1789 ई. की फ्रांस की क्रांति
फ्रांस की क्रांति यूरोप की ही नहीं, बल्कि विश्व इतिहास की एक महान घटना थी। इस क्रांति ने विश्व को स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व का संदेश दिया। यह केवल शस्त्रों की ही क्रांति नहीं थी, बल्कि मानव जीवन के विभिन्न पक्षों पर इसका गहरा वैचारिक प्रभाव भी पड़ा। फ्रांस में यह क्रांति अचानक नहीं हुई थी, बल्कि इसके कारण दीर्घकाल से क्रियाशील थे, जिनका संयुक्त परिणाम अचानक क्रांति के रूप में सामने आया। 18वीं शताब्दी के फ्रांस में गहरा असंतोष व्याप्त था। राजा की निरंकुशता चरम पर थी, सामंतों के विशेषाधिकार अत्याचार के साधन बन गए थे, चर्च अनाचार और असहिष्णुता का केंद्र बन गए थे, न्याय तथा कर के क्षेत्रों में जनता को व्यापक उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा था। इस घनीभूत असंतोष ने ही क्रांति को जन्म दिया, जिसने इस दुर्व्यवस्था का अंत कर दिया। मेडलिन ने फ्रांस की तत्कालीन स्थिति को विशालकाय अराजकता कहा है। केटेलबी ने लिखा है कि फ्रांस में वे सभी तत्व विद्यमान थे जो किसी देश को क्रांति की ओर ले जा सकते थे। फ्रांस की क्रांति के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
राजनीतिक कारण
फ्रांस का निरंकुश राजतंत्र
फ्रांस में निरंकुश राजतंत्र की स्थापना हेनरी चतुर्थ ने की थी। वह बूर्बों वंश का पहला राजा था। उसने सामंती अराजकता को समाप्त करके दृढ़ राजवंश की स्थापना की थी। उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति आरंभ की और फ्रांस को आंतरिक और बाह्य शांति प्रदान की थी। उसके उत्तराधिकारी लुई तेरहवें के शासनकाल में राजतंत्र को शक्तिशाली बनाने का कार्य प्रधानमंत्री कार्डिनल रिशल्यू ने किया था। इस निरंकुश राजतंत्र की उपयोगिता तथा औचित्य यह था कि यह कुशल था और इसने फ्रांस के हितों का संरक्षण किया था।
लुई तेरहवें का उत्तराधिकारी लुई चौदहवाँ (1643-1715 ई.) हुआ, जिसके शासनकाल में फ्रांसीसी राजतंत्र निरंकुशता की चरम सीमा पर पहुँच गया। उसके काल में फ्रांस यूरोप का सर्वाधिक शक्तिशाली देश था। शासन की संपूर्ण शक्ति राजा के हाथों में थी जो गर्व से कहता था : ‘मैं ही राज्य हूँ।’ प्रजा से पृथक् उसके वार्साय का भव्य प्रासाद बनवाया और पूरे विश्व का धान आकर्षित किया। फ्रांस में कोई ऐसी प्रतिनिधि संस्था नहीं थी जो राजा और प्रजा के मध्य संपर्क स्थापित करती। लुई चौदहवें के शासनकाल में ही फ्रांसीसी राजतंत्र का पतन आरंभ हुआ। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उसने चार युद्ध किए, जिनके कारण फ्रांस की सैनिक और आर्थिक शक्तियों का हृास हो गया। निराश और पश्चातापपूर्ण स्थिति में उसकी मृत्यु हो गई। कहा जाता है कि उसने मृत्यु-शैय्या पर अपने अल्पवयस्क पौत्र को परामर्श दिया था: ‘मेरे बच्चे! अपने पड़ोसियों के साथ शांतिपूर्ण रहने का प्रयास करना, जितनी जल्दी हो सके लोगों को पीड़ा से छुटकारा देने का यत्न करना और इस प्रकार वह कार्य पूरा करना जिसे दुर्भाग्यवश मैं पूरा नहीं कर सका।’
लुई पंद्रहवाँ (1715-1774) निष्क्रिय, अयोग्य, विलासी और अस्थिर विचारों वाला था। उसके प्रशासन पर उसकी प्रिय महिलाओं का प्रभाव था। राजकोष रिक्त था और उसने वित्तीय सुधारों का कोई प्रयत्न नहीं किया। उसकी विलासिता और आमोद-प्रमोद ने फ्रांस की वित्तीय स्थिति और खराब कर दी। उसने आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध और सप्तवर्षीय युद्ध में भाग लेकर फ्रांस की वित्तीय स्थिति को अत्यंत शोचनीय बना दिया। दरबार षड्यंत्रों का केंद्र था, सेनाएँ पराजय से कलंकित हो चुकी थीं, प्रशासन ऋणों पर चल रहा था। लेकिन लुई पंद्रहवें ने स्थिति को सुधारने का कोई प्रयत्न नहीं किया। उसे भी क्रांति का आभास हो गया था, तभी तो उसने था कि ‘तूफान आएगा लेकिन उसके शासनकाल के बाद’।
1774 ई. में लुई सोलहवाँ सिंहासन पर बैठा। उस समय फ्रांस का पतनशील राजतंत्र अपना गौरव और अपनी शक्ति खो चुका था। राजा में सुधार करने या नेतृत्व की शक्ति नहीं थी। फ्रांस का राजतंत्र निष्क्रिय हो चुका था और सुधार की माँग को रोकने की शक्ति उसमें नहीं थी। गूच ने लिखा है : ‘लुई पंद्रहवें ने अपने देशवासियों को एक कुशासित, असन्तुष्ट और निराशाग्रस्त फ्रांस वसीयत में दिया।’
लुई सोलहवें का चरित्र
ऐसे संकट काल में अगर फ्रांस को हेनरी चतुर्थ के समान कुशल, साहसी और विवेकशील राजा प्राप्त हुआ होता तो स्थिति में सुधार आ सकता था। लेकिन लुई सोलहवें में राजनीतिक सूझ-बूझ और दृढ़ संकल्प का अभाव था। उसका हृदय दुर्बल और विचार अस्थिर थे। उसे शासन में रुचि नहीं थी। मेलेशर्ब्स के त्यागपत्र के अवसर पर उसने कहा था: ‘तुम कितने भाग्यशाली हो, मेरी इच्छा है मैं भी त्यागपत्र दे पाता।’ उसमें सज्जनता थी, लेकिन राजा के लिए जो गुण आवश्यक होते हैं, उनका उसमें अभाव था। उसमें निर्णय करने की शक्ति नहीं थी और स्वभाव से इतना अस्थिर था कि मंत्रियों के परामर्श पर उसका स्थिर रहना असंभव था। वास्तव में, उसकी अपनी कोई इच्छा शक्ति नहीं थी। उसकी पत्नी रानी मैरी एंटुआनेट का उस पर निर्णायक प्रभाव था, जो उसके लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। मिराबो ने लिखा था: ‘राजा के निकट केवल एक ही व्यक्ति है उसकी पत्नी।’ यह प्रभाव ही उसके दुर्भाग्य का कारण बना।
मैरी एंटुआनेट
फ्रांस की क्रांति के कारणों में रानी मैरी एंटुआनेट के चरित्र का भी महत्त्वपूर्ण योगदान था। लुई के साथ उसका विवाह फ्रांस और आस्ट्रिया की मैत्री स्थापित करने के उद्देश्य से हुआ था। लेकिन फ्रांस में उसे कभी लोकप्रियता प्राप्त नहीं हुई। फ्रांस के लोग उसे घृणा से आस्ट्रियन राजकुमारी या मैडम डेफिसिट कहते थे। प्रसिद्ध आस्ट्रियन साम्राज्ञी मैरिया थेरेसा की इस पुत्री में राजनीतिक विवेक नहीं था। वह अनावश्यक रूप से प्रशासन में हस्तक्षेप करती थी। राजा पर उसका गहरा प्रभाव था। उसका दृष्टिकोण सुधार और क्रांति का विरोधी था। उसने फ्रांस को कभी समझने की चेष्टा नहीं की। उसके आडंबरपूर्ण तथा खर्चीले जीवन की कटु आलोचना की जाती थी। उस पर स्वार्थी सामंतों का प्रभाव था, जो अपने स्वार्थों के लिए उसके प्रभाव का उपयोग करते थे। अतः उसके परामर्श और हस्तक्षेप से संकट बढ़ता गया। उसमें दृढ़ संकल्प था, लेकिन यह भी विनाशकारी सिद्ध हुआ और राजा और रानी दोनों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। मेडलिन लिखता है: ‘एक गर्वीली सुंदर रानी जो किसी अन्य समय में महान हो सकती थी, उसने बर्बादी के कार्य को पूरा कर दिया।’
दोषपूर्ण शासन व्यवस्था
फ्रांस की प्रशासन व्यवस्था इतनी उत्पीड़क थी कि फ्रांस की क्रांति में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। फ्रांस की क्रांति मुख्य रूप से व्यवस्था के लिए आंदोलन था, एक ऐसा आंदोलन जो अराजकता के विरुद्ध था। राज्य का प्रमुख राजा था जो व्यक्तिगत और स्वेच्छाचारी शासन करता था। वह कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का प्रमुख था। लेकिन व्यावहारिक रूप से राजतंत्र दुर्बल हो रहा था। राज्य में कोई विधायिका नहीं थी। राजा की इच्छा ही कानून थी। मध्ययुगीन एस्टेट्स जनरल, जो राष्ट्रीय सभा के समान थी, 1615 ई. से बुलाई नहीं गई थी। राज्य में 35 प्रांत या जनरेलटीज थे। लेकिन प्रशासन में दोहरी प्रणाली थी अर्थात् 40 स्थानीय सरकारें और 35 इंटेंडेंट के कारण जनता के कष्ट बढ़ गए थे। इंटेंडेंट केंद्रीय सरकार के प्रतिनिधि थे। राज्य के वास्तविक शासक ये इंटेंडेंट थे। इनकी नियुक्ति राजा करता था और वे केंद्रीय सरकार के आदेशों का पालन करते थे। सत्ता के इस केंद्रीयकरण से जनता को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता था। पदों का क्रय-विक्रय होता था, अतः अधिकारी अत्याचारी थे। हेजन लिखता है: ‘इन इंटेंडेंटों की उत्पीड़क तथा अन्यायपूर्ण नीति के कारण जनता उनके अधीन स्थानीय कर्मचारियों से भी घृणा करती थी।’
इस प्रशासनिक विषमता के साथ कानूनों में भी भारी विषमता थी, जिससे जनता के कष्ट बढ़ गए थे। स्थान-स्थान पर कानून ऐसे बदलते थे जैसे ‘यात्री घोड़ों को बदलता हो।’ व्यक्तिगत स्वतंत्रता नाम की कोई चीज नहीं थी। ‘लेटर्स डि कैशे’ के द्वारा किसी भी व्यक्ति को बंदीगृह में डाला जा सकता था। प्रशासन के बारे में मेडलिन लिखता है कि बुरी व्यवस्था का कोई प्रश्न नहीं था। वस्तुतः कोई व्यवस्था थी ही नहीं।
पक्षपातपूर्ण कर व्यवस्था
आर्थिक प्रशासन पक्षपातपूर्ण और अनेक बाधाओं से भरा हुआ था। राजा की अपव्ययता के कारण राष्ट्रीय वित्त की दशा अत्यंत शोचनीय थी। क्रांति से पूर्व राष्ट्रीय ऋण 60 करोड़ डालर तक पहुँच गया था। कठोर करों के भार से जनता पिसी जा रही थी, अतः कर वृद्धि संभव नहीं थी। धनी सामंत वर्ग करों से मुक्त था। निर्धन वर्ग अपनी आय का 80 प्रतिशत करों के रूप् में में दे देता था। अनेक कर जैसे नमक कर, शराब कर और बेगारी से जनता घृणा करती थी। ठेकेदारों से कर-संग्रह कराने के कारण यह प्रणाली अत्यंत अत्याचारपूर्ण हो गई थी। ऐसी असमान और स्वेच्छाचारी कर प्रणाली की घोर निंदा की जाती थी।
पतनशील सामंत वर्ग
राजतंत्र के समान फ्रांस का सामंत वर्ग भी दुर्बल और पतनशील था। सामंत अब युद्ध नहीं करते थे, लेकिन उन्हें वे सभी विशेषाधिकार प्राप्त थे जो पूर्व में उन्हें युद्ध करने के लिए दिए गए थे। उन्हें प्रशासन तथा सेना में उच्च पद दिए जाते थे। धनी सामंत परजीवी वर्ग के समान वार्साय में राजा के दरबारी के रूप में आमोद-प्रमोद में लिप्त रहता था। वे अपने अधिकारों के लिए कटिबद्ध थे और सुधारों के विरोधी थे। सामंतों के इस विरोध के कारण राजा और प्रजा के मध्य संघर्ष उत्पन्न हुआ और जिसने क्रांति का रूप ले लिया। क्रांति को निकट लाने के लिए सामंत वर्ग उत्तरदायी था क्योंकि इसके द्वारा वे राजतंत्र को दुर्बल करके स्वयं शक्तिशाली बनना चाहते थे। लेकिन क्रांति मूल रूप से राजतंत्र विरोधी नहीं थी, वह सामंतों के विशेषाधिकारों की विरोधी थी। अगर लुई सोलहवाँ दृढ़तापूर्वक सुधार कार्यक्रम लागू करता तो क्रांति को रोका जा सकता था। केटेलबी लिखता है कि फ्रांस का राजतंत्र सामंती विचारधारा और राजा की निरंकुशता का ऐसा मिश्रण था जिससे सुधार की कोई आशा नहीं की जा सकती थी। यही कारण है कि क्रांति के पूर्व लुई सोलहवाँ सामंतों के विशेष अधिकारों को समाप्त करके आर्थिक सुधार करने में असमर्थ रहा।
सामाजिक कारण
सामाजिक असमानता
फ्रांस की क्रांति का प्रमुख कारण सामाजिक असमानता थी। नेपोलियन ने कहा था : ‘फ्रांसीसी क्रांति विशेषाधिकार संपन्न वर्गों के विरुद्ध राष्ट्र का एक व्यापक जन-आंदोलन था।’ फेगुएट का निष्कर्ष था कि 1789 ई. की क्रांति निरंकुशता की अपेक्षा असमानता के विरुद्ध विद्रोह था। संपूर्ण फ्रांसीसी समाज असमानता पर आधारित था। यह असमानता सभी क्षेत्रों में व्याप्त थी। यह असमानता विशेष अधिकारों के कारण थी। विशेषाधिकारों ने ही सारे फ्रांसीसी समाज को तीन वर्गों में विभाजित कर दिया था- धर्माधिकारी, सामंत और साधारण जनता। ये विशेष अधिकारी मध्य युग की देन थे और इनको समाप्त करना आवश्यक था। लेकिन धर्माधिकारी और सामंत वर्ग जो इन अधिकारों का उपभोग कर रहे थे, इन्हें बनाए रखने के लिए कटिबद्ध थे। इसीलिए क्रांति हुई और क्रांति ने सभी प्रकार के विशेषाधिकारों को नष्ट कर दिया। ये विशेषाधिकार थे-चर्च की भूमि तथा सामंतों की भूमि कर मुक्त थी, चर्च और सामंतों को विभिन्न कर लगाने व वसूलने का अधिकार था, सामंतों को शिकार आदि के अधिकार प्राप्त थे। सामंतों को अपने कृषकों से सामंती कर लेने का अधिकार था। राज्य के उच्च पद सामंतों के लिए सुरक्षित थे। वे अन्य प्रत्यक्ष करों से भी मुक्त थे। असमानता की यह अवधारणा वध-स्थल तक पहुँच गई थी। जिस अपराध के लिए कुलीन (सामंत) का शिरच्छेद किया जाता था, उसी अपराध के लिए जन-साधारण को फाँसी दी जाती थी।
सामंत वर्ग
फ्रांस की कुल आबादी का एक प्रतिशत सामंत वर्ग था। मध्य युग में इस वर्ग ने राजा के पक्ष में युद्ध करके जागीरें तथा विशेष अधिकार प्राप्त कर लिए थे। आधुनिक काल के आरंभ में उनकी सैनिक उपयोगिता समाप्त हो गई थी, लेकिन उनके पास जागीरें और अधिकार बने रहे। यह अनुपयोगी वर्ग अब केवल अत्याचार का साधन-मात्र बनकर रह गया था। इस वर्ग में भी असमानता थी और यह वर्ग दरबारी धनी सामंत तथा प्रांतीय निर्धन सामंतों में भी विभाजित था। धनी अल्पसंख्यक सामंत वार्साय में भोग-विलास का जीवन बिताते थे। सेना, प्रशासन में उन्हें उच्च स्थान प्राप्त थे और फ्रांस की 1/5 भूमि के वे स्वामी थे। प्रांतीय सामंत जागीरों में रहते थे। लेकिन वे भी कृषकों पर अत्याचार करते थे। इसलिए कृषकों में सामंतों के प्रति गहरा असंतोष था।
पादरी वर्ग
पादरी वर्ग की संख्या एक प्रतिशत से भी कम थी। यह वर्ग भी उच्च और निम्न दो भागों में विभाजित था। उच्च वर्ग में आर्कबिशप, बिशप और मठ के अधिकारी थे। निम्न वर्ग में साधारण पादरी थे, जिनका सामान्य जनता से संपर्क था। प्रथम वर्ग विलासितापूर्ण जीवन बिताता और सांसारिकता में लिप्त रहता था। चर्च के पास विशाल भूमि थी। उसे भूमि तथा अन्य करों से लगभग 10 करोड़ डालर वार्षिक आय प्राप्त होती थी। चर्च के अपने कानून, न्यायालय और विशेष अधिकार थे। वस्तुतः चर्च की स्थिति राज्य के अंदर राज्य के समान थी। निम्न पादरी वर्ग दार्शनिकों के विचारों से प्रभावित था और उसने सुधारों के मामले में साधारण जनता का साथ दिया।
जन-सामान्य या तृतीय श्रेणी
फ्रांस की शेष बहुसंख्यक जनता तृतीय श्रेणी में थी जो कुल आबादी का 99 प्रतिशत था। यह वर्ग विशेषाधिकारों से वंचित था। इस वर्ग में मध्यम वर्ग, धनी व्यापारी वर्ग, शिक्षित वर्ग तथा कृषक और शिल्पकार थे। राज्य के समस्त करों का भार उन्हीं पर था। लेकिन उन्हें प्रशासन में उच्च स्थान प्राप्त नहीं थे। वे चर्च तथा सामंतों के विशेषाधिकारों से घृणा करते थे और सुधारों के द्वारा समानता स्थापित करना चाहते थे। शिक्षित वर्ग पर दार्शनिकों के विचारों का गहरा प्रभाव था और उन्होंने ही क्रांति को नेतृत्व प्रदान किया। वे अभिव्यक्ति तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता चाहते थे। राजनीति में महत्त्व प्राप्त करना इस वर्ग की आकांक्षा थी। नगरों का क्षुधा पीड़ित श्रमिक वर्ग शोषण तथा बेकारी के कारण क्रांति में सम्मिलित हुआ। ग्रामीण क्षेत्रों का कृषक वर्ग सामंती अत्याचार से मुक्ति पाने के लिए क्रांति के शक्तिशाली समर्थक बने।
आर्थिक कारण
आर्थिक संकट
फ्रांस की क्रांति का तात्कालिक कारण राज्य का आर्थिक दिवालियापन था। यह उचित कहा गया है: ‘क्रांति के मूल में वित्तीय कारण थे।’ फ्रांस की वित्तीय स्थिति की गंभीरता को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि 1789 ई. में फ्रांस का राष्ट्रीय ऋण 4,46,74,78,000 लाइवर था। इस वर्ष की अनुमानित आय 47,30,00,000 थी जिसमें से करीब 21,20,00,000 लाइवर खर्च हुए थे, जबकि राष्ट्रीय ऋण पर 23,70,00,000 लाइवर ब्याज देना था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि 1789 ई. का राजस्व इतना भी नहीं था कि राष्ट्रीय ऋण के ब्याज का भी भुगतान किया जा सके।
दूषित कर प्रणाली
कर प्रणाली इतनी पक्षपातपूर्ण तथा अन्यायपूर्ण थी कि राज्य के राजस्व की बहुत हानि हो रही थी। यह व्यवस्था प्रतिगामी और विशेषाधिकारों पर आधारित थी। चर्च और सामंत वर्ग की जागीर तथा भूमि करमुक्त थीं। जो प्रत्यक्ष कर थे, जैसे कैपीटेशन तथा विंगतिएम, उनसे भी वे वर्ग बच जाते थे। करों का सारा भार तीसरे वर्ग पर था। कृषक वर्ग की दशा अत्यंत दयनीय थी। वह राज्य को नमक कर, भूमि कर देता था और चर्च को टाइथ कर देना पड़ता था। वह विभिन्न सामंती कर भी देता था, जैसे कोरवी, बैनालिटी, आटा पिसाने, शराब निकलवाने, रोटी पकाने आदि पर कर। अन्य अनेक कर भी देने पड़ते थे, जैसे खलिहान कर, सड़क कर, पुल कर और शिकार कर। इस प्रकार एक सामान्य व्यक्ति को अपनी आय का 81 प्रतिशत करों के रूप में भुगतान करना पड़ता था। केटेलबी के अनुसार ‘इस प्रकार करों को इस तरीके से लगाया गया था कि उसका भार उस वर्ग पर पड़े जिनमें इनके देने की न्यूनतम पात्रता थी।’ लुई सोलहवें के मंत्रियों ने कर प्रणाली में सुधार का प्रयास किया, लेकिन धर्माधिकारियों तथा सामंतों के विरोध के कारण असफल रहे।
राजकीय अपव्ययता
आर्थिक दुर्व्यवस्था का दूसरा कारण राज दरबार की अपव्ययता थी। लुई चौदहवें ने वर्साय में भव्य प्रासादों का निर्माण किया, जबकि लुई पंद्रहवाँ विलासी था। लुई सोलहवें के दरबार का व्यय 10 करोड़ डालर वार्षिक था, भोजनालय का व्यय 45 लाख डालर, कृपापात्रों पर 75 लाख डालर व्यय था। सहस्त्रों सेवक थे। रानी मैरी एंटुआनेट के आभूषणों, वस्त्रों, श्रृंगार-प्रसाधन पर अपरिमित धन व्यय किया जाता था। अनेक कृपापात्रों को ऐसी पेंशनें दी जाती थीं, जिनका कोई अर्थ नहीं था। 1779-1789 ई. के काल में पेंशनों पर 86 करोड़ डालर व्यय किए गए थे।
युद्धों पर व्यय
फ्रांस के राजाओं ने युद्धों पर विशाल धनराशि व्यय करके इस आर्थिक संकट को स्वयं निर्मित किया था। लुई चौदहवें ने चार युद्ध लड़े जिससे राजकोष रिक्त हो गया और जनता से ऋण लेना पड़ा। लुई पंद्रहवें ने धन न होते हुए भी दो युद्ध लड़े, जिनसे हानि ज्यादा हुई। लुई सोलहवाँ राष्ट्रीय ऋण से दबा हुआ था। उसने भी अमेरिका के स्वतंत्रता युद्ध में भाग लेकर इस संकट को और बढ़ा दिया।
बौद्धिक कारण
18वीं सदी में फ्रांस में पुरातन व्यवस्था के विरुद्ध वैचारिक क्रांति हो रही थी। इस वैचारिक क्रांति ने ही 1789 ई. में राजनीतिक क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया था। फ्रांस की यह वैचारिक क्रांति संदेहमूलक थी और इसमें पुरातन व्यवस्थाओं के प्रति तीव्र घृणा थी। यह साहित्य बुद्धि को उत्तेजित करने वाला और भावनाओं को उद्वेलित करने वाला था। यह साहित्य फ्रांस की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं की कटु आलोचना तथा क्रांति की भावनाओं से ओत-प्रोत था। लेकिन यह साहित्य ध्वंसात्मक ही नहीं था बल्कि इसमें रचनात्मक आदर्श भी थे।
बौद्धिक क्रांति का स्वरूप
दार्शनिक की आत्मा क्रांति की आत्मा थी। यह फेगुएट का कथन है जिसने फ्रांस की क्रांति पर दार्शनिकों के प्रभाव का विश्लेषण किया था। नेपोलियन ने भी कहा था ‘अगर रूसो न होता तो क्रांति भी नहीं होती। वस्तुतः फ्रांस का यह बौद्धिक आंदोलन यूरोप के उस वैचारिक आंदोलन का एक भाग था जो शताब्दियों से प्रचलित रूढ़ियों और दोषों के प्रति असंतोष व्यक्त कर रहा था। इंग्लैंड में ह्यूम, गिब्बन, रॉबर्टसन; जर्मनी में लेसिंग, कांट, गोएथे, शिलर; अमेरिका में बेंजामिन फ्रैंकलिन इस व्यापक बौद्धिक आंदोलन के भाग थे जिसका फ्रांस में मांटेस्क्यू और वाल्टेयर प्रतिनिधित्व कर रहे थे। इस बौद्धिक आंदोलन के कारण 18वीं शताब्दी को बौद्धिक जागृति या तर्क का युग कहा जाता था। इसका कारण यह था कि दार्शनिकों का उद्देश्य सत्य का अन्वेषण था और उन्होंने प्रत्येक परंपरा, विश्वास और रूढ़ि को तर्क की कसौटी पर कसा। लेकिन यह कहना कि फ्रांस को क्रांति दार्शनिकों के कारण हुई थी, सत्य नहीं है। दार्शनिक स्वयं फ्रांस में व्याप्त गहन असंतोष की उत्पत्ति थे। अगर दार्शनिक न होते तो भी फ्रांस में क्रांति होती। दार्शनिकों का योगदान केवल यहीं था कि उन्होंने उत्प्रेरक का कार्य किया और क्रांति को निकट ला दिया। उन्होंने जनता में जागृति उत्पन्न की और उन्हें कार्य करने की प्रेरणा दी। साल्वेनी ने लिखा है कि इनकी रचनाओं में ‘एक नए समाज के संगठन हेतु आवश्यक सामग्री थी।’ हेजन लिखता है, ‘बहुधा कहा जाता है कि फ्रांस की क्रांति का मुख्य कारण दार्शनिकों अथवा 18वीं शताब्दी के लेखकों का प्रभाव था, किंतु यह तो उल्टी बात है। वास्तव में, वे अगणित कष्ट जिनसे राष्ट्र पीड़ित था, क्रांति के मूल कारण थे। उन्हीं को दूर करने की माँग उसके पीछे प्रेरक शक्ति थी।
मांटेस्क्यू (1689-1755 ई.)
