असहयोग आंदोलन (Non-Cooperation Movement)

खिलाफत आंदोलन (Khilafat Movement)

1919 से 1922 के बीच अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध दो सशक्त जन-आंदोलन चलाये गये- खिलाफत और असहयोग आंदोलन। इन आंदोलनों की पृष्ठभूमि उन घटनाओं की श्रृंखला में निहित है, जो प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान और उसके बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय संदर्भ में उठाये गये कदमों के कारण घटित हुई थीं। यद्यपि खिलाफत और असहयोग दोनों आंदोलन पृथक्-पृथक् मुद्दों को लेकर प्रारंभ हुए थे और दोनों का प्रत्यक्ष रूप से कोई संबंध नहीं था, फिर भी, दोनों ने ही भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को प्रोत्साहित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

खिलाफत आंदोलन

खिलाफत आंदोलन की पृष्ठभूमि

खिलाफत आंदोलन भारतीय मुसलमानों द्वारा धार्मिक कारणों से किया गया था। तुर्की का सुल्तान ‘खलीफा’ अर्थात् धार्मिक-राजनीतिक क्षेत्र में मुसलमानों के प्रमुख के रूप में प्रतिष्ठित था। मुसलमान चाहते थे कि तुर्की की स्थिति पर किसी भी प्रकार से कोई आँच नहीं आनी चाहिए। यही कारण है कि 1911-12 में ट्राईपोलिटन और बाल्कन युद्धों के समय तुर्की की सहायता के लिए भारत में एक ‘तुर्की राहतकोष’ बनाया गया था और मार्च1912 में एक चिकित्सा दल (रेड क्रेसेंट मेडिकल मिशन) भेजा गया था। अलीबंधुओं (मुहम्मद अली व शौकत अली) ने मुसलमानों के पवित्र जगहों की सुरक्षा के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से अब्दुल बारी के लखनऊ स्थित फिरंगीमहल उल्मा संप्रदाय के समर्थन से 1913 में ‘कुल-हिंद अंजुमने-खुद्दामे-काबा’ (अखिल भारतीय काबा सेवक सभा) का गठन किया था।

शिक्षित मुस्लिम नेतृत्व का उदय

बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों से ही एक नया शिक्षित मुस्लिम नेतृत्व उभरने लगा था, जो सर सैयद अहमद खाँ की वफादारी की राजनीति और पुरानी पीढ़ी के कुलीनवाद से दूर होकर पूरे समुदाय का समर्थन पाने का प्रयास कर रहा था। मुहम्मद अली के ‘कामरेड’ (कलकत्ता), अबुल कलाम आजाद के ‘अल-हिलाल’ (कलकत्ता) या जफर अली खान के ‘जमींदार’ (लाहौर) जैसी मुस्लिम पत्र-पत्रिकाओं के अखिल-इस्लामी और ब्रिटिश-विरोधी स्वर ने मुस्लिम युवकों को आकृष्ट किया। मुस्लिम समुदाय की लामबंदी के लिए 1910 में ‘जीयतुल अंसार’ (भूतपूर्व छात्र सभा) और 1913 में दिल्ली में एक कुरान मदरसा शुरू किया गया था। नये शिक्षित मुस्लिम नेतृत्व के साथ-साथ उलेमा भी एक नई राजनीतिक शक्ति के रूप में भारत के विभिन्न मुस्लिम समूहों के बीच एक अहम् कड़ी के रूप में उभर रहे थे।

हिंदू-मुस्लिम एकता

प्रथम विश्वयुद्ध के पहले और उसके दौरान तीन राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं, जैसे 1911-12 में इटली और बाल्कन के युद्धों में इंग्लैंड द्वारा तुर्की को सहायता न देना, अगस्त 1912 में अलीगढ़ में मुस्लिम विश्वविद्यालय बनाने के प्रस्ताव को हार्डिंग्स द्वारा अस्वीकार किया जाना और 1913 में कानपुर में एक मस्जिद के साथ लगे चबूतरे को तोड़ने के परिणामस्वरूप होने वाले दंगे के कारण हिंदू-मुस्लिम राजनीतिक एकीकरण की एक व्यापक पृष्ठभूमि तैयार हुई। बाद में, 1916 में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच होनेवाले लखनऊ समझौते से ‘फूट डालो और राज करो’ की ब्रिटिश नीति भी असफल हो चुकी थी।

