिन संयोग से उनकी महिषी दुर्धरा, जो आसन्नप्रसवा थीं, भोजन करने बैठ गईं। उन्हें भोजन में विष होने की जानकारी नहीं थी। भोजन ग्रहण करते ही वह विष के प्रभाव से दिवंगत हो गईं। किंतु चाणक्य ने रानी का पेट चीरकर गर्भस्थ शिशु को बचा लिया। कहा जाता है कि बालक के सिर पर विष का एक बिंदु था, इसलिए उनका नाम ‘बिंदुसार’ रखा गया—

विषबिंदुश्च संक्रातस्तस्य बालस्य मूर्धनि।

ततश्च गुरुभिर्बिंदुसार इत्यभिधायि।।

इसी से मिलती-जुलती कथा बौद्ध ग्रंथ वंशत्थपकासिनी में भी मिलती है। सत्यता जो भी हो, उनकी माता का नाम दुर्धरा ही था।

बिंदुसार की उपलब्धियाँ

बिंदुसार की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने अपने पिता द्वारा जीते गए क्षेत्रों को पूर्ण रूप से अक्षुण्ण रखा था। तिब्बती लामा तारानाथ तथा जैन अनुश्रुति के अनुसार चाणक्य बिंदुसार के भी मंत्री थे। चाणक्य ने सोलह राज्यों के राजाओं तथा सामंतों का नाश किया और बिंदुसार को पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र तक भू-भाग का अधीश बनाया। इस आधार पर अनेक इतिहासकारों का विचार है कि दक्षिण भारत को मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत लाने वाला मौर्य शासक चंद्रगुप्त नहीं, बिंदुसार ही थे। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि बिंदुसार की ‘अमित्रघात’ या ‘अमित्रखाद’ (शत्रुनाशक) उपाधि दक्षिण में उनके सफल सैनिक अभियानों के लिए ही दी गई होगी।

सामंतों पर विजय

संभवतः चंद्रगुप्त की मृत्यु के बाद कुछ राज्यों ने मौर्य सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। तारानाथ ने भी सामंतों पर विजय का उल्लेख किया है, इससे लगता है कि चाणक्य ने सामंतों के विद्रोह का सफलतापूर्वक दमन किया था।

दिव्यावदान में उत्तर-पश्चिमी प्रांत उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला में ऐसे ही विद्रोह का उल्लेख है, जिसका दमन करने के लिए उन्होंने अपने सुयोग्य पुत्र अशोक को नियुक्त किया था। जब अशोक तक्षशिला पहुँचे, तो वहाँ के निवासियों ने उनसे निवेदन किया था : ‘न हम कुमार के विरुद्ध हैं और न राजा बिंदुसार के, किंतु दुष्ट अमात्य हमारा अपमान करते हैं—

न वयं कुमारस्य विरुद्धाः नापि राज्ञो बिंदुसारस्य।

अपितु दुष्टामात्याः अस्माकं परिभवं कुर्वन्ति।।

इसके पश्चात् अशोक खस देश गए थे। खस संभवतः नेपाल के आस-पास का प्रदेश था। तारानाथ के अनुसार खस और नेपाल के लोगों ने विद्रोह किया और अशोक ने इन प्रदेशों को जीता।

दिव्यावदान से ही ज्ञात होता है कि बिंदुसार के अंतिम वर्षों में भी तक्षशिला में विद्रोह हुआ था। उस समय अशोक उज्जैन में थे, इसलिए उस विद्रोह का दमन करने के लिए उन्होंने राजकुमार सुसीम को भेजा था। इस प्रकार बिंदुसार ने अपने पुत्रों की सहायता से न केवल पैतृक राज्य की रक्षा की, अपितु उसका विस्तार भी किया।

कुछ ऐसे प्रमाण भी मिलते हैं, जिनसे एक विजेता के रूप में बिंदुसार की क्षमता पर संदेह उत्पन्न होता है। उनके जैसे ऐश्वर्यप्रिय व्यक्ति के लिए पिता से उत्तराधिकार में मिला विस्तृत साम्राज्य संभालना ही कठिन कार्य था। उनके जीवन का सबसे बड़ा सुख अंजीरों और अंगूर की शराब में था, जो उन्होंने अपने मित्र यूनान के राजा एंटियोकस से मँगवाया था। इसलिए ऐसा नहीं लगता कि बिंदुसार ने कोई विजय प्राप्त करके अपने राज्य में कोई वृद्धि की होगी।

वैदेशिक संबंध

विदेशों के साथ बिंदुसार ने शांति और मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखे। सेल्यूकस वंश के राजाओं तथा अन्य यूनानी शासकों के साथ चंद्रगुप्त के समय के संबंध इस सम्राट के काल में भी बने रहे। स्ट्रैबो के अनुसार सीरिया के सम्राट एंटियोकस प्रथम का राजदूत डायमेकस बिंदुसार के दरबार में रहता था। डायोडोरस ने भी लिखा है कि पाटलिपुत्र का शासक यूनानियों के प्रति आदरभाव रखता था।

प्लिनी के अनुसार मिस्र के शासक टॉलेमी द्वितीय फिलाडेल्फस (ई.पू. 285-247) ने डायोनिसियस नामक एक राजदूत को भारतीय शासक (बिंदुसार) के दरबार में नियुक्त किया था। एथेनियस के विवरण से स्पष्ट है कि बिंदुसार ने अपने मित्र सीरियाई सम्राट एंटियोकस से मीठी शराब, सूखी अंजीर और यूनानी दार्शनिक खरीदकर भेजने की प्रार्थना की थी। उत्तर में कहा गया था कि हम आपके पास शराब भेज सकेंगे, किंतु यूनानी विधान के अनुसार दार्शनिक का विक्रय नहीं होता है।

धर्म और धार्मिक नीति

बिंदुसार जिज्ञासु प्रवृत्ति के शासक थे, जो विद्वानों तथा दार्शनिकों का आदर करते थे। एथेनियस के अनुसार बिंदुसार ने सीरियाई शासक एंटियोकस को एक यूनानी दार्शनिक भेजने के लिए लिखा था, जो उनकी दार्शनिक अभिरुचि एवं चिंतनात्मक प्रवृत्ति का सूचक है।

महावंश के अनुसार उन्होंने साठ हजार ब्राह्मणों को सम्मानित किया था। दिव्यावदान की एक कथा के अनुसार आजीवक परिव्राजक बिंदुसार की सभा को सुशोभित करते थे।

प्रायः बिंदुसार की मृत्यु की तिथि ई.पू. 272 निर्धारित की जाती है, किंतु कुछ विद्वान मानते हैं कि बिंदुसार की मृत्यु ई.पू. 270 में हुई थी। पुराणों के अनुसार बिंदुसार ने चौबीस वर्ष तक, किंतु महावंश के अनुसार सत्ताईस वर्ष तक राज्य किया। आर्यमंजुश्रीमूलकल्प के अनुसार उन्होंने बीस वर्ष शासन किया। यदि चंद्रगुप्त के शासनकाल का अंत ई.पू. 298 हुआ तथा अशोक ने ई.पू. 273 में राज्य ग्रहण किया, तो स्पष्ट है कि बिंदुसार ने 25 वर्ष शासन किया। इस प्रकार बिंदुसार का शासनकाल ई.पू. 298 से ई.पू. 273 तक माना जा सकता है।

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