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लॉर्ड ऑकलैंड (1836-1842)
लॉर्ड ऑकलैंड (जॉर्ज ईडन, ऑकलैंड के अर्ल) 1836 में भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया था। उसे भारत और रूस के बीच स्थित बफर राज्यों से मैत्री-संबंध स्थापित करने के निर्देश के साथ भारत भेजा गया था, ताकि रूसी आक्रमण की स्थिति में भारत के ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित किया जा सके। किंतु ऑकलैंड के सार्वजनिक सुधारों और जनजातीय भत्तों में कटौती के आदेश ने स्थानीय अशांति पैदा की। अफगानिस्तान की जटिल परिस्थितियों के कारण उसे 1838 में अफगानिस्तान के साथ युद्ध में उलझना पड़ा, जो अंग्रेजों के लिए अपमानजनक और विनाशकारी सिद्ध हुआ। अफगानिस्तान में मिली असफलता के कारण ऑकलैंड की गिनती भारत के मूर्ख और असफल गवर्नर जनरलों में की जाती है।
19वीं शताब्दी में ब्रिटेन और रूस की प्रतिद्वंद्विता विश्व राजनीति का मुख्य तत्व था। 1801 में जार्जिया पर अधिकार करने के बाद रूस मध्य एशिया में बढ़ने लगा था। अंग्रेजों को भय था कि अफगानिस्तान पर रूसी नियंत्रण उनके भारतीय साम्राज्य के लिए संकट सिद्ध होगा। ब्रिटेन की नीति का मुख्य उद्देश्य रूसी विस्तारवाद को बाल्कान, मध्य एशिया और सुदूर-पूर्व में बढ़ने रोकना था, लेकिन जब रूस फारस की ओर अपने प्रभाव का विस्तार करने लगा, तो ब्रिटेन के लिए अनिवार्य हो गया कि वह अफगानिस्तान के बारे में अपनी नीति को स्पष्ट रूप से निर्धारित करे।
अफगानिस्तान की राजनीतिक स्थिति
अफगानों ने 1747 में ईरानी शासक नादिरशाह की हत्या करके अफगानिस्तान के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी। नादिरशाह की मौत के बाद अफ़ग़ान क़बीलों की पारंपरिक पंचायत जिरगा ने 1748 में सदोजई कबीले के मुखिया अहमद शाह अब्दाली (अहमद शाह दुर्रानी) को अफ़ग़ानिस्तान का शासक चुना और इस प्रकार दुर्रानी साम्राज्य की स्थापना हुई। ताजपोशी के वक़्त, साबिरशाह नामक एक सूफ़ी दरवेश ने अहमदशाह को दुर-ए-दुर्रान का ख़िताब दिया था, जिसका अर्थ होता है- मोतियों का मोती। अहमदशाह अब्दाली ने 25 वर्ष तक शासन किया। 1773 में अहमदशाह अब्दाली की मृत्यु के बाद उसका पुत्र तैमूर मिर्जा अमीर बना।
1793 में तैमूर मिर्जा की मृत्यु के पश्चात् जमानशाह दुर्रानी काबुल का अमीर बना। वह इतना शक्तिशाली था कि अग्रेजों को आशंका थी कि वह भारत पर आक्रमण कर सकता है। जमानशाह ने 1799 में बरकजई पश्तूनों के प्रमुख पायंदा खान तथा अन्य षड्यंत्रकारियों को मृत्युदंड दिया, जिन्होंने उसे हटाकर शुजा को काबुल का अमीर बनाने का षड्यंत्र किया था।
1800 में महमूद मिर्जा ने बरकजई एवं अन्य कबीलों के सहयोग से जमानशाह को हटाकर काबुल की गद्दी पर अधिकार कर लिया। जमानशाह को अंधा कर दिया गया और शेष जीवन उसने भारत में शरणार्थी के रूप में बिताया।
किंतु महमूद मिर्जा भी अधिक समय तक काबुल के सिंहासन पर नहीं रह सका। 1802 में तैमूर का एक अन्य पुत्र शाह शुजा उसे पराजित कर काबुल काबुल का अमीर बन गया। शाह शुजा कभी लोकप्रिय नहीं रहा, लेकिन वह 1808 तक गद्दी पर बना रहा।
1809 में महमूद मिर्जा ने शाह शुजा को गंडमक के युद्ध में पराजित कर दिया। शाह शुजा पंजाब भाग गया और फिर लाहौर में शरणार्थी के रूप में रहने लगा। इस प्रकार महमूद मिर्जा काबुल का अमीर बन गया। इसके बाद भी शाह शुजा काबुल का सिंहासन जीतनें के लिए प्रयास करता रहा। इसके लिए उसने सिखों की भी सहायता ली, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली।
अहमदशाह अब्दाली द्वारा स्थापित दुर्रानी साम्राज्य 1823 में समाप्त हो गया और 1826 में बरकजई कबीले का दोस्त मुहम्मद खान (अमीर-ए कबीर) काबुल का अमीर बन गया। लेकिन इसके पहले ही मार्च, 1823 में नौशेरा की लड़ाई में रणजीतसिंह की सेना ने दोस्त मोहम्मद के सौतेले भाई अजीम खान को पराजित करके पेशावर घाटी पर अधिकार कर लिया था।
