लोदी वंश (1451-1526 ई.)
लोदी वंश दिल्ली सल्तनत का पाँचवाँ और अंतिम राजवंश था, जिसने 1451 से 1526 तक शासन किया। यह दिल्ली का पहला अफगान शासक परिवार था, जो सुलेमान पर्वत के पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले गिलजाई कबीले की शाहूखेल शाखा से संबंधित था। इस कबीले में ताजिक या तुर्क रक्त का मिश्रण पाया जाता था। 14वीं शताब्दी तक ये लोग अज्ञात और निर्धन जीवन व्यतीत करते थे, अपनी जीविका पशुपालन से चलाते थे और कभी-कभी पड़ोसी समृद्ध क्षेत्रों पर छापेमारी कर लूटपाट करते थे। महमूद गजनवी ने उनके उच्छृंखल और लड़ाकू स्वभाव को पहचाना और उन्हें अपने अनुयायी के रूप में शामिल किया। गोरवंशीय शासकों के समय ये अफगान लोग पहाड़ी विद्रोही के रूप में जाने गए, जबकि भारत के इलबरी शासकों ने इनका उपयोग सैन्य शक्ति के रूप में अपनी चौकियों को मजबूत करने और विरोधी क्षेत्रों पर कब्जा करने के लिए किया। यह प्रवृत्ति मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में और बढ़ी जब एक अफगान को सूबेदार बनाया गया और कुछ समय के लिए दौलताबाद में सुल्तान भी बना। फीरोज तुगलक के शासनकाल (1379 ई.) में अफगानों का प्रभाव बढ़ा, जब मलिक वीर को बिहार का सूबेदार नियुक्त किया गया। बाद में दौलत खाँ लोदी (1412-1414) ने दिल्ली की सर्वोच्च सत्ता प्राप्त की, हालाँकि उसने स्वयं को सुल्तान की उपाधि से नहीं सुशोभित किया। सैयद शासनकाल में अफगानों का प्रभाव और प्रबल हुआ, जो बहलोल लोदी के समय दिल्ली सल्तनत में सर्वोच्च शक्ति बन गया।
बहलोल लोदी (1451-1489 ई.)
बहलोल लोदी मलिक काला के पुत्र और मलिक बहराम के पौत्र थे, जो सुल्तानशाह लोदी के भतीजे थे। सुल्तानशाह की मृत्यु के पश्चात् वह लाहौर और सरहिंद के शासक बने। 1451 ई. तक उन्होंने मुल्तान, लाहौर, दीपालपुर, समाना, सरहिंद, सुंनाम, हिसार फिरोजा और कई अन्य परगनों पर अधिकार जमा लिया। 19 अप्रैल 1451 को वह अबू मुजफ्फर बहलोल शाह के नाम से दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुए। गद्दी पर बैठने के बाद उन्हें अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसमें जौनपुर के शर्की सुल्तान उनके प्रमुख विरोधी थे। फिर भी, उन्होंने विजित प्रदेशों में अपनी स्थिति मजबूत की और अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
उपलब्धियाँ
केंद्र की सुदृढ़ीकरण: केंद्र की सुदृढ़ीकरण के लिए बहलोल ने रणनीतिक कदम उठाए, क्योंकि सल्तनत उस समय अत्यंत कमजोर थी और प्रांतीय शासकों व सरदारों की स्वतंत्रता के कारण केंद्रीय शक्ति कमजोर पड़ रही थी। उन्होंने अमीरों और सरदारों को भेंट, पुरस्कार और जागीरें देकर अपने पक्ष में किया, जो उनकी कूटनीतिक चतुराई का परिचायक था और सल्तनत के भीतर मजबूत आधार प्रदान किया। विशेष रूप से अफगान सरदारों को महत्त्व देकर उनकी निष्ठा सुनिश्चित की, जो सैन्य और प्रशासनिक रीढ़ थे। इसके अतिरिक्त, उन्होंने अपने पुराने वजीर हमीद खाँ को, जो शक्ति का एक स्वतंत्र केंद्र बन गया था, चतुराई से कैदखाने में डालकर उसके प्रभाव को समाप्त किया। यह कदम केंद्रीय सत्ता को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण साबित हुआ, क्योंकि हमीद खाँ की स्वतंत्रता सुल्तान के लिए चुनौती बन सकती थी।
