1830 ई. की जुलाई क्रांति
मेटरनिख और उसके सहयोगियों ने सोचा था कि पेरिस और वियना में लिए गए उनके निर्णयों ने परिवर्तन की धारा को अवरुद्ध कर दिया है। उन्होंने चतुर्मुखी संघ की आड़ में सम्मेलनों और हस्तक्षेप की नीति के माध्यम से प्रगतिशील तत्वों का दमन कर यूरोप पर नियंत्रण स्थापित कर लिया था। मेटरनिख जैसे लोगों को भ्रम था कि समय की धारा रुक गई है और अब वे अपने हितों की रक्षा की चिंता से निश्चिंत हो सकते हैं। उनका आश्वस्त होना स्वाभाविक भी था, क्योंकि स्पेन, नेपल्स या जहाँ कहीं भी लोगों ने संविधान या अधिकार की मांग की, मेटरनिख और उसके सहयोगियों की सेनाओं ने वहाँ हस्तक्षेप कर निरंकुश एकतंत्रीय पुरातन व्यवस्था लागू कर दी थी। इस प्रकार मेटरनिख प्रतिक्रियावाद का मसीहा बन गया था और स्वयं को ऑस्ट्रिया में तथा ऑस्ट्रिया को यूरोप में प्रतिष्ठित देखकर अपनी सफलता पर आत्ममुग्ध हो रहा था। किंतु 1830 ई. की फ्रांसीसी क्रांति ने मेटरनिख और उसके सहयोगियों के इस भ्रम को चकनाचूर कर दिया। 1830 ई. की जुलाई क्रांति फ्रांस से प्रारंभ होकर पूरे यूरोप में फैल गई।
लुई अठारहवाँ
नेपोलियन के पतन के बाद वियना कांग्रेस में मित्रराष्ट्रों ने बूर्बो राजवंश के 60 वर्षीय लुई अठारहवें को फ्रांस की गद्दी पर बैठाया, जो 1789 ई. की क्रांति के शुरू होने पर कुलीनों के साथ फ्रांस से बाहर भाग गया था। लुई अठारहवें ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि बूर्बो लोग न तो इतिहास भूल पाते हैं और न ही उससे कुछ सीखते हैं। लुई की न तो कोई प्रतिष्ठा थी और न उसने किसी प्रकार की योग्यता का प्रदर्शन ही किया था। लुई जानता था कि बूर्बो राजवंश की पुनर्स्थापना फ्रांस के लोगों की इच्छा से नहीं, वरन् विजेताओं की सहायता से हुई है। यद्यपि वह रूढ़िवादी विचारों का पोषक था, लेकिन उसे यह भी पता था कि अब क्रांतिजनित नवीन प्रवृत्तियों को किसी भी तरह से नष्ट नहीं किया जा सकता। इसलिए वह नए युग की आवश्यकताओं के अनुकूल फ्रांस की जनता की सहमति प्राप्त कर अपने शासन को लोकप्रिय बनाना चाहता था। वास्तव में, लुई अठारहवाँ किसी भी तरह की उग्रता पसंद नहीं करता था और मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुए स्वयं और अपने वंश की सुरक्षा चाहता था।
2 जून 1814 ई. का घोषणा-पत्र
गद्दी पर बैठते ही लुई अठारहवें ने एक संवैधानिक घोषणा-पत्र जारी किया और क्रांति द्वारा प्रतिष्ठित प्रायः सभी सिद्धांतों को स्वीकार कर लिया। इस घोषणा-पत्र के अनुसार जनता को एक नया शासन-विधान प्रदान किया गया और क्रांतिजनित उपलब्धियों तथा मानव अधिकारों के घोषणा-पत्र को पुनः स्वीकार किया गया। फ्रांस में वैध राजसत्ता, उत्तरदायी मंत्रिमंडल और द्विसदनात्मक विधानसभा की व्यवस्था लागू की गई। बहुत-से लोगों को मतदान का अधिकार दिया गया, संपत्ति के अधिकार को मान्यता दी गई, और यह आश्वासन दिया गया कि क्रांति के समय जिन लोगों ने चर्च या कुलीनों की भूमि पर अधिकार जमा लिया था, उसे भविष्य में छीना नहीं जाएगा। इस प्रकार बूर्बो राजवंश की पुनर्स्थापना से फ्रांस में एक उदार संविधान का प्रादुर्भाव हुआ।
