छत्तीसगढ़ में काकतीय
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में काकतीय वंश ने 1324 ई. से 1947 ई. तक शासन किया। यह वंश दक्षिण भारत के प्राचीन काकतीय राजवंश से भिन्न है, जिसने 12वीं से 14वीं शताब्दी तक तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में शासन किया। बस्तर के काकतीय वंश ने अपनी स्वतंत्र सत्ता, धार्मिक परंपराओं और सामाजिक-सांस्कृतिक योगदानों के लिए प्रसिद्धि प्राप्त की। इस वंश की स्थापना अन्नमदेव ने की, जिन्होंने छिंदक नागवंश के अंतिम शासक हरिश्चंद्र को पराजित कर बस्तर में अपनी सत्ता स्थापित की।
काकतीय वंश की उत्पत्ति और नामकरण
काकतीय वंश की उत्पत्ति और नामकरण को लेकर कई मान्यताएँ और किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, लेकिन इसकी व्युत्पत्ति पूरी तरह स्पष्ट नहीं है।
द्रोणाचार्य और पांडवों से संबंध
किंवदंती के अनुसार, काकतीय वंश के संस्थापक महाभारत कालीन पांडवों के वंशज थे। दिल्ली की दुर्दशा के बाद उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली। संस्कृत में ‘काक’ (कौआ) को द्रोण भी कहा जाता है, और गुरु द्रोणाचार्य की शिष्य परंपरा के आधार पर वंश का नाम काकतीय रखा गया। यह मान्यता इस वंश की पौराणिक उत्पत्ति को दर्शाती है।
दंतेश्वरी और दुर्गा से संबंध
काकतीय वंश की कुलदेवी दंतेश्वरी, जो माँ दुर्गा का एक रूप है, के नाम से भी वंश का नामकरण संभव माना जाता है। संस्कृत में ‘हस्ती’ (हाथी) को ‘दंती’ कहा जाता है, और हस्तिनापुर की अधिष्ठात्री देवी हस्तेश्वरी के स्थान पर दंतेश्वरी नाम प्रचलित हुआ। यह बस्तर के सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास से गहराई से जुड़ा है।
सामाजिक स्थिति
काकतीय वंश की वंशावली में रघुकुल के कई नाम मिलते हैं, जिसके आधार पर कुछ विद्वान उन्हें सूर्यवंशी क्षत्रिय मानते हैं। लेकिन नेलोर जिले के कुछ अभिलेखों में उन्हें शूद्र कहा गया है। फिर भी, बस्तर के काकतीय वंश ने अपनी स्वतंत्र सत्ता और क्षेत्रीय प्रभाव के कारण एक विशिष्ट पहचान स्थापित की।
बस्तर का नामकरण
बस्तर का नामकरण दंतेश्वरी देवी और बाँसतरी (बाँस के झुरमुट) क्षेत्र से जुड़ा माना जाता है। अन्नमदेव ने अपना अधिकांश समय बाँसतरी में व्यतीत किया, जिससे क्षेत्र का नाम ‘बस्तर’ प्रचलित हुआ। पहले इस क्षेत्र को चक्रकोट के नाम से जाना जाता था, जो छिंदक नागवंशी शासकों के अधीन था।
प्राचीन काकतीय वंश और बस्तर के काकतीय
बस्तर के काकतीय वंश तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के प्राचीन काकतीय राजवंश से अलग हैं। प्राचीन काकतीय वंश पश्चिमी चालुक्यों के सामंत थे, जिन्होंने चालुक्य साम्राज्य के पतन के बाद तेलंगाना में अपनी सत्ता स्थापित की। उनकी राजधानी पहले हनमकोंड (अन्नमकोंड) थी, जो बाद में वारंगल (ओरुगल्लू) बन गई। 14वीं शताब्दी में काकतीय शासक प्रतापरुद्रदेव के शासनकाल में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने दक्षिण भारत पर आक्रमण किया, जिसके परिणामस्वरूप प्रतापरुद्रदेव को आत्मसमर्पण करना पड़ा। अंततः उनका राज्य बहमनी सुल्तानों के अधीन चला गया।
बस्तर के काकतीय वंश की उत्पत्ति प्रतापरुद्रदेव के भाई अन्नमदेव से मानी जाती है। उन्होंने 14वीं शताब्दी की शुरुआत में पतन की ओर अग्रसर छिंदक नागवंश के चक्रकोट क्षेत्र पर आक्रमण कर बस्तर में काकतीय सत्ता की स्थापना की। इस प्रकार बस्तर के काकतीय वंश का प्राचीन काकतीय वंश की एक शाखा के रूप में उदय हुआ, लेकिन इसने अपनी स्वतंत्र पहचान और सांस्कृतिक परंपराएँ विकसित कीं।
बस्तर में काकतीय वंश की स्थापना
बस्तर में काकतीय वंश की स्थापना 1324 ई. में अन्नमदेव ने की। उस समय बस्तर क्षेत्र (चक्रकोट) में छिंदक नागवंश के शासक शासन कर रहे थे। नागवंश के अंतिम शासक हरिश्चंद्र के शासनकाल में आपसी फूट और कमजोरी का लाभ उठाकर अन्नमदेव ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया और अपनी सत्ता स्थापित की। अन्नमदेव ने मंधोता (बस्तर) को अपनी राजधानी बनाया और अपनी कुलदेवी के सम्मान में दंतेवाड़ा में प्रसिद्ध दंतेश्वरी मंदिर का निर्माण करवाया।
काकतीय वंश के प्रमुख शासक
अन्नमदेव (1324–1369 ई.)
