होयसल राजवंश  (Hoyasala Dynasty, 950-1343 AD)

होयसल राजवंश दक्षिण भारत के मध्यकालीन इतिहास में एक महत्वपूर्ण शक्ति था, जिसने लगभग 1006 […]

होयसल राजवंश दक्षिण भारत के मध्यकालीन इतिहास में एक महत्वपूर्ण शक्ति था, जिसने लगभग 1006 से 1346 ईस्वी तक कर्नाटक और तमिलनाडु के कुछ क्षेत्रों पर शासन किया। इसकी स्थापना पश्चिमी घाट के पर्वतीय क्षेत्र मलनाड में हुई, जहाँ उन्होंने एक छोटे भूभाग पर नियंत्रण स्थापित किया। प्रारंभिक काल में उनका शासन कर्नाटक के दक्षिणी भाग, विशेष रूप से कुंतल क्षेत्र तक सीमित था। कन्नड़ भाषी और दृढ़ पहाड़ी निवासियों के रूप में पहचाने जाने वाले होयसलों ने अपनी राजनीतिक और सैन्य शक्ति का धीरे-धीरे विस्तार किया।

होयसलों की प्रारंभिक राजधानी बेलूर (वेलापुर) थी, लेकिन 12वीं शताब्दी में उन्होंने द्वारसमुद्र (आधुनिक हलेबिडु) को अपनी राजधानी बनाया। द्वारसमुद्र प्रशासनिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र बन गया।

12वीं शताब्दी में होयसलों ने पश्चिमी चालुक्यों और कल्याणी के कलचुरियों के बीच आंतरिक युद्धों का लाभ उठाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। इस दौरान उन्होंने कर्नाटक के अधिकांश हिस्सों तथा तमिलनाडु के कावेरी डेल्टा के उत्तरी भागों पर अधिकार स्थापित किया। कल्याणी चालुक्यों के सामंती समर्थन ने होयसलों को अपनी स्थिति मजबूत करने में महत्वपूर्ण सहायता दी। प्रमुख शासक जैसे विनयादित्य और विष्णुवर्धन के नेतृत्व में उन्होंने सैन्य और राजनीतिक क्षेत्र में कई ऐतिहासिक सफलताएँ प्राप्त कीं। विष्णुवर्धन ने कदंबों के क्षेत्र को जीतकर आर्थिक और राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ किया। इसके साथ ही, उन्होंने चोलों को उनकी पारंपरिक सीमाओं से बाहर निकाल कर कर्नाटक के पठारी क्षेत्रों से खदेड़ दिया। उनके पोते बल्लाल द्वितीय ने यदुवंश के दबाव के बावजूद मैसूर के उत्तरी क्षेत्र में अपने प्रभुत्व का विस्तार किया। होयसलों ने मैसूर के गंगावाड़ी क्षेत्र, तुंगभद्रा के पार धारवाड़ और रायचूर की समृद्ध भूमि पर भी नियंत्रण स्थापित किया।

होयसल शासन सहिष्णुता और सांस्कृतिक समरसता का एक उत्कृष्ट उदाहरण था। वैष्णव, शैव और जैन परंपराओं को समान संरक्षण प्राप्त था, जिससे दक्षिण भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक सहयोग को बढ़ावा मिला। इस बहुधार्मिक सहअस्तित्व ने समाज में सामंजस्य और आपसी संवाद को मजबूत किया।

होयसल राजवंश अपनी स्थापत्य कला के लिए विष्वविख्यात था। ताराकार शैली के मंदिरों का निर्माण उनकी कला की विशिष्टता है। बेलूर का चेन्नकेशव मंदिर और हलेबिडु का होयसलेष्वर मंदिर इसके प्रमुख उदाहरण हैं। इन मंदिरों की दीवारों और स्तंभों पर जटिल नक्काशी, जीवंत चित्र, पौराणिक कथाएँ और मूर्तियाँ बनी हैं, जो होयसल काल की स्थापत्य कला और शिल्प कौशल के उत्कृष्ट नमूने हैं। होयसलों के शासनकाल में कन्नड़ और संस्कृत साहित्य को भी बहुत प्रोत्साहन मिला, साथ ही संगीत और नृत्य जैसे कलात्मक क्षेत्रों का भी विकास हुआ।