यह घोषणा-पत्र प्रगतिशील विचारों का प्रतीक तो था, लेकिन इसमें कई त्रुटियाँ भी थीं, जैसे जनतांत्रिक सिद्धांतों के विपरीत राजा ही समस्त अधिकारों का स्रोत था और निर्वाचन-पद्धति आर्थिक योग्यताओं पर आधारित थी, जिससे प्रतिनिधित्व केवल मध्यम वर्ग तक ही सीमित था। फिर भी, यूरोपीय राष्ट्रों में ‘जनता के अधिकारों’ का यह श्रेष्ठ घोषणा-पत्र था और कई अर्थों में इंग्लैंड के उदारवादी संविधान से भी बेहतर था। इस घोषणा-पत्र में क्रांति के सभी सिद्धांतों को मान्यता प्रदान कर उदारता का परिचय दिया गया था और संवैधानिक राजतंत्र तथा उत्तरदायी शासन की स्थापना की गई थी। वास्तव में, इस घोषणा-पत्र ने दो महत्त्वपूर्ण कार्य किए- प्रथम, उसने क्रांतिकारी और नेपोलियन युग की कई विशेषताओं को कम-से-कम सतही रूप से स्वीकार कर लिया, जैसे धार्मिक स्वतंत्रता, समानता, नेपोलियन कोड और पोप के साथ समझौता; दूसरा, उसने दैवी अधिकार के सिद्धांत को भी इस तरह मान्यता दी कि उदारवादी सिद्धांतों का महत्त्व कम नहीं हुआ। वास्तव में, घोषणा-पत्र प्रजा-सद्भावना का प्रतीक था।
लुई की समस्याएँ
लुई को अपनी कठिनाइयों और सीमाओं का ज्ञान था। वह शांति से जीवन व्यतीत करने के लिए प्रतिक्रियावादी नीति से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझता था। देश में उस समय दो दल थे। एक दल कट्टर राजसत्तावादियों का था, जिन्हें क्रांति ने बुरी तरह प्रभावित किया था। उनके हृदय में प्रतिशोध की आग धधक रही थी। वे क्रांतिकारियों, प्रजातंत्रवादियों और उदारवादियों का दमन करके फ्रांस में पुनः पुरातन व्यवस्था और निरंकुश शासन की स्थापना करना चाहते थे। लुई अठारहवें का भाई और राजसिंहासन का उत्तराधिकारी ‘आर्तुआ का काउंट’ इस दल का नेता था।
दूसरा दल क्रांति के समर्थकों का था, जिसमें उदार राजसत्तावादी, प्रजातंत्रवादी, उदारवादी और नेपोलियन बोनापार्ट के समर्थक भी शामिल थे। यह दल क्रांति से उत्पन्न लाभों को सुरक्षित रखना चाहता था। लेकिन इनकी सबसे बड़ी कमी यह थी कि इनमें किसी प्रकार की एकता नहीं थी।
फ्रांस के राजसिंहासन पर जैसे ही बूर्बो राजवंश को पुनः स्थापित किया गया, वैसे ही इन दोनों दलों में संघर्ष शुरू हो गया। नए विधान के अनुसार जो लोकसभा चुनी गई, उसमें कट्टर राजसत्तावादियों का बहुमत था। इन लोगों ने आर्तुआ के काउंट के नेतृत्व में व्यवस्थापिका सभा में राजा द्वारा घोषित सुधारों के खिलाफ कानून पास करना शुरू कर दिया। राष्ट्रीय तिरंगे झंडे को हटाकर उसी स्थान पर पुनः बूर्बो वंश के श्वेत झंडे को प्रतिष्ठित किया गया। कट्टर राजसत्तावादियों की इस प्रतिक्रियावादी नीति से फ्रांस में पुनः क्रांति हो जाने की आशंका पैदा हो गई। जब लोकसभा ने वियना में तय किए गए मुआवजे की राशि न देने के लिए हंगामा मचाया, तो लुई ने व्यवस्थापिका सभा को भंग कर दिया और उसके पुनः निर्वाचन की घोषणा कर दी।
नए निर्वाचन के बाद राष्ट्रीय सभा में उदार राजसत्तावादियों का बहुमत हो गया। इस दल के काल में फ्रांस ने बहुत प्रगति की। व्यापार, उद्योग-धंधों, कला-कौशल आदि को प्रोत्साहन दिया गया, जिससे देश की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ। सेना का पुनर्गठन किया गया और मताधिकार को और विस्तृत किया गया। वैदेशिक क्षेत्र में भी फ्रांस की प्रतिष्ठा बढ़ी; मुआवजा चुका दिया गया और विजेताओं की सेना फ्रांस से हटा ली गईं। ऐक्स-ला-शैपेल की कांग्रेस में फ्रांस को यूरोप की संयुक्त व्यवस्था में शामिल कर लिया गया।
इस प्रकार उदारवादियों के नेतृत्व में फ्रांस प्रगति कर रहा था, लेकिन फरवरी 1820 ई. में आर्तुआ के काउंट के दूसरे पुत्र बेरी ड्यूक की हत्या के बाद राजसत्तावादियों ने सैकड़ों लोगों की हत्याएँ की और आतंक के राज्य की नृशंसता को भी पीछे छोड़ दिया। कट्टर राजसत्तावादियों ने उदारवादियों को बदनाम करके पहले रिशल्यू को और फिर घोर कट्टर प्रतिक्रियावादी विलेल को प्रधानमंत्री नियुक्त करवाया। इस उलटफेर में पुनः सेंसरशिप लागू कर दी गई और देश की समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए आक्रामक विदेश नीति अपनाई गई। स्पेन के देशभक्तों ने संविधान की माँग की और निरंकुश फर्डिनेंड को गद्दी से उतार