दोस्त मुहम्मद खान ने काबुल और ग़ज़नी पर अधिकार करके अगले बारह वर्षों (1826-1838) तक सफलतापूर्वक शासन किया। उसने अपने पुत्र मुहम्मद अकबर खान के साथ 1837 में जमरूद के युद्ध में सिखों को हराया, लेकिन वह पेशावर को वापस नहीं ले सका। जमरूद के युद्ध में ही सरदार हरिसिंह नलवा मारे गये थे। अपने शासनकाल के अंत तक उसने काबुल के साथ कंधार और हेरात की रियासतों को फिर से अपने अधीन कर लिया था।
रूस का विस्तार और अंग्रेजों का भय
1812 में लिपजिंग के युद्ध में नेपोलियन के पराजित होने के साथ ही भारत पर फ्रांसीसी आक्रमण की आशंका समाप्त हो गई। लेकिन 1812 के बाद यूरोप में रूस अत्यधिक शक्तिशाली हो गया और वह अपने प्रभाव का विस्तार बाल्कन, मध्य एशिया और सुदूरपूर्व में करने लगा।
रूस का मुख्य उद्देश्य मध्य एशिया में विस्तार करना था, लेकिन वह फारस पर भी रूसी प्रभाव स्थापित करना चाहता था। 1811 में रूस के जार ने फारस पर आक्रमण किया। इस समय तेहरान की संधि (1809) के अनुसार इंग्लैंड ने शाह की सहायता नहीं की, क्योंकि उसे यूरोप में नेपोलियन के विरुद्ध जार की सहायता की आवश्यकता थी। पराजित होकर फारस ने 1813 में रूस के साथ संधि की, जिसके अनुसार उसने कैस्पियन सागर के तटवर्ती प्रदेशों को रूस को दे दिया।
1814 के बाद इंग्लैंड की नीति रूसी विस्तार को रोकना हो गई। इंग्लैंड ने फारस को रूसी प्रभाव से मुक्त रखने के लिए 1814 में तेहरान से संधि की, जिसमें उसने वादा किया कि रूस के आक्रमण होने की दशा में वह या तो सैनिक भेजेगा या धन देगा। इसके बदले में शाह ने वचन दिया कि वह अफगानों को भारत पर आक्रमण करने से रोकेगा।
किंतु 1826 में जब रूस ने फारस पर आक्रमण किया, तो इग्लैंड ने अपना वादा नहीं निभाया। दरअसल उस समय यूरोप में मेटरनिख के चतुर्मुख संघ की तूती बोल रही थी और रूस इस संघ का सदस्य था। इंग्लैंड चतुर्मुख संघ से शत्रुता मोल नहीं लेना चाहता था। परिणामतः शाह का इंग्लैंड पर से भरोसा उठ गया और 1828 में उसने तुर्कमंचाई की संधि करके कैस्पियन सागर के आसपास के क्षेत्रों (इरीवान और तर्बारज) को रूस को सौंप दिया।
‘द ग्रेट गेम’ और ब्रिटिश नीति (1828-1838)
रूस और ब्रिटिश भारत के बीच स्थित अफगानिस्तान ‘महान खेल’ (द ग्रेट गेम) का उद्भव-स्थल था। अंग्रेज फारस में रूसी हस्तक्षेप से अवगत और भयभीत थे। उन्हें इस बात का डर था कि रूस फारस और अफगानिस्तान के रास्ते भारत पर आक्रमण कर सकता है। रूसी आक्रमण के भय से अंग्रेजों ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप करने का प्रयास किया।
रूस और फारस के मध्य तुर्कमंचाई की संधि (1828) से इंग्लैंड को घबड़ाहट होने लगी थी। इंग्लैंड के राजनीतिज्ञों को लगता था कि तुर्कमंचाई की संधि से उनके भारतीय राज्य के लिए गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है। इस रूसी संकट का सामना करने के लिए इंग्लैंड में विचार-विमर्श शुरू हुआ। इंग्लैंड के राजनीतिज्ञों का विचार था कि यदि हेरात पर फारस का अधिकार हो गया, तो भारत पर आक्रमण के लिए रास्ता खुल जायेगा। उन्होंने यह भी देखा कि अफगानिस्तान (काबुल) का शासक दोस्त मुहम्मद हेरात की रक्षा के लिए कोई प्रयत्न नहीं कर रहा था।
वैज्ञानिक सीमा की अवधारणा
ब्रिटिश राजनीतिज्ञों का विचार था कि यदि उन दर्रों पर कब्जा कर लिया जाये, जिनसे होकर पहले भारत पर आक्रमण होते रहे हैं, तो भारतीय राज्य की रक्षा की जा सकती है। इस प्रकार ‘वैज्ञानिक सीमा’ की अवधारणा का विकास हुआ। यह भी विचार किया गया कि यदि अफगानिस्तान में अंग्रेजों का मित्र शासक हो, तो भी उस ओर से रूसी आक्रमण की आशंका को समाप्त किया जा सकता था।
इस प्रकार भारत को रूस के संभावित आक्रमण से बचाने के सबंध में इंग्लैंड में मुख्यतः दो विचारधाराएँ थीं- एक अग्रगामी विचारधारा थी, जिसके समर्थकों का मानना था कि ब्रिटिश भारत की सुरक्षा के लिए अंग्रेजों को अफगानिस्तान पर अधिकार कर लेना चाहिए। लॉर्ड पामर्स्टन और डिजरायली जैसे ब्रिटिश प्रधानमंत्री इसी नीति के समर्थक थे। उनका मानना था कि रूस से संघर्ष अफगानिस्तान की सीमा पर किया जाये।
