मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था और भौतिक संस्कृति का प्रसार (Mauryan Economy and Spread of Material Culture)

मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था, समाज, धर्म और कला-संबंधी जानकारी के लिए कौटिल्य का अर्थशास्त्र, मेगस्थनीज-कृत […]

मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था और भौतिक संस्कृति का प्रसार (Mauryan Economy and Spread of Material Culture)

मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था

मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था, समाज, धर्म और कला-संबंधी जानकारी के लिए कौटिल्य का अर्थशास्त्र, मेगस्थनीज-कृत इंडिका के अवशिष्ट अंश तथा अशोक के अभिलेख महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं, जो एक-दूसरे के पूरक हैं। रुद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख से भी मौर्यों के संबंध में बहुमूल्य सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। इसके साथ ही सोहगौरा (गोरखपुर) तथा महास्थान (बोगरा, बांग्लादेश) के लेखों से भी मौर्यकालीन समाज और संस्कृति पर कुछ प्रकाश पड़ता है।

मौर्यकाल में राज्य की आर्थिक गतिविधियों में अभूतपूर्व विस्तार परिलक्षित होता है। इस काल की अर्थव्यवस्था का विशिष्ट अभिलक्षण है—कृषि, उद्योग और व्यापार-वाणिज्य पर राज्य का नियंत्रण और प्रजा पर सभी प्रकार के करों का आरोपण। एक तो, साम्राज्य के दूर-दूर तक फैले हुए भागों की सुरक्षा के लिए विशाल और स्थायी सेना को बनाए रखना आवश्यक था। दूसरे, मौर्यों ने आपात स्थिति के लिए कोष में समुचित अधिशेष बनाए रखने की नीति का पालन किया। इसलिए राज्य ने अनेक आर्थिक गतिविधियों को अपने नियंत्रण में ले लिया, जिससे आय के लाभकारी साधन अस्तित्व में आए।

आर्थिक दृष्टि से इस काल में न केवल कृषि-उत्पादन में वृद्धि हुई, बल्कि उद्योग, पशुपालन, व्यवसाय, खनिज-उत्खनन एवं व्यापार में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई। मगध साम्राज्य के आसपास लोहे की खानें थीं (वर्तमान दक्षिण बिहार क्षेत्र में) और महत्त्वपूर्ण जल व स्थल मार्ग पर उसका नियंत्रण था। दक्षिण बिहार के समृद्ध लौह अयस्क तक आसानी से पहुँच होने की वजह से लोग लोहे के औजारों का अधिकाधिक उपयोग करते थे।

यद्यपि अस्त्र-शस्त्रों पर मौर्य-राज्य का एकाधिकार था, किंतु अन्य लौह उपकरणों का उपयोग किसी वर्ग तक सीमित नहीं था। मौर्यकालीन सकोटर कुल्हाड़ियाँ, हँसिए और हल की फालें प्राप्त हुई हैं। इनका निर्माण और उपयोग गंगा द्रोणी से साम्राज्य के दूरवर्ती भागों तक फैला होगा। इन औजारों की सहायता से पूर्वी गंगा घाटी के घने जंगलों को काटने में आसानी हुई होगी और कृषि के क्षेत्र में कुशलता बढ़ी होगी। दक्षिणी बिहार के पूरे लौह क्षेत्र में लोहे के छोटे-छोटे टुकड़े बिखरे मिले हैं।

वार्ता

राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन और वाणिज्य-व्यापार पर आधारित थी। इनको सम्मिलित रूप से ‘वार्ता’ कहा गया है, अर्थात् आजीविका का साधन। इन व्यवसायों में कृषि मुख्य थी। एक अच्छे जनपद की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कौटिल्य ने कहा है कि भूमि कृषि-योग्य होनी चाहिए। वह ‘अदेवमातृक’ हो, अर्थात् ऐसी भूमि हो जिसमें बिना वर्षा के भी अच्छी खेती हो सके।

मेगस्थनीज ने किसानों की गणना दूसरी श्रेणी में की है, जो संख्या में अन्य से अधिक थे। यद्यपि भारतीय समाज के विभाजन संबंधी उसका दृष्टिकोण ठीक नहीं था, परंतु यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि खेती में लगे किसानों की बड़ी संख्या ने उसका ध्यान आकृष्ट किया। अन्य राजकीय सेवाओं से मुक्त होने के कारण कृषक सारा समय खेती में लगाते थे। यूनानी स्रोत बताते हैं कि खेतिहरों के पास अस्त्र-शस्त्र नहीं होते थे। कृषकों को पवित्र और अवध्य समझा जाता था। मेगस्थनीज ने अनेक बार दोहराया है कि शत्रु अपनी भूमि पर काम करते हुए किसी को हानि नहीं पहुँचाता था, क्योंकि इस वर्ग (किसान) को सर्वसाधारण द्वारा हितकारी माना जाता था।

मेगस्थनीज ने लिखा है कि भूमि पशुओं के निर्वाह-योग्य थी और अन्य खाद्य-पदार्थ प्रदान करती थी। चूँकि यहाँ वर्षा वर्ष में दो बार होती थी, अतः भारत में दो फसलें काटी जाती थीं। लोग तिल, जौ, मूँग, उड़द, गेहूँ, चावल, प्रियंगु, कोदो आदि का उत्पादन करते थे। चावल की दो नई किस्मों—दारक और वरक का उल्लेख मिलता है। अन्य विक्रय-योग्य उत्पादों में गोल मिर्च, जीरा, सरसों, धनिया आदि प्रमुख थे।

