महिष्मती के कलचुरी (Kalachuris of Mahishmati)

कलचुरियों की सबसे प्राचीन शाखा मध्य भारत में नर्मदा नदी के ऊपरी तट पर शासन […]

महिष्मती के कलचुरी

कलचुरियों की सबसे प्राचीन शाखा मध्य भारत में नर्मदा नदी के ऊपरी तट पर शासन करती थी, जिसकी राजधानी महिष्मती (वर्तमान महेश्वर) थी। महिष्मती पर उनके शासन का प्रमाण राजशेखर के बालरामायण और मुरारी के अनर्घुराघव जैसे बाद के ग्रंथों से मिलता है, जिनमें महिष्मती को कलचुरी राजाओं की राजधानी बताया गया है। इसकी पुष्टि हैहयवंश के कुछ परवर्ती राजकुमारों के अभिलेखों से भी होती है, जिन्होंने दक्षिण में चालुक्यों के सामंतों के रूप में शासन किया।

महिष्मती के कलचुरी वंश का आदिपुरुष और संस्थापक कृष्णराज था। उसके बाद शंकरगण और बुद्धराज ने शासन किया। इन आरंभिक कलचुरी शासकों ने छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी के बीच उज्जयिनी, विदिशा, आनंदपुर और विदर्भ के कुछ हिस्सों पर शासन किया।

त्रिपुरी के कलचुरियों से पृथक करने के लिए महिष्मती के कलचुरियों को ‘आद्य कलचुरी’ या ‘प्रारंभिक कलचुरी’ भी कहा जाता है। पुरालेखीय और मुद्राशास्त्रीय स्रोतों से पता चलता है कि एलीफेंटा और एलोरा गुफाओं के सबसे प्राचीन स्मारक कलचुरी शासन के दौरान ही बनाये गये थे।

ऐतिहासिक स्रोत

महिष्मती के कलचुरियों के इतिहास की जानकारी अभिलेखों, सिक्कों, उत्खनित अवशेषों, साहित्यिक ग्रंथों, दंतकथाओं और किंवदंतियों से होती है।

अभिलेख

इस राजवंश के सबसे पुराने शिलालेख अभोना (नासिक, महाराष्ट्र) और संखेड़ा (गुजरात) में पाये गये हैं, जो शंकरगण प्रथम (575-600 ई.) के शासनकाल के हैं। इस शाखा के अंतिम ज्ञात शासक बुद्धराज (600-620 ई.) के भी वडनेर (महाराष्ट्र) और सरसावनी (गुजरात) से दो अभिलेख मिले हैं। इन शिलालेखों से इस राजवंश के शासकों के शासनकाल और तत्कालीन राजनीतिक-सांस्कृतिक गतिविधियों पर प्रकाश पड़ता है।

सिक्के

महिष्मती के कलचुरी शासक कृष्णराज (550-575 ई.) द्वारा जारी किये गये चाँदी के सिक्के राजस्थान, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के विभिन्न स्थानों से मिले हैं, जिन्हें ‘कृष्णराज रूपक’ कहा गया है। उसके कुछ सीसे के सिक्के एलोरा की प्राचीनतम गुफाओं से भी मिले हैं। इन सिक्कों से प्रारंभिक कलचुरी राज्य के क्षेत्रीय विस्तार, आर्थिक समृद्धि, व्यापारिक संपर्क और कलात्मक विकास के साथ-साथ शासकों की धार्मिक अभिरूचि पर भी प्रकाश पड़ता है।

उत्खनित अवशेष

महिष्मती के कलचुरी शासकों द्वारा बनवाये गये दुर्ग, मंदिर, महल, तालाब और अन्य संरचनाएँ उनकी सर्जनात्मक बुद्धि, कलात्मक अभिरूचि, धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक सरोकारों की सूचना प्रदान करते हैं। एलोरा और एलिफेंटा की गुफाओं के कुछ प्राचीन स्मारक, कलचुरीकालीन बर्तन, आभूषण, कलाकृतियाँ और अवशेष भी उनकी सांस्कृतिक और कलात्मक विकास के परिचायक हैं।