दूसरी सीमित विस्तार की विचारधारा थी, जिसे व्यंग्यात्मक रूप में ‘अकर्मण्यता की नीति’ कहा गया है। इस नीति के समर्थकों का मानना था कि भारतीय साम्राज्य को सिंधु नदी के क्षेत्र तक सीमित रखा जाये और अफगानिस्तान की गद्दी पर ऐसा कठपुतली शासक बिठाया जाये, जो अंग्रेजों की इच्छा के अनुसार कार्य करे। लेकिन इस नीति के समर्थकों का यह भी कहना था कि भौगोलिक कठिनाइयों के कारण रूस अफगानिस्तान के रास्ते भारत पर आक्रमण नहीं कर सकता, इसलिए भारत सरकार को अफगानिस्तान में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। दरअसल सीमित विस्तार-नीति के समर्थक अफगानिस्तान को भारत और रूस के बीच एक बफर राज्य की तरह रखना चाहते थे। उनका विचार था कि भारत सरकार अफगानिस्तान के अमीर को धन तथा अस्त्र-शस्त्रों से समय-समय सहायता पर देती रहे, ताकि वह रूसी दबाव का सामना कर सके।
अग्रगामी नीति को लॉर्ड ऑकलैंड और लॉर्ड लिटन ने क्रियान्वित करने का प्रयास किया, जिसके विनाशकारी परिणाम सामने आये। बाद में, लारेंस से लेकर लॉर्ड नार्थबुक तक के सभी वायसरायों ने अकर्मण्यता की नीति का पालन किया, जिससे यह सिद्ध हो गया कि अकर्मण्यता की नीति ही उचित और विवेकपूर्ण थी।
प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध, (1838-1842)
लॉर्ड ऑकलैंड अफगानिस्तान के मामले में अग्रगामी नीति का समर्थक था। वह पामर्स्टन के साथ ब्रिटिश मंत्रिमंडल में मंत्री रह चुका था। पामर्स्टन रूस का कट्टर विरोधी था और अफगानिस्तान में अग्रगामी नीति को क्रियान्वित करना चाहता था, जिसका परिणाम प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध के रूप में सामने आया।
इस अग्रगामी नीति के लिए पामर्स्टन और ऑकलैंड पूर्ण रूप से उत्तरदायी थे। ऑकलैंड का अफगान अभियान आरंभिक सफलता के बाद अंततः आपदा में समाप्त हुआ, जिसके कारण उसे गवर्नर जनरल का प्रभार लॉर्ड एलेनबरो को सौंपना पड़ा।
आंग्ल-अफगान युद्ध की पृष्ठभूमि
प्रथम अफगान युद्ध के बीज आंग्ल-अफगान संबंधों की पृष्ठभूमि में पड़े थे। बक्सर के युद्ध (1764) के बाद 1765 से ही अंग्रेज अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण से भयभीत रहते थे, लेकिन 1773 में अहमदशाह अब्दाली की मृत्यु के बाद यह आशंका समाप्त हो गई।
1793 में जमानशाह अफगानिस्तान की गद्दी पर बैठा। इस महत्वाकांक्षी शासक की इच्छा थी कि वह भारत पर आक्रमण करे। इसलिए लॉर्ड वेलेजली ने उसका प्रतिरोध करने के लिए अवध में एक विशेष सेना रखी और फारस के शाह के पास अपने दूतों को भेजकर उससे मित्रता स्थापित की।
1800 में कबीलाई संघर्ष के अहमदशाह अब्दाली का एक पौत्र शाह शुजा काबुल की गद्दी पर बैठा, लेकिन वह कबीलाई संघर्षों को दबाने में असफल रहा और 1809 में महमूद मिर्जा काबुल का अमीर बन गया। वह लाहौर भाग आया और महाराज रणजीतसिंह की सहायता से काबुल की गद्दी को पुनः प्राप्त करने का प्रयास करता रहा।
कबीलाई संघर्ष के कारण 1823 में दुर्रानी साम्राज्य का अंत हो गया और बरकजई कबीले के दोस्त मुहम्मद खान (अमीर-ए कबीर) ने 1826 में काबुल की गद्दी पर अधिकार कर लिया। लेकिन इसके पहले ही रणजीतसिंह ने पेशावर घाटी पर अधिकार कर लिया था।
दोस्त मुहम्मद की नीति
दोस्त मुहम्मद ने एक कुशल शासक की तरह विभिन्न कबीलों पर नियंत्रण स्थापित किया और 1834 में शाहशुजा के गद्दी पाने के प्रयत्न को असफल कर दिया। दोस्त मुहम्मद ने 1837 में पेशावर को पुनः जीतने का प्रयास किया और जमरूद में सिख सेना को पराजित भी किया, लेकिन वह पेशावर पर अधिकार करने में असफल रहा।
इस समय दोस्त मुहम्मद खान चारों ओर से संकटों से घिरा था। अफगानिस्तान के उत्तरी तथा दक्षिणी भागों में विद्रोह हो रहे थे, पश्चिम की ओर से उसे रूस और फारस के संयुक्त आक्रमण का भय था, और पूरब में महाराजा रणजीतसिंह का पेशावर पर अधिकार था। शाह शुजा और ब्रिटिश सरकार, रणजीतसिंह के साथ थे।