राजकीय भूमि राज्य की आय का प्रमुख स्रोत थी। राजकीय भूमि की व्यवस्था सीताध्यक्ष द्वारा होती थी और उससे होने वाली आय को कौटिल्य ने ‘सीता’ कहा है। सीताध्यक्ष अर्थात् कृषि-अधीक्षक, नामक अधिकारी दासों, कर्मकारों (मजदूरी पर कार्य करने वाले मजदूरों) और दंडप्रतिकर्ता (अपराधियों) की सहायता से खेती का काम करवाते थे। कौटिल्य के अनुसार यदि वे अपने बीज, बैल और हथियार लाते, तो वे उपज के 1/4 भाग के अधिकारी थे। यदि कृषि-उपकरण राज्य द्वारा दिए जाते, तो वे 1/3 अंश के भागी थे।

मेगस्थनीज के अनुसार उस समय दास नहीं थे, किंतु चंद्रगुप्त के शासनकाल में दासों, कर्मकारों और कैदियों द्वारा इस राजकीय भूमि में जुताई और बुआई होती थी। दासों और कर्मकारों को भोजनादि मिलता था और कार्य के दौरान नकद मासिक वेतन भी दिया जाता था। सीता गाँव में नट, नर्तक, गायक, वादक और कथावाचक का प्रवेश वर्जित था। किंतु ऐसी भी राजकीय भूमि थी, जिस पर सीताध्यक्ष द्वारा खेती नहीं कराई जाती थी। ऐसी भूमि पर ‘करद-कृषक’ खेती करते थे। इसमें कृषि-योग्य खेतों को खेती के लिए किसानों को दे दिया जाता था। जो भूमि कृषि-योग्य न थी, उसे यदि कोई खेती के योग्य बना लेता, तो यह भूमि उससे वापस नहीं ली जाती थी।

भू-स्वामित्व

मेगस्थनीज, स्ट्रैबो, एरियन इत्यादि यूनानी लेखकों के अनुसार समस्त भूमि राजा की होती थी। किंतु यूनानी लेखकों का अभिप्राय संभवतः राजकीय भूमि से था, जो किसानों को बटाई पर दी जाती थी। राजकीय भूमि के अतिरिक्त ऐसी भूमि भी थी, जो गृहपतियों तथा अन्य कृषकों की निजी भूमि होती थी, जिस पर वे स्वयं खेती करते थे और उपज का एक भाग कर के रूप में राजा को देते थे।

इन कृषकों के ऊपर नियामक अधिकारी—समाहर्ता, स्थानिक और गोप होते थे, जो गाँवों में भूमि तथा अन्य प्रकार की संपत्ति के आँकड़े और लेखा-जोखा रखते थे। अर्थशास्त्र में क्षेत्रक (भूस्वामी) और उपवास (काश्तकार) के बीच स्पष्ट भेद दिखाया गया है। भूमि के संबंध में ‘स्वाम्य’ का उल्लेख है, जिससे व्यक्ति का भूमि पर अधिकार सिद्ध होता है। व्यक्ति को भूमि के क्रय और विक्रय का अधिकार था। कहा गया है कि जिस भूमि का स्वामी नहीं होता, वह राजा की हो जाती है। कौटिल्य ने भूमिछिद्र विधानम् शीर्षक अध्याय में कृषि-योग्य भूमि के अतिरिक्त अन्य भूमि का उल्लेख किया है। संभवतः भूमिछिद्र से अभिप्राय ऐसी भूमि से है, जो कृषि-योग्य न हो।

सेतुबंध

खेती को बढ़ाने में जो कारक अधिक सहायक सिद्ध हुआ, वह था राज्य द्वारा सिंचाई-सुविधाओं का प्रबंध और किसानों के लाभ के लिए जल-आपूर्ति का नियमन। राज्य की ओर से सिंचाई का उचित प्रबंध किया जाता था, जिसे ‘सेतुबंध’ कहा गया है। इसके अंतर्गत तालाब, कुएँ का निर्माण तथा झीलों पर बाँध बनाकर एक स्थान पर पानी एकत्रित करना इत्यादि निर्माण-कार्य आते हैं। मौर्यों के समय सौराष्ट्र में सुदर्शन झील के बाँध का निर्माण सेतुबंध का एक उदाहरण है। अर्थशास्त्र में अच्छा प्रशासन उसे कहा गया है, जिसमें किसान खेती के लिए केवल वर्षा के पानी पर निर्भर न रहें। इसलिए सिंचाई के लिए अनेक साधन जुटाए जाने चाहिए और किसानों को सिंचाई के साधनों का उपयोग करने में पूरी सावधानी बरतनी चाहिए। यह भी कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति तालाब को तोड़ दे, तो उसे तालाब में डुबो दिया जाए। इससे स्पष्ट होता है कि खेतिहरों की भलाई के लिए जल आपूर्ति-संबंधी कुछ नियम थे। लगता है कि राज्य कम वर्षा वाले क्षेत्रों में ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध करवाता था, ताकि उन इलाकों में नियमित जल आपूर्ति से अच्छी फसल प्राप्त की जा सके। मेगस्थनीज बताता है कि मिस्र की तरह मौर्य साम्राज्य में भी अधिकारी भूमि की पैमाइश करते थे। साथ ही जिन नहरों से पानी कुल्याओं में वितरित किया जाता था, उनकी जाँच-पड़ताल करते रहते थे, जिससे प्रत्येक को बराबर लाभ मिलता रहे।