बस्तर में काकतीय वंश के संस्थापक और प्रथम शासक अन्नमदेव थे, जो वारंगल के प्रसिद्ध काकतीय शासक प्रतापरुद्रदेव के अनुज थे। उन्होंने 1324 ई. में छिंदक नागवंश के शासक हरिश्चंद्र के शासन काल में आपसी फूट और कमजोरी का लाभ उठाकर नागवंश के छोटे-बड़े 84 गढ़ों पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की और बस्तर में काकतीय सत्ता स्थापित की। सिंहासनारोहण के समय उनकी आयु 32 वर्ष थी। अन्नमदेव का अधिकांश जीवन युद्धों और विजयों में व्यतीत हुआ, जिसके कारण उन्हें ‘काकतीय युग का समुद्रगुप्त’ कहा जाता है। उनकी रानी सोनकुंवर चंदेलिन थीं, जिन्होंने उनके शासनकाल में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
अन्नमदेव ने बस्तर क्षेत्र को एक संगठित प्रशासनिक इकाई के रूप में विकसित किया। उन्होंने क्षेत्र को 12 जमींदारियों, 48 गढ़ों, 12 मुकासों, 32 चालकियों और 84 परगनों में विभाजित किया। यह व्यवस्था क्षेत्र के स्थानीय आदिवासी समुदायों और सामंती सरदारों को एकीकृत करने में सहायक हुई।
अन्नमदेव ने प्रारंभ में एक वर्ष तक बारसूर में निवास किया, फिर दंतेवाड़ा में अपनी राजधानी स्थानांतरित की। उन्होंने शंखनी और डंकनी नदियों के संगम पर दंतेश्वरी मंदिर का निर्माण करवाया और बारसूर से दंतेश्वरी देवी की प्रतिमा को दंतेवाड़ा में प्रतिष्ठित किया। यह मंदिर बस्तर की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है। किंवदंती के अनुसार, नागवंश की इष्टदेवी मणिकेश्वरी कालांतर में दंतेश्वरी के रूप में परिणत हो गई।
अन्नमदेव ने दंतेश्वरी मंदिर के निर्माण के माध्यम से बस्तर की धार्मिक परंपराओं को सुदृढ़ किया। दंतेश्वरी देवी, जो संभवतः माँ दुर्गा का स्थानीय रूप थी, काकतीय वंश की कुलदेवी बनी। बस्तर के हल्बी और भतरी मिश्रित लोकगीतों में अन्नमदेव को ‘चालकी बंसराज’ कहा गया है, जो संभवतः चालुक्य वंश से उनके संबंध का सूचक है।
हमीरदेव (1369–1410 ई.)
अन्नमदेव की मृत्यु के बाद हमीरदेव 1369 ई. में बस्तर में काकतीय वंश के सिंहासन पर बैठे और लगभग 41 वर्षों तक शासन किया। हमीरदेव धार्मिक प्रवृत्ति के शासक थे। उनके समय में दंतेश्वरी मंदिर न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र था, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का भी प्रतीक बन गया। इस मंदिर ने स्थानीय जनजातियों तथा अन्य समुदायों के बीच एकता की भावना को प्रोत्साहित किया। 1410 ई. में हमीरदेव की मृत्यु के बाद उनके पुत्र भैरवदेव ने सिंहासन ग्रहण किया।
भैरवदेव (1410–1468 ई.)
भैरवदेव बस्तर के एक प्रजाप्रिय शासक थे। उनकी दो रानियाँ थीं—रानी मेघावती (अरिचकेलिन) और रानी जानकी कुँवर। रानी मेघावती एक चतुर राजनीतिज्ञ, कुशल प्रशासिका, शिकारप्रिय और साहसी महिला थीं। उनके पास कालबान नामक तोड़ेदार बंदूक थी, जिसे लेकर वह आखेट के लिए जाया करती थीं।
भैरवदेव ने लगभग 58 वर्षों तक शासन किया। वह मुख्यतः नाममात्र के शासक थे, क्योंकि रानी मेघावती ने प्रशासन और राजनीति दोनों ही क्षेत्रों में प्रभावशाली भूमिका निभाई। उनके शासनकाल में जब भेजी तथा अन्य क्षेत्रों के सरदारों ने विद्रोह किया, तो रानी मेघावती ने अपने कौशल और साहस से उसे दबा दिया।
रानी मेघावती की बंदूक कालबान को आज भी बस्तर में दशहरा उत्सव के दौरान अस्त्र-शस्त्र पूजन में शामिल किया जाता है। दूसरी रानी जानकी कुँवर सुकया जमींदार की पुत्री थीं।
पुरुषोत्तमदेव (1468–1534 ई.)
