होयसल राजवंश  (Hoyasala Dynasty)

होयसल राजवंश (950-1343 ई.) होयसल राजवंश दक्षिण भारत के मध्यकालीन इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण शक्ति […]

होयसल राजवंश  (Hoyasala Dynasty, 950-1343 AD)

होयसल राजवंश (950-1343 ई.)

Table of Contents

होयसल राजवंश दक्षिण भारत के मध्यकालीन इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण शक्ति था, जिसने लगभग 1006 से 1346 ई. तक कर्नाटक और तमिलनाडु के कुछ क्षेत्रों पर शासन किया। इसकी स्थापना पश्चिमी घाट के पर्वतीय क्षेत्र मलनाड में हुई, जहाँ उन्होंने एक छोटे भूभाग पर नियंत्रण स्थापित किया। प्रारंभिक काल में उनका शासन कर्नाटक के दक्षिणी भाग, विशेष रूप से कुंतल क्षेत्र तक सीमित था। कन्नड़ भाषी और दृढ़ पहाड़ी निवासियों के रूप में पहचाने जाने वाले होयसलों ने अपनी राजनीतिक और सैन्य शक्ति का धीरे-धीरे विस्तार किया। होयसलों की प्रारंभिक राजधानी सोसेवुरु (आंगदी) और बेलूर (वेलापुर) थीं, लेकिन 12वीं शताब्दी में उन्होंने द्वारसमुद्र (आधुनिक हलेबिडु) को अपनी राजधानी बनाया। द्वारसमुद्र प्रशासनिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र बन गया।

12वीं शताब्दी में होयसलों ने पश्चिमी चालुक्यों और कल्याणी के कलचुरियों के बीच आंतरिक युद्धों का लाभ उठाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। इस दौरान उन्होंने कर्नाटक के अधिकांश हिस्सों तथा तमिलनाडु के कावेरी डेल्टा के उत्तरी भागों पर अधिकार स्थापित किया। कल्याणी चालुक्यों के सामंती समर्थन ने होयसलों को अपनी स्थिति मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण सहायता दी। प्रमुख शासक जैसे विनयादित्य और विष्णुवर्धन के नेतृत्व में उन्होंने सैन्य और राजनीतिक क्षेत्र में कई ऐतिहासिक सफलताएँ प्राप्त कीं। विष्णुवर्धन ने कदंबों के क्षेत्र को जीतकर आर्थिक और राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ किया। इसके साथ ही, उन्होंने चोलों को उनकी पारंपरिक सीमाओं से बाहर निकालकर कर्नाटक के पठारी क्षेत्रों से खदेड़ दिया। उनके पोते बल्लाल द्वितीय ने यदुवंश के दबाव के बावजूद मैसूर के उत्तरी क्षेत्र में अपने प्रभुत्व का विस्तार किया। होयसलों ने मैसूर के गंगवाड़ी क्षेत्र, तुंगभद्रा के पार धारवाड़ और रायचूर की समृद्ध भूमि पर भी नियंत्रण स्थापित किया।

होयसल शासन सहिष्णुता और सांस्कृतिक समरसता का एक उत्कृष्ट उदाहरण था। वैष्णव, शैव और जैन परंपराओं को समान संरक्षण प्राप्त था, जिससे दक्षिण भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक सहयोग को बढ़ावा मिला। इस बहुधार्मिक सहअस्तित्व ने समाज में सामंजस्य और आपसी संवाद को मजबूत किया। होयसल राजवंश अपनी स्थापत्य कला के लिए विश्वविख्यात था। ताराकार शैली के मंदिरों का निर्माण उनकी कला की विशिष्टता है। बेलूर का चेन्नकेशव मंदिर और हलेबिडु का होयसलेश्वर मंदिर इसके प्रमुख उदाहरण हैं। इन मंदिरों की दीवारों और स्तंभों पर जटिल नक्काशी, जीवंत चित्र, पौराणिक कथाएँ और मूर्तियाँ बनी हैं, जो होयसल काल की स्थापत्य कला और शिल्प कौशल के उत्कृष्ट नमूने हैं। होयसलों के शासनकाल में कन्नड़ और संस्कृत साहित्य को भी बहुत प्रोत्साहन मिला, साथ ही संगीत और नृत्य जैसे कलात्मक क्षेत्रों का भी विकास हुआ।

भौगोलिक पृष्ठभूमि

होयसल राज्य का प्रारंभिक क्षेत्र कर्नाटक के दक्षिणी भाग में कुंतल प्रदेश तक सीमित था। लगभग चार शताब्दियों तक शासन करने के दौरान होयसलों ने अपनी सांस्कृतिक उपलब्धियों को राजनीतिक उपलब्धियों से कहीं अधिक ऊँचाइयों तक पहुँचाया।

होयसल साम्राज्य का भौगोलिक विस्तार व्यापक और रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण था। यह पश्चिमी घाट की पहाड़ियों और उनके पूर्वी क्षेत्रों तक फैला था, जिसमें उत्तरी सीमा पर बंगलूरु और कोलार जिले शामिल थे। दक्षिणी सीमा में हासन, मैसूर, कडूर और तुमकुर जिले साथ ही वेदावती और पिनाकिनी नदियों के बीच का क्षेत्र उनके अधीन था। इसके अतिरिक्त, रायचूर दोआब, जिसमें तुंगभद्रा नदी के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र जैसे गंगवाडी, नोलंबवाडी और कदंब क्षेत्र शामिल थे, भी होयसल साम्राज्य का हिस्सा थे, जो उनकी शक्ति और प्रभाव का सूचक है। काँचीपुरम (काँची) उनकी दक्षिण-पूर्वी सीमा पर स्थित था और समय-समय पर उनके नियंत्रण में रहा।

होयसलों ने घने जंगलों और झाड़-झंखाड़ों को साफ करके इन क्षेत्रों को कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित किया, जिससे उनकी आर्थिक समृद्धि बढ़ी। उनके राज्य में द्रविड़ और आर्य मूल के लोग निवास करते थे। मैदानी क्षेत्रों में ब्राह्मण और मिश्रित रक्तवाले धनी लोग रहते थे, जो राजाओं से प्राप्त अग्रहार जैसे भूमि अनुदान के कारण समृद्ध थे। दूसरी ओर पर्वतीय और जंगली क्षेत्रों में वेड्डर जैसे शिकारी समुदाय निवास करते थे, जो लूट, शिकार, चौकीदारी और व्यापारियों के माल की सुरक्षा जैसे कार्यों से अपनी जीविका कमाते थे। रायचूर दोआब क्षेत्र, जिसमें गंगवाडी, नोलंबवाडी और कदंब क्षेत्र शामिल थे, ऐतिहासिक रूप से महत्त्वपूर्ण था। इस क्षेत्र के लिए राष्ट्रकूटों, चालुक्यों, पल्लवों और चोलों के बीच निरंतर युद्ध होते रहते थे, जिनका लाभ उठाकर होयसलों ने अपनी सत्ता स्थापित की।

ऐतिहासिक स्रोत

होयसल राजवंश के इतिहास निर्माण में विभिन्न प्राथमिक और द्वितीयक स्रोत उपयोगी हैं, जिनसे उनकी उत्पत्ति, प्रशासनिक संगठन, धार्मिक नीति, स्थापत्य कला, सांस्कृतिक योगदान और पतन की जानकारी मिलती है। इन स्रोतों में शिलालेख, पुरातात्त्विक अवशेष, साहित्यिक ग्रंथ और विदेशी यात्रियों के विवरण महत्त्वपूर्ण हैं। इन ऐतिहासिक स्रोतों के समन्वित विश्लेषण से होयसल शासकों के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन के इतिहास का पुनर्निर्माण किया जा सकता है।

शिलालेख

होयसल राजाओं के शिलालेख अधिकांशतः कन्नड़ और संस्कृत में लिखे गए हैं, जो उनके शासनकाल, सैन्य अभियानों, प्रशासनिक व्यवस्था और सांस्कृतिक उपलब्धियों की जानकारी के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। प्रारंभिक शिलालेख, जैसे 950 ई. का अरेकल्ल और 976 ई. का नृपकाम प्रथम का अभिलेख, इस राजवंश की उत्पत्ति और आरंभिक विस्तार की पुष्टि करते हैं। 1048 ई. का कैलेयब्बे भूमिदान, 1055 ई. का मल्लिकेश्वर मंदिर दान और 1089 ई. का गंगविक्रम उपाधि अभिलेख धार्मिक उदारता व प्रशासनिक कौशल की सूचना देते हैं। 1060 ई. का चालुक्य त्रैलोक्यमल्ल अभिलेख तथा 1062-1068 ई. के सांतर अभिलेख समकालीन राजवंशों के साथ होयसल संबंधों और युद्धों की जानकारी देते हैं। 1084 ई. का विनयादित्य का अभिलेख उनके शासनक्षेत्र और विजयों का विवरण प्रदान करता है। 1116 ई. का तलक्काड़ अभिलेख और 1117 ई. का बेलूर अभिलेख विष्णुवर्धन की चोल विजय तथा वैवाहिक गठबंधनों को उजागर करते हैं और श्तलकाडुकोंडश् उपाधि की पुष्टि करते हैं। 1178 ई. के बल्लाल तृतीय के गडग अभिलेख में प्रशासनिक संरचना और गरुड़ अंगरक्षकों का वर्णन मिलता है। बेलूर, हलेबिडु और सोमनाथपुर के मंदिर-शिलालेखों से धार्मिक सहिष्णुता, मंदिर निर्माण और राजपंडितों की भूमिका पर प्रकाश पड़ता है, वहीं नरसिंह तृतीय व वीर बल्लाल द्वितीय के शिलालेखों में राजस्व व्यवस्था और सैन्य अभियानों का विवरण मिलता है। कन्ननूर कुप्पम के ताम्रपत्र शिलालेख (1217, 1225 ई.) होयसलों के दक्षिणी विस्तार और प्रशासनिक समायोजन की सूचना देते हैं।

पुरातात्त्विक अवशेष

होयसलकालीन मंदिरों और स्थापत्य स्मारकों के पुरातात्त्विक अवशेष तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक और कलात्मक उत्कर्ष के साक्षी हैं। बेलूर का चेन्नकेशव मंदिर (1117 ई.) साबुन पत्थर (सोपस्टोन) पर की गई सजीव नक्काशी और तोरण द्वारों पर उकेरे गए रामायण व महाभारत दृश्यों के लिए प्रसिद्ध है। हलेबिडु का होयसलेश्वर मंदिर (1121 ई.) शैव-वैष्णव परंपराओं के संगम का उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ देवताओं, नर्तकियों और रण-प्रसंगों की सजीव मूर्तियाँ हैं। सोमनाथपुर का केशव मंदिर (1279 ई.) त्रिकूट शैली और ताराकार (स्टार-शेप) योजना के कारण स्थापत्य कला का उत्तुंग शिखर माना जा सकता है। इन मंदिरों की ताराकार योजना, सूक्ष्म नक्काशी और विविध मूर्तिकला से तत्कालीन समाज, कला और धार्मिक जीवन के बहुआयामी स्वरूप की जानकारी मिलती है।