साहित्यिक स्रोत

साहित्यिक स्रोतों में पुराणों, स्मृतियों और कुछ जैन ग्रंथों के साथ-साथ राजशेखर द्वारा रचित ‘बालरामायण’ और मुरारी के संस्कृत नाटक ‘अनर्घराघव’ जैसे उत्तरवर्ती ग्रंथ भी उपयोगी हैं। इन ग्रंथों से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।

दंतकथाएँ और किंवदंतियाँ

कलचुरियों के इतिहास-निर्माण में कुछ दंतकथाएँ और किंवदंतियाँ भी सहायक हैं, जैसे- ‘कलचुरी’ नाम की उत्पत्ति ‘कल्ली’ (लंबी मूंछें) और ‘छुरी’ (तेज चाकू) शब्दों से मानी जाती है। यह भी कहा जाता है कि कलचुरी शासक घोड़ा (हय) और नाग (अहि) रखते थे, जिससे उन्हें ‘हैहय’ कहा गया।

महिष्मती के कलचुरियों की उत्पत्ति

कलचुरियों की उत्पत्ति स्पष्ट नहीं है। शिलालेखों में उनका नाम कलच्चुरि, कलत्सुरी, कटच्चुरी, कलचुरि, कलचुरी, कुलचुरी, हैहय मिलता है। डी.आर. भंडारकर के अनुसार कलचुरी शक, यवन और खस जैसी विदेशी मूल की जनजातियों के हिंदू वंशज थे, लेकिन यह मत विद्वानों को स्वीकार्य नहीं है।

त्रिपुरी के परवर्ती कलचुरियों ने स्वयं को महाभारत के चंद्रवंशीय हैहय शासक कार्तवीर्य अर्जुन का वंशज बताया है, जो अपनी शक्ति और युद्ध-कौशल के लिए प्रसिद्ध था। 12वीं शताब्दी के पृथ्वीराज विजय से भी पता चलता है कि त्रिपुरी के कलचुरी चंद्रवंशीय पौराणिक शासक कार्तवीर्य से संबंधित थे। वी.वी. मिराशी के अनुसार त्रिपुरी के कलचुरी महिष्मती के कलचुरियों से संबंधित थे। इस प्रकार महिष्मती के कलचुरियों को भी चंद्रवंशी क्षत्रिय माना जा सकता है।

लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं है कि त्रिपुरी के कलचुरी महिष्मती से संबंधित थे। महिष्मती के कलचुरियों ने किसी अभिलेख में स्वयं को ‘हैहयवंशीय’ नहीं कहा है, बल्कि यह नाम उनके दक्षिणी पड़ोसी चालुक्यों के 7वीं और 8वीं शताब्दी ईस्वी के कुछ शिलालेखों में मिलता है। संभवतः कलचुरियों को हैहय के रूप में इसलिए जाना जाता था क्योंकि उनकी राजधानी महिष्मती थी, जिसे पौराणिक परंपरा के अनुसार हैहय शासक महिष्मंत ने बसाया था।

इस प्रकार महिष्मती के कलचुरियों की उत्पत्ति अनिश्चित है। संभव है कि वे किसी स्थानीय जनजाति से संबंधित रहे हों।

महिष्मती के कलचुरियों का इतिहास

आरंभिक कलचुरी शासकों के संबंध में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है। अपुष्ट स्रोतों से पता चलता है कि सुबंधु और संगमसिंह इस वंश के आद्य शासक थे, जो किसी शक्तिशाली सत्ता के अधीनस्थ उच्चहरा से शासन करते थे। बाद में, इस राजवंश ने गुप्तों, वाकाटकों, विष्णुकुंडिनों और त्रिकुटकों द्वारा शासित क्षेत्रों पर अधिकार किया।