पुरुषोत्तमदेव भैरवदेव के पुत्र थे। उन्होंने 25 वर्ष की आयु में 1468 ई. में सिंहासन ग्रहण किया। उनकी रानी का नाम कंचन कुँवरी बघेलिन था। उनकी राजधानी बड़े डोंगर में स्थित थी, जिसे उन्होंने बस्तर की राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बनाया।
राजनीतिक दृष्टि से उन्होंने रायपुर और रतनपुर के कलचुरि राज्यों के विरुद्ध अभियान चलाया, परंतु कालांतर में दोनों राज्यों की संयुक्त शक्ति के सामने उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। बस्तर वापसी के दौरान उन्होंने एक वन्य सैनिक दल से मैत्री की थी। उस दल के प्रधान ने एक ही तीर से तीन वृक्षों को काट गिराया और अपना कच्छा राजा को अर्पित किया, जो आगे चलकर ‘काछिन देवी’ के नाम से पूजित हुई। उसकी स्मृति में बस्तर में दशहरा से पूर्व ‘काछिन गादी पर्व’ मनाने की परंपरा प्रारंभ हुई।
पुरुषोत्तमदेव धार्मिक प्रवृत्ति के शासक थे। उन्होंने पैदल और दंडवत मार्ग से श्री जगन्नाथपुरी की यात्रा की, जिसमें कुछ वनवासी भी उनके साथ गए। वहाँ उन्होंने श्री जगन्नाथ मंदिर में रत्नाभूषण अर्पित किए। भगवान की कृपा से उन्हें ‘स्थपति’ अथवा ‘रथपति’ की उपाधि प्राप्त हुई और वह अपने राज्य लौट आए।
पुरुषोत्तमदेव ने अपने राज्य में गोंचा (रथयात्रा) तथा दशहरा पर्व के अवसर पर रथचालन की परंपरा प्रारंभ की। बस्तर में यह पर्व आज भी ‘गोंचा पर्व’ के रूप में प्रसिद्ध है, जो आषाढ़ मास में जगदलपुर में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। इस अवसर पर आदिवासी जनता बाँस की नलियों से ‘तुपकी’ की ध्वनि द्वारा श्री जगन्नाथ जी का स्वागत करती है। इन तुपकियों में मालकांगनी के फल को गोली के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। पुरुषोत्तमदेव के कार्यकाल में ही बस्तर क्षेत्र में मड़ई मेला की शुरुआत हुई।
जयसिंहदेव (1534–1558 ई.)
पुरुषोत्तमदेव के पुत्र जयसिंहदेव ने 24 वर्ष की आयु में राजगद्दी संभाली। वह एक कुशल और प्रजावत्सल प्रशासक थे। उन्होंने अपने शासन को अधिक प्रभावी और लोकप्रिय बनाने के लिए स्थानीय लोगों को प्रशासन में स्थान दिया और अपने साम्राज्य को विभिन्न परगनों में विभाजित किया। प्रत्येक परगने में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए उन्होंने स्थानीय लोगों को चालकी माँझी (परगना प्रमुख) के रूप में नियुक्त किया और उन्हें सम्मानस्वरूप लाल पगड़ी प्रदान की।
जयसिंहदेव ने परलकोट के जमींदार की पुत्री चंद्रकुँवर चंदेलिन से विवाह किया। उनका शासनकाल लगभग 24 वर्षों तक चला।
नरसिंहदेव (1558–1602 ई.)
नरसिंहदेव के शासनकाल में राज्य में सुख और शांति बनी रही। वह विद्वानों और कलाकारों के संरक्षक थे और उन्होंने अपने दरबार में विद्वानों को आश्रय प्रदान किया। उनकी रानी लक्ष्मीकुँवर चंदेलिन धर्मपरायण और उदार विचारों की महिला थीं। उनके आग्रह पर महल में प्रतिवर्ष जागर उत्सव मनाया जाने लगा, जिससे धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में नवचेतना आई।
रानी लक्ष्मीकुँवर ने जनकल्याण कार्यों में विशेष रुचि ली। उन्होंने अनेक तालाब खुदवाए और सुंदर बगीचों की स्थापना करवाई, जिससे राज्य की शोभा और समृद्धि में वृद्धि हुई।
प्रतापराजदेव (1602–1625 ई.)
राजा प्रतापराजदेव एक महत्वाकांक्षी और युद्धप्रिय शासक थे। उन्होंने दक्षिण दिशा में बहमनी राज्य पर आक्रमण किया, लेकिन महमूदशाह के मंत्री अमीर बरीद ने उन्हें पराजित कर राजधानी तक उनका पीछा किया और उसे घेर लिया। परंतु रसद की कमी और सैनिकों में फैलती बीमारियों के कारण मुस्लिम सेना को शीघ्र ही लौटना पड़ा। उन्होंने हैदराबाद के कुली कुतुबशाह की सेना को भी युद्ध में पराजित किया।
दक्षिण में असफलता के बाद प्रतापराजदेव ने उत्तर दिशा में अपने राज्य के विस्तार का निश्चय किया। उन्होंने डोंगर क्षेत्र के आसपास स्थित 18 गढ़ों को अपने अधिकार में लेकर वहाँ अपने भाई को शासक नियुक्त किया, जिसके परिणामस्वरूप बस्तर का काकतीय वंश दो शाखाओं—बस्तर और डोंगर में विभाजित हो गया।
जगदीशरायदेव (1625–1639 ई.)
जगदीशरायदेव ने अपने साम्राज्य को सुव्यवस्थित और संगठित किया। उनके शासनकाल में प्रजा सुखी और सुरक्षित थी। राज्य में स्थिरता और समृद्धि बनी रही। सीमावर्ती किसी भी राजा ने उनके राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं किया।
वीरनारायणदेव (1639–1654 ई.)