इस संकट की स्थिति में दोस्त मुहम्मद ने अंग्रेजों से मित्रता करने का प्रयत्न किया। 1836 जब ऑकलैंड भारत आया, तो उसने गवर्नर जनरल को बधाई संदेश भेजा और रणजीतसिंह तथा फारस के विरुद्ध उससे सहायता माँगी। किंतु ऑकलैंड ने दूसरे राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप करना अस्वीकार कर दिया। अब अंग्रेजों पर दबाव बनाने के लिए दोस्त मुहम्मद रूस के साथ मित्रता करने का प्रयास करने लगा।
अंतर्राष्ट्रीय स्थिति और ऑकलैंड की नीति
एशिया में रूस के निरंतर प्रभाव-विस्तार से अंग्रेज भयभीत थे। जब 1826 में रूस ने फारस पर विजय प्राप्त की, तो अंग्रेजों की चिंता और बढ़ गई। 1833 में फारस की गद्दी पर मुहम्मद मिर्जा बैठा, जो रूस का मित्र था। रूस ने फारस को प्रोत्साहित किया कि वह अफगानिस्तान के क्षेत्रों पर कब्जा कर ले। फलतः 1837 में फारस ने अफगानिस्तान के हेरात नगर पर आक्रमण कर दिया। विवश होकर दोस्त मुहम्मद ने फारस और रूस से संधि वार्ता आरंभ कर दी। इससे इंग्लैंड की सरकार बुरी तरह डर गई। डायरेक्टरों ने ऑकलैंड को आदेश दिया कि वह रूसी प्रभाव को रोकने का प्रयत्न करे और जरूरत पड़े तो अफगानिस्तान में हस्तक्षेप करे।
इंग्लैंड के राजनीतिज्ञों ने इस भौगोलिक तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि रूस के लिए यह बहुत कठिन कार्य था कि वह अफगानिस्तान के पठार को पार करके, पंजाब में सिख सेना को पराजित करके अंग्रेजों के भारतीय राज्य पर आक्रमण करे, लेकिन ब्रिटिश राजनीतिज्ञ भयभीत होकर ऑकलैंड पर दबाव डालने लगे कि वह शीघ्र कार्यवाही करे।
इस समय इंग्लैंड में मेलबोर्न का ह्विग मंत्रिमंडल था, जिसका विदेश मंत्री पामर्स्टन था। उसे लगा कि अब रूसी खतरे के विरुद्ध कार्यवाही करना अनिवार्य है। इंग्लैंड से गुप्त समिति ने ऑकलैंड को एक आदेश भेजा कि वह अफगानिस्तान की घटनाओं पर कड़ी निगरानी रखे, क्योंकि यदि वहाँ रूस का प्रभाव स्थापित हो गया, तो भारतीय राज्य खतरे में पड़ जायेगा। इसलिए तत्काल ऐसे उपाय किये जायें, जिससे अफगानिस्तान में रूसी प्रभाव स्थापित न हो सके। इसके लिए क्या कार्यवाही की जाये, यह गवर्नर के विवेक पर छोड़ दिया गया। यह कहा गया था यदि वह चाहे तो एक प्रतिनिधि दोस्त मुहम्मद के पास भेज सकता है और यदि आवश्यक समझे, तो हस्तक्षेप भी कर सकता है।
ऑकलैंड के कार्य
ऑकलैंड ने तीन कार्य किये- प्रथम, उसने फारस की खाड़ी में सेना भेजी, जिससे फारस का शाह अंग्रेजी आक्रमण के भय से हेरात का घेरा उठा ले। दूसरे, उसने हेरात की सुरक्षा के लिए एक ब्रिटिश इंजीनियर पोटिंजर को भेजा, जो फकीर के भेष में हेरात पहुँच गया। तीसरे, उसने एलेक्जेंडर बर्न्स को सुरक्षा-संधि पर वार्ता करने के लिए दोस्त मुहम्मद के पास भेजा। दोस्त मुहम्मद सुरक्षा-संधि करने को तैयार था, लेकिन उसकी माँग थी कि रणजीतसिंह से उसे पेशावर दिलाया जाए। बर्न्स ने इसके लिए ऑकलैंड से सिफारिश भी की, लेकिन लॉर्ड ऑकलैंड रणजीतसिंह की कीमत पर दोस्त मुहम्मद से मित्रता करने को तैयार नहीं था। अंग्रेजों से निराश होकर दोस्त मुहम्मद रूस और फारस से सुरक्षा-वार्ता करने लगा। अब ऑकलैंड के पास एक ही विकल्प था कि वह अफगानिस्तान में दोस्त मुहम्मद खान के स्थान पर कोई ऐसी कठपुतली सरकार स्थापित करे, जो रूसियों और फारसियों को रोक सके।
त्रिपक्षीय संघि, 1838
‘द ग्रेट गेम’ के अंतर्गत ब्रिटेन ने अफगानिस्तान में कठपुतली सरकार स्थापित करने का प्रयास किया। दोस्त मुहम्मद फारसियों और रूसियों से संधि-वार्ता कर रहा था, इसलिए दोस्त मुहम्मद को हटाकर शाह शुजा को काबुल की गद्दी पर बिठाने के लिए अंग्रेजों, महाराजा रणजीतसिंह और शाह शुजा के मध्य एक त्रिपक्षीय संधि हो गई, जिस पर जून, 1838 में हस्ताक्षर किये गये। यह त्रिपक्षीय संधि मूल रूप से जरूरत के समय एक दूसरे की मदद करने के लिए थी। त्रिपक्षीय संधि की मुख्य शर्तें इस प्रकार थीं-