ऐतिहासिक स्रोतों में आरंभिक कलचुरी शाखा के तीन शासकों- कृष्णराज, शंकरगण और बुद्धराज का उल्लेख मिलता है। साहित्यिक स्रोतों से पता चलता है कि उनकी राजधानी मालवा क्षेत्र के महिष्मती में स्थित थी। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि आरंभिक कलचुरी शासकों का अभोना, संखेड़ा, सरसावनी और वडनेर पर अधिकार था, लेकिन छठी शताब्दी के मध्य तक इन कलचुरियों ने विदर्भ और उत्तरी कोंकण पर भी अधिकार कर लिया।

सातवीं शताब्दी के आरंभ में महिष्मती के अंतिम कलचुरी शासक बु़द्धराज को वातापी (बादामी) के चालुक्यों के हाथों पराजित होना पड़़ा और संभवतः उनकी अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।

महिष्मती के कलचुरी शासक

कृष्णराज (550-575 ई.)

महिष्मती के कलचुरी राजवंश का आदिपुरुष और संस्थापक कृष्णराज (550-575 ई.) था, जिसने 550 ई. के आसपास महिष्मती को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया। यद्यपि उसका कोई अभिलेख नहीं मिला है, लेकिन उसके सिक्के नासिक, अमरावती, बैतूल, जबलपुर, एलीफेंटा, एलोरा आदि स्थानों से पाये गये हैं।

550 ईस्वी के आसपास मध्य भारत की राजनीतिक स्थिति संभवतः कृष्णराज के अनुकूल थी। यशोधर्मन की मृत्यु के बाद मालवा में एक राजनीतिक शून्यता आ गई थी, महाराष्ट्र में वाकाटक शासन समाप्त हो गया था और गुजरात में मैत्रक शक्ति का हृास हो रहा था। कृष्णराज ने इस स्थिति का लाभ उठाकर दक्षिण में विदर्भ सहित महाराष्ट्र, उत्तर में गुजरात और राजपूताना तथा पश्चिम में उत्तरी कोंकण तक के प्रदेशों को अपने अधीन कर लिया। इसका प्रमाण उसके चाँदी के सिक्के हैं, जो उत्तर में राजस्थान से लेकर दक्षिण में सतारा ज़िले तक और पश्चिम में मुंबई (साल्सेट) से लेकर पूर्व में अमरावती तक कई स्थानों से पाये गये हैं।

कृष्णराज के शासनकाल में कलचुरियों ने व्यापार और कला के क्षेत्र में भी प्रगति की। उसने गुप्त शासक स्कंदगुप्त के सिक्कों की नकल कर ब्राह्मी लिपि में चाँदी के सिक्कों का प्रचलन किया, जिन्हें भोगशक्ति के अंजनेरी ताम्रलेख (710-711 ई.) में ‘कृष्णराज रूपक’ कहा गया है। कृष्णराज के चाँदी के सिक्के गोल आकार के और 29 ग्रेन वज़न के हैं, जिनके अग्रभाग पर राजा की अर्धप्रतिमा और पृष्ठभाग पर शिव के वाहन नंदी की आकृति का अंकन है।

कृष्णराज के शासनकाल में शैल शिल्पकला का प्रारंभिक विकास हुआ, क्योंकि उसके सीसे के सिक्के एलीफेंटा और एलोरा की प्राचीनतम गुफाओं से मिले हैं।

कृष्णराज शिव का भक्त (परममहेश्वर) था, जो उसके सिक्कों पर नंदी के अंकन से स्पष्ट है। उसके पुत्र शंकरगण के एक शिलालेख में उसे जन्म से ही पशुपति का भक्त बताया गया है। मौद्रिक साक्ष्यों से लगता है कि उसने एलिफेंटा और एलोरा में सबसे प्रारंभिक शैव गुफाओं का निर्माण करवाया, जहाँ से उसके सीसे के सिक्के पाये गये हैं।

शंकरगण (575-600 ई.)

