इटली में फासीवाद और मुसोलिनी (Fascism and Mussolini in Italy)

यूनान में जिस पश्चिमी प्रजातंत्र की अवधारणा का जन्म हुआ था, वह धीरे-धीरे विकसित होता […]

इटली में फासीवाद और मुसोलिनी (Fascism and Mussolini in Italy)

यूनान में जिस पश्चिमी प्रजातंत्र की अवधारणा का जन्म हुआ था, वह धीरे-धीरे विकसित होता हुआ सारे यूरोप में फैल रहा था। ब्रिटेन में संसद सबसे शक्तिशाली संस्था बन गई थी। 1848 की क्रांति के बाद यूरोप में कहीं भी राजवंश पूरी तरह स्वच्छंद नहीं रह गया। इस क्षेत्र में सबसे पीछे जर्मनी और रूस थे। जर्मनी में बिस्मार्क और विलियम द्वितीय रैखस्टाग को रबर स्टैंप समझते रहे, लेकिन वहाँ भी प्रथम विश्वयुद्ध के बाद वाइमर गणतंत्र स्थापित हो गया था। रूस में भी 1917 के बाद एक समाजवादी जनतंत्र स्थापित हो गया था। इस प्रकार 1921 तक सारे यूरोप में लगभग प्रजातांत्रिक व्यवस्था स्थापित हो गई थी। लेकिन एक वर्ष के बाद ही एक झटके में यह आडंबर टूट गया और इटली में फासीवाद की काली छाया मँडराने लगी। एक ही दशक बाद जर्मनी नाजीवाद की चपेट में आ गया। सारा यूरोप और इसके बाद प्रायः संपूर्ण विश्व ही फासीवादी तानाशाहों से आक्रांत हो गया।

जर्मनी और इटली का एकीकरण एक ही साथ हुआ था। बिस्मार्क ने प्रजातंत्र को मजबूत नहीं किया था, लेकिन बदले में एक स्थिर सरकार, प्रगति और प्रतिष्ठा कायम की थी। इटली में संवैधानिक राजतंत्र स्थापित तो हुआ, लेकिन दलीय व्यवस्था परंपरा के विरुद्ध थी। कोई भी राजनीतिक दल बहुत दिन तक स्पष्ट बहुमत नहीं बनाए रख पाता था। प्रायः दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी दल मिल-जुलकर सरकारें चलाते थे। पचास वर्षों में भी स्वस्थ संसदीय प्रणाली नहीं विकसित हो सकी थी। एकीकरण के बाद (1861 से) इटली में संसदीय प्रथा तो अपनाई गई, किंतु क्षेत्रीय विभेद, आर्थिक असमानता और दक्षिण-उत्तर के बीच का खाई ने राजनीतिक स्थिरता को बाधित किया। विभिन्न गठबंधनों की अस्थिर सरकारें अक्सर गिर जातीं, जिससे प्रशासनिक अक्षमता बढ़ी। प्रथम विश्वयुद्ध से पहले भी इटली की राजनीति गुटबाजी से ग्रस्त रही, जहाँ लिबरल, कैथोलिक और समाजवादी दल आपस में टकराते रहे, लेकिन एक मजबूत राष्ट्रीय पहचान विकसित नहीं हो सकी।

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जहाँ जर्मनी में नाजीवाद का उत्कर्ष हुआ, वहीं इटली में फासीवाद ने भी जोर पकड़ा। प्रारंभ में यह एक जन्मजात प्रतिक्रिया के रूप में उभरा, किंतु मुसोलिनी के नेतृत्व में यह एक पूर्ण विकसित विचारधारा और तानाशाही शासन प्रणाली में परिवर्तित हो गया, जबकि नाजीवाद हिटलर के हाथों चरम पर पहुँचा। यद्यपि इटली मित्र राष्ट्रों के साथ युद्ध में शामिल था और जर्मनी विरोधी खेमे में लड़ा, फिर भी पेरिस शांति सम्मेलन में गुप्त संधियों के वादों को तोड़ने से इटली को अपेक्षित प्रादेशिक लाभ न मिला, जिसे ‘मुटिलेटेड विक्टरी’ (अधूरी विजय) या राष्ट्रीय अपमान के रूप में देखा गया। युद्ध की भयावह कीमत—लगभग 6 लाख सैनिकों की मौत, 10 लाख से अधिक घायल और 15 अरब डॉलर की आर्थिक क्षति—ने अर्थव्यवस्था को चरमरा दिया, बेरोजगारी, महँगाई और सामाजिक अशांति को जन्म दिया। संवैधानिक राजतंत्र के अधीन कमजोर संसदीय सरकारें विभिन्न दलों की अनमेल नीतियों से जूझ रही थीं, समाजवादी पार्टी के साम्यवादी नारों ने मजदूरों, किसानों, बेरोजगारों और मध्यम वर्ग को उत्तेजित कर विरोध प्रदर्शनों का दौर चला दिया, जिससे देश पतन की ओर अग्रसर हो गया। 1919-20 में ‘रेड बाइननियम’ के दौरान हड़तालें और कारखानों का कब्जा आम हो गया, जिसने मध्यम वर्ग को भयभीत कर दिया। इसी संकटपूर्ण परिवेश में फासीवाद ने उग्र राष्ट्रवाद, सैनिकवाद और तानाशाही का वादा कर जनसमर्थन अर्जित किया, मुसोलिनी को 1922 में सत्ता सौंपकर इटली को एकाधिकारपूर्ण राज्य में बदल दिया। मार्च ऑन रोम के माध्यम से मुसोलिनी ने राजा विक्टर इमैनुएल तृतीय को धमकाकर प्रधानमंत्री पद प्राप्त किया, और धीरे-धीरे सभी शक्तियों को अपने हाथों में केंद्रित कर लिया।

फासीवाद

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फासीवाद कोई स्थापित विचारधारा नहीं था, अपितु मुसोलिनी की अगुआई में इटली की फासीवादी पार्टी ने जो कार्य योजना आरंभ की थी, वह बाद में फासीवाद के नाम से जाना जाने लगा। ‘फासीवाद’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द ‘फासेस’ (fasces) से हुई है, जिसका अर्थ ‘लाठियों का गठ्ठा’ होता है। प्राचीन रोम में लाठियों और कुल्हाड़ियों के गठ्ठे को राज्य सत्ता का प्रतीक माना जाता था। लाठियों का गठ्ठा वास्तव में अनुशासन एवं एकता का द्योतक था, जबकि कुल्हाड़ी शक्ति का। बेनिटो मुसोलिनी ने इसी प्रतीक से प्रेरित होकर अपने आंदोलन का नामकरण किया। फासीवादी ‘एक राज्य, एक झंडा और एक नेता’ में विश्वास करते थे। वे काली कमीजें (ब्लैकशर्ट्स) पहनते थे, जो उनके उग्र राष्ट्रवाद और सैन्यवाद का प्रतीक थी। तानाशाह सर्वोच्च अधिकारपूर्ण राज्य स्थापित करना चाहते थे। इस प्रकार, फासीवाद का स्पष्ट लक्ष्य सैन्य शक्ति एवं क्षमता का उपयोग कर राष्ट्र की खोई हुई गरिमा और मर्यादा को पुनः स्थापित करना था। राष्ट्रीय मर्यादा को प्राप्त करने में बड़े पैमाने पर सैन्य संगठन अत्यंत महत्वपूर्ण हो उठा।

फासीवाद की परिभाषाएँ

मुसोलिनी के अनुसार फासीवाद व्यवहारिक क्रिया पर आधारित है, न कि पूर्व-निर्धारित सिद्धांतों पर। फासीवाद की परिभाषा देते हुए मुसोलिनी ने कहा था: ‘‘फासीवाद कोई ऐसा सिद्धांत नहीं है जिसकी हर बात को विस्तारपूर्वक पहले से ही स्थिर कर लिया गया हो। फासीवाद का जन्म कार्य करने की आवश्यकता से हुआ है। अतः फासीवाद सैद्धांतिक होने के स्थान पर प्रारंभ से ही व्यवहारिक रहा है।’’ फासीवाद और साम्यवाद की तुलना करते हुए मुसोलिनी ने कहा: ‘‘फासीवाद यथार्थ पर आधारित है, जबकि साम्यवाद सिद्धांत पर। हम सिद्धांत तथा विवाद के बादलों से निकलना चाहते हैं।’’ फासीवाद के अंतर्गत राज्य को सर्वोपरि माना जाता था। मुसोलिनी का कथन था: ‘‘राज्य के अंदर सब कुछ है, राज्य के बाहर कुछ नहीं तथा राज्य के विरुद्ध कुछ भी नहीं।’’ गियोवन्नी जेंटाइल के अनुसार फासीवाद मेजिनी के आदर्शवाद और 19वीं शताब्दी के मध्य के ‘रिसॉर्जिमेंटो’ (इटली के राष्ट्रीय पुनरुत्थान आंदोलन) की ओर प्रत्यावर्तन है, जिसका उद्देश्य इटली का आर्थिक-सामाजिक पुनरोत्थान कर उसे शक्तिशाली और गौरवपूर्ण बनाना है। एल्फ्रेडो रोको के अनुसार फासीवाद नागरिक जीवन की नई कल्पना और नवीन संस्कृति का उन्नायक है, जिसमें पूर्ण प्रभुता-संपन्न राज्य, उग्र राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हिंसा का समर्थन शामिल है।

फासीवाद की प्रमुख विशेषताएँ

फासीवादी अपने चरित्र में दृढ़ राष्ट्रवादी थे। वे इटली को पुनः प्राचीन रोमन साम्राज्य की तरह शक्तिशाली बनाना चाहते थे, किंतु उनका राष्ट्रवाद संकीर्ण था। वे ताकतवर राज्य के लिए युद्ध और साम्राज्यवादी विस्तार की नीति को आवश्यक मानते थे। फासीवादियों की दृष्टि में राज्य और राष्ट्र ही नैतिकता के अंतिम मानदंड थे। इस प्रकार, आक्रामक राष्ट्रवाद फासीवाद का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत था।

फासीवाद संसदीय लोकतंत्र के विरोधस्वरूप उत्पन्न हुआ था। वह मानता था कि लोकतंत्र एक कमजोर सरकार है, जो क्लिष्ट आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती। फासीवादी किसी भी प्रकार के विरोध को सहन नहीं करते थे। वे पार्टी और नेता के प्रति पूर्ण आस्था चाहते थे। मुसोलिनी उनके ‘इल ड्यूस’ (Il Duce) अर्थात् सर्वोच्च नेता के रूप में स्थापित हुए। उनके अथवा उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया जा सका। दूसरे शब्दों में, फासीवाद एकल पार्टी के सर्वोच्च अधिकार में विश्वास करता था।

फासीवादी किसी भी प्रकार के समाजवाद के कट्टर विरोधी थे। वे कम्युनिस्टों से घृणा करते थे और विश्व को साम्यवादी संकट से मुक्ति दिलाना चाहते थे। वे स्वतंत्र उद्यमिता के पक्षधर थे, अतः पूँजीपति उनके साथ थे। फासीवादी व्यक्तिवाद का समर्थन नहीं करते थे, न ही खुली व्यापार प्रथा (laissez-faire) चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि कोई व्यक्ति इतना ताकतवर हो जाए कि राज्य के लिए चुनौती बन जाए। वे शक्तिहीन राज्य के हामी नहीं थे और यही कारण है कि फासीवादी राज्य निरंकुश, सर्वशक्तिमान तथा व्यापक था।

फासीवादी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के भी विरुद्ध थे। वे धुर राष्ट्रवाद में विश्वास करते थे। यही कारण था कि राष्ट्र संघ (League of Nations) को फासीवादियों का समर्थन प्राप्त नहीं हुआ। फिर भी, मुसोलिनी ने राष्ट्र संघ में अपने विश्वास का मुखौटा लगाए रखा। 1935-36 में यह मुखौटा बेनकाब हो गया, जब उसने इथोपिया पर आक्रमण कर दिया।

फासीवादी युद्ध का समर्थन करते थे। निरस्त्रीकरण में उनका रंचमात्र भी विश्वास नहीं था। इस प्रकार, फासीवादियों ने युद्ध को महिमामंडित किया। मुसोलिनी ने लिखा: ‘‘केवल युद्ध ही सभी मानवीय ऊर्जाओं को उनकी उच्चतम तनाव तक ले जाता है और उन लोगों पर श्रेष्ठता का मुहर लगा देता है जो इसे स्वीकार करने का साहस रखते हैं।’’ इस प्रकार, मुसोलिनी और उनके जर्मन साथी हिटलर ने युद्ध के माध्यम से अपने-अपने साम्राज्यों का विस्तार किया।