विद्रोहों का दमन: विद्रोहों के दमन के लिए बहलोल ने सैन्य और कूटनीतिक दोनों उपायों का सहारा लिया, क्योंकि सल्तनत के अंतर्गत कई प्रांतीय शासक और जमींदार स्वतंत्रता की राह पर चल पड़े थे। दोआब क्षेत्र में हिंदू जमींदारों और स्थानीय शासकों ने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी, जिसे बहलोल ने कठोरता से दबाया और क्षेत्र पर दिल्ली सल्तनत का नियंत्रण पुनः स्थापित किया। बंगाल का सूबेदार तुगरिल खाँ, जो स्वतंत्र रूप से शासन कर रहा था और दिल्ली की सत्ता को चुनौती दे रहा था, को बहलोल ने पराजित कर मार डाला और उसके समर्थकों को लखनौती के मुख्य बाजार में फाँसी पर लटका दिया। इस कठोर कार्रवाई ने अन्य प्रांतीय शासकों को स्पष्ट संदेश दिया। इसके पश्चात् उन्होंने अपने पुत्र बुगरा खाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया और विद्रोह न करने की चेतावनी दी। मेवात के अहमद खाँ, संभल के दरिया खाँ, कोईल के ईसा खाँ और रेवाड़ी के कुतुब खाँ जैसे विद्रोहियों को भी परास्त कर उन्हें अपने अधीन किया। चित्तौड़ पर विजय प्राप्त कर उन्होंने राजपूत क्षेत्रों में सल्तनत का विस्तार किया। इसके अतिरिक्त, मैनपुरी, मोन गाँव, इटावा, चंदवार और दोआब के अन्य जिलों के नायकों को पराजित कर उन्हें अपने सामंत के रूप में नियुक्त किया, जिससे खोए हुए क्षेत्रों पर पुनः नियंत्रण स्थापित हुआ।
जौनपुर की विजय: जौनपुर की विजय बहलोल की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक थी, क्योंकि जौनपुर सल्तनत दिल्ली के लिए एक प्रमुख चुनौती थी। वहाँ के शर्की शासक स्वतंत्र रूप से शासन कर रहे थे और दिल्ली पर कब्जा करने का प्रयास कर रहे थे। बहलोल ने हुसैन शाह शर्की को परास्त कर 1486 ई. में जौनपुर को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया, जो न केवल सैन्य दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थी, बल्कि सल्तनत की प्रतिष्ठा को भी सुदृढ़ किया। जौनपुर एक सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से समृद्ध क्षेत्र था, जिसकी विजय ने सल्तनत की शक्ति और संसाधनों को बढ़ाया। विजय के पश्चात् उन्होंने अपने सबसे बड़े जीवित पुत्र बारबक शाह को जौनपुर का राजप्रतिनिधि नियुक्त किया, ताकि वहाँ का प्रशासनिक नियंत्रण बना रहे और नया विद्रोह न हो।
पश्चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा: पश्चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा के लिए बहलोल ने मंगोल आक्रमणों से निपटने के रणनीतिक उपाय किए। उन्होंने अपने बड़े पुत्र मुहम्मद खाँ को मुल्तान का हाकिम नियुक्त किया, जो मंगोल आक्रमणों को रोकने में महत्त्वपूर्ण था। 1478 ई. में मंगोलों ने भारत पर आक्रमण का प्रयास किया, लेकिन शाहआलम मुहम्मद खाँ ने उन्हें पीछे खदेड़ दिया। 1485 ई. में मंगोलों ने पुनः आक्रमण किया और मुल्तान तक पहुँच गए, जहाँ मुहम्मद खाँ की मृत्यु हो गई। फिर भी, बहलोल ने स्वयं सीमा के आसपास पड़ाव डालकर मंगोलों के खिलाफ सतर्कता बनाए रखी, जिसने सल्तनत की पश्चिमोत्तर सीमा को सुरक्षित रखा।