महापाषाणीय संस्कृति से संबंधित अवशेष, जैसे मेरुंड पक्षी की प्रतिमाएँ, होयसल उत्पत्ति के दक्षिण भारतीय आधार की पुष्टि करती हैं। नहरों, झीलों और अग्रहारों के अवशेष उनके प्रशासनिक कौशल और संगठन क्षमता को दर्शाते हैं। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के अभिलेख राजधानी स्थानांतरण और सिंचाई प्रणाली के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।

साहित्यिक साक्ष्य

होयसल काल में कन्नड़ और संस्कृत दोनों भाषाओं में विविध विषयों पर रचनाएँ की गईं। इस काल की प्रमुख कन्नड़ रचनाओं में नागचंद्र की ‘रामचरितपुराण’ (जैन परंपरा), नागवर्मा की ‘काव्यावलोकन’ व ‘कर्नाटक भाषाभूषण’, केशिराज की ‘शब्दमणिदर्पण’ (व्याकरण), राघवांक की ‘हरिश्चंद्र काव्य’, जन्ना की ‘यशोधरचरिते’, नेमिचंद्र की ‘लीलावती प्रबंधम’ व ‘नेमिनाथ चरित’ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, जो तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक बहुलता और साहित्यिक वैभव का दर्पण हैं। इस काल की संस्कृत रचनाओं में रुद्र भट्ट का ‘जगन्नाथ विजय’, महाग्रास तृतीय का ‘जयनृप काव्य’, अभिनव वादिविद्याहंड का ‘काव्यसार’, नारायण पंडित का ‘मध्वविजय’ और त्रिविक्रम पंडित की रचनाएँ ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं, जिनसे तत्कालीन धर्म-दर्शन, वैष्णव भक्ति और द्वैत-आदर्श पर प्रकाश पड़ता है। इन साहित्यिक कृतियों में धार्मिक सहिष्णुता, राजकीय संरक्षण, दार्शनिक-बौद्धिक प्रवृत्तियों और बौद्धिक संस्कृति की झलक मिलती है।

विदेशी यात्रियों के विवरण

अनेक विदेशी यात्री होयसल साम्राज्य की समृद्धि के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं, जिन्होंने अपने विवरणों में होयसल साम्राज्य की समृद्धि का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। 14वीं शताब्दी के अरबी यात्री इब्न बतूता ने द्वारसमुद्र (हलेबिडु) के विशाल मंदिरों, भव्य महलों, सुव्यवस्थित बाजारों और रत्नजटित प्रतिमाओं का विवरण दिया है, जहाँ अत्यंत विकसित व्यापारिक प्रणाली विद्यमान थी। फारसी इतिहासकार अमीर खुसरो और वासफ ने 1311 ई. में मलिक काफूर के आक्रमण व लूट का उल्लेख करते हुए द्वारसमुद्र की आर्थिक व सांस्कृतिक वैभव का विवरण दिया है।

इस प्रकार शिलालेख, पुरातात्त्विक अवशेष, बेलूर-हलेबिडु-सोमनाथपुर के मंदिर, साहित्यिक ग्रंथ और विदेशी यात्रियों के विवरण मिलकर होयसल साम्राज्य की राजनीतिक व्यवस्था, सामाजिक संरचना, प्रशासनिक कौशल और सांस्कृतिक वैभव का अद्वितीय प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। होयसलों का यह योगदान आज कर्नाटक की सांस्कृतिक धरोहर का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।

होयसल वंश का प्रारंभिक उदय और सामंती स्थिति

होयसल राजवंश ने अपनी ऐतिहासिक यात्रा की शुरुआत पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य के सामंत के रूप में की। दसवीं शताब्दी के अंत में होयसलों का प्रथम उल्लेख 950 ई. के अरेकल्ल और 976 ई. के नृपकाम प्रथम के शिलालेखों में मिलता है, जो उनकी उत्पत्ति और प्रारंभिक गतिविधियों के प्रमाण हैं। इस काल में होयसलों ने चालुक्य शासकों के अधीन प्रशासनिक और सैन्य भूमिकाएँ निभाईं, विशेष रूप से गंगवाडी क्षेत्र (वर्तमान दक्षिण कर्नाटक) में, जो उनकी शक्ति का प्रारंभिक केंद्र रहा।

बारहवीं शताब्दी में चालुक्य शक्ति के कमजोर होने और कल्याणी के कलचुरियों के साथ उनके संघर्षों के कारण होयसलों को स्वतंत्रता की दिशा में कदम बढ़ाने का अवसर मिला। विशेष रूप से, शासक विष्णुवर्धन (1108-1152 ई.) और बल्लाल द्वितीय (1173-1220 ई.) ने होयसल साम्राज्य को चालुक्य अधीनता से मुक्त कर एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में स्थापित किया। उनके शासनकाल में होयसलों ने कदंब, यादव (सेवुण) और पांड्य जैसे समकालीन राजवंशों के साथ युद्ध और कूटनीति के माध्यम से अपने क्षेत्र का विस्तार किया।

तेरहवीं शताब्दी के अंत और चौदहवीं शताब्दी की शुरुआत में दिल्ली सल्तनत के आक्रमणों के कारण होयसल साम्राज्य को गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा। 1343 ई. तक होयसल साम्राज्य का पतन हो गया और उनका क्षेत्र विजयनगर साम्राज्य तथा अन्य स्थानीय शक्तियों के अधीन हो गया।

होयसल राजवंश की उत्पत्ति

होयसल राजवंश की उत्पत्ति के संबंध में स्पष्ट ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध नहीं है, जिसके कारण उनकी उत्पत्ति को लेकर विभिन्न परंपराएँ और विद्वानों के मत प्रचलित हैं।

होयसलों ने स्वयं को उत्तर भारत के पौराणिक यदुवंश का वंशज माना और अपने को चंद्रवंशी क्षत्रिय बताया है। उनके 1078 और 1090 ई. के प्रारंभिक अभिलेखों में उन्हें ‘द्वारवतीपुरवराधीश्वर’ (द्वारका के सर्वोच्च स्वामी) और ‘यादवकुलतिलक’ (यादव वंश का आभूषण) के रूप में उल्लेखित किया गया है, जो उनके यदुवंशी होने का संकेत देता है। लेकिन होयसलों का उत्तर भारत के यादवों से सीधा संबंध सिद्ध करने वाले कोई प्रमाणित प्रारंभिक अभिलेख उपलब्ध नहीं हैं। संभवतः ये उपाधियाँ होयसल शासकों द्वारा अपनी राजवंशीय वंशावली को पौराणिक यदुवंश से जोड़ने का प्रयास थीं, जो दक्षिण भारतीय राजवंशों की वैदिक और पौराणिक परंपराओं से उत्पत्ति जोड़ने की सामान्य प्रथा का हिस्सा थी। ऐसी उपाधियाँ न केवल उनकी शाही प्रतिष्ठा को बढ़ाती थीं, बल्कि शासन को धार्मिक और सांस्कृतिक वैधता भी प्रदान करती थीं।

होयसल वंश की उत्पत्ति कन्नड़ लोककथाओं और ऐतिहासिक अभिलेखों के मिश्रण से जुड़ी है। एक प्रसिद्ध किंवदंती के अनुसार एक युवक साल, जिसे पोयसल के नाम से भी जाना जाता है, ने आंगदी (सोसेवुरु) के जंगल में देवी वसंतिका के मंदिर के समीप एक नरभक्षी शेर या बाघ को मारकर तपस्यारत जैन गुरु सुदत्त के प्राणों की रक्षा की। उसी मुनि के आशीर्वाद से साल को राजत्व प्राप्त हुआ। प्राचीन कन्नड़ में ‘होय’ शब्द का अर्थ ‘प्रहार करना’ है, इसलिए साल को ‘होय-शाल’ कहा गया। यह कथा विष्णुवर्धन के लगभग 1117 ई. के बेलूर शिलालेख में मिलती है और होयसल वंश के नामकरण का आधार मानी जाती है। विष्णुवर्धन ने 1116 ई. में तलक्काड़ में चोलों पर विजय प्राप्त की थी और व्याघ्र चोलों का प्रतीक था। होयसल मंदिरों और उनके ध्वज पर साल द्वारा व्याघ्र-वध का अंकन एक ऐतिहासिक प्रतीक माना जा सकता है।

कुछ इतिहासकार होयसलों की उत्पत्ति पश्चिमी घाट के मैसूर क्षेत्र में गंगवाडी के उत्तर-पश्चिमी पहाड़ी इलाकों से मानते हैं, जो तीसरी शताब्दी ईसापूर्व से मौजूद महापाषाणीय संस्कृति के वंशज थे। इनके अनुसार होयसल वंश प्राचीन स्थानीय समुदायों से संबंधित था, जो कर्नाटक के पर्वतीय और मैदानी क्षेत्रों में निवास करते थे।

होयसलों को स्थानीय आदिवासी और कृषक वर्ग से भी जोड़ा जाता है, जिन्होंने संगठित होकर एक शक्तिशाली राजवंश की स्थापना की। माना जाता है कि उनका संबंध पश्चिमी घाट के मालेनाडु पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों से था, जहाँ उन्होंने अपनी प्रारंभिक सत्ता स्थापित की थी।

होयसलों को ‘मेरुंड’ (मिथकीय शिकारी पक्षी) के रूप में भी जाना जाता है, जिसकी छवि उनके मंदिरों की नक्काशी और भित्तिचित्रों में मिलती है। कहा जाता है कि यह पक्षी शेर और हाथी तक को पकड़कर ले जा सकता था। मेरुंड होयसलों की सैन्य शक्ति और साहस का प्रतीक था। यह प्रतीक उनके अभिलेखों, सिक्कों और मंदिर कला में व्यापक रूप से दिखाई देता है, जो उनकी राजवंशीय पहचान और गौरव का द्योतक है।

एक अन्य परंपरा के अनुसार होयसलों की उत्पत्ति स्थानीय द्रविड़ समुदायों और उत्तर से आए आर्य प्रवासियों के मिश्रण से मानी जाती है। मालेनाडु क्षेत्र में उनके प्रारंभिक अस्तित्व और बाद में कर्नाटक के मैदानी क्षेत्रों में विस्तार से पता चलता है कि होयसलों का उदय एक मिश्रित जातीय और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से हुआ था। उनकी सैन्य और प्रशासनिक कुशलताओं ने उन्हें पश्चिमी चालुक्यों के सामंत के रूप में स्थापित किया और बारहवीं शताब्दी में वे स्वतंत्र शासक बन गए।

इस प्रकार होयसलों की उत्पत्ति ऐतिहासिक, पौराणिक और सांस्कृतिक तत्वों का जटिल मिश्रण है। उनके प्रारंभिक शासक राष्ट्रकूट, गंग और चालुक्य जैसे शासकों के सामंत थे। शिलालेखों में होयसल संस्थापकों को ‘मालेपरोलगंड’ (पहाड़ों का स्वामी) कहा गया है, जिससे स्पष्ट होता है कि उनका मूल निवास दक्षिणी कर्नाटक का मालेनाडु क्षेत्र था।