फ्रांस के निरंकुश राजतंत्र की आलोचना का आरंभ मांटेस्क्यू ने किया। उसका जन्म 1689 ई. को एक अभिजात वंश में हुआ था। उसने बोर्दो विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की और 1721 ई. में वकील बन गया। वह न्यायिक वर्ग का सामंत, उच्च श्रेणी का वकील और बोर्दो की पार्लेमा का न्यायाधीश था। वह कैथोलिक धर्म का अनुयायी तथा राजतंत्र का समर्थक था। उसने यूरोप के अनेक देशों इंग्लैंड, आस्ट्रिया, हंगरी, जर्मनी और इटली की यात्राएँ की थीं। वह काफी समय तक इंग्लैंड में रहा था और इंग्लैंड की संस्थाओं का उसने अध्ययन किया था। उसका दृष्टिकोण गंभीर, तार्किक तथा सुधारवादी था। उसने अनेक पुस्तकों की रचना की। उसने चर्च के दोषों तथा निरंकुश राजतंत्र की आलोचना एक वकील के समान विवेचना के आधार पर की।
मांटेस्क्यू की पहली रचना ‘पर्शियन लेटर्स’ 1721 ई. में प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में मांटेस्क्यू ने दो ईरानियों के पत्रों के माध्यम से फ्रांस के रीति-रिवाजों और निरंकुश राजतंत्र पर व्यंग्य किया था। फ्रांस में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं थी। इसलिए राजतंत्र की आलोचना करने के लिए उसने यह अप्रत्यक्ष तरीका अपनाया। इस व्यंग्य के द्वारा उसने फ्रांस के पतनशील राजतंत्र का चित्रण किया था और उसकी दुर्बलता की ओर फ्रांस का ध्यान आकृष्ट किया। 1745 ई. में उसने सुल्ला और एक्रेटीज का संवाद प्रकाशित किया। 1748 ई. में उसकी प्रसिद्ध पुस्तक दि स्पिरिट ऑफ लॉज प्रकाशित हुई। इस ग्रंथ का फ्रांस की विचारधारा पर गहरा प्रभाव पड़ा। 2 वर्ष में इस ग्रंथ के 22 संस्करण प्रकाशित हुए।
‘दि स्पिरिट ऑफ लॉज’ अर्थात् ‘कानून की आत्मा’ राजनीतिक दर्शन का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ था, जिसमें मांटेस्क्यू ने विभिन्न शासन प्रणालियों का विश्लेषण किया था। उसने विशुद्ध राजनीतिक आधार पर राजा के दैवीय अधिकार को अस्वीकार कर दिया। उसने इंग्लैंड के संविधान की प्रशंसा की और उसे सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था माना क्योंकि इंग्लैंड के राजतंत्र की शक्तियाँ सीमित थीं। उसका कहना था कि इंग्लैंड में स्वतंत्रता तथा समानता थी और इनकी रक्षा के लिए पर्याप्त संस्थाएँ थीं। उसने फ्रांस के लोगों के समक्ष दो राजनीतिक आदर्श प्रस्तुत किए। प्रथम, इंग्लैंड की शासन व्यवस्था श्रेष्ठ थी क्योंकि राजतंत्र की शक्तियाँ सीमित थीं और देश की जनता के प्रतिनिधियों की सभा का राजतंत्र पर नियन्त्रण था। द्वितीय, उसने जोर दिया कि राज्य की तीनों शक्तियों विधायी, कार्यपालक, न्यायपालक को पृथक् रखा जाना चाहिए। इस प्रकार उसने शक्ति पृथक्करण सिद्धांत की स्थापना की। उसका कहना था कि फ्रांस के राजा के हाथों में ये तीनों शक्तियाँ थीं और उसकी शक्ति पर कोई सांसारिक शक्ति का नियंत्रण नहीं था और न कोई दैवीय नियंत्रण दृष्टिगोचर होता था। इससे उसकी सत्ता पूर्णरूप से निरंकुश हो जाती थी।
मांटेस्क्यू संवैधानिक राजतंत्र का समर्थक था। उसने जनतंत्र या संसद का समर्थन नहीं किया। वह सामंतों के विशेषाधिकारों तथा पार्लेमा के द्वारा राजा की सत्ता को सीमित रखने के पक्ष में था। हेजन ने लिखा है कि मांटेस्क्यू की पुस्तक बुद्धिमत्तापूर्ण विचारों का भंडार सिद्ध हुई और चूँकि लेखक एक विद्वान और अध्ययनशील न्यायाधीश था और उसकी भाषा-शैली गंभीर और ओजपूर्ण थी, इसलिए उससे फ्रांस में तथा अन्य देशों में विचारों, वाद-विवाद और कार्यों को भारी उत्तेजना मिली।
मांटेस्क्यू ने मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुए सामंती विशेषाधिकारों तथा राजतंत्र का समर्थन किया था। लेकिन उसका महत्त्वपूर्ण कार्य फ्रांस के राजतंत्र तथा प्रशासन की कटु आलोचना करना था। हॉलैंड रोज के अनुसार ‘मांटेस्क्यू पहला फ्रेंच विचारक था जिसका प्रभाव राजनीतिक विचारों के क्षेत्र में बहुत दिनों तक चलता रहा। अपनी पुस्तक दि स्पिरिट ऑफ लॉज में उसने उन सिद्धांतों को खोजने की कोशिश की है, जिनसे राजनीतिक संस्थाओं के कार्य संचालित होते हैं। उसके निष्कर्षों में कोई क्रांतिकारी सुझाव नहीं है। दार्शनिक निष्पक्षता का आश्रय लेकर उसने हर प्रकार की शासन व्यवस्था के गुण-दोषों का विवेचन किया है और उसके उत्थान, स्थायित्व और पतन के कारण को बताया है। अरस्तू ने जिस प्रकार मध्यम मार्ग को श्रेष्ठ माना है, उसी प्रकार मांटेस्क्यू भी राजनीतिक अतिवादों, विशेष रूप से निरंकुश शासन से घृणा करता है और इंग्लैंड के संविधान को राजतंत्र, कुलीनतंत्र और लोकतंत्र के सर्वोत्तम गुणों का सामंजस्य मानकर उसी का पक्ष लेता है।’
वाल्टेयर (1694-1778 ई.)
वाल्टेयर की गणना यूरोप के इतिहास में एक महान विचारक के रूप में की जाती है। जिस प्रकार लूथर या इरैस्मस के युगों का उल्लेख किया जाता है, उसी प्रकार वाल्टेयर का युग था। वह बौद्धिक स्वतंत्रता का महान समर्थक था। यूरोप में उसके व्यापक प्रभाव तथा सम्मान के कारण उसे राजा वाल्टेयर कहा जाता था। हेजन ने लिखा है कि ‘मृत्यु के समय उसकी प्रशंसा का परावार न रहा। लोगों के हृदय में उसके लिए उतनी ही श्रद्धा थी जितनी कि देवताओं के लिए हुआ करती है।’ उसका जन्म 1694 ई. में पेरिस के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। उसने ग्रीक और लैटिन भाषाओं तथा साहित्य का अध्ययन किया था। वह निर्भीक तथा साहसी था। उसके पिता उसे वकील बनाना चाहते थे, किंतु उसकी रुचि साहित्य में थी। उसने उच्च लोगों की भी खुली आलोचना की, जिसके कारण उसे कई बार जेल जाना पड़ा। उसे अनेक वर्षों तक फ्रांस के बाहर रहकर निर्वासित जीवन बिताना पड़ा।
वाल्टेयर का मुख्य कार्य चर्च की असहिष्णुता तथा पाखंड पर आक्रमण करना था। वह 18वीं शताब्दी का सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक था। उसने चर्च में नैतिक पवित्रता स्थापित करने के लिए उसी प्रकार संघर्ष किया, जिस प्रकार इरैस्मस और लूथर ने किया था। उसने चर्च की हर बुराई की कटु आलोचना की। उसकी लेखनी में असाधारण शक्ति थी। वह महान लेखक, निबंधकार, व्यंग्यकार और दार्शनिक था। हेजन के अनुसार ‘वाल्टेयर के युग से प्रमाणित होता है कि लेखनी में तलवार से अधिक बल होता है।’
वाल्टेयर की जीवन में कारागार तथा निर्वासन उत्पीडन सहा था। उसकी रचना के विरुद्ध तीव्र आक्रोश था। वह स्वतंत्रता का उग्र समर्थक था। उसने चर्च के आडंबरों की कटु आलोचना की, इसलिए राज्य और चर्च दोनों उसके विरोधी हो गए। वाल्टेयर की दृष्टि में चर्च अंधविश्वास और विचार स्वतंत्रता का शत्रु था। लेकिन वह नास्तिक नहीं था। उसका कहना था कि यदि ईश्वर न होता तो उसका आविष्कार करना पड़ता। उसने टाइथ और आडंबरों का विरोध इसलिए किया क्योंकि उनसे असहिष्णुता उत्पन्न होती थी। चर्च के क्षेत्र में उसका कार्य ध्वंसात्मक रहा। राजव्यवस्था के क्षेत्र में वाल्टेयर मांटेस्क्यू के समान गंभीर विचारक नहीं था। वह स्वतंत्रता का समर्थक था। वह इंग्लैंड गया था और प्रशा के राजा फ्रेडरिक का अतिथि रहा था। उसने राजव्यवस्था की खोखली नींव को उजागर किया। ऊपरी तौर पर वह राजतंत्र का समर्थक था। उसके विचार क्रांतिकारी सिद्ध हुए। उसने विशाल साहित्य की रचना की थी। 1718 ई. में उसकी रचना ‘एडिप’ का प्रकाशन हुआ। 1733 ई. में उसकी रचना ‘फिलासॉफिक लेटर्स’ प्रकाशित हुई, जिसमें उसने इंग्लैंड में विचार स्वतंत्र्य तथा धार्मिक स्वतंत्रता की प्रशंसा की। वाल्टेयर के जीवन तथा अत्याचार के प्रति उसके संघर्ष का फ्रांस पर गहरा प्रभाव पड़ा था। वह समानता और सच्ची स्वतंत्रता का पुजारी था। ग्रांट और टेम्परले ने लिखा है कि ‘वह अत्याचारों का विरोध करने में समस्त मानव जाति के अंतःकरण का वक्ता था।’ हेजन के अनुसार ‘जो लोग मानव स्वतंत्रता का संग्राम लड़ना चाहते थे, उनके लिए वह दिन में दिशासूचक बादल का और रात्रि में प्रकाश स्तंभ का कार्य करता था।’
वाल्टेयर के विशाल साहित्य का यूरोप तथा फ्रांस पर गहरा प्रभाव पड़ा। जनता तत्कालीन सामाजिक शासन, धार्मिक व्यवस्था को पूर्ण रूप से व्यर्थ समझने लगी। चर्च के प्रति जनसाधारण की श्रद्धा कम हो गई। उसने नवीन बौद्धिक चेतना जागृत की। 18वीं शताब्दी में यूरोप का वह सर्वाधिक प्रशंसनीय विचारक था। हालैंड रोज लिखता है: ‘वाल्टेयर ने धार्मिक अधिकारियों तथा परंपराओं के विरुद्ध अपना युद्ध कभी भी समाप्त नहीं किया और सदा मानवीय बुद्धि की गवेषणाओं पर ही अपनी आशाएँ केंद्रित रखी।’ फ्रांस में उत्पीड़न के कारण वह अंत में स्विट्जरलैंड के एक कस्बे में बस गया था। यहाँ 84 वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हुई।
जीन जैक्स रूसो (1712-1778 ई.)
फ्रांस की क्रांति का मुख्य प्रेरक जीन जैक्स रूसो था। वह क्रांति के महान सिद्धांतों- स्वतंत्रता, समानता, भ्रातृत्व का जन्मदाता था। उसने मांटेस्क्यू और वाल्टेयर की तरह केवल आलोचना और विनाश के विचार प्रस्तुत नहीं किए, बल्कि नवनिर्माण की रूपरेखा और आदर्श भी प्रस्तुत किए, जिन पर नवीन समाज और राज्य का निर्माण किया जा सकता था।
रूसो का जन्म 1712 ई. में जेनेवा में हुआ था। उसका पिता एक घड़ीसाज था। उसे पर्याप्त शिक्षा नहीं मिली थी और जीवन अभावों तथा कष्टों में बीता था। वह भ्रमणशील था और अनेक व्यवसाय किए थे। कहीं नौकरी की, कहीं संगीत की शिक्षा दी और कहीं अध्यापन का कार्य किया। वह दुख और दरिद्रता से भली-भाँति परिचित था। उसके व्यक्तिगत जीवन में नैतिकता, संयम और उत्तरदायित्व की भावना नहीं थी। वह अपने बच्चों का भी पालन नहीं कर पाया और वे अनाथालय में रहे। इन दोषों के होते हुए भी वह प्रखर बुद्धि का विचारक तथा कल्पनाशील व्यक्ति था। उसमें भावुकता की उत्तेजना और आत्मविश्वास की गहराई थी। उसने एक सर्वांगीण राजनीतिक विचारधारा का विकास किया। उसकी रचनाओं में वाल्टेयर या मांटेस्क्यू के समान विचारों की प्रधानता नहीं थी, बल्कि उनमें भावनाओं का आधिक्य था। वह सुधार के पक्ष में नहीं था बल्कि बुराइयों का पूर्ण रूप से उन्मूलन तथा नवनिर्माण चाहता था।
लेखक के रूप में रूसो की प्रसिद्धि 1749 ई. में हुई जब उसने एक निबंध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था। 1761 ई. में उसकी रचना ‘न्यू हेलोइजे’ और 1762 ई. में ‘सामाजिक संविदा’ पुस्तक प्रकाशित हुई। 1767 ई. के बाद उसके ग्रंथ ‘दि कन्फेशन्स’, ‘दि डायलाग्स’, ‘दि रेवेरीज’ प्रकाशित हुए। 1778 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
रूसो की अत्यंत प्रसिद्ध रचना ‘सामाजिक संविदा’ (सोशल कॉन्ट्रेक्ट) थी। इस ग्रंथ की गणना विश्व की अत्यंत प्रभावशाली रचनाओं में की जाती है, जिसने समस्त यूरोप में भावनात्मक क्रांति का सूत्रपात किया। इसका पहला वाक्य ही क्रांतिकारी था: ‘मनुष्य स्वतंत्र उत्पन्न हुआ था, किंतु वह सर्वत्र बंधनों में पड़ा हुआ है।’ इसी विचार को आधार बनाकर रूसो ने एक आदर्श राज्य की रूपरेखा प्रस्तुत की। उसने इन बंधनों को तोड़ने का आह्वान किया। उसका तर्क था कि समाज के संगठन का आधार व्यक्तियों का पारस्परिक समझौता है जिसमें राज्य भी सम्मिलित था। संप्रभुता समस्त जनता में होती है न कि किसी वर्ग या व्यक्ति में। सभी व्यक्ति स्वतंत्र और समान हैं। सरकार का उद्देश्य है कि प्रत्येक व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करना। रूसो ने इंग्लैंड की प्रतिनिधि प्रणाली की निंदा की और माँग की कि जनता को प्रत्यक्ष रूप से अपने कानून बनाने का अधिकार होना चाहिए। यद्यपि रूसो के सभी विचार वैज्ञानिक नहीं हैं, फिर भी उसके दो सिद्धांत अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं- जनता की संप्रभुता तथा नागरिकों को राजनीतिक स्वतंत्रता। इन दो सिद्धांतों ने यूरोप में निरंकुश राजतंत्र की जड़ें खोद दी और फ्रांस की क्रांति पर गहरा प्रभाव डाला। ये दोनों सिद्धांत क्रांतिकारियों के लिए धार्मिक सिद्धांतों का महत्त्व रखते थे। इनसे शुद्ध लोकतंत्र की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ।
केटेलबी ने लिखा है कि ‘रूसो की सामाजिक संविदा ऐसी पाठ्य-पुस्तक थी, जिसे सभी व्यक्ति अपना सकते थे। इसकी रचना शैली इतनी सशक्त और कल्पनापूर्ण थी और इसके तर्क इतने अकाट्य थे कि पीड़ित और निराश व्यक्ति इसकी ओज में आग, विरोध में प्रोत्साहन, वचन में आशा और शब्दावली में हथियारों का दर्शन करते थे।’
रूसो ने पीड़ित मनुष्यों को मार्ग दिखाया। उसने दूषित समाज और राज्य को नष्ट करने का आह्वान किया। उसने आर्थिक विषमताओं और शोषण को प्रस्तुत करके जनमानस में तीव्र आक्रोश उत्पन्न किया। मेक्गबर्न ने लिखा है कि ‘रूसो की रचनाओं ने वर्तमान स्थितियों के प्रति घोर असंतोष उत्पन्न कर दिया और यह भावना उत्पन्न कर दी कि वर्तमान बुराइयों को दूर करने के लिए कुछ क्रांतिकारी कदम उठाये जाने चाहिए।’
रूसो ने मनुष्य को प्रकृति की ओर वापस जाने का संदेश दिया जिससे उसका जीवन सरल और सुखी हो सके। उसने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि प्रकृति ने मनुष्य को भला, न्यायशील, सुखी बनाया है, किंतु जिसे सभ्यता कहा जाता है, उसी ने उसे पतित और नष्ट कर दिया। इसलिए उसने कहा कि सभ्यता की जड़ें उखाड़ फेंको और इस प्रकार उसकी कृत्रिम और हानिकारक रूढ़ियों और संस्थाओं से जो भूमि मुक्त हो उस पर एक नवीन, सुखी और आदर्श समाज का निर्माण करो। इस आह्वान का यूरोप पर गहरा प्रभाव पड़ा और एक आंदोलन हुआ, जिसे स्वच्छंदतावाद कहा गया है। रूसो ने मनुष्य की मौलिक अच्छाई में विश्वास प्रकट किया और सतयुग के आने की आशा व्यक्त की। वह यूरोप में स्वतंत्रता के अग्रदूत के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। नेपोलियन ने कहा था : ‘यदि रूसो न होता तो क्रांति न होती।’ क्रांति के अनेक नेता उसके अनुयायी थे। रूसो की अदम्य शक्ति के बारे में मोर्ले लिखता है कि ‘वह गणराज्य का जन्मदाता, महान दार्शनिक, लेखक, आश्चर्यकारी प्रतिभा का महापुरुष था। उसने ऐसे शब्द कहे जो दब नहीं सकते थे। उसने ऐसी ज्योति जलाई जो बुझ नहीं सकती थी।’ रूसो के प्रभाव के बारे में हालैंड रोज ने लिखा है कि मांटेस्क्यू या वाल्टेयर के दर्शन में ऐसा कोई उद्देश्य नहीं था जो पीड़ित, निराश जनता को यकायक जगा देता। रूसो ने वास्तविक उत्साह उत्पन्न किया और लोगों के हृदयों को हिला दिया। उसने सतयुग की कल्पना से पीड़ित मानवता के हृदयों में नवीन आशा का संचार किया। यूरोप में क्रांतियों का मूल कारण रूसो का प्रभाव था।
दिदेरो (1713-1784 ई.)
18वीं शताब्दी की फ्रांसीसी बौद्धिक क्रांति में दिदेरो का महत्त्वपूर्ण स्थान था। यद्यपि उसकी ख्याति मांटेस्क्यू, वाल्टेयर या रूसो के समान नहीं थी, फिर भी तथ्यात्मक ज्ञान तथा वैज्ञानिक विश्लेषण को जनता तक पहुँचाने का श्रेय उसी को था। उसने ज्ञानकोष का प्रकाशन किया जो कई खंडों में था। इस विशाल ज्ञानकोष में अनेक विद्वानों तथा वैज्ञानिकों के लेख थे। दिदेरो ने विश्वकोष के माध्यम से एकतंत्र शासन, सामंतवादी विशेषाधिकार और कर व्यवस्था, शोषण, अंधविश्वास, न्याय व्यवस्था तथा वैयक्तिक स्वतंत्रता की दमनपूर्ण स्थिति से फ्रांस की जनता को अवगत कराया। दिदेरो का वास्तविक उद्देश्य सत्य को प्रस्तुत करना था। अतः यह स्वाभाविक था कि जब राज्य के उद्गम या चर्च के स्वरूप या जनता के अधिकारों की विवेचना की जाती तो निष्पक्ष होते हुए भी ये विचार राजा, चर्च के अधिकारियों तथा अभिजात वर्ग को अरुचिकर प्रतीत हो सकते थे। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक था कि 1752 ई. में दो खंडों के प्रकाशित होने के बाद ज्ञानकोश को राजा तथा चर्च का विरोधी घोषित कर दिया गया। लेकिन ज्ञानकोश की जनता में इतनी लोकप्रियता थी कि राजा का विरोध होते हुए भी दिदेरो अगले खंड प्रकाशित करने में सफल हो गया। 1762 ई. तक ज्ञानकोश के 17 खंड प्रकाशित हो चुके थे।
दिदेरो के ज्ञानकोश का उद्देश्य केवल ज्ञान का प्रसार करना था। लेकिन इसमें एकतंत्र राजसत्ता, धार्मिक सहिष्णुता, दास प्रथा, अन्यायपूर्ण कर, सामंत पद्धति, फौजदारी कानून आदि सभी पर विस्तार से विचार किया गया था। मानव विचारों में परिवर्तन लाने तथा क्रांतिकारी विचारों के प्रसार में यह ग्रंथ अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ।
क्वेसने (1694-1774 ई.)