दिया। लेकिन 1823 ई. में फ्रांस ने स्पेन में हस्तक्षेप कर संविधान की माँग करने वाले राष्ट्रवादियों का कठोरतापूर्वक दमन किया। स्पेन की आड़ में प्रतिक्रियावादी कानूनों को लागू करके सभी सुधारों को स्थगित कर दिया गया, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अन्य नागरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया। प्रेस-संबंधी कानून और सख्त कर दिए गए। नए कर लगाए गए और मताधिकार को अत्यंत सीमित कर दिया गया। शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह सरकार द्वारा नियंत्रित विश्वविद्यालयों को सौंप दी गई। इस प्रतिक्रिया के खिलाफ फ्रांस में धीरे-धीरे आवाजें उठने लगीं और गुप्त क्रांतिकारी संगठन बनने लगे। किंतु लुई अठारहवें का यह सौभाग्य था कि उसके शासनकाल में कोई विशेष अशांति नहीं हुई और 1824 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
चार्ल्स दशम और 1830 ई. की क्रांति
लुई अठारहवें की मृत्यु के बाद उसका भाई आर्तुआ का काउंट चार्ल्स दशम के नाम से फ्रांस की गद्दी पर बैठा। उसने कठोर प्रतिक्रियावादी शासन शुरू किया, जिसके कारण 1830 ई. में फ्रांस में एक बार फिर क्रांति की आग भड़क उठी।
चार्ल्स दशम की नीतियाँ
1830 ई. की क्रांति के लिए चार्ल्स दशम की नीतियाँ ही जिम्मेदार थीं। वह कट्टर राजसत्तावादी दल का प्रधान नेता और क्रांति का घोर विरोधी था। 1789 ई. की क्रांति के समय वह देश छोड़कर भाग गया था और क्रांति के खिलाफ यूरोपीय राज्यों को लगातार भड़काता रहा। वह ‘राजा के दैवी अधिकार’ के सिद्धांत में विश्वास करता था और अपनी प्रतिक्रियावादी नीति के तहत फ्रांस में पुरानी व्यवस्था को पुनर्स्थापित करना चाहता था। वह कहा करता था: ‘इंग्लैंड के राजा की तरह शासन करने की अपेक्षा लकड़हारा बनना बेहतर है।’
यद्यपि सिंहासन पर बैठते समय चार्ल्स दशम ने लुई अठारहवें द्वारा घोषित चार्टर पर चलने की बात कही थी, किंतु इस 60 वर्षीय शासक से यह उम्मीद करना बेकार था कि वह इस उम्र में अपने जीवनभर के सिद्धांतों का परित्याग कर देगा। फलतः चार्ल्स दशम ने राजा बनते ही अपनी कठोर प्रतिक्रियावादी नीतियों को लागू करने के लिए एक-एक करके कानूनों को बदलना शुरू कर दिया। फलस्वरूप 1830 ई. में फ्रांस में एक बार फिर क्रांति की आग भड़क उठी।
1830 ई. की क्रांति के कारण
कैथोलिक चर्च की पुनर्स्थापना
1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति के दौरान चर्च और पादरियों की शक्ति में कमी आई थी, और नेपोलियन ने धर्म के संबंध में जनता को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की थी। चार्ल्स दशम ने कैथोलिक धर्म को राज्य का धर्म घोषित कर दिया और जेसुइट लोगों को फिर से आज्ञा दी कि वे फ्रांस में आकर अपना धार्मिक और शैक्षणिक कार्य कर सकते हैं। चर्च की शक्ति और प्रभाव में वृद्धि के लिए चार्ल्स दशम ने फ्रांस के विश्वविद्यालय का अध्यक्ष एक पादरी को बना दिया। वेलिंगटन ने लिखा है कि चार्ल्स दशम ऐसे राज्य की स्थापना करने जा रहा था जो ‘पादरियों द्वारा, पादरियों का, पादरियों के लिए’ था। चार्ल्स की पादरियों को अनावश्यक अधिकार देने की नीति से जनता नाराज हो गई।
इसी प्रकार चार्ल्स दशम ने एक अधिनियम बनाया, जिसके अनुसार जो लोग गिरजाघर को अपवित्र करेंगे, उन्हें मृत्युदंड दिया जाएगा और जो लोग पूजा-पाठ के बर्तनों की चोरी करेंगे, उनके हाथ काट लिए जाएँगे। फ्रांस की जनता ने इस अमानवीय कानून का खुलकर विरोध किया।
सामंतों को विशेष सुविधाएँ