कृष्णराज का पुत्र शंकरगण (575-600 ई.) महिष्मती की कलचुरी शाखा का संभवतः पहला शासक है, जिसका उल्लेख उसके शासनकाल के शिलालेखों से मिलता है। कलचुरी संवत् 347 (597 ई.) का अभोना शिलालेख कलचुरी राजवंश का सबसे पुराना अभिलेख है, जो शंकरगण के शासनकाल में उज्जैन के विजयी शिविर से जारी किया गया था। उसके शासनकाल का दूसरा शिलालेख संखेड़ा (नासिक) से मिला है, जो निर्गुंडीपद्रका (गुजरात) के विजयी शिविर से निर्गत किया गया था।

शंकरगण के शिलालेखों और उसकी परमभट्टारक, महाराजाधिराज तथा परमेश्वर जैसी उपाधियों से संकेत मिलता है कि इस शक्तिशाली शासक का मालवा और गुजरात के एक विशाल क्षेत्र पर अधिकार था। 595 ई. के आसपास शंकरगण ने पश्चिमी मालवा के परवर्ती शासक महासेनगुप्त को पराजित कर उज्जयिनी (उज्जैन) को जीत लिया। संभवतः इस युद्ध में महासेनगुप्त की मृत्यु हो गई। अभोना शिलालेख में शंकरगण को पश्चिमी महासागर से पूर्वी महासागर तक फैले एक विशाल क्षेत्र का स्वामी बताया गया है और भोगवर्धन (भोकरदन) में कल्लिवाना (नासिक) के एक ब्राह्मण को भूमिदान दिये जाने का उल्लेख है। यह शिलालेख उज्जैन के विजयी शिविर से निर्गत किया गया था, जो शंकरगण की मालवा में उपस्थिति का प्रमाण है।

शंकरगण का पश्चिमी तट पर स्थित गुजरात पर भी अधिकार था। इसकी पुष्टि उसके शासनकाल के दूसरे शिलालेख से होती है, जो संखेरा से मिला है। इस शिलालेख को उसके सैन्य अधिकारी शांतिल्ला ने निर्गुंडीपद्रका (मध्य गुजरात) के विजयी शिविर से निर्गत किया था, जो पश्चिमी भारत में उसके राज्य-विस्तार का सूचक है। इस प्रकार शंकरगण का साम्राज्य उत्तर में मालवा से लेकर दक्षिण में उत्तरी महाराष्ट्र तक फैला हुआ था।

शंकरगण ने स्वय को परममहेश्वर (शिवभक्त) बताया है। काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार 8वीं शताब्दी के ग्रंथ आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में उल्लिखित राजा गणशंकर की पहचान कलचुरी शासक शंकरगण से की जा सकती है।

बुद्धराज (600-620 ई.)

प्रारंभिक कलचुरी राजवंश का अंतिम ज्ञात शासक बुद्धराज (600-620 ई.) है। उसके शासनकाल के दो अभिलेख मिले है– एक कलचुरी संवत् 360 (609-610 ई.) का वडनेर (महाराष्ट्र) से और दूसरा कलचुरी संवत् 361 (610-611 ई.) का सरसावनी (गुजरात) से, जो क्रमशः विदिशा (मध्य प्रदेश) और आनंदपुर (भरूच, गुजरात) के विजयी शिविरों से जारी किये गये थे।

बुद्धराज के शासनकाल में वातापी के चालुक्य राजा मंगलेश (597-609 ई.) ने दक्षिण से कलचुरी साम्राज्य पर आक्रमण किया। मंगलेश के महाकूट और नेरूर शिलालेखों में उसकी कलचुरियों पर विजय का उल्लेख है, लेकिन वडनेर और सरसावनी शिलालेखों से पता चलता है कि वह बुद्धराज को पूरी तरह पराजित नहीं कर सका था। वडनेर शिलालेख के अनुसार बुद्धराज ने वातनगर (वडनेर) में एक गाँव का अनुदान दिया था, जो 608-09 ई. में मालवा क्षेत्र, विशेषकर विदिशा पर उसके नियंत्रण का प्रमाण है। सरसावनी शिलालेख में गुजरात के भरूच क्षेत्र में एक गाँव के अनुदान का उल्लेख है। इन शिलालेखों से स्पष्ट है कि बुद्धराज का पूर्व में आनंदपुर से पश्चिम में विदिशा के बीच के क्षेत्र पर अधिकार था और चालुक्य मंगलेश कलचुरियों को पूरी तरह पराजित नहीं कर सका था।