फ्रांस की क्रांति पर अर्थशास्त्रियों के समूह का प्रभाव पड़ा था, जिन्हें ‘फीजियोक्रेट’ कहा जाता था। इनमें क्वेसने प्रमुख था। वह राजवंश का डॉक्टर था, लेकिन उसे आर्थिक समस्याओं में विशेष रुचि थी और उसने कई अर्थशास्त्रियों को आश्रय प्रदान किया था। क्वेसने ने जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया, उसे ‘लेसेज फेयर’ (निर्हस्तक्षेप नीति) कहा जाता था। उसका मत था कि राज्य को आर्थिक क्रियाओं, जैसे- कृषि, उद्योग, व्यापार में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। उसका यह भी कहना था कि आर्थिक विकास के लिए चुंगियों और सामंतीय करों को हटा दिया जाए क्योंकि ये आर्थिक प्रगति में बाधाएँ थीं। क्वेसने का मत था कि जिस प्रकार प्रकृति में स्वतंत्र नियम है, उसी प्रकार आर्थिक जगत के अपने नियम हैं, अतः राज्य को इनमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। क्वेसने के नेतृत्व में इन अर्थशास्त्रियों का दूसरा सिद्धांत ‘भूमि का महत्त्व’ था। इसके अनुसार धन का मूल स्रोत भूमि थी, अतः केवल भूमि पर कर लगना चाहिए।
क्रांति पर दार्शनिकों का प्रभाव
दार्शनिकों के विचारों का फ्रांस के सभी वर्गों पर गहरा प्रभाव पड़ा था। मांटेस्क्यू, वाल्टेयर, रूसो तथा अन्य आर्थिक विचारकों ने फ्रांस की जनता के विचारों में महान परिवर्तन करके उन्हें क्रांति के लिए तैयार कर दिया। उन्होंने फ्रांस के राजतंत्र की दुर्बलता और अनुपयोगिता; चर्च का पाखंड और कट्टरता, जनता की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध, असमानता आदि प्रश्नों पर फ्रांस की जनता के विचारों को उत्तेजित किया था। लेकिन यह भी सही है कि फ्रांस के दार्शनिक उसी असंतोष तथा आक्रोश को व्यक्त कर रहे थे जो तत्कालीन फ्रांस के राज्य तथा समाज में व्याप्त था और जिसका उत्पीड़न उन्हें सहना पड़ा था। जनता का कष्ट और आक्रोश इतना अधिक था कि क्रांति अनिवार्य थी। इन दार्शनिकों के उग्र विचारों ने इस असंतोष को एक निश्चित रूप दिया, जिसने क्रांति को निकट ला दिया।
दार्शनिकों की क्रांति में भूमिका के बारे में हेजन ने लिखा है कि ‘यह समझना भूल होगी कि क्रांति को जन्म देने वाले दार्शनिक थे। उनका उत्तरदायित्व तो वास्तव में राष्ट्रीय जीवन की परिस्थितियों और बुराइयों पर और सरकार की भूलों और दुर्बलताओं पर था। फिर भी, यह मानना पड़ेगा कि क्रांति में इन लेखकों का बहुत बड़ा योगदान था। उन्होंने कुछ नेताओं को शिक्षा देकर तैयार कर दिया, उनके मस्तिष्क में कुछ निश्चयात्मक सिद्धांत भर दिए, उन्हें कुछ सैद्धांतिक वाक्यों, सूत्रों तथा तर्कों से सुसज्जित कर दिया, उनके मस्तिष्क को एक विशेष साँचे में डाल कर एक विशेष दिशा में मोड़ दिया।’ लार्ड एल्टन का भी यही मत है कि फ्रांस की क्रांति वहाँ की विशेष उत्पीड़क परिस्थितियाँ थीं। वह लिखते हैं : ‘18वीं शताब्दी के लेखकों ने क्रांति की सूचना भर दी, क्रांति को जन्म नहीं दिया। वे इसका कारण न होकर प्रभाव थे।’ इतिहासकार थॉमसन भी यही मत व्यक्त करता है कि ‘उन्होंने क्रांति का उपदेश नहीं दिया था। वे लोग किसी भी ऐसे राजा की सहायता करने को तैयार थे जो इनका संरक्षण करने तथा इनकी शिक्षाएँ मानने को तैयार होता। इन दार्शनिकों के समर्थक भी क्रांति बहाने वाले नहीं थे।’ थॉमसन का मत है कि दार्शनिकों ने पुरातन व्यवस्था को नष्ट करने के लिए जनमत तैयार किया था। 1789 ई. में फ्रांस की जनता को इन दार्शनिकों ने बिना अपनी इच्छा के क्रांतिकारी बना दिया था। लेकिन जिन परिस्थितियों ने क्रांति को जन्म दिया, उनमें दार्शनिकों का योगदान नहीं था।
कुछ विद्वानों का मत है कि फ्रांस की क्रांति के सूत्रधार दार्शनिक थे। कैटेलबी के अनुसार बौद्धिक क्रांति ने बारूद के ढेर का कार्य किया। मेलेट ने लिखा है कि ‘राजक्रांति को यदि दार्शनिकों ने अधिक गतिशील न बनाया होता तो संभवतः क्रांति न होती।’ वस्तुतः सत्य यही लगता है कि फ्रांस की क्रांति में जितना उत्पीड़क परिस्थितियों का योगदान था, उतना ही दार्शनिकों का भी योगदान था। फ्रेंच इतिहासकार लुई मेडलिन का मत है कि ‘क्रांति वास्तविक बुराइयों का ही परिणाम थी, किंतु इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बौद्धिक क्रांति के बिना इसका उदय संभवतः नहीं हुआ होता।’
तात्कालिक कारण
लुई चौदहवें के शासनकाल से ही देश की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी थी और देश ऋण के भारी भार में दब गया था। लुई पंद्रहवें के काल में अपव्यय में वृद्धि होने, सप्तवर्षीय युद्ध में फ्रांस के सम्मिलित होने और शासन-व्यवस्था बिगड़ जाने से व्यय की मात्रा आय से अधिक हो गई और प्रतिवर्ष घाटा होने लगा। इस घाटे को नए-नए ऋण लेकर पूरा करना पड़ा था। लुई सोलहवें के सिंहासनारोहण 1774 ई. से लोगों को बड़ी आशाएँ थीं। फ्रांस ने जब अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम की मदद की और जार्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में अमरीका को इंग्लैंड के विरुद्ध विजय मिली, तो सभी फ्रांसीसी गौरवान्वित हुए थे। लेकिन खुशियों का आधार स्थायी नहीं था। राज्य का ऋण बढ़ता जा रहा था और उसका भुगतान कर पाना असंभव लग रहा था।
लुई ने जब फ्रांसीसी अर्थशास्त्री और इतिहासकार तुर्गो (1774 ई.-1776 ई.) को अपना वित्तमंत्री नियुक्त किया तो लगा कि समस्या का समाधान हो जाएगा क्योंकि इंटेंडेंट के रूप में वह अपने आर्थिक सुधारों के लिए प्रसिद्ध था। वह व्यापार के क्षेत्र में मुक्त व्यापार की नीति का समर्थक था। उसने कार्यभार सँभालते ही खाद्यान्न के व्यापार पर लगे बहुत से प्रतिबंध हटा दिया और विभिन्न व्यवसायों की शक्तिशाली संस्था ‘गिल्ड’ को समाप्त कर दिया। उसने सड़कों की मरम्मत के निमित्त लिए जाने वाले बेगार (कोर्वी) को समाप्त कर एक सामान्य कर लगाया। तुर्गो ने एक चार सूत्री कार्यक्रम रखा- ऋण नहीं, नए कर नहीं, दिवालियापन नहीं और राज्य के खर्चे में कमी (नो लोन्स, नो टैक्सेज, नो बैंकरप्सी ऐंड इकॉनोमी)। तुर्गो ने मितव्ययता की नीति पर जोर दिया और घाटे की पूर्ति के लिए कर-पद्धति में समानता के सिद्धांत को लागू करने का प्रस्ताव किया। यद्यपि तुर्गो की नीतियाँ समय के अनुकूल और राष्ट्र के लिए हितकारी थीं, किंतु उसके सुधारों ने राजदरबारियों और कुलीन लोगों को अलग-अलग कारणों से असंतुष्ट कर दिया। फलतः उन्होंने रानी के माध्यम से राजा को तुर्गो के खिलाफ भड़काकर वित्तमंत्री के पद से हटवा दिया। राजा की यह घातक भूल थी क्योंकि तुर्गो ही एकमात्र ऐसा व्यक्ति था जो आर्थिक संकट को हल करके क्रांति को रोक सकता था।
तुर्गो के बाद क्लूनी नामक व्यक्ति को जिम्मेदारी सौंपी गई। उसने तुर्गो का कार्यक्रम रद्द कर दिया। इसी समय अमरीका में स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ और फ्रांस ने लाफायेत के नेतृत्व में अपने परंपरागत शत्रु इंग्लैंड के विरुद्ध अमेरिका की मदद के लिए सेना भेज दी। फ्रांस के लिए यह अतिरिक्त भार सँभाल पाना मुश्किल था। अतः क्लूनी को हटना पड़ा।
राजा ने 1776 ई. में जेनेवा के एक सुधारवादी बैंकर नेकर को वित्तमंत्री नियुक्त किया, जो 1781 ई. तक अपने पद पर बना रहा। उसने ऋण न लेने की बात छोड़कर तुर्गो के अन्य सुझाव स्वीकार कर लिए। आशा थी कि वह ऋण प्राप्त करके राजकीय वित्त की कठिनाइयाँ दूर करेगा। अमेरिकी युद्ध में जब अंग्रेज हारने लगे तो इसका श्रेय नेकर को मिला। कहा जाने लगा कि ‘नेकर ईश्वर है। वह बिना कोई कर लगाए युद्ध लड़ रहा है।’ उसने राज्य का एक तरह का बजट (कोंत रांद्यू) बनाया और मनगढ़ंत आंकड़ों के सहारे यह सिद्ध किया कि हालत सुधर रही है। तमाम कमियों के बावजूद प्रकाशित होने पर उसके आंकड़ों की बड़ी प्रशंसा हुई और जनता को पहली बार पता चला कि वास्तव में कराधान से राज्य को कितनी आमदनी होती है और राजा स्वयं अपने ऊपर कितना खर्च करता है। लेकिन नेकर की प्रतिभा ने कुलीनों और दरबारियों को उसके विरूद्ध कर दिया। परिणामतः उसे भी अपने पद से हटना पड़ा। नेकर के पद-त्याग के साथ ही राजा के ऐच्छिक सुधारों का युग समाप्त हो गया।
नेकर का उत्तराधिकारी फ्लरी एक साधारण और चापलूस व्यक्ति था। उसने हवा के साथ बहना शुरू किया और मैरी एंटुआनेट के खर्च के लिए धन जुटाता रहा। परंतु स्थिति बिगड़ती जा रही थी। उसके बाद केलान (1783-1787 ई.) को फ्रांस का वित्तमंत्री बनाया गया। किंतु दरबारियों, मंत्रियों तथा रानी के कारण फ्रांस की आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हो सका और राजकोष खाली हो गया। इस समय फ्रांस पर 60 करोड़ डालर का ऋण था और फ्रांस के दिवालिया होने में कोई कमी नहीं रह गई थी। ऐसी गंभीर स्थिति में केलान ने राजा को बताया कि अब कोई ऋण देने के लिए तैयार नहीं है और एक मात्र रास्ता यही है कि पूरे तंत्र में कुछ मौलिक सुधार किए जाएँ। अंत में राजा ने फ्रांस के ‘विशिष्ट लोगों की सभा’ (ले नोताब्ल्स) बुलाने का निर्णय किया, ताकि उनसे विचार-विमर्श किया जा सके।
विशिष्टों की सभा
लुई ने 1786 ई. में 1787 ई. में राज्य के विशिष्ट लोगों की सभा (कौंसिल ऑफ नोटेबल्स) बुलाई, जिसमें उच्चवर्गीय लोगों के साथ-साथ कुछ तृतीय वर्ग के लोग भी थे। सभा में केलान ने देश की आर्थिक स्थिति का विवरण प्रस्तुत किया और उसके सुधार के लिए विशेषाधिकार संपन्न और कर-मुक्त लोगों पर कर लगाए जाने का प्रस्ताव रखा, किंतु विशिष्ट लोगों की सभा ने केलान के प्रस्ताव का पुरजोर विरोध किया और कर देने से इनकार कर दिया। केलान और विशिष्टों की सभा का अधिवेशन दोनों ही बर्खास्त कर दिए गए।
ब्रियेन
राजा ने अब रानी के प्रियपात्र ब्रियेन को फ्रांस का वित्तमंत्री बनाया, परंतु देश की संकटपूर्ण आर्थिक समस्या यथावत् बनी रही। राजकोष खाली था और ऋण कहीं से मिल नहीं रहा था। अंततः ब्रियेन भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचा कि वित्तीय संकट से मुक्ति के लिए नवीन कर लगाना आवश्यक था। उसने सामंतों और चर्च पर भूमिकर लगाने का प्रस्ताव रखा और सुझाव दिया कि सभी वर्गों पर एक सामान्य स्टाम्प कर लगाया जाए। परिस्थितियों से विवश होकर राजा ने नवीन कर लगाने के प्रस्ताव को स्वीकार लिया और नियमानुसार उसे पेरिस की पार्लेमा में भेज दिया। लेकिन पेरिस की पार्लेमा ने नवीन करों को लगाने के प्रस्तावों का पंजीकरण करने से इनकार कर दिया और यह घोषणा की कि नवीन करों को लगाने का अधिकार केवल स्टेट्स जनरल को है, राजा को नहीं। पार्लेमा पार्लियामेंट नहीं थी, बल्कि यह न्यायाधीशों का उच्च न्यायालय था जो राजाओं की आज्ञाओं का पंजीयन करता था। अब राजा और पार्लेमा के बीच खींचतान आरंभ हो गई। राजा ने बल-प्रयोग करना चाहा, तो रेन्न, तूलूज और बोर्दो नगरों में प्रत्यक्ष विरोध प्रदर्शन हुए। ग्रनोब्ल में तो पार्लेमा ने विशेष अधिवेशन करके यह घोषणा कर दी कि राजा और उसके अधिकारियों की नीति गलत है और स्टेट्स जनरल का अधिवेशन तत्काल बुलाया जाना चाहिए। इस प्रकार देश में उत्तेजना फैल गई और स्टेट्स जनरल की बैठक बुलाए जाने की माँग होने लगी। विवश होकर लुई सोलहवें ने 8 अगस्त 1788 ई. को यह घोषणा की कि 5 मई, 1789 ई. को स्टेट्स जनरल का अधिवेशन होगा। राजा ने ब्रियेन को पदच्युत कर नेकर को पुनः वित्तमंत्री नियुक्त कर दिया। नेकर ने सलाह दी कि स्टेट्स जनरल के अधिवेशन के लिए पेरिस उपयुक्त रहेगा, लेकिन लुई और उसके सलाहकार वर्साय से बाहर जाने को तैयार नहीं थे, जबकि वर्साय में इतने लोगों के रहने तक की व्यवस्था नहीं थी, फिर भी अधिवेशन वहीं बुलाया गया।
स्टेट्स जनरल
स्टेट्स जनरल फ्रांस की एक पुरानी प्रतिनिधि सभा थी, जिसमें कुलीन, पुरोहित और जनसाधारण वर्ग के प्रतिनिधि शामिल हुआ करते थे। दरअसल इस सभा का जनतंत्रीय सिद्धांत के अनुरूप विकास नहीं हो पाया था और 1614 ई. के बाद इसका अधिवेशन होना बंद हो गया था। इसका अधिवेशन अंतिम बार 1614 में हुआ था। रिशेल्यू द्वारा स्टेट्स जनरल का उपयोग बंद कर दिए जाने के बाद वह विस्मृत होती चली गई थी। फलतः लोग उसके स्वरूप, संगठन, कार्यप्रणाली, चुनाव आदि के बारे में भूल चुके थे। कार्यविधि के संबंध में केवल इतना ज्ञात था कि तीनों वर्गों के प्रतिनिधि पृथक् रूप से अपनी सभाओं में बैठकर विचार-विमर्श करते थे। इस स्वरूप से स्पष्ट था कि विशेषाधिकार संपन्न प्रथम और द्वितीय वर्ग सुधारों का विरोध करेंगे और तृतीय वर्ग उनका विरोध करने में असमर्थ होगा। अंतः तीसरे वर्ग ने माँग की कि उसकी कुल संख्या प्रथम और द्वितीय वर्गों की कुल संख्या के बराबर होनी चाहिए। नेकर की सलाह पर राजा ने इस माँग को स्वीकार कर लिया। किंतु इस प्रश्न का निपटारा नहीं किया गया कि तीनों सदनों की बैठकें पहले की तरह अलग होंगी या वे एक सभा के रूप में बैठेंगे।
क्रांति का आरंभ
राजा लुई सोलहवें ने 5 मई 1789 ई. को वर्साय में बड़े समारोह के साथ सदस्यों का स्वागत किया। इसमें सदस्यों की कुल संख्या 1,200 थी, जिनमें 600 से अधिक तृतीय वर्ग के प्रतिनिधि थे। पादरियों के 300 प्रतिनिधियों में 200 निर्धन पादरी प्रतिनिधि थे, जिनकी सहानुभूति तृतीय वर्ग के साथ थी। प्रायः सभी चुने गए सदस्य नवीन आशाओं के साथ एकत्रित हुए थे और अपने-अपने क्षेत्र से ‘माँग-पत्रक’ तैयार करके लाए थे, जिन्हें ‘पुरातन व्यवस्था की अंतिम इच्छा और वसीयत’ कहा गया है। मतदान के संबंध में परंपरा थी कि तीनों वर्गों-पादरी, सामंत और तृतीय वर्ग के प्रतिनिधि अलग-अलग सदनों में मत देते थे और इस तरह तीनों सदनों में से दो सदन जो चाहते थे, वही स्वीकृत होता था। इस प्रणाली से स्पष्ट था कि समान हित वाले पादरी और सामंत सदैव एक साथ रहेंगे, इसलिए उनके हित के प्रस्ताव ही स्वीकृत होंगे। राजा ने 5 मई के उद्घाटन-सत्र में तीनों सदनों की संयुक्त सभा को संबोधित करके आर्थिक संकट का उल्लेख किया, लेकिन कोई सुधार-कार्यक्रम प्रस्तुत नहीं किया। इसके बाद वित्तमंत्री नेकर ने देश की संकटपूर्ण आर्थिक स्थिति के संबंध में एक विवरण पढ़ा, जिसमें घाटे की पूर्ति के लिए सुझाव दिए गए थे, किंतु न तो सुधारों की कोई व्यवहारिक योजना प्रस्तुत की गई और न ही सुधारों पर कोई मतदान हुआ। तृतीय वर्ग ने परंपरागत मतदान पद्धति को मानने से इनकार कर दिया और प्रत्येक सदस्य को एक मत मानकर पूरे स्टेट्स जनरल के बहुमत के आधार पर निर्णय लेने का प्रस्ताव रखा, किंतु राजा, रानी और नेकर के जाने के बाद तीनों वर्गों से कहा गया कि वे अलग-अलग अपनी बैठकें करें और समस्याओं पर विचार करें। इससे तृतीय वर्ग के प्रतिनिधियों को बड़ी निराशा हुई और उनके मन में अनेक शंकाएँ जन्म लेने लगीं।
संयुक्त बैठक की माँग
राजा के जाने के बाद रंगमंच पर क्रांति का प्रथम दृश्य अभिनीत हुआ। प्रथम और द्वितीय वर्ग के प्रतिनिधि अलग सदनों में अपनी बैठकें करने के लिए उठकर चले गए, किंतु तृतीय वर्ग के प्रतिनिधियों ने पृथक् रूप से बैठने से इनकार कर दिया और तीनों वर्गों की संयुक्त बैठक कराने की माँग करने लगे। राजा और नेकर को स्थिति की गंभीरता का अनुमान नहीं था। प्रतिक्रियावादी दरबारी सामंत और रानी राजा को तृतीय वर्ग को आतंकित करके उसका दमन करने की सलाह दे रहे थे।
12 जून को तृतीय वर्ग ने प्रथम और द्वितीय वर्ग को संयुक्त रूप से बैठक करने के लिए निमंत्रित किया। 13 जून को तीन पादरी प्रतिनिधि तृतीय वर्ग में आकर सम्मिलित हो गए। 14 जून को 9 पादरी प्रतिनिधि और आ गए, जिससे तृतीय वर्ग के प्रतिनिधियों का उत्साह बढ़ गया। 17 जून 1789 ई. को तीसरे सदन के प्रतिनिधियों ने स्वयं को राष्ट्रीय सभा घोषित करने का एक क्रांतिकारी कदम उठाया और अपने आप को फ्रांस की जनता की एकमात्र प्रतिनिधि सभा घोषित कर दिया और स्टेट्स जनरल का नाम बदलकर राष्ट्रीय सभा (नेशनल असेंबली) कर दिया गया। 19 जून को पादरियों ने भी तृतीय सदन से मिल जाने का निर्णय लिया, जिससे तृतीय वर्ग की शक्ति बढ़ गई।
राष्ट्रीय सभा की घोषणा राजतंत्र के लिए सीधी चुनौती थी। अब राजा लुई सोलहवें ने दरबारी सामंतों के प्रभाव में आकर बल-प्रयोग करने का निर्णय किया। एक शाही सत्र की योजना बनाई गई, जिसके अनुसार तय किया गया कि राजा तीनों सदनों को पृथक् पृथक् बैठने का आदेश देगा। इस शाही सत्र के लिए 23 जून की तिथि निर्धारित की गई। तृतीय सदन के कार्यों में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से राजा ने सदन के सभा भवन को बंद करवा दिया और वहाँ सेना तैनात कर दी।
टेनिस कोर्ट की शपथ
20 जून को जब तीसरे वर्ग के सदस्य सभा भवन पहुँचे तो वहाँ तैनात सैनिकों ने उन्हें रोक दिया और बताया कि 23 जून के शाही सत्र की तैयारी हो रही थी। निराश और भयभीत सदस्यों को लगा कि राष्ट्रीय सभा का असामयिक अंत होने वाला है। फिर उन्होंने सभा भवन के निकट एक टेनिस कोर्ट में एकत्र होकर बेली की अध्यक्षता में एक ऐतिहासिक अधिवेशन किया और शपथ ली: ‘जब तक राष्ट्र का एक स्थायी विधान (चार्टर ऑफ लिबरटी) स्थापित नहीं हो जाएगा, तब तक हम कभी अलग नहीं होंगे और जहाँ भी आवश्यकता पड़ेगी हम एकत्र होंगे।‘ यह घटना इतिहास में ‘टेनिस कोर्ट की शपथ’ के नाम से प्रसिद्ध है और यही फ्रासीसी क्रांति का सूत्रपात था। तृतीय वर्ग के प्रतिनिधियों ने राज्याज्ञा का विरोध करते हुए संविधान बनाने का संकल्प लिया और अब वे राजा से संघर्ष करने को तैयार थे। इस प्रकार टेनिस कोर्ट की शपथ फ्रांस की क्रांति का वास्तविक आरंभ था। राजा की आज्ञा के विरूद्ध और बिना उसकी स्वीकृति के राष्ट्र के प्रतिनिधियों ने नेशनल असेंबली को फ्रांस में संवैधानिक शासन स्थापित करने का उत्तरदायित्व दिया।
राष्ट्रीय सभा को वैधानिक मान्यता
23 जून 1789 ई. को निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार स्टेट्स जनरल का शाही अधिवेशन प्रारंभ हुआ, किंतु राजा ने दरबारियों के प्रभाव में आकर तृतीय सदन के प्रस्तावों को अमान्य कर दिया। राजा के इस कार्य से तृतीय वर्ग को घोर निराशा हुई। अधिवेशन की समाप्ति पर राजा तथा उच्चवर्गीय सदस्य सभाभवन छोडकऱ चले गए, परंतु तीसरे सदन के सदस्य अपने स्थान पर बैठे रहे। जब राजा के कर्मचारियों ने तृतीय वर्ग को सभा भवन से बाहर जाने को कहा, तो उनके नेता मिराबो ने एक ऐतिहासिक औैर साहसिक घोषणा कर उनका मार्गदर्शन किया। मिराबो ने जोरदार शब्दों में कहा : ‘‘जाओ अपने स्वामी से कहो कि हम यहाँ जनता की इच्छा से उपस्थित हुए हैं और जब तक बंदूक की गोली से हमको नहीं हटाया जाएगा तब तक हम यहाँ से नहीं जाएँगे।’’
सदन ने मिराबो के सुझाव पर एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें कहा गया था कि जो लोग राष्ट्रीय सभा के सदस्यों पर हिंसात्मक हमला करेंगे, उन्हें देशद्रोही समझा जाएगा और वे मृत्युदंड के भागी होंगे। जब इसकी सूचना राजा को दी गई तो वह कुछ निर्णय लेने की स्थिति में नहीं था और बस इतना कहा कि ‘यदि वे वहाँ रहना चाहते हैं तो रहने दो’। वास्तव में, इस समय राजा की स्थिति बहुत कठिन हो गई थी क्योंकि 25 जून को अधिकांश पादरी और कुछ सामंत तृतीय वर्ग की सभा में सम्मिलित हो गए थे। अंततः राजा को विवश होकर 27 जून को तीनों सदनों को एक साथ बैठने की अनुमति देनी पड़ी और इस प्रकार राष्ट्रीय सभा (नेशनल असेंबली) को वैधानिक मान्यता मिल गई। यह तृतीय वर्ग और क्रांति की पहली महत्त्वपूर्ण सफलता थी। जिस प्रश्न का निर्णय पहले ही मई में स्टेट्स जनरल की पहली बैठक में हो जाना चाहिए था, वह अंतिम रूप से अब हल किया गया।
बस्तील का पतन
क्रांति की पहली घटना वर्साय में घटी, जहाँ स्टेट्स जनरल राष्ट्रीय सभा में परिवर्तित हो गई थी, किंतु अगली घटना पेरिस में घटी, जिसमें बस्तील के किले का पतन हुआ। पेरिस में कई कारणों से तनाव बढ़ता जा रहा था। स्टेट्स जनरल का अधिवेशन पेरिस में न बुलाए जाने से लोग क्षुब्ध थे। पिछले दो वर्षों से अकाल की स्थिति और कारखानों के बंद होने के कारण भूखे नंगे लोग (सं क्यूलोत) पेरिस में इकट्ठा हो गए थे। 27 जून को इन लोगों ने कारखाना मालिकों और व्यापारियों पर हमला किया, जिसमें कई लोग हताहत हुए, लेकिन उन्हें सख्ती से दबा दिया गया। इस समय फ्रांस यात्रा पर आए आर्थर यंग ने लिखा: ‘क्रांति पूरी हो गई है,’ किंतु यह तो शुरुआत थी। बाजार में गेहूँ नहीं के बराबर था और महँगी रोटी से लोगों की उत्तेजना बढ़ती जा रही थी। इस अराजकतापूर्ण स्थिति में पेरिस के मध्यम वर्ग ने एक सुरक्षा समिति तथा सुरक्षा दल का गठन कर लिया था, जो सुरक्षा की कार्यवाही करने को तत्पर था। राष्ट्रीय सभा के गठन से सत्ता राजा के हाथों से निकल गई थी। महल में कुछ सामंत, मैरी एंटुआनेट और राजा के भाई आर्तुआ पड्यंत्र कर रहे थे और किसी भी तरह स्टेट्स जनरल की सत्ता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। पेरिस में एक उग्रवादी दल था, जो सभा का समर्थक था और उसे भविष्य की आशा समझता था। राजा ने 11 जुलाई 1789 ई. को वित्तमंत्री नेकर को पदच्युत कर देश छोड़ देने के आदेश दिया, जिसे पेरिस के उग्रवादी सुधारों का समर्थक मानते थे। पेरिस और वर्साय के पास एकत्रित सैनिकों की टुकड़ियों से सभा और पेरिस की जनता भयभीत थी। अफवाहों का बाजार गर्म था कि राजा सख्ती बरतने जा रहा है और राष्ट्रीय सभा का भी दमन करेगा। कामीय देमूलैं ने तत्काल लोगों को सावधान किया और शस्त्रास्त्रों को इकट्ठा करने का आह्वान किया। 10 हजार से अधिक लोगों की भीड़ ने नगर में जहाँ भी शस्त्रास्त्र उपलब्ध हो सकते थे, वहाँ से लूट खसोटकर हथिया लिया। 14 जुलाई को खबर फैली कि बस्तील में शस्त्रों का भंडार है और यह जानकर भीड़ उधर ही उमड़ पड़ी।
बस्तील का दुर्ग पेरिस के पूर्वी भाग में सीन नदी के किनारे स्थित था, जिसका प्रयोग राजकीय कारागार के रूप में किया जाता था। वहाँ बंदियों को रखकर उनको बर्बर अमानुषिक यातनाएँ दी जाती थीं, जिसके कारण यह दुर्ग जनसाधारण की दृष्टि में अनियंत्रित राजसत्ता और उसके अत्याचारों का घृणित प्रतीक बन गया था। मिराबो और वाल्टेयर जैसे लोग वहाँ भेजे जा चुके थे। जनता में बस्तील दुर्ग के प्रति आक्रोश और घृणा थी। उस समय बस्तील में दुर्गपाल गर्वनर द लौने, 7 बंदी और 127 सुरक्षा सैनिक थे और उसकी सुरक्षा का भी कोई खास प्रबंध नहीं था।
पेरिस से शस्त्रों की खोज में पहुँची उत्तेजित भीड़ ने 14 जुलाई 1789 ई. को बस्तील के दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। भीड़ को डराने के लिए रक्षकों ने गोली चलाई, जिसमें सैकड़ों लोग हताहत हो गए। लगभग दो घंटे के संघर्ष और गोलाबारी के बाद प्रशासक द लौने ने आत्म-समर्पण कर दिया। लेकिन उत्तेजित भीड़ ने किलेदार तथा उसके सैनिकों को मार डाला, बंदियों को मुक्त कर दिया और सचमुच किले की ईंट से ईंट बजा दी। भीड़ ने बस्तील का पूरा किला ध्वस्त कर दिया और उसका नामोनिशान मिटा दिया। इस प्रकार निरंकुशता के प्रतीक बस्तील का पतन हो गया। राष्ट्रीय सभा ने पेरिस की भीड़ के इस कार्य का अनुमोदन किया, जिससे फ्रांस की क्रांति हिंसा और रक्तपात की ओर मुड़ गई।
बास्तील के पतन का महत्त्व
बस्तील का पतन फ्रांस की जनता की विजय थी। यह घटना राजतंत्र के पतन और स्वतंत्रता के नए युग का प्रारंभ बन गई। इस घटना के महत्त्व का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि आज भी फ्रांस अपना राष्ट्रीय दिवस 14 जुलाई को ही मनाता है। लुई ने इस घटना की खबर सुनकर कहा कि ‘अरे! यह तो विद्रोह है।’ उसके पास खड़े लिआंकूर ने कहा, कि ‘नहीं सरकार! यह क्रांति है’ और वास्तव में, यह क्रांति का उद्घोष था। बस्तील एक किला ही नहीं, एक सिद्धांत और परंपरा का पतन था। ब्रिटिश राजदूत ने लिखा कि फ्रांस अब एक स्वतंत्र देश हो गया है। वस्तुतः बस्तील के पतन ने सर्वसत्ता संपन्न निरंकुश स्वेच्छाचारी शासन और जर्जरित सामंती व्यवस्था के खोखलेपन को स्पष्ट कर दिया। बस्तील के पतन के बाद सारे फ्रांस में क्रांति की लहर फैल गई और पेरिस क्रांतिकारियों की सभी गतिविधियों का केंद्र बन गया।
15-16 जुलाई 1789 ई. को पेरिस के लोगों ने नागरिक प्रशासन को प्रजातंत्रीय रूप दिया। उन्होंने पेरिस में एक नई म्युनिसिपल सरकार (कम्यून) का गठन किया और ओतल द वील में एकत्रित होकर बेली को पेरिस का मेयर चुन लिया। फ्रांस के क्रांतिकरियों ने क्रांति व्यवस्था कायम रखने के लिए जो नागरिक सेना पहले थी, उसका नाम ‘राष्ट्रीय रक्षादल’ रखा गया और लाफायेत को उसका अध्यक्ष बनाया गया। पेरिस के अनुकरण पर फ्रांस के अन्य नगरों में भी स्थानीय कम्यून सरकारें और राष्ट्रीय रक्षा दल की स्थापना की गईं। अब बोर्बों राजवंश के श्वेत झंडे के स्थान पर लाल, सफेद और नीले रंग के तिरंगे झंडे को राष्ट्रीय ध्वज स्वीकार किया गया।