1789 ई. की क्रांति के दौरान अनेक कुलीन सामंतों को उनकी भूमि और संपत्ति से बेदखल कर दिया गया था। चार्ल्स दशम ने प्रवासी सामंतों के अधिकारों और सुविधाओं को पुनः स्थापित करने के लिए 1825 ई. में एक कानून बनाया कि क्रांतिकाल में जो लोग देश छोड़कर भागे थे और जिनकी संपत्ति हड़प ली गई थी, उन्हें मुआवजा दिया जाएगा। फ्रांस में वापस आए प्रवासी कुलीनों की संपत्ति का मूल्य लगभग 10 करोड़ फ्रैंक था। चार्ल्स ने इसकी क्षतिपूर्ति के लिए राष्ट्रीय ऋण पर ब्याज की दर 5 प्रतिशत से घटाकर 3 प्रतिशत कर दी, जिससे न केवल पूँजीपति, साहूकार और व्यापारी, बल्कि मध्यम वर्ग भी सरकार और चार्ल्स के विरोधी हो गए।
क्रांति के सिद्धांतों की अवहेलना
चार्ल्स दशम क्रांति और नेपोलियन का घोर शत्रु था। क्रांति काल में उसने मेरी एंटुआनेट के साथ मिलकर क्रांति का दमन करने का प्रयास किया था और असफल होने पर वह विदेश भाग गया था। शासक बनने पर चार्ल्स दशम ने क्रांति द्वारा प्राप्त सिद्धांतों को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और प्रतिक्रिया का राज्य कायम करने में उसने मेटरनिख को भी पीछे छोड़ दिया। उसने ऐसे-ऐसे कानून पास करवाए जिनसे जनता के सारे अधिकार छिन गए और समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता समाप्त हो गई। 1827 ई. में उसने व्यवस्थापिका सभा को भी भंग कर दिया। चार्ल्स के इस स्वेच्छाचारी निरंकुश शासन से फ्रांस में क्रांतिकारियों का प्रभाव बढ़ने लगा और ऐसा प्रतीत होने लगा कि इस निरंकुशतंत्र के खिलाफ फ्रांस में एक बार फिर क्रांति हो जाएगी।
1827 ई. में राष्ट्रीय प्रतिनिधि सभा के चुनाव में राजसत्तावादी बुरी तरह हार गए। अब चार्ल्स दशम के लिए निरंकुश शासन करना कुछ कठिन हो गया। प्रतिनिधि सभा राजा और उसके मंत्रियों का लगातार विरोध करती रही। इसलिए चार्ल्स ने इस सभा को भंग कराकर फिर चुनाव करवाया। परंतु परिणाम पूर्ववत् ही रहा। क्रुद्ध होकर चार्ल्स दशम ने समय से पहले 6 जुलाई को नवनिर्वाचित चैंबर ऑफ डिप्युटीज को भंग कर दिया और पोलिग्नैक नामक एक कट्टर प्रतिक्रियावादी को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। नए मंत्री पोलिग्नेक ने घोर प्रतिक्रियावादी नीति अपनाई। जनता ने राजा से नए मंत्री को बर्खास्त करने की माँग की, लेकिन राजा ने सभा को ही भंग कर दिया। फिर चुनाव हुए और नई सभा में पोलिग्नैक के विरोधियों की संख्या 221 से बढ़कर 271 हो गई। यही नहीं, 25 जुलाई 1830 ई. को पोलिग्नैक ने शाही निवास सेंट क्लाउड से चार दमनकारी अध्यादेश जारी किए, जो क्रांति का तात्कालिक कारण सिद्ध हुए।
जुलाई क्रांति का तात्कालिक कारण
सेंट-क्लाउड के अध्यादेश
सेंट-क्लाउड के अध्यादेश से समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा दिया गया। हाल ही में हुए चुनावों को अस्वीकार कर दिया गया, संपत्ति की योग्यता को बढ़ाकर मताधिकार को अत्यंत संकुचित कर दिया गया, जिसके कारण 75 प्रतिशत नागरिक मताधिकार से वंचित हो गए। चुनाव प्रणाली में परिवर्तन कर डिप्युटीज की संख्या घटाकर 258 कर दी गई और सभा की कार्यावधि 7 वर्ष से 5 वर्ष कर दी गई। चार्ल्स दशम ने नए कानून के अनुसार आगामी सितंबर माह में चुनाव कराने की घोषणा कर दी। सेंट क्लाउड के अध्यादेशों की घोषणा के बाद से ही 1830 ई. की जुलाई क्रांति की उलटी गिनती शुरू हो गई।
जुलाई क्रांति का आरंभ
सेंट-क्लाउड के अध्यादेशों की घोषणा से यह स्पष्ट हो गया कि राजा समझौते के लिए तैयार नहीं है। जब चार्ल्स दशम के चारों अध्यादेशों को समाचारपत्र श्ले मोनिटर यूनिवर्सेलश् ने सोमवार, 26 जुलाई 1830 ई. को प्रकाशित किया, तो पूरे फ्रांस में एक बिजली-सी दौड़ गई। अब जनता, पत्रकारों, उदारवादियों, गणतंत्रवादियों, मजदूरों और बोनापार्ट समर्थकों ने आंदोलन शुरू कर दिया। सेंट क्लाउड के अध्यादेशों के खिलाफ फ्रांस के 47 पत्रकारों ने एडॉल्फ थीयर्स के नेतृत्व में एक हस्ताक्षर-युक्त घोषणा-पत्र प्रस्तुत किया और फ्रांस की जनता से अत्याचार का विरोध करने की अपील की। अध्यादेशों के खिलाफ घोषणा-पत्र में कहा गया था: ‘सरकार ने कानून को तोड़ा है। हम इसे नहीं मानेंगे। हम प्रतिबंध की परवाह किए बिना अपने समाचारपत्र प्रकाशित करेंगे। हम इसका कड़ा विरोध करेंगे।’