यह स्पष्ट नहीं है कि चालुक्य मंगलेश के दूसरे सैन्य अभियान में या उसके भतीजे पुलकेशिन द्वितीय के समय में बुद्धराज को चालुक्यों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। कुछ इतिहासकार मंगलेश को ही कलचुरी शक्ति को समाप्त करने का श्रेय देते हैं क्योंकि उसके अभिलेखों में कलचुरियों की पराजय का उल्लेख है। दूसरी ओर कुछ इतिहासकार मानते हैं कि पुलकेशिन द्वितीय ने कलचुरियों को चालुक्यों के अधीन किया क्योंकि ऐहोल लेख में उसकी कोंकण और ‘तीन महाराष्ट्रों’ की विजय का वर्णन है। ऐसा लगता है कि 625 ई. के आसपास पश्चिमी मालवा और महाराष्ट्र कलचुरियों के हाथ से निकल गये, क्योंकि 630 ई. तक कलचुरियों के नासिक क्षेत्र पर चालुक्यों का अधिकार हो चुका था, जो पुलकेशिन द्वारा उस क्षेत्र में दिये गये ग्राम अनुदानों से स्पष्ट है।

बुद्धराज भी पूर्ववती कलचुरी शासकों की भाँति परममहेश्वर (शिव का भक्त) था। उसकी रानी अनंतमहायी पाशुपत संप्रदाय से संबंधित थी।

बुद्धराज के उत्तराधिकारियों के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं है। ऐसा लगता है कि चालुक्यों से पराजित होने के बाद महिष्मती के कलचुरी बादामी के चालुक्यों की अधीनता में शासन करते रहे। चालुक्य शासक विनयादित्य के 687 ईस्वी के एक शिलालेख से पता चलता है कि इस समय तक कलचुरी चालुक्य सामंत बन चुके थे और बाद के वर्षों में दोनों राजवंशों के बीच वैवाहिक संबंध भी स्थापित हुए।

वी.वी. मिराशी के अनुसार त्रिपुरी के कलचुरी महिष्मती की कलचुरी शाखा से संबंधित थे। उनका मानना है कि प्रारंभिक कलचुरियों ने अपनी राजधानी माहिष्मती से कालंजर और फिर वहाँ से त्रिपुरी स्थानांतरित की।

संखेड़ा में किसी तारालास्वामिन नामक राजकुमार द्वारा जारी एक शिलालेख में तारालास्वामिन को शिव का भक्त और उसके पिता महाराजा नन्ना को ‘कटाचुरी’ परिवार का सदस्य बताया गया है। लेकिन किसी अन्य कलचुरी अभिलेखों में तारालास्वामिन और नन्ना का उल्लेख नहीं मिलता है।

महिष्मती के कलचुरियों का सांस्कृतिक योगदान

कलचुरी राजवंश का भारतीय इतिहास में विशेष स्थान है, विशेषकर इसकी महिष्मती शाखा का, जो सबसे प्राचीन और प्रभावशाली थी। यह शाखा न केवल राजनीतिक दृष्टि से शक्तिशाली थी, बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से भी समृद्ध थी। शैव धर्म के संरक्षण और प्रचार के साथ-साथ कला और साहित्य के क्षेत्र में भी इस वंश का योगदान उल्लेखनीय रहा है।

महिष्मती के कलचुरी शासकों, विशेषकर कृष्णराज ने शैव धर्म को संरक्षण दिया और इस धर्म से संबंधित मंदिरों, मठों और घाटों का निर्माण करवाया। एलिफेंटा और एलोरा गुफाओं की प्राचीनतम गुफाएँ और शैव प्रतिमाएँ कलचुरियों के शासनकाल में निर्मित की गई थीं, जो शैव धर्म के प्रति उनके समर्पण के सूचक हैं।