खिलाफत आंदोलन का तात्कालिक कारण
ब्रिटिश सरकार का विश्वासघात

1914 में प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ होने पर तुर्की का सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय जर्मनी की ओर से युद्ध में सम्मिलित हो गया। जब 14 नवंबर 1914 को रूस, इंग्लैंड और फ्रांस ने तुर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी, तो भारतीय मुसलमानों के सामने यह दुविधा उत्पन्न हो गई कि वे अपने धर्मगुरु तुर्की के सुल्तान की सहायता करे या अंग्रेजों की ओर से विश्वयुद्ध में भाग लें। एक ओर धार्मिक कारण थे तो दूसरी ओर राजनीतिक निष्ठा का सवाल था। 1915 में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में अध्यक्ष मजहर-उल-हक ने कहा कि ‘हमारे लिए बड़े दुःख की बात है कि हमारे खलीफा की सरकार हमारे सम्राट की सरकार से लड़ रही है, अंग्रेज और मुसलमान सरकारों में संघर्ष मुसलमानों के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। इस्लाम के अनुयायियों की यह कामना है कि जल्द से जल्द शांति की स्थापित हो और भविष्य में मुसलमानों की प्रतिष्ठा पर आँच न आये।’ लेकिन अधिकांश भारतीय मुसलमान नेता, जैसे अली बंधु (मुहम्मद अली व शौकत अली), मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी, अब्दुल बारी, मौलाना अल हसन व हकीम अजमल खाँ तुर्की का साथ देने के पक्ष में थे। मुहम्मद अली ने अपने ‘कामरेड’ नामक पत्र के द्वारा भी तुर्की का समर्थन किया था।

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों के लिए भारतीय मुसलमानों का सहयोग आवश्यक था। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री लॉर्ड जार्ज ने भारतीय मुसलमानों से वादा किया था : ‘‘यदि भारतीय मुसलमान इस महायुद्ध में अंग्रेजों का साथ देंगे, तो विजय के बाद अंग्रेज तुर्की की अखंडता को बनाये रखेंगे और अरब तथा मेसोपोटामिया के इस्लामिक धार्मिक स्थलों की रक्षा करेंगे।’’ जार्ज ने कहा था : ‘‘हम इसलिए नहीं लड़ रहे हैं कि एशिया माइनर और थ्रैंस के समृद्ध और प्रसिद्ध भू-भागों को, जहाँ अधिकतर तुर्क जाति के लोग निवास करते हैं, तुर्की से छीन लें।’’ लॉर्ड जार्ज द्वारा इस प्रकार का आश्वासन दिये जाने के बाद भारतीय मुसलमानों ने प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों का साथ दिया।

किंतु विश्वयुद्ध में विजयी मित्र-राष्ट्रों ने 10 अगस्त 1920 को तुर्की के साथ सेव्रेस की संधि की और इस संधि के द्वारा न केवल तुर्की के पुराने आटोमॉन साम्राज्य को विघटित कर तुर्की के सुल्तान के समस्त अधिकार छीन लिय गये, बल्कि उसके कुछ प्रदेशों को स्वतंत्र कर दिया और कुछ क्षेत्रों पर इंग्लैंड तथा फ्रांस ने अधिकार कर लिया। इससे तुर्की के सुल्तान की स्थिति एक कैदी जैसी हो गई। ब्रितानी प्रधानमंत्री के इस विश्वासघात से भारतीय मुसलमान स्तब्ध रह गये। जब मुसलमानों ने भारत के वायसराय को अपनी पीड़ा बताई तो वायसराय ने बड़ी बेरूखी से दो-टूक जवाब दिया: ‘‘तुर्की उससे अधिक और किसी व्यवहार की आशा नहीं करता, जिसकी आशा जर्मनी के पक्ष में तलवार उठानेवाले अन्य देश करते हैं। उसे युद्ध में शामिल होने (अंग्रेजों के विरुद्ध) के परिणाम तो भुगतने ही होंगे।’’ विश्वासघात की इससे अधिक जघन्य और कोई मिसाल नहीं मिल सकती।