27 जुलाई को क्रांतिकारियों ने पेरिस की तंग गलियों और सर्पिल सड़कों पर मोर्चा बाँध लिया। सैकड़ों लोग हताहत हुए। क्रांतिकारियों का नेतृत्व 1789 ई. की क्रांति के प्रमुख नेता लाफायेत, पत्रकारों के नेता थीयर्स और फ्रांस के कूटनीतिज्ञ तालिरां कर रहे थे। क्रांतिकारियों ने 1814 ई. के घोषणा-पत्र को पुनः लागू करने की माँग की। अब पेरिस में चारों ओर चार्ल्स और पोलिग्नैक-विरोधी नारे, जैसे ‘डाउन विद द बॉर्बोंस’ और ‘लॉन्ग लिव द चार्टर’ गूँजने लगे।
28 जुलाई को क्रांतिकारियों और सेना के बीच संघर्ष हुआ। क्रांतिकारियों की संख्या लगभग 10,000 थी और सैनिकों की लगभग 14,000। 29 जुलाई को दो सैन्य टुकड़ियाँ क्रांतिकारियों से मिल गईं और क्रांतिकारियों ने पेरिस पर अधिकार कर लिया।
स्थिति को प्रतिकूल देखकर चार्ल्स दशम ने 30 जुलाई को लाफायेत को नई सरकार का नेतृत्व सौंप दिया। लुई फिलिप को राज्य का लेफ्टिनेंट-जनरल नियुक्त किया गया, और प्रधानमंत्री पोलिग्नैक को पदच्युत कर चारों प्रतिक्रियावादी अध्यादेश वापस ले लिए गए। यदि ये निर्णय समय पर किए गए होते, तो स्थिति सँभल सकती थी। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। विद्रोही अपनी तात्कालिक सफलता से प्रोत्साहित थे और किसी भी प्रकार के समझौते के लिए तैयार नहीं थे। निराश चार्ल्स दशम ने 31 जुलाई 1830 ई. को अपने पौत्र बोर्बों के ड्यूक के पक्ष में सिंहासन का परित्याग कर फ्रांस छोड़कर इंग्लैंड भाग गया।
क्रांतिकारियों के सामने अब यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि फ्रांस में किस प्रकार की शासन-व्यवस्था कायम की जाए। गणतंत्रवादी क्रांतिकारी फ्रांस में तत्काल गणतंत्र की स्थापना करना चाहते थे, जिनमें छात्र और मजदूर भी शामिल थे। इनका नेता कावेन्याक था। पहली क्रांति की स्मृति अभी धूमिल नहीं हुई थी, जब गणतंत्र स्थापित होते ही यूरोप भर के राजघराने फ्रांस के खिलाफ हो गए थे। क्रांतिकारी इतने बड़े विरोध के मुकाबले के लिए तैयार नहीं थे। इसलिए राजतंत्र बनाए रखना आवश्यक समझा गया। थीयर्स के नेतृत्व में मध्यम वर्ग और पूँजीपतियों का वर्ग भी सीमित राजतंत्र का समर्थक था। लाफायेत के व्यक्तिगत प्रभाव से गणतंत्रवादियों को विश्वास में लेकर ऑरलियन्स के ड्यूक लुई फिलिप को फ्रांस का राजा बनने के लिए आमंत्रित किया गया।
लुई फिलिप बूर्बो वंश का निकट संबंधी होने के नाते राजवंश का था, परंतु अपने उदार विचारों के लिए प्रसिद्ध था। उसने क्रांतिकाल में सक्रिय हिस्सा लिया था और कुलीनों के खिलाफ कार्य किया था। कुछ समय तक वह जेकोबिन लोगों के बहुत निकट रहा। आतंक के राज्य के समय जब क्रांति ने उग्र रूप धारण कर लिया था, तब वह फ्रांस छोड़कर चला गया था। नेपोलियन के पतन के बाद वह फ्रांस लौटा। लेकिन इस प्रतिक्रिया के काल में भी वह लोकतांत्रिक शासन का पक्षधर था। वह एक मध्यम वर्ग के व्यक्ति की तरह रहता था और इसलिए जनता उसे बहुत चाहती थी। ऐसे व्यक्ति के राजा बनने पर अधिकांश गणतंत्रवादी संतुष्ट हो गए साथ ही यूरोप के शासकों का भय भी शांत हो गया, क्योंकि फिलिप बूर्बो वंश की ही एक दूसरी शाखा का था। इस तरह 7 अगस्त 1830 ई. को लुई फिलिप ‘ईश्वर की अनुकंपा और जनता की इच्छा’ से ‘फ्रांस का राजा’ नहीं, ‘फ्रांसीसी जनता का राजा’ घोषित किया गया।