14वीं शताब्दी में राजा बल्लाल तृतीय के शासनकाल के बाद अंततः होयसल राजवंश का पतन हुआ और विजयनगर राजवंश ने उनकी राजनीतिक विरासत को संभाला। इस प्रकार होयसलों का इतिहास केवल एक शक्तिशाली साम्राज्य के उदय और पतन की कहानी नहीं है, बल्कि दक्षिण भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक, साहित्यिक और स्थापत्य विरासत का भी प्रतीक है।

भौगोलिक पृष्ठभूमि

होयसल राज्य का प्रारंभिक क्षेत्र कर्नाटक के दक्षिणी भाग में कुंतल प्रदेश तक सीमित था। लगभग चार शताब्दियों तक शासन करने के दौरान होयसलों ने अपनी सांस्कृतिक उपलब्धियों को राजनीतिक उपलब्धियों से कहीं अधिक ऊँचाइयों तक पहुँचाया।

होयसल साम्राज्य का भौगोलिक विस्तार व्यापक और रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण था। यह पश्चिमी घाट की पहाड़ियों और उनके पूर्वी क्षेत्रों तक फैला था, जिसमें उत्तरी सीमा पर बंगलूरु और कोलार जिले शामिल थे। दक्षिणी सीमा में हासन, मैसूर, कडूर और तुमकुर जिले साथ ही वेदावती और पिनाकिनी नदियों के बीच का क्षेत्र उनके अधीन था। इसके अतिरिक्त, रायचूर दोआब, जिसमें तुंगभद्रा नदी के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र जैसे गंगवाडी, नोलंबवाडी और कदंब क्षेत्र शामिल थे, भी होयसल साम्राज्य का हिस्सा थे, जो उनकी शक्ति और प्रभाव का सूचक है। काँचीपुरम (काँची) उनकी दक्षिण-पूर्वी सीमा पर स्थित था और समय-समय पर उनके नियंत्रण में रहा।

होयसलों ने घने जंगलों और झाड़-झंखाड़ों को साफ करके इन क्षेत्रों को कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित किया, जिससे उनकी आर्थिक समृद्धि बढ़ी। उनके राज्य में द्रविड़ और आर्य मूल के लोग निवास करते थे। मैदानी क्षेत्रों में ब्राह्मण और मिश्रित रक्तवाले धनी लोग रहते थे, जो राजाओं से प्राप्त अग्रहार जैसे भूमि अनुदान के कारण समृद्ध थे। दूसरी ओर पर्वतीय और जंगली क्षेत्रों में वेड्डर जैसे शिकारी समुदाय निवास करते थे, जो लूट, शिकार, चौकीदारी और व्यापारियों के माल की सुरक्षा जैसे कार्यों से अपनी जीविका कमाते थे। राचयूर दोआब क्षेत्र, जिसमें गंगवाडी, नोलंबवाडी और कदंब क्षेत्र शामिल थे, ऐतिहासिक रूप से महत्त्वपूर्ण था। इस क्षेत्र के लिए राष्ट्रकूटों, चालुक्यों, पल्लवों और चोलों के बीच निरंतर युद्ध होते रहते थे, जिनका लाभ उठाकर होयसलों ने अपनी सत्ता स्थापित की।

ऐतिहासिक स्रोत

होयसल राजवंश के इतिहास निर्माण में विभिन्न प्राथमिक और द्वितीयक स्रोत उपयोगी हैं, जिनसे उनकी उत्पत्ति, प्रशासनिक संगठन, धार्मिक नीति, स्थापत्य कला, सांस्कृतिक योगदान और पतन की जानकारी मिलती है। इन स्रोतों में शिलालेख, पुरातात्विक अवशेष, साहित्यिक ग्रंथ और विदेशी यात्रियों के विवरण महत्त्वपूर्ण हैं। इन ऐतिहासिक स्रोतों के समन्वित विश्लेषण से होयसल शासकों के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन के इतिहास का पुनर्निर्माण किया जा सकता है।

