पत्थर से धातु के प्रयोग तक का संक्रमण
धातुओं की खोज और प्रारंभिक प्रयोग
मानव सभ्यता के विकास में पत्थर से धातु के प्रयोग तक का संक्रमण एक क्रमिक और दीर्घकालिक प्रक्रिया थी। प्रारंभ में मानव ने सोने और चाँदी जैसी नरम धातुओं का उपयोग शुरू किया, जो प्राकृतिक रूप में नदियों, धाराओं और खानों में आसानी से उपलब्ध थीं। इन धातुओं की चमक और आकर्षक स्वरूप ने इन्हें आभूषणों, सजावटी वस्तुओं और प्रारंभिक व्यापार के लिए लोकप्रिय बनाया। लेकिन उनकी कोमलता के कारण ये उपकरण या हथियार बनाने के लिए उपयुक्त नहीं थीं। इसके बाद ताँबे का उपयोग शुरू हुआ, जो अपनी कठोरता और गलाने की सुगमता के कारण सोने और चाँदी से अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ। ताँबे को गलाने और ढालने की तकनीकों ने मानव को टिकाऊ उपकरण, जैसे कुल्हाड़ियाँ, भाले और छेनी बनाने में सक्षम बनाया। पुरातात्त्विक साक्ष्य, जैसे हड़प्पा सभ्यता के स्थलों (लगभग ई.पू. 2600-1900) लोथल, धोलावीरा और कालीबंगा से प्राप्त ताम्र उपकरण और भट्टियों से पता चलता है कि भारत में ताँबे का उपयोग नवपाषाण काल के अंत तक शुरू हो चुका था। ताँबे और टिन के मिश्रण से निर्मित काँस्य ने और भी मजबूत उपकरणों और हथियारों का निर्माण संभव बनाया, जिसके कारण इस काल को ‘ताम्र-काँस्य युग’ के रूप में जाना जाता है। नवीनतम शोधों से से पता चलता है कि भारत में ताम्र-काँस्य तकनीकें स्थानीय स्तर पर विकसित हुईं, जो स्वदेशी नवाचारों पर आधारित थीं और मेसोपोटामिया जैसे बाहरी प्रभावों पर निर्भर नहीं थीं। हड़प्पा सभ्यता के स्थलों से प्राप्त ताम्र भट्टियाँ और उपकरण स्थानीय धातुकर्म की उन्नत प्रकृति के प्रमाण हैं। लोहे का उपयोग बाद में हुआ, जिसने मानव जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया, विशेष रूप से कृषि, युद्ध और सामाजिक संगठन में।
लौह धातु का उदय और प्रभाव
ताम्र और काँस्य के उपयोग के बाद मानव ने लौह धातु का ज्ञान प्राप्त किया, जिसने अपनी कठोरता और प्रचुर उपलब्धता के कारण ताम्र और काँस्य को पीछे छोड़ दिया। लोहे ने कृषि, युद्ध और सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं में क्रांति ला दी। उत्तर भारत में गंगा-यमुना दोआब क्षेत्र में विकसित चित्रित धूसर मृद्भांड (पेंटेड ग्रे वेयर, पीजीडब्लू) संस्कृति लौह युग का एक प्रमुख संकेतक है। लोहे के हल, कुदाल और दराँती जैसे उपकरणों ने कठोर भूमि को जोतना और जंगलों को साफ करना आसान बना दिया, जिससे कृषि उत्पादकता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इस अधिशेष उत्पादन ने व्यापार, शिल्प और नगरीकरण को प्रोत्साहित किया। लौह उपकरणों के बिना गंगा घाटी में बड़े पैमाने पर जंगल साफ करना और कृषि का विस्तार संभव नहीं था, जिसके परिणामस्वरूप द्वितीय नगरीकरण (लगभग ई.पू. 