खिलाफत आंदोलन का आरंभ

अंग्रेजों के विश्वासघात से क्षुब्ध होकर भारतीय मुसलमानों ने खिलाफत की पुनर्स्थापना के लिए जो आंदोलन चलाया, उसे ‘खिलाफत आंदोलन’ कहते हैं। यद्यपि सेव्रेस की संधि 1920 में हुई थी, किंतु भारतीय मुसलमानों को 1918 से ही अंग्रेजों की नीयत पर शक होने लगा था, क्योंकि अंग्रेजों के भड़काने पर ही 1918 में अरबों ने अपने खलीफा के विरुद्ध विद्रोह किया था। यही कारण है कि दिसंबर 1918 में मुस्लिम लीग के दिल्ली अधिवेशन में मक्का के शरीफ हुसैन की कटु आलोचना की गई थी और माँग की गई थी कि मुस्लिम राष्ट्रों की अखंडता को अक्षुण्ण रखा जाए और इस्लाम के पवित्र एवं धार्मिक स्थलों को खलीफा को लौटाया जाये।

खिलाफत आंदोलन (Khilafat Movement)
खिलाफत आंदोलन

जिस समय दिसंबर 1918 ई. में दिल्ली में मुस्लिम लीग का अधिवेशन हो रहा था, उसी समय दिल्ली में ही मदनमोहन मालवीय की अध्यक्षता में कांग्रेस का अधिवेशन चल रहा था। इस अवसर पर गांधीजी ने भारतीय मुसलमानों की माँगों का समर्थन किया। 17 अगस्त 1919 को राष्ट्रीय स्तर पर ‘अखिल भारतीय खिलाफत दिवस’ मनाया गया और मोहम्मद अली और शौकत अली (अलीभाइयो), अबुल कलाम आज़ाद, हसरत मोहानी आदि ने मिलकर सितंबर, 1919 में ‘अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी’ का गठन किया गया, जिसने ‘खिलाफत आंदोलन’ को प्रारंभ किया। इसी समय उलेमाओं ने भी ‘जमायत-उल-उलेमा’ की स्थापना की।

खिलाफत आंदोलनकारियों की मुख्यतः तीन माँगें थीं- एक, मुसलमानों के धार्मिक स्थलों पर तुर्की के सुल्तान और खलीफा की धार्मिक तथा लौकिक प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित किया जाए; दूसरे, खलीफा के युद्ध के पहले के क्षेत्रों को उसी के पास रहने दिया जाए ताकि वह इस्लामी जगत के प्रमुख के रूप में अपनी स्थिति को बनाये रख सके और इस्लाम की रक्षा कर सके और तीसरे, जजीरतुल-अरब (अरब, सीरिया, इराक और फिलीस्तीन) पर मुसलमानों की संप्रभुता बनी रहे।

अंग्रेजों ने खिलाफत आंदोलनकारियों की माँगों को पूरा करने में कोई रुचि नहीं ली, जिससे भारतीय मुसलमानों का आक्रोश बढ़ता जा रहा था। मुहम्मदअली के अनुसार विश्वभर के मुसलमानों के लिए खिलाफत सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्था है और तुर्की के प्रति उनकी प्रतिष्ठा धार्मिक है। तुकी साम्राज्य के अंत का अर्थ था मुसलमानों की अंतराष्ट्रीय एकता का अंत। अतः मुहम्मदअली ने भारतीय मुसलमानों से भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का आह्वान किया, क्योंकि उनका मानना था कि गुलाम भारत तुर्की और खलीफा की सहायता करने में समर्थ नहीं है।

इस समय तक गांधीजी रौलट एक्ट और पंजाब की घटनाओें के विरूद्ध आंदोलन करने की घोषणा कर चुके थे। गांधीजी ने ‘खिलाफत आंदोलन को हिंदुओं और मुसलमानों में एकता स्थापित करने का ऐसा अवसर जाना जो कि अगले सौ वर्षों तक नहीं मिलेगा।’ गांधीजी खिलाफत के प्रति पूर्ण समर्थित थे और चाहते थे कि इस मुद्दे को लेकर सरकार के विरुद्ध सत्याग्रह तथा असहयोग आंदोलन शुरू किया जाए। तिलक धार्मिक मुद्दों पर मुस्लिम नेताओं के साथ संधि करने के पक्ष में नहीं थे, साथ ही वे ‘सत्याग्रह’ को एक राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग किये जाने के प्रति भी आशंकित थे। गांधीजी के दबाव में कांग्रेस ने हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने और मुस्लिम समुदाय को राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्यधारा में लाने के लिए खिलाफत आंदोलन में मुसलमानों की सहायता करने के लिए गांधीजी के राजनैतिक कार्यक्रम को स्वीकृति प्रदान कर दी। संघर्ष के संवैधानिक तरीकों पर से कांग्रेस का विश्वास धीरे-धीरे कम होता जा रहा था, विशेष रूप से पंजाब की घटनाओं के संबंध में हंटर कमीशन की भेदभावपूर्ण व दमनकारी सिफारिशों के कारण। गांधीजी ने कहा: ‘‘यह ठीक मेरी नैतिक जिम्मेदारी की भावना है जिसने मुझे खिलाफत के प्रश्न को हाथ में लेने तथा मुसलमानों के सुख-दुःख में उनका साथ देने के लिए प्रेरित किया है। यह पूरी तरह सत्य है कि मैं हिंदू-मुस्लिम एकता में सहयोग दे रहा हूँ और उसे प्रोत्साहित कर रहा हूँ।”