शिलालेख

होयसल राजाओं के शिलालेख अधिकांशतः कन्नड़ और संस्कृत में लिखे गए हैं, जो उनके शासनकाल, सैन्य अभियानों, प्रशासनिक व्यवस्था और सांस्कृतिक उपलब्धियों की जानकारी के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। प्रारंभिक शिलालेख, जैसे 950 ईस्वी का अरेकल्ल और 976 ईस्वी का नृप काम प्रथम का अभिलेख, इस राजवंश की उत्पत्ति और आरंभिक विस्तार की पुष्टि करते हैं। 1048 ई. का कैलेयब्बे भूमिदान, 1055 ई. का मल्लिकेश्वर मंदिर दान और 1089 ईस्वी का गंगविक्रम उपाधि अभिलेख धार्मिक उदारता व प्रशासनिक कौशल की सूचना देते हैं। 1060 ईस्वी का चालुक्य त्रैलोक्यमल्ल अभिलेख तथा 1062-1068 ईस्वी के सांतर अभिलेख समकालीन राजवंशों के साथ होयसल संबंधों और युद्धों की जानकारी देते हैं। 1084 ईस्वी का विनयादित्य का अभिलेख उनके शासनक्षेत्र और विजयों का विवरण प्रदान करता है। 1116 ईस्वी का तलक्काड़ अभिलेख और 1117 ईस्वी का बेलूर अभिलेख विष्णुवर्धन की चोल विजय तथा वैवाहिक गठबंधनों को उजागर करते हैं और श्तलकाडुकोंडश् उपाधि की पुष्टि करते हैं। 1178 ई. के बल्लाल तृतीय के गडग अभिलेख में प्रशासनिक संरचना और गरुड़ अंगरक्षकों का वर्णन मिलता है। बेलूर, हलेबीडु और सोमनाथपुर के मंदिर-शिलालेखों से धार्मिक सहिष्णुता, मंदिर निर्माण और राजपंडितों की भूमिका पर प्रकाश पड़ता है, वहीं नरसिंह तृतीय व वीर बल्लाल द्वितीय के शिलालेखों में राजस्व व्यवस्था और सैन्य अभियानों का विवरण मिलता है। कन्ननूर कुप्पम के ताम्रपत्र शिलालेख (1217, 1225 ई.) होयसलों के दक्षिणी विस्तार और प्रशासनिक समायोजन की सूचना देते हैं।

पुरातात्विक अवशेष

होयसलकालीन मंदिरों और स्थापत्य स्मारकों के पुरातात्विक अवशेष तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक और कलात्मक उत्कर्ष के साक्षी हैं। बेलूर का चेन्नकेशव मंदिर (1117 ई.) साबुन पत्थर (सोपस्टोन) पर की गई सजीव नक्काशी और तोरण द्वारों पर उकेरे गए रामायण व महाभारत दृश्यों के लिए प्रसिद्ध है। हलेबीडु का होयसलेश्वर मंदिर (1121 ई.) शैव-वैष्णव परंपराओं के संगम का उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ देवताओं, नर्तकियों और रण-प्रसंगों की सजीव मूर्तियाँ हैं। सोमनाथपुर का केशव मंदिर (1279 ई.) त्रिकूट शैली और ताराकार (स्टार-शेप) योजना के कारण स्थापत्य कला का उत्तुंग शिखर माना जा सकता है। इन मंदिरों की ताराकार योजना, सूक्ष्म नक्काशी और विविध मूर्तिकला से तत्कालीन समाज, कला और धार्मिक जीवन के बहुआयामी स्वरूप की जानकारी मिलती है।

महापाषाणीय संस्कृति से संबंधित अवशेष, जैसे मेरुंड पक्षी की प्रतिमाएँ, होयसल उत्पत्ति के दक्षिण भारतीय आधार की पुष्टि करती हैं। नहरों, झीलों और अग्रहारों के अवशेष उनके प्रशासनिक कौशल और संगठन क्षमता को दर्शाते हैं। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के अभिलेख राजधानी स्थानांतरण और सिंचाई प्रणाली के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।

महापाषाणीय संस्कृति से संबंधित अवशेष, जैसे मेरुंड पक्षी की प्रतिमाएँ, होयसलों की दक्षिण भारतीय उत्पत्ति की पुष्टि करती हैं। नहरों, झीलों और अग्रहारों के अवशेषों से होयसलों के प्रशासनिक कौशल, संगठन क्षमता और जन-कल्याणकारी कार्यों पर प्रकाश पड़ता है।

