काकतीय राजवंश (Kakatiya Dynasty)

काकतीय राजवंश एक तेलुगु राजवंश था, जिसने 12वीं से 14वीं शताब्दी के बीच पूर्वी दक्कन […]

Kakatiya Dynasty

काकतीय राजवंश एक तेलुगु राजवंश था, जिसने 12वीं से 14वीं शताब्दी के बीच पूर्वी दक्कन क्षेत्र, विशेष रूप से वर्तमान तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, पूर्वी कर्नाटक, उत्तरी तमिलनाडु और दक्षिणी उड़ीसा के कुछ हिस्सों पर शासन किया। उनकी राजधानी ओरुगल्लू (आधुनिक वारंगल) थी। प्रारंभिक काकतीय शासकों ने दो शताब्दियों से अधिक समय तक राष्ट्रकूट और पश्चिमी चालुक्यों के सामंतों के रूप में शासन किया। उन्होंने तेलंगाना क्षेत्र में अन्य चालुक्य अधीनस्थों का दमन करके 1163 ई. में प्रतापरुद्र प्रथम के काल में स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। 1163 ई. में प्रतापरुद्र प्रथम के नेतृत्व में उन्होंने तेलंगाना क्षेत्र में अन्य चालुक्य सामंतों को पराजित कर स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। गणपतिदेव (1199-1262 ई.) ने 1230 के दशक में काकतीय साम्राज्य का विस्तार किया और गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के तेलुगु भाषी डेल्टा क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित किया। उनके बाद रुद्रमा देवी (1262-1295 ई.) ने शासन किया, जिनकी प्रशासनिक कुशलता और स्वभाव की प्रशंसा इतालवी यात्री मार्को पोलो ने की है।

दिल्ली सल्तनत के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने 1309-1310 ई. में वारंगल पर आक्रमण किया और प्रतापरुद्र द्वितीय को वार्षिक कर देने के लिए विवश किया। 1323 ई. में उलूग खान (मुहम्मद बिन तुगलक) के आक्रमण का काकतीय सेना ने कड़ा प्रतिरोध किया, किंतु अंततः पराजित हुई। इस पराजय के साथ ही काकतीय राजवंश का पतन हो गया और क्षेत्र में कुछ समय के लिए अराजकता फैल गई। बाद में, मुसुनूरी नायकों ने तेलुगु कुलों को एकजुट कर वारंगल पर पुनः अधिकार प्राप्त किया।

काकतीयों ने तेलुगु समाज की उच्चभूमि (पठारी क्षेत्र के किसान, कारीगर तथा योद्धा) और निम्नभूमि (तटीय क्षेत्र के ब्राह्मण एवं व्यापारी) संस्कृतियों को एकीकृत कर सांस्कृतिक एकता स्थापित की। उनकी समतावादी शासन प्रणाली में जन्म या जाति के बजाय योग्यता और साहस को प्राथमिकता दी गई। इस प्रणाली ने किसानों को सेना में भर्ती कर एक नए योद्धा वर्ग का निर्माण किया, जिससे सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा मिला। उनकी वास्तुकला की विशिष्ट शैली के उदाहरण हनमकोंडा का हजार स्तंभ मंदिर, पालमपेट का रामप्पा मंदिर, वारंगल किला, गोलकुंडा किला और घनपुर का कोटा गुल्लू हैं। काकतीयों ने पठारी क्षेत्रों में ‘टैंक’ जलाशयों का निर्माण किया, जो कृषि के लिए जल संग्रहण और वितरण में उपयोगी थे। पाखल झील जैसे जलाशय उनके अभियांत्रिकी कौशल के प्रमाण हैं और आज भी उपयोग में हैं।

ऐतिहासिक स्रोत

Table of Contents

काकतीय इतिहास की जानकारी मुख्यतः शिलालेखों, साहित्यिक कृतियों और उनके द्वारा निर्मित स्मारकों से प्राप्त होती है। इन स्रोतों से काकतीय काल के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास की जानकारी प्रापत होती है।

अभिलेख

काकतीय इतिहास के लिए लगभग 1,000 शिलालेख और 12 ताम्रपत्र प्रमुख स्रोत हैं, जो अधिकतर मंदिरों को दान से संबंधित हैं और 1175-1324 ई. की अवधि के हैं, जब काकतीय राजवंश अपने चरम पर था। इनमें आंतरिक व्यापार मार्गों, औद्योगिक विकास और विभिन्न वस्तुओं के व्यापार का विस्तृत विवरण मिलता है।

काकतीय राजवंश के प्रमुख शिलालेखों में काजीपेट दरगाह शिलालेख (1163 ई.) सबसे महत्त्वपूर्ण है, जिसमें प्रोल द्वितीय की उपलब्धियों और स्वतंत्रता का वर्णन मिलता है। हनमकोंडा शिलालेख (1165 ई.) में रुद्रदेव की सैन्य विजयों और धार्मिक भक्ति का विवरण है। मोटुपल्ली शिलालेख में परवर्ती काकतीय शासकों के व्यापार और समुद्री नीतियों का उल्लेख है। गणपतिदेव के शासनकाल में ब्राह्मणों को दिए गए भूमि दान का उल्लेख पेरु शिलालेख (1159 ई.) में मिलता है।

साहित्यिक स्रोत

काकतीय और उत्तर-काकतीय काल की जानकारी अनेक संस्कृत और तेलुगु साहित्यिक कृतियों से प्राप्त होती है। इन प्रमुख कृतियों राजा गणपतिदेव द्वारा संस्कृत में रचित ‘नीतिसार’ काकतीय शासन की नीतियों और विचारधारा का सूचक है। इनके साथ ही ‘प्रतापरुद्रियं’, ‘क्रीडा भिराममु’, ‘पंडिताराध्य चरितमु’, ‘शिवयोगसारमु’, ‘नीतिशास्त्र मुक्तावली’, ‘नृत्यरत्नावली’, ‘प्रतापचरित्र’, ‘सिद्धेश्वर चरित्र’, ‘सोमदेव राजीयमु’, ‘पालनतिविराचरित्र’, ‘वेलुगोतिवारि-वंशावली’ और ‘वेलुगोतिवारि वंशचरित्र’ महत्त्वपूर्ण कृतियाँ काकतीय काल की सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों की जानकारी देती हैं। ‘कुमाररमण चरित’ के कन्नड़ पाठ से कंपिली साम्राज्य के साथ काकतीय संबंधों पर प्रकाश पड़ता है।