कहा गया है कि राजा ही पृथ्वी और जल का स्वामी है, अतः वह भूमि-कर के अतिरिक्त जल-कर लेने का भी अधिकारी है। वस्तुतः सिंचाई के लिए अलग कर देना पड़ता था, जिसे ‘उदकभाग’ कहा जाता था। वर्षा के मापने के उपकरण को ‘अरत्नी’ कहा जाता था और एक अरत्नी 24 अंगुल के बराबर होती थी। अर्थशास्त्र से पता चलता है कि सिंचित भूमि के उत्पाद का पाँचवाँ, चौथा अथवा तीसरा भाग सिंचाई-कर के रूप में लिया जाता था। राज्य के अलावा लोग स्वयं कुएँ खुदवाकर, तालाब या बावड़ी बनवाकर सिंचाई की व्यवस्था करते थे। उन्हें प्रारंभ में छूट देकर प्रोत्साहित किया जाता था, किंतु कुछ समय बाद उन्हें भी सिंचाई-कर देना पड़ता था।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास

मौर्यों ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसके लिए उन्होंने नई बस्तियाँ स्थापित कीं और जो बस्तियाँ नष्ट हो रही थीं, उनका घनी आबादी वाले क्षेत्रों से अतिरिक्त जनसंख्या लाकर पुनर्वास किया। अर्थशास्त्र में नई भूमि पर कृषि के विकास को प्रोत्साहन देने की बात कही गई है, ताकि राजस्व में वृद्धि हो सके। पहली बार मौर्यकाल में ही किसानों के साथ बड़ी संख्या में शूद्रों को कृषि में लगाया गया और इसके लिए उन्हें राज्य से सहायता दी गई। परती भूमि को खेती के तहत लाने के लिए किसानों को करों में छूट दी गई, साथ ही पशु, बीज, मुद्रा आदि की आपूर्ति करके उन्हें अन्य रियायतें भी दी गईं।

खनन और धातुकर्म

मौर्यकाल में खानों से कच्ची धातु निकालने, उसे गलाने, शुद्ध करने और लचीला बनाने की क्रिया की अच्छी जानकारी प्राप्त हो चुकी थी। कौटिल्य ने खान-अधीक्षक (आकाराध्यक्ष) की व्यवस्था की है, जिसके लिए धातुकर्म-सहित खान के तकनीकी पहलुओं की सम्यक् जानकारी अपेक्षित थी। मेगस्थनीज ने भारत में अनेक प्रकार की धातुओं की खानों का उल्लेख किया है, जैसे—सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा आदि। इनका उपयोग आभूषण, बर्तन, युद्ध के हथियार, सिक्के आदि बनाने के लिए किया जाता था। साहित्यिक स्रोतों से संकेत मिलता है कि खानों से सोना, चाँदी, ताँबा, सीसा, टिन, लोहा और डोमर (बिटूमिन) निकाले जाते थे। सिंहभूम और हजारीबाग जिले में बरगंडा की खानें पाटलिपुत्र के सबसे निकट थीं। लोहाध्यक्ष संभवतः ऐसा अधिकारी था, जिसके ऊपर लोहे के उत्खनन का दायित्व था। इसके निरीक्षण में युद्ध के हथियार तथा कृषि के उपकरण बनाने के लिए लोहे का उपयोग किया जाता था।

इसके अलावा, खनन और धातु-कर्म में खन्याध्यक्ष (खुदाई-अधीक्षक), लक्षणाध्यक्ष (मूल तत्वों की जाँच-पड़ताल करने वाला) जैसे अधिकारियों को भी इस कार्य में नियोजित किया गया था। इस प्रकार खनन एवं धातु-उत्पादों के व्यापार पर राज्य का एकाधिकार था। यह आय का स्रोत ही नहीं था, बल्कि केंद्रीय सत्ता को मजबूत बनाने में भी सहायक था। कौटिल्य के अनुसार कोष का स्रोत खान है, शक्ति (दंड) का स्रोत कोष है और कोष तथा दंड दोनों के द्वारा पृथ्वी को विजित किया जाता है।

शिल्प और उद्योग-धंधे

मौर्यों के शासनकाल में राजनीतिक एकता तथा शक्तिशाली केंद्रीय शासन के नियंत्रण से शिल्पों को प्रोत्साहन मिला। प्रशासनिक सुधार के साथ व्यापार की सुविधाएँ और व्यापार का पोषण करने वाले शिल्पों ने छोटे-छोटे उद्योगों का रूप धारण कर लिया। जातक कथाओं में 18 प्रकार के शिल्पों की चर्चा मिलती है।

मेगस्थनीज ने शिल्पियों को चौथी श्रेणी माना है। उसके अनुसार उनमें से कुछ राज्य को कर देते थे और नियत सेवाएँ भी करते थे। पुराना नियम यह था कि शिल्पी कर के बदले महीने में एक दिन राजा के यहाँ काम करते थे। यह नियम गैर-सरकारी शिल्पियों के लिए था, किंतु जो राजा के शिल्पी थे, वे अनेक प्रकार की धातुओं, लकड़ियों और पत्थरों से राज्य के लिए विविध वस्तुओं का निर्माण करते थे। मेगस्थनीज ने जहाज बनाने वालों, कवच तथा आयुधों का निर्माण करने वालों और खेती के लिए अनेक प्रकार के औजार बनाने वालों का उल्लेख किया है। खानों और जंगलों से प्राप्त धातु तथा लकड़ी से राज्य अनेक प्रकार के उद्योगों का संचालन करता था। वस्त्र-उद्योग भी राज्य द्वारा संचालित होता था। इन विविध उद्योगों में अनेक शिल्पी विभिन्न अध्यक्षों के निरीक्षण में कार्य करते थे और राज्य से वेतन प्राप्त करते थे। किंतु अनेक स्वतंत्र शिल्पी भी थे।