फासीवाद के प्रमुख सिद्धांत
राज्य की सर्वोच्चता

फासीवाद का मूल सिद्धांत राज्य की सर्वोच्चता पर आधारित था, जिसमें राज्य को सर्वोपरि और सर्वशक्तिमान इकाई के रूप में देखा जाता था। मुसोलिनी के अनुसार, राज्य न केवल एक प्रशासनिक संरचना था, बल्कि राष्ट्र की आत्मा, नैतिकता और सामूहिक इच्छा का प्रतिनिधित्व करता था। इस सिद्धांत के तहत व्यक्ति राज्य के लिए जीता है, न कि राज्य व्यक्ति के लिए; अर्थात् व्यक्तिगत स्वार्थ या अधिकार राज्य की एकता और हितों के अधीन होते हैं। कोई भी व्यक्ति, राजनीतिक दल, धार्मिक संस्था या निजी संगठन राज्य के विरुद्ध कार्यवाही नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करना राष्ट्र की एकता को चुनौती देना माना जाता था। प्राचीन रोमन साम्राज्य की तरह, फासीवादी राज्य को एक अविभाज्य और निरंकुश इकाई मानते थे, जहाँ राज्य के हितों की रक्षा के लिए सभी साधनों का उपयोग जायज था। मुसोलिनी ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा था: “राज्य के अंदर सब कुछ है, राज्य के बाहर कुछ नहीं तथा राज्य के विरुद्ध कुछ भी नहीं।” इस सिद्धांत ने इटली में फासीवादी शासन के दौरान व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को सीमित कर दिया, जैसे कि प्रेस की स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया गया और सभी नागरिकों को राज्य के प्रति पूर्ण निष्ठा की मांग की गई। इस प्रकार, राज्य की सर्वोच्चता ने फासीवाद को एक तानाशाही प्रणाली प्रदान की, जहाँ नेता राज्य का ही अवतार बन जाता था।

उग्र राष्ट्रवाद और एकता

फासीवाद में उग्र राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय एकता का सिद्धांत केंद्रीय स्थान रखता था, जो प्राचीन रोमन साम्राज्य की महिमा को पुनर्स्थापित करने का वादा करता था। फासीवादी ‘एक राज्य, एक नेता (ड्यूस) और एक झंडा’ के सिद्धांत पर विश्वास करते थे, जिसका अर्थ था कि राष्ट्र की एकता और शक्ति को सर्वोपरि मानना, जिसमें सभी वर्गों, क्षेत्रों और विचारधाराओं को एक ही राष्ट्रीय बैनर के अधीन एकीकृत करना। मुसोलिनी ने इटली को ‘नोवा रोमा’ (नया रोम) बनाने का सपना देखा, जहाँ उग्र राष्ट्रवाद के माध्यम से इटलीवासी अपनी खोई हुई गरिमा को पुनः प्राप्त करें। यह सिद्धांत न केवल सांस्कृतिक और ऐतिहासिक गौरव पर बल देता था, बल्कि साम्राज्यवादी विस्तार को भी जायज ठहराता था, जैसे कि बाल्कन और अफ्रीका में क्षेत्रीय अधिग्रहण। फासीवादी संगठन, जैसे ब्लैकशर्ट्स, ने राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के लिए विरोधी तत्वों को दबाया और प्रचार के माध्यम से राष्ट्रवाद को जनमानस में रोपित किया। इस सिद्धांत ने फासीवाद को एक आक्रामक और संकीर्ण राष्ट्रवाद प्रदान किया, जो अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के बजाय राष्ट्रीय श्रेष्ठता पर जोर देता था, और इटली को विश्व पटल पर एक महान शक्ति के रूप में स्थापित करने का आधार बना।

लोकतंत्र का विरोध

फासीवादी लोकतंत्र को एक असफल और कमजोर प्रणाली मानते थे, क्योंकि यह वर्ग-संघर्ष को बढ़ावा देता है और सत्ता को मुट्ठी भर अभिजातों के हाथों में केंद्रित कर देता है, जबकि बहुमत के निर्णय को अक्सर मूर्खों की इच्छा के रूप में खारिज किया जाता था। फासीवाद के अनुसार, संसदीय लोकतंत्र क्लिष्ट आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता, क्योंकि बहुमत का शासन गुणवत्ता के बजाय मात्रा पर आधारित होता है। इसके बजाय, फासीवादी गुणवत्ता और सर्वोच्च नेता के निर्णय को प्राथमिकता देते थे, जहाँ एक बुद्धिमान नेता की इच्छा हजारों मूर्खों के मत से श्रेष्ठ मानी जाती थी। मुसोलिनी ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा था कि लोकतंत्र में बहुमत का आधिपत्य अराजकता को जन्म देता है, जबकि फासीवाद में नेता की दृष्टि राष्ट्र को दिशा प्रदान करती है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद की अस्थिरता में, इटली की कमजोर संसदीय सरकारों ने फासीवाद को लोकतंत्र-विरोधी तर्कों का आधार प्रदान किया, जिसके परिणामस्वरूप 1922 के मार्च ऑन रोम के बाद संसद को नाममात्र का बना दिया गया। इस सिद्धांत ने फासीवाद को अधिनायकवादी शासन का औचित्य प्रदान किया, जहाँ विपक्षी दलों को कुचल दिया गया और एकल पार्टी का प्रभुत्व स्थापित हुआ।

व्यक्तिवाद का विरोध

फासीवाद व्यक्तिवाद के सिद्धांत का कट्टर विरोधी था, जिसमें व्यक्ति के व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रताओं के बजाय उसके कर्तव्यों और सामूहिक हितों पर जोर दिया जाता था। फासीवादी दर्शन के अनुसार, व्यक्ति अकेला कुछ नहीं है; वह केवल राष्ट्र के एक अंग के रूप में अर्थवान होता है, और उसके सभी कार्य राज्य की सेवा में होने चाहिए। इस सिद्धांत ने पूँजीपतियों और मजदूरों दोनों पर राज्य का नियंत्रण स्थापित किया, ताकि कोई भी वर्ग शोषण या अत्याचार न कर सके, और आर्थिक गतिविधियाँ राष्ट्रीय हितों के अनुरूप हों। मुसोलिनी ने व्यक्तिवाद को ‘अराजकता का बीज’ माना, जो राष्ट्र की एकता को कमजोर करता है, इसलिए फासीवादी शासन में निजी संपत्ति को भी राज्य के अधीन रखा गया, जैसे कि कॉर्पोरेटिस्ट संरचना के माध्यम से उद्योगों को नियंत्रित करना। इटली में, इस सिद्धांत ने श्रमिक संघों और पूँजीपति संगठनों को राज्य-नियंत्रित कॉर्पोरेशनों में बदल दिया, जहाँ व्यक्तिगत लाभ के बजाय राष्ट्रीय उत्पादकता को प्राथमिकता दी गई। इस प्रकार, व्यक्तिवाद का विरोध फासीवाद को एक सामूहिक और अनुशासित समाज की ओर ले गया, जहाँ व्यक्ति की पहचान केवल राज्य के प्रति निष्ठा से जुड़ी होती थी।

साम्यवाद का विरोध

फासीवाद साम्यवाद या समाजवाद के सिद्धांत का कट्टर विरोधी था, क्योंकि यह वर्ग-संघर्ष को बढ़ावा देता है, जबकि फासीवाद वर्ग-सहयोग पर आधारित था। फासीवादी दर्शन के अनुसार, साम्यवाद अंतर्राष्ट्रीयतावाद को प्रोत्साहित कर राष्ट्र की एकता को तोड़ता है, इसलिए फासीवादी कम्युनिस्टों को राष्ट्र-द्रोही मानते थे और उन्हें दबाने के लिए कठोर कार्रवाई की। इसके बजाय, फासीवाद में सभी वर्गों—पूँजीपतियों, मजदूरों और किसानों—पर समान राज्य नियंत्रण स्थापित किया गया, ताकि राष्ट्रीय हितों की पूर्ति हो सके। मुसोलिनी ने साम्यवाद को ‘सिद्धांतों का भ्रम’ कहा, जबकि फासीवाद को यथार्थवादी सहयोग का माध्यम माना। इटली में, 1920 के दशक में समाजवादी हड़तालों का दमन करके फासीवाद ने इस सिद्धांत को लागू किया, और कॉर्पोरेट राज्य की स्थापना कर वर्गों को एक मंच पर लाया। इस विरोध ने फासीवाद को पूँजीवाद का सहयोगी बनाया, लेकिन राज्य-नियंत्रित पूँजीवाद के रूप में, जहाँ निजी उद्यम राष्ट्रीय लक्ष्यों के अधीन होता था। इस प्रकार, साम्यवाद का विरोध फासीवाद को एक राष्ट्रीय समाजवादी मॉडल प्रदान किया, जो वर्गीय शोषण के बजाय सहयोग पर टिका था।

युद्ध और हिंसा का समर्थन

फासीवाद में युद्ध और हिंसा का समर्थन एक मूलभूत सिद्धांत था, जिसमें शांति को स्थिरता और पतन का प्रतीक माना जाता था, जबकि युद्ध को राष्ट्र की उन्नति, शुद्धिकरण और श्रेष्ठता का साधन समझा जाता था। फासीवादी दर्शन के अनुसार, युद्ध मानवीय ऊर्जाओं को उच्चतम स्तर पर जागृत करता है और केवल साहसी राष्ट्र ही जीवित रहते हैं, इसलिए निरस्त्रीकरण या चिरशांति को अस्वीकार किया गया। मुसोलिनी ने कहा था: “शांति एक मूर्खतापूर्ण विचार है: फासीवाद इसमें विश्वास नहीं करता।” यह सिद्धांत मत्स्य-न्याय (बड़े की छोटे पर विजय) में विश्वास रखता था, जहाँ मजबूत राष्ट्र कमजोरों पर विजय प्राप्त कर अपनी गरिमा स्थापित करते हैं। इटली में, इस सिद्धांत ने इथोपिया (1935) और अल्बानिया (1939) पर आक्रमणों को जायज ठहराया, और फासीवादी प्रचार ने युद्ध को महिमामंडित किया। फासीवादियों ने हिंसा को राष्ट्रीय पुनरुत्थान का आवश्यक उपकरण माना, जैसे कि विरोधियों को कुचलने के लिए मिलिशिया का उपयोग। इस प्रकार, युद्ध का समर्थन फासीवाद को एक आक्रामक साम्राज्यवादी शक्ति बना दिया, जो द्वितीय विश्वयुद्ध की ओर ले गया।

अधिनायकवाद

फासीवाद का अधिनायकवाद सिद्धांत एक नेता के नेतृत्व में एकल पार्टी की सरकार पर आधारित था, जिसमें बहुदलीय प्रथा का पूर्ण अंत कर दिया जाता था। फासीवादी दर्शन के अनुसार, अधिनायकवाद ही राष्ट्र को एकजुट और कुशल बना सकता है, क्योंकि एक सर्वोच्च नेता (ड्यूस) की इच्छा राष्ट्र की इच्छा होती है। मुसोलिनी को ‘इल ड्यूस’ के रूप में पूजा जाता था, और उनकी शक्ति असीमित थी, जिसमें संसद या न्यायपालिका का कोई हस्तक्षेप नहीं था। इस सिद्धांत ने 1925 के बाद इटली में आपातकालीन कानूनों के माध्यम से विपक्ष को समाप्त कर दिया, और फासीवादी पार्टी को राज्य का अभिन्न अंग बना दिया। अधिनायकवाद ने प्रचार, गुप्तचर तंत्र और मिलिशिया के माध्यम से नियंत्रण स्थापित किया, ताकि कोई असहमति न रहे। इस प्रकार, अधिनायकवाद फासीवाद को एक तानाशाही प्रणाली प्रदान किया, जहाँ नेता की व्यक्तित्व पूजा राष्ट्रवाद का आधार बनी।