मुस्लिम लेखकों के विवरण: इसामी और फरिश्ता जैसे लेखकों ने प्रतापरुद्र की मुस्लिम सेनाओं के खिलाफ हार का वर्णन किया है। इनके अलावा, आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा प्रकाशित पी.वी.पी. शास्त्री की पुस्तक ‘काकतीय इतिहास’ (1978) भी एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक  स्रोत है।

स्थापत्य और स्मारक

काकतीय काल के किले, मंदिर और जलाशय समाज, कला और स्थापत्य के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। 13वीं शताब्दी में गणपतिदेव के शासनकाल में निर्मित वारंगल किला काकतीय वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। हजार स्तंभ मंदिर (रामप्पा मंदिर) अपनी जटिल नक्काशी और मूर्तिकला के लिए प्रसिद्ध है। पाखल झील जैसे जलाशय काकतीयों के अभियांत्रिकी कौशल के प्रमाण हैं।

उत्पत्ति और नामकरण

काकतीय राजवंश के शिलालेखों, अभिलेखों और सिक्कों में काकतीय, काकतीया, काकिता, काकती और काकत्य जैसे नाम मिलते हैं, जिनमें ‘काकतीय’ सबसे प्रचलित है। यह नाम उनकी कुलदेवी काकती से संबंधित है, जिसे माँ दुर्गा का स्वरूप माना जाता था। 15वीं शताब्दी के विद्वान कुमारस्वामी सोमपीठिन ने विद्यानाथ के प्रतापरुद्र यशोभूषणम में उल्लेख किया है कि राजवंश का नाम काकती से प्रेरित था। क्रीडा भिराममु में ओरुगल्लू में काकटम्मा (माँ काकती) की मूर्ति का उल्लेख है। 16वीं शताब्दी के शिताप खान शिलालेख में जगन्मातृका की मूर्ति और काकतिराज्य के कमलासन की पुनर्स्थापना का विवरण मिलता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि काकती मूलतः जैन धर्म की पद्मावती देवी थीं, जिन्हें बाद में हिंदू परंपरा में दुर्गा के रूप में स्वीकार किया गया, जो काकतीयों के जैन-हिंदू धार्मिक समन्वय का सूचक है।

काकतीय नाम की उत्पत्ति संभवतः काकती नामक स्थान से हुई, जहाँ प्रारंभिक काकतीय सरदार रहते थे। गणपतिदेव के बय्यारम टैंक शिलालेख के अनुसार 9वीं शताब्दी में काकतीय प्रमुख वेन्न काकती में रहते थे, जिसके कारण उनके वंशजों को ‘काकटिशस’ (काकती के स्वामी) कहा गया, जो बाद में काकतीय के रूप में प्रचलित हुआ। काकती की आधुनिक भौगोलिक पहचान अनिश्चित है। कुछ इतिहासकार इसकी पहचान कर्नाटक के काकती गाँव, छत्तीसगढ़ के कांकेर या महाराष्ट्र के कंधार (कंदरापुर) से करते हैं।

काकतीय शिलालेखों और गणपतिदेव के गरवपडु चार्टर में उनकी उत्पत्ति को प्राचीन चोल वंश के शासक करिकाल चोल के वंशज सरदार दुर्जय से जोड़ा गया है। लेकिन पी.वी.पी. शास्त्री इस दावे को अस्वीकार करते हैं, क्योंकि काकतीयों ने चोलों के कश्यप गोत्र का उल्लेख नहीं किया है और उनके राष्ट्रकूटों और चालुक्यों से सामंती और सांस्कृतिक संबंध अधिक स्पष्ट हैं।

भौगोलिक पृष्ठभूमि

काकतीय साम्राज्य का भौगोलिक आधार दक्कन का पठार था, जिसका केंद्र उत्तरी तेलंगाना के शुष्क और पठारी क्षेत्रों में था। राजधानी ओरुगल्लू (वारंगल) कृषि, कारीगरी और सैन्य गतिविधियों के लिए उपयुक्त थी। गणपतिदेव के शासनकाल (1199-1262 ई.) में साम्राज्य अपने चरम पर था, जो पश्चिम में अनगोंडी (महाराष्ट्र के निकट) से उत्तर-पूर्व में कल्याणी और दक्षिणी ओडिशा के केंजई और गंजम जिलों तक विस्तृत था। काकतीयों ने तटीय आंध्र प्रदेश तक अपनी सत्ता का विस्तार किया, जो गोदावरी और कृष्णा नदियों के उपजाऊ डेल्टा क्षेत्र और बंगाल की खाड़ी के समुद्री व्यापार के लिए महत्त्वपूर्ण था। इस भौगोलिक विस्तार ने साम्राज्य की आर्थिक और रणनीतिक शक्ति को सुदृढ़ किया।

काकतीय राजवंश का प्रारंभिक इतिहास

काकतीय राजवंश
काकतीय राजवंश

राष्ट्रकूटों के अधीन काकतीय प्रमुख

काकतीय राजवंश का उदय दक्षिण-पूर्वी दक्कन के तेलंगाना क्षेत्र में 8वीं से 10वीं शताब्दी के दौरान राष्ट्रकूटों और कल्याणी चालुक्यों के सामंती ढांचे में हुआ। मंगलु शिलालेख (956 ई.) में वेन्न के पुत्र गुंड तृतीय (लगभग 895 ई.) को राष्ट्रकूट सेनापति बताया गया है। बय्यारम टैंक शिलालेख में गुंड प्रथम और गुंड द्वितीय (लगभग 815-865 ई.) की तुलना परशुराम, दशरथ, राम और बलराम जैसे पौराणिक नायकों से की गई है। इतिहासकार पी.वी.पी. शास्त्री के अनुसार काकतीय राष्ट्रकूट परिवार की एक शाखा थे और जैन धर्म का पालन करते थे। राष्ट्रकूटकुटुंबि शब्द भी उनके राष्ट्रकूट संबंधों का परिचायक है।

गुंड तृतीय की मृत्यु राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय के वेंगी चालुक्य साम्राज्य पर आक्रमण के दौरान हुई। उनके पुत्र एर्रा को कुरवाडी (वर्तमान कुरावी) का गवर्नर नियुक्त किया गया। एर्रा और उनके पुत्र बेतिया के बारे में जानकारी सीमित है, लेकिन वे काकतीय वंशावली का हिस्सा थे।