शिल्प-श्रेणियाँ

इस काल में विभिन्न शिल्पों की श्रेणियाँ स्थापित होने लगी थीं। प्रत्येक श्रेणी नगर के एक भाग में बसी हुई थी, जिससे एक श्रेणी के सदस्य एक साथ रहकर कार्य कर सकते थे और अपने उत्पाद बेच सकते थे। श्रेणियों में संगठित होने से उनके वेतन तथा अन्य अधिकार अधिक सुरक्षित थे। सरकारी अधिकारियों द्वारा श्रेणियों का पंजीकरण किया जाता था। राज्य की ओर से शिल्पियों के जीवन और संपत्ति-सुरक्षा की पूरी व्यवस्था थी। सामान्यतः उनमें पारिवारिक संबंध पाया जाता था। अधिकांश पुत्र अपने पिता के व्यवसाय को अपनाते थे और इस तरह हस्तशिल्प वंशानुगत होता था।

क्षेत्रीय सहकारी श्रेणियों को छोड़कर अन्य प्रकार की श्रेणियों पर यह नियंत्रण था कि वे गाँवों में प्रवेश न करें। इससे लगता है कि बिना सरकारी अधिकारियों की स्वीकृति के कोई भी श्रेणी एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा सकती थी। शिल्पों की श्रेणियाँ अपनी आवश्यकता को पूरा करने के लिए स्वतंत्र मजदूरों को नियुक्त करती थीं।

मजदूरों के दो प्रकार थे—स्वतंत्र मजदूर और दास। स्वतंत्र मजदूर भी दो प्रकार के थे—कर्मकार और भृतक। इनके अतिरिक्त दासों की भी नियुक्ति होती थी। अशोक के अभिलेखों में भृतक और दास दोनों की चर्चा मिलती है। इस काल में बढ़ई (काष्ठकार), कुम्हार, धातुकर्मी, चर्मकार, बुनकर, चित्रकार जैसे शिल्पियों की श्रेणियाँ प्रमुख थीं।

वस्त्र उद्योग

मौर्य युग का प्रमुख उद्योग सूत कातने और बुनने का था। मेगस्थनीज ने भारतीय वस्त्रों की बड़ी प्रशंसा की है। अर्थशास्त्र से पता चलता है कि काशी, वंग, पुण्ड्र, कलिंग और मालवा सूती वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध थे। सबसे अच्छा सूती कपड़ा मदुरा, अपरांत (कोंकण), कलिंग, काशी, वंग, वत्स, महिष (महिष्मती) आदि क्षेत्रों में मिलता था। सूती वस्त्रों में अन्य प्रकार के वस्त्र भी थे, जिन्हें दुकूल और कौशेय कहा जाता था। वंग क्षेत्र से दुकूल आता था, पुण्ड्र से पौण्ड्रक नामक वस्त्र आता था। असम में सुवर्णकुण्ड नामक स्थान रेशमी वस्त्र के लिए प्रसिद्ध था। प्राचीन काल से वंग का मलमल विश्वविख्यात था। काशी और पुण्ड्र में भी रेशमी कपड़े बनते थे। चीनपट्ट का उल्लेख कौटिल्य ने किया है, जिससे पता चलता है कि रेशम चीन से आता था। सरकारी कारखानों के अतिरिक्त जुलाहे स्वतंत्र रूप से भी कार्य करते थे।

सोने और चाँदी के अनेक प्रकार के आभूषण और सिक्के सुवर्णाध्यक्ष और लक्षणाध्यक्ष के निरीक्षण में बनते थे। मणि-मुक्ताओं का उपयोग समृद्ध परिवारों में होता था। मौर्यकाल में मोतियों का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता था और मोतियों का नाम उनके स्थान के नाम पर होता था, जैसे—ताम्रपर्णिक मोती पाण्ड्य देश से मँगाया जाता था, कौलेयक सिङ्घल द्वीप से मँगाया जाता था और हैमवत हिमालय पर्वत से निकाला जाता था। मोतियों को अनेक लड़ियों में पिरोकर हार बनाए जाते थे, जो गले में पहने जाते थे। मुक्ता-लड़ियाँ कमर और हाथों को सजाने के लिए उपयोग में लाई जाती थीं। इस प्रकार मणिकार और सुवर्णकार राजघराने और समृद्ध परिवारों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे।

इन उद्योगों के अतिरिक्त कई अन्य उद्योग भी मौर्यकाल में अच्छी अवस्था में थे, जैसे—हाथी दाँत का काम करने वाले, मिट्टी के बर्तन बनाने वाले और चर्मकार। पशुओं की खाल जूते, वर्म या ढाल बनाने के लिए उपयोग में लाई जाती थी। नियार्कस ने लिखा है कि भारतीय श्वेत रंग के जूते पहनते हैं, जो अति सुंदर होते हैं। इनकी एड़ियाँ कुछ ऊँची बनाई जाती थीं। हाथी दाँत के काम में भारतीय बहुत पहले से कुशल थे। एरियन ने समृद्ध परिवारों द्वारा हाथी दाँत के कर्णाभूषण के उपयोग का उल्लेख किया है।