इटली में फासीवाद के उदय के कारण

इटली की जनता में असंतोष

प्रथम विश्वयुद्ध के प्रारंभ में इटली की सरकार ने तटस्थ रहने का निर्णय लिया था, किंतु बाद में उसने अपनी नीति बदलकर मित्र राष्ट्रों की ओर से युद्ध में भाग लिया। युद्ध में शामिल होने से पूर्व 1915 में इटली ने मित्र राष्ट्रों के साथ लंदन की संधि की थी, जिसमें मित्र राष्ट्रों ने युद्ध के पश्चात् इटली को टिरोल, ट्रेंटिनो, डालमेशिया, इस्त्रिया तथा अल्बानिया का विशाल भाग प्रदान करने का आश्वासन दिया था। प्रथम विश्वयुद्ध में उसे दक्षिणी मोर्चे पर ऑस्ट्रिया का मुकाबला करने का कार्य सौंपा गया, किंतु ऑस्ट्रिया की सेना ने कैपोरेटो के युद्ध में इटली को बुरी तरह पराजित कर दिया। इसके उपरांत पियावे नदी पर इटली द्वारा मोर्चेबंदी की गई और उसकी सहायता के लिए फ्रांस व इंग्लैंड की सेनाएँ आ गईं, जिनकी मदद से इटली ने जून 1918 में ऑस्ट्रिया को पराजित किया। इसके बाद अमेरिका और इंग्लैंड की सेनाओं की सहायता से इटली की सेना ने विटोरियो वेनेटो के युद्ध में ऑस्ट्रिया को बुरी तरह पराजित किया। दम तोड़ते हुए ऑस्ट्रिया को इंग्लैंड, फ्रांस या अमेरिका की सेनाओं की मदद से पराजित करना कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं थी। इटली के निवासियों के लिए इसलिए इन विजयों का कोई महत्व नहीं था। इटली के निवासियों की धारणा बन चुकी थी कि इटली की सरकार और सेना निर्बल है।

युद्ध के पश्चात् पेरिस शांति सम्मेलन में इटली के प्रधानमंत्री ओरलैंडो की गणना ‘चार बड़े’ में की गई, किंतु वर्साय की संधि के निश्चित करने का कार्य प्रमुख रूप से इंग्लैंड और फ्रांस के मंत्रियों तथा अमेरिका के राष्ट्रपति विल्सन ने ही किया। ओरलैंडो ने मित्र राष्ट्रों के समक्ष अपनी मांगें प्रस्तुत कीं तो अमेरिका के राष्ट्रपति विल्सन ने लंदन की संधि को मानने तथा इटली की मांगों को स्वीकार करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। इस प्रकार इटली को पेरिस शांति सम्मेलन में कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। इस घटना से इटली की जनता में तीव्र असंतोष व्याप्त हो गया। जनता ने इन सबका उत्तरदायित्व अपनी सरकार पर थोपा, जिसकी नीति बहुत ही दुर्बल थी और जो अपने दावों को कार्यरूप में परिणत करवाने में असफल रही। वे यह अनुभव करने लगे कि मित्र राष्ट्रों ने उनके देश के साथ विश्वासघात किया था। अतएव वहाँ के युवा मध्यम वर्ग में संगठन एवं एकता की भावना जाग्रत हुई और उन्होंने इस राष्ट्रीय अपमान एवं विश्वासघात का प्रतिशोध लेने के उद्देश्य से एक नया संगठन स्थापित करने का निर्णय किया।

देश की शोचनीय आर्थिक दशा

प्रथम महायुद्ध में भाग लेने के कारण इटली की आर्थिक दशा बहुत ही शोचनीय हो गई। युद्ध की अवधि में इटली की सरकार ने सेना तथा युद्ध-सामग्री पर अपनी वित्तीय क्षमता से बहुत अधिक धन व्यय किया था, जिसके कारण युद्धोत्तरकाल में इटली की आर्थिक स्थिति शोचनीय हो गई, उसके ऊपर बहुत अधिक ऋण भार हो गया। उसे युद्ध में 12 अरब डॉलर व्यय करना पड़ा ,  जबकि उसकी नागरिक संपत्ति की लगभग 3 अरब डॉलर की क्षति भी हुई। मुद्रा का मूल्य दिन-प्रतिदिन गिरने से व्यापार, उद्योग तथा सार्वजनिक जीवन के क्षेत्र में अभूतपूर्व अव्यवस्था उत्पन्न हो गई। उसकी मुद्रा का मूल्य 20 प्रतिशत नीचे गिर गया। व्यापार और उद्योग-धंधे प्रायः नष्ट हो गए, जिसके कारण बेरोजगारी व गरीबी की समस्याएँ बहुत बढ़ गईं। युद्ध के उपरांत बहुत-से सैनिक और श्रमिक बेरोजगार हो गए तथा उद्योगों में उन्नति न हो पाने के कारण आर्थिक स्थिति और भी शोचनीय हो गई। बेरोजगारी बढ़ने से लोग भूखे मरने लगे। उनके पास न धन था, न व्यवसाय, न रोजगार और न भविष्य के लिए कोई योजना। इस देशव्यापी असंतोष व आर्थिक दुर्दशा के कारण लोगों ने तत्कालीन सरकार की नीतियों की कटु आलोचना करनी आरंभ कर दी और देश के राजनीतिक क्षेत्र में आमूल परिवर्तन करने का निश्चय किया। फासीवादी दल का उदय इसी असंतोष का परिणाम था।

समाजवाद का प्रचार-प्रसार

इटली की शोचनीय आर्थिक स्थिति तथा देशव्यापी असंतोष का लाभ उठाकर कुछ विरोधी दलों ने जनता में अपने कार्यक्रम व सिद्धांतों का प्रचार करना आरंभ कर दिया। उनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध व लोकप्रिय समाजवादी प्रजातंत्रिक दल था, जिसके सदस्य मार्क्सवाद के समर्थक थे , जो समस्याओं के समाधान के लिए संवैधानिक उपायों की अपेक्षा सीधी कार्रवाई में अधिक विश्वास रखते थे। इस दल के कार्यकर्ताओं में अधिकतर बेरोजगार श्रमिक, कृषक तथा निम्न मध्यम वर्ग के लोग थे, जो रूस की बोल्शेविक पार्टी की विचारधारा से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने सरकार के विरुद्ध सीधी कार्रवाई कर देश में अराजकता उत्पन्न कर दी। सरकार की नीति बड़ी शिथिल थी और वह उनका दमन करने में असफल रही। यहाँ जनतांत्रिक सरकार दृढ़ नहीं थी। 1919 में इटली में संपन्न हुए संसदीय चुनावों में समाजवादी दल को बड़ी सफलता मिली और 574 स्थानों में से 156 स्थानों पर इस दल के उम्मीदवार विजयी हुए। फासीवादी दल भी राष्ट्रीयता के सिद्धांत से प्रेरित था। किंतु समाजवादी दल और उसके समर्थकों ने फासीवादी दल को विरोध किया पूर्ण समर्थन प्रदान किया।

साम्यवाद का भय

रूस में शक्ति द्वारा साम्यवाद की स्थापना 1917 ई. में हो चुकी थी। उसके द्वारा स्थापित कॉमिन्टर्न का उद्देश्य साम्यवाद का प्रसार समस्त विश्व में करना था। साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव से इटली का पूँजीवादी वर्ग बहुत ही भयभीत था। रूसी साम्यवाद की सफलता से प्रभावित होकर इटली में भी उग्र साम्यवादियों ने अगस्त 1919 ई. में कृषकों को भड़काकर , भूमिपतियों को मारकर लूटमार को बढ़ावा दिया। संपत्तिशाली व्यक्तियों को हानि पहुँचाई गई तथा ग्रामीण क्षेत्रों में ये लोग कृषक जनता को, जिनमें भूतपूर्व सैनिक भी थे, भड़काने लगे, जिससे हड़तालें और दंगे हुए। इसका प्रभाव नगरों पर भी पड़ा तथा डाक, तार, पानी आदि की आवश्यक व्यवस्था में गड़बड़ी फैल गई। सितंबर 1920 में 600 कारखाने,जिनमें पाँच लाख श्रमिक कार्य करते थे, को उन्होंने बल-प्रयोग करके अपने हाथ में ले लिया तथा सर्वहारा के एकतंत्रीय शासन की स्थापना की। प्रशासन की दुर्बलता प्रकट होने लगी। समाजवादियों ने 15 मई 1921 ई. के चुनाव के पश्चात् साम्यवादियों को अपने दल से पृथक् कर दिया। शिक्षित वर्ग, धनी, मध्यम वर्ग, उद्योगपति तथा भूमिपति आदि सभी लोग साम्यवाद के विरुद्ध हो गए क्योंकि इटली की स्थिति रूस से भिन्न थी। यहाँ रोमन साम्राज्य, रोमन कैथोलिक धर्म, राष्ट्रीयता, संवैधानिक प्रजातंत्र व मध्यम वर्ग का प्रभाव था, जो साम्यवाद के विरुद्ध थे।

राष्ट्रवादियों में असंतोष

समाजवादियों के साथ-साथ राष्ट्रवादियों में भी सरकार की नीति के प्रति असंतोष था। उन्होंने फ़्यूमे पर अधिकार कर अपनी स्वतंत्र सरकार की स्थापना की। इससे अराजकता में और अधिक वृद्धि हुई। ऐसी अवस्था में फासीवादी दल और उसके नेता मुसोलिनी का प्रभाव बढ़ा क्योंकि इससे अराजकता समाप्त हो सकती थी।

उस समय इटली में विभिन्न राजनीतिक दल थे, किंतु उनमें परस्पर एकता नहीं थी। इस मतभेद के कारण संसद में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हो पाता था। फासीवादी दल ने अन्य दलों की पारस्परिक फूट का लाभ उठाया और अपने सिद्धांतों का जनता में खूब प्रचार किया। राजनीतिक दलों में अनुशासन की भावना का अभाव था। अतः जनता एक शक्तिशाली दल और नेता के पक्ष में हो गई।

सरकार की अयोग्यता एवं अकर्मण्यता

युद्धोत्तर काल में इटली की आंतरिक स्थिति शोचनीय थी। पेरिस शांति-सम्मेलन के निर्णयों के प्रति संपूर्ण इटली में असंतोष व्याप्त था। देश का आर्थिक ढाँचा अव्यवस्थित हो गया था। किंतु इटली की तत्कालीन सरकार ने जनता की समस्याओं को हल करने तथा अव्यवस्था, अराजकता और असंतोष को दूर करने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया। सरकार की अकर्मण्यता के विरोध में 1920 ई. में समाजवादी दल के सहयोग से देश के श्रमिकों व कृषकों ने विद्रोह कर दिया और उन्होंने लगभग पाँच सौ कारखानों पर अधिकार कर लिया। इतना ही नहीं, उन्हें चैंबर ऑफ डेपुटीज की कुल सीटों के एक-तिहाई भाग पर अधिकार करने में भी सफलता प्राप्त हो गई। किंतु सरकार ने समाजवादियों की बढ़ती हुई शक्ति को दबाने का कोई प्रयास नहीं किया। फासीवादीवादियों ने इटली की अयोग्य व अकर्मण्य सरकार की अनुचित, जन-विरोधी व उदासीन नीतियों का पूरा लाभ उठाया। जनता के मध्य मुसोलिनी की शक्ति व लोकप्रियता निरंतर बढ़ती गई और शीघ्र ही उसने इटली की सत्ता पर अधिकार कर लिया।

मुसोलिनी का नेतृत्व और प्रभाव

प्रथम महायुद्ध के बाद इटली की आर्थिक स्थिति शोचनीय हो गई। अतः इस स्थिति का परिणाम यह हुआ कि समस्त देश में अराजकता फैल गई और शासन का सुव्यवस्थित रूप से चलना असंभव हो गया। इसी समय मुसोलिनी ने फासीवादी दल की स्थापना की और इस दल के सिद्धांतों का प्रचार करना आरंभ किया। मुसोलिनी के व्यक्तित्व, चरित्र तथा अथक प्रयत्न के कारण फासीवादी दल उन्नति की ओर अग्रसर होता चला गया। उसने देश की जनता को पुराने रोमन साम्राज्य के वैभव की ओर आकर्षित किया और यह वचन दिया कि वह शीघ्र ही देश में सुख, शांति, समृद्धि व अनुशासन की स्थापना करेगा तथा अराजकता व साम्यवाद का अंत करेगा। इस प्रकार पूँजीपतियों ने उसे पूर्ण सहयोग प्रदान किया।