600) हुआ। लौह तकनीक ने ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं को जटिल और व्यापार-उन्मुख बना दिया, जिससे सामाजिक स्तरीकरण और प्रारंभिक राज्यों का उदय संभव हुआ। भारत के उत्तरी, पूर्वी, मध्य और दक्षिणी क्षेत्रों में 700 से अधिक पुरास्थलों से लौह उपकरणों के साक्ष्य मिले हैं। लौह उपकरणों ने युद्धक उपकरणों, जैसे तलवार, भाले और कवच के निर्माण को भी बढ़ावा दिया, जिसने सैन्य संगठन और क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को प्रभावित किया। लौह तकनीक ने सामाजिक संरचनाओं को और जटिल बना दिया, क्योंकि यह समुदायों को अधिक प्रभावी उपकरणों और हथियारों के माध्यम से आर्थिक और सैन्य शक्ति प्रदान करती थी।
लौह युग के प्रमुख पुरास्थल
उत्तर भारत में लौह युग के प्रमुख पुरास्थल, जैसे अतरंजीखेड़ा (एटा, उत्तर प्रदेश), हस्तिनापुर (मेरठ, उत्तर प्रदेश), अहिच्छत्रा (बरेली, उत्तर प्रदेश), आलमगीरपुर (मेरठ, उत्तर प्रदेश), नोह (भरतपुर, राजस्थान), रोपड़ (पंजाब) और श्रावस्ती (उत्तर प्रदेश), तकनीकी और सांस्कृतिक प्रगति के महत्त्वपूर्ण केंद्र थे। इन स्थलों पर चित्रित धूसर मृद्भांड (पीजीउब्लू) की परंपरा प्रमुख थी, जो लौह उपकरणों, जैसे भाले, बाणाग्र, कुल्हाड़ी, कुदाल, दरांती, चाकू, कीलें और चिमटे के साथ पाई गई है। हस्तिनापुर और अतरंजीखेड़ा से धातुमल और भट्टियों के अवशेष मिले हैं, जिससे पता चलता है कि स्थानीय स्तर पर लोहे को गलाकर ढलाई की जाती थी। रेडियोकार्बन डेटिंग के आधार पर चित्रित धूसर मृद्भांड की तिथि ई.पू. 8वीं-9वीं शताब्दी निर्धारित की गई है, जबकि नोह और गंगा-यमुना दोआब क्षेत्र से काले और लाल मृद्भांड के साथ लोहा प्राप्त हुआ है, जिसकी संभावित तिथि लगभग ई.पू. 1400 के है। इन स्थलों पर लौह तकनीक का विकास हड़प्पा सभ्यता के पतन (लगभग ई.पू. 1900) के बाद स्थानीय धातुकर्म परंपराओं का स्वतंत्र विस्तार था। अतरंजीखेड़ा से प्राप्त लौह उपकरणों की रेडियोकार्बन तिथि (ई.पू. 1025) और माहुरझारी (महाराष्ट्र) से प्राप्त इस्पात की कुल्हाड़ी (6 प्रतिषत कार्बन) उन्नत धातुकर्म की पुष्टि करते हैं। इन साक्ष्यों से स्थानीय धातुकर्मियों की विशेषज्ञता और लौह तकनीक के स्वदेशी विकास की सूचना मिलती है।
पूर्वी भारत में लौह युग
पूर्वी भारत के लौहकालीन स्थल, जैसे पांडुराजार ढीभी, महिषदल (पश्चिम बंगाल), सोनपुर और चिरांद (बिहार) में लौह उपकरण काले और लाल मृद्भांडों के साथ मिले हैं। इनमें बाणाग्र, छेनियाँ, कीलें और अन्य उपकरण शामिल हैं। महिषदल से धातुमल और भट्टियों के अवशेष मिले हैं, जिससे ज्ञात होता है कि धातु को स्थानीय रूप से गलाकर उपकरण तैयार किए जाते थे। रेडियोकार्बन तिथियों के आधार पर यहाँ लोहे का प्रारंभ ई.पू. 750-700 निर्धारित किया गया है। दक्षिणी-पूर्वी उत्तर प्रदेश के स्थल, जैसे झूंसी (प्रयागराज), राजा नल का टीला (सोनभद्र) और मल्हार (चंदौली) से प्राप्त लौह पुरानिधियों के आधार पर लोहे की प्राचीनता ई.पू. 