महिष्मती के कलचुरियों ने कई महलों, मंदिरों और मठों और का निर्माण करवाया, जो उनकी कलात्मक और वास्तुकलात्मक प्रतिभा के प्रमाण हैं। एलिफेंटा और एलोरा की गुफाएँ तो कलचुरियों के धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान की मूर्त अभिव्यक्ति हैं।

एलिफेंटा गुफाएँ, जिन्हें ‘घारापुरी’ भी कहा जाता है, 6वीं से 8वीं शताब्दी के बीच निर्मित मानी जाती हैं, जिनका निर्माण संभवतः कलचुरी शासक कृष्णराज के संरक्षण में हुआ था। एलिफेंटा द्वीप से कृष्णराज के 31 ताँबे के सिक्के मिले हैं, जो संभवतः निर्माण कार्यों के लिए मजदूरों को मजदूरी के रूप में दिये गये थे।

एलोरा (औरंगाबाद, महाराष्ट्र) की गुफा संख्या 29 (दुमरलेनी गुफा) का स्थापत्य और उसकी मूर्तिकला शैली एलिफेंटा गुफाओं से मिलती-जुलती है, विशेषकर शिवमूर्तियों की भावाभिव्यक्ति और गतिशीलता में। इस समानता के आधार पर माना जाता है कि इसका निर्माण भी कलचुरियों के संरक्षण में हुआ। इन गुफाओं में विकसित स्थापत्य शैली और प्रतिमाओं ने बाद के राजवंशों को भी प्रभावित किया। मूर्तिकला में यथार्थता, भावप्रधानता, मिथकीय प्रसंगों की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति और गुफा निर्माण की उन्नत तकनीक कलचुरीकालीन कला का वैशिश्ट्य हैं।

कलचुरी काल में महिष्मती शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था। कलचुरियों ने संस्कृत भाषा को संरक्षण दिया और कई विद्वानों को आश्रय दिया, जिन्होंने संस्कृत में महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की।

इस प्रकार महिष्मती के कलचुरी शासक, विशेषकर कृष्णराज, ने पश्चिमी भारत में शैव धर्म, स्थापत्य कला और सांस्कृतिक स्थलों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। कलचुरियों ने अपनी राजनीतिक शक्ति का उपयोग न केवल साम्राज्य विस्तार, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहरों के निर्माण एवं संरक्षण के लिए भी किया। एलिफेंटा और एलोरा की गुफाएँ उनके धार्मिक दृष्टिकोण के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक संरचना, श्रम व्यवस्था और सांस्कृतिक उत्थान का जीवंत प्रमाण हैं, जो आज भी भारत की गौरवशाली विरासत का अभिन्न हिस्सा हैं।

महत्त्वपूर्ण प्रश्नावली

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
  1. महिष्मती के कलचुरियों के ऐतिहासिक स्रोतों का वर्णन कीजिए।
  2. महिष्मती के कलचुरी शासक कृष्णराज के शासनकाल की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।
  3. शंकरगण के शासनकाल में महिष्मती के कलचुरियों की उपलब्धियों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
  4. बुद्धराज के शासनकाल में चालुक्यों के साथ हुए संघर्ष का वर्णन कीजिए।
  5. बुद्धराज के वडनेर और सरसावनी शिलालेखों से क्या जानकारी प्राप्त होती है?
  6. महिष्मती के कलचुरियों के सांस्कृतिक योगदान का विवेचन कीजिए।
लघु उत्तरीय प्रश्न
  1. महिष्मती के कलचुरियों को ‘प्रारंभिक कलचुरी’ क्यों कहा जाता है?
  2. महिष्मती के कलचुरी त्रिपुरी के कलचुरियों से कैसे भिन्न हैं?
  3. ‘कृष्णराज रूपक’ सिक्कों की विशेषताएँ क्या थीं?
  4. शंकरगण के अभोना शिलालेख से क्या जानकारी मिलती है?
  5. बुद्धराज की रानी अनंतमहायी किस धार्मिक संप्रदाय से संबंधित थी?
  6. महिष्मती के कलचुरियों की उत्पत्ति के विभिन्न मतों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
बहुविकल्पीय प्रश्न

1.महिष्मती के कलचुरियों की राजधानी कहाँ थी?