बेनितो मुसोलिनी

फासीवाद के सिद्धांत के प्रणेता बेनितो मुसोलिनी का जन्म उत्तरी इटली में प्रेडापियो के वरानो डि कोस्टा नामक गाँव में एक लुहार परिवार में 29 जुलाई 1883 ई. को हुआ था। उसके पिता अलेसांड्रो एक क्रांतिकारी समाजवादी विचारधारा के समर्थक थे, इसलिए मुसोलिनी बचपन से ही क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित था। उसकी माँ रोसा माल्टोनी एक अध्यापिका और एक धर्मनिष्ठ कैथोलिक थी, जिसकी देखरेख में मुसोलिनी की शिक्षा हुई। अपनी शिक्षा समाप्त करने के बाद ने भी एक छोटे स्कूल में अध्यापन प्रारंभ कर दिया। इसी समय वह इटालियन सोशलिस्ट पार्टी के संपर्क में आया और राजनीति में भाग लेने लगा। जब मुसोलिनी को शिक्षक पद से हटा दिया गया तो वह इटली की अनिवार्य सैनिक सेवा से भी बचने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जुलाई 1902 ई. में स्विट्जरलैंड चला गया।

स्विट्जरलैंड में मुसोलिनी ने कारीगरी करने के साथ-साथ ट्रेड यूनियन के गठन के लिए कठोर परिश्रम किया। उसने पत्रकारिता के क्षेत्र में एक समाजवादी समाचार-पत्र का संपादन शुरू किया और समाजवादी पत्रों में कई क्रांतिकारी लेख लिखे। किंतु उसकी क्रांतिकारी गतिविधियों से तंग आकर स्विस सरकार ने उसे 1903 ई. में निष्कासित कर दिया और मुसोलिनी इटली वापस आ गया। वहां से इटली लौटकर मुसोलिनी पत्रकारिता के माध्यम से अपने क्रांतिकारी विचारों का प्रचार करना प्रारंभ कर दिया 1908 ई. में उसे सरकार-विरोधी कार्यों के कारण सरकार ने उसे बंदी बनाकर जेल भेज दिया । कुछ समय पश्चात् जेल से छूटने के बाद मुसोलिनी ट्रेंट चला गया और 1909 ई. में कुछ समय के लिए एक ट्रेड यूनियन के लिए काम किया। फिर उसने एक समाजवादी पत्र का संपादन शुरू किया। जब मुसोलिनी ने अपने पत्र में ट्रेंट को इटली में मिलाए जाने की वकालत की, तो ऑस्ट्रियन सरकार ने उसे देश छोड़ने का आदेश दे दिया।

इस बार मुसोलिनी इटली वापस आया तो वह कट्टर समाजवादी बन चुका था। वह इटली में समाजवादी विचार के प्रचार के काम में लग गया। उसने प्रचार किया कि जनता के कष्टों को दूर करने का एकमात्र विकल्प समाजवादी सरकार की स्थापना है। उसके क्रांतिकारी विचारों से भयभीत होकर सरकार ने उसे पुनः जेल में डाल दिया। लेकिन इस बार जब वह जेल से निकला, तो एक बड़ा समाजवादी नेता बन चुका था। वह 1912 ई. में समाजवादियों की मिलान से निकलने वाली पत्रिका ‘अवांती!’ का संपादक बन गया। इस पत्रिका में उसके अनेक लेख प्रकाशित हुए जिनके माध्यम से मुसोलिनी के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक विचारों का ज्ञान जनता को सरलता से हो गया। उसके विचारों पर मार्क्सवाद तथा श्रेणी संघवाद का स्पष्ट प्रभाव था। मुसोलिनी इटली के राष्ट्रीय ध्वज एवं चर्च का कट्टर विरोधी था। राष्ट्रीय ध्वज को वह गाँव की पहाड़ी पर टँगा हुआ कपड़े का टुकड़ा बताया था।

1914 ई. में ऑस्ट्रिया के आर्कड्यूक फ्रांसिस फर्डिनैंड की हत्या के बाद प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ हो गया। जब 3 अगस्त 1914 ई. को इटली की सरकार ने युद्ध में तटस्थता की घोषणा की, तो मुसोलिनी ने अवांती के संपादक के रूप में सरकार का जोरदार समर्थन किया। किंतु महायुद्ध के बारे में मुसोलिनी के विचार जल्दी ही परिवर्तित हो गए और वह इटली को मित्र राष्ट्रों की ओर से महायुद्ध में सम्मिलित होने की वकालत करने लगा। मुसोलिनी ने युद्ध को जनता का युद्ध बतलाया और कहा कि यह युद्ध एक क्रांति है और इसके अंत के साथ ही इटली में समाजवाद की स्थापना हो जाएगी। सितंबर 1914 ई. में उसने उन लोगों के समर्थन में कई लेख लिखे, जो युद्ध में इटली के प्रवेश का समर्थन कर रहे थे। मुसोलिनी के युद्ध-समर्थक विचारों के कारण समाजवादियों के बीच खलबली मच गई और उसी वर्ष नवंबर में उसे इटालियन सोशलिस्ट पार्टी और ‘अवांती’ पत्र दोनों से निकाल दिया गया।

अब वह मिलान से एक नया समाचार-पत्र ‘इल पोपोलो डी’इतालिया’ निकालकर अपने विचारों का प्रचार करने लगा। मई 1915 ई. में जब इटली ने ऑस्ट्रिया के खिलाफ युद्ध की घोषणा की और आधिकारिक रूप से महायुद्ध में शामिल हो गया, तो मुसोलिनी की लोकप्रियता में और अधिक वृद्धि हो गई। मुसोलिनी भी एक सैनिक के रूप में अगस्त 1915 ई. में इटली की सेना में भर्ती हो गया प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया। । वह कहा करता था- ‘‘आज का यह युद्ध जनता का युद्ध है। कालांतर में यह एक क्रांति के रूप में विकसित होगा।’  युद्ध में उसकी वीरता के कारण उसे ‘कॉर्पोरल’ की उपाधि मिली। किंतु 1917 ई. में गंभीर रूप से घायल हो जाने के कारण उसे युद्धभूमि से लौटना पड़ा और सेना से छुट्टी दे दी गई।

वापस आकर मुसोलिनी फिर से पत्रकारिता करने लगा। इस समय तक रूस में बोल्शेविक क्रांति हो चुकी थी और इटली की जनता रूस की बोल्शेविक क्रांति से प्रभावित हुई थी। इटली के समाजवादी नेता उस क्रांति से प्रेरित होकर उसी तरह की व्यवस्था इटली में स्थापित करना चाहते थे। मुसोलिनी अब समाजवादी विचारधारा का कट्टर विरोधी हो गया था। उसका कहना था कि रूस का बोल्शेविक विचार इटली के लिए घातक है। अब उसने समाचार-पत्रों के द्वारा इटलीवासियों में समाजवादी विचारधारा के प्रति घृणा पैदा करने के साथ ही साथ उनमें राष्ट्रीयता की भावना के प्रसार का कार्य आरंभ कर दिया।

फासीवादी दल का गठन

विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद मित्र राष्ट्रों ने इटली के साथ जो सौतेला व्यवहार किया और इटली के अंदर जो असंतोष और अराजकता का वातावरण बना, उससे मुसोलिनी को बड़ी पीड़ा पहुँची। मुसोलिनी ने स्वयं लिखा है: ‘महायुद्ध की समाप्ति के बाद के दो वर्ष मुझे इटली के जीवन के सर्वाधिक अंधकारपूर्ण और कष्टदायक लगे।’ अब मुसोलिनी को लगा कि उसे स्वयं ही आगे बढ़कर कुछ करना होगा। मुसोलिनी अकेले बड़े बदलाव के लिए तैयार नहीं था। उस समय पूरे इटली में राष्ट्रवाद की लहर दौड़ रही थी और कई लोग स्थानीय राष्ट्रवादी समूह बनाना शुरू कर दिए थे। मुसोलिनी ने इन समूहों को अपने नेतृत्व में संगठित करने का बीड़ा उठाया। उसने पुराने सैनिकों को आमंत्रित किया और कुछ लोगों को मिलाकर 23 मार्च 1919 ई. को मिलान में एक राष्ट्रीय संगठन ‘फासी डि कॉम्बैटिमेंटो’ की स्थापना की, जो बाद में फासीवादी दल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मुसोलिनी के नेतृत्व में इस दल ने अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की और सेवानिवृत्त सैनिकों, समाजवादियों, विद्यार्थियों, किसानों, मजदूरों, पूँजीपतियों तथा मध्यम वर्ग के व्यक्तियों ने बड़े उत्साह के साथ फासीवादी दल की सदस्यता स्वीकार की।

इस फासीवादी दल की प्रेरणा और नाम प्राचीन रोमन ‘फासेस’ से मिली थी। लकड़ी के बँधे बंडल को अपना निशान और प्रतीक बनाकर मुसोलिनी ने उग्रवादी नारों के साथ परिवर्तन का एक ‘क्रांतिकारी कार्यक्रम’ प्रस्तुत किया और इटली में सुधारों की माँग की। मुसोलिनी ने अपनी योग्यता व कुशलता के द्वारा दल के सभी सदस्यों को एकता व संगठन के सूत्र में बाँधने में सफलता प्राप्त की। उसके पत्रों और भाषणों से इटली में एक नई चेतना का संचार हुआ और मात्र दो वर्ष में ही इटली के सभी बड़े-बड़े नगरों और औद्योगिक केंद्रों में फासीवाद का जाल-सा बिछ गया। जैसे-जैसे आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ती गईं और सरकार असफल होती गई, वैसे-वैसे मुसोलिनी का प्रभाव भी बढ़ता गया। मुसोलिनी के दल का गठन षड्यंत्रकारी आधार पर किया गया था। फासीवादी दल के सदस्य काली कमीज पहनते थे और हथियारों से सुसज्जित रहते थे। मुसोलिनी अपने दल का चीफ कमांडर था। वह एक महान वक्ता था। फासीवादी दल का अपना निजी ध्वज था। उसके युवा अनुयायी विरोधियों पर हर सही-गलत ढंग से प्रहार करते थे और समाजवादियों से भयभीत सरकार स्वयं चुपके-चुपके उनकी मदद करती थी।

फासीवादी दल का प्रथम अधिवेशन मिलान नामक नगर में आयोजित किया गया। इस अधिवेशन में दल के कार्यक्रम की घोषणा के साथ-साथ एक मांग-पत्र भी तैयार किया गया। इसमें निम्नलिखित मांगों को प्रमुखता दी गई थी—

  1. युद्ध-सामग्री को बनाने वाले कारखानों का राष्ट्रीयकरण किया जाए।
  2. कुछ उद्योगों पर श्रमिकों का नियंत्रण स्थापित किया जाए।
  3. युद्ध-काल में पूँजीपतियों द्वारा कमाए गए धन के 85 प्रतिशत भाग को जब्त किया जाए।
  4. सार्वजनिक मताधिकार को लागू किया जाए।
  5. इटली को राष्ट्र-संघ की सदस्यता प्रदान की जाए।
  6. चर्च की संपत्ति को जब्त किया जाए।
  7. श्रमिकों को अधिकतम आठ घंटे प्रतिदिन कार्य करने की सुविधा प्रदान की जाए।
  8. पूँजीवादी भावना का विरोध किया जाए।
  9. देश के नवीन संविधान का निर्माण करने हेतु एक असेंबली का गठन किया जाए।

1921 ई. में फासीवादी दल के राजनीतिक महत्व में उल्लेखनीय वृद्धि हुई और आम चुनाव में उसके 35 सदस्य चैंबर ऑफ डिप्यूटीज के लिए चुने गए। इसी वर्ष नवंबर महीने में मुसोलिनी ने फासीवादी राष्ट्रीय पार्टी (पार्टिटो नाजियोनाले फासीस्ता) के नाम से एक अलग राजनीतिक दल बनाया। उसने फासीवादी दल के सदस्यों को सैनिक स्वरूप देने के लिए एक विशेष पोशाक ‘काली कमीज’ (ब्लैकशर्ट) और झंडा सुनिश्चित किया, जिन्हें ‘ब्लैकशर्ट्स’ कहा जाता था। फासीवादी दल का अपना निजी ध्वज था।