होयसल राजवंश के प्रारंभिक शासक

ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, होयसल वंश की शुरुआत दसवीं शताब्दी में वर्तमान दक्षिणी कर्नाटक के मालेनाडु क्षेत्र में हुई। शिलालेखों में होयसल वंश के संस्थापकों को ‘मालेपरोलगंड’ (पहाड़ों का स्वामी) कहा गया है, जो उनके इस पर्वतीय क्षेत्र से संबंध का सूचक है। प्रारंभ में होयसल राष्ट्रकूटों और चालुक्यों के सामंत थे। उनका सबसे पुराना अभिलेख 950 ई. का है, जिसमें अरेकल्ल नामक सरदार का उल्लेख है, जिन्होंने राष्ट्रकूटों के सामंत के रूप में नोलंबों के विरुद्ध सिरिकुट के युद्ध में भाग लिया था।

होयसल वंश के प्रारंभिक शासकों में पोयसल मारुग (लगभग 960-976 ई.) महत्त्वपूर्ण थे। वह राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय (939-967 ई.) के अंतपाल (सीमा रक्षक) थे। इस काल में राष्ट्रकूट दक्षिण भारत की प्रमुख शक्ति थे और मारुग ने पश्चिमी घाट के मालेनाडु क्षेत्र में अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया।

दसवीं शताब्दी के अंत में राष्ट्रकूटों की शक्ति के कमजोर होने और चोल शासक राजराज प्रथम (985-1014 ई.) द्वारा तोंडैमंडलम क्षेत्र पर कब्जा करने से उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर मारुग ने मालेनाडु के दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र में एक छोटा स्वतंत्र राज्य स्थापित किया।

मारुग ने अपने शासनकाल में गंग और कोंगाइव जैसे क्षेत्रीय शासकों के साथ युद्ध लड़े, जो मुख्यतः क्षेत्रीय वर्चस्व स्थापित करने के लिए थे। लेकिन इन युद्धों से कोई स्थायी लाभ नहीं हुआ। चालुक्यों द्वारा पराजित होने के बावजूद मारुग ने अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा बनाए रखी और नृपकाम, पोयसल तथा परमर्दि जैसी उपाधियाँ धारण कीं।

मारुग के बाद उनके उत्तराधिकारी नृपकाम प्रथम (लगभग 976-1006 ई.) ने शासन सँभाला। उन्होंने प्रभावशाली गंगों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किया और ‘परमानदी’ की उपाधि धारण की। नृपकाम प्रथम ने 1006 ई. में चोल शासक राजराज प्रथम के सामंत अपरमेय के साथ कावेरी घाटी में कलवर का युद्ध लड़ा, जिसमें उन्हें पीछे हटना पड़ा। इतिहासकार के.ए. नीलकंठ शास्त्री के अनुसार 1006-1025 ई. के बीच होयसलों और चोलों के बीच कई युद्ध हुए, जिनमें चोलों ने तलक्काड़ पर कब्जा कर लिया। नृपकाम प्रथम के बाद उनके उत्तराधिकारी मुंड (1006-1026 ई.) के शासनकाल में भी होयसलों का चोलों और अन्य क्षेत्रीय शक्तियों के साथ संघर्ष चलता रहा। इस प्रकार होयसलों को अपनी स्वतंत्रता के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ा।

होयसल राजवंश के महत्त्वपूर्ण शासक

साल या नृपकाम द्वितीय (लगभग 1026-1047 ई.)

होयसल वंश के प्रथम शक्तिशाली शासक नृपकाम द्वितीय (लगभग 1026-1047 ई.) थे, जो संभवतः अनुश्रुतियों में साल के नाम से प्रसिद्ध हैं। अनुश्रुति के अनुसार साल ने मैसूर के वासंतिका मंदिर में एक नरभक्षी बाघ का वध कर एक जैन मुनि सुदत्त की रक्षा की थी, जिससे होयसल वंश का नाम ‘पोय-सल’ पड़ा, जो बाद में होयसल हो गया। इस घटना को होयसल ध्वज और मंदिरों में व्याघ्र प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया, जो उनके कुलचिह्न का हिस्सा बन गया। साल की प्रतीकात्मक कहानी होयसल वंश की वीरता और धार्मिक संरक्षण की परंपरा का परिचायक है। बेलूर के निकट मारले ग्राम से प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार साल या नृपकाम राष्ट्रकूटों के सामंत थे। नृपकाम ने बेलूर को अपनी राजधानी बनाया, यदुवंशोज्ज्वलतिलक की उपाधि धारण की और होयसल राजवंश की नींव डाली। उन्होंने लगभग 1047 ई. तक बेलूर पर शासन किया।

विनयादित्य (लगभग 1047-1098 ई.)

नृपकाम द्वितीय के बाद विनयादित्य ने लगभग 1047 ई. में होयसल वंश का शासन सँभाला और लगभग आधी शताब्दी (1047-1098 ई.) तक शासन किया। उन्होंने सर्वप्रथम पहाड़ी लड़ाकू जातियों को संगठित करके एक शक्तिशाली सेना का गठन किया और होयसलों को एक पहाड़ी लड़ाकू समुदाय से एक प्रतिष्ठित राजवंश के रूप में परिवर्तित किया। विनयादित्य ने कल्याणी के चालुक्य शासकों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित कर त्रिभुवनमल्ल की उपाधि धारण की, जिससे होयसल दक्षिण भारत की एक महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में स्थापित हुए।

विनयादित्य की उपलब्धियाँ

विनयादित्य ने होयसल राज्य की सीमाओं का उत्तरी और पूर्वी दिशाओं में विस्तार किया। परवर्ती होयसल नरेश विष्णुवर्धन के 1137 ई. के एक होयसल अभिलेख के अनुसार उन्होंने कोंकण, आलवखेड़ा, बायलनाडु, वयलखेड़ा, तलकाड और साविमलै क्षेत्रों पर शासन किया। इतिहासकारों का मानना है कि उनकी राज्यसीमा संभवतः कावेरी और कब्बानी नदियों के बीच तलकाड के निकट से लेकर पूर्व में श्रीरंगपट्टनम तक विस्तृत थी।

अपने शासनकाल की शुरुआत में ही विनयादित्य ने कल्याणी के चालुक्य शासकों के साथ वैवाहिक और राजनीतिक संबंध स्थापित किए। उन्होंने चालुक्य शासक सोमेश्वर प्रथम के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किया और अपनी एक पुत्री या बहन का विवाह सोमेश्वर के साथ किया। सोमेश्वर प्रथम की मृत्यु के उपरांत 1076 ई. में चालुक्य उत्तराधिकार युद्ध में विनयादित्य ने पहले सोमेश्वर द्वितीय के पक्ष में कन्नड़ सेना भेजकर उनका समर्थन किया, लेकिन बाद में वह और उनके पुत्र एरेयंग विक्रमादित्य षष्ठ के साथ हो गए। इस रणनीतिक निर्णय से उनके प्रभाव में वृद्धि हुई।

विनयादित्य को अपने शासनकाल में समकालीन शक्तियों, जैसे कदंबों और सांतरों के साथ संघर्ष करना पड़ा। वास्तव में, विनयादित्य की विस्तारवादी नीति के विरूद्ध सांतरों ने होयसलों के विरुद्ध मोर्चाबंदी शुरू कर दी। चालुक्य शासक त्रैलोक्यमल्ल के 1060 ई. के अभिलेख और 1062 तथा 1068 ई. के सांतर अभिलेखों में सांतरों के साथ उनके युद्ध का उल्लेख मिलता है। विनयादित्य ने अपने पौरुष के बल पर 1060 ई. से 1090 ई. के बीच सांतर राज्य के कुछ हिस्सों पर अधिकार कर लिया, लेकिन सांतरों ने होयसलों की पूर्ण अधीनता स्वीकार नहीं की और अपनी स्वायत्त स्थिति बनाए रखी। विनयादित्य ने सांतर राजकुमारी होयसलदेवी से विवाह किया, जिससे दोनों शक्तियों के बीच मैत्री संबंध मजबूत हुए और होयसलों को सांतर क्षेत्र में प्रभाव बढ़ाने का अवसर मिला।

विनयादित्य को गंग राज्य के विरुद्ध अपेक्षाकृत अधिक सफलता मिली। 1060 ई. के बाद के अभिलेखों में उन्हें गंगवाडि 96000 पर शासन करते हुए बताया गया है, लेकिन उनकी अधिसत्ता इस क्षेत्र के केवल एक हिस्से तक सीमित थी। 1089 ई. के एक अभिलेख में उन्हें गंगविक्रम कहा गया है, जो उनकी गंगों पर विजय का सूचक है। संभवतः गंगों ने होयसल अधिसत्ता को स्वीकार कर लिया और विनयादित्य की पौत्री का विवाह एक गंग राजकुमार से हुआ।

1090 ई. के बाद विनयादित्य ने कलेपट्टन, चक्रगोट्ट और कलिंग में विजय की, लेकिन चोलों के साथ प्रत्यक्ष युद्ध से बचने की नीति अपनाई। विनयादित्य के इन सफल अभियानों से चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ सशंकित रहने लगे। यही कारण है कि 1093 ई. में जब परमार शासक जगद्देव (लक्ष्मदेव) ने होयसलनाडु पर आक्रमण किया, तो चालुक्यों ने उन्हें द्वारसमुद्र पर आक्रमण करने के लिए परोक्षरूप से प्रोत्साहित किया। लेकिन विनयादित्य के दो पौत्रों- बल्लाल और विष्णुवर्धन ने जगद्देव को होयसलनाडु से बाहर खदेड़ दिया।

विनयादित्य ने अपनी राजधानी को सोसेवुरु से द्वारसमुद्र (हलेबिडु) स्थानांतरित किया, जो व्यापारिक मार्गों के केंद्र में स्थित था। उन्होंने नहरों और झीलों का प्रबंधन कर एक संगठित शासन व्यवस्था स्थापित की, जिससे कृषि और व्यापार को बढ़ावा मिला। उनके शासनकाल में सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों को प्रोत्साहन मिला और जैन मठों तथा अग्रहारों को भूमिदान दिए गए। 1048 ई. में उनकी रानी कैलेयब्बे (केलेयव्वे) द्वारा किए गए भूमिदान का उल्लेख मिलता है। 1055 ई. में उनकी रानी होयसलदेवी ने तुंगभद्रा नदी के किनारे मल्लिकेश्वर मंदिर को दान दिया। विनयादित्य ने ‘समधिगतपंचमहाशब्द महामंडलेश्वर’ की उपाधि धारण की थी, जो उनकी शाही प्रतिष्ठा और धार्मिक संरक्षण को रेखांकित करती है। 1098 ई. में विनयादित्य की मृत्यु के बाद उनके पुत्र एरेयंग ने सिंहासन सँभाला।

एरेयंग (लगभग 1098-1100 ई.)