बेतिया के पुत्र गुंड चतुर्थ (लगभग 955-995 ई.) ने राष्ट्रकूट जागीरदार के रूप में वेंगी चालुक्य राजकुमार दाणार्नव को सिंहासन पर बैठने में सहायता की। 973 ई. में राष्ट्रकूट साम्राज्य के पतन और दाणार्नव की हत्या के बाद गुंड चतुर्थ ने कुरावी में स्वतंत्र राज्य स्थापित करने का प्रयास किया, लेकिन कल्याणी चालुक्यों ने उन्हें पराजित कर दिया।

काकतीयों ने गरुड़ को अपने शाही प्रतीक के रूप में अपनाया, जो राष्ट्रकूटों और अन्य दक्कन राजवंशों द्वारा भी उपयोग किया जाता था। काजीपेट दरगाह शिलालेख में बेत द्वितीय को वृष्णि परिवार से संबंधित बताया गया है, जो उनकी सांस्कृतिक पहचान को दर्शाता है।

कल्याणी चालुक्यों के अधीन काकतीयों का उदय

काकतीय वंश का उदय कल्याणी चालुक्यों के शासनकाल में तेलंगाना क्षेत्र में हुआ। गुंड चतुर्थ के पुत्र बेत प्रथम (लगभग 1000-1052 ई.) ने कल्याणी चालुक्य आधिपत्य स्वीकार कर अनमकोंड (वर्तमान हनमकोंडा) की जागीर प्राप्त की। उनके पुत्र प्रोल प्रथम (लगभग 1052-1076 ई.) ने चालुक्य सैन्य अभियानों में भाग लिया, स्थानीय प्रमुखों को पराजित कर अनमकोंड के आसपास काकतीय नियंत्रण को मजबूत किया और चालुक्य प्रतीक ‘वराह’ को अपनाया, जो उनकी निष्ठा का प्रमाण है।

काकतीय वंश के शासक

बेत प्रथम (लगभग 1000-1052 ई.)

बेत प्रथम काकतीय वंश के पहले उल्लेखनीय शासक थे। काजीपेट (1090 ई.) और पालमपेट शिलालेखों के अनुसार उन्होंने चोल नरेश की सेना को परास्त कर काँची पर विजय प्राप्त की। यह संभवतः चालुक्य शासक सोमेश्वर प्रथम के चोलों के खिलाफ अभियान में सहयोग का काव्यात्मक उल्लेख है।

प्रोल प्रथम (लगभग 1052-1076 ई.)

बेत प्रथम के पुत्र प्रोल प्रथम ने चालुक्य शासक सोमेश्वर प्रथम के विरोधी सामंतों को दबाने में सहयोग किया, जिसके लिए उन्हें अनमकोंड विषय का शासक नियुक्त किया गया। सानिगारम शिलालेख में उल्लेख है कि चालुक्य राजा ने उन्हें सब्बीनाडु से पुरस्कृत किया, जो पहले वेमुलवाडा चालुक्यों द्वारा नियंत्रित था। काजीपेट शिलालेख के अनुसार प्रोल प्रथम ने चक्रकोट, काड़पर्ति, पूरकूट और भदंग के शासकों को पराजित किया और कोंकण के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की। बिल्हण के विक्रमांकदेवचरित्र में कहा गया है कि चालुक्य राजकुमार विक्रमादित्य षष्ठ ने 1066 ई. में कोंकण, चक्रकोट और वेंगी में अभियान चलाया, जिसमें प्रोल प्रथम ने सहयोग किया।

प्रोल प्रथम शैव धर्म के अनुयायी थे। उन्होंने अपने शैवाचार्य रामेश्वर को‘शिवपुर नामक ग्राम दान किया और केसरी की उपाधि धारण की। उन्होंने सिंचाई के लिए केसरीतटक (जगतिकेसरी) नामक तालाब खुदवाया, जिसकी पहचान केसमुद्रम के पास स्थित तालाब से की जाती है। उनकी मृत्यु 1076 ई. में हुई।

बेत द्वितीय (1076-1108 ई.)

बेत द्वितीय, जिन्हें बीटा द्वितीय भी कहा जाता है, ने अपने पिता प्रोल प्रथम की मृत्यु के बाद 1076 ई. में काकतीय सिंहासन सँभाला। वह कल्याणी चालुक्य सम्राट त्रिभुवनमल्ल विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1126 ई.) के सामंत थे। 1079 ई. के अनमकोंडा शिलालेख में उनका उल्लेख श्रीमान विक्रमचक्री श्री बीटामंडलिकोट्टम के रूप में किया गया है। चालुक्य सम्राट की कृपा से उन्हें वेमुलवाडा के आसपास केंद्रित सब्बी-1000 प्रांत की जागीर प्राप्त हुई, जिसमें अनमकोंड और कोराबी (कोरवी) के क्षेत्र शामिल थे।

बेत द्वितीय का प्रारंभिक शासनकाल संकटग्रस्त रहा। चालुक्य साम्राज्य में सोमेश्वर द्वितीय और विक्रमादित्य षष्ठ के बीच उत्तराधिकार युद्ध (1076 ई.) छिड़ गया। बेत द्वितीय ने संभवतः सोमेश्वर द्वितीय का पक्ष लिया, जिसके कारण विक्रमादित्य षष्ठ ने उनके खिलाफ स्थानीय सरदारों को भड़काया। 1079 ई. के हनमकोंडा शिलालेख में उनकी त्रिभुवनमल्ल उपाधि का अभाव इस संकटकाल का सूचक है। फिर भी, बेत द्वितीय ने अपने मित्रों और सहयोगियों के समर्थन से शत्रुओं को पराजित किया और कोरवी प्रदेश पर विजय प्राप्त की। 1082 ई. के बनजीपेट शिलालेख में उन्हें महामंडलेश्वर बेतारस और अनमकोंडा के स्वामी के रूप में उल्लेखित किया गया है।