इटली की आंतरिक स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। मजदूरों और किसानों के हड़ताल और आंदोलन उग्र होते जा रहे थे। इटालियन सरकार की स्थिति अत्यंत निर्बल और अक्षम हो चुकी थी। बोनोमी मंत्रिमंडल और उसके बाद फैक्टा मंत्रिमंडल की स्थिति अत्यंत डाँवाडोल थी। इसी समय इटालियन सरकार की ओर से ‘मिली-जुली सरकार’ की स्थापना का प्रस्ताव आया, लेकिन मुसोलिनी तो फासीवादियों की सरकार बनाना चाहता था। अतः उसने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। मुसोलिनी ने सरकार की नीतियों की आलोचना की और अपने भाषणों से जनता के समक्ष स्पष्ट किया कि तत्कालीन परिस्थितियों में सुधार तभी आ सकता है, जब फासीवादियों को और अधिक राजनीतिक शक्ति प्राप्त हो। विभिन्न कारणों से असंतुष्ट लोगों का सहयोग मुसोलिनी को मिलता रहा और वह समाजवाद के विरुद्ध एक सशक्त विकल्प के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। 1919 में फासीवादी दल की सदस्य-संख्या सत्रह हजार थी, किंतु यह संख्या 1920 में बढ़कर तीस हजार और 1922 में तीन लाख हो गई। 1922 ई. तक संपूर्ण इटली में फासीवादी दल की ढाई हजार से अधिक शाखाएँ स्थापित हो गईं और उसके सदस्यों की संख्या तीन लाख से ऊपर पहुँच गई। उस समय मुसोलिनी के ब्लैकशर्ट दल में 50 हजार सशस्त्र सैनिक थे और मुसोलिनी स्वयं उनका प्रधान कमांडर (इल ड्यूस) था।

मुसोलिनी का फासीवादी दल इटली में महत्वपूर्ण हो गया था। उसने अपनी ब्लैकशर्ट सेना के द्वारा समाजवादियों एवं साम्यवादियों का दमन करना शुरू किया के कार्यालयों पर कब्जा करना प्रारंभ कर दिया। उसने मारपीट, तोड़-फोड़ करके समाजवादियों की कमर तोड़ दी। इटालियन सरकार कुछ करने के बजाय चुपचाप तमाशा देखती रही। संभवतः इटालियन सरकार की यह सोच थी कि फासीवादी दल के सदस्य समाजवादियों की शक्ति को तोड़-फोड़कर सरकार की ही एक प्रमुख समस्या को सुलझाने में सहायता कर रहे हैं। किंतु इटालियन सरकार की यह सोच कितनी गलत और आधारहीन थी, इसका पता तब चला जब मुसोलिनी ने समाजवादियों का दमन करने के बाद इटालियन सरकार का ही अंत कर दिया। सरकार की अकर्मण्यता के कारण मुसोलिनी का हौसला बढ़ता गया और वह सत्ता पर अधिकार करने की योजनाएँ बनाने लगा। उसने घोषणा की वह राजसत्तावादी है और समाजवादियों से देश की रक्षा करना उसका एकमात्र उद्देश्य है। सितंबर 1922 ई. में फासीवादी सैनिकों ने समाजवादियों को बुरी तरह पराजित किया और समस्त विरोधी दलों पर अधिकार कर लिया। इस समय मुसोलिनी के दल के अतिरिक्त इटली में कोई दल नहीं रह गया था।

मुसोलिनी का रोम-प्रयाण

24 अक्टूबर 1922 ई. को नेपल्स में फासीवादी दल का एक सम्मेलन हुआ, जिसमें लगभग 40,000 सशस्त्र स्वयंसेवक और बड़ी संख्या में फासीवादी दल के अन्य कार्यकर्ता तथा सदस्य थे। उन्होंने सर्वसम्मति से एक माँग-पत्र पारित किया, जिसमें निम्नलिखित माँगें थीं—

  1. फासीवादी दल के कम से कम पाँच सदस्यों को मंत्रिमंडल में स्थान दिया जाए।
  2. नवीन चुनावों की घोषणा की जाए।
  3. सरकार प्रभावी विदेश-नीति का पालन करे।

इस अधिवेशन में लिए गए निर्णय के अनुसार फासीवादी दल ने सरकार को उपर्युक्त माँगें स्वीकार करने के लिए 27 अक्टूबर तक का समय दिया और मुसोलिनी ने चेतावनी दी: ‘इटालियन सरकार सीधे सत्ता हमारे हाथ में सौंप दे अन्यथा हम रोम पर आक्रमण कर स्वयं सत्ता पर अधिकार कर लेंगे।’ मुसोलिनी ने अपने सहयोगियों—बाल्बो, मिशेल बियांकी, डि बॉनो और डि वेची के साथ रोम पर आक्रमण करने की तिथि 28 अक्टूबर निर्धारित कर दी।

सरकार द्वारा उपर्युक्त मांगों को स्वीकार करने से इनकार करने के फलस्वरूप फासीवादियों ने 28 अक्टूबर को रोम नगर में प्रवेश करना आरंभ किया। उन्होंने रेलवे स्टेशनों, डाकघरों व सरकारी कार्यालयों पर अधिकार कर लिया। फासीवादियों की कार्यवाही से घबड़ाकर इटालियन प्रधानमंत्री फैक्टा ने राजा विक्टर इमैनुएल तृतीय से देश में सैनिक कानून लागू करने का अनुरोध किया। किंतु राजा ने प्रधानमंत्री के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। अंत में, प्रधानमंत्री फैक्टा ने त्यागपत्र दे दिया।

किंतु जब फासीवादियों ने राजा से कहा कि वे किसी अन्य व्यक्ति के अधीन मंत्रिमंडल में सम्मिलित नहीं होंगे, तो राजा भयभीत हो गया। इसी बीच लगभग 50,000 फासीवादी स्वयंसेवक रोम में प्रवेश कर गए। अंततः गृहयुद्ध की आशंका से घबड़ाकर राजा विक्टर इमैनुएल तृतीय ने मुसोलिनी को नया मंत्रिमंडल बनाने के लिए आमंत्रित किया। मुसोलिनी मिलान में था, जब राजा से गठबंधन सरकार बनाने का प्रस्ताव मिला। इसके बाद काली कमीज पहने मुसोलिनी रेल में सोता हुआ 30 अक्टूबर को अपने दल के पचास हजार स्वयंसेवकों सहित राजधानी रोम में प्रवेश किया और उसने अपने मंत्रिमंडल का निर्माण किया। यह घटना ‘मुसोलिनी का रोम मार्च’ (मार्च ऑन रोम) के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। 31 अक्टूबर 1922 को 39 वर्ष की आयु में मुसोलिनी ने इटली के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली और इस प्रकार मुसोलिनी ने मात्र शक्ति-प्रदर्शन के बल पर इटली की राजसत्ता पर अधिकार कर लिया। इटली के इतिहास में यह एक रक्तहीन क्रांति थी।

फासीवादी इटली की आंतरिक नीति
उदारवादी शासन का अंत

मुसोलिनी जनतंत्र और बहुमत के सिद्धांतों से घृणा करता था। राज्य की सर्वोच्चता में उसे अगाध विश्वास था। राज्य के समक्ष उसने व्यक्तिगत अधिकारों को कभी स्वीकार नहीं किया। प्रधानमंत्री बनते ही मुसोलिनी ने राज्य की समस्त शक्तियों को अपने हाथों में केंद्रित करना आरंभ किया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने प्रशासनिक क्षेत्र में तीन अंगों का गठन किया—(1) मंत्रिपरिषद (2) फासीवादी दल की बृहत् परिषद (3) संसद। मंत्रिपरिषद के सभी सदस्य मुसोलिनी के कट्टर समर्थक थे। बृहत् परिषद फासीवादी दल की प्रबंध समिति थी, जिसका नेता मुसोलिनी स्वयं था। इसकी सदस्य संख्या 25 थी। संसद के दो सदन बनाए गए—सीनेट तथा चैंबर ऑफ डिप्यूटीज। सीनेट के सदस्यों को स्वयं मुसोलिनी मनोनीत करता था, जबकि चैंबर ऑफ डिप्यूटीज के सदस्यों को मंत्रिपरिषद एवं बृहत् परिषद द्वारा नियुक्त किया जाता था।

सर्वप्रथम संसद को डरा-धमकाकर एक वर्ष के लिए संपूर्ण शक्ति अपने हाथ में ले ली। इस एक वर्ष की अवधि में ही मुसोलिनी ने समस्त विरोधी तत्त्वों को शासन से निकाल बाहर कर दिया और उनके स्थान पर फासीवादी दल के सदस्यों की नियुक्ति की। उसने नागरिक सेना (नेशनल मिलिशिया) की स्थापना कर उसमें सशस्त्र फासीवादी युवकों की भर्ती की। चैंबर ऑफ डिप्यूटीज में 16 नवंबर 1922 ई. को मुसोलिनी ने भाषण देते हुए निर्भीकतापूर्वक कहा: ‘यदि मैं चाहता तो 3,00,000 सशस्त्र फासीवादी नवयुवक इस सभाकक्ष को विद्रोहियों का मुर्दाघर बना देते, लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया।’

इस नवीन व्यवस्था के द्वारा मुसोलिनी ने शासन की संपूर्ण शक्ति पर पूरा अधिकार कर लिया। देश की जनता ने मुसोलिनी के इन कार्यों का भी भरपूर समर्थन किया क्योंकि मुसोलिनी ने पूर्ववर्ती लोकतांत्रिक सरकार के अधूरे कार्यों को पूरा करने का आश्वासन जनता को दिया था। इस प्रकार मुसोलिनी अंततः इटली का वास्तविक स्वामी बन गया और उसने देश में अपनी तानाशाही को स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।

सत्ता पर नियंत्रण

1923 ई. में मुसोलिनी ने संसद में निर्वाचन-संबंधी एक कानून पारित करवाया, जिसके अनुसार यह तय किया गया कि संसद के चुनाव में जिस दल को सबसे अधिक मत प्राप्त होगा, उस दल के दो-तिहाई संसद के सदस्य निर्वाचित घोषित किए जाएँगे। वास्तव में, मुसोलिनी चाहता था कि संसद में फासीवादी पार्टी ही सर्वेसर्वा रहे। नए कानून के अनुसार अप्रैल 1924 ई. के संसदीय निर्वाचन में फासीवादी दल को स्पष्ट बहुमत (लगभग 60 प्रतिशत) मिल गया और संसद के 2/3 सदस्य फासीवादी पार्टी के चुने गए। शेष सदस्यों का चुनाव शेष दलों में से किया गया। इस प्रकार मुसोलिनी इटली की संसद पर फासीवादी दल का प्रभुत्व स्थापित करने में सफल हो गया।

यद्यपि मुसोलिनी का संसद में बहुमत था, फिर भी वह अपनी शक्ति से संतुष्ट नहीं था। वह अन्य सभी राजनीतिक दलों को समाप्त कर देना चाहता था। इसके लिए उसने संसद से कुछ कानून बनवाकर विरोधी दलों के सदस्यों की गिरफ्तारी करवाया और उनके विरुद्ध कठोर कार्रवाई की, जिसके परिणामस्वरूप 1926 ई. तक इटली में वैध राजनीतिक दल के रूप में मात्र फासीवादी दल ही रह गया। इस प्रकार मुसोलिनी अपने विरोधियों का दमन करके इटली का अधिनायक बन बैठा।

संसद में फासीवादी दल का बहुमत था, किंतु उसके कुछ सदस्य दूसरे दल के भी थे और यह बात मुसोलिनी के लिए असह्य थी। अतः 1928 ई. में उसने निर्वाचन संबंधी एक नया कानून पारित करवाया, जिसके अनुसार समस्त निर्वाचित किए जाने वाले व्यक्तियों की एक सूची फासीवादी दल तैयार करता था और मतदाताओं को केवल उस सूची के पक्ष और विपक्ष में अपना मत देने का अधिकार था। इस कानून के अनुसार इटली में जो चुनाव हुआ, उसने इटली की संसद को एक फासीवादी संस्था का रूप प्रदान किया। इस प्रकार इटली में जनतंत्र का गला घोंटकर मुसोलिनी ने समस्त सत्ता पर अधिकार कर लिया और संवैधानिक तंत्र केवल नाममात्र के लिए रह गया। मुसोलिनी ने 1938 ई. में नस्लीय घोषणापत्र पारित किया, जिसके द्वारा यहूदियों से उनकी इटालियन नागरिकता छीन ली गई, उन्हें सरकारी संस्थाओं और नौकरियों से निकाल दिया गया तथा अंतर्विवाह पर प्रतिबंध लगा दिए गए।