1500 तक जाती है। नए शोधों से संकेत मिलता है कि पूर्वी भारत में लौह तकनीक का विकास गंगा घाटी की ताम्र-काँस्य परंपराओं से निकटता से जुड़ा था। बिहार और झारखंड के लौह अयस्क भंडारों ने इस क्षेत्र को लौह उत्पादन का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बनाया। साक्ष्यों से पता चलता है कि पूर्वी भारत में लौह तकनीक का विकास न केवल स्थानीय संसाधनों पर आधारित था, बल्कि यह क्षेत्रीय व्यापार संपर्क और सामाजिक संगठन के विकास में भी योगदान देता था।
मध्य भारत और राजस्थान में लौह उपकरण
मध्य भारत (मालवा) और राजस्थान के कई पुरास्थलों, जैसे एरण, नागदा (मध्य प्रदेश) और अहाड़ (राजस्थान) की खुदाई से लौह उपकरण प्रकाश में आए हैं, जो लौह युग की तकनीकी प्रगति के महत्त्वपूर्ण केंद्र थे। इन स्थलों से दुधारी कटार, कुल्हाड़ी, बाणाग्र, हँसिया और चाकू जैसे लौह उपकरण प्राप्त हुए हैं। इनकी प्रारंभिक संस्कृति ताम्र-पाषाणिक थी, जिसमें बाद में लौह तकनीक शामिल हुई। रेडियोकार्बन डेटिंग से पता चला है कि मालवा और एरण में लोहे का उपयोग ई.पू. 1100 से शुरू हुआ। मालवा में ताम्र-पाषाणिक युग का अंत लगभग ई.पू. 1300 में हुआ। राजस्थान के अहाड़ पुरास्थल से लोहा और धातुमल प्रथम कालखंड के दूसरे स्तर के पाँच निक्षेपों से मिलता है, जिसकी संभावित तिथि ई.पू. 1500 के लगभग है। स्थानीय धातुकर्मी ताँबे और लोहे दोनों को गलाने में निपुण थे। यह क्षेत्र लौह तकनीक के स्वदेशी विकास का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था, जो स्थानीय अयस्क संसाधनों और धातुकर्म विशेषज्ञता पर आधारित था। मालवा के लौह अयस्क भंडार और नागदा से प्राप्त भट्टियाँ इस क्षेत्र की उन्नत धातुकर्म परंपरा का प्रमाण हैं।
दक्षिण भारत में महापाषाणिक संस्कृतियाँ
दक्षिण भारत के आंध्र, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के विविध पुरास्थलों, जैसे ब्रह्मगिरि, मास्की, पुदुकौ, चिंगलपुत, शानूर, हल्लूर आदि से महापाषाणिक (मेगालिथिक) संस्कृतियों के साक्ष्य मिलते हैं। इन स्थलों से प्राप्त महापाषाणिक समाधियों से बड़ी संख्या में लौह उपकरण, जैसे तलवार, कटार, त्रिशूल, चिपटी, कुल्हाड़ियाँ, फावड़े, छेनी, वसुली, हँसिया, चाकू, भाले आदि लगभग तैंतीस प्रकार के उपकरण काले और लाल मृद्भांडों के साथ मिले हैं। हल्लूर नवपाषाण और महापाषाण के बीच एक संक्रांति काल की सूचना देता है। आधुनिक शोधों के आधार पर दक्षिण में लौह उपकरणों के प्रयोग की प्राचीनता सहस्त्राब्दी ई.पू. में जाती है। हल्लूर उपकरणों की रेडियोकार्बन तिथि ई.पू. 1000 के लगभग निर्धारित की गई है। शोधों से पता चलता है कि दक्षिण भारत में लौह तकनीक का विकास स्थानीय स्तर पर हुआ, जो ताम्र-पाषाणिक परंपराओं से स्वतंत्र था। कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के लौह अयस्क भंडारों ने इस विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। महापाषाणिक समाधियाँ सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं का भी सूचक हैं, जहाँ लौह उपकरणों को मृतकों के साथ दफनाया जाता था, जो उनकी सामाजिक स्थिति और तकनीकी प्रगति को इंगित करता है।