विनयादित्य के पुत्र एरेयंग ने अस्सी वर्ष की आयु में होयसल राज्य की बागडोर सँभाली। उनकी समस्त उपलब्धियाँ पिता विनयादित्य के शासनकाल की ही रहीं, जब उन्होंने युवराज के रूप में सैन्य-संचालन किया था। वह चालुक्य होयसल संयुक्त सेना के महानायक रहे और चालुक्य शासक की दाहिनी भुजा माने जाते थे। उनके शासनकाल के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि उन्होंने चालुक्य सेना के साथ मिलकर 1069-1076 ई. के बीच पश्चिमी चालुक्यों के परंपरागत शत्रु परमारों की राजधानी धारा (धार) को नष्ट किया था, चोलों के सैन्य शिविरों पर आक्रमण किया था और कङ्ग (कांगड़ा) तथा चक्रकोट (चक्रकूट, बस्तर) की विजय की थी। उन्होंने चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ के सैन्य अभियानों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे होयसलों की स्थिति और सुदृढ़ हुई।

एरेयंग का शासनकाल छोटा था, लेकिन उनकी सैन्य उपलब्धियाँ और चालुक्यों के साथ गठजोड़ ने होयसल वंश को दक्षिण भारत में एक उभरती शक्ति के रूप में स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

एरेयंग की रानी का नाम एचलादेवी मिलता है, जिनके तीन पुत्र बल्लाल प्रथम, विष्णुवर्धन और उदयादित्य थे। एरेयंग की संभवतः 1100 ई. में मृत्यु के बाद उनके पुत्र बल्लाल प्रथम सिंहासनासीन हुए।

बल्लाल प्रथम (लगभग 1100-1106 ई.)

एरेयंग के पुत्र बल्लाल प्रथम लगभग 1100 ई. में होयसल सिंहासन पर आसीन हुए। वे पश्चिमी चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ के सामंत थे, क्योंकि उनके शासनकाल के अभिलेखों में 1076 ई. में विक्रमादित्य षष्ठ के राज्यारोहण का उल्लेख मिलता है। बल्लाल प्रथम एक महत्त्वाकांक्षी और योग्य शासक थे, जिन्हें अपने छोटे भाई विष्णुवर्धन का पूर्ण सहयोग और भ्रातृप्रेम प्राप्त था। उनके शासनकाल में होयसलों की सैन्य और कूटनीतिक स्थिति सुदृढ़ हुई।

बल्लाल प्रथम की उपलब्धियाँ

बल्लाल प्रथम ने किशोरावस्था में ही परमार शासक उदयादित्य के पुत्र जगद्देव (लक्ष्मदेव) के आक्रमण को विफल कर अपनी सैन्य क्षमता का परिचय दिया था। 1104 ई. में अपने अनुज विष्णुवर्धन के सहयोग से उन्होंने कोंगु क्षेत्र पर विजय प्राप्त की। उन्होंने नोलंबवाडी के पांड्य शासकों के खिलाफ भी अभियान चलाया। पांड्य नरेश के आत्मसमर्पण के बाद बल्लाल प्रथम ने तुंगभद्रा नदी पार कर चालुक्य-शासित उत्तरी और पश्चिमी क्षेत्रों पर आक्रमण किया और विपुल संपत्ति प्राप्त की।

तुंगभद्रा से वापसी के दौरान चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ के सामंत आचुगी द्वितीय ने होयसलों को पराजित कर उनकी शक्ति को चुनौती दी। इस पराजय के बाद बल्लाल प्रथम अपने शेष शासनकाल में चालुक्य नरेश के प्रति निष्ठावान बने रहे और चालुक्यों के साथ सहयोग बनाए रखे।

बल्लाल प्रथम निःसंतान थे। पुत्र प्राप्ति की इच्छा से उन्होंने 1103 ई. में अपने द्वितीय दंडनायक की तीन पुत्रियों-पद्मलि (पद्मिनी देवी), चावलि (चावल देवी) और बोप्पा देवी से एक साथ विवाह किया, लेकिन अंततः निःसंतान ही रहे। 1106 ई. में उनकी मृत्यु के बाद उनके छोटे भाई विष्णुवर्धन (बिट्टीदेव) होयसल राजगद्दी पर बैठे।

विष्णुवर्धन या बिट्टीदेव (लगभग 1108-1152 ई.)

विष्णुवर्धन, जिन्हें बिट्टीदेव के नाम से भी जाना जाता है, बल्लाल प्रथम के छोटे भाई थे। वह अपने बड़े भाई बल्लाल प्रथम की मृत्यु के बाद लगभग 1108 ई. में होयसल सिंहासन पर आसीन हुए। प्रारंभ में वह जैन धर्म के अनुयायी थे और बिट्टीदेव के रूप में जाने जाते थे। रामानुजाचार्य के प्रभाव से उन्होंने वैष्णव धर्म अपनाया और विष्णुवर्धन नाम धारण किया। अपने अग्रज बल्लाल प्रथम के प्रति उनके प्रेम और निष्ठा की तुलना रामायण के लक्ष्मण और राम के भ्रातृप्रेम से की गई है।

सैन्य उपलब्धियाँ

विष्णुवर्धन होयसल वंश के सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली शासकों में से एक थे, जिन्होंने प्रारंभ में चालुक्य शासकों की अधीनता स्वीकार करते हुए अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए चोल-समर्थित अथवा चालुक्य-सत्ता के विरोधी राज्यों के विरुद्ध अभियान चलाए और बाद में अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर चालुक्य अधीनता से स्वतंत्र होकर होयसल साम्राज्य को एक क्षेत्रीय शक्ति से प्रभावशाली साम्राज्य के रूप में स्थापित करने का प्रयत्न किया।

प्रारंभिक विजयें और सुदृढ़ीकरण : विष्णुवर्धन ने अपने बड़े भाई बल्लाल प्रथम के शासनकाल में गंगवाडी के कुछ हिस्सों में प्रांतपति के रूप में कार्य किया था। अपने शासन के प्रारंभिक 6-7 वर्षों (1108-1115 ई.) में उन्होंने अपनी प्रशासनिक और सैन्य शक्ति को सुदृढ़ किया। उन्होंने अपनी राजधानी द्वारसमुद्र से बेलबोला तक के प्रदेशों पर नियंत्रण स्थापित किया और अपने घोड़ों को कृष्णा नदी में स्नान करवाया। 1111 ई. में उन्होंने नंगलि (कोलार के निकट) पर विजय प्राप्त की और तलकाड की सीमा तक अपने क्षेत्र का विस्तार किया। तलकाड विजय से पहले उन्होंने मुरुशुनाड और कोलार जनपदों पर अधिकार किया। इन अभियानों में गंगों और नोलंबों ने संभवतः उनकी सहायता की, क्योंकि होयसलों के इन राजवंशों के साथ वैवाहिक संबंध थे।

चोलों के विरुद्ध अभियान ; विष्णुवर्धन की सबसे बड़ी उपलब्धि चोलों के विरुद्ध अभियान कर गंगवाडी के चोल-नियंत्रित क्षेत्रों पर अधिकार करना था। लगभग 1116 ई. में उन्होंने गंगवाडी के चोल-नियंत्रित क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की और कोंगुनाड (कोंगु) के चोल-समर्थित राज्य पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन किया। इसी दौरान चालुक्यों के उकसावे पर उच्छंगी के नोलंब शासक ने विद्रोह किया, जिन्हें होयसलों ने पहले पराजित किया था। विष्णुवर्धन ने एक बार पुनः उच्छंगी (नोलंब क्षेत्र) के विद्रोही शासक को पराजित किया और उच्छंगीकोंड तथा नोलंबकोंड की उपाधियाँ धारण कीं। अपनी सामरिक सफलताओं से उत्साहित होकर, उन्होंने तुंगभद्रा नदी पार कर हनुंगल और कदंब राज्यों पर विजय प्राप्त की। इस अभियान में आलवखेड़ा (दक्षिणी कनारा) के आलुप नरेश को भी पराजित किया।

चोल शासक कुलोत्तुंग प्रथम संभवतः उस समय चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ के सैन्य दबावों से जूझ रहे थे और विष्णुवर्धन के प्रति सतर्क नहीं थे। विष्णुवर्धन के महादंडनायक गंगराज ने तलकाड पर आक्रमण किया। अभिलेखों से पता चलता है कि 1116 ई. में होयसल सेनापति गंगराज ने चोल सेनापति अडिगमान को तलकाड के निकट पराजित कर किले पर कब्जा कर लिया। अडिगमान को भागकर काँची में शरण लेनी पड़ी। इसके बाद होयसलों ने चोलों के दो अन्य प्रांतपतियों दामोदर और नरसिंहवर्मा को भी पराजित किया। दामोदर काशी की ओर भाग गए, जबकि नरसिंहवर्मा मारे गए। एक कन्नड़ अभिलेख के अनुसार विष्णुवर्धन द्वारा मारे गए चोल सैनिकों के शवों से कृष्णा नदी का जल इतना अपवित्र हो गया कि कुलोत्तुंग ने नदी का जल पीना बंद कर दिया और केवल कुएँ का जल पीने लगे, लेकिन यह दावा अतिशयोक्तिपूर्ण है।

1117 ई. तक विष्णुवर्धन ने नीलगिरि क्षेत्र के अन्य शासकों को हराया और पंढरपुर तक विजय प्राप्त की, जहाँ उन्होंने विठ्ठलदेव मंदिर और उनकी मूर्ति का निर्माण करवाया। नोलंबवाडी के नोलंबों, बनवासी और गोवा के कदंबों, उच्छंगी के पांड्यों, मंगलुरु के आलुपों और होसगुंड के संतरों को उनकी अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। चामराजनगर शिलालेख में उनकी सेनाओं द्वारा नीले पहाड़ों को पार करने और उन्हें केरल का स्वामी होने का दावा किया गया है। संभव है कि विष्णुवर्धन ने नीलगिरि क्षेत्र के कुछ हिस्सों पर नियंत्रण स्थापित किया हो, लेकिन केरल पर उनके प्रत्यक्ष शासन का कोई प्रमाण नहीं है। अपनी विजयों के बाद विष्णुवर्धन ने तलकाडकोंड (तलकाड का स्वामी) और नोलंबवाडीकोंड (नोलंब का स्वामी) जैसी उपाधियाँ धारण कीं और कोलार में अपने भाई उदयादित्य को शासक नियुक्त किया।

कल्याणी चालुक्यों से संबंध ; चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1126 ई.) शक्तिशाली और दूरदर्शी थे। यद्यपि विष्णुवर्धन ने अपने अभियान चोलों और उनके समर्थित सामंतों के विरुद्ध चलाए और स्वयं को चालुक्यों का अधीनस्थ घोषित किया, लेकिन विक्रमादित्य को होयसलों का बढ़ता प्रभाव पसंद नहीं था। विक्रमादित्य ने 1112 ई. में होयसलों के प्रतिद्वंद्वी अपने विष्वासपात्र बारह सामंतों को विद्रोह के लिए उकसाया, जिसमें गोवा के कदंब, उच्छंगी के पांड्य, हेज्जेरु के चोल, सौदंति के रट्ठ और इरमपरज के सिंद शामिल थे। विष्णुवर्धन और उनके महादंडनायक गंगराज ने तलकाड के मैदान में इस संयुक्त मोर्चे को पराजित किया।