खिलाफत आंदोलन में नरमलीय और जुझारू दो धाराएँ विकसित हुईं। पहली धारा का केंद्र सेंट्रल खिलाफत कमेटी थी ,जिसका संगठन 1919 के आरंभ में मुंबई के चोटानी जैसे समृद्ध व्यापारियों ने किया था। दूसरी धारा में निम्न मध्य वर्ग के पत्रकार और उल्मा सम्मिलित थे जिनका संयुक्त प्रांत, बंगाल, सिंध और मलाबार के छोटे कस्बों और गाँवों में पर्याप्त प्रभाव था। मुंबई के नरमदलीय नेता आंदोलन को संयत सभाओं, ज्ञापनों और प्रतिनिधिमंडलों को लंदन और पेरिस भेजने तक ही सीमित रखना चाहते थे। गांधीजी ने नरमपंथियों और जुझारू तत्वों, दोनों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा करके अपने-आपको महत्त्वपूर्ण बना लिया। खिलाफत नेताओं के लिए गांधीजी हिंदू राजनीतिज्ञों से संपर्क की अनिवार्य कड़ी थे।

अनेक इतिहासकारों ने कांग्रेस-खिलाफत गठबंधन की इस आधार पर आलोचना की है कि गांधी ने अखिल भारतीय उद्देश्यों के लिए सर्व-इस्लामियत को प्रयोग करने का प्रयास किया, तो अलीबंधुओं ने अखिल भारतीयता को सर्व-इस्लामी उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया और जब इस स्वांग का अंत हुआ तो दोनों अपने सही रूप में आ गये। अलीबंधुओं के लिए गहरा हरा रंग और गांधी के लिए पीला केसरिया रंग। गांधी ने ईश्वर-अल्लाह तेरे नाम का खूब गान किया है, किंतु गांधी ईश्वर और अल्लाह अर्थात् हिंदुओं व मुसलमानों में आपसी सहभोज तथा विवाह के पूर्णतः विरुद्ध थे। इसलिए गांधी द्वारा हिंदू-मुस्लिम एकता और भातृभाव का गुणगान करना केवल एक छलावा था। किंतु तत्कालीन परिस्थितियों में गांधी का प्रमुख उद्देश्य हिंदू मुसलमानों को निकट लाकर भारत की संपूर्ण जनशक्ति को राष्ट्रीय आंदोलन में लगाना था, इसलिए गांधीजी की यह आलोचना निराधार है।

नवंबर 1919 में मुस्लिम लीग ने अपने दिल्ली सम्मेलन में राजनैतिक प्रश्न के मुद्दे पर आंदोलन चलाने के लिए कांग्रेस को पूर्ण समर्थन देने का निश्चय किया। दिल्ली में 22-23 नवंबर 1919 को अखिल भारतीय खिलाफत कांग्रेस में जुझारू समूह के हसरत मोहानी ने पहली बार भारत में ब्रिटिश सरकार के साथ असहयोग की वकालत की और अंग्रेजी वस्तुओं के बहिष्कार करने का आह्वान किया। किंतु खिलाफत नेता हिंदू-मुसलमान एकता के लिए बहुत उत्सुक थे क्योंकि असहयोग आंदोलन के लिए सेवाओं और परिषदों का बहिष्कार करना आवश्यक था जो हिंदुओं के सहयोग के बिना संभव नहीं था। हिंदुओं का सहयोग लेने के लिए दिसंबर 1919 में मुस्लिम लीग ने बकरीद पर गोकशी न करने का आह्वान किया।