बस्तील के पतन पर सारे यूरोप में खुशियाँ मनाई गईं। रूस और जर्मनी के छात्रों ने सड़कों पर नाच-गाकर फ्रांसीसियों का अभिनंदन किया। फ्रांस के प्रतिद्वंद्वी इंग्लैंड के प्रबुद्ध लोगों ने भी इसका स्वागत किया। प्रसिद्ध कवि वर्ड्सवर्थ ने प्रशंसा में कविताएँ लिखीं: ‘फ्रांस में जीवन इस समय इतना सुखकर है और इस समय युवा होना तो मानो स्वर्ग का ही सुख भोगना है।’ कुल मिलाकर बस्तील का पतन फ्रांस के इतिहास और क्रांति का एक निर्णायक मोड़ सिद्ध हुआ। अभी भी लोगों का राजा से कोई व्यक्तिगत विरोध नहीं था, लेकिन रानी जरूर घबड़ाई हुई थी। 17 जुलाई 1789 ई. को राजा लुई सोलहवाँ स्वयं तिरंगी कलंगी लगाए पेरिस में क्रांतिकारियों के केंद्र-स्थल ‘ओतल द वील’ पहुँचा तो भीड़ ने राजा के लिए ‘जिंदाबाद’ के नारे लगाए। राजा ने पेरिस के बहादुरों की ‘बस्तील के विजेता’ कहकर प्रशंसा की और बेली और लाफायेत की नियुक्तियों के साथ-साथ क्रांतिकारियों के तिरंगे झंडे को भी मान्यता प्रदान की।
ग्रामीण क्षेत्रों में हिंसा: बस्तील के पतन के बाद सारे फ्रांस में क्षुब्ध लोगों ने सामंतों और विरोधियों पर प्रहार करना शरू कर दिया। 1789 ई. के जुलाई और अगस्त महीनों में ग्रामीण क्षेत्रों में कृषकों ने सामंतों के गढ़ों को लूटकर उनका विध्वंस किया, उनके पुराने दस्तावेज जलाकर नष्ट कर दिए और उनकी संपत्ति तथा कृषि-भूमि पर बलपूर्वक अधिकार कर लिए। इस उपद्रव में अनेक जमींदार मार डाले गए। इस प्रकार किसानों ने स्वयं सामंती अधिकारों को समाप्त कर दिया। सारे फ्रांस में हिंसा और अराजकता का तांडव हो रहा था। राष्ट्रीय सभा के एक प्रतिनिधि के अनुसार उस समय न राजा था, न पार्लियामेंट, न सेना थी और न पुलिस। इस अराजकता का एक कारण यह भी था कि उस समय सारे देश में अकाल की स्थिति थी और ग्रामीण क्षेत्रों में सामंतों की गढ़ियाँ बस्तील की तरह अत्याचार तथा पुरातन व्यवस्था का प्रतीक थीं। किसानों के विद्रोह से भयभीत होकर अनेक कुलीन सामंत अपने जीवन की सुरक्षा के लिए फ्रांस छोड़कर बाहर भाग गए।
राष्ट्रीय सभा या संविधान सभा के कार्य
विशेषाधिकारों की समाप्ति
बस्तील के पतन से सामंतशाही पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की नींव हिल उठी, अब उसके गिरने की औपचारिकता शेष थी। राष्ट्रीय सभा, जिसने अब अपना नाम संविधान सभा कर लिया था, ग्रामीण क्षेत्रों की हिंसा और लूटमार से चिंतित थी। बस्तील के पतन के बाद फ्रांस में फैली हिंसा को रोकने के लिए 4 अगस्त को संविधान सभा की बैठक हुई। नेशनल असेंबली के प्रतिनिधियों ने करों में समानता लाने का और विशेषाधिकारों की समाप्ति का प्रस्ताव रखा। नोआइय नामक एक प्रतिनिधि ने घोषणा की कि ‘मैं अपने विशेषाधिकारों का परित्याग करता हूँ।’ इसके बाद विशेषाधिकार त्यागने की होड़ मच गई और भावावेश में आकर एक-एक करके प्रायः सभी कुलीनों ने अपने विशेषाधिकार छोड़ दिए। पादरियों ने भी अपने विशेषाधिकार छोड़ देने की घोषणा की। 4 अगस्त की रात भी सभा का अधिवेशन चलता रहा और कुल मिलाकर तीस विज्ञप्तियाँ पारित की गईं, जिसके बाद सामंतवाद के सारे अवशेष नष्ट हो गए। यह एक अभूतपूर्व क्रांति थी, जिसका उदाहरण किसी भी देश के इतिहास में नहीं मिलता है। सभा ने बेगारी, अर्द्धदास प्रथा, नजराने, सामंती करों तथा चर्च के धार्मिक करों को समाप्त करके असमानता और अत्याचार को समाप्त कर दिया। पदों के क्रय-विक्रय का निषेध कर दिया गया, जिससे शासकीय पदों को प्राप्त करने में समानता स्थापित हुई और योग्यता के आधार पर कोई भी व्यक्ति पदों को प्राप्त कर सकता था। न्याय को निःशुल्क घोषित कर दिया गया। अब किसी को मनमानी तौर पर बंदी नहीं बनाया जा सकता था। इस प्रकार 5 अगस्त 1789 ई. की सुबह एक नया फ्रांस जाग्रत हुआ क्योंकि सदियों पुरानी व्यवस्था का अंत हो चुका था। लॉर्ड एक्टन ने सही लिखा है कि ‘अतीत का फ्रांस नष्ट हो गया और उसके स्थान पर नए प्रजातांत्रिक फ्रांस का जन्म हुआ।’ वस्तुतः निरंकुश राजतंत्र की समाप्ति के बाद सामंतों और चर्च के विशेषाधिकारों का समाप्त होना स्वाभाविक ही था। बहुत से सामंत हिंसा से भयभीत होकर फ्रांस छोड़कर बाहर भाग रहे थे।
मानव और नागरिकों के अधिकारों की घोषणा: सामंतवाद की समाप्ति के बाद संविधान सभा ने संविधान बनाने का काम शुरू किया। सभा ने 26 अगस्त 1789 ई. को ईश्वर नहीं, बल्कि सर्वोच्च सत्ता को साक्षी मानकर ‘मानव और नागरिक के मूलभूत अधिकारों की घोषणा’ की, जो रूसो के ‘सोशल कांट्रेक्ट’ से प्रेरित थी। इस घोषणा पर अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा का स्पष्ट प्रभाव था। यह घोषणा पत्र ‘सभी मनुष्यों के लिए, सभी कालों के लिए, प्रत्येक देश के लिए उदाहरण स्वरूप था।’ इस घोषणा में 17 धाराएँ थीं। इनमें समानता के सिद्धांत का समर्थन करते हुए कहा गया था कि मनुष्य के कुछ नैसर्गिक अधिकार हैं, जो उसे जन्म से ही प्राप्त होते हैं; जैसे-अपनी सुरक्षा का अधिकार, अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का अधिकार, व्यक्तिगत संपत्ति रखने का अधिकार, कानूनी समानता का अधिकार, समान करारोपण का अधिकार, प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार आदि। मनुष्य के इन प्राकृतिक और मूल अधिकारों की रक्षा करना प्रत्येक राजनीतिक संस्था का कर्तव्य है। कानून सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति होता है। राज्य का जन्म व्यक्तियों के सामूहिक प्रयत्न का फल है। इसीलिए व्यक्ति को स्वयं या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन और विधि निर्माण में भाग लेने का अधिकार है। इस प्रकार संविधान सभा ने नवीन संविधान के आधारभूत सिद्धांतों-स्वतंत्रता, समानता तथा जनता के प्रभुत्व की घोषणा की। इसके बाद फ्रांसीसी क्रांति के तीन नारे हो गए-स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व। वस्तुतः यह घोषणा एक आदर्श को प्रस्तुत करती है, जो क्रांतिकारी विश्व के समक्ष प्रस्तुत कर रहे थे। यह घोषणा लोकतंत्रीय विचारों की स्थापना करने वाली महत्त्वपूर्ण घटना थी, जिसे आधुनिक बाइबिल कहा गया है।
मानव अधिकारों की घोषणा ने फ्रांसीसी क्रांति के मध्यमवर्गीय स्वरूप को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया। वास्तव में, संविधान सभा में मध्यम वर्ग का बहुमत था और वे अपने स्वार्थों की रक्षा करने के लिए सजग थे। यही कारण है कि मानव अधिकारों में नागरिक अधिकारों की भी घोषणा की गई। कानून के समक्ष समानता, गैर-कानूनी गिरफ्तारी से मुक्ति, सार्वजनिक पद पाने की समता आदि मध्यम वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर घोषणापत्र में रखे गए थे। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण वैयक्तिक संपत्ति का अधिकार था क्योंकि मध्यम वर्ग के लोग ही मुख्यतः संपत्तिवाले थे। घोषणापत्र के अनुसार राज्य किसी की संपत्ति ले सकता है, किंतु उसके लिए मुआवजा देना पड़ेगा। मुआवजा का यह प्रावधान मध्यमवर्ग के हितों को ध्यान में रखकर ही किया गया था। कुल मिलाकर घोषणापत्र में मध्यम वर्ग ने व्यक्तिवाद की स्थापना की।
घोषणापत्र में साधारण वर्ग के लोगों की उपेक्षा की गई थी। मनुष्य का मौलिक अधिकार होता है- जीने का अधिकार। इसके लिए सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था आवश्यक है, किंतु घोषणापत्र में इसका उल्लेख नहीं था। थॉमसन के अनुसार ‘घोषणा में न तो अमेरिका के समान राष्ट्र-निर्माण की घोषणा थी और न 1918 ई. के सोवियत संविधान की क्रांतिकारी घोषणा ही थी। इस घोषणा के द्वारा फ्रांस की जनता को अधिकारों का ज्ञान तो कराया गया, लेकिन उनको कर्तव्यों से अवगत नहीं कराया गया। अधिकारों की घोषणा से जनता में अनेक आशाएँ पैदा हुईं, जिन्हें पूरा करने में संविधान सभा असमर्थ सिद्ध हुई। घोषणापत्र के प्रकाशन के बाद जब संविधान बना तो उसमें समता के सिद्धांत की उपेक्षा की गई। फ्रांस के नागरिकों को दो भागों में बाँट दिया गया- सक्रिय और निष्क्रिय। जिन लोगों के पास कुछ संपत्ति थी और जो राज्य को कर देते थे, उन्हें वोट देने और निर्वाचित होने का अधिकार मिला, लेकिन गरीब लोगों को निष्क्रिय मानकर उन्हें इस अधिकार से वंचित कर दिया गया।
यद्यपि मानव-अधिकारों की घोषणा में कई त्रुटियाँ थीं, फिर भी घोषणा का महत्त्व कम नहीं है। इस घोषणा के द्वारा आधुनिक राज्य-संगठन के सिद्धांतों को प्रस्तुत किया गया था, जो बाद के वर्षों के लिए उदारता का चार्टर बन गया। जब कभी किसी देश में लोग मानव-अधिकारों की चर्चा करते हैं, तो उन्हें फ्रांस की यह घोषणा याद आती है। 1946 ई. तक फ्रांस के चौथे गणतंत्र के संविधान की प्रस्तावना में इस घोषणा को दुहराया गया था। इस घोषणा ने फ्रांस ही नहीं, पूरी दुनिया के संविधानों को प्रेरित किया है। एक फ्रांसीसी इतिहासकार के अनुसार यह घोषणा पुरातन व्यवस्था की ‘मृत्यु का प्रमाणपत्र’ थी। ऐक्टन ने सच ही कहा है कि ‘यह कागज का टुकड़ा नेपोलियन की सेना से भी अधिक शक्तिशाली था।’
महिलाओं का वर्साय अभियान
बस्तील के पतन के बाद पेरिस में असाधारण घटनाएँ घट रही थीं। यद्यपि लुई को क्रांतिकारियों की कार्रवाई से कोई खास विरोध नहीं था, लेकिन क्रांति से भयभीत लोग देश छोड़कर भाग रहे थे और फ्रांस की सीमाओं पर जमा होकर पड्यंत्रों का बाजार गर्म कर रहे थे। यद्यपि 4 अगस्त को अनेक सामंतों ने भावावेश में अपने विशेषाधिकारों को त्याग दिया था, किंतु उनमें से कुछ ऐसे भी थे, जो पुनः अपने अधिकारों की बहाली चाहते थे। राजदरबार के प्रतिक्रियावादी तत्व भी राजा और रानी को क्रांति को रोकने के लिए उत्साहित कर रहे थें।
राजदरबार में क्रांति के विरुद्ध होने वाले षड्यंत्रों से पेरिस में तथा राष्ट्रीय सभा में राजा के विरुद्ध संदेह बढ़ता जा रहा था। इस संदेह के कई कारण थे। एक, दो महीने बाद भी राजा ने 4 अगस्त की विज्ञप्तियों को अपनी स्वीकृति नहीं दी थी। दूसरे, संविधान के कुछ अनुच्छेद तैयार हो गए, लेकिन इन पर भी राजा की अनुमति नहीं मिली थी। तीसरे, इस वर्ष पेरिस में भीषण ठंड पड़ रही थी और गेहूँ की गाड़ियाँ गाँवों से नहीं आ रही थीं। पेरिस में अफवाह थी कि राजा ने गाड़ियों को रोक दिया था और वह पेरिस को भूखा मारना चाहता था। चौथे, 1 अक्टूबर 1789 ई़ को राजा लुई ने फ्लैंडर्स के किले से शाही सेना को बुलाकर वर्साय में भोज दिया और पेरिस में अफवाह फैल गई कि भोज के दौरान क्रांति के तिरंगे झंडे को कुचला गया, क्रांति विरोधी बातें की गई और संविधान सभा को धमकी दी गई।
इस समय देश में अकाल के कारण उत्पादन अप्रत्याशित रूप से घट गया था और हजारों फ्रांसीसी भूख से मरने लगे थेे। 5 अक्टूबर को पेरिस में एक बेकरी की दुकान पर रोटी को लेकर झगड़ा हो गया और हजारों स्त्रियों की भीड़ रोटी की माँग करते हुए वर्साय चल पड़ी। इसके बाद 6 अक्टूबर को भूखे-नंगे पेरिस निवासियों की भारी भीड़ वर्साय पहुँच गई। नेशनल गार्ड्स का सेनापति लफायेत भी उनके पीछे सैनिकों के साथ वर्साय गया। भीड़ का विचार था कि राजा ने देश का अनाज खरीदकर सरकारी गोदामों में जमा कर लिया है। भीड़ ने राजप्रसाद को चारों ओर से घेरकर राजा, रानी और उसके पुत्र को अपने साथ पेरिस चलने के लिए विवश किया। जब लाचार लुई का शाही परिवार एक बग्घी में ठूँसकर पेरिस आ रहा था, तो उसके साथ की भीड़ यह कहते हुए नाच-गा रही थी कि ‘हमारे साथ रोटीवाला और उसका परिवार है।’ एक व्यंग्यकार ने राजमहल के दरवाजे पर सूचना टाँग दी कि ‘वर्साय का महल किराए पर खाली है।’ जनता अभी भी लुई के विरुद्ध नहीं थी और वह निर्णायक भूमिका निभा सकता था, लेकिन वह ढुलमुल और कमजोर था।
लुई सोलहवें को पेरिस के मध्य में तुलेरीज महल में रखा गया। उस दिन से उसकी स्थिति एक कैदी के समान हो गई। उस पर पेरिस की भीड़ और नेशनल गार्ड्स का कड़ा पहरा था। दस दिन बाद राष्ट्रीय सभा भी पेरिस आ गई। सभा पर भी पेरिस की अनियंत्रित भीड़ का नियंत्रण था। भीड़ सभा के बहस-विवाद में समर्थन या विरोध करती और भयभीत सभा उसकी इच्छा का पालन करने को बाध्य थी।
1791 का संविधान
संविधान-निर्माण के लिए संविधान सभा ने 6 जुलाई 1789 ई. को ही एक समिति नियुक्त कर दी थी, जिसका कार्य प्रस्तावित संविधान के प्रारूप को तैयार करना था। इस बीच स्थितियाँ काफी बदल चुकी थीं और निरंतर परिवर्तन हो रहे थे। राजपरिवार के आने के बाद संविधान सभा भी वर्साय से उठकर पेरिस चली आई थी। इस समय फ्रांस में अनेक दलों का प्रादुर्भाव हो चुका था, जिनमें कुछ अत्यंत उग्रवादी थे और कुछ अत्यधिक प्रतिक्रियावादी। किंतु संविधान सभा को 1791 ई. में फ्रांस के इतिहास में पहली बार एक नया संविधान बनाने में सफलता प्राप्त हुई, जिसे 1791 का संविधान कहा जाता है। इस संविधान का निर्माण मुख्यतया दो प्रमुख सिद्धांतों- रूसो के जनता की सर्वोच्चता एवं संप्रभुता और मांटेस्क्यू के शक्ति-पार्थक्य के आधार पर किया गया था।
1791 के संविधान के प्रथम भाग में मानव अधिकारों की पूर्व घोषणा को वैधानिक रूप दे दिया गया। इनमें कुछ नए प्रावधान जोड़े गए; जैसे देश से बाहर जाने का अधिकार, संपत्ति के लिए मुआवजा पाने का अधिकार और शिकायत करने का अधिकार। भारतीय संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों की तरह कुछ प्रतिज्ञाएँ भी की गईं, जैसे गरीबी के विरुद्ध कानून, शिक्षा का नया रूप आदि। राज्य का पुनर्गठन किया गया। प्रशासन के लिए राज्य को जिलों, विभागों और कम्यूनों में बाँट दिया गया। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कम्यून थी। पहले शिक्षा, शासन और चर्च के लिए अलग इकाइयाँ थीं और अब उन्हें एक कर दिया गया। मांटेस्क्यू के प्रभाव में राज्य के कार्यों का कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में विभाजित कर दिया गया।
कार्यपालिका और राजा
नए संविधान में राजतंत्र को स्वीकार किया गया, लेकिन यह संवैधानिक राजतंत्र था। अब राजा की उपाधि फ्रांसीसियों का राजा थी। राजा ही कार्यपालिका का सर्वोच्च अधिकारी था और उसे व्यवस्थापिका की अनुमति से मंत्रियों को नियुक्त करने का अधिकार था, लेकिन किसी मंत्री का व्यवस्थापिका सभा से कोई संबंध नहीं हो सकता था। राजा को व्यवस्थापिका द्वारा पारित किए गए किसी कानून को केवल कुछ दिनों के लिए रोकने का विशेषाधिकार दिया गया था। यह अवधि चार वर्ष तक हो सकती थी। राजा और उसके परिवार के खर्च के लिए रकम निश्चित कर दी गई और इस प्रकार एक नियंत्रित कार्यपालिका द्वारा राजा के अधिकारों पर संवैधानिक अंकुश लगा दिए गए।
व्यवस्थापिका सभा
नए संविधान में 745 सदस्यों की एक सदन वाली व्यवस्थापिका सभा का प्रावधान किया गया, जिसका कार्यकाल दो वर्ष था। इस सभा के सदस्य को ‘देप्यूते’ कहा जाता था। व्यवस्थापिका के लिए मतदान केवल सक्रिय नागरिकों तक सीमित रखा गया अर्थात् जो वर्ष में कम से कम तीन दिनों की आमदनी कर के रूप में देता हो। निर्वाचन के लिए अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली अपनाई गई। इस सभा को कानून बनाने का अधिकार था। इसके द्वारा बनाया गया कानून राजा की औपचारिक स्वीकृति के बाद लागू हो जाता था। इसके किसी सदस्य को मंत्री बनने का अधिकार नहीं था। हर वर्ष मई माह में इस सभा की बैठक अनिवार्य थी। राजा इसे भंग नहीं कर सकता था और इसकी स्वीकृति के बिना युद्ध या शांति की घोषणा नहीं हो सकती थी। इस प्रकार एक शक्तिशाली और स्वतंत्र व्यवस्थापिका का प्रावधान किया गया।
न्यायपालिका
नए संविधान में न्यायपालिका के सदस्यों के निर्वाचन का विधान किया गया था। जूरी की व्यवस्था की गई थी और न्याय को सस्ता तथा सुलभ बनाने का प्रयत्न किया गया था। महिलाओं को मतदान के अतिरिक्त प्रायः सभी अधिकार प्रदान किए गए। नागरिक विवाह (सिविल मैरेज) और तलाक के नियम बनाए गए। अब तक तिरस्कृत और प्रताड़ित यहूँदियों को भी समान अधिकार दिया गया। इस तरह यह संविधान क्रांतिकारियों के आदर्शों, लक्ष्यों, हितों और उनकी सीमाओं का भी परिचायक है।
1791 के संविधान में कई दोष थे। अपनी ही घोषणाओं के विरुद्ध इस संविधान के निर्माताओं ने सबको बराबर के अधिकार नहीं दिए, क्योंकि वे मध्यवर्गीय प्रमुखता बनाए रखना चाहते थे। मताधिकार और निर्वाचन पद्धतियाँ अत्यंत सीमित थीं और केंद्रीय सरकार को अत्यधिक दुर्बल कर दिया गया था। राज्य के कार्यों का पूरी तरह विभाजन अव्यावहारिक था। न्यायपालिका के चुनाव का प्रावधान उसे भ्रष्ट कर सकता था। फिर भी, तत्कालीन परिस्थितियों में संविधान का निर्माण एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। ब्रिटिश पार्लमेंट ने अपने पाँच सौ वर्षों के जीवन में भी उतना कुछ नहीं प्राप्त किया था।
आर्थिक नीति और चर्च
1789 ई. में एस्टेट्स जनरल का अधिवेशन मुख्यतः राज्य को वित्तीय संकट से उबारने का यत्न करने के लिए बुलाया गया था, किंतु अभी तक इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया था और यह संकट गंभीर होता जा रहा था। फ्रांस का चर्च अब भी अपार संपत्ति का भंडार था। वित्तीय संकट से छुटकारा पाने के लिए संविधान सभा ने चर्च को अपना लक्ष्य बनाया। 10 अक्टूबर 1789 ई. को टेलीरेंड ने चर्च की संपत्ति को जब्त करने का प्रस्ताव रखा और वाद-विवाद के बाद चर्च की समस्त भूमि तथा संपत्ति जब्त करके उसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर दिया गया। परिषद की यह कार्रवाई भी मानव अधिकारों की घोषणा के विपरीत थी क्योंकि मानव अधिकार की घोषणा में संपत्ति के अधिकार को मान्यता दी गई थी। चर्च की संपत्ति के राष्ट्रीयकरण से अन्य अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न हुई।
चर्च की संपत्ति के राष्ट्रीयकरण से ही आर्थिक समस्या का समाधान नहीं हुआ। इसलिए चर्च की जब्त की गई भूमि को बेचने की व्यवस्था की गई और म्युनिसिपल बोर्डों से भी भूमि को खरीदने के लिए कहा गया। चर्च की भूसंपत्ति का मूल्य तीन अरब लिब्रे का अनुमान किया गया और इसके आधार पर कागज की मुद्रा, जिसे एसाइनेट कहा गया, जारी की गई। किंतु धीरे-धीरे कागजी मुद्रा इतनी अधिक जारी कर दी गई कि इसका मूल्य कम होता गया और आर्थिक समस्या और जटिल हो गई। इस प्रकार सभा को आर्थिक संकट हल करने में सफलता नहीं मिली।
चर्च की संपत्ति के राष्ट्रीयकरण से एक सामाजिक समस्या भी पैदा हुई। चर्च की विभिन्न संस्थाएँ शिक्षा, दान तथा मानव कल्याण के जो कार्य करती थीं, अब बंद हो गए। संविधान सभा ने चर्च की परोपकारी संस्थाओं के स्थान पर चर्च के अधीन अनेक कार्यालय खोलने की व्यवस्था की, जिनमें निर्धन व्यक्तियों को काम दिया जाता था। किंतु इसका परिणाम अच्छा नहीं हुआ और देखते-देखते चर्च के इन कार्यालयों में ऐसे असंख्य व्यक्ति भी आ गए जो अन्यत्र काम करके जीविकोपार्जन कर सकते थे। गरीबों की संख्या बढ़ती गई और एक समय ऐसा आया कि जब उनके ऊपर राज्य का अपार धन व्यय होने लगा।
पादरियों का नागरिक संविधान
संविधान सभा ने पादरियों और पोप के महत्त्व को सीमित करने तथा चर्च का पुनर्गठन करने के लिए पादरियों के नागरिक संविधान की घोषणा की। इसके अनुसार फ्रांस की धार्मिक इकाइयों (मठों) की संख्या सीमित कर दी गई, पादरियों को पुनः सांसारिक जीवन में प्रवेश करने की छूट दी गई और पादरियों के पदों की संख्या कम कर दी गई। चर्च की व्यवस्था में भी परिवर्तन हुआ और सभी 83 प्रांतों में एक-एक बिशप नियुक्त किए गए। बिशपों और पादरियों के चुनाव का अधिकार जनता को दिया गया। उनके निर्वाचन की सूचना पोप को दी जाती थी, किंतु पोप को इसे स्वीकृत या अस्वीकृत करने का अधिकार नहीं था। चर्च के सभी पदाधिकारी सरकारी कर्मचारी मान लिए गए और राज्य द्वारा इनको वेतन, भत्ता और छुट्टी देने की व्यवस्था की गई। पादरियों के लिए भी प्रशासन के नियम मानना अनिवार्य हो गया और उन्हें दंडित भी किया जा सकता था। सभा ने प्रस्ताव पारित किया कि सभी बिशपों तथा पादरियों को इस संविधान के प्रति शपथ लेनी होगी।
चर्च की संपत्ति जब्त करने और पादरियों के नागरिक संविधान से फ्रांस में धार्मिक कलह आरंभ हो गया। इस विभाजन से क्रांति के अनेक दुश्मन पैदा हो गए। गर्शोय ने लिखा है कि ‘क्रांतिकारी विचारों को इससे अधिक हानि किसी अन्य घटना से नहीं हुई। इससे फ्रांस दो भागों में विभक्त हो गया।’ यद्यपि फ्रांस में कैथोलिक धर्म का एक राष्ट्रीय स्वरूप था और पोप के हस्तक्षेप तथा पादरियों की राजनीति में रुचि पर क्षोभ व्यक्त किया जाता था, किंतु आम जनता परंपराग्रस्त थी और इस प्रकार धार्मिक क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप के विरूद्ध थी। अतः पादरियों के नागरिक विधान से फ्रांसीसी जनता का एक बहुत बड़ा भाग नाराज हो गया। विशपों का साधारण मतदाताओं द्वारा चुनाव, जिनमें प्रोटेस्टेंट और यहूँदी भी शामिल थे, बहुतों को स्वीकार्य नहीं था। अधिकांश पादरी अभी तक क्रांति के बहुत बड़े समर्थक थे। उन्होंने क्रांति को सफल बनाने में सहायता की थी, किंतु नागरिक संविधान के कारण वे असंतुष्ट हो गए। केवल चार विशपों ने नए कानून के अंतर्गत शपथ ली और 46,000 छोटे पादरियों ने अपनी धार्मिक परंपरा छोड़ने से इनकार कर दिया। जब क्रांतिकारी सरकार ने इन पादरियों को सजा देनी शुरू की, तो वे देश छोड़कर भागने लगे। लुई सोलहवाँ स्वयं एक कट्टर कैथोलिक था और पंद्रह दिनों तक पादरियों के नागरिक विधान को रोके रखा। इस विधान के कारण पूरा यूरोप भी क्रांति का दुश्मन हो गया क्योंकि संपूर्ण यूरोप में कैथोलिक धर्म का बोलबाला था। पोप ने बड़े कड़े शब्दों में इस विधान की निंदा की और उन पादरियों को निष्कासित कर दिया, जो इस विधान को स्वीकार कर चुके थे। इस प्रकार क्रांति का पक्ष निर्बल हो गया।
आंतरिक और बाह्य संकट
क्रांति के प्रारंभ से ही देश की स्थिति नाजुक होती जा रही थी। संपूर्ण देश में अराजकता फैली हुई थी और पेरिस पर भीड़ का नियंत्रण था। संविधान सभा सभी वर्ग के लोगों में अप्रिय होती जा रही थी। कागजी नोट के प्रचलन से देश का आर्थिक जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था, दुकान और कारखाने बंद हो रहे थे। अनुदार विचार के लोग यह सोच रहे थे कि परिषद आवश्यकता से अधिक काम करती जा रही है, जबकि उग्रवादियों के विचार में उसने अभी तक कुछ नहीं किया था। संविधान परिषद की कार्रवाइयों से विदेशी हस्तक्षेप की संभावना बढ़ गई थी। फ्रांस के अल्सास प्रांत में जर्मनी के कुछ लोगों के सामंती अधिकार थे, जिसे फ्रांस ने समाप्त कर दिया था। इस कारण फ्रांस और जर्मनी के बीच तनाव था। 1348 ई. में आविन्यों का इलाका पोप के हाथों बेच दिया गया था। लेकिन 1791 ई. में संविधान सभा ने आविन्यों को फ्रांस में मिला लिया, जिससे पोप और उसके समर्थक बुरी तरह रूष्ट हो गए थे। उधर फ्रांस के भागे हुए फ्रांसीसी सामंत और पादरी जिनमें लुई का छोटा भाई प्रमुख था, पश्चिमी जर्मनी में क्रांति के विरुद्ध विदेशी सहायता पाने के लिए संपर्क और षड्यंत्र कर रहे थे।
इतना ही नहीं, स्वयं संविधान सभा में राजनीतिक दलबंदी के कारण फूट पड़ गई थी। पेरिस की भीड़ से परिषद में उग्रवादियों की संख्या बढ़ती चली जा रही थी. फिर भी, उनकी संख्या अधिक नहीं थी, किंतु उन्हें दो तत्त्वों का जबर्दस्त समर्थन प्राप्त था। पेरिस का अनियंत्रित जनसमूह और जैकोबिन क्लब सदैव उनका साथ देती थी। जैकोबिन क्लब का मुख्य कार्यालय जैकोब के चर्च में था, इसलिए इसको जैकोबिन क्लब कहते हैं। पेरिस में इसके सदस्यों की संख्या उन्नीस सौ के लगभग थी और प्रांतों में इसकी लगभग चार सौ शाखाएँ थीं। इस प्रकार फ्रांस बुरी तरह से अव्यवस्था और उथल-पुथल का शिकार था।
राजा और राजपरिवार के पलायन का प्रयास
वर्साय से पेरिस आने के बाद लुई सोलहवाँ ने अपने को नई परिस्थिति के अनुसार ढालने का प्रयत्न किया और संभवतः वह क्रांति का विरोधी नहीं रह गया था। किंतु प्रतिक्रियावादी क्रांति-विरोधी शक्तियाँ प्रबल थीं और पश्चिमी जर्मनी में बसे प्रवासी फ्रांसीसी सामंत, जिनमें लुई का छोटा भाई प्रमुख था, क्रांति के विरुद्ध विदेशी आक्रमण कराने का षड्यंत्र कर रहे थे और राजा को पेरिस से भाग जाने के लिए उकसा रहे थे। यही नहीं, फ्रांस की उत्तर-पूर्वी सीमा पर एक सेना भी गठित कर दी गई थी और षड्यंत्रकारियों की योजना थी कि यदि राजा किसी तरह क्रांतिकारियों के चंगुल से भाग निकले, तो यूरोप के अन्य राजाओं की सहायता से क्रांति को कुचला जा सकता है। फ्रांस के अंदर भी दरबारी सामंत रानी एंटुआनेट के सहयोग से राजा को फ्रांस छोडकर जाने के लिए दबाव डाल रहे थे। रानी एंटुआनेट का भाई लियोपोल्ड आस्ट्रिया का सम्राट था और वह राजा के साथ उसी के यहाँ जाना चाहती थी। अंततः 20 जून 1791 ई. की रात को भेष बदलकर राजा, रानी और राजकुमार के साथ एक बग्घी में बैठकर फ्रांस के उत्तरी पूर्वी सीमांत की ओर भाग निकला। उसका उद्देश्य फ्रांस की पूर्वी सीमा पर पहुँचना था, जहाँ राजभक्त सेनाएँ तैनात थीं। किंतु दूसरे दिन आधी रात को वारेन के निकट एक साधारण किसान द्रूये ने लुई को पहचान लिया। विश्वासघाती लुई को बंदी बनाकर पेरिस वापस लाया गया और उसे पेरिस के तुलेरीज के महल में कड़े पहरे में कैद कर दिया गया।