साहित्यिक स्रोत

होयसल काल में कन्नड़ और संस्कृत दोनों भाषाओं में विविध विषयों पर रचनाएँ की गईं। इस काल की प्रमुख कन्नड़ रचनाओं में नागचंद्र की ‘रामचरितपुराण’ (जैन परंपरा), नागवर्मा की ‘काव्यावलोकन’ व ‘कर्नाटक भाषाभूषण’, केशिराज की ‘शब्दमणिदर्पण’ (व्याकरण), राघवांक की ‘हरिश्चंद्र काव्य’, जन्ना की ‘यशोधरचरिते’, नेमिचंद्र की ‘लीलावती प्रबंधम’ व ‘नेमिनाथ चरित’ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, जो तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक बहुलता और साहित्यिक वैभव का दर्पण हैं। इस काल की संस्कृत रचनाओं में रुद्र भट्ट का ‘जगन्नाथ विजय’, महाग्रास तृतीय का ‘जयनृप काव्य’, अभिनव वादिविद्याहंड का ‘काव्यसार’, नारायण पंडित का ‘मध्वविजय’ और त्रिविक्रम पंडित की रचनाएँ ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं, जिनसे तत्कालीन धर्म-दर्शन, वैष्णव भक्ति और द्वैत-आदर्श पर प्रकाश पड़ता है। इन साहित्यिक कृतियों में धार्मिक सहिष्णुता, राजकीय संरक्षण, दार्शनिक-बौद्धिक प्रवृत्तियों और बौद्धिक संस्कृति की झलक मिलती है।

विदेशी यात्रियों के विवरण

अनेक विदेशी यात्री होयसल साम्राज्य की समृद्धि के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं, जिन्होंने अपने विवरणों में होयसल साम्राज्य की समृद्धि का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। 14वीं शताब्दी के अरबी यात्री इब्न बतूता ने द्वारसमुद्र (हलेबीडु) के विशाल मंदिरों, भव्य महलों, सुव्यवस्थित बाजारों और रत्नजटित प्रतिमाओं का विवरण दिया है, जहाँ अत्यंत विकसित व्यापारिक प्रणाली विद्यमान थी। फारसी इतिहासकार अमीर खुसरो और वासफ ने 1311 ईस्वी में मलिक काफूर के आक्रमण व लूट का उल्लेख करते हुए द्वारसमुद्र की आर्थिक व सांस्कृतिक वैभव का विवरण दिया है।

इस प्रकार शिलालेख, पुरातात्विक अवशेष, बेलूर-हलेबीडु-सोमनाथपुर के मंदिर, साहित्यिक ग्रंथ और विदेशी यात्रियों के विवरण मिलकर होयसल साम्राज्य की राजनीतिक व्यवस्था, सामाजिक संरचना, प्रशासनिक कौशल और सांस्कृतिक वैभव का अद्वितीय प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। होयसलों का यह योगदान आज कर्नाटक की सांस्कृतिक धरोहर का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।

होयसल वंश का प्रारंभिक उदय और सामंती स्थिति

होयसल राजवंश ने अपनी ऐतिहासिक यात्रा की शुरुआत पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य के सामंत के रूप में की। दसवीं शताब्दी के अंत में होयसलों का प्रथम उल्लेख 950 ईस्वी के अरेकल्ल और 976 ईस्वी के नृप काम प्रथम के शिलालेखों में मिलता है, जो उनकी उत्पत्ति और प्रारंभिक गतिविधियों के प्रमाण हैं। इस काल में होयसलों ने चालुक्य शासकों के अधीन प्रशासनिक और सैन्य भूमिकाएँ निभाईं, विशेष रूप से गंगवाडी क्षेत्र (वर्तमान दक्षिण कर्नाटक) में, जो उनकी शक्ति का प्रारंभिक केंद्र रहा।

बारहवीं शताब्दी में चालुक्य शक्ति के कमजोर होने और कल्याणी के कलचुरियों के साथ उनके संघर्षों के कारण होयसलों को स्वतंत्रता की दिशा में कदम बढ़ाने का अवसर मिला। विशेष रूप से, शासक विष्णुवर्धन (1108-1152 ई.) और बल्लाल द्वितीय (1173-1220 ई.) ने होयसल साम्राज्य को चालुक्य अधीनता से मुक्त कर एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में स्थापित किया। उनके शासनकाल में होयसलों ने कदंब, यादव (सेवुण) और पांड्य जैसे समकालीन राजवंशों के साथ युद्ध और कूटनीति के माध्यम से अपने क्षेत्र का विस्तार किया।

तेरहवीं शताब्दी के अंत और चौदहवीं शताब्दी की शुरुआत में दिल्ली सल्तनत के आक्रमणों के कारण होयसल साम्राज्य को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा। 1343 ईस्वी तक होयसल साम्राज्य का पतन हो गया और उनका क्षेत्र विजयनगर साम्राज्य तथा अन्य स्थानीय शक्तियों के अधीन हो गया।

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