यद्यपि कौटिल्य ने कुम्हार की श्रेणियों का उल्लेख नहीं किया है, फिर भी मिट्टी के बर्तन साधारण लोगों द्वारा बड़ी मात्रा में उपयोग में लाए जाते थे। मौर्यकाल के काले ओपदार मिट्टी के बर्तन मिले हैं, जो पुरातत्त्वविदों के अनुसार उच्च वर्ग के लोगों द्वारा प्रयोग में लाए जाते थे। पत्थर तराशने का व्यवसाय भी विकसित अवस्था में रहा होगा। अशोक के समय में एक ही पत्थर से बने स्तंभ इसका ज्वलंत प्रमाण हैं। पत्थर पर पॉलिश करने की कला अपने चरमोत्कर्ष पर थी। सारनाथ सिंह-स्तंभ और बराबर गुफाओं की चमक अद्वितीय है।

वन एवं चारागाह

इसके अतिरिक्त, वन प्रदेश और चारागाह थे। वन दो प्रकार के होते थे—एक तो ‘हस्तिवन’, जहाँ हाथी रहते थे। ये हाथी राज्य की संपत्ति थे और युद्ध के समय प्रयोग किए जाते थे। दूसरे, ‘द्रव्यवन’, जहाँ से अनेक प्रकार की लकड़ी, लोहा, ताँबा इत्यादि धातुएँ प्राप्त होती थीं। जंगलों पर राज्य का अधिकार था। इन वनों की उपज राज्य के कोष्ठागारों में पहुँचाई जाती थी और वहाँ से कारखानों में, जहाँ लकड़ी, मिट्टी और धातु की अनेक उपयोगी वस्तुएँ तथा युद्ध के लिए अस्त्र-शस्त्र बनाए जाते थे। कारखानों में बनी वस्तुएँ पण्याध्यक्ष के नियंत्रण में बाजारों में बेची जाती थीं।

दुर्भिक्ष (अकाल)

मेगस्थनीज ने लिखा है कि भारत में दुर्भिक्ष नहीं पड़ते, किंतु कौटिल्य के अर्थशास्त्र से पता चलता है कि दुर्भिक्ष पड़ते थे और दुर्भिक्ष के समय राज्य द्वारा जनता की भलाई के उपाय किए जाते थे। कौटिल्य ने लिखा है कि दुर्भिक्ष होने पर राजा को भू-राजस्व वसूल नहीं करना चाहिए। जैन अनुश्रुति के अनुसार मगध में 12 वर्ष का एक दुर्भिक्ष पड़ा था।

जैन परंपरा के अनुसार चाणक्य ने कर्षापण (कहापण) नाम से प्रसिद्ध चाँदी के अस्सी करोड़ सिक्के प्रचलित किए थे, जो स्पष्टतः असाधारण परिस्थितियों से निपटने के मौर्यकालीन आपात उपाय थे। इसके अतिरिक्त, ऐसा लगता है कि सामान्य करों का प्रमुख अंश इस प्रयोजन के लिए अलग रखा जाता था, क्योंकि मौर्यों की नीति थी कि आय का आधा भाग आपात परिस्थितियों के विरुद्ध बीमे के रूप में जमा कर लिया जाता था। सोहगौरा और महास्थान अभिलेखों में दुर्भिक्ष के अवसर पर राज्य द्वारा राजकीय कोष्ठागारों से अनाज-वितरण का उल्लेख मिलता है।

व्यापार-वाणिज्य

मौर्यकाल में भारत के विभिन्न राज्यों के एक शासन-सूत्र में बँध जाने से व्यापारिक गतिविधियों को बहुत प्रोत्साहन मिला। प्रजा के हित के लिए शिल्पियों और व्यापारियों पर राज्य का नियंत्रण था। व्यापार के नियंत्रण के लिए राज्य का एक पृथक् विभाग था, जो व्यापारियों और दुकानदारों के कार्यों की देखभाल करता था। इस विभाग के अध्यक्ष संस्थाध्यक्ष कहलाते थे। राज्य स्वतंत्र रूप से भी वस्तुओं का आयात-निर्यात करता था और निजी व्यापारियों के हाथों में भी वस्तुएँ बेचता था। कृषि और उद्योगों की वस्तुएँ देश के विभिन्न भागों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से पहुँचती थीं। व्यापारियों को आदेश था कि पुराना माल संस्थाध्यक्ष की अनुमति के बिना न तो बेचा जा सकता था और न ही बंधक रखा जा सकता था।

तौल और बाटों पर भी राज्य का नियंत्रण था। इनका निर्माण भी राज्य द्वारा कराया जाता था और इसके लिए पौतवाध्यक्ष नामक अधिकारी उत्तरदायी था। माप और तौल का प्रत्येक चौथे महीने राज्य-कर्मचारियों द्वारा निरीक्षण होता था। तौल और माप के मानकों को भी राज्य द्वारा नियंत्रित किया जाता था। इसके लिए मानाध्यक्ष नामक अधिकारी नियुक्त किए जाते थे। कम तौलने वाले को दंड दिया जाता था। लाभ की दर निश्चित थी। देशी वस्तुओं पर 4 प्रतिशत और आयातित वस्तुओं पर 10 प्रतिशत बिक्री-कर लिया जाता था। मेगस्थनीज के अनुसार बिक्री-कर न देने वाले के लिए मृत्युदंड का विधान था, किंतु यह सही प्रतीत नहीं होता।