राजपरिवार के पलायन का परिणाम
लुई के असफल पलायन ने क्रांति के प्रवाह को एकदम बदल दिया। राजा के गौरव के साथ ही राजतंत्र की प्रतिष्ठा भी मिट्टी में मिल गई। जनता का राजा पर से विश्वास उठ गया और वह राजा को विश्वासघाती मानने लगी। अभी तक फ्रांस में किसी ने गणतंत्र कायम करने की बात नहीं की थी, किंतु इस घटना के बाद एक गणतंत्रवादी दल का उदय हुआ, जो फ्रांस में गणतंत्र की स्थापना चाहता था। इस प्रकार फ्रांस में गणतंत्रवाद का प्रारंभ हुआ। एक इतिहासकार ने लिखा है कि ‘सितंबर 1792 ई. का गणतंत्र जून 1791 ई. के पलायन का स्पष्ट उत्तर था।’
राष्ट्रीय सभा के अंतिम कार्य
राष्ट्रीय सभा या संविधान सभा ने 1789 ई. से 1791 ई. तक कार्य किया। इस दौरान उसने अनेक विरोधों और समस्याओं के बावजूद सामंती व्यवस्था समाप्त की, चर्च का पुनर्गठन किया और नवीन प्रशासन के निर्माण में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की। उसने 3 सितंबर 1791 ई. को फ्रांस के लिए एक नवीन संविधान के निर्माण का कार्य भी पूरा किया। अंतिम दिनों में उसने एक प्रस्ताव को पारित करके घोषणा की कि वर्तमान संविधान सभा का कोई भी सदस्य आगामी व्यवस्थापिका का सदस्य नहीं हो सकता था। 14 सितंबर 1791 ई. को राजा लुई ने सभा में उपस्थित होकर संविधान स्वीकृति की घोषणा की। 18 सितंबर को संविधान के उपलक्ष्य में उत्सव मनाया गया और 30 सितंबर को सभा ने घोषणा की कि उसका कार्य पूरा हो गया था और वह विसर्जित हो गई।
राष्ट्रीय सभा के कार्यों का मूल्यांकन
राष्ट्रीय सभा को अत्यंत कठिन परिस्थितियों में कार्य करना था। यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि उसका अधिकांश कार्य कुछ समय बाद ही नष्ट हो गया। इसने जो संविधान बनाया उसमें भी आधारभूत दोष थे। फ्रांस के एक-तिहाई नागरिकों को मताधिकार से वंचित रखा गया था। कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका को इतना पृथक् कर दिया था कि वे एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी हो गए थे। विकेंद्रीकरण को इस सीमा तक कर दिया था कि केंद्र की कोई सत्ता ही नहीं रह गई थी। धार्मिक नीति घातक सिद्ध हुई क्योंकि इससे गृह-कलह आरंभ हो गया। आर्थिक संकट को हल करने में सभा पूर्ण रूप से असफल रही। सभा ने श्रमिकों तथा कृषकों के लिए कोई कार्य नहीं किया, जबकि 14 जुलाई और 4 अगस्त की घटनाएँ उनके आंदोलन के कारण हुई थीं। अंत में, आत्म-त्याग का प्रस्ताव पारित करके सभा ने आगामी सभा को अपने अनुभव के लाभों से वंचित कर दिया।
सभा के कार्यों का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। निःसंदेह सभा के सदस्य निष्ठावान देशभक्त थे। यदि उन्हें असफलता मिली तो इसका कारण तत्कालीन परिस्थितियाँ थीं। केटेलबी ने लिखा है कि ‘उन्होंने विद्रोह का प्रारंभिक कार्य किया और इतिहास के एकत्रित कचरे को साफ कर दिया। सभा ने फ्रांस की एकता सुरक्षित की और प्रजातंत्र के रूप में नवीन राजनीतिक ढाँचा स्थापित किया। उसने जनता की अगाध शक्ति को स्वतंत्र कर दिया और सामान्य न्याय व्यवस्था तथा सामान्य कर-प्रणाली स्थापित करने का ईमानदारी से प्रयास किया।’ सभा का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य यह था कि सभा ने स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के जिन सिद्धांतों की स्थापना की, उनके कारण ही फ्रांस की क्रांति का विश्व इतिहास में महत्त्व है। हेज के अनुसार ‘फ्रांस के तूफानी वातावरण में संविधान सभा ने देश में शांति एवं सुव्यवस्था के लिए जो कार्य अल्पकाल में किए, उन्हें अन्य सभाएँ वर्षों तक पूरा करने में सफल नहीं हो सकीं।’ फ्रांस को 83 जिलों में बाँटा गया और प्रशासन का पूर्ण विकेंद्रीकरण कर दिया गया।
आदर्शपूर्ण दंभ के कारण और दूरदर्शिता के अभाव में एसेंबली के सदस्यों ने प्रस्ताव पारित कर भावी सभा के लिए अपने चुने जाने पर निषेध लगा दिया था। इस ‘आत्मत्याग’ ने अब तक के अनुभव से भावी सभा को वंचित कर दिया, यद्यपि नए प्रतिनिधियों को चुनने में प्रतिभाओं और नए उत्साह की संभावना तो थी।
संविधान सभा ने सितंबर 1791 ई. में संविधान-निर्माण का कार्य पूरा कर लिया। इस नए संविधान में फ्रांस को सीमित राजतंत्र का दर्जा दिया गया था। इस नवनिर्मित संविधान में भी मताधिकार कर देनेवाली प्रजा को ही दिया गया था। इस प्रकार पेरिस के लोगों ने नागरिक प्रशासन को प्रजातंत्रीय रूप दिया।
यद्यपि अनेक घटनाओं के कारण यह संविधान शीघ्र ही निरर्थक सिद्ध हो गया, लेकिन पूँजीवादी राजतंत्र मध्यमवर्ग के बढ़ते प्रभाव और शक्ति का सूचक था। उनका विचार था कि अपमानजनक स्थिति से बचने के लिए राजा ने पलायन किया था। अतः सभा ने राजा की शक्तियाँ लुई को पुनः प्रदान की और लुई ने भी संविधान को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार राजतंत्र को स्थापित करने के पश्चात् 30 सितंबर 1791 ई. को सभा विसर्जित हो गई। राष्ट्रीय सभा का मुख्य कार्य संविधान का निर्माण करना था। यद्यपि अनेक बार नवीन समस्याएँ उत्पन्न हुईं, फिर भी संविधान निर्माण का कार्य भी चलता रहा। 1790 ई. और 1791 ई. में संविधान के मुख्य अनुच्छेद पारित किए गए। इनमें राजा के अधिकार, व्यवस्थापिका सभा, मताधिकार, न्यायपालिका का गठन, प्रांतों का प्रशासन आदि थे। सभा ने चर्च की संपत्ति जब्त कर ली और पादरियों के लिए नागरिक कानून बनाया। राजा लुई एक सच्चा कैथोलिक था और उसे पादरियों के संविधान पर हस्ताक्षर करने में मर्मांतक पीड़ा हुई। इस संविधान के विरोध में ला वांदे प्रांत में विद्रोह हो गया।
व्यवस्थापिका सभा (अक्टूबर 1791-सितंबर 1792 ई.)
संविधान परिषद के विघटन के बाद 1 अक्टूबर 1791 ई. को व्यवस्थापिका का अधिवेशन शुरू हुआ। आशा की गई कि सभा संविधान की धाराओं को लागू करके फ्रांस में शांति और समृद्धि का युग आरंभ करेगी। लेकिन आरंभ से ही परिस्थितियाँ व्यवस्थापिका सभा के प्रतिकूल थीं। इसका एक कारण तो यह था कि सभा के सभी 745 सदस्य अनुभवहीन थे क्योंकि राष्ट्रीय सभा की आत्मत्याग की घोषणा के कारण उस सभा का कोई सदस्य इस सभा का सदस्य नहीं हो सका था। दूसरा कारण राजा लुई के प्रति अविश्वास था। यद्यपि उसने संविधान स्वीकार कर लिया था, लेकिन जनता उसे क्रांति-विरोधी मानती थी। तीसरा कारण यह था कि अधिकांश पादरी नागरिक संविधान का विरोध कर रहे थे और उन्होंने शपथ लेने से इनकार कर दिया था। चौथे, फ्रांस की प्रशासनिक व्यवस्था अस्तव्यस्त थी और करों का संग्रह, न्याय व्यवस्था, व्यापार, उद्योग, कृषि आदि की दशा खराब थी। मूल्यों और बेकारी में वृद्धि से जनता में असंतोष था। सेना में अनुशासन की कमी थी। पाँचवें, प्रवासी सामंत फ्रांस की पूर्वी सीमा से सटे जर्मन नगरों में क्रांति-विरोधी षड्यंत्र कर रहे थे और प्रशा तथा आस्ट्रिया के राजाओं को फ्रांस में सैनिक हस्तक्षेप करने के लिए उकसा रहे थे, ताकि लुई का उद्धार हो सके और फ्रांस को मुक्ति मिले। छठे, यूरोपीय देश क्रांति का विरोध कर रहे थे। प्रारंभ में फ्रांस की क्रांति को केवल संवैधानिक और सुधारवादी आंदोलन समझा गया था। लेकिन जब 4 अगस्त के बाद जर्मनी के अनेक राजकुमारों की जागीरें फ्रांस में जब्त कर ली गई और पोप की अविगनेन की जागीर भी छीन ली गई, तो यूरोप के राजाओं में लुई के प्रति सहानुभूति जाग गई थी। रानी मैरी एंटुआनेट अपने भाई आस्ट्रिया के राजा लियोपोल्ड से बार-बार अपील कर रही थी कि उन्हें मुक्त कराया जाए।
व्यवस्थापिका सभा में दलबंदी : व्यवस्थापिका सभा के सदस्य मुख्यतः दो दलों में विभक्त थे- एक दल लाफायेत जैसे वैध राजसत्तावादियों का था, जिनकी संख्या लगभग 505 थी। इस दल के लोग फेइयाँ कहलाते थे क्योंकि वे फेइयाँ गिरजाघर में इकट्ठा होते थे। राजसत्तावादी सदन में दाईं ओर बैठते थे, संविधान के कट्टर समर्थक थे और फ्रांस में वैध राजतंत्र स्थापित करना चाहते थे। इनकी संख्या तो अधिक थी, किंतु प्रभाव बहुत कम था। दूसरा दल गणतंत्रवादियों का था, जिनकी संख्या 240 थी और सदन में बाईं ओर बैठते थे। गणतंत्रवादी उग्रवाद में विश्वास करते थे और फ्रांस में गणतंत्र की स्थापना करना चाहते थे। गणतंत्रवादी अपनी विचारधारा की भिन्नता के कारण मुख्यतः दो दलों में विभक्त थे- जैकोबिन और जिरोंदिस्त।
जैकोबिन : जैकोबिन मुख्यतः पेरिस से संबंधित थे, जो जैकब के चर्च में अपनी सभाएँ किया करते थे और इसी आधार पर इनका यह नाम पड़ा था। देश भर में इसकी लगभग चार सौ शाखाएँ थीं। फ्रांस के अधिकांश बुद्धिजीवी कभी न कभी इस दल के सदस्य थे। इसके प्रमुख सदस्यों में मारा, दाँतो, देशमोला आदि थे। पहले जैकोबिन राजतंत्र के विरूद्ध नहीं थे, किंतु बाद में वे गणतंत्र का समर्थन करने लगे। व्यवस्थापिका सभा में इस दल के केवल 140 सदस्य थे, लेकिन सभा के बाहर इसका बहुत प्रभाव था। जैकोबिन नए संविधान से असंतुष्ट थे क्योंकि उसमें श्रमिकों और निर्धनों को मताधिकार नहीं दिया गया था।
जिरोंदिस्त: जिरोंदिस्त दल के नामकरण का आधार फ्रांस का जिरोंद प्रांत था, जहाँ से इस दल के अधिकांश नेता संबंधित थे। आरंभ में इस दल के सदस्य क्षेत्रीय आधार पर मिला करते थे। इस दल के प्रमुख नेता इस्नार, पेसिओं, ब्रिसो, पेसिओं, रोलां और मदाम रोलां, कांदोर्सें तथा टॉमस पेन आदि मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवी थे। जिरोंदिस्त केवल आदर्शवादी थे और स्थितियों का यर्थार्थपरक विश्लेषण न कर पाने के कारण व्यावहारिक निर्णय नहीं ले पाते थे। उग्रवादी होते हुए भी इनमें और जैकोबिनों में मतभेद था। जैकोबिन अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हिंसा, आतंक या हत्या कुछ भी कर सकते थे, जबकि जिरोंदिस्त प्रत्येक कदम वैधानिक तरीके से उठाना चाहते थे।
जिरोंदिस्तों की नीति : व्यवस्थापिका सभा में जिरोंदिस्त सबसे अधिक सक्रिय थे और फ्रांस में गणतंत्र की स्थापना करना चाहते थे। इसके लिए राजा को क्रांति-विरोधी सिद्ध करना आवश्यक था। उन्होंने पादरियों के विरुद्ध एक घोषणा पारित कराई कि वे एक सप्ताह के अंदर संविधान के प्रति शपथ ले लें, अन्यथा उन्हें राजद्रोही माना जाएगा और उनकी वृत्तियाँ जब्त कर ली जाएँगी। राजा ने अपने निषेधाधिकार का प्रयोग करते हुए इस घोषणा पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया।
इस समय जर्मनी के नगरों में लगभग डेढ़ लाख राजतंत्र-समर्थक प्रवासी फ्रांसीसी क्रांति-विरोधी अड्डा बना लिए थे, जिनका नेतृत्व लुई सोलहवाँ के दो भाई कर रहे थे। एक प्रोवेंस का काउंट था, जो बाद में लुई अठारहवाँ के नाम से फ्रांस का राजा हुआ और दूसरा आर्तुआ का काउंट था, जो चार्ल्स दशम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। प्रवासी कुलीन प्रतिद्वंद्वी देशों को फ्रांस में राजतंत्र बहाली के लिए हस्तक्षेप करने के लिए उकसा रहे थे। 27 अगस्त 1791 ई. को फ्रांस के दो प्रतिद्वंद्वी देशों- प्रशा और आस्ट्रिया ने फ्रांस में पुनः राजतंत्र स्थापित करने की ‘पिल्नित्ज की संयुक्त घोषणा’ की। इस घोषणा ने आग में घी का काम किया। व्यवस्थापिका सभा ने प्रवासी सामंतों के विरुद्ध घोषणा की कि यदि प्रवासी सामंत 1 जनवरी 1792 ई. तक फ्रांस वापस नहीं आते तो उनकी संपत्ति जब्त कर ली जाएगी और उन्हें देशद्रोही माना जाएगा। राजा लुई ने इस घोषणा पर भी हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। वास्तव में, शपथ ग्रहण न करने वाले पादरियों और भागे हुए कुलीनों की आड़ लेकर जिरोंदिस्त राजतंत्र पर आक्रमण करना चाहते थे। राजा के वीटो से यह सिद्ध हो गया कि वह क्रांति का विरोधी तथा क्रांति के शत्रुओं का समर्थक है। जिरोंदिस्तों ने इस विषय को लेकर राजा और रानी के विरूद्ध व्यापक प्रचार किया। इस प्रकार राजतंत्र के अंत और गणतंत्र की स्थापना के लिए मनोवैज्ञानिक वातावरण तैयार हो गया।
जिरोंदिस्त मंत्रिमंडल और युद्ध की घोषणा
लुई ने सभा के विरोध और जनता के असंतोष से बचने के लिए जिरोंदिस्त दल के लोगों को मंत्री नियुक्त कर दिया। जिरोंदिस्त भी मंत्री बनने को तैयार थे ताकि गणतंत्र की स्थापना की जा सके। जिरोंदिस्त राजा को फ्रांस को दूसरे देशों के साथ युद्ध में उलझा कर स्पष्टतया देशद्रोही प्रमाणित करना चाहते थे। जिरोेदिस्तों का विचार था कि युद्ध की स्थिति में राजा को क्राति का पक्ष लेकर अपने मित्रों के विरूद्ध ही लड़ना पड़ेगा और यदि ऐसा नहीं करेगा, तो उसे देशद्रोही घोषित करके राजतंत्र का अंत कर दिया जायगा। राजतंत्र समर्थक सामंत भी इस युद्ध को चाहते थे क्योंकि यदि युद्ध में पराजय हुई तो जनता राजा की शरण में आएगी और यदि जीत हुई तो राजा की प्रतिष्ठा बढ़ेगी। मैरी एंटुआनेट को उम्मीद थी कि युद्ध की स्थिति में निरंकश राजतंत्र को पुनर्स्थापित करने के लिए विदेशी सेना की सहायता मिल सकती है। जैकोबिन दल में भी रॉब्सपियर को छोड़कर सभी उग्रवादी युद्ध चाहते थे।
यूरोप के कई स्वेच्छाचारी राजा क्रांति के विचारों से भयभीत थे। क्रांति के बढ़ते हुए अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप को देखकर उनको लगा कि फ्रांस की क्रांति एक भयंकर दानव के रूप में मुँह बाए उनकी ओर बढ़ती चली आ रही है और यदि शीघ्र ही इस दानव का संहार नहीं किया गया तो वह उन्हें उनकी ही राजधानियों में निगल जाएगा। अतः उन्होंने क्रांतिरूपी दानव को उसके शैशवकाल में ही कुचल डालने का निश्चय किया। फ्रांस के अल्सास प्रांत में कई जर्मन राजाओं की भूमि थी, जो वेस्टफेलिया की संधि (1648) द्वारा उन्हें मिली थी। संविधान सभा के शासनकाल में ही यह भूमि जर्मन राजाओं से छीन ली गई थी, जो अंतर्राष्ट्रीय विधि का उल्लंघन था। आस्ट्रिया का राजा लियोपोल्ड द्वितीय युद्ध के लिए सबसे अधिक उतावला था क्योंकि एक तो आस्ट्रिया और फ्रांस की सीमाएँ मिली हुई थीं और आस्ट्रिया की प्रजा पर क्रांति का प्रभाव सबसे अधिक पड़ रहा था। दूसरे, बेल्जियम में आस्ट्रिया के आधिपत्य के विरुद्ध विद्रोह हो रहा था और फ्रांस वाले बेल्जियम के लोगों को आस्ट्रिया के खिलाफ भड़का रहे थे। इसके अतिरिक्त, फ्रांस की रानी मैरी एंटुआनेट उसकी बहन थी और वह बराबर अपने भाई को पत्र लिखकर फ्रांस पर आक्रमण करने के लिए भड़का रही थी। राजा-रानी के बंदी बनाए जाने के बाद जुलाई 1791 ई. में लियोपोल्ड ने यूरोप के सभी राजाओं से फ्रांस के राजा और उसके परिवार को बचाने की अपील की।
पिल्नित्ज की घोषणा
आस्ट्रियन सम्राट लियोपोल्ड और प्रशा के राजा द्वितीय फ्रेडरिक विलियम ने अगस्त 1791 ई. में पिल्नित्ज नामक स्थान पर मिले। यद्यपि वे फ्रांस के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने से हिचक रहे थे, लेकिन उन्होंने लुई के प्रति सहानुभूति दिखाई और एक संयुक्त विज्ञप्ति जारी की, जिसे ‘पिल्नित्ज की घोषणा’ कहते हैं। इस घोषणा में कहा गया था कि फ्रांस के राजा का मामला यूरोप के समस्त राजाओं का मामला है। वे अन्य यूरोपीय शासकों के साथ फ्रांस में ऐसी सरकार स्थापित करने के लिए हस्तक्षेप कर सकते हैं, जो राजाओं के अधिकारों और फ्रांस के हितों के अनुकूल हो। वे आवश्यकता पड़ने पर फ्रांस के मामले में सशस्त्र हस्तक्षेप करने के लिए तैयार हैं।
पिल्नित्ज की घोषणा वास्तव में एक धमकी थी। जब लुई ने संविधान स्वीकार कर लिया तो वे शांत हो गए। किंतु जब सभा और फ्रांस की जनता को पिल्नित्ज की घोषणा के बारे में पता चला कि आवश्यकता पड़ने पर विदेशी शासक भी लुई की मदद कर सकते हैं, जिरोंदिस्तों ने युद्ध के पक्ष में आग उगलना शुरू कर दिया। वे कहने लगे कि फ्रांस की क्रांति फ्रांस की सीमाओं में नहीं बँध सकती। वे हर देश के पीड़ित एवं त्रस्त लोगों के मददगार हैं। अब फ्रांस में बड़े जोर-शोर से युद्ध की तैयारियाँ होने लगीं। लुई ऊपर से खामोश था, लेकिन मैरी एंटुआनेट का षड्यंत्र जारी था और वह अपनी मुक्ति के लिए अपने भाई लिओपोल्ड को उकसा रही थी। उधर जिरोंदिस्त प्रचार के कारण बेरोजगार लोग भारी संख्या में सेना में भर्ती हो रहे थे। सामंतों के पलायन के कारण सेना बिखर गई थी। लेकिन नई सेना में असीम उत्साह था।
व्यवस्थापिका सभा ने पहले एक आदेश जारी कर प्रवासी कुलीनों को फ्रांस लौट आने के लिए कहा, फिर उसने आस्ट्रिया से प्रवासी कुलीनों को कैदकर फ्रांस वापस भेजने का अनुरोध किया, किंतु आस्ट्रिया की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला, जिससे फ्रांस के क्रांतिकारियों का रूख अधिक उग्र और आक्रामक हो गया। जनवरी 1792 ई. में आस्ट्रिया के सम्राट से माँग की गई कि वह यह स्पष्ट करे कि उसने फ्रांस के खिलाफ जो भी संधि-समझौते किए हैं, उसको वह अविलंब रद्द करता है या नहीं। इसके एक पखवारे के बाद प्रवासी कुलीनों की संपत्ति की जब्ती का आदेश दिया गया। आस्ट्रियन सम्राट लियोपोल्ड द्वितीय बड़ी दुविधा में था, लेकिन 1 मार्च 1792 ई. को उसकी मृत्यु हो गई। लियोपोल्ड का उत्तराधिकारी फ्रांसिस द्वितीय कम समझदार था और उस पर कुलीनों तथा सैनिकवादियों का अधिक प्रभाव था।
राजा ने 10 मार्च 1792 ई. को व्यवस्थापिका सभा को संदेश दिया कि आस्ट्रिया के राजा ने प्रवासी सामंतों को निकालने से इनकार कर दिया था। अब युद्ध के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं था। व्यवस्थापिका सभा ने 20 अप्रैल 1792 ई. को आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। केवल रॉब्सपियर जैसे सात सदस्यों ने इस घोषणा का विरोध किया। इस प्रकार 20 अप्रैल 1792 ई. को आस्ट्रिया के साथ युद्ध प्रारंभ हो गया और जिरोंदिस्तों की मन-माँगी मुराद पूरी हो गई।
फ्रांस युद्ध के लिए तैयार नहीं था और सेना भी अव्यवस्थित तथा अनुशासनहीन थी। फलतः राष्ट्रीय रक्षादल के सेनापति लफायेट को आस्ट्रिया से पराजित होना पड़ा। 1 अगस्त को फ्रांस पर विदेशी हमले शुरू हो गए और एक-एक करके फ्रांसीसी दुर्ग विदेशियों के हाथ में जाने लगे। फ्रांस की प्रारंभिक हार के कारण जनता राजा से और चिढ़ गई। उसको संदेह हुआ कि राजा फ्रांस के साथ विश्वासघात कर रहा है और गुप्त रूप से सैनिक भेद आस्ट्रिया को दे रहा है। इसी समय राजा ने जिरोंदिस्त मंत्रियों को पदच्युत कर दिया, जिससे जनता के संदेह की पुष्टि हो गई। जिरोंदिस्तों के उकसाने पर पेरिस की बेकाबू भीड़ ने 20 जून 1792 ई. को राजमहल में घुसकर तोड़-फोड़ की और राजा-रानी को अपमानित किया, लेकिन राजा ने क्रांतिकारियों की लाल टोपी और तिरंगा झंडा धारण कर अपनी रक्षा की, जिससे जिरोंदिस्तों की योजना असफल हो गई।
ब्रुंसविक की घोषणा
राजा के अपमान के बाद 25 जुलाई 1792 ई. को प्रशा ने भी फ्रांस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और ड्यूक ऑफ ब्रुंसविक को संयुक्त सेनाओं का सेनापति नियुक्त किया। ब्रुंसविक ने 28 जुलाई 1792 ई. को फ्रांस की सीमा पार करके चेतावनी दी कि फ्रांसीसी राजा को उसके अधिकार वापस दिए जाएँ और विश्वासघातियों को समाप्त किया जाए। यदि लुई और उसके परिवार का जरा भी बाल बाँका हुआ, तो इसकी जिम्मेदारी फ्रांस के क्रांतिकारियों की होगी। उसने स्पष्ट कर दिया कि लुई के मित्र शासकों ने उसके अधिकार वापस दिलाने का निर्णय ले लिया है और यदि आवश्यकता पड़ेगी तो पेरिस को जलाकर खाक कर दिया जाएगा।
राजतंत्र का पतन
ब्रुंसविक की घोषणा से पेरिस की जनता भड़क गई। यह सरासर देश के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप था। अब जनता को पूरा विश्वास हो गया कि राजा शत्रुओं से मिला हुआ है। दाँते, माराँ जैसे उग्र जैकोबिन नेताओं ने पेरिस के लिए एक नई क्रांतिकारी कम्यून स्थापित की और राजा को पदच्युत करने की माँग की। इस समय पूरे पेरिस में भय और हिंसा का वातावरण व्याप्त था। 10 अगस्त 1792 ई. को क्रांतिकारियों की एक भारी भीड ने तुलेरीज के महल पर आक्रमण कर पहरेदारों और राजा के अंगरक्षकों को मार डाला। राजा, रानी और राजकुमार ने भागकर व्यवस्थापिका सभा में शरण ली। सभा ने भीड़ और जैकोबिनों की माँग पर राजा को निलंबित कर दिया, यद्यपि विधिवत राजतंत्र का अभी खात्मा नहीं हुआ था। इस प्रकार एक ओर फ्रांस ने अपने कंधे से राजतंत्र का जुआ उतार फेंका, तो दूसरी ओर ड्यूक ऑफ ब्रुंसविक के नेतृत्व में आस्ट्रिया और प्रशा की सेनाएँ फ्रांस की सीमाओं पर पहुँच गईं और उन्हें रोकना असंभव हो गया।
व्यवस्थापिका सभा ने एक राष्ट्रीय कन्वेंशन के गठन का प्रस्ताव किया और यह तय किया कि व्यवस्थापिका सभा भंग की जाए, फ्रांस में फिर चुनाव हो और एक नई व्यवस्थापिका सभा का गठन हो। राष्ट्रीय कन्वेंशन ही राजा और राजतंत्र के भविष्य पर विचार करे। व्यवस्थापिका सभा ने राज्य की सभी शक्तियाँ अस्थायी कार्यपालिका समिति को सौंप दी। किंतु अस्थायी कार्यपालिका समिति पर ‘कम्यून’ का नियंत्रण था और कम्यून ने राजपरिवार को बंदी बना लिया।
व्यवस्थापिका सभा के अंत और कम्यून सरकार की स्थापना के फलस्वरूप फ्रांस की क्रांति पर से मध्यम वर्ग का प्रभाव कुछ समय के लिए समाप्त हो गया। व्यवस्थापिका सभा का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं हुआ था, लेकिन अब निश्चय हुआ कि कन्वेंशन का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होगा और फ्रांस के सभी वयस्कों को वोट देने का अधिकार मिलेगा। नवगठित कम्यून में भी निम्न वर्ग का बोलबाला था। यही कारण है कि मध्यम वर्ग के नेता लाफायेट को फ्रांस छोड़कर भाग जाना पड़ा क्योंकि वह राजपरिवार को बंदीगृह से निकालकर राजा के पक्ष में विद्रोह करना चाहता था।
सितंबर-हत्याकांड
पेरिस कम्यून के शासनकाल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना सितंबर हत्याकांड है। 11 अगस्त को व्यवस्थापिका सभा के भंग होने से लेकर 20 सितंबर तक फ्रांस के प्रशासन और सुरक्षा की बागडोर पेरिस कम्यून के हाथ में रही, जिसका प्रमुख दाँते था। यद्यपि एक अस्थायी कार्यपालिका समिति फ्रांस में स्थापित की गई थी, किंतु वास्तविक शक्ति दाँते के हाथ में ही केंद्रित थी।
इस समय फ्रांस चारों ओर शत्रुओं से घिरा था और विश्वासघात का बोलबाला था। कम्यून के सामने सबसे बड़ी समस्या विदेशी सेनाओं से फ्रांस की रक्षा करना था। दाँते ने अपने सिद्धांतों को पूर्ण रूप से कार्यान्वित करने का प्रयास किया। उसका कथन था: ‘साहस, अधिक साहस और सदैव अधिक साहस।’ इसी साहस के द्वारा आतंक फैलाकर वह आंतरिक और बाह्य शत्रुओं का दमन करना चाहता था। दाँते ने सितंबर 1792 ई. में भीषण रक्तपात कराया, वह ‘सितंबर-हत्याकांड’ के नाम से प्रसिद्ध है।
2 सितंबर 1792 ई. को सूचना मिली कि आक्रमणकारी विदेशी सेनाओं ने अंतिम दुर्ग वर्दुन पर अधिकार कर लिया है। इससे पेरिस में अफरा-तफरी मच गई। इसी दौरान अफवाह फैली कि राजतंत्र-समर्थक नेता जेलों में षड्यंत्र कर रहे हैं। कम्यून को इस बात का भय हो गया कि यदि शत्रु पेरिस में पहुँच गए तो राजतंत्र-समर्थक नेता जेलों से छूटकर क्रांतिकारियों से अपना बदला लेंगे और देश को विदेशियों के हवाले कर देंगे अथवा क्रांति का अंत करके फ्रांस में राजतंत्र पुनर्स्थापित हो जाएगा। इस अप्रिय स्थिति से बचने के लिए देश में छिपे देशद्रोहियों का दमन करना आवश्यक था। फलतः डेढ़ सौ सशस्त्र सिपाहियों को किराए पर बुलाकर राजतंत्र-समर्थक सारे बंदियों को मौत के घाट उतार दिया गया। जैकोबिन नेता माराँ के नेतृत्व में लगभग दो-ढाई हजार स्त्री-पुरुष क्रांति-विरोधी होने के संदेह में मार डाले गए। यह वीभत्स हत्याकांड 2 सितंबर से 5 सितंबर 1792 ई. चलता रहा। इस हत्याकांड में अधिकांशतः कुलीन वर्ग के लोग थे, जो राजा के विश्वासपात्र थे। इस प्रकार सितंबर हत्याकांड ने राजतंत्र के पोषकों का सफाया कर दिया।
यद्यपि सितंबर हत्याकांड से क्रांति की बड़ी बदनामी हुई, लेकिन इसके अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय भी नहीं था। दाँते ने ठीक कहा था कि ‘क्रांति दो तरफ से अग्नि की लपटों के बीच घिरी थी- सीमा पर विदेशी शत्रु और घर के अंदर प्रतिक्रांतिकारी। क्रांति को बचाने के लिए दुश्मन को पराजित करना आवश्यक था।’ इस उपद्रव और हत्याकांड के परिणामस्वरूप किसी ने भी राजतंत्र का समर्थन करने का साहस नहीं किया।
इस प्रकार व्यवस्थापिका सभा का अल्पकाल राजतंत्र के पतन और जैकोबिनों के उत्थान का काल था। इस काल में राज्य की वास्तविक सत्ता क्रांतिकारी पेरिस कम्यून के हाथों में थी और फ्रांस युद्ध तथा रक्तपात की ओर बढ़ रहा था।
वामी की विजय
जिस समय पेरिस की कम्यून आंतरिक शत्रुओं से निपट रही थी, उस समय दाँते विदेशी हमले से देश की रक्षा की व्यवस्था कर रहा था। सीमाओं पर तैनात सेना से लफायेत भाग चुका था और उसने राजा के पक्ष में विद्रोह कर दिया था। फ्रांस का नया सेनाध्यक्ष द्यूमूरिये भी अंत में दुश्मनों से जाकर मिल गया। इसके बावजूद फ्रांस की सेना ने वामी (वाल्मी) के युद्ध में प्रशा की सेना को रोक दिया।
राष्ट्रीय सम्मेलन नेशनल कन्वेंशन (1792-1795 ई.)