वीरनारायणदेव के शासनकाल में परलकोट जमींदारी पर चाँदा के राजा बल्लारशाह ने आक्रमण किया और कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इसके प्रत्युत्तर में बस्तर की सेना ने चाँदा पर आक्रमण किया, परंतु मराठा सैनिकों की सहायता से चाँदा की सेना ने बस्तर की सेना को पराजित कर दिया। युद्ध में वीरनारायणदेव बंदी बना लिए गए, लेकिन युद्ध के हर्जाने के रूप में धनराशि चुकाने पर रिहा कर दिए गए। उनके शासनकाल को आक्रमणों और संघर्षों के कारण अशांत काल के रूप में याद किया जाता है।
वीरसिंहदेव (1654–1680 ई.)
वीरसिंहदेव एक विजेता, कुशल प्रशासक और प्रजापालक शासक थे। वह केवल 12 वर्ष की आयु में राजगद्दी पर बैठे। उनकी रानी वदनकुँवर चंदेलिन थीं।
वीरसिंहदेव के शासनकाल में दो प्रमुख युद्ध हुए। पहला युद्ध भेजी जमींदार के विरुद्ध था, जिसे उन्होंने पूर्णतः वश में कर नष्ट कर दिया। दूसरा युद्ध चाँदा के राजा बल्लालशाह के विरुद्ध हुआ, जिसमें वीरसिंहदेव वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए पराजित हुए और युद्धभूमि में वीरगति को प्राप्त हुए।
वीरसिंहदेव ने अपने शासनकाल में राजपुर का दुर्ग बनवाया, जो उनकी राजनीतिक शक्ति और स्थापत्य दृष्टि का प्रतीक था।
दिक्पालदेव (1680–1709 ई.)
दिक्पालदेव को कुछ अभिलेखों में दिगपालदेव के नाम से भी उल्लेखित किया गया है। वह एक महत्वाकांक्षी शासक थे। उन्होंने उड़ीसा के नवरंगपुर पर आक्रमण किया और वहाँ के राजा से अमूल्य आभूषण, हाथी तथा घोड़े प्राप्त किए। इस विजय के उपलक्ष्य में उन्होंने दंतेवाड़ा में माँ दंतेश्वरी की पूजा की और वहाँ एक शिलालेख लिखवाया, जो उनकी धार्मिक आस्था तथा शक्ति प्रदर्शन का प्रतीक था।
दिक्पालदेव ने दशहरा उत्सव के अवसर पर धनुकांडिया अर्थात् ‘वानर सेना’ को शामिल करने की परंपरा प्रारंभ की, जो बस्तर में 1947 ई. तक प्रचलित रही। उनके शासनकाल में बस्तर राज्य, विशेषकर हाथियों की समृद्धि के लिए प्रसिद्ध था। आइने अकबरी के अनुसार उनके शासनकाल में बस्तर राज्य हाथियों के कारण प्रसिद्ध था।
ऐसा माना जाता है कि दिक्पालदेव के काल में ही राजधानी चक्रकोट से बस्तर स्थानांतरित की गई। इसी काल से इस क्षेत्र को ‘बस्तर’ नाम से पहचाना जाने लगा।
राजपालदेव (1709–1721 ई.)
दिक्पालदेव की मृत्यु के बाद राजपालदेव बस्तर के शासक बने, जिन्हें रक्षपालदेव के नाम से भी जाना जाता है। उनके शासनकाल में डोंगर और बस्तर की दोनों शाखाएँ एकीकृत हो गईं और दोनों क्षेत्रों पर एक ही शासक का शासन स्थापित हुआ। डोंगर शाखा कनिष्ठ थी, इसलिए राजपालदेव को ‘लहुरा गजपति’ (कनिष्ठ गजपति) कहा जाने लगा।
राजपालदेव के शासनकाल में मुगलों ने बस्तर पर आक्रमण किया। इस समय गर्भवती रानी रुद्रकुँवर बघेलिन मुगल सैनिकों से बचते हुए एक ब्राह्मण के घर जा छिपीं। जब सैनिकों ने घर घेर लिया, तो ब्राह्मण ने कहा कि यह रानी नहीं, उसकी बहू है। वहीं रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जो आगे चलकर दलपतदेव के नाम से प्रसिद्ध शासक बने। इस उपकार के बदले राजा राजपालदेव ने उस ब्राह्मण को दस गाँव दान में दिए और अपना गोत्र अत्रि से बदलकर कश्यप कर लिया।
इस समय पापड़ा हांडी का राजा ब्राह्मणों पर अत्याचार कर रहा था। राजपालदेव ने उस पर आक्रमण किया, जिसके परिणामस्वरूप पापड़ा हांडी के राजा ने आत्मसमर्पण कर उनकी अधीनता स्वीकार की। अनेक ब्राह्मण परिवारों ने बस्तर में शरण ली और जिस स्थान पर वे बसे, वह ब्रह्मपुर कहलाया। ब्राह्मणों की रक्षा के कारण राजा राजपालदेव ‘रक्षपालदेव’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