लोहे की प्राचीनता
भारत में लोहे की प्राचीनता के विषय में विवाद रहा है। पहले माना जाता था कि मध्य एशिया की हित्ती जाति (ई.पू. 1800-1200) का लोहे पर एकाधिकार था और उन्होंने इसका प्रथम प्रयोग किया। किंतु नवीन साक्ष्यों के आधार पर यह मत अब मान्य नहीं है। नोह (राजस्थान) और गंगा-यमुना दोआब क्षेत्र से लोहा काले और लाल मृद्भांडों के साथ मिलता है, जिसकी संभावित तिथि ई.पू. 1400 है। भगवानपुर, मांडा, दधेरी, आलमगीरपुर, रोपड़ आदि स्थलों से चित्रित धूसर मृद्भांड सैंधव सभ्यता के पतन (लगभग ई.पू. 1700) के साथ मिलते हैं, जिनका संबंध लोहे से माना गया है। ऋग्वेद में कवच (वर्म) का उल्लेख है, जो संभवतः लोहे का रहा होगा। कुछ विद्वान मानते हैं कि ऋग्वैदिक आर्यों को लोहे का ज्ञान था। हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त उत्तम कोटि के ताँबे और काँसे के उपकरणों, गंगा घाटी से प्राप्त ताम्र-निधियों और गैरिक मृद्भांडों से स्पष्ट होता है कि तत्कालीन भारतीयों का तकनीकी ज्ञान अत्यंत विकसित था। गंगा घाटी के ताम्र-धातुकर्मी संभवतः लोहे के आविष्कर्ता रहे होंगे, क्योंकि कच्चे लोहे की दो बड़ी निधियाँ मांडी (हिमाचल) और नरनौल (पंजाब) से प्राप्त हुई हैं। भारत में ऐसी आदिम जातियाँ थीं, जो देशी तकनीक से लोहा तैयार करती थीं और अपने द्वारा निर्मित बर्तनों का व्यापार करती थीं। मध्य और दक्षिणी भारत में लोहे की अधिकता को देखते हुए यह अनुमान किया जा सकता है कि यहाँ लौह तकनीक का एक स्वतंत्र आरंभिक केंद्र था।
लौह-प्रयोक्ता संस्कृतियाँ
भारत के विभिन्न स्थलों की खुदाई से लौह-प्रयोक्ता संस्कृतियों के साक्ष्य मिलते हैं। ये समृद्ध और विकसित ग्राम्य-संस्कृतियाँ थीं, जिनकी पृष्ठभूमि पर ऐतिहासिक काल में द्वितीय नगरीकरण संभव हुआ। इन संस्कृतियों के लोग विशिष्ट प्रकार के मृद्भांडों का प्रयोग करते थे, जो मुख्यतः धूसर या स्लेटी रंग के थे और इन पर काले रंग में चित्रकारियाँ की गई थीं। इन्हें चित्रित धूसर मृद्भांड कहा जाता है। प्रारंभिक पात्रों के साथ लौह उपकरण नहीं मिलते, किंतु बाद में ये सभी स्थलों में पाए गए हैं। इस कारण चित्रित धूसर मृद्भांड संस्कृति को लौहयुगीन संस्कृति कहा जाता है। लौहयुगीन संस्कृति के अधिकांश स्थल मध्य प्रदेश और गंगा घाटी क्षेत्र में सतलज से गंगा नदी तक विस्तृत हैं, किंतु इसका विस्तार अन्य क्षेत्रों में भी मिलता है। प्रमुख स्थल अहिच्छत्रा, हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, आलमगीरपुर, अल्लाहपुर, मथुरा, रोपड़, श्रावस्ती, नोह, कांपिल्य (उत्तरी भारत), नागदा और एरण (मध्य भारत) हैं। पूर्वी भारत में पांडुराजार ढीभी, महिषदल, सोनपुर, चिरांद आदि स्थलों से ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों के साथ-साथ लौह उपकरण भी प्राप्त हुए हैं। दक्षिण में महापाषाणिक समाधियों से लौह उपकरण मिलते हैं। ई.