- रणजीतसिंह और ब्रिटिश सरकार मिलकर शाह शुजा को काबुल की गद्दी पर पुनः बिठायेंगे।
- शाह शुजा अंग्रेजों और सिखों की सलाह से अपनी विदेश नीति का संचालन करेगा।
- यदि कोई शत्रु अफगानिस्तान से होकर भारत पर आक्रमण करे, तो वह उसे रोकेगा।
- शाहशुजा काबुल में एक अंग्रेज रेजीडेंट को रखेगा।
- शाह शुजा ने सिंध पर अपने समस्त दावों को छोड़ दिया।
- शाह शुजा रणजीतसिंह को प्रतिवर्ष दो लाख रुपये देगा और सिंधु क्षेत्र में उसकी विजयों को मान्यता देगा।
- अंग्रेज पृष्ठभूमि में बने रहेंगे।
त्रिपक्षीय संधि के बाद ब्रिटिश राजदूत की धमकी से शाह ने हेरात का घेरा उठा लिया। ब्रिटिश सरकार की आपत्ति पर रूस ने अपने राजदूत को काबुल से वापस बुला लिया। इस प्रकार युद्ध की आशंका समाप्त हो गई थी। फिर भी, ऑकलैंड ने आक्रमण का विचार नहीं छोड़ा और अंततः यही त्रिपक्षीय संधि प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध का कारण बन गई।
ऑकलैंड की नीति यह थी कि अफगानिस्तान में शाह शुजा को अमीर बनाकर वहाँ सहायक संधि को लागू किया जाये। उसका उद्देश्य अफगानिस्तान पर अधिकार करना था। उसे पामर्स्टन का समर्थन प्राप्त था, लेकिन अनेक अधिकारी ऑकलैंड की नीति से सहमत नहीं थे। अंग्रेज सेनापति फेन अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति से परिचित था, इसलिए उसने युद्ध का विरोध किया और इस्तीफा दे दिया। एलफिंस्टन का कहना था कि शाह शुजा को गद्दी पर बनाये रखना कठिन होगा। ड्यूक ऑफ वेलिंगटन को भी लगता था कि अफगानिस्तान में अंग्रेज फँस जायेंगे और उन्हें बार-बार आक्रमण करना पड़ेगा, किंतु इन चेतावनियों का ऑकलैंड पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
युद्ध की घटनाएँ
फिरोजपुर में ‘सिंधु की सेना’ एकत्रित की गई, जिसे अफगानिस्तान पर आक्रमण करना था। सेना का नेतृत्व जनरल कीन को सौंपा गया और उसे राजनीतिक सलाह देने के लिए मैकनॉटन को उसके साथ भेजा गया। रणजीतसिंह ने सेना को पंजाब से जाने की अनुमति नहीं दी, इसलिए इसे सिंध के रास्ते बोलन दर्रा भेजा गया, जहाँ से उसे अफगानिस्तान में प्रवेश करना था। सीमित सिख सेना को खैबर दर्रे से जाना था।
अप्रैल, 1839 में कांधार पर अंग्रेजी फौजों ने अधिकार कर लिया, जुलाई में गजनी को भी जीत लिया। अंग्रेजों ने 3 अगस्त को काबुल पर कब्जा कर लिया और 7 अगस्त, 1839 को शाह शुजा को काबुल के सिंहासन पर बिठा दिया। कुछ प्रतिरोध के बाद नवंबर में अमीर दोस्त मुहम्मद ने अंग्रेजों के सामने आत्म-समर्पण कर दिया। दोस्त मुहम्मद को बंदी बनाकर कलकता भेज दिया गया। ऑकलैंड को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई, लेकिन वास्तव में, यह असफलता की शुरूआत थी।
लॉर्ड ऑकलैंड की भूलें
शाह शुजा को अफगानियों ने अपना शासक स्वीकार नहीं किया। उसे अंग्रेजों तथा सिखों ने गद्दी पर बिठाया था, जिसके कारण अफगान जनता उसे विश्वासघाती और देशद्रोही मानती थी। चारों ओर शांति फैली थी, लेकिन यह तूफान आने के पहले की शांति थी। ऑकलैंड ने इस समय कई ऐसी भूलें की, जिससे काबुल में अंग्रेजी सेना के लिए संकट पैदा हो गया।
एक तो, शाह शुजा की रक्षा के लिए 10,000 अंग्रेजी सैनिकों को काबुल में रखा गया, जिससे सेना का व्यय बहुत बढ़ गया था। मितव्ययिता करने के लिए ऑकलैंड ने कबीलों को धन देना बंद कर दिया। यही कबीले भारत और काबुल के सुरक्षित मार्ग की व्यवस्था करते थे। कबीलों के असंतुष्ट होने से मार्गों की सुरक्षा समाप्त हो गई।
दूसरे, काबुल की सेना का नया सेनापति एलफिंस्टन वृद्ध और अक्षम था। तीसरे, अफगान शाह शुजा को शासक मानने को तैयार नहीं थे। ऐसी दशा में ऑकलैंड को अफगानिस्तान से अपनी सेनाओं को वापस बुला लेना चाहिए था, संचालकों ने भी उसे यह सुझाव दिया था। लेकिन मैकनॉटन और स्वयं ऑकलैंड, दोनों पीछे हटने के लिए तैयार नहीं थे।