उत्तरी अभियान  ; दक्षिण में अपनी सफलताओं के बाद विष्णुवर्धन ने 1117-1120 ई. के बीच उत्तर की ओर अभियान चलाया। होयसलों ने गंगराज के नेतृत्व में कदंबों पर आक्रमण किया, तैलप को पराजित किया और तुंगभद्रा नदी तक पहुँच गए। इसी क्रम में उन्होंने हेज्जेरु के चोलों और उच्छंगी के पांड्यों को भी हराया। होयसल सेना ने 1118 ई. में कन्नेगल में चालुक्य सेनाओं को पराजित किया, हनुंगल में किले पर कब्जा किया और 1120 ई. में हल्लूर में चालुक्य सेनापति बोपन्न को हराया। उन्होंने बनवासी और हुमाचा पर नियंत्रण स्थापित किया। लेकिन 1122 ई. में कृष्णा नदी के निकट चालुक्य-निष्ठ सेनापति सिंदवंशीय आचुगी द्वितीय ने उन्हें पराजित किया। सिंद अभिलेखों के अनुसार, आचुगी ने गोवा और कोंकण पर अधिकार किया और उनके पुत्र परमाडि ने द्वारसमुद्र तक होयसलों का पीछा किया। इस कारण विष्णुवर्धन को चालुक्य अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। इसके अतिरिक्त, कोलार में विक्रमचोल ने भी अभियान चलाकर होयसल शक्ति को क्षति पहुँचाई।

चालुक्य उत्तराधिकार का संकट  ; विक्रमादित्य षष्ठ की मृत्यु (1127 ई.) के बाद चालुक्य साम्राज्य में उत्तराधिकार का संकट उत्पन्न हुआ, जिससे कृष्णा नदी के तटवर्ती सामंतों ने स्वतंत्रता के प्रयास तेज किए। 1127 ई. के बाद विष्णुवर्धन ने चालुक्य कमजोरी का लाभ उठाकर स्वतंत्रता की दिशा में कदम उठाए। 1129 ई. में चालुक्य शासक सोमेश्वर तृतीय ने अपने शासन को सुदृढ़ करने के लिए अभियान चलाया। विष्णुवर्धन ने संभावित चालुक्य आक्रमण के भय से चालुक्य-समर्थक कदंब और सांतर राज्यों पर आक्रमण किया। 1130 ई. में कदंब शासक तैलप की मृत्यु हो गई और उनके उत्तराधिकारी मयूरवर्मा विष्णुवर्धन से पराजित हुए। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि 1131 ई. के आसपास विष्णुवर्धन ने कृष्णा नदी क्षेत्र के कुछ हिस्सों पर नियंत्रण कर लिया और तुलापुरुष समारोह आयोजित कर अपनी संप्रभुता का प्रदर्शन किया। 1140 ई. तक विष्णुवर्धन ने हनुंगल, उच्छंगी और बंकापुर पर पुनः अधिकार कर लिया और लक्कुंडी पर आक्रमण किया। विष्णुवर्धन ने बंकापुर को अपनी उपराजधानी बनाया और द्वारसमुद्र का प्रबंधन अपने पुत्र नरसिंह को सौंप दिया।

होयसल राजवंश (Hoyasala Dynasty, 950-1343 AD)
होयसल राजवंश
उत्तराधिकार और अंतिम वर्ष

जिस समय विष्णुवर्धन कदंबों और चालुक्यों से युद्ध करने में व्यस्त थे, उसी दौरान उनके युवराज पुत्र नरसिंह की 1133 ई. में मृत्यु हो गई, जो उनकी अनुपस्थिति में राजधानी में राजकाज सँभालते थे। इससे विष्णुवर्धन को बहुत आघात पहुँचा। बाद में, उनकी पटरानी शांतलदेवी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम वीर नरसिंह प्रथम (युवराज नरसिंह से भिन्न) रखा गया, जो 1152 ई. में उत्तराधिकारी बने। विष्णुवर्धन ने वीर नरसिंह को उत्तराधिकारी घोषित किया और शांतलदेवी की अध्यक्षता में मंत्रिपरिषद और दंडनायकों की एक सर्वोच्च प्रशासनिक समिति गठित कर दी।

अपने शासन के अंतिम चरण में विष्णुवर्धन को कदंबों से बार-बार युद्ध करना पड़ा और एक युद्ध में उन्हें बंकापुर छोड़ना पड़ा। यल्लादहल्ली अभिलेख (1145 ई.) से पता चलता है कि उन्होंने वीर नरसिंह प्रथम को 1145 ई. सह-शासक नियुक्त किया था। आंतरिक और बाह्य संकटों से जूझते हुए अंततः 1152 ई. में विष्णुवर्धन की मृत्यु हो गई, उस समय उनके उत्तराधिकारी वीर नरसिंहदेव मात्र 8 वर्ष के थे।

विष्णुवर्धन की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

विष्णुवर्धन पहले जैन थे, बाद में रामानुजाचार्य के प्रभाव से वैष्णववाद के समर्थक हो गए। रामानुजाचार्य ने उन्हें विष्णुवर्धन नाम दिया, लेकिन उनकी रानी शांतलदेवी और उनका परिवार जैन धर्म का पालन करता रहा। विष्णुवर्धन ने जैन और हिंदू मंदिरों को समान रूप से संरक्षण प्रदान किया। उनके शासनकाल में बेलूर का चेन्नकेशव मंदिर, हलेबिडु का होयसलेश्वर मंदिर, कंबदहल्ली एवं श्रवणबेलगोला की जैन बसदियाँ और पंढरपुर का विठ्ठल मंदिर बनवाए गए। चेन्नकेशव मंदिर में विष्णुवर्धन और शांतलदेवी की मूर्तियाँ हैं। शांतलदेवी ने चेन्नकेशव मंदिर परिसर में कप्पे चेन्नीगरया मंदिर बनवाया, जबकि होयसलेश्वर मंदिर को व्यापारियों केतमल्ल और केसरसेट्टि ने वित्तपोषित किया। विष्णुवर्धन ने तलकाड में कीर्तिनारायण (विष्णु) को समर्पित एक सरोवर खुदवाया और चार गाँवों का दान दिया। रामानुजाचार्य ने मेलुकोट में निवास किया और रंगनाथ भक्ति का प्रचार किया।

विष्णुवर्धन के शासनकाल में कन्नड़ साहित्य का विकास हुआ। उनके संरक्षण में कवि नागचंद्र ने कन्नड़ में रामचंद्रचरित पुराण (जैन रामायण) और मल्लिनाथ पुराण (उन्नीसवें जैन तीर्थंकर पर) लिखा। गणितज्ञ राजदित्य ने व्यवहारगणित पर लीलावती की रचना की।

विष्णुवर्धन के युद्ध कौशल, रणनीतिक विजयों और कूटनीतिक गठबंधनों के परिणामस्वरूप होयसल साम्राज्य का विस्तार हुआ। उनके शासनकाल में होयसल राज्य पूर्व में नंगलि (कोलार के निकट), पश्चिम में बरकनूर (दक्षिण कनारा), उत्तर में साविमा और दक्षिण में कोंगु (सलेम और कोयंबटूर) तक फैल गया था। उन्होंने वीरगंगकदंब, तलकाडगोंड, उच्छंगीकोंड, और नोलंबवाडीगोंड जैसी उपाधियाँ धारण कीं। विष्णुवर्धन ने होयसल वंश को एक शक्तिशाली और स्वतंत्र साम्राज्य के रूप में स्थापित किया, जिसकी सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत आज भी बेलूर और हलेबिडु के मंदिरों में जीवित है।

वीर नरसिंहदेव प्रथम (1152-1173 ई.)

वीर नरसिंहदेव प्रथम 1152 ई. में मात्र 8 वर्ष की आयु में होयसल राजसिंहासन पर आसीन हुए, जो उनके लिए एक चुनौतीपूर्ण उत्तरदायित्व था। नरसिंहदेव की अल्पवयस्कता के कारण प्रशासन संभवतः उनकी माता या विश्वस्त सामंतों द्वारा संचालित किया गया।

नरसिंहदेव के शासनकाल में होयसल राज्य को आंतरिक और बाह्य संकटों का सामना करना पड़ा। इस दौरान चालुक्य समर्थित आंतरिक विद्रोह, कदंब, सिंद और कलचुरि जैसे शासकों ने होयसल साम्राज्य पर आक्रमण कर जन और धन की अपार क्षति पहुँचाई।

आंतरिक अस्थिरता

नरसिंहदेव प्रथम के शासनकाल में आंतरिक अस्थिरता एक प्रमुख समस्या थी। उनके चचेरे भाई इरैमंग (एरेयंग) ने चालुक्यों के उकसावे में आकर होयसल राजगद्दी पर दावा किया और आंतरिक विद्रोह को भड़काया। दरअसल, पश्चिमी चालुक्य होयसलों की बढ़ती शक्ति से सशंकित थे, क्योंकि विष्णुवर्धन ने चालुक्य अधिसत्ता को चुनौती देकर होयसल वंश को एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया था। कुछ अभिलेखों से संकेत मिलता है कि चालुक्य शासक जगदेकमल्ल द्वितीय (1138-1151 ई.) और उनके उत्तराधिकारी तैलप तृतीय ने होयसलों को कमजोर करने के लिए सामंतों के बीच फूट डालने की रणनीति अपनाई। इरैमंग के विद्रोह ने नरसिंहदेव प्रथम के शासन को अस्थिर किया, जिससे होयसलों के शत्रुओं, विशेषकर कदंबों, पांड्यों और गंगों को बदला लेने का अवसर मिल गया।

होयसल राज्य की अस्थिरता का लाभ उठाकर चालुक्य-समर्थित कदंब शासकों ने बार-बार होयसल क्षेत्रों पर आक्रमण किया। कदंबों के आक्रमणों से त्रस्त होकर नरसिंहदेव प्रथम ने उन्हीं की भाषा में प्रत्युत्तर दिया, लेकिन पराजित हो गए। दूसरी ओर, होयसलों की कमजोर स्थिति का लाभ उठाकर पांड्य शासक वीरपांड्य ने भी आक्रमण कर होयसल राज्य को क्षतिग्रस्त किया। विष्णुवर्धन द्वारा पराजित गंग भी विद्रोह पर उतारू हो गए और नरसिंहदेव प्रथम उनके विद्रोह को दबाने में असफल रहे। इसके अतिरिक्त, कलचुरि सरदार बिज्जल ने 1150 के दशक में चालुक्य साम्राज्य के पतन का लाभ उठाकर बनवासी और अन्य क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया।

कुछ इतिहासकारों का मत है कि 1173 ई. में युवराज वीर बल्लाल द्वितीय ने अपने पिता नरसिंहदेव प्रथम को अपदस्थ कर होयसल सिंहासन पर बलपूर्वक अधिकार किया। लेकिन होयसल अभिलेखों से लगता है कि नरसिंहदेव प्रथम ने स्वयं अपने पुत्र वीर बल्लाल द्वितीय को शासन का भार सौंप दिया।

वीर बल्लाल द्वितीय (1173-1220 ई.)