पू. 1000-600 तक भारत के सभी भागों में लोहे के अस्त्र-शस्त्रों और उपकरणों का बहुतायत में प्रयोग होने लगा था। हस्तिनापुर और अतरंजीखेड़ा की खुदाइयों में लौह धातुमल और भट्टियाँ पाई गई हैं, जो दर्शाती हैं कि यहाँ के निवासी लोहे को गलाकर विविध आकार-प्रकार के उपकरण बनाने में निपुण थे। पहले लोहे से युद्ध-संबंधी अस्त्र-शस्त्र बनाए गए, किंतु बाद में कृषि-संबंधी उपकरण, जैसे हँसिया, खुरपी, फाल आदि का भी निर्माण किया जाने लगा। कृषि कार्य में लौह उपकरणों के प्रयोग से अधिक भूमि को खेती-योग्य बनाया गया और उत्पादन बढ़ा।
भारत में लोहे का प्रारंभ
सिंधु घाटी की सभ्यता काँस्यकालीन थी, जिसके बाद लौह युग का प्रारंभ हुआ। भारत में लोहे की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए साहित्यिक और पुरातात्त्विक दोनों प्रमाण उपलब्ध हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि विष्व में सर्वप्रथम हित्ती जाति (एशिया माइनर, ई.पू. 1800-1200) ने लोहे का प्रयोग किया। उनका साम्राज्य ई.पू. 1200 के आसपास विघटित हुआ, जिसके बाद विष्व के अन्य देशों में लोहे का प्रचलन हुआ। किंतु हित्ती एकाधिकार की धारणा तर्कसंगत नहीं है। थाईलैंड के बानैची पुरास्थल से लोहा ई.पू. 1600-1200 के बीच मिला है। भारत में नोह और गंगा-यमुना दोआब से कृष्ण-लोहित मृद्भांडों के साथ लोहा प्राप्त हुआ है, जिसकी तिथि ई.पू. 1400 के आसपास है। परियार के दसवें स्तर से भी कृष्ण-लोहित मृद्भांडों के साथ लोहे की भाले की नोंक मिली है। उज्जैन, विदिशा, भगवानपुर, आलमगीरपुर और रोपड़ से लोहा चित्रित धूसर मृद्भांडों के साथ मिलता है, जो उत्तर हड़प्पाकालीन स्तर है। अथर्ववेद में ‘नील-लोहित’ शब्द का तात्पर्य कृष्ण-लोहित मृद्भांड से है, जिससे यह माना जा सकता है कि भारत में लोहे का प्रादुर्भाव कृष्ण-लोहित मृद्भांडों के साथ हुआ। कुछ इतिहासकार भगवानपुर के साक्ष्यों के आधार पर मानते हैं कि ऋग्वैदिक काल में भी लोहे की जानकारी थी। ऋग्वेद में तीरों, भालों की नोकों और वर्म (कवच) का उल्लेख है। एक स्थान पर कवच और शत्रुओं से सुरक्षित लौह-दुर्ग बनाने के लिए सोम का आह्वान किया गया है। मालव नामक ऋषि ने पांचाल नरेश दिवोदास को दशराज्ञ युद्ध में लोहे की तलवारें देकर सहायता की थी। हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त ताँबे और काँसे के उपकरणों, गंगा घाटी की ताम्र-निधियों और गैरिक मृद्भांडों से तत्कालीन भारतीयों का उन्नत तकनीकी ज्ञान स्पष्ट होता है। गंगा घाटी के ताम्र-धातुकर्मी संभवतः लोहे के आविष्कर्ता थे, क्योंकि मांडी (हिमाचल) और नरनौल (पंजाब) से कच्चे लोहे की बड़ी निधियाँ प्राप्त हुई हैं।
उत्तर वैदिक काल में लोहा