राजपालदेव की दो रानियाँ थीं—रानी रुद्रकुँवर बघेलिन और रानी इंद्रकुँवर चंदेलिन। रुद्रकुँवर से दलपतदेव और प्रतापसिंहदेव नामक दो पुत्र हुए, जबकि चंदेलिन से दक्खिनसिंह नामक पुत्र उत्पन्न हुए। रानी चंदेलिन ने अपने पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने के लिए दलपतदेव को कोरवाड़ और प्रतापसिंहदेव को अंतागढ़ भेज दिया। बाद में दक्खिनसिंह और राजा राजपालदेव की मृत्यु हो गई।
राजा की मृत्यु के बाद रानी चंदेलिन ने षड्यंत्रपूर्वक अपने भाई को सिंहासन पर बिठाया। उस चंदेलराजा ने दलपतदेव और प्रतापसिंहदेव के परगनों—कोरवाड़ और अंतागढ़ पर अधिकार कर लिया। इससे दलपतदेव जयपुर और प्रतापसिंहदेव रीवा (सोहागपुर) की ओर निर्वासन में चले गए। इस प्रकार बस्तर का शासन सत्ता-हड़पने वाले मामा के नियंत्रण में चला गया।
दलपतदेव ने जयपुर से बस्तर की स्थिति पर निगरानी रखी। रक्षाबंधन के दिन उन्होंने चंदेलमामा की हत्या कर बस्तर के राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। राजपालदेव को ‘लहुरा गजपति’ और ‘प्रौढप्रतापचक्रवर्ती’ कहा जाता है। उनका शासन बस्तर के इतिहास में साम्राज्य एकीकरण, ब्राह्मण संरक्षण और राजनीतिक चतुराई के लिए प्रसिद्ध है।
चंदेल मामा (1721–1731 ई.)
चंदेल मामा (1721–1731 ई.) एक घुसपैठिया शासक था। राजपालदेव की मृत्यु के बाद रानी इंद्रकुँवर चंदेलिन ने अपने भाई को बस्तर का राजा बनवाया, जिसने दलपतदेव और प्रतापसिंहदेव के परगनों पर अधिकार कर लिया। बाद में दलपतदेव ने रक्षाबंधन के दिन चंदेलराजा की हत्या कर बस्तर की सत्ता पुनः प्राप्त की।
दलपतदेव (1731–1774 ई.)
चंदेलमामा की हत्या के बाद दलपतदेव बस्तर के राजा बने। उनका शासनकाल राजधानी परिवर्तन और बस्तर पर मराठों तथा मुसलमानों के आक्रमणों के कारण प्रसिद्ध है। राजा दलपतदेव ने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के उद्देश्य से सुकमा, हमीरगढ़ के जमींदारों तथा कांकेर के राजा की कन्याओं के साथ विवाह किया। उनकी सात रानियाँ थीं।
दलपतदेव ने उत्तर बस्तर के प्रशासन का भार अपने भाई प्रतापराजदेव को सौंपा था। प्रतापराजदेव ने नागपुर के भोंसला शासक से गुप्त समझौता कर लिया। इसके बाद 1770 ई. में मराठा सेनापति नीलू पंडित ने रावघाट की ओर से बस्तर पर आक्रमण किया। राजा दलपतदेव ने मराठा सेना का डटकर सामना किया और नीलू पंडित को बस्तर से खदेड़ दिया। नीलू पंडित को एक बंजारे की सहायता से प्राण बचाकर बस्तर छोड़कर भागना पड़ा।
दलपतदेव ने सूझबूझ, साहस और शौर्य के साथ मराठों को परास्त किया। उन्होंने अपने भाई प्रतापराजदेव को मराठों से मिलीभगत के आरोप में राजद्रोही मानकर देश निकाला का दंड दिया। प्रतापराजदेव बस्तर छोड़कर सोहागपुर (रीवा) चले गए।
इसके बाद राजा दलपतदेव ने बस्तर को असुरक्षित मानते हुए 1772 ई. में राजधानी को जगदलपुर स्थानांतरित किया। उस समय जगदलपुर का महल मिट्टी का बना हुआ था। नगर के चारों ओर ईंट की दीवारें थीं और तीन दरवाजे थे। राजधानी का परिवर्तन आक्रमणों से बचाव के लिए किया गया था। जगदलपुर पहले जगदूगुड़ा के नाम से जाना जाता था, जो राजधानी बनने के बाद जगदलपुर कहलाया।
राजधानी स्थानांतरित होने के बाद बस्तर पर मुगलों (मुसलमानों) ने आक्रमण किया। जगदलपुर में मुसलमानों की छावनी जहाँ थी, वह स्थान आज भी मुगल टेकरी के नाम से प्रसिद्ध है, जो वर्तमान में वन विद्यालय के पास है। मुसलमान दलपतदेव की वीरता के आगे टिक नहीं सके। अधिकांश मुस्लिम सैनिक मारे गए। बीमारी, रसद की कमी और सैनिकों के बीमार पड़ने के कारण मुसलमानों को जगदलपुर छोड़कर भागना पड़ा। इस घटना से दलपतदेव के गौरव और सम्मान में वृद्धि हुई।
दलपतदेव न केवल विजेता थे, बल्कि कुशल प्रशासक और निर्माता भी थे। उन्होंने जगदलपुर में दलपत सागर और गंगमुंड तालाबों का निर्माण करवाया, जिसमें दलपत सागर छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी झील के रूप में प्रसिद्ध है। उनके शासनकाल में बंजारा जाति द्वारा वस्तु विनिमय की प्रथा शुरू की गई।
अजमेरसिंहदेव (1774–1777 ई.)