1090 ई. में बेत द्वितीय ने सम्राट विक्रमादित्य षष्ठ से क्षमायाचना की, जिसके फलस्वरूप उन्हें सब्बी-1000 क्षेत्र के साथ-साथ अनमकोंड और कोराबी के जिले प्राप्त हुए। 1107 ई. के सानिगारम शिलालेख के अनुसार उन्होंने चालुक्य राजा के शासनकाल में विद्रोही सामंतों को दबाने और कर संग्रह में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1120 ई. के मतेदु शिलालेख में उल्लेख है कि पुलिंद परिवार के वेम्बोला बोड्डमा मल्लेनायक के पिता रेवा ने बेत द्वितीय की ओर से कर एकत्र किया और विद्रोहों का दमन किया। बेत द्वितीय ने विक्रमादित्य षष्ठ के मालवा और चोल अभियानों में भाग लिया, जिसके लिए उन्हें विक्रमचक्री और त्रिभुवनमल्ल उपाधियाँ प्राप्त हुईं, जिनका उल्लेख काजीपेट शिलालेख में है।

बेत द्वितीय ने हिंदू और जैन दोनों परंपराओं को संरक्षण प्रदान किया। 1082 ई. के काजीपेट शिलालेख के अनुसार उन्होंने चालुक्य जागीरदार मेदरसा द्वारा स्थापित एक जैन मंदिर को भूमि और एक घर दान किया। 1098 ई. के काजीपेट शिलालेख में अनमकोंड में शिवपुर नामक स्थान और बेतेश्वर नामक शैव मंदिर के निर्माण का उल्लेख है। 24 नवंबर 1090 को सूर्यग्रहण के अवसर पर उनके पुत्र दुर्गराज ने शैव तपस्वी रामेश्वर पंडित को शिवपुर दान किया, जो कालमुख संप्रदाय के थे और श्रीपर्वत के मल्लिकार्जुनशिला मठ के आचार्य थे।

बेत द्वितीय ने कल्याणी चालुक्यों के प्रतीक वराह को अपनाया और काकतीयों के पारंपरिक प्रतीक गरुड़ को भी बनाए रखा। उनके प्रशासन में उनके पुत्र दुर्गराज सक्रिय थे। 1098 ई. के काजीपेट शिलालेख के अनुसार दुर्गराज के एक मंत्री ने एक कीर्ति-स्तंभ स्थापित किया। बेत द्वितीय का शासनकाल संभवतः 1108 ई. में उनकी मृत्यु के साथ समाप्त हुआ, जिसके बाद उनके पुत्रों, पहले दुर्गराज और फिर प्रोल द्वितीय ने शासन किया।

दुर्गराज या दुर्गनृपति (1108-1117 ई.)

दुर्गनृपति (दुर्गराज) बेत द्वितीय के ज्येष्ठ पुत्र थे और 1108 ई. के आसपास काकतीय सिंहासन पर आसीन हुए। वे 1090 ई. से अपने पिता के शासनकाल में सह-शासक के रूप में सक्रिय थे। 1098 ई. के काजीपेट शिलालेख में उन्हें दुर्गाभूपाल और त्रिभुवनमल्ल की उपाधियाँ दी गई हैं, जो उनकी प्रशासनिक सक्रियता को दर्शाता है। 1107 ई. के सानिगारम शिलालेख भी उनकी भूमिका की पुष्टि करता है।

दुर्गनृपति का शासनकाल धार्मिक और प्रशासनिक गतिविधियों के लिए जाना जाता है, विशेष रूप से शैव परंपराओं के प्रति उनकी भक्ति के लिए। 24 नवंबर 1090 को सूर्यग्रहण के अवसर पर उन्होंने शैव तपस्वी रामेश्वर पंडित को शिवपुर ग्राम दान किया। 1098 ई. में उनके एक मंत्री ने एक कीर्ति-स्तंभ स्थापित किया।

दुर्गनृपति ने कल्याणी चालुक्य राजा विक्रमादित्य षष्ठ के अधीन सामंती शासक के रूप में कार्य किया। उनकी त्रिभुवनमल्ल उपाधि चालुक्य सम्राट के प्रति उनकी निष्ठा का परिचायक है। 1107 और 1117 ई. के बीच सब्बीनाडु क्षेत्र में राजनीतिक उथल-पुथल थी। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि दुर्गनृपति ने परमार राजकुमार जगदेव के साथ गठबंधन कर चालुक्य राजा के खिलाफ विद्रोह किया। इस विद्रोह को उनके भाई प्रोल द्वितीय ने दबाया, जो चालुक्यों के प्रति निष्ठावान थे। 1120 ई. के मतेदु शिलालेख के अनुसार वेम्बोला बोड्डमा मल्लेनायक के पिता रेवा ने काकतीय परिवार के कुछ सदस्यों को पराजित किया। संभवतः प्रोल द्वितीय ने दुर्गनृपति से सत्ता छीन ली। दुर्गनृपति का शासनकाल 1116 या 1117 ई. में समाप्त हुआ।

प्रोल द्वितीय (1117-1157 ई.)

प्रोल द्वितीय बेत द्वितीय के पुत्र और दुर्गराज के भाई 1117 ई. में काकतीय सिंहासन पर आसीन हुए। उनका पहला शिलालेख 1117 ई. का पद्माक्षी मंदिर शिलालेख है। गणपति के कोट्टपल्ली शिलालेख में उनकी दयालुता का उल्लेख है, जिसमें कहा गया है कि उन्होंने अपने भाई के पुत्र की रक्षा की, जो दुर्गराज के शासन के अचानक अंत को दर्शाता है।

सैन्य अभियान और विजय

प्रोल द्वितीय का शासनकाल सैन्य उपलब्धियों और कूटनीतिक सूझबूझ के लिए प्रसिद्ध है। उन्होंने कल्याणी चालुक्यों के सामंत के रूप में शुरुआत की और चालुक्य साम्राज्य की कमजोरी का लाभ उठाकर काकतीय सत्ता को स्वतंत्र रूप से स्थापित किया।

जगदेव के आक्रमण का प्रतिरोध

1163 ई. के अनमकोंड शिलालेख के अनुसार प्रोल द्वितीय ने परमार राजकुमार जगदेव के अनमकोंड पर आक्रमण को विफल किया। यह आक्रमण संभवतः 1107-1117 ई. के बीच हुआ। जगदेव और पोलवास के मेदराज प्रथम ने चालुक्य राजा के खिलाफ विद्रोह किया था, क्योंकि सब्बी-1000 प्रांत का नियंत्रण बेत द्वितीय को सौंपा गया था। प्रोल द्वितीय ने चालुक्यों के प्रति निष्ठा दिखाते हुए इस विद्रोह का दमन कर दिया।