ग्वालियर अभियान: ग्वालियर अभियान बहलोल का अंतिम सैन्य प्रयास था, जो उनकी सैन्य कुशलता और महत्वाकांक्षा का प्रतीक था। उन्होंने ग्वालियर के राजा कीरत सिंह को परास्त कर उसे दंडित किया, जिससे सल्तनत को अकूत संपत्ति प्राप्त हुई और दिल्ली की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई। ग्वालियर एक रणनीतिक और आर्थिक रूप से महत्त्वपूर्ण क्षेत्र था, और इस विजय ने सल्तनत की शक्ति को और बढ़ाया।
प्रशासनिक और सामाजिक योगदान के क्षेत्र में बहलोल ने अफगान सरदारों के साथ समानता का व्यवहार किया, जो उनकी विनम्रता और नेतृत्व शैली को दर्शाता है। वह अपने सरदारों को मसनद-ए-अली कहकर बुलाता था और समानता की नीति अपनाता था। उसने मुस्लिम शक्ति की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की, दरबार में शालीनता और अनुशासन पर जोर दिया और विद्वानों का संरक्षण किया। उन्होंने ‘बहलोली सिक्के’ का प्रचलन शुरू किया, जो अकबर के समय तक उत्तर भारत में विनिमय का प्रमुख माध्यम बना और आर्थिक स्थिरता लाया। उनके दरबार में राय प्रताप सिंह, राय करन सिंह, राय नरसिंह, राय त्रिलोकचंद्र और राय दादू जैसे हिंदू सरदार शामिल थे, जो उनकी समावेशी नीति का प्रतीक था और सल्तनत को सामाजिक एकता प्रदान की। हालाँकि स्वयं विद्वान न होने के बावजूद उन्होंने विद्वानों को प्रोत्साहन दिया और गरीबों की सहायता के लिए कई कदम उठाए, जिससे उनकी प्रजा के बीच लोकप्रियता बढ़ी।
मृत्यु और मूल्यांकन
जुलाई 1489 ई. में ग्वालियर अभियान से लौटते समय बहलोल बीमार पड़ गए और जलाली शहर के निकट उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के समय सल्तनत के उत्तराधिकार को लेकर उनके पुत्रों और रिश्तेदारों के बीच षड्यंत्र चल रहे थे। फिर भी, उनकी मृत्यु तक सल्तनत की स्थिति पहले की तुलना में कहीं अधिक मजबूत हो चुकी थी। बहलोल ने दिल्ली सल्तनत को एक कठिन दौर से उबारकर उसे स्थिरता और शक्ति प्रदान की। उनकी कूटनीति, समावेशी नीतियाँ और प्रशासनिक सुधारों ने विभिन्न समुदायों को एकजुट किया, जो हिंदू-मुस्लिम एकता का आधार बनी।
सिकंदर लोदी (1489-1517 ई.)
सिकंदर लोदी का मूल नाम निजाम खाँ था, बहलोल का द्वितीय पुत्र था, जो उनकी हिंदू पत्नी स्वर्णकार हेमा की संतान था। 17 जुलाई 1489 ई. को जलाली में वह सिकंदर शाह के नाम से सुल्तान बने, हालाँकि उन्हें अपने भाई बारबकशाह और चाचा आलम खाँ के विरोध का सामना करना पड़ा। सिकंदर ने कूटनीति से इन चुनौतियों का समाधान किया और राज्य को एकजुट रखा।
उपलब्धियाँ