राजमार्गों का विकास

प्रशासनिक और सैनिक आवश्यकताओं के कारण मौर्यकाल में महत्त्वपूर्ण राजमार्गों का विकास हुआ और उनकी सुरक्षा बढ़ी। अब उत्तर-पश्चिमी भाग यूनानियों के अधिकार से मौर्यों के अधिकार में आ गया था। मेगस्थनीज के विवरण से स्पष्ट है कि मार्ग-निर्माण मौर्य साम्राज्य का एक महत्त्वपूर्ण कार्य था और मार्ग-निर्माण के अधिकारी एग्रोनोमोई कहलाते थे। ये सड़कों की देखरेख करते थे और 10 स्टेडिया की दूरी पर एक स्तंभ खड़ा करते थे।

मौर्य साम्राज्य के राजमार्गों में सबसे महत्त्वपूर्ण उत्तर-पश्चिम को पाटलिपुत्र से मिलाने वाला राजमार्ग उत्तरापथ था। यह पथ मथुरा, हजारा और तक्षशिला होते हुए पेशावर जाता था। मेगस्थनीज के अनुसार इसकी लंबाई 1,300 मील थी। उत्तर की ओर एक पुराना मार्ग चम्पा से बनारस तक और वहाँ से यमुना के किनारे-किनारे कोशाम्बी होते हुए सिन्धु-सौवीर तक जाता था। एक तीसरा मार्ग श्रावस्ती से राजगृह तक जाता था।

हिमालय की ओर जाने वाले मार्ग की तुलना दक्षिण को जाने वाले मार्ग से करते हुए कौटिल्य ने दक्षिण मार्ग को अधिक लाभकारी बताया है, क्योंकि दक्षिण से बहुमूल्य व्यापारिक वस्तुएँ, जैसे—मुक्ता, मणि, हीरे, सोना, शंख इत्यादि आते थे। कलिंग की विजय से पूर्व और पूर्व-दक्षिण के व्यापारिक मार्ग निष्कंटक हो गए थे।

पूरब में एक मार्ग पाटलिपुत्र को मगध से जोड़ता था और यही मार्ग दक्षिण में कलिंग से जुड़ जाता था। यह मार्ग दक्षिण में आंध्र और कर्नाटक क्षेत्र से भी जुड़ता था। यही पूर्वी मार्ग पाटलिपुत्र से बंगाल के ताम्रलिप्ति तक जाता था। व्यापारिक जहाज़ ताम्रलिप्ति बंदरगाह से पूर्वी तट के अनेक बंदरगाहों से होते हुए श्रीलंका जाते थे।

रोमिला थापर के अनुसार अशोक द्वारा कलिंग की विजय का एक कारण कलिंग का व्यापारिक महत्त्व था। दक्षिण की विजय से दक्षिण और पश्चिम के व्यापारिक मार्गों पर मौर्यों का नियंत्रण हो गया था। दक्षिण के लिए एक पुराना मार्ग श्रावस्ती से गोदावरी के तटवर्ती नगर प्रतिष्ठान तक जाता था। यह मार्ग संभवतः उत्तरी मैसूर तक बढ़ाया गया था। कृष्णा, गोदावरी और तुंगभद्रा के किनारे होते हुए कई मार्ग व्यापार, सैनिक अभियान और शासन की आवश्यकता के अनुसार बनाए गए होंगे। पश्चिमी तट पर भी समुद्री मार्ग भड़ौच और चौल होकर लंका तक जाता था। पश्चिमी तट पर सोपारा भी महत्त्वपूर्ण बंदरगाह था।

कौटिल्य ने स्थलमार्गीय व्यापार की अपेक्षा नदी-मार्गों से होने वाले व्यापार को अधिक सुरक्षित माना है, क्योंकि यह चोर-डाकुओं के भय से अपेक्षाकृत मुक्त था। खतरों और कठिनाइयों के कारण व्यापारी काफिलों में संगठित होकर चलते थे। राज्य की ओर से व्यापारियों को यातायात और सुरक्षा-संबंधी सुविधाएँ प्राप्त थीं। यदि मार्ग में व्यापारियों का नुकसान हो जाता, तो राज्य क्षतिपूर्ति करता था। इसके बदले व्यापारियों से अनेक शुल्क लिए जाते थे।

मौर्यों के सुसंगठित शासन से अंतर्देशीय व्यापार की तरह ही स्थल और जलमार्ग से विदेशों के साथ व्यापार को लाभ प्राप्त हुआ। समुद्री मार्ग भारत के पश्चिमी समुद्र तट से फारस की खाड़ी होते हुए अदन तक जाता था। भारत से और मिस्र से आने वाली व्यापारिक वस्तुओं का विनिमय अरब सागर के तटवर्ती बंदरगाहों पर होता था। भारत से मिस्र को हाथी दाँत, कछुए, सीपियाँ, मोती, रंग, नील और बहुमूल्य लकड़ी निर्यात होती थी। यूनानी शासकों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों की वजह से पश्चिमी एशिया और मिस्र के साथ भारत के व्यापार के लिए अनुकूल वातावरण बना।