दिसंबर 1919 में गांधीजी ने कांग्रेसी नेताओं के साथ खिलाफत नेताओं से मिलकर मुसलमानों की समस्या पर विचार-विमर्श किया। 19 जनवरी 1920 को डॉ. अंसारी की अध्यक्षता में हिंदुओं तथा मुसलमानों के एक संयुक्त प्रतिनिधिमंडल ने वायसरॉय चेम्सफोर्ड से मिलकर खिलाफत के प्रश्न को हल करने की माँग की, किंतु वायसराय ने इस प्रतिनिधिमंडल को कोई आश्वासन नहीं दिया। इसके बाद एक प्रतिनिधिमंडल मुहम्मदअली जिन्ना के नेतृत्व में इंग्लैंड भी भेजा गया, लेकिन उसे भी कोई विशेष सफलता नहीं मिली।

सरकार के साथ असहयोग

20 फरवरी 1920 को कलकत्ता में मौलाना अबुलकलाम आजाद की अध्यक्षता में खिलाफत सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसके आधार पर 10 मार्च 1920 को संपूर्ण भारत में ‘काला दिवस’ मनाया गया और उसी दिन गांधीजी ने घोषणा की कि खिलाफत का प्रश्न सांविधानिक सुधारों तथा पंजाब के अत्याचारों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। खिलाफत नेतृत्व ने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि युद्ध के बाद शांति की शर्तें मुसलमानों के लिए प्रतिकूल रहीं तो वे सरकार के साथ सभी तरह का सहयोग बंद कर देंगे। शौकत अली ने अप्रैल 1920 में अंग्रेजों को सचेत किया कि यदि वे भारतीय मुसलमानों को खुश करने में सफल नहीं हुए, तो ‘हम असहयोग का एक संयुक्त हिंदू-मुस्लिम आंदोलन शुरू करेंगे। शौकतअली ने इस बात पर जोर दिया कि गांधीजी, जिनका मुसलमान और हिंदू दोनों सम्मान करते हैं, आंदोलन के नेता के रूप में काम करेंगे। गांधीजी ने भी ब्रिटिश सरकार को चेतावनी दी कि यदि तुर्की के साथ शांति-संधि की शर्तें भारतीय मुसलमानों को संतुष्ट नहीं करतीं, तो वे असहयोग आंदोलन शुरू कर देंगे।

15 मई 1920 को तुर्की के साथ सेव्रेस की संधि की कड़ी शर्तें प्रकाशित हुईं, जिसकी शर्तों को देखकर मुसलमान भयभीत हो उठे। 20 मई 1920 को मुंबई में खिलाफत कमेटी की बैठक में खिलाफत आंदोलन को गांधीजी द्वारा प्रारंभ किये जाने वाले असहयोग आंदोलन में सम्मिलित करने की घोषणा की गई। उसी माह 28 मई को पंजाब के उपद्रवों से संबंधित हंटर आयोग की बहुमतवाली रिपोर्ट भी आ गई। अब गांधीजी ने कांग्रेस पर पंजाब के अत्याचार, खिलाफत के अत्याचार और स्वराज जैसे तीन मुद्दों पर केंद्रित कार्यक्रम बनाने के लिए जोर दिया।

असहयोग का कार्यक्रम

इलाहाबाद में 1 से 3 जून 1920 तक केंद्रीय खिलाफत समिति की बैठक हुई, जिसमें कांग्रेस और खिलाफत के कई नेताओें ने भाग लिया। इस बैठक में सरकार के साथ असहयोग का एक कार्यक्रम घोषित किया गया, जिसमें सरकारी उपाधियों का बहिष्कार, सभी सरकारी नौकरियों का बहिष्कार और करों की नाअदायगी सम्मिलित था। इसके बाद 9 जून 1920 को इलाहाबाद में एक सर्वदलीय सम्मेलन में सर्वसम्मति से स्कूलों, कालेजों और अदालतों के बहिष्कार का एक कार्यक्रम बनाया गया और गांधीजी को इस आंदोलन की अगुआई करने का अधिकार दिया गया।

गांधीजी ने 22 जून को वायसराय को एक नोटिस दिया : ‘‘कुशासन करनेवाले शासक को सहयोग देने से इनकार करने का अधिकार हर व्यक्ति को है। सम्राट की सरकार ने खिलाफत के मामले में कपट, अनैतिकता और अन्यायपूर्ण कार्य किया है।….ऐसी सरकार के लिए मेरे मन में न आदर रह सकता है और न ही सद्भाव।’’ महात्मा गांधी ने 1 अगस्त 1920 को असहयोग आंदोलन के साथ खिलाफत आंदोलन को भी जोड़ दिया, जिससे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के एक नये चरण की शुरुआत की।