गोविंद के विरुद्ध विजय

प्रोल द्वितीय ने चालुक्य सेनापति गोविंद को पराजित कर चोड सरदार उदय द्वितीय को पनुगल्लु का शासक पुनः स्थापित किया। 1163 ई. के अनमकोंड शिलालेख के अनुसार उन्होंने गोविंदराज को बंदी बनाया और बाद में मुक्त कर उदयराज को उनका राज्य सौंपा। यह अभियान 1130-1136 ई. के बीच हुआ।

तैलप की पराजय

चालुक्य राजा सोमेश्वर तृतीय के छोटे भाई तैलप ने कंदुरुनाडु प्रांत में स्वतंत्रता की घोषणा की। प्रोल द्वितीय ने चालुक्य जागीरदार के रूप में जगदेकमल्ल द्वितीय के विद्रोह-विरोधी अभियान में भाग लिया और 1163 ई. के अनमकोंड शिलालेख के अनुसार तैलप को बंदी बनाया, लेकिन वफादारी और स्नेह के कारण उसे मुक्त कर दिया।

गुमदा का दमन

प्रोल द्वितीय ने चालुक्य राजा जगदेकमल्ल द्वितीय के अभियान में मंत्रकूट (मंथेना विषय) के स्वामी गुमदा को पराजित किया। 1163 ई. के अनमकोंड शिलालेख के अनुसार उन्होंने गुमदा का सिर काट लिया। सहस्त्र स्तंभ मंदिर शिलालेख में उल्लेख है कि गुमदा का सिर मुँडवाकर और उसकी छाती पर चालुक्य और काकतीय प्रतीक वराह का चिह्न अंकित कर अपमानित किया गया।

एड की अधीनता

प्रोल द्वितीय ने मान्यक के एड को भी पराजित किया। 1163 ई. के अनमकोंड शिलालेख में उल्लेख है कि उन्होंने जगदेकमल्ल के सामने एड को युद्धभूमि से भगा दिया।

क्षेत्रीय विस्तार

प्रोल द्वितीय के शासनकाल में काकतीय सत्ता गोदावरी और कृष्णा नदियों के मध्यवर्ती क्षेत्र तक फैली। चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ की मृत्यु (1127 ई.) और 1135 ई. में चोलों द्वारा तैलप तृतीय की पराजय के बाद उत्पन्न अराजकता का लाभ उठाकर प्रोल ने तेलंगाना में काकतीय प्रभुत्व स्थापित किया। उनकी मृत्यु 1157 या 1158 ई. में वेलनाति चोड साम्राज्य पर आक्रमण के दौरान हुई। कोटा रानी सुरमा महादेवी के 1158 ई. के द्राक्षाराम शिलालेख में उनके पति कोटाचोदय राजा को काकती प्रोल निर्दाहन (काकतीय प्रोल को नष्ट करने वाला) की उपाधि दी गई है।

प्रोल द्वितीय ने हनमकोंडा में केशवदेव (हजार स्तंभ मंदिर) का निर्माण करवाया, जो उनकी स्थापत्य कला और धार्मिक भक्ति का प्रतीक है। उन्होंने मुप्पमम्बा (मुप्पमा) से विवाह किया, जो चालुक्य जागीरदार नटवाडी दुर्गराज की बहन थीं।

काकतीय राजवंश (Kakatiya Dynasty)
काकतीय वंश के आरंभिक शासक

स्वतंत्र काकतीय शासक

रुद्रदेव (1150-1196 ई.)

रुद्रदेव, जिन्हें प्रतापरुद्र प्रथम, वेंकट या वेंकटराय के नाम से भी जाना जाता है, प्रोल द्वितीय के सबसे बड़े पुत्र थे। वे 1150 ई. में अपने पिता की मृत्यु के बाद सिंहासन पर आसीन हुए। 1163 ई. में उन्होंने चालुक्य सामंती स्थिति समाप्त कर स्वतंत्रता की घोषणा की और शिलालेख तेलुगु में लिखवाए। उन्होंने राजधानी को अनमकोंड के निकट औरंगनगर (वारंगल) में स्थापित किया।

सैन्य अभियान

रुद्रदेव के सैन्य अभियानों ने काकतीय साम्राज्य को एक शक्तिशाली स्वतंत्र शक्ति के रूप में स्थापित किया।

उत्तरी विजय

1162 ई. के अनमकोंड शिलालेख के अनुसार रुद्रदेव ने करीमनगर और वारंगल के उत्तरी क्षेत्र में डोम्मराज (नागुनुरु), मेजराज और मैलिंगदेव को पराजित किया। इन विजयों से काकतीय साम्राज्य की उत्तरी सीमा गोदावरी नदी तक विस्तृत हुई।

दक्षिणी अभियान

रुद्रदेव ने तेलुगु चोल नरेशों भीम, गोकर्ण और चोडोदय के साथ-साथ पश्चिमी चालुक्य सम्राट तैलप तृतीय के खिलाफ अभियान चलाया। गोकर्ण को भीम ने मार डाला और चोडोदय रुद्रदेव की सैन्य शक्ति से भयभीत होकर मर गया। तैलप तृतीय भी उनकी शक्ति से भयग्रस्त होकर संग्रहणी रोग से मर गए। रुद्रदेव ने भीम की राजधानी वर्धमान को घेर लिया, लेकिन भीम भाग निकला।

वेंगी और गोदावरी डेल्टा

1162 ई. से पहले रुद्रदेव ने वेंगी राज्य के कई क्षेत्रों को काकतीय साम्राज्य में मिलाया। लेकिन 1165 ई. के आसपास चोल सम्राट राजेंद्र द्वितीय ने काकतीय प्रभुत्व को समाप्त कर दिया।

धरणिकोट का युद्ध

रुद्रदेव ने राजेंद्र चोल के दामाद भीम द्वितीय को धरणिकोट में पराजित किया और उसे मार डाला। धरणिकोट को काकतीय साम्राज्य में मिलाकर बेत द्वितीय को सौंपा गया।

वेंगी और मल्लदेव

1185 ई. में रुद्रदेव ने वेंगी के चालुक्य नरेश मल्लदेव की सहायता की, लेकिन 1186 ई. में पृथ्वीश्वर से पराजित हो गए।

युद्ध और मृत्यु

1195-96 ई. में रुद्रदेव का देवगिरि के यादव नरेश जैतुगी के साथ युद्ध हुआ। यादव अभिलेखों और हेमाद्रि के चतुर्वर्गचिंतामणि के अनुसार जैतुगी ने रुद्रदेव को पराजित कर उनकी हत्या कर दी। इस युद्ध में उनके भतीजे गणपति को बंदी बनाया गया।

रुद्रदेव शैव धर्म के अनुयायी थे और उन्होंने कई शिव मंदिरों का निर्माण कराया, जिन्हें रुद्रेश्वरम कहा गया। अनमकोंड में सहस्त्र स्तंभों वाले रुद्रेश्वर मंदिर के मंडप का निर्माण उनकी देन है। उन्होंने औरंगनगर (वारंगल) की भी स्थापना की।

महादेव (1195-1199 ई.)