युद्ध पुनः आरंभ होना
काबुल में अंग्रेजी सेना आरक्षित अवस्था में थी और बाला हिसार का किला शाह शुजा को रहने के लिए दे दिया गया था। ब्रिटिश सैनिकों के दुर्व्यवहार से अफगानी जनता का क्रोध बढ़ता जा रहा था, लेकिन ऑकलैंड वास्तविक स्थिति से अनजान बना रहा। इसी बीच मैकनॉटन को बंबई का गवर्नर बना दिया गया और बर्न्स को काबुल में रेजीडेंट। अंग्रेजों के दुर्भाग्य से 27 जून, 1739 को उनके मित्र रणजीतसिंह की मृत्यु हो गई थी।
स्वतंत्रता-प्रेमी और असंतुष्ट अफगानों ने अचानक 2 नवंबर, 1741 को बर्न्स पर हमला कर दिया और उसे काट डाला। उसके भाई चार्ल्स तथा लेफ्टीनेंट ब्राडफुट की भी हत्या कर दी गई। यदि एलफिंस्टन त्वरित कार्यवाही करता, तो संभव है कि वह विद्रोह को फैलने से रोक लेता, लेकिन वह कांधार से जनरल नाट और जलालाबाद से जनरल सेल के आने की प्रतीक्षा करने लगा।
इस समय भयानक ठंडी थी और रास्ते विद्रोही कबीलाइयों के कारण अरक्षित हो चुके थे। इसलिए दोनों जनरल काबुल नहीं पहुँच सके। मैकनॉटन ने विद्रोही अफगानों से बातचीत शुरू की, जिससे विद्रोहियों का हौसला और बढ़ गया और विद्रोह ने राष्ट्रीय आंदोलन का रूप धारण कर लिया। इस विद्रोह का नेतृत्व करने के लिए दोस्त मुहम्मद का पुत्र अकबर खान तुर्किस्तान से काबुल आ गया। अंग्रेज फौज चारों ओर से घिर गई थी। विद्रोहियों ने अंग्रेजी सेना के गोदाम पर कब्जा कर लिया, जिससे सेना के सामने भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई। 11 दिसंबर को मैकनॉटन ने अकबर खान से एक अपमानजनक संधि की, जिसमें कहा गया था- अंग्रेज काबुल खाली कर देंगे; दोस्त मुहम्मद को अफगानिस्तान भेज दिया जायेगा; शाह शुजा अंग्रेजों की पेंशन पर भारत चला जायेगा, लेकिन शीघ्र ही अफगानों को मैकनॉटन की नीयत पर शक हो गया और उन्होंने उसको मार डाला।
संकट की इस घड़ी में एलफिंटन को बाला हिसार पर कब्जा करने या जलालाबाद जाने का सुझाव दिया गया, किंतु वृद्ध सेनापति ने अकबर खान से समझौता करना उचित समझा। उसने सारी बंदूकें और गोदाम अकबर खान के हवाले कर दिया और बदले में अकबर खान ने उसे सुरक्षित जलालाबाद जाने देने का वचन दिया। लेकिन वह वचन पूरा नहीं किया गया। वापस लौटती हुई ब्रिटिश सेना पर, जिनकी संख्या 1,600 थी, अफगानों ने पहाड़ों पर से गोलियाँ चलाई। दस दिन में पहाड़ी घाटियों में सभी ब्रिटिश सैनिक मार दिये गये, केवल एक डॉक्टर ब्राइडन किसी तरह लुकता-छिपता जलालाबाद पहुँच सका। बड़ी मुश्किल से नाट ने कांधार में तथा सेल ने जलालाबाद में अपनी रक्षा की।
इस नरसंहार के लिए अफगानों और अकबर खान को दोषी ठहराया जाता है, किंतु अग्रेजों का आचरण भी कम संदेहपूर्ण पूर्ण नहीं था। अफगान मानते थे कि समझौते के अनुसार कांधार तथा जलालाबाद से भी अंग्रेज सेनाएँ वापस चली जायेंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। संभवतः अंग्रेजों के इसी विश्वासघात से क्षुब्ध होकर अफगानों ने ब्रिटिश सैनिकों की हत्या कर डाली। इस युद्ध के दौरान अलेक्जेंडर बर्न्स, चार्ल्स बर्न्स, सर विलियम मैकनॉटन और जनरल एल्फिंस्टन जैसे अंग्रेजी कमांडर मारे गये।
लॉर्ड ऑकलैंड की वापसी
अफगानिस्तान में ब्रिटिश सेना के भयंकर विनाश की सूचना सुनकर ऑकलैंड स्तब्ध रह गया। लेकिन उसने यह दिखाने की कोशिश की कि यह केवल एक ‘आंशिक पराजय’ थी। उसने स्थिति को नियंत्रित करने का प्रयास किया और कांधार में जनरल नाट की मदद के लिए ब्रिगेडियर इंग्लैंड को तथा जलालाबाद में जनरल सेल की मदद के लिए जनरल पोलक को भेजा, लेकिन सब व्यर्थ रहा।
इंग्लैंड में ऑकलैंड को वापस बुलाने की माँग हो रही थी। अतः गृह सरकार ने ऑकलैंड को वापस बुला लिया और उसके स्थान पर लॉर्ड एलेनबरो ने 28 फरवरी, 1842 को भारत के गवर्नर जनरल पद का उत्तरदायित्व सँभाल लिया।
लॉर्ड एलेनबरो की अफगान-नीति