जुलाई क्रांति का महत्त्व
1830 ई. की क्रांति ने फ्रांस में वही कार्य किया जो 1688 ई. की क्रांति ने इंग्लैंड में किया था। नए राजा से अध्यादेश का अधिकार ले लिया गया। लुई फिलिप के सिंहासनारोहण से राजा के दैवीय अधिकारों का स्थायी रूप से अंत हो गया और निरंकुश राजतंत्र के सिद्धांत के स्थान पर लोकप्रिय संप्रभुता के सिद्धांत की स्थापना हुई। इस क्रांति के साथ वैधता का सिद्धांत ध्वस्त हो गया और पुरानी व्यवस्था का लौटना असंभव हो गया। नए संविधान में कोई आधारभूत परिवर्तन नहीं किया गया, लेकिन चार्ल्स द्वारा स्थापित कुलीनतंत्र, चर्च और पादरियों का वर्चस्व समाप्त हो गया। बूर्बो वंश के सफेद झंडे का स्थान क्रांतिकारी तिरंगे ने ले लिया। इस प्रकार यह वियना कांग्रेस द्वारा स्थापित व्यवस्था पर पहला सफल प्रहार था।
इतना सब होने के बावजूद, फ्रांस में न तो प्रजातंत्र की स्थापना हुई और न ही आम जनता की आर्थिक स्थिति में कोई परिवर्तन हुआ। बूर्बो वंश की बड़ी शाखा को हटाकर उसके स्थान पर ऑरलियन्स शाखा की स्थापना की गई। क्रांति गणतंत्रवादियों ने की थी, किंतु लाभ मध्यम वर्ग और वैधानिक राजसत्तावादियों को मिला। एक राजवंश का अंत हो गया, लेकिन एकतंत्र सत्ता का अंत नहीं हुआ। वास्तव में, 1830 ई. की क्रांति को 1789 ई. की क्रांति की पूरक क्रांति ही माना जाना चाहिए। लिप्सन के शब्दों में ‘1789 की क्रांति में जो काम बचा था, वह 1830 ई. की क्रांति से पूरा हो गया।’ 1830 ई. की क्रांति के फलस्वरूप स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता, वैधानिक शासन आदि क्रांतिकारी भावनाओं की नींव सुदृढ़ हो गई। इस प्रकार जुलाई क्रांति ने किसी नए सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं किया; उसने पुराने सिद्धांतों को ही नया रूप देकर उन्हें फ्रांस की जनता के लिए सुरक्षित कर दिया।
1830 ई. की जुलाई क्रांति का यूरोप पर प्रभाव
1830 ई. की क्रांति यदि फ्रांस तक सीमित रहती, तब भी इसका महत्त्व था। लेकिन इसकी प्रतिध्वनि ने पूरे यूरोप के राजनीतिक वातावरण को पुनः गरम कर दिया। इस समय एक ओर यूरोप की प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ एकजुट हो रही थीं, तो दूसरी ओर क्रांतिकारी लोगों में भी परस्पर सहयोग बढ़ रहा था। असंतोष और परिवर्तन की उत्कट आकांक्षा यूरोप के अधिकांश देशों में व्याप्त थी। इसलिए जैसे ही 1830 ई. में फ्रांस में प्रतिक्रियावाद के खिलाफ क्रांति हुई और इसकी खबर यूरोप के अन्य देशों में पहुँची, जनता में एक नई चेतना का संचार हुआ और वे अपनी मुक्ति के लिए छटपटाने लगे।
बेल्जियम की स्वतंत्रता
सोलहवीं शताब्दी में नीदरलैंड ने फिलिप द्वितीय के शासनकाल में स्पेन की प्रभुता के खिलाफ विद्रोह किया था। पराजय के समय साम्राज्यवाद ने नीदरलैंड के उत्तरी और दक्षिणी प्रदेशों के बीच फूट डाल दी थी। उत्तरी क्षेत्र प्रोटेस्टेंट और जर्मन प्रभाव के करीब था, जबकि दक्षिणी क्षेत्र कैथोलिक और फ्रांसीसी प्रभाव में था। इसलिए स्पेन के प्रशासकों ने दक्षिणी क्षेत्र में, जो बाद में बेल्जियम कहलाया, फूट डालने में सफलता प्राप्त कर ली थी। वेस्टफेलिया की संधि में जब नीदरलैंड (हॉलैंड) की स्वतंत्रता को मान्यता मिली, तो बेल्जियम गुलाम बना रहा और यूट्रैक्ट की संधि के बाद ऑस्ट्रिया के प्रभुत्व में चला गया। नेपोलियन ने इसे जीतकर फ्रांस में मिला लिया था, लेकिन जब वियना में बँटवारा हो रहा था, तो फ्रांस के चारों ओर शक्तिशाली देशों का घेरा डालने के उद्देश्य से बेल्जियम को हॉलैंड को दे दिया गया था। इस तरह राष्ट्रीय भावनाओं की उपेक्षा से बेल्जियम के निवासी बहुत असंतुष्ट थे।