रुद्रदेव के निःसंतान होने के कारण उनके अनुज महादेव 1195-1196 ई. में सिंहासन पर आसीन हुए। खमदवल्ली शिलालेख के अनुसार रुद्रदेव ने महादेव को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। महादेव का शासनकाल केवल तीन वर्ष (1195-1199 ई.) तक रहा। उनके शासनकाल के दो शिलालेख-1197 ई. का सुंदेला शिलालेख और वारंगल किले का एक खंडित शिलालेख उपलब्ध हैं, लेकिन इनमें कोई महत्त्वपूर्ण घटना का उल्लेख नहीं है।

महादेव शैव अनुयायी थे और ध्रुवेश्वर उनके आध्यात्मिक गुरु थे। बय्यारम तालाब शिलालेख में उनकी उपाधि कटकचुराकर मिलती है, जो संभवतः कलचुरि राजधानी कल्याण पर उनके अभियान से संबंधित है। 1198-1199 ई. में देवगिरि पर आक्रमण के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। यादव राजा जैतुगी ने महादेव को पराजित कर उनके पुत्र गणपति को बंदी बना लिया। बाद में जैतुगी ने गणपति को मुक्त कर काकतीय सिंहासन सौंपा।

गणपतिदेव (1199-1262 ई.)

गणपतिदेव (1199-1262 ई.) काकतीय राजवंश के प्रभावशाली शासक थे, जिनके शासनकाल में काकतीय साम्राज्य का स्वर्णयुग रहा। 1199 ई. में यादव राजा जैतुगी से रिहाई के बाद उन्होंने अपने राज्य पर नियंत्रण स्थापित किया और सकलदेशप्रतिष्ठापनाचार्य की उपाधि धारण की। उन्होंने 1201 ई. तक तटीय आंध्र, विजयवाड़ा, और दीवी द्वीप पर कब्जा किया, स्थानीय सरदारों को क्षेत्र लौटाए, और वैवाहिक संबंधों से मैत्री स्थापित की। दक्षिण में 1213 ई. से अभियान शुरू कर नेल्लोर, चोल, कलिंग, सेउण, और अन्य क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की। 1222-23 ई. में वेंगी, उड़ीसा, और बस्तर पर कब्जा किया, लेकिन 1263 ई. में पांड्यों से मुटुकूर युद्ध में हार गए। उन्होंने राजधानी को अनमकोंड से वारंगल स्थानांतरित किया, मोटुपल्ली बंदरगाह पर व्यापार को बढ़ावा दिया, और पाखल झील बनवाई। तेलुगु साहित्य में तिक्कना सोमयाजी के योगदान को प्रोत्साहित किया। गणपतिदेव ने नाराम्बा, पेरम्बा, और सेउण राजकुमारी सोमलादेवी से विवाह किया, जिससे काकतीय-यादव संबंध मजबूत हुए। 1260 ई. में रुद्रमा देवी को सहशासिका और उत्तराधिकारी बनाया। विस्तार में जानने के लिए पढ़ें

रुद्रमा देवी (1264-1295 ई.)

रुद्रमा देवी, काकतीय साम्राज्य की प्रमुख शासिका, 1259 ई. में गणपतिदेव द्वारा सहशासक नियुक्त की गईं और 1264 ई. में उनकी मृत्यु के बाद स्वतंत्र शासिका बनीं। पुरुष वेश में राजदरबार संभालने और युद्धों में सेना का नेतृत्व करने वाली रुद्रमा ने प्रारंभिक विद्रोहों (मुरारिदेव, हरिहरदेव) को समर्थकों की सहायता से दबाया और वारंगल पुनः प्राप्त किया। उन्होंने पांड्य, सेउण, और कलिंग के गजपति नरसिंह प्रथम के आक्रमणों का सामना किया। उनके सेनापतियों ने गोदावरी, वेंगी, कडप्पा, चित्तूर, और नेल्लोर पर काकतीय नियंत्रण पुनः स्थापित किया। 1290-91 ई. में अंबदेव को परास्त किया और 1294 ई. में यादवों पर विजय प्राप्त की।

रुद्रमा देवी (Rudrama Devi, 1264-1295 AD)
रुद्रमा देवी (Rudrama Devi, 1264-1295 AD)

मोटुपल्ली बंदरगाह को अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक केंद्र बनाया। अपुत्रक रुद्रमा ने मुम्मडांबा के पुत्र वीर रुद्र (प्रतापरुद्र द्वितीय) को उत्तराधिकारी बनाया, जिन्होंने 1295 ई. में उनकी मृत्यु के बाद सिंहासन संभाला। विस्तार में जानने के लिए पढ़ें

प्रतापरुद्र द्वितीय (1295-1325 ई.)

प्रतापरुद्र द्वितीय रुद्रमा देवी के दौहित्र थे और 1295 ई. में सिंहासन पर आसीन हुए। उनकी नानी के शासनकाल में सक्रियता के कारण उन्हें सत्ता प्राप्ति के समय आंतरिक संकट का सामना नहीं करना पड़ा।

प्रशासनिक और सैन्य सुधार

प्रतापरुद्र ने वेलमा जाति के 77 नायकों को नियुक्त कर वारंगल किले की सुरक्षा मजबूत की। उनकी सेना में 9 लाख पैदल सैनिक, 20,000 घुड़सवार और 1,000 हाथी शामिल थे। उन्होंने गुप्तचर तंत्र और सैन्य संगठन को सुदृढ़ किया।

कृषि सुधार

प्रतापरुद्र ने जंगलों को साफ कर कृषि योग्य भूमि तैयार की। रायलसीमा में धान की सिंचित खेती को बढ़ावा दिया। उन्होंने दुप्पीपादु गाँव बसाया।

कायस्थ प्रमुखों के विरुद्ध अभियान

1309 ई. में प्रतापरुद्र ने मुलिकिनाडु पर कब्जा कर अंबदेव को पराजित किया।

अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण

अलाउद्दीन ने वारंगल को विजित कर उसके राजकोष को खाली करने की योजना बनाई। हिंदू स्रोतों के अनुसार प्रतापरुद्र के शासनकाल में तेलंगाना पर कम से कम आठ तुर्क आक्रमण हुए, जिनमें से सात बार आक्रांताओं को असफलता मिली। किंतु अंतिम आक्रमण में वे सफल रहे और प्रतापरुद्र को बंदी बना लिया गया।

प्रथम आक्रमण (1303 ई.)

सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने 1303 ई. में तेलंगाना पर पहला आक्रमण किया। वेलुगोटी वंशावली के अनुसार काकतीय सेना ने इस युद्ध में मलिक काफूर को पराजित किया। इस विजय में बेलम सरदारों की भूमिका उल्लेखनीय थी।

द्वितीय आक्रमण और संधि (1309-1310 ई.)

अलाउद्दीन खिलजी ने 1309 ई. में मलिक नायब काफूर और ख्वाजा हाजी के नेतृत्व में पुनः तेलंगाना पर आक्रमण किया। प्रतापरुद्र ने इस अभियान का सामना करने के लिए 9 लाख पैदल सैनिकों, 20,000 घुड़सवारों, और 1,000 हाथियों की विशाल सेना तैयार की। वारंगल किले के रक्षकों ने प्रारंभ में मुस्लिम सेना का डटकर मुकाबला किया। 17 जनवरी 1310 ई. से 13 फरवरी 1310 ई. तक काकतीय और मुस्लिम सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ। अंततः वारंगल किला चारों ओर से घिर जाने पर प्रतापरुद्र ने दिल्ली सल्तनत के साथ संधि कर ली, जिसके अनुसार उन्होंने विपुल धनराशि, हाथी, घोड़े और प्रतिवर्ष भारी भेंट देना स्वीकार किया। इस संधि से काकतीय साम्राज्य की आर्थिक और सैन्य व्यवस्था कमजोर हो गई।

अधीनस्थों का विद्रोह और दमन

1310 ई. की संधि के बाद काकतीय साम्राज्य में आंतरिक अस्थिरता फैल गई और प्रतापरुद्र के अधीनस्थों ने विद्रोह कर दिया। कुछ वर्ष पहले जीते गए कायस्थ प्रमुख और नेल्लोर के तेलुगु चोल सरदार काकतीय आधिपत्य से स्वतंत्र हो गए। मुस्लिम सेना के वारंगल से हटते ही प्रतापरुद्र ने कोंकण के नेतृत्व में गंडिकोट के कायस्थ प्रमुख मल्लिदेव पर आक्रमण कर मार डाला और गंडिकोट को पुनः काकतीय साम्राज्य में शामिल कर लिया गया। इसके बाद, उन्होंने नेल्लोर के तेलुगु चोलों को अपने अधीन करने की योजना बनाई।

दक्षिणी अभियान

इसी बीच सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने पांड्य नरेश सुंदर पांड्य की याचना पर वीर पांड्य के खिलाफ अभियान के लिए प्रतापरुद्र से सैन्य सहायता माँगी। पांड्य राज्य काकतीय साम्राज्य के लिए भी संकट का कारण था। प्रतापरुद्र ने नेल्लोर और काँची पर अपनी प्रभुसत्ता पुनः स्थापित करने की रणनीति बनाई। काकतीय और मुस्लिम सेनाओं की संयुक्त शक्ति ने पहले नेल्लोर पर विजय प्राप्त की। इसके बाद इस संयुक्त सेना ने काँची पर आक्रमण कर होयसल शासक बल्लाल तृतीय को पराजित किया। काँची पर काकतीय नियंत्रण से वीर पांड्य भयभीत हो गया। उसने पाँच पांड्य राजकुमारों के साथ एक बड़ी सेना लेकर काँची के निकट काकतीय सेना का सामना किया। प्रतापरुद्र के नेतृत्व में काकतीय सेना ने इस युद्ध में विजय प्राप्त की और अपने सेनापति को पांड्य राज्य में प्रवेश कर वीरधवल में सुंदर पांड्य को सिंहासन पर स्थापित करने का आदेश दिया। वीर पांड्य ने केरल नरेश रविवर्मन कुलशेखर और अपने समर्थित पांड्य राजकुमारों की सहायता से काकतीय सेना का कड़ा मुकाबला किया। दोनों सेनाओं के बीच अर्काट के तिरवडिकुन्नम ग्राम में भीषण युद्ध हुआ। अंततः काकतीय सेना विजयी हुई और सुंदर पांड्य को वीरधवल के सिंहासन पर स्थापित किया गया।

खुसरो खान का वारंगल अभियान (1318 ई.)

अलाउद्दीन खिलजी के बाद उनके पुत्र मुबारकशाह ने 1318 ई. में दक्षिण की ओर अभियान शुरू किया। इस अभियान के दो उद्देश्य थे- पहला, महाराष्ट्र में देवगिरि के विद्रोही यादव शासक हरपालदेव को पराजित कर सुल्तान की प्रभुसत्ता पुनः स्थापित करना और दूसरा, प्रतापरुद्र से कर वसूल करना, जिसे उन्होंने संभवतः देना बंद कर दिया था। मुबारकशाह ने खुसरो खान के नेतृत्व में एक सेना वारंगल भेजी। इस अभियान के परिणामों के बारे में अमीर खुसरो और इसामी के परस्पर विरोधी विवरण मिलते हैं। अमीर खुसरो के अनुसार मुस्लिम सेना से पराजित होने पर प्रतापरुद्र ने खुसरो खान के साथ संधि कर ली और संधि की शर्तों के अनुसार अपने राज्य के पाँच जिले, 100 हाथी, 12,000 घोड़े और वार्षिक कर देना स्वीकार किया। इसके विपरीत, इसामी का कहना है कि खुसरो खान ने तेलंगाना की सीमा पर पहुँचकर प्रतापरुद्र को कर न देने पर गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी। प्रतापरुद्र ने खुसरो खान के दूत का सम्मान किया, स्वयं को सुल्तान का निष्ठावान सामंत घोषित किया और 100 से अधिक हाथियों सहित निश्चित धनराशि भेंट की। प्रसन्न होकर खुसरो खान ने प्रतापरुद्र को सुल्तान की ओर से छत्र और अन्य उपहार देकर दिल्ली लौट गया।

उलूग खान का तेलंगाना अभियान (1323 ई.)