महाजनी व्यवस्था

मेगस्थनीज ने लिखा है कि भारतवासी न तो सूद पर धन लेते थे और न देते थे और न उधार लेना जानते थे। किंतु कौटिल्य ने महाजनी व्यवस्था का विस्तृत विवरण दिया है। उसके अनुसार इस काम पर कोई प्रतिबंध नहीं था, क्योंकि विशेष परिस्थितियों में सरकारी कोष से भी कर्ज लिया जा सकता था। संभवतः ब्याज की राशि 15 प्रतिशत वार्षिक थी, किंतु कुछ परिस्थितियों में यह 60 प्रतिशत वार्षिक भी थी और इसे ‘व्यवहारिकी’ कहा जाता था। यह समुद्री जहाज़ों पर लदे हुए सामानों पर लिया जाता था, क्योंकि इनके डूबने का खतरा रहता था।

आहत मुद्राएँ

मौर्यकाल में आहत मुद्राएँ प्रचलित थीं। चाँदी के सिक्कों को ‘कार्षापण’ (कहापण), ‘पण’ और ‘धरण’ कहा जाता था, जबकि सोने का सिक्का ‘सुवर्ण’ और ‘पाद’ कहलाता था। एक सुवर्ण चार पाद के बराबर होता था। ताँबे के सिक्कों को मासक, काकिणी और अर्धकाकिणी कहा जाता था। कौटिल्य के अनुसार, एक सुवर्ण सोलह मासक के बराबर था। कात्यायन और पतंजलि ने भी काकिणी और अर्धकाकिणी का उल्लेख किया है। अर्थशास्त्र में सिक्के के लिए ‘रूप’ शब्द का प्रयोग हुआ है। मुद्राशास्त्र के प्राचीन ग्रंथ का नाम भी रूपसूत्र है।

मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था और भौतिक संस्कृति का प्रसार (Mauryan Economy and Spread of Material Culture)
मौर्यकालीन आहत मुद्राएँ
शहरों का विकास और विस्तार

मौर्यों से पूर्व जो शहरीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई थी, उसका इस काल में विकास हुआ। शहरों में अधिकांशतः व्यापारी, शिल्पी, सरकारी कर्मचारी, पुरोहित, सैनिक और अन्य लोग रहते थे। शहरी अर्थव्यवस्था का निर्माण शिल्पियों और व्यापारियों की गतिविधियों पर आधारित था। व्यापार की वृद्धि और गृहपतियों और ग्राम-भोजकों की समृद्धि ने शहरी प्रसार के लिए सामाजिक आधार प्रदान किया। अर्थशास्त्र में दुर्ग-निवेश के उल्लेख से लगता है कि शहरों को दीवार से घेरा जाता था। कौटिल्य ने शहरों (दुर्गों) को राज्य का महत्त्वपूर्ण आधार बताया है। शहरों से प्राप्त कर से राज्य को अच्छी आय होती थी, इसलिए मौर्यों ने शहरों के उत्थान और प्रशासन पर विशेष ध्यान दिया था।

भौतिक संस्कृति का प्रसार

मौर्यकाल में गंगा-द्रोणी क्षेत्र में भौतिक संस्कृति का तेज़ी से विकास हुआ। बुद्धकाल में उत्तरी काली पॉलिश के मृद्भांडों की जिस संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ था, वह मौर्यकाल में अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई। वस्तुतः भारतीय इतिहास में नगरीकरण का जो दूसरा चरण बुद्ध युग से शुरू हुआ, उसके पल्लवीकरण में मौर्य युगीन प्रशासकों, व्यापारियों, शिल्पियों और जैन तथा बौद्ध साधुओं-संन्यासियों ने विशेष योगदान दिया, जिसके कारण गंगा-द्रोणी की भौतिक संस्कृति का प्रसार उत्तर, उत्तर-पश्चिम, पूर्व और दक्षिण के विस्तृत क्षेत्र में हुआ। उत्तर-पश्चिम में कंधार, तक्षशिला, उदेग्राम आदि स्थलों से लेकर पूर्व में चंद्रकेतुगढ़ तक, उत्तर में रोपड़, हस्तिनापुर, तिलौराकोट और श्रावस्ती से लेकर दक्षिण में ब्रह्मपुरी, छब्रोली आदि तक इस संस्कृति के अवशेष मिलते हैं। पालि और संस्कृत ग्रंथों में कोशाम्बी, श्रावस्ती, अयोध्या, कपिलवस्तु, वाराणसी, वैशाली, राजगीर, पाटलिपुत्र आदि जिन नगरों का उल्लेख मिलता है, वे सभी मौर्य युग में पर्याप्त पल्लवित अवस्था में थे। यूनानी लेखक एरियन भी बताता है कि शहर इतने अधिक थे कि उनकी ठीक-ठीक संख्या बताना संभव नहीं है।

इस काल में बड़े पैमाने पर लोहे का प्रयोग, रोपाई वाले धान, आहत सिक्कों, पक्की ईंटों और घेरेदार कुओं तथा उत्तरी काले पॉलिशदार मृद्भांडों का उपयोग होने लगा था। इस काल की सतहों से छेददार कुल्हाड़ियाँ, दराँतियाँ और संभवतः हल के फाल बड़ी संख्या में मिले हैं। यद्यपि अस्त्र-शस्त्र के क्षेत्र में मौर्य राज्य का एकाधिकार था, किंतु लोहे के अन्य औज़ारों का प्रयोग किसी वर्ग विशेष तक सीमित नहीं था।