बेल्जियम और हॉलैंड में भाषा, धर्म और व्यवसाय में अंतर था। हॉलैंड के डच लोग बेल्जियम के लोगों से बहुत घृणा करते थे। इसके अलावा, ज्यादातर नौकरियों में उन्हें स्थान नहीं मिलता था। दोगुनी जनसंख्या होने के बावजूद हॉलैंड के सात सदस्यों के मंत्रिमंडल में उनका एक ही सदस्य था। सारा प्रशासन का केंद्र हॉलैंड की राजधानी हेग था। ब्रसेल्स में लोकसभा की कभी बैठक तक नहीं बुलाई जाती थी। राजभाषा केवल ‘डच’ थी और बेल्जियम का हॉलैंड के हक में शोषण होता था। बेल्जियम के व्यापार को नुकसान पहुँचाने के लिए आटे और माँस पर नए कर लगाए जा रहे थे। बेल्जियम के निवासी इस थोपा हुआ संबंध से मुक्त होने के लिए छटपटा रहे थे। अतः जब पेरिस की जुलाई क्रांति की खबर ब्रसेल्स पहुँची, तो वहाँ भी विद्रोह हो गया।
हॉलैंड के शासक विलियम ने विद्रोह को दबाने के लिए सेना भेजी, परंतु राष्ट्रवादियों के उत्कट विरोध के सामने उसे वापस लौटना पड़ा। रूस अपनी समस्याओं में उलझा हुआ था और फ्रांस तथा इंग्लैंड बेल्जियम की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। फलतः 1830 ई. में बेल्जियम के देशभक्तों ने राजधानी ब्रसेल्स में बेल्जियम की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। लंदन में सम्मेलन बुलाया गया और बेल्जियम की स्वतंत्रता को मान्यता मिल गई। इस नए राज्य के राजा के लिए पहले नामूर के ड्यूक का नाम लिया गया, लेकिन इंग्लैंड सहमत नहीं था, इसलिए सर्वसम्मति से सैक्स कोबुर्ग के शासक लियोपोल्ड को बेल्जियम का राजा घोषित किया गया। हॉलैंड ने इसे स्वीकार नहीं किया और बेल्जियम पर आक्रमण कर दिया। फ्रांस ने बेल्जियम की ओर से हस्तक्षेप किया, जिसके कारण हॉलैंड को पीछे हटना पड़ा, लेकिन उसने एंटवर्प नामक व्यावसायिक नगर नहीं छोड़ा। अंततः 1839 ई. में लंदन में एक और सम्मेलन हुआ और एंटवर्प सहित बेल्जियम की स्वतंत्रता को हॉलैंड ने भी स्वीकार कर लिया। इस प्रकार जुलाई क्रांति से ही एक नए स्वतंत्र देश ‘बेल्जियम’ का जन्म हुआ। 1914 ई. तक बेल्जियम तटस्थ देश बना रहा।
पोलैंड पर प्रभाव
इसी तरह पोलैंड, जिसका तीन बार विभाजन कर उसे समाप्त कर दिया गया था, फ्रांस की क्रांतियों से प्रेरणा प्राप्त करता रहा। यद्यपि जार ने पोलैंड के लिए एक संविधान बना दिया था, परंतु पोलैंड के देशभक्त संतुष्ट नहीं थे और स्वतंत्रता के लिए प्रयास करते रहे। जुलाई क्रांति की खबर पहुँचते ही पोलैंड के राष्ट्रभक्तों ने वारसॉ में सशस्त्र विद्रोह कर दिया और राजधानी वारसॉ में एक अस्थायी सरकार बना ली। रूस का जार पोलैंड को नियंत्रण में रखने के लिए कृत-संकल्प था। पोलैंड के राष्ट्रभक्तों ने जर्मनी, इंग्लैंड और फ्रांस से सहायता माँगी, किंतु रूस के भय से कोई भी देश उनकी सहायता नहीं कर सका। फलतः जार की सेनाओं ने पोलैंड पर अधिकार कर लिया। जार निकोलस ने पोलैंड को रूस में मिला लिया और सैकड़ों देशभक्तों को साइबेरिया के शीतल वीरान क्षेत्रों में निर्वासित कर दिया।
स्पेन पर प्रभाव
नेपोलियन ने स्पेन के राजकुमार फर्डिनेंड सप्तम को बंदी बनाकर उसके राज्य को फ्रांस में मिला लिया था। लेकिन नेपोलियन के पतन के बाद वह 1814 ई. में बंदीगृह से मुक्त हो गया और मित्रराष्ट्रों ने उसे पुनः स्पेन का राजा बना दिया। राजमुकुट धारण करते ही फर्डिनेंड सप्तम ने प्रतिक्रियावादी नीति अपनाई और 1812 ई. का संविधान स्थगित कर दिया। उसने संविधान सभा भी भंग कर दी और प्रेस तथा भाषणों पर कठोर प्रतिबंध लगा दिया। व्यक्तिगत स्वतंत्रता छीन ली गई, अनेक क्रांतिकारियों को निर्वासित कर दिया गया और हजारों को जेलों में ठूँस दिया गया। उसने कुलीनों को पुनः विशेषाधिकार दिए, चर्च की संपत्ति वापस की और धार्मिक न्यायालयों की पुनः स्थापना की। फर्डिनेंड सप्तम की इस नीति के खिलाफ 1820 ई. में स्पेन में भीषण विद्रोह हुए और उसे अपना प्राण बचाकर स्पेन से भागना पड़ा। मित्रराष्ट्रों के प्रस्ताव पर 1822 ई. में फ्रांस के राजा लुई अठारहवें ने फर्डिनेंड सप्तम की सहायता करके उसे पुनः सिंहासनासीन कर दिया।