नरसिंहदेव प्रथम के बाद उनके पुत्र वीर बल्लाल द्वितीय (1173-1220 ई.) होयसल राजा बने, जो होयसल राजवंश के सबसे प्रसिद्ध शासकों में से एक थे। वीर बल्लाल द्वितीय का शासनकाल होयसल वंश के स्वर्ण युग का प्रतीक माना जाता है। उन्होंने न केवल होयसल वंश के गौरव को पुनर्स्थापित किया, बल्कि दक्षिण चक्रवर्ती की उपाधि धारण कर अपनी सैन्य और कूटनीतिक शक्ति का प्रदर्शन किया। उन्होंने वीर बल्लाल की उपाधि धारण की, चालुक्यों की नाममात्र की अधीनता को त्यागकर स्वतंत्रता की घोषणा की और प्रभावशाली उपाधियाँ धारण कीं। होयसल अभिलेखों में उन्हें तुंगभद्रा के लिए वड़वानल, पांड्यवंश पर बिजली, चोल शिविर लूटने वाला और युद्धभूमि का भीम कहा गया है, जो उनकी सैन्य शक्ति और युद्ध कौशल के सूचक हैं।

बल्लाल द्वितीय ने 1173 ई. में राज्याभिषेक के बाद पहले तीन वर्षों (1173-1176 ई.) में होयसल राज्य की आंतरिक स्थिति को सुदृढ़ किया और सैन्य अभियानों के लिए एक ठोस आधार तैयार किया। इसके बाद, पश्चिमी चालुक्य सत्ता के पतन का लाभ उठाते हुए उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार शुरू किया।

प्रारंभिक सैन्य सफलताएँ

बल्लाल द्वितीय ने 1177 ई. में उच्छंगी राज्य पर आक्रमण किया और वहाँ के शासक पांड्य कामदेव को उनके अभेद्य दुर्ग में बंदी बना लिया। इस दुर्ग की विजय के उपलक्ष्य में उन्होंने गिरिदुर्गमल्ल की उपाधि धारण की। बाद में कामदेव के आत्मसमर्पण के बाद बल्लाल ने उन्हें अपना सामंत नियुक्त किया। यह विजय शनिवार के दिन हुई थी, इसलिए उन्होंने शनैश्चरसिद्धि की उपाधि भी धारण की। उच्छंगी पर विजय से होयसल साम्राज्य की दक्षिणी सीमा सुदृढ़ हो गई।

1178 ई. में बल्लाल द्वितीय ने चेंगल्व और कोगल्व में विद्रोहों का दमन किया। 1178 ई. के एक होयसल अभिलेख के अनुसार उन्होंने उसी वर्ष चोल शासक मल्लिदेव द्वारा शासित भू-क्षेत्र पर भी अधिकार कर लिया। इसके अतिरिक्त, उन्होंने चालुक्य क्षेत्रों में हानुंगल तथा हलसिंगे-बेलवोला के विरुद्ध अभियान चलाया और बनवासी तथा हानुंगल पर कब्जा कर लिया।

कलचुरियों और अन्य शासकों के साथ संघर्ष ; 1179 ई. से अगले दस वर्षों (1179-1189 ई.) तक होयसल इतिहास सैन्य सफलताओं की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय नहीं है। इस अवधि में बल्लाल द्वितीय को कलचुरियों और नोलंबों से कड़ा संघर्ष करना पड़ा। कलचुरि शासक बिज्जल द्वितीय और उनके उत्तराधिकारी संकम ने चालुक्य साम्राज्य के पतन के बाद स्वतंत्रता की घोषणा की। 1179 ई. के एक अभिलेख में कलचुरि शासक संकम (शंखम) ने दावा किया है कि उन्होंने होयसलों को कई युद्धों में पराजित किया। इन पराजयों के परिणामस्वरूप बल्लाल द्वितीय ने अंततः कलचुरियों के साथ संधि करनी पड़ी। लेकिन देवगिरि के यादवों और काकतीयों से युद्ध तथा आंतरिक गृहयुद्ध के कारण कलचुरियों की शक्ति 1184 ई. तक समाप्तप्राय हो गई, जिसका लाभ उठाकर बल्लाल द्वितीय ने क्षेत्रीय प्रभुत्व स्थापित कर अपनी शक्ति को पुनः सुदृढ़ कर लिया।

चालुक्य पतन और होयसल स्वतंत्रता ; 12वीं शताब्दी के अंत तक चालुक्य साम्राज्य कमजोर हो चुका था, विशेषकर तैलप तृतीय (1150-1162 ई.) और सोमेश्वर चतुर्थ (1184-1200 ई.) के शासनकाल में। बल्लाल द्वितीय ने सोमेश्वर चतुर्थ के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किया। 1189 ई. में यादव शासक भिल्लम ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर कुंतल के उत्तरी भाग पर कब्जा कर लिया। पराजित सोमेश्वर चतुर्थ ने अपने साम्राज्य के दक्षिण-पश्चिमी भाग में शरण ली। यादवों ने उनका पीछा करते हुए एक वर्ष के भीतर तुंगभद्रा नदी के निकट हलसिंग और बेलवोला पर अधिकार कर लिया।

इस अवसर का लाभ उठाकर बल्लाल द्वितीय ने यादव शासक भिल्लम के खिलाफ अभियान चलाया और गदग के निकट सोरतुर के मैदान में उन्हें पराजित कर तुंगभद्रा घाटी से खदेड़ दिया। इस विजय के परिणामस्वरूप बेलवोला (बेलवा) पर होयसलों का अधिकार हो गया। 1190 ई. में यादवों ने होयसलों के साथ संधि कर ली, जिसके अनुसार उन्होंने द्वारसमुद्र पर होयसलों की सत्ता को स्वीकार किया। बाद में, 1210 ई. में यादव शासक सिंघण ने पुनः बल्लाल को पराजित कर उन प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया।

इसके बाद, वीर बल्लाल द्वितीय ने कदंबों, सांतरों और उनके सामंतों को पराजित कर होयसलनाडु एवं कृष्णा नदी के बीच के संपूर्ण क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। 1190 ई. में बल्लाल ने चालुक्य नरेश सोमेश्वर चतुर्थ तथा उनके सेनापति ब्रह्म को अंतिम रूप से पराजित किया, जिससे चालुक्य शक्ति का पूर्ण विनाश हो गया। बेलवोला, लोक्किगुंडी और इरम्परज के सिंदों को पराजित कर बल्लाल ने 1192 ई. में चालुक्यों के औपचारिक सामंतत्व को पूरी तरह त्यागकर स्वयं को स्वतंत्र और सार्वभौम राजा घोषित किया। इस अवसर पर उन्होंने समस्तभुवनाश्रय और कुंतलेश्वर की उपाधियाँ धारण कीं और अपने संवत का प्रचलन किया। बल्लाल द्वितीय की स्वतंत्रता की घोषणा ने होयसल राजवंश को दक्षिण भारत में एक स्वायत्त शक्ति के रूप में स्थापित किया। इस समय उनके साम्राज्य में तुंगभद्रा नदी के पश्चिमी क्षेत्र, हानुंगल, बनवासी, हुलिंगिरी, हलसिंग, बेलवोला, नोलंबवाडी, उच्छंगी, इरम्परज, वागडगे, कुदेरि, बल्ल, किशुकाड, ऐयणवाडि, कलवाडि, मासवाडि, सिंदरिजी, लोक्किगुंडी और तट्टवाडि आदि क्षेत्र शामिल थे।

कदंबों और यादवों के विद्रोह ; 1202 ई. से 1204 ई. के बीच बल्लाल द्वितीय को तुंगभद्रा नदी के उत्तरी क्षेत्र में कदंबों और यादवों के प्रतिशोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने कदंब शासक कामदेव और यादव शासक जैतुगी के अभियानों का वीरतापूर्वक सामना किया और क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को बनाए रखने की कोशिश की।

चोलों और पांड्यों से संबंध ; इस दौरान चोल सम्राट कुलोत्तुंग तृतीय (1178-1218 ई.) होयसलों की बढ़ती शक्ति से असंतुष्ट थे। लगभग 1188 ई. में उन्होंने वीर बल्लाल को पराजित किया था। लेकिन 1207 ई. के बाद चोलों और होयसलों के बीच वैवाहिक संबंधों के माध्यम से मैत्री स्थापित हो गई। बल्लाल द्वितीय ने एक चोल राजकुमारी चोलमहादेवी से विवाह किया और बाद में अपनी पुत्री सोमला का विवाह वृद्ध चोल शासक कुलोत्तुंग तृतीय से करके इस मैत्री को और सुदृढ़ किया।

चोलों और होयसलों की मैत्री का एक प्रमुख कारण पांड्यों द्वारा चोलों पर किए गए निरंतर आक्रमण थे। उस समय दक्षिण भारत में होयसल ही एकमात्र ऐसी शक्ति थी, जो चोलों को संकट के समय सहायता प्रदान कर सकती थी। 1217 ई. में होयसल नरेश बल्लाल द्वितीय ने अपने पुत्र युवराज नरसिंहदेव द्वितीय के नेतृत्व में होयसल सेना को कुलोत्तुंग तृतीय के उत्तराधिकारी राजराज तृतीय की ओर से आक्रामक पांड्यों को पराजित करने के लिए भेजा और चोल राजा को सिंहासन पर पुनः स्थापित करने में मदद की। इस अभियान में होयसल और चोल सेनाओं ने पांड्य-समर्थित अडिगमान और बाण राज्यों को पराजित किया। इस विजय के उपलक्ष्य में बल्लाल द्वितीय ने चोलराज्यप्रतिष्ठाचार्य, पांड्यगजकेशरी और दक्षिण चक्रवर्ती की उपाधियाँ धारण कीं, जबकि उनके पुत्र वीर नरसिंहदेव द्वितीय ने चोलकुलरक्षक, मगधोर्विपालनिर्मूलक, चोलस्थापक और पांड्यखंडन जैसी उपाधियाँ ग्रहण कीं।

सांस्कृतिक योगदान

बल्लाल द्वितीय के शासनकाल में सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों को प्रोत्साहन मिला। उन्होंने तुंगभद्रा के किनारे अपने पिता की स्मृति में एक शिव मंदिर बनवाया और अग्रहारों को दान दिया। उनकी रानी उमादेवी ने प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और विद्रोहों को दबाने में होयसलेश्वर की सहायता की।

बल्लाल द्वितीय के शासनकाल में होयसल कला और स्थापत्य में असाधारण उन्नति हुई। उनके संरक्षण में चेन्नकेशव मंदिर (बेलूर) और होयसलेश्वर मंदिर (हलेबिडु) जैसे मंदिरों का निर्माण और सौंदर्यीकरण हुआ, जो होयसल कला की उत्कृष्टता के प्रतीक हैं।

इस प्रकार बल्लाल द्वितीय ने होयसल साम्राज्य को दक्षिण भारत की एक प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित किया। उनकी सैन्य विजयों, कूटनीतिक गठबंधनों और प्रशासनिक सुधारों ने होयसलों को चालुक्य अधीनता से मुक्त कर एक स्वतंत्र और शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में स्थापित किया। बल्लाल द्वितीय की उपलब्धियाँ और उनकी उपाधियाँ, जैसे वीर बल्लाल, गिरिदुर्गमल्ल, शनैश्चरसिद्धि, समस्तभुवनाश्रय, कुंतलेश्वर, चोलराज्यप्रतिष्ठाचार्य, पांड्यगजकेशरी और दक्षिण चक्रवर्ती उनके शासन की भव्यता और युद्ध कौशल का प्रमाण हैं।

वीर बल्लाल द्वितीय ने अपनी मृत्यु के पूर्व ही अपने योग्य पुत्र नरसिंहदेव द्वितीय को 1220 ई. में राजगद्दी सौंप दी।

नरसिंहदेव द्वितीय (1220-1235 ई.)