अजमेरसिंहदेव ने दरियावदेव के खिलाफ 1774 ई. में डोंगर में राजा घोषित हुए। उनके शासनकाल की सबसे बड़ी घटना हल्बा विद्रोह है, जो बस्तर का पहला जनजातीय विद्रोह था। अजमेरसिंह ने अपने भाई दरियावदेव के कूटनीतिक षड्यंत्रों और मराठा समर्थन के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया। अजमेरसिंह को बस्तर के क्षेत्र में क्रांति का मसीहा कहा जाता है, क्योंकि वह बस्तर के पहले जनजातीय विद्रोह के नेता थे।
हल्बा विद्रोह (1774 ई.)
अजमेरसिंह (1774–1777 ई.) के नेतृत्व में 1774 ई. में हल्बा विद्रोह हुआ, जो बस्तर का पहला प्रमुख जनजातीय विद्रोह था। यह विद्रोह मराठा और अंग्रेजी हस्तक्षेप के खिलाफ था, जिसका उद्देश्य बस्तर की स्वायत्तता को बनाए रखना था। दरियावदेव ने ब्रिटिश अधिकारी व मराठों के साथ कूटनीतिक षड्यंत्र कर अजमेरसिंह पर आक्रमण किया और 1779 ई. में धोखे से उनकी हत्या करवा दी। इसके कारण काकतीय वंश का शासन मराठों के अधीन हो गया।
मराठा अधीनता (1778–1854 ई.)
दरियावदेव के शासनकाल (1777–1800 ई.) में बस्तर मराठा प्रभाव के अधीन आया। 1778 ई. में कोटपाड़ की संधि के तहत दरियावदेव ने मराठों की अधीनता स्वीकार कर ली, जिसके परिणामस्वरूप बस्तर को वार्षिक टकोली (कर) देना पड़ा। इस संधि का पालन न करने पर मराठों ने बस्तर पर आक्रमण किए, जिसने क्षेत्र की आर्थिक स्थिति को कमजोर किया। दरियावदेव ने अपने भाई अजमेरसिंह के खिलाफ कूटनीतिक षड्यंत्र रचकर सत्ता हासिल की थी और मराठों के साथ गठजोड़ ने उनकी स्थिति को और मजबूत किया। यद्यपि मराठा हस्तक्षेप और टकोली की माँग ने बस्तर की स्वायत्तता को सीमित कर दिया और स्थानीय जनता में असंतोष को जन्म दिया। इस अधीनता ने बस्तर को आर्थिक और प्रशासनिक रूप से कमजोर किया, जिसका प्रभाव बाद के शासकों पर भी पड़ा।
दरियावदेव (1777–1800 ई.)
दरियावदेव ने मराठों के अधीनस्थ के रूप में 1777 से 1800 ई. तक शासन किया। उन्होंने 1779 ई. में अजमेरसिंहदेव की धोखे से हत्या करवाकर सत्ता प्राप्त की थी। इसके बाद, 1778 ई. में कोटपाड़ की संधि के तहत बस्तर को मराठों के अधीन कर दिया गया।
दरियावदेव के शासनकाल में 1782 ई. में जयपुर से तनाव हुआ और उन्होंने कोटपाड़ परगढ़ में से तीन गढ़ जीत लिए। हैदराबाद ने भी अपने अधिकार क्षेत्र में भरेला, बांगरू और रेकापल्ली की जमींदारी शामिल कर ली।
भोपालपटनम संघर्ष (1795 ई.)
दरियावदेव के शासनकाल में 1795 ई. में भोपालपटनम संघर्ष हुआ। जब 1795 ई. में अंग्रेज कैप्टन जे.टी. ब्लंट ने बीजापुर क्षेत्र के भोपालपटनम से बस्तर में प्रवेश करने का प्रयास किया, तो स्थानीय आदिवासियों ने राजा दरियावदेव के नेतृत्व में उनके खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप ब्लंट को कोलकाता वापस लौटना पड़ा। यह घटना बस्तर की जनता में बाहरी हस्तक्षेप के प्रति गहरे असंतोष का परिचायक है।
दरियावदेव के शासन के दौरान उन्हें एक ब्राह्मण के काका को जब्त करने के कारण आत्मग्लानि हुई, जिससे वह पागलपन की अवस्था में मर गए। उनके बाद बस्तर कभी भी पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं रह पाया और युद्ध, विद्रोह और आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा।
महिपालदेव (1800–1842 ई.)
महिपालदेव ने मराठों की अधीनता में शासन किया। उन्होंने जब कोटपाड़ संधि का उल्लंघन किया, तो मराठा सेनापति रामचंद्र बाघ ने बस्तर पर आक्रमण किया। महिपालदेव के शासनकाल में 1825 ई. में गेंदसिंह के नेतृत्व में परलकोट विद्रोह हुआ। यह विद्रोह मराठों को टकोली न चुकाने और उनकी बढ़ती दखलंदाजी के खिलाफ था। मराठा शासक ने सेनापति रामचंद्र बाघ को भेजकर इस विद्रोह को दबाने का प्रयास किया। इस विद्रोह के बाद महिपालदेव ने 1830 ई. में सिहावा क्षेत्र को मराठा शासन के अधीन नागपुर को सौंप दिया।
भूपालदेव (1842–1853 ई.)