विद्रोहों का दमन: सिकंदर लोदी एक योग्य शासक साबित हुए और अपने पिता से प्राप्त राज्य का विस्तार किया। उन्होंने विद्रोहों को दबाने के लिए सैन्य और कूटनीतिक रणनीतियाँ अपनाई। अपने चाचा आलम खाँ, जो रापड़ी और चंदावर का सूबेदार था और सुल्तान बनने का सपना देख रहा था, को परास्त किया। आलम खाँ भागकर ईसा खाँ के पास गया, लेकिन सिकंदर ने दोनों को हराकर विद्रोह को कुचल दिया। अपने भाई बारबक शाह, जो जौनपुर का सूबेदार था, को परास्त कर जौनपुर को दिल्ली सल्तनत में मिलाया। 1494 ई. में हुसैन शाह शर्की को बनारस के समीप हराकर बिहार को सल्तनत में शामिल किया और दरिया खाँ को बिहार का सूबेदार नियुक्त किया। तिरहुत के राजा को कर देने के लिए बाध्य किया और बंगाल के अलाउद्दीन हुसैन शाह के साथ संधि की, जिससे पूर्वी सीमाएँ सुरक्षित हुईं। तातार खाँ और आजम हुमायूँ जैसे विद्रोही सरदारों को भी परास्त किया।
राजपूत विजय: राजपूत विजयों के माध्यम से सिकंदर ने धौलपुर, मंद्रेल, उतागिरी, नरवर और नागौर पर कब्जा किया, जिससे सल्तनत की सीमाएँ राजस्थान और मध्य भारत तक विस्तारित हुईं। 1504 ई. में उन्होंने आगरा शहर की नींव रखी और 1506 ई. में इसे राजधानी बनाया, जिससे क्षेत्रीय नायकों पर नियंत्रण आसान हुआ।
शासन-प्रबंध: शासन-प्रबंध में उन्होंने अफगान सरदारों पर कड़ा नियंत्रण रखा और सुल्तान की श्रेष्ठता स्थापित की। 30 इंच का प्रमाणिक पैमाना ‘गज-ए-सिकंदरी’ प्रचलित कर भूमि माप और कर व्यवस्था को मानकीकृत किया। अनाज और व्यापारिक कर हटाकर खाद्यान्न पर जकात समाप्त की, जिससे वस्तुओं के दाम कम हुए और आंतरिक व्यापार को बढ़ावा मिला। गुप्तचर विभाग का पुनर्गठन कर प्रशासनिक नियंत्रण मजबूत किया और निर्धनों के लिए मुफ्त भोजन की व्यवस्था कर प्रजा के प्रति दयालुता दिखाई।
धार्मिक नीति: धार्मिक नीति में सिकंदर ने ज्वालामुखी मंदिर सहित कई मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनवाईं और हिंदुओं पर जजिया कर पुनः लागू किया। ताजिया निकालने और मुस्लिम महिलाओं के मजारों पर जाने पर रोक लगाई, साथ ही एक ब्राह्मण को हिंदू-मुस्लिम समानता की बात कहने पर फाँसी दी, जो उनकी विवादास्पद नीति को दर्शाता है।
विद्या और कला का संरक्षण: विद्या और कला के संरक्षण में उन्होंने ‘गुलरुखी’ उपनाम से फारसी कविताएँ लिखीं और लज्जत-ए-सिकंदरशाही (संगीत ग्रंथ) की रचना करवाई। आयुर्वेद ग्रंथ का फारसी में फरहंगे सिकंदरी के नाम से अनुवाद करवाया। उनका दरबार विद्वानों का केंद्र बना, जहाँ 70 विद्वान रात्रि में चर्चा करते थे, और मस्जिदों को शिक्षा केंद्र बनाकर फारसी सीखने वाले हिंदुओं को प्रोत्साहित किया।
आर्थिक और सामाजिक योगदान के तहत सिकंदर ने आंतरिक व्यापार कर समाप्त कर वस्तुओं के दाम कम किए और प्रजा की शिकायतें स्वयं सुनकर निष्पक्ष न्याय किया। आगरा को व्यापारिक और प्रशासनिक केंद्र के रूप में विकसित किया।
21 नवंबर 1517 ई. को आगरा में गले की बीमारी के कारण सिकंदर की मृत्यु हो गई, जिसके पश्चात् उनके पुत्र इब्राहीम और जलाल के बीच गद्दी के लिए संघर्ष हुआ।
इब्राहिम लोदी (1517-1526 ई.)