उत्तर वैदिककालीन ग्रंथों में लौह धातु और उसके व्यापक प्रचलन के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। अथर्ववेद में ‘लोहायस्’ और ‘श्यामअयस्’ शब्द मिलते हैं। वाजसनेयी संहिता में भी ‘लोह’ और ‘श्याम’ शब्द आए हैं। कुछ विद्वानों ने ‘लोह’ को ताँबे और ‘श्याम’ को लोहे के अर्थ में ग्रहण किया है। संभवतः अथर्ववेद में उल्लिखित ‘श्यामअयस्’ का तात्पर्य लौह धातु से है। अथर्ववेद में लोहे के फाल का उल्लेख है। काठक संहिता में चौबीस बैलों द्वारा खींचे जाने वाले भारी हलों का उल्लेख है, जिनमें निश्चित रूप से लोहे की फाल लगाई जाती थी। इससे स्पष्ट है कि ई.पू. 8वीं शताब्दी में भारतीयों को लोहे का ज्ञान प्राप्त हो चुका था।
लौह युग का प्रभाव
पुरातात्त्विक प्रमाणों से भारत में लोहे की प्राचीनता ई.पू. 1000 तक जाती है। चित्रित धूसर मृद्भांडों के प्रयोक्ता लोहे के ज्ञान से परिचित थे और अनेक प्रकार के लौह उपकरणों का निर्माण करना जानते थे। गंगा-यमुना दोआब क्षेत्र में लोहे के अगणित उपकरण मिलते हैं। अहिच्छत्रा, अतरंजीखेड़ा, माहुरझारी, हस्तिनापुर, मथुरा, रोपड़, श्रावस्ती, काम्पिल्य आदि स्थानों की खुदाइयों से लौहयुगीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इन स्थानों से भाले, तीर, वसुली, खुरपी, चाकू, कटार आदि लौह उपकरण मिले हैं। अतरंजीखेड़ा के लौह उपकरण ई.पू. 1025 के हैं। यहाँ से धातु-शोधन करने वाली भट्टियों के प्रमाण मिले हैं। माहुरझारी में पाई गई एक इस्पात की कुल्हाड़ी में 6 प्रतिशत कार्बन की मात्रा है। पूर्वी भारत में सोनपुर, चिरांद आदि से लोहे की बर्छियाँ, छेनी, कीलें आदि मिली हैं, जिनका समय ई.पू. 8वीं शताब्दी माना जाता है। मध्य भारत के एरण, नागदा, उज्जैन, कायथा आदि से प्राप्त लौह उपकरणों का काल ई.पू. 7वीं शताब्दी है। दक्षिण भारत की महापाषाणिक समाधियों से बड़ी मात्रा में लौह उपकरण प्राप्त हुए हैं। इस संस्कृति के लोग काले और लाल मृद्भांडों का प्रयोग करते थे। विद्वानों ने इस संस्कृति का समय ई.पू. 1000 से पहली शताब्दी तक निर्धारित किया है। दक्षिण भारत के लोग ई.पू. 1000 में लोहे के प्रयोग से परिचित थे। किसी एक क्षेत्र में लोहे का प्रयोग पहले शुरू नहीं हुआ, बल्कि कुछ शताब्दियों में कई समुदायों ने इसका उपयोग शुरू किया। दक्षिण भारत में पाषाण काल के बाद लौह काल प्रारंभ हुआ, जबकि उत्तरी भारत में पाषाण काल के बाद ताम्र, काँस्य और फिर लौह काल आया।
लोहे का क्रांतिकारी प्रभाव
लोहे के ज्ञान ने मानव जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन किया। डी.डी. कौसाम्बी के अनुसार, गंगा घाटी में बड़े पैमाने पर जंगलों का कटना और कृषि व्यवस्था का अपनाया जाना लोहे के प्रयोग के बिना संभव नहीं था। बुद्ध काल तक पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में लोहे का व्यापक प्रयोग होने लगा। लौह तकनीक के कारण कृषि उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि हुई, जिससे अधिशेष उत्पादन संभव हुआ। लौह तकनीक ने गंगा घाटी में द्वितीय नगरीय क्रांति को संभव बनाया और बड़े-बड़े नगरों की स्थापना हुई।