(A) त्रिपुरी

(B) महेश्वर

(C) उज्जयिनी

(D) विदिशा

उत्तर: (B) महेश्वर

2. महिष्मती के कलचुरी वंश का संस्थापक कौन था?

(A) शंकरगण

(B) बुद्धराज

(C) कृष्णराज

(D) सुबंधु

उत्तर: (C) कृष्णराज

3. महिष्मती के कलचुरियों को और किस नाम से जाना जाता है?

(A) आद्य कलचुरी

(B) परवर्ती कलचुरी

(C) चंद्रवंशी कलचुरी

(D) हैहयवंशी

उत्तर: (A) आद्य कलचुरी

4. कृष्णराज के सिक्कों को क्या कहा जाता था?

(A) नंदी रूपक

(B) चालुक्य रूपक

(C) शंकरगण रूपक

(D) कृष्णराज रूपक

उत्तर: (D) कृष्णराज रूपक

5. शंकरगण के शासनकाल का सबसे पुराना शिलालेख कहाँ से प्राप्त हुआ है?

(A) वडनेर

(B) सरसावनी

(C) अभोना

(D) एलिफेंटा

उत्तर: (C) अभोना

6. बुद्धराज के शासनकाल के शिलालेख कहाँ से प्राप्त हुए हैं?

(A) अभोना और संखेड़ा

(B) वडनेर और सरसावनी

(C) एलोरा और एलिफेंटा

(D) उज्जयिनी और विदिशा

उत्तर: (B) वडनेर और सरसावनी

7. महिष्मती के कलचुरियों ने किस धर्म को विशेष संरक्षण दिया?

(A) जैन धर्म

(B) बौद्ध धर्म

(C) शैव धर्म

(D) वैष्णव धर्म

उत्तर: (C) शैव धर्म

8. कृष्णराज के सिक्कों पर किसकी आकृति अंकित थी?

(A) गणेश

(B) नंदी

(C) विष्णु

(D) सूर्य

उत्तर: (B) नंदी

9. शंकरगण ने किस शासक को पराजित कर उज्जयिनी पर अधिकार किया?

(A) महासेनगुप्त

(B) यशोधर्मन

(C) मंगलेश

(D) पुलकेशिन द्वितीय

उत्तर: (A) महासेनगुप्त

10. महिष्मती के कलचुरियों का अंतिम ज्ञात शासक कौन था?

(A) कृष्णराज

(B) शंकरगण

(C) बुद्धराज

(D) तारालास्वामिन

उत्तर: (C) बुद्धराज

11. ‘कलचुरी’ नाम की उत्पत्ति किससे मानी जाती है?

(A) काल और चूर्ण

(B) कल्ली और छुरी

(C) कला और चुरि

(D) कुल और चूरी

उत्तर: (B) कल्ली और छुरी

12. महिष्मती के कलचुरियों को हैहयवंशी क्यों कहा गया?

(A) राजधानी महिष्मती के कारण

(B) युद्ध कौशल के कारण

(C) सिक्कों के कारण

(D) साहित्यिक योगदान के कारण

उत्तर: (A) राजधानी महिष्मती के कारण

13. बुद्धराज की रानी अनंतमहायी किस संप्रदाय से संबंधित थी?

(A) वैष्णव

(B) शाक्त

(C) पाशुपत

(D) जैन

उत्तर: (C) पाशुपत

14. महिष्मती के कलचुरियों का पतन किसके हाथों हुआ?

(A) गुप्त शासकों

(B) वाकाटक शासकों

(C) मैत्रक शासकों

(D) चालुक्य शासकों

उत्तर: (D) चालुक्य शासकों
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