वीर बल्लाल द्वितीय के युवराज पुत्र नरसिंहदेव द्वितीय 1220 ई. में होयसल वंश के राजसिंहासन पर आसीन हुए। युवराज के रूप में उन्हें सैन्य और प्रशासनिक कार्यों में पर्याप्त अनुभव प्राप्त हो चुका था, विशेष रूप से 1217-1218 ई. में चोल-पांड्य संघर्ष के दौरान उन्होंने अपने साहस और सेनानायकत्व का परिचय दिया था। अपने शासनकाल में उन्होंने पिता वीर बल्लाल द्वितीय की नीतियों को प्राथमिकता दी और चोलों के साथ गहरे आत्मीय संबंधों के आधार पर होयसलों को दक्षिण भारत की राजनीति में एक प्रभावशाली शक्ति बनाए रखा।

देवगिरि के यादवों के खिलाफ अभियान ; नरसिंहदेव द्वितीय ने अपने शासन की शुरुआत में देवगिरि के यादवों के खिलाफ अभियान शुरू किया। संभवतः 1220 के दशक की शुरुआत में यादवों और होयसलों के बीच क्षेत्रीय वर्चस्व के लिए प्रतिस्पर्धा चरम पर थी। होयसल-यादव युद्ध के परिणाम को लेकर दोनों पक्षों के दावे भिन्न हैं। यादवों के मंत्री हेमाद्रि के ग्रंथ चतुर्वर्गचिंतामणि के अनुसार यादव शासक रामचंद्र ने नरसिंहदेव द्वितीय को पराजित किया। इसके विपरीत, होयसल अभिलेखों में दावा किया गया है कि यादव शासक महादेव रणभूमि से रात्रि के अंधेरे में घोड़े पर सवार होकर भाग गए। इतिहासकार ए.एस. अल्तेकर होयसल दावे को अधिक प्रामाणिक मानते हैं और उनके अनुसार इस युद्ध के परिणामस्वरूप नरसिंहदेव द्वितीय ने वर्तमान धारवाड़ पर अपनी सत्ता स्थापित कर ली। इसके विपरीत, एन. सुब्रह्मण्यम और टी.के. रवींद्रन जैसे विद्वानों का मत है कि हेमाद्रि का कथन अधिक तथ्यसंगत है और इस युद्ध में पराजय के कारण नरसिंहदेव द्वितीय को कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच के क्षेत्र से पीछे हटना पड़ा।

चोलों का सहयोग ; नरसिंहदेव द्वितीय का चोलों के साथ आत्मीय संबंध था, जिसके कारण वह चोल-पांड्य संघर्षों में चोलों के समर्थक थे। इस दौरान शक्तिशाली पांड्य शासक मारवर्मन सुंदरपांड्य ने तंजौर और उरैयूर पर आक्रमण कर चोल शासक राजराज तृतीय को पराजित कर दिया। इस विषम परिस्थिति का लाभ उठाकर विद्रोही चोल सामंत कोप्पेरुंजिंग ने काँची और कोलार जनपदों पर कब्जा कर लिया और युद्धक्षेत्र में चोल शासक राजराज तृतीय को बंदी बना लिया।

नरसिंहदेव द्वितीय ने इस कठिन समय में चोलों की सहायता के लिए तत्काल कदम उठाया। उन्होंने अपने सेनानायकों को कोप्पेरुंजिंग पर आक्रमण करने के लिए भेजा और स्वयं मारवर्मन सुंदरपांड्य के खिलाफ अभियान चलाए। कावेरी नदी के तट पर महेंद्रमंगलम के युद्धक्षेत्र में उन्होंने सुंदरपांड्य को पराजित किया। उन्होंने चोल-शासित कण्णनूर को अधिकृत करके उसे प्रांतीय राजधानी बनाया, अपने पुत्र सोमेश्वर को वहाँ का प्रांतपति नियुक्त किया और पांड्य दुर्गों से विपुल संपत्ति प्राप्त की।

नरसिंहदेव द्वितीय के सेनानायकों अमृत्या और समुद्रगोपय्या ने काँची के विद्रोही शासक कोप्पेरुंजिंग पर आक्रमण किया और उसे पराजित कर काँची के राजकोष पर अधिकार कर लिया। नरसिंहदेव के प्रयासों के परिणामस्वरूप 1231 ई. में चोल शासक राजराज तृतीय पुनः चोल सिंहासन पर प्रतिष्ठित किए गए।

इस प्रकार नरसिंहदेव द्वितीय ने राजराज तृतीय को पुनः चोल राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित किया, पांड्यों को पराजित करके उरैयूर तथा तंजौर को मुक्त कराया और श्रीरंगम तक उन्हें खदेड़कर उनसे कर एवं भेंट प्राप्त की। कण्णनूर पर होयसलों के अधिकार से चोल, पांड्य, अडिगमान और बाण आदि विरोधी शक्तियों को नियंत्रित करने में नरसिंहदेव द्वितीय को बड़ी सुविधा प्राप्त हुई।

नरसिंहदेव द्वितीय के शासनकाल में कला और स्थापत्य के क्षेत्र में भी प्रगति हुई। उनके द्वारा संरक्षित मंदिर, जैसे होयसलेश्वर मंदिर (हलेबिडु) होयसल कला की उत्कृष्टता का द्योतक हैं। उन्होंने जैन धर्म और वैष्णव संप्रदायों को भी संरक्षण प्रदान किया।

नरसिंहदेव द्वितीय ने संभवतः 1235 ई. तक शासन किया, क्योंकि 1236 ई. में उनके पुत्र सोमेश्वर होयसल सिंहासन पर आसीन हो चुके थे।

वीर सोमेश्वर (1235-1263 ई.)

वीर सोमेश्वर ने 1235 ई. में अपने पिता नरसिंहदेव द्वितीय के बाद होयसल सिंहासन सँभाला, जिन्हें सोविदेव के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने पहले कण्णनूर के शासक के रूप में तथा बाद में होयसलेश्वर के रूप में अधिकांश समय चोल-पांड्य राजनीति को सुलझाने में व्यतीत किया, जिससे होयसलनाडु की आंतरिक स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती गई और उत्तरी भाग में पारंपरिक शत्रुओं, विशेष रूप से तुंगभद्रा की घाटी में देवगिरि के यादवों ने पुनः आक्रमण शुरू कर दिए।

चोल-पांड्य संघर्ष

सोमेश्वर के शासनकाल में दक्षिण भारत की राजनीति अत्यंत जटिल हो चुकी थी, विशेष रूप से चोल और पांड्य शासकों के बीच चल रहे संघर्षों के कारण। चोल शासक राजराज तृतीय के बाद उनके पुत्र युवराज राजेंद्र तृतीय (1246-1279 ई.) चोल राजसिंहासन पर आसीन हुए। उन्होंने चोल साम्राज्य को सुरक्षित करने के लिए अपनी पारंपरिक नीतियों में परिवर्तन करते हुए पांड्यों तथा समसामयिक अन्य बड़ी शक्तियों से चोल साम्राज्य को सुरक्षित करने का प्रयत्न शुरू किया।

चोल आक्रमण

पांड्य शासक मारवर्मन सुंदरपांड्य की 1238-1239 ई. में मृत्यु के बाद पांड्य वंश में उत्तराधिकार संघर्ष हुआ, जिससे पांड्य राज्य की आंतरिक स्थिति अस्थिर हो गई। इसका लाभ उठाकर चोल राजेंद्र तृतीय ने पांड्यों पर आक्रमण किया। उन्होंने कण्णनूर, जो पहले चोल साम्राज्य का हिस्सा था, पर होयसलों के आधिपत्य को अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल माना। तिरुनेलवेली दानपत्र में उनकी होयसल विरोधी नीति का उल्लेख मिलता है, जिसमें कहा गया है कि राजेंद्र तृतीय ने कण्णनूर को चोल क्षेत्र मान लिया और होयसलों की शक्ति को कमजोर करने का प्रयास किया। उन्होंने कण्णनूर में होयसलों के प्रतिद्वंद्वियों को सशक्त करने के लिए अपने पारंपरिक मित्र राज्यों और सामंतों, जैसे नेल्लोर के तेलुगु चोडों और काडवों के साथ मित्रता की।

होयसल-पांड्य मैत्री

चोल नरेश राजेंद्र तृतीय की नीतियों में आ रहे परिवर्तन का आकलन कर सोमेश्वर ने चोलों के विरुद्ध पांड्यों से मित्रता कर ली। उन्होंने चोलों द्वारा पांड्यों को आक्रांत किए जाने पर चोलों के विरुद्ध पांड्यों का साथ दिया। मैसूर से प्राप्त कुछ होयसल अभिलेखों में सोमेश्वर को पांड्यकुलसंरक्षणदक्ष दक्षिणभुजा विरुद से अलंकृत किया गया है, जो उनकी पांड्य समर्थक नीति का परिचायक है। होयसलों के इस आकस्मिक सहयोग के कारण चोल राजेंद्र तृतीय पांड्यों को कोई विशेष क्षति नहीं पहुँचा सके और कुछ समय के लिए होयसलों की स्थिति भी सुरक्षित हो गई। लेकिन चोल और होयसलों की पारंपरिक मित्रता में आई इस दरार का दुष्परिणाम बाद में दोनों पक्षों को भुगतना पड़ा।

होयसल-पांड्य मैत्री का अंत

जटावर्मन सुंदरपांड्य के 1251 ई. में राजा बनते ही होयसल-पांड्य मैत्री टूट गई। ऐसी स्थिति में सोमेश्वर ने चोलों के साथ पुनः मैत्री स्थापित करने का प्रयास किया, लेकिन अब चोलों की शक्ति बहुत क्षीण हो चुकी थी। पांड्यों ने होयसलों पर आक्रमण कर कावेरी घाटी को मुक्त करा लिया और उनके प्रमुख सेनानायक सिंगण की हत्या कर दी।