राष्ट्रीय सम्मेलन फ्रांस की तीसरी क्रांतिकारी सभा थी। व्यवस्थापिका सभा के विघटन के बाद सितंबर हत्याकांड के उत्तेजित और आतंकपूर्ण वातावरण में वयस्क मताधिकार के आधार पर 20 सितंबर 1792 ई. को राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए चुनाव हुए। इसके कुल 782 निर्वाचित सदस्यों में से 200 जिरोंदिस्त, 100 जैकोबिन तथा 482 स्वतंत्र सदस्य थे। इनमें प्रमुख जिरोंदिस्त नेता ब्रिसो, कन्डोरसे तथा प्रमुख जैकोबिन नेता रॉबस्पियर, दाँते, मारा, कार्नो, कामिल आदि थे। राष्ट्रीय सम्मेलन ने 20 सितंबर 1792 ई. से 26 अक्टूबर 1795 ई. तक कार्य किया।
राष्ट्रीय सम्मेलन की समस्याएँ : राष्ट्रीय सम्मेलन के सामने अनेक आंतरिक और बाह्य समस्याएँ थीं। एक, राष्ट्रीय सम्मेलन को राजा और राजतंत्र के बारे में निर्णय लेना था। दूसरे, फ्रांस में गणतंत्र की स्थापना करने के लिए एक नए संविधान और शक्तिशाली कार्यपालिका का निर्माण करना था। तीसरे, राजतंत्र समर्थकों और क्रांतिकारियों के बीच चल रहे गृह-युद्ध को समाप्त कर फ्रांस में शांति स्थापित करना था। चौथे, विदेशी हमले से फ्रांस के शिशु जनतंत्र की रक्षा करनी थी। इसके अलावा, राष्ट्रीय सम्मेलन को देश के लिए एक नए संविधान और शक्तिशाली कार्यपालिका का निर्माण करना था।
राजा और राजतंत्र के बारे में निर्णय : राष्ट्रीय सम्मेलन का अधिवेशन 20 सितंबर 1792 ई. को आरंभ हुआ। इस दिन फ्रांस की सेना को पहली सफलता मिली और उसने वाल्मी नामक स्थान पर आक्रमणकारी आस्ट्रिया और प्रशा की सेनाओं को रोक दिया। वाल्मी की विजय से क्रांतिकारी सेनाओं का मनोबल बढ़ गया और युद्ध का पासा पलट गया। राष्ट्रीय कन्वेंशन ने हर्ष और उल्लास के वातावरण में 21 सितंबर 1792 ई. को सर्वसम्मति से राजतंत्र को समाप्त कर दिया और फ्रांस को गणराज्य घोषित कर दिया।
राजा के साथ कैसा व्यवहार किया जाए, इस पर जिरोंदिस्तों और जैकोबिनों में मतभेद था। राजा के महल से प्राप्त गुप्त पत्रों के आधार पर नेशनल कन्वेंशन ने औपचारिक मुकदमें के बाद लुई सोलहवें को अपराधी घोषित किया। 16 जनवरी 1793 ई. को सम्मेलन ने बहुमत के आधार पर राजा को मृत्युदंड की सजा दी। अंत में, राष्ट्र की स्वतंत्रता के विरुद्ध षड्यंत्र करने के आरोप में लुई सोलहवें को 21 जनवरी 1793 ई. को गिलोटिन पर चढ़ाकर मृत्युदंड दे दिया गया।
यूरोपीय राष्ट्रों से युद्ध : राजा को प्राणदंड देने के कारण कई यूरोपीय देश फ्रांस के विरोधी हो गए। आस्ट्रिया और प्रशा पहले ही फ्रांस से युद्ध कर रहे थे। अब इसमें इंग्लैंड, स्पेन, हॉलैंड, जर्मनी और इटली के राज्य भी सम्मिलित हो गए और फ्रांस पर आक्रमण कर दिए। विदेशी आक्रमणों का सामना करने के लिए कन्वेंशन ने तीन लाख सैनिकों की भर्ती के आदेश दिए और युद्धमंत्री कार्नो ने विशाल सेनाओं को सुसज्जित करने, प्रशिक्षण देने और मोर्चे पर भेजने का आश्चर्यजनक कार्य किया। फलतः फ्रांसीसी सेनाओं ने बेल्जियम, हॉलैंड, सेवॉय, राइन क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। फ्रांस की इस आश्चर्यजनक सफलता से यूरोपीय संघ छिन्न-भिन्न हो गया और यह प्रथम संघ फ्रांस का अहित करने में असफल रहा।
सुदृढ़ कार्यपालिका का निर्माण: फ्रांस के ऊपर संकट के बादल छाए हुए थे। किंतु राष्ट्रीय सम्मेलन ने अदम्य क्रियाशीलता, साहस और निर्भीकता का परिचय देते हुए एक शक्तिशाली कार्यपालिका का गठन किया। इसके तीन भाग थे- जनरक्षा समिति, जिसका कार्य सामान्य प्रशासन तथा विदेशी आक्रमण का सामना करना था, सामान्य सुरक्षा समिति, जिसका कार्य आंतरिक क्षेत्रों में शांति तथा पुलिस कार्यों को करना था और क्रांतिकारी न्यायाधिकरण, जिसका कार्य क्रांति विरोधी अपराधियों के मुकदमों का शीघ्र निर्णय करना था।
आंतरिक विद्रोहों की समाप्ति: इस समय बाहरी और आंतरिक विरोध के कारण संपूर्ण देश में अराजकता फैली हुई थी। सम्मेलन में जिरोंदिस्तों की संख्या जैकोबिनों से दुगुनी थी, किंतु सभा के बाहर जैकोबिन दल को जनता का समर्थन प्राप्त था। उन्हें पेरिस कम्यून का भी समर्थन प्राप्त था। जैकोबिनों ने पेरिस की जनता की सहायता से 2 जून 1793 ई. को जिरोंदिस्त दल के 31 प्रमुख सदस्यों को बंदी बनाकर सम्मेलन पर पूर्ण अधिकार कर लिया। अनेक प्रांतों में जहाँ जिरोंदिस्तों को जन-समर्थन प्राप्त था, विद्रोह हो गए। राजा के समर्थकों ने भी अनेक जिलों में विद्रोह कर दिया और गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो गई थी। कन्वेंशन ने इस स्थिति का भी साहस से सामना किया। उसने क्रांति विरोधियों का दमन करने के लिए जिस व्यवस्था को स्थापित किया, उसे ‘आतंक का राज्य’ कहा गया है।
आतंक का राज
जैकोबिनों के नेतृत्व में राष्ट्रीय कन्वेंशन ने बाहरी और आंतरिक शत्रुओं को कुचलने के लिए एक विशेष व्यवस्था की, जो भय और आतंक पर आधारित थी। अतः इस व्यवस्था को ‘आतंक का राज’ कहा गया है। इसका आरंभ 29 मार्च 1793 ई. से माना जाता है क्योंकि इसी दिन दाँते के प्रस्ताव पर कन्वेंशन ने क्रांतिकारी न्यायाधिकरण की स्थापना की स्वीकृति दी थी। यह आतंक का राज्य 29 जुलाई 1794 ई. को रॉब्सपियर की मृत्यु के साथ समाप्त हुआ।
‘आतंक का राज्य’ व्यवस्था भय और आतंक पर स्थापित थी और इसका उद्देश्य क्रांति विरोधियों को भयभीत करना और गणतंत्र को स्थायी बनाना था। युद्धकालीन आवश्यकता के नाम पर दो समितियों का गठन किया गया था- सार्वजनिक कल्याण समिति और सार्वजनिक सुरक्षा समिति।
इस दौरान संपूर्ण फ्रांस में 17,000 व्यक्तियों को क्रांति का शत्रु होने के संदेह में मृत्युदंड दिया गया। इनके अतिरिक्त, 40,000 विद्रोहियों को मार डाला गया। इस भयानक रक्तपात की कुछ इतिहासकारों ने निंदा की है। इसके विपरीत, अनेक इतिहासकारों ने इसे फ्रांस की असाधारण संकटपूर्ण स्थिति में आवश्यक बताया है। आतंक का राज्य के बारे में हेजन लिखता है कि क्रांति के नेताओं ने विदेशी आक्रमण की बाढ़ और आंतरिक संकट की भयंकरता को समझ कर ही यह व्यवस्था स्थापित की थी और उन्होंने फ्रांस की जनता से अधिकाधिक बलिदान करने की अपील की थी। फ्रांस की जनता ने शक्तिशाली सरकार के गठन की सहमति सहर्ष दी थी और वह सब प्रकार के कष्ट सहने को तैयार थी। हेजन आगे लिखता है, किंतु उक्त व्यवस्था का प्रयोग केवल इसी उद्देश्य के लिए नहीं किया गया। लोगों ने इसका प्रयोग व्यक्तिगत तथा दलगत वैमनस्य निभाने तथा निजी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए किया।
6 अप्रैल 1793 ई. को 12 सदस्यीय सार्वजनिक सुरक्षा समिति गठित की गई। इसका कार्य अपराधियों को खोजकर न्यायाधिकरण के समक्ष प्रस्तुत करना था। सार्वजनिक सुरक्षा समिति ने फ्रांस की राज्य व्यवस्था को ‘आतंक के राज्य’ में बदल दिया। सितंबर 1793 ई. में जैकोबिनों के नेतृत्ववाले नेशनल कन्वेंशन ने एक ‘संदेहास्पद व्यक्तियों का कानून’ पारित किया। इस कानून के तहत किसी को भी संदेह के आधार पर फाँसी दी जा सकती थी। अब दोनों समितियों ने क्रांति की रीढ़ कम्यून को कुचलना शुरू कर दिया। रॉब्सपियर ने एक अन्य कानून पारित कराकर न्यायाधीशों को अपने विवेक के आधार पर ही संदेहास्पद लोगों को मृत्युदंड देने का अधिकार दिला दिया।
जुलाई 1794 ई. में जैकोबिनों के नेता रॉब्सपियर का पतन हुआ और तब जाकर फ्रांस से आतंक के राज्य की समाप्ति हुई। किंतु पतन से पूर्व उसने लगभग 20,000 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था।
राष्ट्रीय कन्वेंशन ने बाहरी और आंतरिक शत्रुओं से निपटने के लिए एक विशेष व्यवस्था की, जो भय और आतंक पर आधारित थी। अतः इस व्यवस्था को ‘आतंक राज’ कहा गया है। इसका आरंभ 29 मार्च 1793 ई. से माना जाता है क्योंकि इसी दिन दांते के प्रस्ताव पर कन्वेंशन ने क्रांतिकारी न्यायाधिकरण की स्थापना की स्वीकृति दी थी। यह आतंक का राज्य 29 जुलाई 1794 ई. को रॉब्सपियर की मृत्यु के साथ समाप्त हुआ। इस दौरान संपूर्ण फ्रांस में 17,000 व्यक्तियों को क्रांति का शत्रु होने के संदेह में मृत्युदंड दिया गया। इनके अतिरिक्त, 40,000 विद्रोहियों को मार डाला गया। इस भयानक रक्तपात की कुछ इतिहासकारों ने निंदा की है। इसके विपरीत, अनेक इतिहासकारों ने इसे फ्रांस की असाधारण संकटपूर्ण स्थिति में आवश्यक बताया है।
आतंक राज्य के मूल में भय की भावना थी। क्रांतिकारी समझते थे कि भय से लोगों को देशभक्त बनाया जा सकता था। विदेशी आक्रमण का भय और देश के अंदर क्रांति के शत्रुओं के कारण पेरिस में आतंक का वातावरण निर्मित हो गया था। इस समय कठोर उपायों की आवश्यकता थी। यद्यपि दांते ने ही क्रांतिकारी न्यायाधिकरण का प्रस्ताव पास कराया था, किंतु वह रक्तपिपासु नहीं था। बाहरी और आंतरिक शत्रुओं से आतंकित करने के लिए यह आवश्यक था। न्यायाधिकरण का कार्य क्रांति के शत्रुओं के मामलों में शीघ्र निर्णय करना था।
आतंक राज्य का स्वरूप
आतंक राज्य एक छोटे-से समूह या एक व्यक्ति की तानाशाही थी। लेकिन इसे पेरिस के सर्वहारा वर्ग की तानाशाही कहना उचित नहीं है। यह अविवेकपूर्ण भी नहीं था। इसमें केवल एक दोष था कि इसे सही तरीके से लागू नहीं किया गया। जैकोबिनों ने जिरोंदिस्तों को गिलोटिन पर चढ़ाकर नष्ट कर दिया। दांते आतंक का समर्थक था। किंतु जब बाहरी और आंतरिक संकट समाप्त हो गए, तब वह आतंक राज्य समाप्त करना चाहता था। अतः अब दांते और रॉब्सपियर में संघर्ष हुआ। रॉब्सपियर आतंक का राज्य जारी रखने के पक्ष में था और अप्रैल 1794 ई. में दांते को गिलोटिन पर चढ़ाकर मार दिया गया।
रॉब्सपियर ने रूसो के विचारों तथा सदाचार के राज्य की स्थापना के लिए आतंक का प्रयोग किया। प्रैरियल महीने के कानून के बाद आतंक का राज्य चरम सीमा पर पहुँच गया। चार माह में केवल पेरिस में 1,376 व्यक्ति मारे गए। दो दिन में ही 170 लोग गिलोटिन की भेंट चढ़ गए। इस वीभत्स कांड से कन्वेंशन के सदस्य रॉब्सपियर के विरुद्ध हो गए। अंत में 27 जुलाई 1794 ई. को रॉब्सपियर को बंदी बना लिया गया और कन्वेंशन के आदेश पर उसे 90 साथियों सहित गिलोटिन पर चढ़ाकर मार दिया गया। रॉब्सपियर की मृत्यु के साथ ही आतंक का राज्य समाप्त हो गया।
आतंक राज्य समय की आवश्यकता था। थॉम्पसन लिखता है कि ‘जब सामान्य प्रशासन-तंत्र नष्ट भ्रष्ट हो गया हो और देश आंतरिक प्रतिक्रियावादियों तथा बाह्य आक्रमणकारियों के संकट में था तो ऐसी स्थिति में आतंक राज्य ही एक संभावना थी।’ लेकिन आतंक का राज्य वर्ग-संघर्ष नहीं था क्योंकि सामान्य जनता को इसका शिकार होना पड़ा था और किसी वर्ग विशेष के प्रति रक्तपात नहीं हुआ। आधुनिक मापदंड से भी आतंक का राज्य इतना रक्तपातपूर्ण नहीं था, जितना बताया जाता है। आतंक राज्य के अंतर्गत क्रांतिकारियों ने देशभक्ति को धार्मिक सिद्धांत की भाँति प्रतिपादित किया था। वास्तव में, तत्कालीन फ्रांस को इस प्रकार की दृढ़ता और बलिदान की आवश्यकता थी।
राष्ट्रीय सम्मेलन का अंत
1795 का संविधान : रॉब्सपियर की मृत्यु के बाद फ्रांस को स्वतंत्रतापूर्वक साँस लेने का अवसर मिला। धीरे-धीरे समस्त आतंकवादी व्यवस्था त्याग दी गई। इस परिवर्तन को ‘थर्मीडोर की प्रतिक्रिया’ कहा गया है। अब नरम शासन व्यवस्था आरंभ हुई। कन्वेंशन ने 1793 ई. के संविधान को निरस्त करके नया संविधान बनाया, जिसमें कार्यपालिका की शक्ति पाँच संचालकों (डाइरेक्टरों) के हाथों में रखी गई थी। मताधिकार में 1791 के संविधान का आधार रखा गया। इस प्रकार संविधान के द्वारा मध्यमवर्गीय शासन स्थापित कर दिया गया।
विसर्जन के पहले कन्वेंशन ने दो-तिहाई की घोषणा पारित की, जिसमें कहा गया था कि आगामी दोनों सदनों, वरिष्ठ परिषद् और पाँच सौ की परिषद के दो-तिहाई सदस्य कन्वेंशन के वर्तमान सदस्यों में से निर्वाचित किए जाएँगे। इससे लगता था कि कन्वेंशन आगे भी अपने हाथों में सत्ता रखना चाहती थी। कन्वेंशन का कहना था कि यह गणतंत्र को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक था और वे आगामी व्यवस्थापिका को अपने शत्रुओं के हाथों में नहीं जाने देंगे। किंतु ये घोषणाएँ अप्रजातांत्रिक थीं और पेरिस की जनता ने इनका विरोध किया। कन्वेंशन ने अपनी रक्षा के लिए बेरास को सेनापति नियुक्त किया। बेरास ने 25 वर्ष के एक कोर्सिकाई नवयुवक को, जो तोपखाने का अधिकारी रह चुका था, तुलेरीज महल, जहाँ कन्वेंशन का सभा भवन था, की रक्षा का भार सौंपा। यह नवयुवक नेपोलियन था। 5 अक्टूबर को जब पेरिस की उमड़ती सशस्त्र भीड़ ने तुलेरीज पर हमला किया, तो नेपोलियन ने तोपों की गोलाबारी की। भयंकर रक्तपात के बाद भीड़ तितर-बितर हो गई और कन्वेंशन की रक्षा हो गई। अंत में 26 अक्टूबर को कन्वेंशन विसर्जित हो गया।
निर्देशिका का शासनकाल (1795-1799 ई.)