भूपालदेव मराठा अधीनता में राज्य के शासक थे। उनके शासनकाल में कई जनजातीय विद्रोह हुए, जिनमें मरिया और तारापुर विद्रोह विशेष रूप से प्रमुख थे। 1842 ई. में मरिया और तारापुर के विद्रोह बस्तर में बाहरी शक्तियों, विशेष रूप से मराठों और ब्रिटिश प्रभाव के खिलाफ जनजातीय असंतोष के परिणाम थे। मरिया विद्रोह में स्थानीय जनजातियों ने अपनी परंपराओं और स्वायत्तता की रक्षा के लिए संघर्ष किया, जबकि तारापुर विद्रोह ने बस्तर के ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ते सामाजिक और आर्थिक दबाव को उजागर किया। इसके बाद 1853 से 1947 ई. तक बस्तर पर अंग्रेज-मराठा अधीनता और ब्रिटिश शासन रहा।
ब्रिटिश अधीनता (1854–1947 ई.)
1854 ई. में लॉर्ड डलहौजी की हड़प नीति के तहत नागपुर राज्य का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय हो गया, जिसके परिणामस्वरूप बस्तर सहित मराठों के अधीन सभी क्षेत्र ब्रिटिश नियंत्रण में आ गए। इस प्रकार बस्तर में काकतीय वंश का शासन ब्रिटिश अधीनता के अंतर्गत आया।
भैरमदेव (1853–1891 ई.) बस्तर के पहले ब्रिटिश कालीन शासक थे। उनके शासनकाल में ब्रिटिश हस्तक्षेप ने बस्तर के प्रशासनिक और राजनीतिक ढाँचे को प्रभावित किया। ब्रिटिश शासन ने बस्तर की स्वायत्तता को और अधिक सीमित किया और स्थानीय जनजातियों में औपनिवेशिक नीतियों के खिलाफ असंतोष बढ़ता गया।
भैरमदेव (1853–1891 ई.)
भैरमदेव बस्तर के पहले ब्रिटिशकालीन राजा थे। 1856 ई. में यूरोपीय यात्री चार्ल्स सी. इलियट बस्तर आए, जिन्होंने उस समय की परिस्थितियों का विवरण दिया है। इसी काल में रानी जुगराज कुँवर (चोरिस) ने अपने पति भैरमदेव और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह किया, जिसके कारण उन्हें छत्तीसगढ़ की पहली विद्रोही महिला कहा जाता है।
भैरमदेव के शासनकाल में ब्रिटिश नीतियों और स्थानीय प्रशासन के खिलाफ जनजातीय असंतोष तीन प्रमुख जनजातीय विद्रोहों के रूप में फूट पड़ा—लिंगागिरी विद्रोह (1856 ई.), कोई विद्रोह (1859 ई.), और मुड़िया विद्रोह (1876 ई.)। ये विद्रोह बस्तर की जनजातियों द्वारा अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को बनाए रखने और औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ प्रतिरोध के प्रयास थे। इन विद्रोहों में स्थानीय जनजातियों ने अपनी स्वायत्तता और परंपराओं की रक्षा के लिए एकजुट होकर संघर्ष किया।
रुद्रप्रतापदेव (1891–1921 ई.)
रुद्रप्रतापदेव मात्र 6 वर्ष की आयु में सिंहासन पर बैठे, इसलिए 1891 से 1908 ई. तक बस्तर का शासन ब्रिटिश प्रशासन के अधीन रहा। 1908 ई. में उन्होंने पूर्ण शासन प्राप्त किया।
भूमकाल विद्रोह (1910 ई.)
रुद्रप्रतापदेव के शासनकाल में 1910 ई. में गुंडाधुर के नेतृत्व में भूमकाल विद्रोह हुआ, जो बस्तर का सबसे प्रसिद्ध जनजातीय विद्रोह था। यह विद्रोह ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों, विशेष रूप से वन संसाधनों पर बढ़ते नियंत्रण और स्थानीय जनजातियों के अधिकारों के हनन के खिलाफ था। भूमकाल विद्रोह ने बस्तर की जनजातियों की एकता और स्वायत्तता के लिए उनके दृढ़ संकल्प को दर्शाया। यह विद्रोह बस्तर के इतिहास में स्वतंत्रता और स्वशासन की लड़ाई का प्रतीक बन गया।
रुद्रप्रतापदेव को अंग्रेजों ने ‘सेंट ऑफ जेरुसलम’ की उपाधि से सम्मानित किया। उन्होंने जगदलपुर को चौराहों का शहर बनाकर विकसित किया और घोटीपोनि प्रथा की शुरुआत की।
प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921–1936 ई.)
महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी छत्तीसगढ़ की पहली महिला शासिका थीं। वह केवल 12 वर्ष की आयु में सिंहासनारूढ़ हुईं और नाबालिग होने के बावजूद शासन संभाला। 1927 ई. में प्रफुल्लचंद्र भंजदेव से उनका विवाह हुआ।
महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी लोक कल्याणकारी शासिका थीं, जिन्होंने अपने शासन में जनकल्याण के महत्त्वपूर्ण कार्य किए। उन्हें ब्रिटिश प्रशासन के साथ कई संघर्षों का सामना करना पड़ा।
प्रवीरचंद्र भंजदेव (1936–1961 ई.)