नवीन आर्थिक व्यवस्था

इटली के आर्थिक ढांचे में फासीवादी दल के सिद्धांतों व कार्यक्रमों ने क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया। मुसोलिनी ने आर्थिक उदारवाद का अंत कर इटली में एक नवीन आर्थिक व्यवस्था का निर्माण किया, जिसे ‘राष्ट्रीय सिंडिकलिज्म’ कहा गया है। यद्यपि आर्थिक क्षेत्र में मुसोलिनी पूँजीपतियों की मनमानी का समर्थक नहीं था। किंतु उसने समाजवादियों की तरह समस्त व्यवसायों और उद्योगों पर राज्य का नियंत्रण स्थापित नहीं किया, बल्कि उसने केवल उन व्यवसायों की राज्य के अंतर्गत तथा नियंत्रण में लिया जो देश की रक्षा तथा उनकी आर्थिक स्थिति को उन्नति के लिए आवश्यक थे। उसने रेल, लोहे के कारखाने तथा कुछ बड़े व्यवसायों व उद्योगों को ही राज्य के नियंत्रण में रखा। उसने बैंकों तथा विदेशी व्यापार पर भी राज्य का पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया, किंतु अन्य व्यवसायों पर पूँजीपतियों का ही अधिकार बना रहा।

वर्ग-संघर्ष का अंत

मुसोलिनी वर्ग-संघर्ष का विरोधी था, इसलिए उसने मजदूरों और मालिकों के संबंधों में सुधार करने के लिए अप्रैल 1926 ई. में एक कानून बनाया और मिल-मालिकों तथा मजदूरों के 12 राष्ट्रीय सिंडिकेटों की स्थापना की। इनमें 6 राष्ट्रीय सिंडिकेट पूँजीपतियों के, 6 मजदूरों के और 1 अन्य व्यावसायिक वर्गों—वकीलों तथा डॉक्टरों का था। इन सभी 12 सिंडिकेटों की प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर भी शाखाएँ खोली गईं, जिससे इसको राष्ट्रव्यापी रूप मिल गया और इसे ‘राष्ट्रीय सिंडिकलिज्म’ का नाम दिया गया। इन सिंडिकेटों पर नियंत्रण के लिए एक निगम मंत्री (मिनिस्टर ऑफ कॉरपोरेशंस) का पद सृजित किया गया, जिस पर स्वयं मुसोलिनी नियुक्त हुआ। मजदूरों की हड़तालों और तालाबंदियों को प्रतिबंधित कर दिया गया और मालिकों तथा मजदूरों के बीच विवाद के निराकरण के लिए विशेष न्यायालय (मजिस्ट्रेसी ऑफ लेबर) की स्थापना की गई, जिसके निर्णय के विरुद्ध कहीं अपील नहीं हो सकती थी।

राष्ट्रीय सिंडिकलिज्म द्वारा 1927 ई. में मजदूरों की स्थिति में सुधार और उनकी उन्नति के लिए कई सुविधाएँ प्रदान की गई। सभी मजदूरों को सिंडिकेटों की सदस्यता ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया गया, जिससे वे सिंडिकेटों द्वारा मजदूरों को दी जाने वाली सुविधाओं का लाभ उठा सकें। मजदूरों के लिए रविवार को छुट्टी का दिन घोषित किया गया, उन्हें वेतन सहित वार्षिक छुट्टियों का लाभ उठाने का अधिकार दिया गया और उनके लिए सामाजिक बीमा की व्यवस्था की गई। यही नहीं, मजदूरों के मनोरंजन के लिए एक विशेष संस्था डोपोलावोरो की स्थापना की गई, जो छुट्टी के दिनों में उनके लिए सस्ते किराये पर सैर आदि करने की व्यवस्था करती थी और पूरे वर्ष उनके सांस्कृतिक मनोरंजन की व्यवस्था करती थी। 1933 ई. में सिंडिकलिज्म व्यवस्था को निगमात्मक (कॉरपोरेट) स्वरूप प्रदान किया गया, जिसमें मालिकों और मजदूरों के बराबर प्रतिनिधि रखे गए।

नई वित्तीय नीति

जिस समय मुसोलिनी ने इटली सत्ता संभाली, उस समय इटली की आर्थिक स्थिति डाँवाडोल थी। राष्ट्रीय बजट पिछले कई वर्षों से घाटे में चल रहा था। मुद्रास्फीति के फलस्वरूप मुद्रा का मूल्य दिन-प्रतिदिन गिर रहा था, जबकि वस्तुओं की कीमतों में निरंतर वृद्धि हो रही थी। इस आर्थिक स्थिति से मुक्ति पाने के लिए मुसोलिनी ने राष्ट्रीय सिंडिकलिज्म की स्थापना की। परंतु मात्र इसी योजना से इटली की आर्थिक समस्या का समाधान संभव नहीं था। अतः मुसोलिनी ने आर्थिक स्थिति में और सुधार लाने के लिए नई वित्तीय नीति बनाई। इस नीति के अंतर्गत अनावश्यक खर्चों में कटौती करके सभी सरकारी और गैर-सरकारी विभागों में मितव्ययता की नीति अपनाई गई। इसके अतिरिक्त, सरकार की आमदनी बढ़ाने के लिए धनवानों पर नए-नए कर लगाए गए और संपूर्ण अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन कर उसका आधुनिकीकरण करने की योजना बनाई गई। इस संदर्भ में सबसे पहले देश के वार्षिक आय-व्यय को संतुलित करने का प्रयास किया गया। आय-व्यय के लेखे में वर्षों में करोड़ों लिरे का घाटा चला आ रहा था, जिसके कारण राष्ट्रीय मुद्रा का भाव दिनोंदिन गिरता जा रहा था। खर्चे में कमी करके और नए-नए टैक्स लगाकर 1925 ई. तक मुसोलिनी ने देश के बजट को संतुलित कर वार्षिक घाटे को मुनाफे में बदल दिया। इस सफलता से सरकार न केवल मुद्रा को सोने का आधार देने में समर्थ हो गई, बल्कि लिरे (राष्ट्रीय मुद्रा) का गिरता भाव भी रुक गया वस्तुओं की बढ़ती हुई कीमतों पर भी काबू पा लिया गया।

सार्वजनिक निर्माण कार्य

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद इटली में बेरोजगार व्यक्तियों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई थी। मुसोलिनी ने इस समस्या को गंभीर मानकर इसका समाधान करने के उद्देश्य से सार्वजनिक निर्माण कार्यों तथा स्कूल-कॉलेजों के भवनों के निर्माण को प्रोत्साहित किया। देश में विभिन्न सड़कों, पुलों व विश्रामगृहों का निर्माण करवाया गया। रोम के प्राचीन स्मारकों का पुनरुद्धार किया गया और इटली में नए-नए भवनों का निर्माण आरंभ हुआ। कुछ बंदरगाहों का भी निर्माण किया गया। इन निर्माण-कार्यों के फलस्वरूप हजारों बेरोजगारों को रोजगार का अवसर प्राप्त हुआ।

उद्योगों को प्रोत्साहन

मुसोलिनी की एक बड़ी समस्या देश में प्राकृतिक संसाधनों की कमी थी। देश के लगभग दो-तिहाई भाग में पर्वत श्रृंखलाओं के फैलाव के कारण न केवल खेती के लिए उपजाऊ मैदान की कमी थी, बल्कि औद्योगिक विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अभाव भी था। देश में न तो पूँजी थी, न ही कोयला, लोहा, ताँबा, तेल आदि। पूँजी तो जुटाई जा सकती थी, लेकिन लोहा, कोयला और पेट्रोल कहाँ से लाते? अन्य देशों से मँगाने पर उत्पादन लागत बढ़ जाती और इटली का व्यापार अन्य देशों के व्यापार के सामने नहीं टिक पाता। मुसोलिनी अपने देश को साधन-संपन्न एवं स्वावलंबी बनाने के लिए संकल्पित था। देश में कच्चे माल एवं खनिज पदार्थों की खोज के लिए योग्य वैज्ञानिकों एवं इंजीनियरों से सलाह-मशविरा किया मुसोलिनी ने कोयले और पेट्रोल के अभाव को दूर करने के लिए जल-विद्युत को उत्पन्न करने की व्यवस्था की। मुसोलिनी की व्यवस्था रंग लाई और उसके सभी कारखाने और यातायात इसी शक्ति से चलने लगे। उसने इटली के उद्योगों को संरक्षण देने के लिए विदेशी उत्पादनों पर आयात शुल्क लगाया, जिससे उद्योग-धंधों का विकास हुआ और इटली के व्यापार में वृद्धि हुई। इस प्रकार मुसोलिनी के प्रयासों से इटली जल-विद्युत संयंत्र, नकली रेशम (रेयॉन) जैसे क्षेत्रों में समस्त यूरोप में अग्रणी हो गया। किंतु अंततः कच्चे माल एवं खनिज पदार्थों की दृष्टि से इटली को स्वावलंबी बनाने की मुसोलिनी की योजना पूरी नहीं हो सकी।

रेलवे में सुधार

इटली में रेलवे की व्यवस्था अच्छी नहीं थी और रेलवे के वार्षिक बजट में करोड़ों लिरे का घाटा आ रहा था। मुसोलिनी ने रेलवे प्रणाली के दोषों को दूर करने के लिए एक आयोग का गठन किया और उसकी रिपोर्ट के आधार पर रेल व्यवस्था में अनेक सुधार किए गए। कई वर्षों के निरंतर प्रयत्न के बाद रेलवे की दशा में सुधार हुआ। इससे रेलें सही समय-सारिणी के अनुसार सही समय से चलने लगीं और घाटे के बजट से भी छुटकारा मिल गया।

खाद्यान्न में वृद्धि

मुसोलिनी ने अपने देश को खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए कृषि क्षेत्र में सुधार और उत्पादन में वृद्धि के लिए कार्य किया। मुसोलिनी ने कृषि की स्थिति को सुधारने के लिए एक निश्चित योजना के अनुसार देश की ऊसर और दलदली भूमि को उपजाऊ बनाने का प्रयास किया गया। 1935 ई. तक दलदलों को सुखाकर और ऊसर भूमि में सुधार कर लाखों एकड़ भूमि को कृषि-योग्य बनाया गया। कृषकों को सरकार की ओर से पुरस्कार देने की व्यवस्था की ताकि उनमें अधिकतम उत्पादन करने की प्रतियोगी भावना उत्पन्न हो सके। उत्पादन में वृद्धि के लिए राज्य की ओर से किसानों को अनुदान दिए गए, वैज्ञानिक तरीकों से खेती करने की जानकारी दी गई और नए कृषि-यंत्र तथा उर्वरक उपलब्ध कराए गए, जिसके परिणामस्वरूप गेहूँ, कपास, तंबाकू आदि अन्य खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि हुई और इटली खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया।

इस प्रकार मुसोलिनी की नई आर्थिक नीति और उद्योगों तथा कृषि के क्षेत्रों में किए गए सुधारों से इटली में समृद्धि के चिन्ह प्रकट होने लगे। इटली की राष्ट्रीय आय में वृद्धि हो गई, बेकारी की समस्या खत्म हो गई और लोगों का जीवन-स्तर भी ऊँचा उठ गया। राष्ट्रीय मुद्रा लिरे का भाव भी स्थिर हो गया।

मुसोलिनी की शिक्षा-नीति

प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व इटली की साक्षरता मात्र 40 प्रतिशत थी। देश के युवा वर्ग को फासीवादी दल के सिद्धांतों से होने वाले लाभों की शिक्षा देने के लिए एक ‘फासीवादी युवा फेडरेशन’ की स्थापना की गई। मुसोलिनी ने पूरे इटली में फासीवादी सिद्धांतों के आधार पर शिक्षा देने के लिए 1923 ई. में शिक्षामंत्री जेंटाइल की मदद से शैक्षिक सुधार की एक क्रांतिकारी योजना तैयार की, जिसे नवीन शिक्षा-नीति ‘जेंटाइल सुधार योजना’ कहा जाता है। जेंटाइल सुधार योजना के अंतर्गत शिक्षण-संस्थाओं को विद्यार्थियों की आयु के आधार पर पाँच विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया। 14 वर्ष तक की आयु के समस्त बालक और बालिकाओं के लिए शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। पाठ्यक्रम को और अधिक उपयोगी बनाने के लिए उनमें गुणात्मक परिवर्तन किए गए। अराजकीय विद्यालयों को शासन से दिए जाने वाले अनुदानों में वृद्धि की गई और समस्त विद्यालयों में फासीवादी सिद्धांतों की शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। 1929-30 ई. में समस्त विश्वविद्यालयों में प्रशासनिक और शैक्षिक पदों पर केवल फासीवादी समर्थकों की नियुक्ति की गई। मुसोलिनी का यह निर्णय प्रत्यक्ष रूप से शैक्षिक स्वतंत्रता पर कुठाराघात था, जिसकी इटली के विद्वत समाज ने खुलकर आलोचना की।