एलेनबरो के मुख्यतः दो उद्देश्य थे- पहला, अंग्रेजी सेनाओं को अफगानिस्तान से सुरक्षित निकालना और दूसरा, अफगानों को दंडित करके इंग्लैंड की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करना।
एलेनबरो ने 12 मार्च, 1842 को एक घोषणा में स्पष्ट की कि अंग्रेजी सरकार त्रिपक्षीय संधि का समर्थन नहीं करेगी और अफगानों को सबक सिखायेगी। लेकिन अभी भी निराशाजनक समाचार आ रहे थे। अफगानी जनता का नेतृत्व करते हुए शुजाउद्दौला ने 5 अप्रैल, 1842 को शाह शुजा को मौत के घाट उतार दिया। शाह शुजा की हत्या से अंग्रेजों की सफलता का गुब्बारा फूट गया। अफगानी जनता पूरी तरह विद्रोह पर उतारू थी और ब्रिटिश अधिकारी चुन-चुनकर मारे जा रहे थे। जनरल इंग्लैंड कांधार में पराजित हो गया और जनरल पामर ने गजनी का समर्पण कर दिया। ऐसी स्थिति में एलेनबरो ने आज्ञा दी कि अंग्रेज सैनिक अफगानिस्तान से वापस आ जायें। लेकिन जनरल नाट और जनरल पोलक ने आज्ञा पालन में रुचि नहीं दिखाई। फलतः एलेनबरो ने अंतिम निर्णय सेनापातियों के ऊपर पर छोड़ दिया।
अगस्त, 1842 में पोलक ने दो युद्धों में अफगानों को पराजित किया और सितंबर में काबुल पहुँच कर बाला हिसार में यूनियन जैक फहराया। नाट ने गजनी का पूर्ण विनाश कर दिया और वह भी सितंबर, 1842 में काबुल पहुँचकर पोलक से मिल गया। वह गजनी से महमूद गजनवी के मकबरे का फाटक उखाड़ लाया, जिसके बारे में प्रचारित किया गया कि वह उसे सोमनाथ मंदिर से लाया था। दोनों सेनापतियों- नाट और पोलक ने काबुल बाजार को बारूद से उड़ा दिया और नगर को निर्दयतापूर्वक से लूटकर बर्बाद कर दिया। इस प्रकार अंग्रेजी प्रतिष्ठा स्थापित करके ब्रिटिश सेनाएँ वापस भारत चली आईं।
एलेनबरो ने विजयी सेनापतियों का भव्य स्वागत किया और घोषणा की कि वह अफगानों की ऐसी सरकार को मान्यता देगा, जो पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध रखे। अंततः दोस्त मोहम्मद को मुक्त कर दिया गया और वह काबुल पहुँचकर पुनः अमीर बन गया।
इस प्रकार प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध लॉर्ड ऑकलैंड की एक मूर्खतापूर्ण योजना थी, जिसके परिणामस्वरूप हजारों ब्रिटिश (भारतीय) सैनिक मारे गये और करोड़ों रुपये बर्बाद हो गये। बाद में यह भी पता चला कि वे फाटक सोमनाथ के नहीं थे।
ऑकलैंड की नीति की समीक्षा
ऑकलैंड की अफगान नीति की बड़ी आलोचना की गई है। कहा गया है कि भारत के ब्रिटिश इतिहास में प्रथम अफगान युद्ध सबसे भयंकर भूल थी। इससे अधिक असफलता और गहराई से प्रभावित करने वाली कोई दूसरी घटना इतिहास के पृष्ठों में नहीं है। इस विनाशक युद्ध पर 15 मिलियन रुपये खर्च हुए, जिसका सारा भार भारत के राजस्व पर पड़ा और बाद में भी देश इसके भार से दबकर कराहता रहा।
ऑकलैंड की नीति की आलोचना करते हुए विंसेंट स्मिथ कहना है कि उसने सच्चाई को समझने का प्रयास नहीं किया और अपने विवेकहीन सलाहकारों की सलाह पर उन संधियों को तोड़ दिया, जो केवल छः वर्ष पहले की गई थीं। उसने एक आश्चर्यजनक नीति अपनाई और जब इस नीति पर चलने की आवश्यकता नहीं थी, तब भी इसी पर चलता रहा। इस प्रकार आकलैंड की अफगान-नीति की कई आधार पर आलोचना की जाती है-
- आकलैंड ने रूसी खतरे को बढ़ा-चढ़ाकर बताया, जबकि रूस भारतीय सीमा से एक हजार मील दूर था। यदि रूस भारत पर आक्रमण करता भी, तो उसे रणजीतसिंह की प्रशिक्षित सेना से भी निपटना पड़ता। इसके अलावा, जब फारस के शाह ने हेरात का घेरा उठा लिया था और रूसी राजदूत काबुल से वापस चला गया था, तब युद्ध करने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी।
- आकलैंड की नीति नैतिक रूप से भी गलत थी। दोस्त मुहम्मद एक स्वतंत्र राज्य का शासक था और वह किसी भी देश से संबंध रखने के लिए स्वतंत्र था। स्वयं ऑकलैंड ने दोस्त मुहम्मद को बताया था कि ब्रिटिश सरकार स्वतंत्र राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती है, फिर बाद में उसने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप क्यों किया?