सिकंदर का पुत्र इब्राहिम लोदी 1517 में सुल्तान बना। उनकी शासकीय योग्यता कमजोर थी और उन्हें अनेक विद्रोहों का सामना करना पड़ा। राणा सांगा ने मेवाड़ का साम्राज्य पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक विस्तारित किया और आगरा पर हमले की धमकी दी। पूर्व में भी विद्रोह शुरू हो गए। इब्राहिम ने पुराने वरिष्ठ सेना कमांडरों को वफादार नए कमांडरों से बदलकर दरबार के नवाबों को नाराज कर दिया, जिससे उनके अपने लोग उन्हें धमकाने लगे। अंततः अफगान दरबारीयों ने काबुल के बाबर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया।
उपलब्धियाँ
ग्वालियर विजय: इब्राहिम ने ग्वालियर पर अपने सरदार आजम हुमायूँ शेरवानी के माध्यम से आक्रमण किया, जहाँ शासक विक्रमजीत सिंह ने सैन्य दबाव के कारण उनकी अधीनता स्वीकार कर ली। यह विजय सल्तनत की मध्य भारत में स्थिति को मजबूत करने में सहायक थी।
जौनपुर का दमन: इब्राहिम ने अपने भाई जलाल खाँ, जिसने जौनपुर में स्वतंत्रता की घोषणा कर जलालुद्दीन की उपाधि धारण की थी, को सैन्य अभियान चलाकर परास्त किया, बंदी बनाया और उसकी हत्या कर दी, जिससे जौनपुर पुनः सल्तनत के नियंत्रण में आया।
राणा सांगा से संघर्ष: मेवाड़ के राणा सांगा ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक साम्राज्य विस्तार किया। मेवाड़ के राणा सांगा के विरुद्ध खतौली युद्ध (1517-1518) में इब्राहिम हार गए।
दुर्बलताएँ
इब्राहिम का हठी और अभिमानी स्वभाव उनके सरदारों के प्रति दमनकारी नीति का कारण बना। उन्होंने लोहानी, फरमूली और लोदी सरदारों को दबाने का प्रयास किया, जिससे ये शक्तिशाली सरदार असंतुष्ट हो गए। बिहार के सरदारों ने दरिया खाँ लोदी के नेतृत्व में स्वतंत्रता की घोषणा की, और दौलत खाँ लोदी व आलम खाँ ने बाबर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया। उनकी कूटनीतिक अक्षमता ने सल्तनत को आंतरिक रूप से कमजोर किया और बाहरी शत्रुओं को अवसर प्रदान किया। सिकंदर लोदी के प्रशासनिक सुधारों को बनाए रखने में उनकी असफलता और सरदारों के साथ विश्वास की कमी ने सल्तनत की स्थिति को और खराब किया।
पानीपत का प्रथम युद्ध (1526 ई.)
दौलत खाँ लोदी और आलम खाँ के निमंत्रण पर बाबर ने भारत पर आक्रमण किया। इब्राहिम की आंतरिक कमजोरियों ने बाबर को यह अवसर प्रदान किया। 21 अप्रैल 1526 को पानीपत के मैदान में बाबर की 15,000 सैनिकों और 20-24 तोपों की सेना ने इब्राहिम की 100,000-130,000 सैनिकों और 300 हाथियों की सेना को परास्त किया। बाबर ने तुगलमा युद्ध-पद्धति और तोपखाने का कुशल उपयोग किया। इस युद्ध में इब्राहिम मारा गया, जिसके साथ दिल्ली सल्तनत का अंत हो गया और बाबर ने मुगल वंश की स्थापना की।
मूल्यांकन
लोदी वंश ने सैयद वंश की अस्थिरता को समाप्त कर दिल्ली सल्तनत को पुनर्जनन प्रदान किया। बहलोल लोदी ने सल्तनत को संगठित किया और उसकी नींव मजबूत की। सिकंदर लोदी ने प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से सल्तनत को आधुनिक रूप दिया, जबकि इब्राहिम लोदी ने सैन्य अभियानों के जरिए विस्तार की कोशिश की। हालाँकि, अफगान सरदारों के साथ संघर्ष और आंतरिक कलह ने वंश को कमजोर किया। तैमूरवंशी बाबर के आक्रमण ने दिल्ली सल्तनत का अंत कर मुगल साम्राज्य की शुरुआत की, जो तीन शताब्दियों तक भारत पर राज करने वाला नया युग था।