पोप के साथ समझौता

पोप के साथ इटालियन सरकार का विवाद बहुत पुराना था। इटली के एकीकरण के क्रम में जब रोम पर अधिकार कर लिया गया था, उसी समय से पोप ने इटली की सरकार से अपना संबंध विच्छेद कर लिया था और अपने को ‘वेटिकन का बंदी’ कहता था। पोप अभी भी रोम पर अपना अधिकार समझता था। इस झगड़े के कारण इटली की आंतरिक समस्या बहुत जटिल हो गई थी क्योंकि इटली में पोप का बहुत प्रभाव है। यह एक अंतर्राष्ट्रीय मामला भी था क्योंकि पोप संसार के सभी कैथोलिकों का धर्मगुरु था। यद्यपि मुसोलिनी की व्यक्तिगत रूप से धर्म में कोई आस्था नहीं थी, किंतु वह धर्म के राजनीतिक मूल्य को समझता था। मुसोलिनी ने पोप पियस ग्यारहवें से वार्ता शुरू की और 11 फरवरी 1929 ई. को रोम के लेटरन महल में पोप के साथ समझौता कर लिया। लेटरन समझौते के अंतर्गत पोप और मुसोलिनी के बीच राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक तीन अलग-अलग संधियाँ हुईं।

राजनैतिक संधि के अनुसार पोप ने रोम पर से अपने अधिकार का त्याग कर दिया और रोम को इटली की राजधानी मान लिया। इसके बदले में मुसोलिनी ने पोप को कैथोलिक जगत का सार्वभौमिक स्वामी स्वीकार कर लिया वेटिकन नगर को पोप की प्रभुता में एक स्वतंत्र राज्य मान लिया गया। वेटिकन नगर, जिसका क्षेत्रफल मात्र 108.7 एकड़ था, संसार के सबसे छोटे प्रभुत्व संपन्न राज्यों में से एक हो गया। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में पोप को विदेशों के साथ संबंध स्थापित करने, विदेशों में अपने राजदूत नियुक्त करने और विदेशी राजदूतों का स्वागत करने की भी स्वतंत्रता मिल गई। अब पोप को वेटिकन में अपनी मुद्रा, निजी डाक-टिकट चलाने और दूर-संचार व्यवस्था को भी स्थापित करने का अधिकार मिल गया।

आर्थिक समझौते के अनुसार मुसोलिनी ने पोप को प्रतिवर्ष चालीस करोड़ लिरे (प्रति वर्ष दस करोड़ डालर की धनराशि) देने का वचन दिया। धार्मिक समझौते के अनुसार इटालियन सरकार ने रोमन कैथोलिक धर्म को इटली का राजधर्म स्वीकार किया और पादरियों को राज्य की ओर से वेतन देने की स्वीकृति दी। पोप को बड़े तथा छोटे पादरियों को नियुक्त करने का अधिकार मिला, किंतु इन पदों पर फासीवादी विरोधियों की नियुक्ति नहीं हो सकती थी।

रोमन कैथोलिकों द्वारा संचालित शिक्षण-संस्थाओं को मुसोलिनी ने फासीवादी दल के विद्यालयों में विलीन कर दिया। चौदह वर्ष से अधिक आयु के प्रत्येक रोमन कैथोलिक को फासीवादी दल के नेता के प्रति स्वामिभक्त रहने की घोषणा करना अनिवार्य कर दिया गया। इस प्रकार मुसोलिनी ने धीरे-धीरे शिक्षा के क्षेत्र में चर्च के प्रभाव को समाप्त कर दिया।

पोप और मुसोलिनी के इस समझौते से न केवल इटली की जनता को संतुष्टि मिली, बल्कि मुसोलिनी की स्थिति भी और सुदृढ़ हो गई। यही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी इटली का सम्मान बढ़ गया। पिछले साठ वर्षों का द्वंद्व समाप्त हो गया और पोप ने कहा : ‘अब इटली को ईश्वर और ईश्वर को इटली वापस मिल गए।’

समझौते के बाद लगभग दो वर्षों तक इटली और पोप के संबंध सौहार्दपूर्ण बने रहे। किंतु इसके बाद संबंधों में खटास आने लगी। मई 1931 ई. में पोप पायस ग्यारहवें ने इटली के मजदूरों को उचित मजदूरी देने का सुझाव दिया और सिंडिकेट व्यवस्था की दोषपूर्ण बताया। पोप को इटालियन युवकों के मुसोलिनी के प्रति भक्ति की शपथ लेने पर भी घोर आपत्ति थी। इन मतभेदों के कारण लेटरन समझौते के खंडित होने की संभावना थी, किंतु 1932 ई. में दोनों पक्षों के बीच फिर समझौता हो गया।

मुसोलिनी की विदेश नीति

मुसोलिनी की विदेश नीति फासीवादी सिद्धांतों पर आधारित थी, जिसके अनुसार वह युद्ध को आवश्यक मानता था। पेरिस शांति सम्मेलन के निर्णयों से इटलीवासियों की भावनाओं को गहरा आघात पहुँचा था। मुसोलिनी के लिए मित्र राष्ट्रों का यह विश्वासघात असहनीय था और इस अपमान का बदला साम्राज्यवादी नीति अपनाकर ही लिया जा सकता था। 1919 ई. के प्रथम फासीवादी सम्मेलन (मिलान) में मुसोलिनी ने घोषणा की थी कि वह ‘आर्थिक एवं आध्यात्मिक रूप से इटली की सभ्यता, संस्कृति एवं क्षेत्र का प्रसार करना चाहता है। उसके लिए साम्राज्यवाद जीवन का मूल तत्व है; हम विश्व में एक स्थान चाहते हैं, क्योंकि हमें ऐसा अधिकार है।’ वास्तव में, इटली की पूर्णता और सम्मान इटलीवासियों की भूख थी। मुसोलिनी ने स्पष्ट कहा था कि ‘हमें भूमि की भूख है क्योंकि हम संख्या में बहुत हैं और ऐसे ही बने रहना चाहते हैं।’ इसे शांत करने का उसने सीधा प्रयास किया। मुसोलिनी स्वयं ने कहा था : ‘भूमध्य सागर इटली का साम्राज्य होने के स्थान पर उसके लिए जेल बन गया था। कोर्सिका, माल्टा, ट्यूनिस और साइप्रस इस जेल की सलाखें थीं तथा स्वेज और जिब्राल्टर इसके पहरेदार।’ इस जेल को तोड़कर अटलांटिक और हिंद महासागर तक पहुँचे बिना इटली अपनी स्वतंत्रता को अधूरी समझता था। इसलिए विस्तार उसकी विदेश नीति का प्रेरक तत्व था।

इस प्रकार मुसोलिनी की विदेश नीति का प्रधान उद्देश्य बाल्कन प्रायद्वीप, पश्चिमी एशिया और अफ्रीका में साम्राज्य-विस्तार तथा विश्व के राजनीतिक क्षितिज पर इटली को उच्च एवं सम्मानित स्थान पर प्रतिष्ठित करना था। वह भूमध्य सागर को इटालियन झील बनाना चाहता था। उसकी विदेश नीति का सार उसके कथन से स्पष्ट है: ‘न तो हम मूर्खतापूर्ण परोपकारी नीति अपनाना चाहते हैं और न ही अन्य राज्यों की नीतियों का अनुगामी बनना चाहते हैं। हमारी नीति पूर्णतः स्वायत्त, सुदृढ़ और कठोर होगी।’ अपनी प्रभावशाली विदेश नीति को लागू करने के लिए मुसोलिनी ने निम्नलिखित प्रयत्न किए-

रोड्स एवं डोडेकानीज द्वीपसमूहों पर अधिकार

मुसोलिनी ने सबसे पहले भूमध्य सागर में अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयास किया। 1920 ई. की सेव्र की संधि के द्वारा भूमध्यसागर के पूर्वी भाग में स्थित रोड्स और डोडेकानीज द्वीपसमूह यूनान को दे दिए गए थे, जबकि युद्ध के पूर्व इन क्षेत्रों पर इटली का अधिकार था। मुसोलिनी की नजर इन द्वीपों पर लगी थी। जब तुर्की के सुलतान कमाल पाशा ने यूनान को पराजित करने के बाद सेव्र की संधि को तोड़ दिया, तो इटली को अप्रत्याशित लाभ हो गया। 24 जुलाई 1923 ई. की लौजान की संधि में सेव्र की संधि को संशोधित किया गया और रोड्स और डोडेकानीज द्वीपसमूहों पर पुनः इटली का अधिकार हो गया। मुसोलिनी भूमध्य सागर को इटालियन झील में बदलना चाहता था। मुसोलिनी ने इन द्वीपों का सैन्यीकरण करते हुए उनकी किलेबंदी की और वहाँ एक शक्तिशाली नौसैनिक अड्डा स्थापित कर दिया। यह उसकी विदेश नीति का पहला अभियान था।

टाइरोल के प्रति नीति

पेरिस की संधि के अनुसार टाइरोल का ट्रेंटिनो नामक क्षेत्र इटली को दिया गया था, जिससे टाइरोल का जर्मन बहुल क्षेत्र भी इटली के अधिकार में आ गया था। इटली ने इस क्षेत्र में समानता का व्यवहार करने का आश्वासन दिया था। लेकिन मुसोलिनी ने आश्वासन के विपरीत गैर-इटैलियनों को इटैलियन प्रभाव में लाना आरंभ किया। आस्ट्रिया और जर्मनी ने इसकी आलोचना की, किंतु मुसोलिनी ने घोषित किया कि इटली के आंतरिक मामलों में किसी विदेशी हस्तक्षेप को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इस प्रकार मुसोलिनी अंतर्राष्ट्रीय विरोध की परवाह किए बिना अपने कार्य में लगा रहा और अंततः अपने कार्य में सफल रहा।

फ्यूमे पर अधिकार

 पेरिस शांति सम्मेलन में एड्रियाटिक सागर पर स्थित फ्यूमे बंदरगाह पर अधिकार को लेकर इटली और यूगोस्लाविया में मतभेद हो गया था। इसलिए मित्र राष्ट्रों ने 1920 ई. में दोनों में समझौता कराकर फ्यूमे को एक स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया था। इटली वर्साय की संधि में परिवर्तन की इच्छुक थी जबकि यूगोस्लाविया वर्साय की संधि को यथावत् रखना चाहता था। एड्रियाटिक सागर में दोनों के हित आपस में टकराते थे। किंतु मुसोलिनी फ्यूमे पर अधिकार कर भूमध्य सागर में अपनी स्थिति को दृढ़ करना चाहता था। इटली और यूगोस्लाविया के संबंध बहुत अच्छे नहीं थे, फिर भी, मुसोलिनी ने 27 जनवरी 1924 ई. को यूगोस्लाविया से संधि करके फ्यूमे नगर पर अधिकार कर लिया, जबकि इसका बंदरगाह (सुसाक/बेरोस) और डालमेशिया का समुद्र तट यूगोस्लाविया को दे दिया। इस प्रकार फ्यूमे का बंदरगाह यूगोस्लाविया के पास चला गया, लेकिन फ्यूमे नगर मुसोलिनी को मिल गया। फ्यूमे नगर प्राप्त करना मुसोलिनी की विदेश नीति के संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण सफलता थी।

अल्बानिया पर अधिकार

एड्रियाटिक सागर में अपनी स्थिति दृढ़ करके मुसोलिनी ने सागर के दूसरे तट पर स्थित आर्थिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़े नवीन राज्य अल्बानिया पर अपनी नजर डाली। 1925 ई. में वहाँ अहमद जोगू नामक एक सरदार ने अपना शासन स्थापित किया था। मुसोलिनी ने बड़ी चालाकी से उसको आर्थिक एवं अन्य सहायता देकर उस पर अपना नियंत्रण कर लिया। इसके बाद मुसोलिनी ने 27 नवंबर 1926 ई. को तिराना की संधि करके अल्बानिया को अपने संरक्षण में ले लिया। इस संधि में अल्बानिया के सैनिकों को इटली के सैनिक पदाधिकारियों द्वारा प्रशिक्षित किया जाएगा। अल्बानिया इटली के हित के विरुद्ध किसी अन्य देश से संधि नहीं करेगा। दोनों देश बाहरी आक्रमणकारी का सामना मिलकर करेंगे। यह शर्त 20 वर्ष तक रहेगी। परिस्थितियों के अनुकूल होने पर मुसोलिनी ने 7 अप्रैल 1939 ई. को अल्बानिया में उसकी सहायता के बहाने अपनी सेना भेजकर अल्बानिया को इटली में सम्मिलित कर लिया।