- राजनीतिक दृष्टि से भी ऑकलैंड की अफगान-नीति उचित नहीं थी। दोस्त मुहम्मद खान अफगानों का लोकप्रिय शासक था और स्वयं रूसी विस्तारवाद से भयभीत था। दूसरी ओर, शाह शुजा को अफगान जनता देशद्रोही समझती थी और अपना शासक मानने को तैयार नहीं थी। ऐसे में ब्रिटिश संगीनों के साये में शाह शुजा को काबुल की गद्दी पर बैठाना राजनीतिक दृष्टि से एक अदूरदर्शी कदम था। अफगान इसे कैसे स्वीकार कर सकते थे?
- परिणाम की दृष्टि से भी अफगान-नीति पूर्णतः असफल रही। अफगान युद्ध में लगभग 20 हजार लोग मारे गये और करीब 150 लाख स्टर्लिंग व्यय हुआ, लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकला। अंततः अंग्रेजों को दोस्त मुहम्मद को मुक्त करना पड़ा और वह पुनः अफगानों का अमीर बन गया।
- सोमनाथ के फाटकों की बात करना भी मूर्खता थी। इससे हिंदू तो खुश नहीं हुए, मुसलमान नाराज जरूर हो गये।
- अफगान युद्ध का परिणाम सिंध की विजय था। अंग्रेजों ने एक अपराध के बाद दूसरा अपराध किया। सिंध में उन्होंने जो संधियाँ की थीं, उनका उन्होंने उल्लंघन किया। सिंध के रास्ते अंग्रेजी सेनाओं को भेजना संधि के विरुद्ध था। अंत में, सिंध की स्वतंत्रता को ही समाप्त कर दिया गया।
- अफगान युद्ध में पराजय से अंग्रेजों की अजेयता की धारणा नष्ट हो गई। अभी तक ब्रिटिश सेना को अजेय माना जाता था, लेकिन अफगानियों ने उनका पूर्ण विनाश कर दिया। इससे अंग्रेजों की प्रतिष्ठा को गंभीर क्षति पहुँची और उन्हें सिंध विजय का अनैतिक कार्य करना पड़ा।
- भारतीय मामलों के विशेषज्ञ प्रायः सभी अंग्रेजों- बैंटिंक, एलफिंस्टन, वेलेजली ने ऑकलैंड की अफगान नीति को अनुचित और निंदनीय बताया है। ड्यूक ऑफ वेलिंगटन ने पहले ही चेतावनी दे दी थी कि यदि अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप किया गया, तो इंग्लैंड अंतहीन युद्ध में फँस जायेगा। कुल मिलाकर ऑकलैंड की नीति की नीति ‘मूर्खता, अज्ञान और अहंकार का सम्मिश्रण’ थी।
किंतु कुछ इतिहासकार ऑकलैंड की नीति को आधारभूत रूप से उचित और विवेकपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार अफगानिस्तान भारत का सुरक्षा प्रकोष्ठ था और उस पर अधिकार करना सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक था। दोस्त मुहम्मद से मित्रता करने के लिए अंग्रेजों को महाराजा रणजीतसिंह को असंतुष्ट करना पड़ता। इसलिए ऑकलैंड ने शाह शुजा को अमीर बनाने का निर्णय लिया था। ऑकलैंड की आलोचना इसलिए की जाती है, क्योंकि उसकी नीति असफल हो गई। यदि उसकी नीति सफल हो जाती, तो उसकी प्रशंसा में गीत गाये जाते।
दरअसल ऑकलैंड की असफलता का मुख्य कारण नीति का दोषपूर्ण क्रियान्वयन था। उसने कुछ ऐसी गलतियाँ की, जिससे उसकी नीति असफल हो गई।
एक तो, ऑकलैंड को शाह शुजा की सुरक्षा के लिए काबुल में अंग्रेजी सेना और अंग्रेज रेजीडेंट नहीं रखना चाहिए था। इससे अफगानों को लगा कि अंग्रेज अफगानिस्तान पर कब्जा कर रहे हैं। उचित यही होता कि शाह शुजा को धन और अस्त्र-शस्त्रों से सहायता दी जाती।
दूसरे, ऑकलैंड को एलफिंस्टन की जगह किसी युवा सेनापति को नियुक्त करना चाहिए था और सेना को बाला हिसार किले में रखना चाहिए था।
तीसरे, ऑकलैंड को भारत और काबुल के बीच सुरक्षित यातायात की व्यवस्था कर लेनी चाहिए थी और कबीलाई मुखियों को धन देना बंद नहीं करना चाहिए था। इस प्रकार ऑकलैंड की नीति की असफलता का कारण उसका दोषपूर्ण क्रियान्वयन था।
हाल के एक नये प्रकाशन (2013) में लॉर्ड ऑकलैंड को ‘एक चतुर और सक्षम, लेकिन कुछ हद तक आत्म-संतुष्ट और अलग ह्विग रईस’ के रूप में वर्णित किया गया है। ऑकलैंड ने 1839 में कलकत्ता से दिल्ली तक ग्रैंड ट्रंक रोड की मरम्मत करवाई, उसने भारतीय छात्रों को डॉक्टरी की पढ़ाई करने के लिए विदेश जाने की अनुमित प्रदान की और बंबई तथा मद्रास में मेडिकल कॉलेज की स्थापना की। इस प्रकार अफगानिस्तान में अपनी विफलताओं के बावजूद, ऑकलैंड गवर्नर जनरल के रूप में भारत का एक उत्कृष्ट प्रशासक था।
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