1795 ई. के संविधान के आधार पर सीमित मताधिकार से निर्वाचन हुआ तथा व्यवस्थापिका सभा के दोनों सदनों का निर्माण हुआ और निदेशक मंडल (डाइरेक्टरी) की नियुक्ति की गई। डारेक्टरी में पाँच सदस्य थे, जिनमें कार्नों को छोड़कर कोई भी योग्य और प्रतिभाशाली नहीं था। फलतः अयोग्य और स्वार्थी निदेशक मंडल के सदस्य फ्रांस की दशा सुधारने में असमर्थ रहे। निदेशक मंडल के शासनकाल में ही नेपोलियन का उत्थान हुआ।
जैकोबिनों ने जिस प्रकार स्वतंत्रता के नाम पर रक्तपात किया था, उसके विरुद्ध फ्रांस में प्रतिक्रिया हुई, जो डाइरेक्टरी के शासनकाल के चार वर्षों में बनी रही। इस प्रतिक्रिया का केंद्र मुख्य रूप से मध्यम वर्ग था। इस मध्यम वर्ग में बहुत से जिरोंदिस्त, अभिजात वर्ग के सदस्य, पादरी सम्मिलित थे। जो वर्ग 1791 ई. के संविधान का समर्थक था, वह भी इस मध्यम वर्ग में सम्मिलित था। यह मध्यम वर्ग क्रांति को स्वीकार करता था। इनके अतिरिक्त, कट्टर सामंतों तथा पादरियों का भी एक वर्ग था, जो राजतंत्र का समर्थक था और राजतंत्र की स्थापना कर विशेषाधिकारों की प्राप्त करना चाहता था। लेकिन यह वर्ग अल्प संख्या में था। फ्रांस की बहुमत जनता ने क्रांति को स्वीकार कर लिया था। 1795 ई में उसने केवल जैकोबिनवाद का विरोध किया था। क्रांति-समर्थक होते हुए भी डाइरेक्टरी को कई कारणों से विरोध का सामना करना पड़ा-
प्रथम, डाइरेक्टरी के संविधान में 1791 ई. के संविधान के समान कार्यपालिका और व्यवस्थापिका को पूर्ण रूप से पृथक् रखा गया था। इससे डाइरेक्टरों और व्यवस्थापिका के मध्य संघर्ष हुए, जिसे केवल सेना के द्वारा ही दबाया जा सकता था। द्वितीय, दोनों सदनों में जैकोबिन दल के उदार सदस्यों का बहुमत था और वे किसी-न-किसी प्रकार अपना बहुमत बनाए रखना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि उनके विरोधी जिरोंदिस्त और राजतंत्र समर्थक सदनों में आ पाएं। 1797 ई के निर्वाचनों में उनके विरोधियों को बहुमत मिल गया था। अतः डाइरेक्टरी ने सेनापति नेपोलियन की सहायता से उस वर्ष विपक्षी सदस्यों को कौंसिलों से बहिष्कृत कर दिया। 1798 ई. में भी यही हुआ। अंत में 1799 ई. में नेपोलियन ने डाइरेक्टरों को निकाल कर डाइरेक्टरी को समाप्त कर दिया। तृतीय, डाइरेक्टरों तथा दो सदनों के मध्य संघर्ष का कारण स्वार्थपरता भी थी। डाइरेक्टर पद-त्याग करना नहीं चाहते थे और किसी-न-किसी सत्ता में बने रहना चाहते थे। चतुर्थ, फांस की आर्थिक दशा खराब होती जा रही थी। बेकारी बढ़ रही थी और मुद्रा का अवमूल्यन हो रहा था। राजस्व से आय कम हो रही थी और कर-संग्रह ठीक से नहीं हो पा रहा था। उत्पादन और व्यापार गिर रहा था। डाइरेक्टरों को इन समस्याओं को हल करने में कोई रुचि नहीं थी। अतः जनता ने सेनापति नेपोलियन बोनापार्ट को समर्थन दिया। पंचम, डाइरेक्टरी का शासन जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने में असमर्थ रहा। जनता चाहती थी कि चर्च में सुधार किया जाए, युद्ध बंद किया जाए, शांति व्यवस्था स्थापित की जाए, विशेष रूप से वित्तीय निर्माण का कार्य किया जाए। ऐसी स्थिति में डाइरेक्टरी की समाप्ति अनिवार्य हो गई थी।
इस प्रकार डाइरेक्टरी को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। आतंक राज्य समाप्त होने के बाद फ्रांस की दशा गंभीर थी। आतंक ने भय के आधार पर शांति स्थापित की थी। लेकिन इससे विशेष लाभ नहीं हुआ। शासन सत्ता अब मध्यम वर्ग के हाथों में आ गई थी, जो अपने स्वार्थों को पूरा करना चाहता था। उसे जनसामान्य के हितों की चिंता नहीं थी। सबसे गंभीर आर्थिक दुर्व्यवस्था थी। चर्च के सुधारों का भी कोई प्रयास नहीं किया गया। सबसे बड़ी समस्या विदेशी युद्धों की थी, जो आतंक का राज्य से विरासत के रूप में मिली थी। डाइरेक्टर पूरे काल में विरोधियों का ही दमन करने में लगे रहे।
युद्ध का संचालन
डाइरेक्टरी के समक्ष सबसे बड़ी समस्या युद्ध के संचालन की थी। प्रशा, स्पेन, हॉलैंड ने युद्ध बंद कर दिया था, लेकिन इंग्लैंड, आस्ट्रिया, पीडमांड और जर्मनी के छोटे राज्य अभी गणतंत्र से युद्ध कर रहे थे। डाइरेक्टरी ने सबसे पहले आस्ट्रिया पर ध्यान दिया। एक सेना जोर्दूं के सेनापतित्व में जर्मनी होकर उत्तर से आस्ट्रिया पर आक्रमण करने के लिए भेजी गई। दूसरी सेना का सेनापति नेपोलियन को बनाया गया। उसे आल्पस पार करके पीडमांड और दक्षिण से आस्ट्रिया पर आक्रमण करना था। नेपोलियन ने पीडमांड और आस्ट्रिया को निर्णायक रूप से पराजित कर दिया। परमा, मोडेना के ड्यूकों तथा नेपल्स के राजा ने नेपोलियन की आधीनता स्वीकार कर ली। नेपोलियन ने पोप से भी कुछ क्षेत्र छीन लिया और भारी धनराशि वसूल की। उसने इटली में ट्रांसेपेंडेन तथा सिसअल्पाईन गणतंत्रों की स्थापना की। आस्ट्रिया ने केम्पो फार्मियों की संधि द्वारा बेल्जियम और राइन क्षेत्र फ्रांस को देना स्वीकार किया। इन सारे कार्यों में नेपोलियन ने डाइरेक्टरों की पूर्ण उपेक्षा की और स्वेच्छाचारी शासक के रूप में स्वतंत्र व्यवहार किया।
इन विजयों के बाद नेपोलियन पेरिस वापस लौट आया। अब केवल इंग्लैंड को पराजित करने का कार्य रह गया था। लेकिन शक्तिशाली जहाजी बेड़ा न होने के कारण इंग्लैंड पर आक्रमण करना संभव नहीं था। डाइरेक्टरी ने नेपोलियन को आर्मी ऑफ इंग्लैंड का सेनापति नियुक्त किया। नेपोलियन ने मिस्र पर आक्रमण की योजना बनाई, जिससे भारत के अंग्रेजी राज्य पर आक्रमण कर अंग्रेजी व्यापार को नष्ट किया जा सके। नेपोलियन की शक्ति और लोकप्रियता से भयभीत डाइरेक्टरों ने उसकी योजना को स्वीकार कर लिया, क्योंकि वे उसको फ्रांस से बाहर रखना चाहते थे। अंग्रेजी जहाजी बेड़े से बचकर नेपोलियन अपने जहाजों और सेनाओं को मिस्र ले जाने में सफल हो गया। अंत में नेपोलियन का मिस्र अभियान असफल हो गया और 1799 ई. में फ्रांस वापस आ गया। उसकी अनुपस्थिति में इंग्लैंड, आस्ट्रिया, रूस, नेपल्स, पुर्तगाल ने फ्रांस के विरुद्ध दूसरा संघ बना लिया था। डाइरेक्टरों की नीति शांति स्थापना की नहीं थी। 1796 ई., 1797 ई. में उन्होंने इंग्लैंड के शांति प्रस्तावों की उपेक्षा की थी। जब नेपोलियन मिस्र में था, तब उन्होंने स्विट्जरलैंड, जिनेवा और रोम पर आक्रमण करके वहाँ गणतंत्रीय शासन व्यवस्था स्थापित करके उन्हें अपने अधीन कर लिया था। वास्तव में, डाइरेक्टरों की नीति थी कि युद्ध चलता रहे, फ्रांस की सेनाएँ और सेनापति विदेशों में बने रहें, सेना का व्यय उन देशों से प्राप्त होता रहे और विजित देशों से लूट का धन फ्रांस में आता रहे। द्वितीय यूरोपीय संघ बन जाने से फ्रांस की स्थिति खराब हो गई। रूसी सेनाओं ने इटली और स्विट्जरलैंड पर अधिकार कर लिया था, अंग्रेजी सेनाओं ने हॉलैंड को घेर लिया था। हालैंड और स्विट्जरलैंड में फेंच सेनाओं को विजय मिली, फिर भी फ्रांस सैनिक स्थिति निराशाजनक थी।
डाइरेक्टरी की अलोकप्रियता : डाइरेक्टरी की विदेश नीति असफल हो गई और फ्रांस में उसका विरोध बढ़ गया था। अयोग्य और भ्रष्ट डाइरेक्टरों ने स्थापित संस्थाओं को छिन्न-भिन्न कर दिया। दो बार उन्होंने व्यवस्थापिका से सैनिकों की सहायता से सदस्यों को बहिष्कृत किया। डाइरेक्टरों ने संविधान को खिलौना बना दिया था। उनकी धार्मिक नीति से पुनः धार्मिक कलह उत्पन्न हो गया और गैथोलिक चर्च उनकी विरोधी हो गई। डाइरेक्टरों ने पूँजीपतियों से बलपूर्वक ऋण लिया, जिससे वे नाराज हो गए। बेकारी और महँगाई से श्रमिक रुष्ट थे। श्रमिकों ने बाबूफ के नेतृत्व में एक समाजवादी कार्यक्रम चलाया। डाइरेक्टरों ने उनका बड़ी निर्दयता से दमन किया। कृषि, उद्योग, व्यापार सबकी दशा खराब थी। आर्थिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। ऐसे समय में नेपोलियन फ्रांस वापस आया। फ्रांस की जनता ने उसका जोरदार स्वागत किया। उसके आगमन से डाइरेक्टरों में आतंक छा गया। अब सभी परिवर्तन चाहते थे। इससे डाइरेक्टरी की समाप्ति की राह प्रशस्त हो गई।
डाइरेक्टरी का अंत : डाइरेक्टरी का शासन फ्रांस में कभी लोकप्रिय नहीं हुआ था। उसके असंवैधानिक कार्यों ने उसके शासन की जड़ें हिला दी थीं। युद्ध में पराजयों से उसका पतन निश्चित हो गया। अंत में ब्रुमेयर के विप्लव द्वारा डाइरेक्टरी को समाप्त कर दिया गया और संपूर्ण सत्ता नेपोलियन को प्रथम कौंसल के रूप में मिल गई। इस विप्लव में नेपोलियन को एबे सेइस से सहायता प्राप्त हुई। वह एक डाइरेक्टर था और संविधान का विरोधी था। नेपोलियन ने जो योजना बनाई थी वह असफल हो गई। उसकी योजना थी कि सदन यह प्रस्ताव पारित कर दे कि संविधान असफल हो गया है और समस्त सत्ता नेपोलियन तथा एबे सेइस को सौंप दी जाए जो संविधान में संशोधन प्रस्तुत करेंगे। यद्यपि उच्च सदन का बहुमत षड्यंत्रकारियों से मिला हुआ था, निचले सदन ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और सदन ने नेपोलियन के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करना चाहा। लेकिन इस समय सैनिकों ने सदन में प्रवेश करके सदन को भंग कर दिया। ऐसे संकट में नेपोलियन के छोटे भाई लूसीन बोनापार्ट ने स्थिति सँभाली। वह निचले सदन का सभापति था। अंत में दोनों सदन के सदस्यों को पुनः एकत्रित किया गया और उन्होंने प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव के अनुसार डाइरेक्टरी को समाप्त कर दिया गया और उसके स्थान पर तीन कौंसल नियुक्त किए गए- एबे सेइस, ड्यूकास और नेपोलियन। कुछ समितियों का भी निर्माण किया गया, जिनका कार्य नया संविधान बनाने में कौंसलों को सहयोग देना था। हेजन लिखता है कि तीनों कौंसलों ने गणतंत्र, स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांतों तथा प्रतिनिधि शासन प्रणाली के प्रति भक्ति की शपथ ली। सोमवार को प्रातःकाल 6 बजे प्रत्येक व्यक्ति पेरिस को वापस चला गया। सैनिक लोग भी क्रांतिकारी गाने गाते हुए अपने स्थान को लौट गए। उस समय उनका बड़ा सच्चा विश्वास था कि हमने गणतंत्र और क्रांति दोनों को बचा लिया है। पेरिस में कोई उपद्रव नहीं हुआ। इस बलपूर्वक सत्ता परिवर्तन से लोग प्रसन्न हुए।’
फ्रांस की क्रांति का स्वरूप
फ्रांस की क्रांति एक मध्यमवर्गीय क्रांति थी। इस क्रांति को करने वाला मुख्य रूप से मध्यम वर्ग था। उसके असंतोष के कारण ही यह क्रांति हुई थी। फ्रांस के क्रांतिकारी विचारों का मूल आधार मध्यम वर्ग के हित थे। फ्रांस के उद्योग, व्यापार, बैंक प्रणाली पर इस वर्ग का अधिकार था। फ्रांस का धनी वर्ग था और फ्रांस का अधिकांश धन इसी वर्ग के पास था। फ्रांस की राजनीतिक दुर्व्यवस्था तथा अकुशल प्रशासन का प्रभाव इसी वर्ग पर सबसे अधिक पड़ता था और यह वर्ग चाहता था कि कुशल प्रशासन स्थापित हो, जिससे उसके आर्थिक हित सुरक्षित हों। यह वर्ग ही राज्य को सबसे अधिक राजस्व देता था, अतः स्वाभाविक था कि वह प्रशासन में अपना भाग चाहता था। इसके लिए उसने सामंतों के विशेषाधिकारों का विरोध किया और प्रशासनिक पद सभी के लिए खोलने की माँग की। एक अन्य कारण यह भी था कि राजतंत्र की निरंकुशता तथा समाज का सामंती स्वरूप देश की प्रगति में बाधक हो गया था और प्रगति तथा विकास के लिए आवश्यक था कि समाज तथा राजनीतिक संस्थाओं में परिवर्तन किया जाए और मध्यम वर्ग को अधिकार प्रदान किए जाए। यह मध्यम वर्ग राष्ट्र में अपनी शक्ति के अनुसार सम्मान चाहता था। अतः उसका सबसे अधिक जोर समानता प्राप्त करना था, जिससे राष्ट्र में उसका महत्त्व स्थापित हो और प्रशासन उसके नियंत्रण में आ सके।
मध्यम वर्ग का नेतृत्व : मध्यम वर्ग ने क्रांति को नेतृत्व प्रदान किया था और अपने वर्ग के हितों के लिए ही कार्य किया था। इस वर्ग में ही सर्वाधिक शिक्षित तथा विद्वान थे। इस वर्ग पर ही मांटेस्क्यू, वाल्टेयर, रूसो तथा अन्य विद्वानों का गहरा प्रभाव पड़ा था। फ्रांस की पुरातन व्यवस्था से इसी वर्ग को सबसे अधिक हानि हो रही थी और यह वर्ग फ्रांस के राजनैतिक व आर्थिक दोषों से भली-भाँति परिचित था। दार्शनिक वर्ग के विद्वान भी मध्यम वर्ग के थे और अपने विचारों में उन्होंने भी बुर्जुआ वर्ग के हितों के विरुद्ध कुछ नहीं कहा था। सभी दार्शनिकों ने, यहाँ तक कि रूसो ने, संपत्ति के अधिकार का विरोध नहीं किया था। राष्ट्रीय सभा ने इस बात का प्रयास किया था कि सामंतों को उनके विशेषाधिकारों के बदले में क्षतिपूर्ति दी जाए। राष्ट्रीय सभा ने समानता के सिद्धांत की घोषणा की थी, लेकिन इसका अर्थ केवल राजनीतिक समानता था। सभा ने आर्थिक समानता अर्थात् निर्धनों तथा अमीरों के मध्य समानता स्थापित करने की बात कभी नहीं की। इसी प्रकार राष्ट्रीय सभा ने, जिसमें मध्यम वर्ग का ही बहुमत था। स्वतंत्रता तथा भ्रातृत्व की व्यवस्था भी अपने वर्ग के हितों के अनुसार की थी। स्वतंत्रता का अर्थ था राजतंत्र की निरंकुशता तथा सामंतवाद के विरुद्ध स्वतंत्रता तथा भ्रातृत्व का अर्थ था सभी लोग मिलकर इनके विरुद्ध संघर्ष करें।
क्रांति काल की पार्लियामेंटों के कार्य : एस्टेट्स जनरल में तीसरे वर्ग के जो सदस्य चुनकर आए थे, उनमें मध्यम वर्ग के प्रतिनिधि सबसे अधिक थे। यद्यपि फ्रांस में कृषकों की संख्या सबसे अधिक थी, लेकिन उन्होंने अधिकतर मध्यम वर्ग के लोगों को ही अपना प्रतिनिधि चुना था। इस वर्ग ने ही राष्ट्रीय सभा बनाने पर जोर दिया और एक व्यक्ति एक वोट की माँग की, इससे राष्ट्रीय सभा पर इसका नियंत्रण स्थापित हो गया। इसने मानव अधिकारों की घोषणा स्वीकृत की। इस घोषणा से राष्ट्रीय सभा का मध्यमवर्गीय चरित्र स्पष्ट हो जाता है। घोषणा में उन अधिकारों का उल्लेख नहीं था, जिनमें निर्धन वर्ग को रुचि होती। उसमें काम का अधिकार, जीवित रहने का अधिकार, राष्ट्रीय आय का समान वितरण या शोषण के विरुद्ध अधिकारों का उल्लेख नहीं। इसके विपरीत, कानून के समक्ष समानता, संपत्ति का अधिकार, प्रशासनिक पदों में योग्य नियुक्तियाँ, गैर-कानूनी गिरफ्तारियों से मुक्ति आदि अधिकार मध्यम वर्ग के हितों की रक्षा करते थे। घोषणा में आर्थिक समानता की बात नहीं कही गई थी। मताधिकार प्रदान करने में राष्ट्रीय सभा ने अपना उद्देश्य स्पष्ट कर दिया और नागरिकों को दो भागों, निष्क्रिय तथा सक्रिय में विभाजित कर दिया और सक्रिय नागरिकों या संपत्ति स्वामी नागरिकों को मताधिकार प्रदान किया। इस प्रकार मध्यम वर्ग सत्ता पर अपना अधिकार सुरक्षित रखना चाहता था। राजतंत्र को सीमित करके इस धनी वर्ग ने राज्य सत्ता पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। प्रशासनिक इकाइयों में भी प्रशासन पर नियंत्रण सक्रिय नागरिकों का था। इस प्रकार प्रशासन में नीचे तक इस वर्ग ने अपना नियंत्रण स्थापित कर दिया था।
राष्ट्रीय कन्वेंशन का समय राष्ट्रीय संकट का समय था। इस समय जैकोबिन दल ने राष्ट्र की रक्षा की। जैकोबिन दल निर्धनों विशेष रूप से श्रमिकों, बेरोजगारों, संपत्तिहीन व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करता था। जैकोबिन दल के समय हरबर्ट ने अपने पत्र द्वारा समाजवादी विचारों का तथा संपत्ति के वितरण का प्रचार किया था। पेरिस कम्यून और नेशनल गार्ड्स में निर्धन व्यक्तियों का प्रभुत्व था। लेकिन जैकोबिन दल का पतन हुआ। बुर्जुआ वर्ग ने सेना की सहायता से जैकोबिन सत्ता को समाप्त कर दिया।
डाइरेक्टरी का शासन स्पष्ट रूप से बुर्जुआ शासन था। 1794 ई. से 1799 ई. तक उसने जैकोबिन दल के सदस्यों को कुचलने में पूरी शक्ति लगाई। उसने बाबूफ के समाजवादी आंदोलन का निर्दयता से दमन किया। बस्तील दुर्ग का पतन पेरिस के श्रमिकों तथा निर्धन लोगों का कार्य था। इस शक्ति ने ही राष्ट्रीय सभा को राजतंत्र और सेना से मुक्ति दिलाई थी। डाइरेक्टरी को अपनी रक्षा के लिए इन वर्गों का सहयोग प्राप्त नहीं था, बल्कि इसके विपरीत निर्धन वर्गों को कुचलने के लिए वह सेना के सहयोग पर निर्भर था। इस निर्भरता के कारण ही 1799 ई. में सैनिक तानाशाही स्थापित हुई। 1799 ई. में प्रजातंत्र के समाप्त होने का मुख्य कारण यह था कि अब प्रजातंत्र जड़ हो गया था। प्रजातंत्र का अर्थ केवल मध्यमवर्गीय शासन रह गया, जो सत्ता अपने हाथों में बनाए रखने के लिए निर्धन वर्गों को कुचलना चाहता था। नेपोलियन स्वयं मध्यमवर्गीय व्यक्ति था। अतः सैनिक तानाशाही भी बुर्जुआ शासन का दूसरा रूप था। नेपोलियन ने श्रमिकों को संघ बनाने या हड़ताल करने का अधिकार नहीं दिया। उसका कोड बुर्जुआ हितों की रक्षा करता था।
फ्रांस की क्रांति का राजनीतिक महत्त्व यह है कि इसने राजा और सामंतों से सत्ता मध्यम वर्ग को हस्तांतरित कर दी। लेकिन क्रांति के अन्य पक्ष भी थे। यह सामाजिक क्रांति थी और इसने फ्रांस में समानता के आधार पर फ्रांसीसी समाज का गठन किया। क्रांति ध्वंसात्मक थी क्योंकि इसने मध्ययुगीन संस्थाओं को नष्ट कर दिया। क्रांति ने प्रजातंत्र की स्थापना की और सामंतवाद को समाप्त किया और जनता की प्रभुसत्ता स्थापित की। अंत में फ्रांस की क्रांति केवल स्थानीय महत्त्व की घटना नहीं थी। इसका अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व भी है। इसने जिन मानव अधिकारों की घोषणा की, वे सार्वजनिक और सार्वदेशिक थे। क्रांति ने विश्व के अन्य देशों के नागरिकों को भी स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व का संदेश दिया। 1792 ई. में फ्रांस के क्रांतिकारियों ने यह भी घोषणा की कि वे अन्य देशों की पददलित जनता को सहायता करने को तैयार थे, जो निरंकुश राजतंत्र तथा सामंती विशेषाधिकारों से मुक्त होना चाहते थे। इस दृष्टि से फ्रांस की क्रांति एक विश्वव्यापी घटना थी।
1789 ई. की फ्रांस की क्रांति का महत्त्व और परिणाम
फ्रांस की क्रांति का विश्व के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह युगांतरकारी घटना थी, जिसने विश्व इतिहास को नवीन दिशा प्रदान की। यह सत्य है कि क्रांति काल में व्यापक रक्तपात हुआ और व्यक्तिगत तथा दलीय कारणों से गंभीर अमानवीय कार्य भी हुए। लेकिन इनके आधार पर क्रांति को अप्रगतिशील या अराजकतावादी मानना उचित नहीं है। क्रांति की मुख्य देन गणतंत्र तथा मानव अधिकार थे, जिन्होंने विश्व के सभी देशों को प्रेरणा प्रदान की है। फ्रांस के क्रांतिकारियों ने क्रांति की रक्षा के लिए विशाल राष्ट्रीय सेनाओं का निर्माण किया और यूरोप की संयुक्त शक्तियों को पराजित किया। फ्रांस ने राष्ट्रीयता तथा उदारवाद की जिन अदम्य आकांक्षाओं को जन्म दिया, 1917 ई. तक यूरोप के देशों में इन्हीं का आंदोलन चलता रहा।
विधान सभाओं के कार्य: 1789 ई. से 1795 ई. तक फ्रांस में विधान सभाओं ने जो कार्य किए उसकी कल्पना कोई भी व्यक्ति नहीं कर सकता था। एस्टेट्स जनरल के निर्वाचनों में ऐसी कोई बात नहीं थी जिससे अनुमान हो सकता कि क्रांति होने जा रही थी। राष्ट्रीय सभा में अधिकांश मध्यमवर्गीय सदस्य थे, लेकिन उन्होंने जो कार्य किए वे क्रांतिकारी थे। उन्होंने सामंतवाद समाप्त किया, मानव अधिकारों की घोषणा की, चर्च की संपत्ति जब्त की, पादरियों का संविधान बनाया, वैधानिक राजतंत्र की स्थापना की। हेज ने लिखा है कि ‘किसी विधायिका ने इतने कम समय में इतना विशाल कार्य नहीं किया।’ क्रोपाटकिन का मत है कि ‘संविधान सभा का कार्य निःसंदेह मध्यमवर्गीय कार्य था। लेकिन बहुत-सी समस्याएँ छोड़ दी। उसने भीड़ का मार्ग प्रशस्त किया था।’ व्यवस्थापिका सभा को विदेशी आक्रमण तथा आंतरिक विद्रोहों का सामना करना पड़ा। सभा में जिरोंदिस्त तथा जैकोबिन दलों की शक्ति बढ़ गई और क्रांति तथा फ्रांस की रक्षा का भार उनके कंधों पर आ गया। वे योग्य तथा साहसी व्यक्ति थे। उन्होंने कन्वेंशन के लिए चुनाव कराये, नवीन सेनाओं का गठन किया। कन्वेंशन को कठोर समस्याओं का सामना करना पड़ा। उसने गणतंत्र स्थापित किया, विदेशी आक्रमण से तथा आंतरिक विद्रोहों से फ्रांस की रक्षा की। विशाल क्षेत्रों को जीतकर फ्रांस में मिला लिया गया। एक असाधारण व्यवस्था आतंक राज्य स्थापित किया। उसके अति कार्यों से प्रतिक्रिया हुई। डाइरेक्टरी का काल नेपोलियन के उत्थान का काल था। कन्वेंशन के विरुद्ध जो प्रतिक्रिया आरंभ हुई, उसने अंततः सैनिक तानाशाही को जन्म दिया।
यद्यपि क्रांति ने अंततः सैनिक तानाशाही को जन्म दिया, लेकिन इससे इसके गौरवपूर्ण इतिहास का महत्त्व कम नहीं होता। हॉलैंड रोज लिखता है रू यह क्रांति विचार, समाज और राजनीति के क्षेत्र में एक ऐसी विजय है जो अव्यवस्था, विशेषाधिकार तथा निरंकुश शासन से युक्त पुरातन शासन प्रणाली को पार कर गई थी।’
हेजन ने क्रांति के महत्त्व के बारे में लिखा है कि ‘फ्रांस की क्रांति ने राज्य के संबंध में एक नई धारणा को जन्म दिया, राजनीति तथा समाज के विषय में नए सिद्धांत प्रतिपादित किए, जीवन का एक नया दृष्टिकोण सामने रखा और एक नई आशा और विश्वास को जन्म दिया।’ क्रांति ने फ्रांस में आमूल परिवर्तन कर दिया, यह 1789 ई. के फ्रांस की तुलना क्रांतिकारी फ्रांस से करके जाना जा सकता है-
निरंकुश राजतंत्र की समाप्ति : 1789 ई. में फ्रांस में निरंकुश राजतंत्र था। राजा दैवीय अधिकार के सिद्धांत के अनुसार कार्य करता था। उसकी इच्छा ही कानून था। क्रांति ने इस स्वेच्छाचारी राजतंत्र को समाप्त करके जनता की संप्रभुता के सिद्धांत पर पहले संवैधानिक राजतंत्र तथा उसके असफल होने पर गणतंत्र की स्थापना की। क्रांति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण परिणाम गणतंत्र की स्थापना करना था। इसके बाद यूरोप के अन्य देशों में भी निरंकुशता के विरुद्ध आंदोलन आरंभ हुए। इस प्रकार 19वीं शताब्दी यूरोप में प्रजातंत्र या संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना का युग बन गई। फ्रांस की क्रांति ने यूरोप की जनता को संदेश दिया कि वे संगठित होकर राजनीतिक परिवर्तन कर सकती थीं।
सामंतवाद का अन्त: क्रांति की दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि सामंतवाद को समाप्त करना था। क्रांति से पूर्व फ्रांस का समाज विशेषाधिकारों के आधार पर संगठित था। ये सामंती विशेषाधिकार मध्य युग की देन थे। यह प्रथा राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक विकास में बाधक हो गई थी। फ्रांस की क्रांति ने सामंती विशेषाधिकारों को समाप्त करके आधुनिक युग का सूत्रपात किया। इससे समानता स्थापित हुई। सामंतवाद के अंतर्गत घृणित दास प्रथा को समाप्त करके क्रांति ने मानव गरिमा को स्थापित किया। इससे मानवीय स्वतंत्रता तथा समानता के आदर्श स्थापित हुए। सामंती विशेषाधिकार की आड़ में जो सामंती और चर्च को कर अत्याचार और उत्पीड़न के साधन थे, उन्हें भी क्रांति ने समाप्त कर दिया। नाकीकात की अनुकरण पर ही यूरोप के अन्य देशों में भी सामंतवाद के विरुद्ध आंदोलन आरंभ हुए और विशेषाधिकारों को समाप्त किया गया। इस प्रकार फ्रांस की क्रांति की प्रेरणा से अन्य देशों में समानता की स्थापना हुई।