इस बीच सोमेश्वर ने कण्णनूर को विक्रमपुर नाम देकर अपनी दूसरी राजधानी बनाया और होयसल वंश की परंपरा के अनुरूप 1254-1255 ई. में अपने दोनों पुत्रों, नरसिंह तृतीय और रामनाथ के बीच राज्य का बँटवारा कर दिया, जो बाद में होयसल साम्राज्य के लिए अहितकर सिद्ध हुआ।

बाद में, पांड्यों ने होयसल राज्य पर आक्रमण कर सोमेश्वर को पराजित कर मार डाला। यह घटना 1263 ई. में घटी, जो होयसल राजवंश के लिए एक बड़ा आघात थी। सोमेश्वर की पराजय और मृत्यु से होयसल साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया तीव्र हो गई।

होयसल राजवंश का अंतिम चरण

सोमेश्वर ने अपने जीवनकाल में ही 1254 ई. में होयसल साम्राज्य को अपने दोनों पुत्रों नरसिंहदेव तृतीय तथा रामनाथ में विभाजित कर दिया था। उन्होंने कर्नाटक प्रदेश के राज्यक्षेत्र का शासन अपने पुत्र नरसिंहदेव तृतीय को सौंपा, जिसकी राजधानी द्वारसमुद्र थी और तमिलनाडु में विस्तृत होयसल राज्यक्षेत्र का शासन अपने पुत्र रामनाथ को, जिसकी राजधानी कण्णनूर (विक्रमपुर) थी। इस प्रकार रामनाथ द्वारा शासित राज्य की राजधानी कण्णनूर तथा नरसिंहदेव तृतीय की राजधानी द्वारसमुद्र थी। यह विभाजन होयसल शक्ति को कमजोर करने का एक प्रमुख कारण बना, क्योंकि इससे साम्राज्य की एकता और सामरिक शक्ति में कमी आई। बाद में, वीर बल्लाल तृतीय (1292-1343 ई.) ने होयसल साम्राज्य को एकीकृत करने और उसकी खोई हुई शक्ति को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया, किंतु दिल्ली सल्तनत और नवोदित विजयनगर साम्राज्य जैसे नए शत्रुओं ने होयसलों की शक्ति को गंभीर रूप से प्रभावित किया। अंततः वीर बल्लाल तृतीय की मृत्यु के बाद होयसल वंश का पतन हो गया।

नरसिंहदेव तृतीय (1263-1292 ई.)

नरसिंहदेव तृतीय ने 1263 ई. में अपने पिता की मृत्यु के बाद द्वारसमुद्र में शासन शुरू किया। 1279 ई. में पांड्य शासक मारवर्मन कुलशेखर ने कण्णनूर पर आक्रमण कर रामनाथ को वहाँ से खदेड़ दिया और तमिल क्षेत्र से होयसल प्रभुसत्ता को समाप्त कर दिया। रामनाथ ने सत्ता के लोभ में उसी वर्ष अपने सौतेले भाई नरसिंहदेव तृतीय पर आक्रमण शुरू कर दिया और होयसलनाडु को भारी क्षति पहुँचाई। अंततः रामनाथ को कुंडदाणी (बेंगलुरु के निकट) पर अधिकार कर वहाँ अपना एक छोटा-सा राज्य स्थापित करना पड़ा।

नरसिंहदेव तृतीय को इस समय तीन शक्तिशाली शत्रुओं का सामना करना पड़ रहा था- आंतरिक रूप से रामनाथ के विद्रोह का और बाह्य रूप से सांतर तथा देवगिरि के यादवों का। उनके शासनकाल में सांतरों और यादवों ने होयसल क्षेत्रों पर बार-बार आक्रमण किए। 1292 ई. में उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र वीर बल्लाल तृतीय होयसल सिंहासन पर आसीन हुए।

वीर बल्लाल तृतीय (लगभग 1292-1342 ई.)

बल्लाल तृतीय के 1292 ई. में राज्याभिषेक के समय होयसल साम्राज्य चारों ओर से विपत्तियों से घिरा हुआ था। वह महापराक्रमी और योग्य शासक थे, लेकिन उनकी संपूर्ण ऊर्जा समकालीन छोटी-बड़ी चुनौतियों को दूर करने में व्यय हो गई। 1295 ई. में उनके चाचा रामनाथ ने कुणिगल पर आक्रमण किया, लेकिन बल्लाल ने उन्हें पराजित कर खदेड़ दिया। इस पराजय के कुछ वर्षों बाद रामनाथ की मृत्यु हो गई। उनके पुत्र विष्णुनाथ एक दुर्बल शासक थे, जिसके परिणामस्वरूप 1297-98 ई. में बल्लाल तृतीय ने विष्णुनाथ को पराजित कर विभाजित होयसल साम्राज्य को पुनः एकीकृत कर लिया।

सैन्य विजय और साम्राज्य का पुनरुद्धार

इस समय दक्षिण भारत का राजनीतिक परिदृश्य तेजी से बदल रहा था। लगभग 1303 ई. में उन्होंने अलुप राज्य को जीत लिया और देवगिरि के यादवों पर आक्रमण करने की योजना बनाई। होयसल सेना ने 1305 ई. में होलालकेरे के मैदान में यादव शासक रामचंद्र को पराजित किया। इस विजय के परिणामस्वरूप बनवासी, शिमोगा, सांतलिंगे और कोगलि जैसे क्षेत्रों पर बल्लाल तृतीय का अधिकार हो गया। इसके बाद उन्होंने हंगल के कदंबों, नेल्लोर और अन्य राज्यों के विरुद्ध अभियान चलाकर उन्हें अधीन कर लिया।

दक्षिण में कावेरी घाटी में पांड्य शासक कुलशेखर की मृत्यु के बाद उनके पुत्रों- वीरपांड्य और सुंदरपांड्य के बीच सिंहासन के लिए गृहयुद्ध छिड़ गया था। बल्लाल तृतीय ने इस अवसर का लाभ उठाकर पांड्यों पर आक्रमण किया और कोंगु, होंडयनाड तथा मुगद्र क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। उन्होंने तिरुवन्नामलाई और काँची को विजित कर काँची को अपनी उपराजधानी बनाया। इन विजयों के परिणामस्वरूप 1310 ई. तक होयसल साम्राज्य ने अपने पूर्व गौरव को पुनः प्राप्त कर लिया।

दिल्ली सल्तनत के आक्रमण

14वीं शताब्दी के आरंभ में दक्कन क्षेत्र में व्यापक राजनीतिक परिवर्तन हुए। उस समय उत्तर भारत का बड़ा भूभाग मुस्लिम शासन के अधीन था। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने 1311 ई. में अपने सेनापति मलिक काफूर को सेवुण साम्राज्य की राजधानी देवगिरि के विरुद्ध अभियान पर भेजा। उस समय बल्लाल तृतीय पांड्यों के विरुद्ध अभियान में व्यस्त थे, जिसके कारण वह काफूर के आक्रमण का प्रभावी प्रतिरोध नहीं कर सके। मलिक काफूर ने होयसल राजधानी द्वारसमुद्र को घेर लिया, वीर बल्लाल ने आत्मसमर्पण कर दिया और अलाउद्दीन को वार्षिक कर देना स्वीकार किया। उनके पुत्र वीर विरुपाक्ष को दिल्ली भेजा गया, जो 1313 ई. में लौट आए।

अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु (1316 ई.) के पश्चात् बल्लाल तृतीय ने पुनः अपनी खोई हुई शक्ति अर्जित करने का प्रयास किया और विष्णुवर्धन की उपाधि धारण की। 1318 ई. तक उन्होंने दक्षिण तमिल क्षेत्रों में अपनी सत्ता को सुदृढ़ किया और तिरुवन्नामलाई क्षेत्र पर अधिकार स्थापित कर लिया। 1320 ई. में सांतरों की सहायता से उन्होंने कम्पिलदेव को हराकर तुंगभद्रा के दक्षिणी पठारी क्षेत्र को जीत लिया। 1321-22 ई. में कम्पिलदेव ने आक्रमण कर अपने खोए क्षेत्र पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया, किंतु उनकी पराजय हुई और अंततः दोनों शासकों के बीच संधि हो गई।

1327 ई. में मलिक बहादुर गुर्शस्प (उलूग खान) ने सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के विरुद्ध विद्रोह किया। सल्तनत की शाही सेना उसका पीछा करते हुए दक्षिण पहुँची। कम्पिलदेव ने विद्रोही गुर्शस्प को शरण दी, जिसके कारण दिल्ली की सेना ने उनके कुम्मट गिरिदुर्ग की घेराबंदी की। यद्यपि गुर्शस्प भाग निकला, परंतु कम्पिलदेव युद्ध में मारे गए। बाद में गुर्शस्प ने बल्लाल तृतीय से शरण माँगी, परंतु उन्होंने उसे बंदी बनाकर शाही सेनापति को सौंप दिया।

1336 ई. तक दिल्ली सल्तनत की सेनाओं ने मदुरै के पांड्यों, वारंगल के काकतीयों और कम्पिली के राज्य पर विजय प्राप्त कर ली थी और होयसल साम्राज्य ही दक्षिण भारत का प्रमुख हिंदू राज्य शेष था, जो मुस्लिम आक्रमणों का प्रतिरोध कर रहा था। कम्पिलदेव की मृत्यु के बाद 1336 ई. में तुंगभद्रा के दक्षिणी क्षेत्र में हरिहर और बुक्क ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की, जो शीघ्र ही होयसल का प्रतिद्वंद्वी बन गया।

होयसल साम्राज्य का अंत

लगभग 1335-36 ई. में मुहम्मद बिन तुगलक ने अपने सरदार सैय्यद हसन (गयासुद्दीन दामघानी) को मदुरै के पांड्यों पर आक्रमण करने के लिए भेजा। उसने पांड्यों को पराजित कर मदुरा में अपनी स्वतंत्र सल्तनत की स्थापना की। इस नवोदित मुस्लिम शक्ति से अपने राज्य की रक्षा के लिए बल्लाल तृतीय तिरुवन्नामलाई चले गए और वहीं उन्होंने अपने पुत्र बल्लाल चतुर्थ का राज्याभिषेक किया। उन्होंने वीरतापूर्वक उत्तर और दक्षिण दोनों ओर से होने वाले आक्रमणों का सामना किया। 1340 ई. में विजयनगर के हरिहर ने नेलमंगलम पर आक्रमण किया, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। अंततः बल्लाल तृतीय 1342 ई. में कन्ननूर (त्रिचनापल्ली के निकट) के युद्ध में मदुरै सल्तनत के सुल्तान गयासुद्दीन की सेना से लड़ते हुए मारे गए।

बल्लाल तृतीय की मृत्यु होयसल के लिए घातक सिद्ध हुई। उनके उत्तराधिकारी बल्लाल चतुर्थ बिखरे हुए होयसल साम्राज्य को सँभाल नहीं सके और होयसल साम्राज्य विजयनगर साम्राज्य में विलीन हो गया। इस प्रकार लगभग चार शताब्दियों तक दक्षिण भारत की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला होयसल राजवंश 14वीं शताब्दी के मध्य तक इतिहास बन गया।

error: Content is protected !!
Scroll to Top