मौर्य काल में मध्य गंगा मैदानों में पहली बार पक्की ईंटों का प्रयोग हुआ। बिहार और उत्तर प्रदेश में पक्की ईंटों की बनी मौर्यकालीन इमारतें मिली हैं। मकान ईंटों के अलावा लकड़ी के भी बनाए जाते थे। मेगस्थनीज ने मौर्य राजधानी पाटलिपुत्र में लकड़ी की इमारतों का उल्लेख किया है। यद्यपि उत्तरी काली पॉलिश के मृद्भांडों की संस्कृति से संबंधित बहुत से ग्रामीण स्थलों का उत्खनन अभी नहीं हुआ है, किंतु एक सुदृढ़ ग्रामीण आधार के बिना मध्य गंगा की घाटी में विभिन्न शिल्प-विधाओं, व्यापार और नगरीकरण का विकास संभव नहीं था।

मौर्यकाल में मध्य गंगा की भौतिक संस्कृति के घटकों का दूर-दूर तक प्रसार हुआ, जो कौटिल्य के निर्देशों के अनुरूप था। कौटिल्य ने सलाह दी है कि किसानों और शूद्र श्रमिकों दोनों को घनी आबादी वाले क्षेत्रों से स्थानांतरित कर नई बस्तियाँ बसाई जाएँ। इससे पिछड़े क्षेत्रों में खेती के उन्नत तरीकों की शुरुआत हुई होगी। मौर्यों ने प्राचीर-युक्त शहरी बस्तियाँ भी बसाई होंगी, ताकि दूरस्थ क्षेत्रों में सैनिक छावनियाँ रखी जा सकें। कौटिल्य ने मुद्रा-प्रणाली के विस्तृत प्रचलन का जो वर्णन किया है, उसकी पुष्टि आहत-मुद्राओं के अखिल भारतीय वितरण से होती है। ऐतिहासिक काल में पक्की ईंटों और मंडल-कूपों (घेरेदार कुएँ) का प्रयोग भी सबसे पहले इसी मौर्य युगीन सांस्कृतिक चरण में दृष्टिगोचर होता है। मंडल-कूपों के फलस्वरूप जल-प्रदाय की समस्या को सुलझाने में सहायता मिली और मकान आदि का निर्माण अधिक स्थायी रूप से संभव हुआ।

मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था और भौतिक संस्कृति का प्रसार (Mauryan Economy and Spread of Material Culture)
मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था और भौतिक संस्कृति का प्रसार

ऐसा लगता है कि मध्य गंगा घाटी की भौतिक संस्कृति के विकसित तत्त्व कुछ संशोधनों के साथ उत्तरी बंगाल, कलिंग, आंध्र, कर्नाटक और महाराष्ट्र तक पहुँच गए। इसकी पुष्टि महास्थान से प्राप्त आरंभिक मौर्य युगीन ब्राह्मी लिपि के अभिलेख और इसी प्रदेश में बानगढ़ से पाए जाने वाले उत्तरी काले पॉलिश के मृद्भांडों से होती है। उत्तरी काली पॉलिशदार मृद्भांडों के ठीकरे पश्चिम बंगाल के चौबीस परगना जिले के चंद्रकेतुगढ़ से भी मिले हैं। उड़ीसा में शिशुपालगढ़ के उत्खनन से भी इसी संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं, जो पूर्वी तट के प्राचीन राजमार्ग पर स्थित धौली और जौगढ़ नामक अशोक के अभिलेख-स्थलों के निकट हैं। इन क्षेत्रों में भौतिक संस्कृति के इन तत्त्वों का प्रस्फुरण मौर्य युगीन मगध के संपर्क के कारण ही हुआ होगा।

यद्यपि आंध्र और कर्नाटक क्षेत्रों में लोहे का आगमन महापाषाणिक संस्कृति के समय हो गया था, फिर भी इन क्षेत्रों में कुछ स्थलों से न केवल अशोक के अभिलेख मिले हैं, बल्कि ई.पू. तृतीय शताब्दी में उत्तरी काले पॉलिश वाले मृद्भांड भी प्राप्त हुए हैं। स्पष्ट है कि ऐसे सांस्कृतिक तत्त्व मौर्य-संपर्क के द्वारा पूर्वी तट से दक्कन के निचले पठारी क्षेत्र में पहुँचे होंगे।

गंगा घाटी की भौतिक संस्कृति का प्रसार मध्य भारत के जनजातीय क्षेत्र के उपांतों में भी हुआ। अशोक का जनजातीय लोगों से घनिष्ठ संबंध था और धम्म-महामात्रों के माध्यम से संपर्क बना रहता था। इस संपर्क से इन जनजातीय लोगों में उच्च संस्कृति के हस्तांतरण का अवसर मिला। इस प्रकार अशोक ने संस्कृति के संक्रमण की सुविचारित नीति का सूत्रपात किया। इस नीति का लाभ यह हुआ कि जनजातीय लोगों में राजसत्ता के साथ-साथ साधु-संन्यासियों, पुरोहितों और अधिकारियों के प्रति सम्मान की भावना विकसित हुई। अशोक दावा करता है कि व्याधों (शिकारियों और मछुआरों) ने हत्या करना छोड़ दिया है और वे धर्म का पालन करने लगे हैं। इस प्रकार खाद्य-संग्राहकों को भी स्थायी कृषक-जीवन अपनाने के लिए तैयार किया गया।

error: Content is protected !!
Scroll to Top