1830 ई. की क्रांति की सफलता से प्रेरित होकर स्पेन के राष्ट्रवादियों ने देशव्यापी आंदोलन शुरू कर दिया, किंतु सफलता नहीं मिली। फर्डिनेंड सप्तम ने क्रांतिकारियों पर भीषण अत्याचार किए। किंतु देशभक्त भयभीत नहीं हुए और अपने सिद्धांतों का लगातार प्रचार करते रहे। धीरे-धीरे वे इतने शक्तिशाली हो गए कि 1834 ई. की संविधान सभा के चुनाव में राष्ट्रवादियों की विजय हुई। उन्होंने 1837 ई. में शासन में सुधार के लिए राजा को विवश कर दिया। संविधान सभा ने 1812 ई. के संविधान के आधार पर एक नया संविधान तैयार किया। इस संविधान के लागू होने से स्पेन में वैध राजसत्ता की स्थापना हुई और उत्तरदायी मंत्रिमंडल का निर्माण हुआ।
स्विट्जरलैंड पर प्रभाव
इस क्रांति का प्रभाव फ्रांस के पड़ोसी देश स्विट्जरलैंड पर भी पड़ा। स्विट्जरलैंड के विभिन्न कैंटनों में प्रचलित कानून उच्च वर्ग के लिए थे, और सर्वसाधारण को उन नियमों से कोई लाभ नहीं होता था। जुलाई क्रांति से प्रेरित होकर वहाँ के नेताओं ने राज्य के समक्ष सुधारों की माँग रखी और आंदोलन से डरकर सरकार ने सुधारों का वादा किया। जनसाधारण के लाभ के लिए कई नियम बनाए गए। यद्यपि देश का संविधान पूर्णतः गणतंत्रात्मक नहीं बन सका, किंतु आंशिक रूप से उन्हें सफलता मिली।
जर्मनी और इटली पर प्रभाव
1830 की क्रांतियों का असर यूरोप के अन्य कई देशों पर भी पड़ा। जर्मन और इतालवी राष्ट्रवादियों ने विद्रोह का झंडा बुलंद किया। दोनों ही क्षेत्रों में मेटरनिख का प्रभाव था, और उसने जर्मनी के राज्यों की स्वतंत्रता और एकता तथा इटली में कार्बोनारी की क्रांतिकारी परिवर्तनों की इच्छाओं का दमन कर दिया। जर्मनी और इटली की राष्ट्रवादी प्रवृत्तियों को एक बड़ा झटका लगा।
इंग्लैंड पर प्रभाव
जुलाई क्रांति का रचनात्मक प्रभाव इंग्लैंड की राजनीति पर भी पड़ा। संवैधानिक राजतंत्र होने के बावजूद वहाँ राजनीतिक सत्ता सामंतों के हाथ में थी, जबकि आर्थिक सत्ता पूंजीपतियों के हाथ में थी। 1830 ई. के बाद सुधार कानून बनने शुरू हुए, जिससे राजनीतिक अधिकारों का विस्तार हुआ और संपत्ति कर तथा चुनाव-संबंधी नियम और उदार बनाए गए। इस क्रांति ने यह स्पष्ट कर दिया कि पुरानी व्यवस्था को पुनः थोपना असंभव है। अब परिवर्तन की आकांक्षा मध्यम वर्ग में ही नहीं, मेहनतकश मजदूरों में भी व्याप्त हो रही थी, किंतु नेतृत्व पूँजीपति वर्ग के हाथ में था। पूंजीपति वर्ग सामंतशाही और निरंकुश एकतंत्र का विरोधी तो था, लेकिन वह श्रमजीवी वर्ग को अपने साथ और अपने पीछे रखना आवश्यक समझता था। इसलिए 1830 ई. की क्रांति ने स्पष्ट रूप से कोई बड़ा परिवर्तन नहीं किया, लेकिन यूरोपीय महाद्वीप के राज्यों में राजत्व का आधार दैवी इच्छा नहीं, जनता की इच्छा बनने लगा।
इस प्रकार जुलाई क्रांति का तात्कालिक लाभ एक तरह से फ्रांस और बेल्जियम को ही मिला, परंतु इसके कुछ व्यापक प्रभाव यूरोप पर भी पड़े। इस क्रांति से राजा लोग यह समझ गए कि अब राजाओं के दैवी अधिकारों का युग समाप्त हो चुका है। इसके फलस्वरूप धर्माधिकारियों की प्रभुता भी कम हो गई। इस क्रांति से यह भी स्पष्ट हो गया कि राजा की स्थिति प्रजा की सद्भावना पर आश्रित होने जा रही है और किसी भी दशा में निरंकुश शासन की व्यवस्था अधिक समय तक प्रजा को दबाए नहीं रख सकती।