1320 ई. में गियासुद्दीन तुगलक दिल्ली के सुल्तान बने। उन्होंने 1323 ई. में अपने पुत्र उलूग खान को तेलंगाना पर आक्रमण के लिए भेजा। फरिश्ता के अनुसार प्रतापरुद्र ने इस बीच दिल्ली सल्तनत को कर देना बंद कर दिया था। पहले आक्रमण में प्रतापरुद्र ने तुगलक सेना को पराजित कर काफी पीछे खदेड़ दिया। लेकिन उलूग खान का दूसरा अभियान पूर्णतः सफल रहा। वारंगल किले पर अधिकार करने के बाद मुस्लिम सेना ने प्रतापरुद्र को बंदी बना कर दिल्ली ले जाया जा रहा था, तभी नर्मदा नदी के तट पर उनकी आकस्मिक मृत्यु हो गई। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उन्होंने आत्महत्या कर ली, जबकि अन्य का कहना है कि उनकी हत्या कर दी गई।

प्रतापरुद्र निःसंतान थे और 1323 ई. में उनकी मृत्यु के साथ ही काकतीय राजवंश का अंत हो गया। फिर भी, उनकी सैन्य और प्रशासनिक उपलब्धियाँ प्रशंसनीय हैं।

काकतीय प्रशासन और संस्कृति

प्रशासनिक संरचना
राजतंत्रात्मक व्यवस्था

काकतीय प्रशासन राजतंत्रात्मक था, जिसमें शासक की योग्यता और नेतृत्व केंद्रीय था। रुद्रमा देवी ने एक कुशल शासिका के रूप में इस व्यवस्था को सशक्त किया।

उत्तराधिकार की परंपरा

काकतीयों में उत्तराधिकार सुनियोजित था। शासक अपने जीवित रहते सह-शासक नियुक्त करते थे। गणपतिदेव ने रुद्रमा को और रुद्रमा ने प्रतापरुद्र को सह-शासक बनाया।

मंत्रियों और अधिकारियों की भूमिका

मंत्रियों को प्रधान, महाप्रधान, प्रेग्गड, अमात्य या मंत्रिन कहा जाता था। उनकी नियुक्ति बुद्धिमत्ता और निष्ठा के आधार पर होती थी। काकतीय प्रशासन में 72 विभाग (बाहत्तर नियोग) थे, जिनका नेतृत्व ‘बाहत्तर नियोगाधिपति’ करते थे।

अंगरक्षक और लेंक

अंगरक्षक और लेंक राजा की सुरक्षा के लिए नियुक्त थे। लेंक राजा की मृत्यु पर आत्महत्या करने को तैयार रहते थे।

प्रांतीय प्रशासन

काकतीय राज्य छोटे-छोटे सामंती राज्यों का संघ था। प्रांतीय गवर्नर और सरदारों के पास अपनी सेनाएँ और राजदरबार थे। राज्य 20 नाडुओं में विभक्त था, जिनमें स्थल (गाँवों का समूह) और नाडु (स्थलों का समूह) शामिल थे।

आर्थिक सुधार
कृषि और सिंचाई

काकतीय अर्थव्यवस्था का आधार कृषि थी। उन्होंने गोदावरी और कृष्णा डेल्टा की उपजाऊ भूमि का उपयोग किया और तेलंगाना की रेतीली मिट्टी को सिंचाई के लिए उपयुक्त बनाया। रुद्रदेव, गणपतिदेव और प्रतापरुद्र ने तटाग (जलाशय) बनवाए। भूमिकर वस्तु और नकद में लिया जाता था।

व्यापार और उद्योग

मोटुपल्ली बंदरगाह से विदेशी व्यापार को बढ़ावा मिला। गणपतिदेव ने अभय शासनम जारी कर व्यापारियों की सुरक्षा सुनिश्चित की। व्यापारिक संघ (श्रेणियाँ) आंतरिक और बाह्य व्यापार को नियंत्रित करते थे। नमक पर राज्य का एकाधिकार था।

सांस्कृतिक योगदान
काकतीय राजवंश
काकतीय राजवंश
धर्म

काकतीयों का धार्मिक इतिहास जैन और शैव धर्म का मिश्रण था। प्रारंभिक काकतीय जैन धर्म के अनुयायी थे, लेकिन प्रोल द्वितीय के बाद शैव धर्म प्रमुख हुआ। कालमुख और पाशुपत संप्रदायों को संरक्षण मिला।

समाज

काकतीय समाज में जाति का महत्त्व कम था। व्यवसाय सामाजिक स्थिति का निर्धारक था। काकतीयों ने कोटा और नटवाडी जैसे शूद्र परिवारों से वैवाहिक संबंध बनाए। किसानों को सेना में भर्ती कर सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा दिया।

साहित्य

काकतीय काल में संस्कृत और तेलुगु साहित्य का विकास हुआ। अगस्त्य, जयापा सेनानी और तिक्कना सोमयाजी जैसे कवियों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। 14वीं शताब्दी को तेलुगु साहित्य का स्वर्णयुग माना जाता है।

काकतीय राजवंश
काकतीय राजवंश
वास्तुकला

काकतीय वास्तुकला में त्रिकूट आकार के मंदिर बनाए गए। हजार स्तंभ मंदिर, रामप्पा मंदिर, वारंगल किला, गोलकुंडा किला और कोटा गुल्लू काकतीय स्थापत्य के प्रतीक हैं। पाखल और रामप्पा जैसे जलाशयों ने सिंचाई को बढ़ावा दिया।

नृत्य

आंध्र नाट्यम और पेरिनि शिवतांडवम जैसे शास्त्रीय नृत्य रूप विकसित हुए। मंदिरों में नृत्य मूर्तियों का चित्रण मिलता है।

काकतीयों के पास कोहिनूर हीरा था, जो 1310 ई. में दिल्ली सल्तनत को भेंट किया गया। मार्को पोलो ने रुद्रमा के शासन की प्रशंसा की।

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