प्रवीरचंद्र भंजदेव ब्रिटिश शासन के अधीन बस्तर के अंतिम शासक और स्वतंत्र भारत में बस्तर के पहले शासक थे। 1948 ई. में बस्तर का भारतीय गणराज्य में विलय हुआ और यह जिला बन गया। उन्होंने रियासतों के विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए।
प्रवीरचंद्र भंजदेव के नाम पर छत्तीसगढ़ सरकार तीरंदाजी में पुरस्कार प्रदान करती है। उनका शासनकाल बस्तर के इतिहास में परिवर्तन और स्वतंत्रता के युग का प्रतीक माना जाता है।
बस्तर में काकतीय वंश का सांस्कृतिक योगदान
काकतीय वंश ने बस्तर की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को समृद्ध करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनके शासनकाल में शुरू की गई परंपराएँ और निर्माण आज भी क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं।
दंतेश्वरी मंदिर
अन्नमदेव (1324–1369 ई.) द्वारा दंतेवाड़ा में स्थापित दंतेश्वरी मंदिर बस्तर की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान का केंद्रीय प्रतीक है। यह मंदिर शंखनी और डंकनी नदियों के संगम पर स्थित है और काकतीय वंश की कुलदेवी दंतेश्वरी को समर्पित है। मंदिर ने स्थानीय जनजातियों और गैर-जनजातीय समुदायों को एकजुट करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह आज भी बस्तर का प्रमुख धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र है, जो काकतीय वंश की धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक समावेशिता का सूचक है।
बस्तर दशहरा और गोंचा पर्व
पुरुषोत्तमदेव (1468–1534 ई.) ने बस्तर दशहरा और गोंचा पर्व (रथयात्रा) की शुरुआत की, जो आदिवासी परंपराओं और हिंदू धार्मिक रीति-रिवाजों का अनूठा संगम हैं। गोंचा पर्व में बाँस की नलियों (तुपकी) से ध्वनि उत्पन्न कर भगवान जगन्नाथ का स्वागत किया जाता है, जिसमें मालकांगनी के फल गोलियों का कार्य करते हैं। बस्तर दशहरा, जो 75 दिनों तक चलता है, स्थानीय जनजातियों की भागीदारी के साथ मनाया जाता है और काकतीय वंश की सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है।
जागर उत्सव और काछिन गादी
नरसिंहदेव (1558–1602 ई.) के शासनकाल में जागर उत्सव की शुरुआत हुई, जो स्थानीय जनजातियों की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को दर्शाता है। उनकी रानी लक्ष्मीकुँवर चंदेलिन की प्रेरणा से यह उत्सव महल में प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता था। पुरुषोत्तमदेव के समय काछिन गादी पर्व की शुरुआत हुई, जो बस्तर दशहरा से पहले मनाया जाता है। यह पर्व एक सैन्य टुकड़ी के साथ मित्रता और काछिन देवी की कथा से जुड़ा है।
दलपत सागर
दलपतदेव (1731–1774 ई.) ने जगदलपुर में दलपत सागर का निर्माण करवाया, जो छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी झील है। यह झील न केवल जल संरक्षण और सिंचाई के लिए महत्त्वपूर्ण थी, बल्कि बस्तर की स्थापत्य कला और काकतीय शासकों की प्रजा के प्रति उत्तरदायित्व का भी परिचायक है।
बस्तर में काकतीय वंश ने 1324 से 1947 ई. तक लगभग छह शताब्दियों तक शासन किया। अन्नमदेव द्वारा स्थापित यह वंश अपनी धार्मिक परंपराओं, सांस्कृतिक योगदानों, और जनजातीय विद्रोहों के लिए जाना जाता है। दंतेश्वरी मंदिर, बस्तर दशहरा, और गोंचा पर्व जैसे योगदान उनकी सांस्कृतिक विरासत के प्रतीक हैं। मराठा और ब्रिटिश अधीनता के बावजूद काकतीय शासकों ने अपनी पहचान और प्रजा के हितों की रक्षा की। प्रवीर चंद्र भंजदेव के समय बस्तर का भारतीय संघ में विलय हुआ, जिससे यह क्षेत्र आधुनिक भारत का हिस्सा बन गया।
संदर्भ
- वर्त्यानी, जे. आर. एवं साहसी, व्ही. डी. (1998). बस्तर का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास. दिव्या प्रकाशन, कांकेर.
- बेहार, रामकुमार एवं बेहार, निर्मला (1985). बस्तर आरण्यक. निर्मला बेहार, जगदलपुर.
- जगदलपुरी, लाला (2007). बस्तर इतिहास एवं संस्कृति. म.प्र. हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल.
- शुक्ल, हीरालाल (2009). बस्तर का मुक्ति संग्राम. म.प्र. हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल.
- वर्मा, भगवान सिंह (2003). छत्तीसगढ़ का इतिहास. म.प्र. हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल.
- झा, के. के. (2006). बस्तर के लोकनायक प्रवीरचंद्र भंजदेव एवं उनकी वंश परंपरा. विश्वभारती प्रकाशन, नागपुर.