इस प्रकार खिलाफत आंदोलन असहयोग आंदोलन का ही एक हिस्सा बन गया। यद्यपि 4 फरवरी 1922 को चौरी चौरा की घटना के बाद गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन की वापसी से खिलाफत आंदोलन को गहरा धक्का लगा, फिर भी खिलाफत आंदोलन किसी तरह चलता रहा। इसके बाद 1923 में मुस्तफा कमालपाशा ने तुर्की का सुल्तान बनने के बाद पहले तुर्की को गणतंत्र घोषित किया और फिर जब 3 मार्च 1924 को खलीफा के पद को समाप्त कर दिया, तो खिलाफत आंदोलन का भी अंत हो गया।

खिलाफत का असहयोग आंदोलन में औचित्य

इतिहासकारों ने असहयोग आंदोलन में खिलाफत आंदोलन को शामिल करने को लेकर गांधीजी की बड़ी आलोचना की है। विद्वानों का विचार है कि खिलाफत आंदोलन एक धार्मिक आंदोलन था, जबकि असहयोग एक राजनीतिक आंदोलन था। खाविद-विद-सईद का कहना है : “मुसलमान भारत की स्वतंत्रता के लिए उतना नहीं लड़ रहे थे जितना इसलिए कि तुर्की में खिलाफत को बनाये रखा जाये। उधर गांधीजी खिलाफत को एक ऐसे हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे जिससे स्वराज्य की दिशा में भारत की गति तेज की जा सके।”

गांधी ने एक ऐसे आंदोलन (खिलाफत) के द्वारा राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मुसलमानों का सहयोग चाहा जो संभवतः भारत की स्वतंत्रता आंदोलन के लिए उचित नहीं था। भारत स्वयं तो स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा था, दूसरी ओर गांधीजी खिलाफत आंदोलन को समर्थन देकर अरब के कुछ मुस्लिम तथा कुछ गैर-मुस्लिम लोगों को सामंती अधिकार में रखने में सहायक बन रहे थे। आर.सी. मजूमदार के शब्दों में ‘सर्व-इस्लामिक आंदोलन स्वयं भारतीय राष्ट्रवाद पर प्रहार था। महात्मा गांधी ने स्वयं स्वीकार किया था कि भारतीय मुसलमानों के लिए भारत के स्वशासन से भी अधिक महत्वपूर्ण खिलाफत है। ऐसी स्थिति में खिलाफत आंदोलन के साथ जुड़ने का क्या औचित्य था।’ सच तो यह है कि स्वयं तुर्की में ही खिलाफत का विरोध हो रहा था और युवा-तुर्क निरंतर खलीफा की शक्ति को चुनौती दे रहे थे। दरअसल खिलाफत आंदोलन की बुनियाद ही गलत थी…. भारतीय मुसलमानों का विचार था कि वे तुर्की के मुसलमानों के हित में ऐसा कर रहे हैं, जबकि तुर्की के मुसलमान इसका उपहास करते हुए इसे मध्ययुगीन भौंड़ापन कहते थे। इसके विपरीत, गांधीजी की दृष्टि में हिंदू-मुस्लिम एकता के बिना स्वराज्य प्राप्त करना असंभव था। गांधीजी ने स्वयं कहा भी था कि ‘मैं जिन्ना के विचार से सहमत हूँ कि हिंदू-मुसलमान एकता का अर्थ स्वराज्य है। जब तक भारत में हिुदू मुसलमान एक-दूसरे से घुलमिल नहीं जाते भारत के लिए स्वराज्य एक असंभव सपना बना रहेगा।’ स्वयं जिन्ना का भी यही मानना था और ब्रिटिश सरकार भी जानती थी कि यदि हिंदू-मुसलमान एक हो गये तो भारत पर शासन करना मुश्किल होगा।

खिलाफत आंदोलन का महत्त्व इस बात में है कि इसने हिंदुओं और मुसलमानों को एकजुट किया। यद्यपि इस आंदोलन का उद्देश्य खिलाफत को बचाना और भारतीय मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा करना था, फिर भी इससे हिंदू-मुस्लिम एकता और सहयोग को बढ़ावा मिला। इस आंदोलन में हिंदुओं ने मुसलमानों का साथ दिया, जिससे कुछ समय के लिए सांप्रदायिक तनाव को कम करने में सहायता मिली। इस आंदोलन ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ एकजुटता की भावना को बढ़ावा दिया और पहली बार बड़ी संख्या में मुसलमान कांग्रेस की ओर आकर्षित हुए।

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