धर्मनिरपेक्ष राज्य का प्रादुर्भाव : मध्ययुगीन चर्च के अधिकारों को समाप्त करके क्रांति ने फ्रांस में धार्मिक स्वतंत्रता का युग आरंभ किया। क्रांति ने सामंतो के विशेषाधिकारों को समाप्त किया और उसकी भूमि जब्त कर ली। क्रांति ने चर्च को विलासितापूर्ण जीवन को समाप्त कर नैतिक स्तर को ऊँचा किया। क्रांति ने वैचारिक परिवर्तन की स्थापना भी की और त्रधर्म के प्रति सहिष्णुता का दृष्टिकोण विकसित किया। क्रांति ने सभी संप्रदायों को धार्मिक स्वतंत्रता दी, जिससे यूरोप में धार्मिक स्वतंत्रता का युग आरंभ हुआ। मध्ययुग में धर्म के नाम पर जघन्य अत्याचार हुए थे तथा धार्मिक प्रश्नों पर राष्ट्रों के मध्य युद्ध भी हुए थे। इन युद्धों तथा धार्मिक अत्याचारों का मुख्य कारण यह था कि राजा अपने धर्म को अपने सभी नागरिकों पर थोपना चाहते थे। जो लोग दूसरे धर्म के अनुयायी होते थे, उन्हें प्राणदंड दिया जाता था। फ्रांस की क्रांति ने इस दृष्टिकोण को बदल दिया। क्रांति के समय फ्रांस में लोगों ने माँग की थी कि धर्म और राज्य के मध्य संबंध विच्छेद रखा जाए, सभी को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की जाए। अतः क्रांति ने धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया और राज्य को धर्मनिरपेक्ष बनाने की दिशा में कार्य किया। यह सिद्धांत स्थापित हो गया कि धर्म व्यक्तियों का व्यक्तिगत मामला होता था। इसमें राज्य को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं थी।
मानवीय गौरव की स्थापना : फ्रांस की क्रांति की एक महान देन यह है कि इसने मानवीय गौरव और प्रतिष्ठा की स्थापना की। क्रांति के आरंभ में ही मनुष्य के अविच्छिन्न अधिकारों की घोषणा की गई थी। इस घोषणा की महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि ये अधिकार केवल फ्रांस के नागरिकों के लिए ही नहीं थे, बल्कि समस्त विश्व के मनुष्यों के लिए घोषित किए गए थे। घोषणा में कहा गया था कि सभी मनुष्यों के अधिकार समान हैं, अतः सभी देशों के नागरिकों को ये अधिकार मिलने चाहिए। मध्ययुग में व्यक्ति को समाज में महत्त्व प्राप्त नहीं था। अब व्यक्ति को महत्त्व दिया गया। क्रांति ने प्रत्येक मनुष्य को स्वतंत्रता तथा समानता का अधिकार देकर उसे गौरव प्रदान किया। अब उसे कानून की समानता तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त थी। इससे व्यक्ति का समाज में महत्त्व स्थापित हुआ। राजनीतिक दृष्टि से मनुष्य का महत्त्व स्थापित हुआ। अब संप्रभुता का निवास उसमें माना गया। उसके मत के द्वारा ही सरकार का गठन होता था और उसकी इच्छा के अनुसार कानून का निर्माण किया जाता था। इस प्रकार समाज में प्रत्येक व्यक्ति को गौरव प्राप्त हुआ। राज्य की शक्ति उसके गौरव या सम्मान को कम नहीं कर सकती थी। राज्य उसके अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। बाद में जितने भी आंदोलन यूरोप या विश्व के अन्य भागों में हुए सभी में व्यक्ति की गरिमा तथा सम्मान को एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बनाया गया।
राष्ट्रवाद का उदय : फ्रांस की क्रांति ने राष्ट्रीयता के सिद्धांत को यूरोप तथा विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। क्रांति के पूर्व सारे यूरोप में, इंग्लैंड को छोड़कर निरंकुश राजतंत्र था। क्रांति ने फ्रांस के क्रांतिकारियों ने क्रांति की रक्षा के लिए राष्ट्रीय भावना को जागृत किया। क्रांति ने फ्रांस में जो अदम्य राष्ट्रीय भावना उत्पन्न की थी, उसी के आधार पर उसने राष्ट्र की रक्षा के लिए राष्ट्रीय सेनाओं का निर्माण किया। इसी राष्ट्रीयता की भावना के कारण फ्रांस ने सारे यूरोप को पराजित कर दिया। यह राष्ट्रीयता की भावना यूरोप के अन्य देशों में भी फैली और उनमें भी राष्ट्रीय आंदोलन आरंभ हुए। 19वीं शताब्दी यूरोप का इतिहास राष्ट्रीय आंदोलनों का इतिहास है। बेल्जियम, नार्वे, जर्मनी, इटली, पोलैंड, आस्ट्रिया तथा बाल्कान के राज्यों में ये राष्ट्रीय आंदोलन चलते रहे और गए और इनमें राष्ट्रीय एकीकरण या राष्ट्रीय स्वतंत्रता प्राप्त की।
समाजवादी सिद्धांत का प्रसार : फ्रांस की क्रांति के फलस्वरूप समाजवादी सिद्धांत का प्रसार हुआ, जिसमें निर्धन तथा श्रमिक वर्ग की प्रेरणा थी। फ्रांस के क्रांतिकारी जैकोबिन दल ने समाजवादी विचारों का प्रसार किया। जैकोबिन दल ने निर्धनों विशेष रूप से श्रमिकों, बेरोजगारों, संपत्तिहीन व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व किया। जैकोबिन दल के समय हरबर्ट ने अपने पत्र द्वारा समाजवादी विचारों का तथा संपत्ति के वितरण का प्रचार किया था। पेरिस कम्यून और नेशनल गार्ड्स में निर्धन व्यक्तियों का प्रभुत्व था। लेकिन जैकोबिन दल का पतन हुआ। बुर्जुआ वर्ग ने सेना की सहायता से जैकोबिन सत्ता को समाप्त कर दिया। डाइरेक्टरी के काल में बाबूफ ने भी आर्थिक समानता स्थापित करने के लिए आंदोलन किया था। उग्र जैकोबिन डाइरेक्टरी को धनी लोगों का शासन मानते थे। बाबूफ ने ‘समान लोगों का गणतंत्र’ नामक गुप्त क्रांतिकारी समिति बनाई थी, जो 1793 ई. के संविधान को लागू कराना चाहती थी। उसने विद्रोह की योजना बनाई थी, जिससे अमीर और गरीब का भेद मिटा दिया जाए। लेकिन षड्यंत्र खुल गया और सरकार ने निर्दयता से इन उग्र जैकोबिनों का दमन कर दिया। बाबूफ को प्राणदंड दिया गया, लेकिन बाबूफवाद अमर हो गया और श्रमिकों तथा निर्धनों को प्रेरणा देता रहा।
जन-आंदोलनों का आरंभ होना : फ्रांस की क्रांति पहला जन-आंदोलन था, जिसमें सभी वर्गों ने भाग लिया था। बस्तील दुर्ग का पतन इस जन-आंदोलन का पहला उदाहरण था। इसके बाद पेरिस की जनता ने कम्यून सरकार और नेशनल गार्ड्स का गठन किया। इसने जन-आंदोलनों को प्रेरणा दी और संपूर्ण फ्रांस के नगरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में इसी प्रकार जन-आंदोलन हुए। इन जन-आंदोलनों में राजनीतिक क्लबों जैसे जैकोबिन क्लब तथा कोर्डेलियर क्लब का महत्त्व भी स्थापित हुआ, क्योंकि इन क्लबों ने ही राजनीतिक शिक्षा तथा संगठन का कार्य किया। फ्रांस की इस जन-जागृति तथा जन-आंदोलनों का यूरोप के अन्य देशों पर भी प्रभाव पड़ा। इटली और जर्मनी तथा इंग्लैंड में भी इस प्रकार के क्लबों या पार्टियों का संगठन किया गया, जिन्होंने जन-आंदोलनों को चलाया। फ्रांस की क्रांति ने गणतंत्र की विचारधारा को स्थापित किया और यह दिखा दिया कि इसका सफलतापूर्वक संचालन हो सकता था। यद्यपि आगामी शताब्दी में यूरोप के शासकों का मुख्य कार्य प्रजातंत्रीय भावना के प्रसार को रोकना था, यद्यपि वे सफल नहीं हो पाए और सभी देशों में जनता की संप्रभुता के सिद्धांत को स्वीकार किया गया। फ्रांस की क्रांति ने यूरोपीय देशों की जनता को प्रेरणा दी कि वे अत्याचारी निरंकुश राजतंत्र को समाप्त करके गणतंत्रीय सरकारें स्थापित करें।
जनकल्याणकारी राज्य का उद्भव : फ्रांस की क्रांति ने इस विचार को जन्म दिया कि सरकार का कार्य जन-कल्याण करना होता है। राष्ट्रीय सभा ने चर्च की संपत्ति को जब्त करके यह प्रमाणित कर दिया कि राष्ट्र के कल्याण के लिए संपत्ति जब्त की जा सकती थी। चर्च के पादरियों को वेतन स्वीकार करके यह भी सिद्ध किया कि सरकार जनता के प्रति उत्तरदायित्व भी रखती थी। फ्रांस की क्रांतिकारी सरकार ने मूल्यों को नियंत्रित करके, आपूर्ति को संगठित करके, मुद्रा तथा व्यापार को नियंत्रित करके, शिक्षा की योजना बना कर और दास प्रथा को पूर्णरूप से समाप्त करके यह प्रदर्शित किया कि सरकार का उत्तरदायित्व है कि वह जनता के कल्याण का कार्य करें। इस प्रकार सरकार की अवधारणा में परिवर्तन हुआ और उसके कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ। इसके साथ ही सरकार ने अनिवार्य सैनिक सेवा को लागू करके यह सिद्धांत भी स्थापित किया कि राष्ट्र की सुरक्षा करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य था।
नवीन सिद्धांतों की स्थापना : फ्रांस की क्रांति ने विश्व को स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व के स्थायी संदेश दिए। नेपोलियन के उत्थान से तथा सैनिक तानाशाही की स्थापना से इन सिद्धांतों का महत्त्व कम नहीं होता। नेपोलियन स्वयं क्रांति की उत्पत्ति था और उसने क्रांति के सिद्धांतों को स्वीकार किया था। स्वतंत्रता का अर्थ था स्वधर्म पालन करने का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, संपत्ति रखने की स्वतंत्रता, जिन्हें फ्रांस की क्रांति ने समस्त नागरिकों को प्रदान किया। समानता का अर्थ था विशेषाधिकारों की समाप्ति, अर्द्धदासता की समाप्ति, सामंतवाद की समाप्ति, कानून के समक्ष समानता, अवसर की समानता। वास्तव में, फ्रांस की क्रांति एक सामाजिक क्रांति थी, जिसने समानता के आधार पर समाज का पुनर्गठन किया। भ्रातृत्व का अर्थ था एक सौहार्द्रपूर्ण मानव समाज, जिसमें सभी सदस्य इस विश्व को सुख तथा शांति से पूर्ण स्थान बनाना चाहते हों। इस सिद्धांत ने फ्रांस की क्रांति में राष्ट्रीय भावना को शक्तिशाली बनाया। क्रांति ने सारे विश्व के लिए भ्रातृत्व का संदेश दिया।
क्रांति के कुछ ऐसे भी परिणाम हुए जिसकी कल्पना क्रांतिकारियों ने 1789 ई. में नहीं की थी। इतिहासकार सिगनोबास ने लिखा है कि ‘ये क्रांतिकारी एकतंत्र का विनाश चाहते थे, लेकिन उसके स्थान पर गणतंत्र की स्थापना हुई। वे आर्थिक सुधार चाहते थे, लेकिन देश दिवालिया हो गया। वे चर्च का संगठन चाहते थे, लेकिन उसे उन्होंने अस्त-व्यस्त कर दिया। वे स्वयंसेवक सेना बनाए रखना चाहते थे लेकिन उन्होंने सैनिक सेवा को अनिवार्य बना दिया। अंत में उन्होंने फ्रांस को ऐसे युद्ध में झोंक दिया जो दीर्घकाल तक चलता रहा।’ इस कथन में सत्यता है, लेकिन क्रांति में विनाश अवश्यम्भावी होता है। विनाश के बाद ही निर्माण संभव है। हालैंड रोज का मत है कि फ्रांस को क्रांति ने एक नवीनता को आरंभ किया। फ्रेंच इतिहासकार डी टॉकविले ने फ्रांस से उत्पन्न प्रेरणा तथा उत्साह की तुलना एक नवीन धर्म से की है जो अनुयायियों को शक्ति प्रदान करता है: ‘यह अपने में ही एक धर्म बन गया। एक धर्म जिसने इस्लाम के समान अपने सैनिकों को, अपने अनुयायियों को, अपने शहीदों को बाढ़ की तरह उत्पन्न कर दिया।’ मेरियट का विचार है कि फ्रांस की क्रांति ने अमेरिकन क्रांति का कार्य पूरा किया। यदि अमेरिका की क्रांति ने स्वतंत्रता का बीजारोपण किया, तो फ्रांस की क्रांति ने उस बीज को अंकुरित किया।
फ्रांस की क्रांति का विश्व पर प्रभाव
फ्रांस की क्रांति एक स्थानीय घटना ही नहीं थी; इसका यूरोप के अन्य देशों पर गहरा प्रभाव पड़ा था। फ्रांस के क्रांतिकारियों ने यूरोप के अन्य देशों की पददलित जनता को आश्वासन दिया कि राजतंत्र तथा सामंतों के अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए वे उनकी सहायता करने को तैयार थे। युद्ध आरंभ होने के बाद फ्रांस की सेनाएँ जहाँ-जहाँ गई उन देशों में उन्होंने स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व का संदेश फैलाया। उन देशों की जनता ने भी उनका उद्धारक के रूप में स्वागत किया। नेपोलियन ने अपने प्रथम इटालियन अभियान में आस्ट्रिया से मुक्त क्षेत्रों में गणराज्यों की स्थापना की। इटली में द्वितीय अभियान के समय नेपोलियन ने संविधान तथा कोड को भी इटली में लागू किया था। नेपोलियन ने जर्मनी में राष्ट्रीय एकीकरण का कार्य आरंभ किया। वास्तव में, जर्मनी और इटली के राष्ट्रीय एकीकरण का कार्य आरंभ करने का श्रेय नेपोलियन को था। इस प्रकार फ्रांस की क्रांति का यूरोप पर एक महत्त्वपूर्ण प्रभाव यह था कि इसने यूरोपीय देशों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न की।
उदारवाद का प्रसार
फ्रांस की क्रांति का दूसरा प्रभाव यह था कि इसने उदारवाद या संवैधानिक शासन की स्थापना को प्रोत्साहित किया। यूरोप के सभी देशों में निरंकुश राजतंत्र तथा मध्ययुगीन सामंतवाद के विरुद्ध आंदोलन आरंभ हुए। फ्रांस के क्रांतिकारी कन्वेंशन के समय में ही साम्राज्यवादी नीति पर चलने लगे थे। उन्होंने बेल्जियम, हॉलैंड, राइन क्षेत्र, उत्तरी इटली के विशाल क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। नेपोलियन के काल में यह साम्राज्यवादी नीति अधिक उग्र हो गई। अतः शक्ति संतुलन की स्थापना के लिए इंग्लैंड फ्रांस को 1789 ई. की सीमाओं में रखना आवश्यक समझता था। क्रांति के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर क्रांति का संदेश अन्य देशों में फैला। इटली और जर्मनी तथा इंग्लैंड में भी इस प्रकार के क्लबों या पार्टियों का संगठन किया गया, जिन्होंने जन-आंदोलनों को चलाया।
यूनान के स्वतंत्रता युद्ध पर क्रांति का प्रभाव
फ्रांस की क्रांति का यूरोप पर जो प्रभाव पड़ा था उसकी सबसे पहली अभिव्यक्ति यूनान के स्वतंत्रता युद्ध में हुई। यूनान तुर्की साम्राज्य के अंतर्गत था। 1815 ई. के बाद यूनान में राष्ट्रीयता तथा स्वतंत्रता की आकांक्षा शक्तिशाली हो रही थी। इस राष्ट्रीय जागृति का मूल कारण फ्रांस की क्रांति का प्रभाव था। यूनान के समीपवर्ती क्षेत्रों पर नेपोलियन के समय में अधिकार रहा था। उसके प्रशासन से यूनान का मध्यम वर्ग प्रभावित था और स्वतंत्र यूनान राष्ट्र की स्थापना करना चाहता था। यूनान का गौरवशाली इतिहास था। तुर्की साम्राज्य में उन्हें पद प्राप्त थे और उनमें राजनीतिक जागृति थी। 1814 ई. में यूनान की स्वतंत्रता के लिए एक प्रमुख गुप्त क्रांतिकारी दल की स्थापना की गई थी, जिसका नाम हेटैरिया फिलिके था। इस क्रांतिकारी संस्था ने स्वातंत्र्य युद्ध का संचालन किया। इस युद्ध का संचालन प्रिंस हिप्सिलांती ने किया था। रूसी सेना के कुछ अधिकारी भी इस विद्रोह में सम्मिलित हो गए। रूस और यूनान दोनों ग्रीक ऑर्थाेडॉक्स चर्च के अनुयायी थे। इसलिए रूस को यूनान के स्वातंत्र्य युद्ध के प्रति सहानुभूति थी। हजारों ग्रीक नवयुवक इस संस्था में सम्मिलित हो गए। 1820 ई. में इस संस्था के पाँच लाख सदस्य थे।
1820 ई. में यूनानियों ने विद्रोह कर दिया। 1821 ई. में विद्रोहियों ने एक घोषणा प्रकाशित की जिसमें समस्त बाल्कान जनता से तुर्की शासन के विरुद्ध इस युद्ध में शामिल होने का आह्वान किया गया था। विद्रोहियों को पूर्ण विश्वास था कि रूस से सहायता प्राप्त होगी। लेकिन मेटरनिख ने रूस को हस्तक्षेप करने से रोक दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि विद्रोह असफल हो गया। तुर्की ने विद्रोह को निर्दयतापूर्वक कुचल दिया। हिप्सिलांती को अपना सारा जीवन बंदीगृह में बिताना पड़ा। इसके बाद भी यूनानी देशभक्त युद्ध करते रहे। यह स्वतंत्रता का जन-आंदोलन था और तुर्की इसके दमन में सफल नहीं हो सकता था। तुर्कों ने हजारों यूनानियों को मार डाला और जघन्य अत्याचार किए, फिर भी विद्रोह चलता रहा। यूरोप के अन्य देशों से हजारों स्वयंसेवक यूनानियों की सहायता के लिए यूनान पहुँचे। इनमें इंग्लैंड का कवि लॉर्ड बायरन प्रसिद्ध है।
1824 ई. में तुर्की के सुल्तान ने यूनान के विद्रोह का दमन करने के लिए मिस्र के गवर्नर मेहमत अली से सहायता माँगी। मेहमत अली ने अपने पुत्र इब्राहीम पाशा को जहाजी बेड़े के साथ यूनान पर आक्रमण करने के लिए भेज दिया। उसने विद्रोहियों पर भीषण आक्रमण किया और हजारों यूनानियों को मार डाला। 1827 ई. में एथेंस का पतन हो गया और इसके साथ ही यूनानियों का विद्रोह दुर्बल हो गया। लेकिन यूरोप में अनेक देश यूनानियों के दमन से क्षुब्ध थे और उनकी सहायता करना चाहते थे। रूस का नया जार निकोलस प्रथम यूनान के स्वातंत्र्य युद्ध के पक्ष में था और मेटरनिख का उस पर कोई प्रभाव नहीं था। इंग्लैंड में कैनिंग विदेशमंत्री था और वह भी स्वतंत्रता आंदोलनों के पक्ष में था। इस प्रकार यूरोपीय स्थिति यूनान के देशभक्तों के पक्ष में हो गई। इंग्लैंड और रूस के मध्य संधि हो गई, जिसमें निश्चय किया गया कि यूनान को स्वशासी देश बनाया जाए। उन्होंने तुर्की के सुल्तान से माँग की कि यूनान को स्वशासन दिया जाए। सुल्तान ने इस माँग को स्वीकार नहीं किया। इस पर इंग्लैंड और रूस ने अपने जहाजी बेड़ों को यूनान की नेवोरिनों खाड़ी में भेज दिया, जहाँ इब्राहीम पाशा का जहाजी बेड़ा पड़ा हुआ था। यहाँ समुद्री युद्ध में अंग्रेजी और रूसी बेड़े ने इब्राहीम पाशा के बेड़े को नष्ट कर दिया। इसके साथ ही यूनान की स्वतंत्रता व्यावहारिक रूप से स्थापित हो गई। 1829 ई. में तुर्की ने एड्रियानोपुल की संधि में यूनान की स्वतंत्रता को स्वीकार कर लिया।
इटली में क्रांति का प्रभाव
नेपोलियन ने इटली का एकीकरण करके उसको राष्ट्रीय एकता तथा संवैधानिक शासन के लाभ प्रदान किए थे। 1815 ई. के बाद इटली को विजेताओं ने पुनः टुकड़ों में बाँट दिया और उसकी राष्ट्रीय भावनाओं को नष्ट करने का प्रयास किया। लेकन इटली के देशभक्त अपने देश को एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाना चाहते थे। उन पर फ्रांस की क्रांति का गंभीर प्रभाव था। नेपल्स के राज्य में नेपोलियन के समय के कुछ कानूनों को सुरक्षित रखा गया, लेकिन प्रायः सभी 10 राज्यों में क्रांति के प्रभावों को नष्ट करके प्रतिक्रियावादी शासन स्थापित किए। मेटरनिख उपहास में इटली को एक भौगोलिक इकाई कहता था। इसका विरोध करने के लिए इटली के देशभक्त और प्रजातंत्र वादी उठ खड़े हुए। सारे इटली में गुप्त क्रांतिकारी समितियों का गठन किया गया। इनमें कारबोनारी सबसे प्रसिद्ध थी। इन क्रांतिकारी समितियों का उद्देश्य विदेशी शासकों को निकाल कर इटली को एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाना था। इन गुप्त समितियों में सभी वर्गों जैसे कुलीन वर्ग, सैनिक, आदर्श लोग, मध्यम वर्ग आदि सम्मिलित थे।
1820 ई. में इटली में विद्रोह हो गया। यह विद्रोह नेपल्स के कारबोनारी ने कराया था। नेपल्स के शासक फर्डिनेंड ने भयभीत होकर एक संविधान स्वीकृत कर दिया। लेकिन आस्ट्रिया का प्रधानमंत्री मेटरनिख विद्रोह को कुचलने के लिए कृत-संकल्प था। उसने एक आस्ट्रियन सेना को नेपल्स में भेज दिया, जिसने विद्रोहियों का दमन कर दिया। नेपल्स के शासक ने भी संविधान निरस्त कर दिया। इसके बाद पीडमांड और लोम्बार्डी में विद्रोह हो गया। इनका भी आस्ट्रियन सेनाओं ने दमन किया। इस प्रकार विद्रोहों का दमन हो गया, लेकिन इटली के लोगों में क्रांति की बलवती आकांक्षाएँ बनी रहीं। 1830 ई. में इटली में क्रांतिकारी आंदोलन पुनः फूट पड़े। रोमेग्ना, पार्मा और मोडेना में विद्रोहियों ने सफलता भी प्राप्त की। इस बार भी आस्ट्रिया ने सेनाएँ भेजकर विद्रोहों का दमन किया। इस प्रकार फ्रांस की क्रांति के प्रभाव में इटली अपनी राष्ट्रीय एकता तथा स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करता रहा।
जर्मनी में क्रांति का प्रभाव
जर्मनी पर फ्रांस की क्रांति का प्रभाव जेना के युद्ध के पश्चात् एक उफान के रूप में प्रकट हुआ। जेना के बाद प्रशा को घोर अपमान सहना पड़ा था। अनेक वर्षों तक वह पददलित कराहता रहा। इसी अधःपतन में उसकी आत्मा जागृत हुई और राष्ट्र का पुनरुत्थान हुआ। अनेक राष्ट्रवादी लेखक हुए जिन्होंने नवयुवकों में निःस्वार्थ देशभक्ति की भावना प्रज्वलित कर दी। इस राष्ट्रीय नवजागरण ने नेपोलियन पर विजय प्राप्त की। लेकिन वियेना सम्मेलन में जर्मनी की राष्ट्रीय एकता की उपेक्षा की गई। यह भी महत्त्वपूर्ण तथ्य था कि राइन संघ बनाकर नेपोलियन ने ही जर्मन राष्ट्रीय एकता का आरंभ किया था। वियेना सम्मेलन ने 38 राज्यों के जर्मन परिसंघ की स्थापना की। जर्मन देशभक्तों को आशा थी कि जार अलेक्जेंडर प्रथम के प्रभाव से वे जर्मन राष्ट्रीयता को स्थापित करने में सफल होंगे। लेकिन आस्ट्रिया और प्रशा के मतभेदों के कारण जर्मन राष्ट्र की स्थापना नहीं हो सकी। 1815 ई. के जर्मनी में निराशा और असंतोष था। अब राष्ट्रीय जागृति के केंद्र विश्वविद्यालय बन गए। 1817 ई. में विभिन्न विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी संघों के प्रतिनिधियों ने वार्टवर्ग में एक देशभक्तिपूर्ण समारोह का आयोजन किया। इस उत्सव का राष्ट्रीय महत्त्व था। उन्होंने शासकों के प्रतिक्रियावादी शासन की आलोचना की। कुछ समय बाद एक जर्मन विद्यार्थी ने कोटजेब्यू की हत्या कर दी जिसे रूसी भेदिया समझा जाता था। इन घटनाओं से मेटरनिख को जर्मनी में राष्ट्रवाद तथा उदारवाद को कुचलने का अवसर प्राप्त हो गया। 1819 ई. में उसने भयभीत राजाओं से कार्ल्सवाद घोषणाओं को पारित करा लिया। इससे राष्ट्रवादी आन्दोलन का दमन किया गया। प्रेस पर नियंत्रण, विश्वविद्यालयों पर नियंत्रण स्थापित किए गए। इस प्रकार मेटरनिख ने जर्मनी पर प्रतिक्रियात्मक शासन स्थापित कर लिया।
दक्षिण अमेरिका में पुर्तगाली उपनिवेशों पर क्रांति का प्रभाव
फ्रांस की क्रांति का प्रभाव दक्षिण अमेरिका के स्पेनी उपनिवेशों पर भी पड़ा। जब स्पेन पर नेपोलियन ने अधिकार कर लिया था, तब ये उपनिवेश स्वतंत्र हो गए थे। इन्होंने इंग्लैंड से व्यापक व्यापारिक संबंध स्थापित किए थे। इस प्रकार इन उपनिवेशों में इंग्लैण्ड के आर्थिक और व्यापारिक हितों का निर्माण हो गया था। नेपोलियन के पतन के बाद यूरोप में क्रांति पूर्व की स्थिति स्थापित करने का प्रयास किया गया था। अब स्पेन चाहता था कि उसका उन उपनिवेशों पर अपना नियंत्रण पुनः स्थापित कर ले। यूरोप के प्रतिक्रियावादी शासक यूरोप की संयुक्त रक्षा संघ के द्वारा स्पेन को सहायता करने को तैयार थे। इसके लिए आवश्यक था कि स्पेन अपनी सेना इन दक्षिण अमेरिकी उपनिवेशों में भेजे। मेटरनिख इसका समर्थक था और फ्रांस की सहायता करने के लिए तैयार था। इंग्लैंड का विदेशमंत्री केनिंग स्वतंत्रता आंदोलनों का समर्थक था। अतः उसने स्पष्ट कर दिया था कि वह किसी भी प्रकार का सैनिक हस्तक्षेप नहीं होने देगा। इंग्लैंड पुराने स्पेन में हस्तक्षेप नहीं कर सका था, लेकिन वह नवीन स्पेन में किसी को हस्तक्षेप नहीं करने देगा। उसने घोषणा की कि सभी दूसरे गोलार्द्ध में क्षतिपूर्ति का प्रयास करेगा। उसका निश्चय था कि उपनिवेशों की स्वतंत्रता की रक्षा की जाएगी और स्पेन को अपनी निरंकुश सत्ता को वहाँ स्थापित नहीं करने दिया जाएगा। उसने स्पष्ट घोषणा की, ‘पुरानी दुनिया के बिगड़ते हुए संतुलन को ठीक करने के लिए वह नई दुनिया को अस्तित्व में लाया है।’ इंग्लैंड का समुद्र पर अधिकार था। अतः यूरोप के देश इन उपनिवेशों को पुनः गुलाम नहीं बना सके। इस प्रकार इंग्लैंड के हस्तक्षेप से इन उपनिवेशों की स्वतंत्रता सुरक्षित हो गई। केनिंग के परामर्श पर संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति मुनरो ने भी यूरोप के देशों को चेतावनी दी कि वे पश्चिमी गोलार्द्ध में हस्तक्षेप न करें। इसे मुनरो सिद्धांत कहा गया है।
फ्रांस की क्रांति का प्रभाव सभी देशों पर पड़ा था। क्रांति के समाप्त हो जाने के बाद भी राष्ट्रीय तथा स्वतंत्रता के आंदोलन यूरोप में चलते रहे। वस्तुतः 1815 ई. से 1919 ई. तक यूरोप का इतिहास स्वतंत्रता तथा राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास है। इस दौरान यूरोप में उस राष्ट्रवाद का प्रभाव रहा जिसका सार फ्रांस की क्रांति ने किया था। इस राष्ट्रीयता की भावना ने ही मध्य यूरोप में कई राष्ट्रों का निर्माण किया। फ्रांस को क्रांति ने यूरोप की पुरातन व्यवस्था को गंभीर आघात पहुँचाया। सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक परिवर्तन हुआ तथा औद्योगिक क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया। जीवन का कोई भी क्षेत्र फ्रांस की क्रांति से अप्रभावित नहीं रहा।