कोर्फू पर बमबारी

यूनान और अल्बानिया के सीमावर्ती विवाद को सुलझाने के लिए डीलिमिटेशन कमीशन कार्य कर रहा था। सीमा-निर्धारण के दौरान अगस्त 1923 ई. में कोर्फू द्वीप में जनीना के निकट उपद्रवी यूनानियों ने कमीशन के तीन इटालियन अधिकारियों की हत्या कर दी। मुसोलिनी ने इस कार्यवाही की निंदा की और यूनान को 5 दिन के अंदर मामले की जाँचकर अपराधियों को दंड देने और पाँच करोड़ लिरे हरजाने की माँग की। यूनान ने इस मामले को राष्ट्रसंघ में उठाया। किंतु मुसोलिनी ने राष्ट्रसंघ की परवाह न करके कोर्फू पर भारी बमबारी की और टापू पर अधिकार कर लिया। बाद में, इंग्लैंड के कहने पर उसने टापू खाली कर दिया, लेकिन यूनान से क्षतिपूर्ति की रकम वसूल ही लिया। यह मुसोलिनी की एक महत्त्वपूर्ण सफलता थी। इस मामले में राष्ट्रसंघ की असफलता से मुसोलिनी के हौसले और बढ़ गए।

इटालियन राष्ट्रवाद आक्रामक हो चला था। मारियो कार्लो कहता था कि ‘इटलीवासी हमेशा युद्धरत रहे हैं और रहेंगे।’ 1896 में अबीसीनिया द्वारा अडोवा में हुई पराजय इटालियन जनमानस में राष्ट्रीय अपमान की स्मृति बन गई थी। राष्ट्रसंघ में हाय-तौबा मची। लेकिन इटली का तर्क था-‘इथियोपिया (अबीसीनिया) को इंग्लैंड अपने पौंड की ताकत से लेना चाहता है और हम खून देकर।’ जब आर्थिक बहिष्कार का प्रस्ताव पास हुआ तो मुसोलिनी ने राष्ट्रसंघ को ठुकरा दिया और अबीसीनिया को हड़प लिया।

मुसोलिनी को हिटलर का खुला समर्थन मिला था और दोनों की निकटता की पृष्ठभूमि बन गई थी। हिटलर के रोम आने पर उसका भव्य स्वागत हुआ और निकटता बढ़ती गई। फलतः जब हिटलर ने फिर ऑस्ट्रिया में हस्तक्षेप किया, तो मुसोलिनी ने विरोध नहीं किया। इस प्रकार बर्लिन और रोम एक साथ हो गए और बाद में टोक्यो के शामिल होने पर बर्लिन-रोम-टोक्यो धुरी बनी।

स्पेन के गृहयुद्ध में फ्रैंको की मुसोलिनी ने खुलकर सहायता की एक तरह की फासीवादी सरकार स्थापित हो गई। इधर महायुद्ध निकट आता जा रहा था। मुसोलिनी ने स्पष्ट कह दिया था कि ‘समझौता संभव नहीं है- या वे या हम।’ इस युद्ध में इटली जर्मनी की तरह तैयार नहीं था क्योंकि जर्मनी को बिस्मार्क ने दृढ़ आर्थिक तंत्र दिया था, जबकि इटली अंदर से जर्जर था। प्रारंभिक सफलताओं के बाद इटली लड़खड़ाने लगा और जब मित्र राष्ट्रों ने सिसली पर हमला कर दिया, तो मुसोलिनी अपनी पार्टी और सरकार से अपदस्थ कर दिया गया। हिटलर की कोशिश भी नाकामयाब रही और मुसोलिनी को पकड़कर गोली मार दी गई।

रूस से 1924 ई. की संधि

भूमध्य सागर में अपने दावों की मजबूती और दक्षिण-पूर्व यूरोप में अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए एक शक्तिशाली मित्र की तलाश थी। उसने देखा कि रूस वर्साय संधि का विरोधी है और परिवर्तन की इच्छुक है। तत्कालीन परिस्थितियों में रूस को भी मित्र की आवश्यकता थी। अतः मुसोलिनी ने फरवरी 1924 ई. में रूस के साथ एक संधि कर ली। संधि के अनुसार इटली ने न केवल सोवियत सरकार को मान्यता दे दी, बल्कि उसके साथ व्यापारिक समझौता भी कर लिया। इस संधि से हालांकि इटली को कुछ प्राप्त नहीं हुआ, किंतु उसने यूरोपीय राजनीति में रूस सा मित्र बना लिया, जिससे राजनैतिक मंच पर इटली का सम्मान बढ़ गया।

अन्य देशों से संधियाँ

रूस से संधि के बाद मुसोलिनी ने अपनी स्थिति दृढ़ करने के लिए 1926 ई. में रूमानिया और स्पेन से, 1927 ई. में हंगरी से, 1928 ई. में यूनान व टर्की से, 1930 ई. में आस्ट्रिया से मैत्री संधियाँ कीं। इन संधियों के द्वारा मुसोलिनी अंतर्राष्ट्रीय जगत में इटली की प्रतिष्ठा बढ़ाने में सफल रहा।

इटली और जर्मनी

जर्मनी की तरह मुसोलिनी भी 1919 ई. की संधियों में संशोधन चाहता था, इसलिए उसने जर्मनी के प्रति उदारतापूर्ण नीति अपनाई, जिसके कारण 1929 ई. के बाद से जर्मनी और इटली की घनिष्ठता बढ़ने लगी। अगस्त 1931 ई. में जब जर्मनी के चांसलर ब्रूनिंग और विदेशमंत्री कुर्तियुस ने रोम की यात्रा की, उस समय मुसोलिनी ने जर्मनी को आश्वासन दिया कि वह 1932 ई. में होने वाले निःशस्त्रीकरण सम्मेलन में जर्मनी का पक्ष लेगा। किंतु 1933 ई. में जर्मनी में हिटलर के सत्तारूढ़ होने से मुसोलिनी की वैदेशिक नीति में परिवर्तन हो गया। हिटलर आस्ट्रिया को जर्मनी में सम्मिलित करना चाहता था, जबकि इटली की सुरक्षा के लिए आस्ट्रिया पर इटली का प्रभाव बना रहना आवश्यक था।

आस्ट्रिया-जर्मनी संघ की स्थापना

दक्षिणी टायरोल नामक जर्मन-ऑस्ट्रियन प्रांत के लिए, जो वर्साय संधि द्वारा इटली को मिला था, संकट का कारण बन सकता था। इन संभावनाओं से बचने के लिए मुसोलिनी ने ऑस्ट्रियन सरकार को पूर्ण समर्थन और सहायता देने की नीति अपनाई। किंतु केवल इसी व्यवस्था से इटली का काम चलने वाला नहीं था। इसलिए मुसोलिनी ने फ्रांस और ब्रिटेन के साथ सहयोग तथा मित्रतापूर्ण नीति का आरंभ किया। 17 फरवरी 1934 ई. को फ्रांस, ब्रिटेन और इटली ने एक साथ मिलकर घोषणा की कि वे आस्ट्रिया की स्वतंत्रता को बनाए रखने का हर संभव प्रयास करेंगे। इस प्रकार 1934 ई. तक आस्ट्रिया पर इटली का अधिकार इतना व्यापक हो गया कि आस्ट्रिया की गृह और विदेश नीति मुसोलिनी की सलाह से संचालित होने लगी। यहाँ तक कि जब 25 जुलाई 1934 ई. को नाजियों ने ऑस्ट्रियन चांसलर डॉल्फस की हत्या कर ऑस्ट्रियन सरकार को अपदस्थ करने का प्रयास किया, तो ऑस्ट्रियन जनता के साथ मुसोलिनी की त्वरित कार्रवाई ने नाजी प्रयास को असफल कर दिया।

इटली और फ्रांस के संबंध

फ्रांस और इटली के संबंध बहुत अच्छे नहीं थे क्योंकि मुसोलिनी फ्रांस के ट्यूनिस, कोर्सिका और सेवॉय पर बुरी नजर रखता था। भूमध्य सागर में भी दोनों के हितों में परस्पर टकराव था। किंतु हिटलर के सत्ता में आते ही फ्रांस और इटली के बीच घनिष्ठता बढ़ गई क्योंकि हिटलर आस्ट्रिया को हड़पना चाहता था। इस समय इटली भी इथियोपिया को हड़पने की तैयारी में था और उसे फ्रांस के समर्थन की आवश्यकता थी। जब 1934 ई. में मुसोलिनी ने हिटलर के आस्ट्रिया पर पहली बार अधिकार करने के प्रयास को विफल कर दिया, तो फ्रांस और इटली की नजदीकियाँ और बढ़ गईं। फ्रांसीसी विदेशमंत्री पियरे लावाल ने 7 जनवरी 1935 ई. में रोम की यात्रा की और मुसोलिनी के साथ एक गुप्त समझौता कर लिया, जिसे ‘रोम पैक्ट’ कहा जाता है। रोम पैक्ट के अनुसार फ्रांस ने लीबिया के मरुस्थली प्रदेश और इरीट्रिया के समीप स्थित फ्रांसीसी सोमालीलैंड का 44,500 वर्गमील भू-भाग इटली को दे दिया। इसके बदले इटली ने 1896 ई. की संधि के अनुसार ट्यूनीशिया में इटली के नागरिकों को जो सुविधा मिली थी, उसका त्याग कर दिया। इसके अतिरिक्त, फ्रांस ने जर्मनी के विरुद्ध इटली का समर्थन करने का वचन दिया और दोनों ने यह भी तय किया कि ऑस्ट्रिया की स्वतंत्रता की रक्षा के हेतु परस्पर विचार-विमर्श करेंगे। इसी समय मुसोलिनी ने लावाल से इथियोपिया पर अधिकार करने की अपनी इच्छा प्रकट की थी। मुसोलिनी ने फ्रांसीसी राजदूत से कहा था : ‘यदि संपूर्ण इथियोपिया को एक तश्तरी में हमारे सामने से आए तो भी हम उसे स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि हमने शक्ति-प्रयोग करके उसको अधिकृत करने का निश्चय किया है।’ चूंकि फ्रांस का इथियोपिया में कोई हित नहीं था, इससे लगता है कि लावाल ने इटली की योजना को अपनी सहमति दे दी थी। इस प्रकार रोम पैक्ट से इटली को फ्रांस से क्षेत्रीय लाभ के साथ-साथ इथियोपिया पर अधिकार करने का अप्रत्यक्ष समर्थन मिल गया।

स्ट्रेसा गठबंधन

हिटलर ने 1935 ई. में वर्साय संधि की धाराओं का उल्लंघन किया, तो नाजी खतरे से भयभीत होकर 1935 ई. में इटली, फ्रांस और इंग्लैंड के प्रतिनिधियों ने स्ट्रेसा नामक स्थान पर एक समझौता किया, जिसे ‘स्ट्रेसा गठबंधन’ के नाम से जाना जाता है। यद्यपि इस मोर्चे का गठन हिटलर के विरुद्ध किया गया था, किंतु इसी समय इंग्लैंड और जर्मनी के बीच नौसैनिक संधि पर भी वार्ता हो रही थी।

अबीसीनिया (इथियोपिया) पर अधिकार

अबीसीनिया, जिसे इथियोपिया भी कहा जाता है, अफ्रीका का एक प्राचीन ऐतिहासिक देश है। उन्नीसवीं शताब्दी में 1880 के दशक से ही इटली अबीसीनिया (इथियोपिया) पर अधिकार करना चाहता था, किंतु 1 मार्च 1896 ई. को अडोवा के युद्ध में इथियोपिया के मेनिलिक द्वितीय ने इटली को बुरी तरह पराजित किया था। अडोवा की पराजय इटली के लिए राष्ट्रीय अपमान थी। यद्यपि मेनिलिक के भतीजे हैले सेलासी (राज तफरी) ने 1928 ई. में इटली के साथ मैत्रीपूर्ण संधि की थी, किंतु 1935 ई. में मुसोलिनी ने इथियोपिया पर आक्रमण कर उसे इटली में सम्मिलित कर लिया। मुसोलिनी इटली में प्राचीन रोमन गौरव की पुनर्स्थापना के लिए कृत-संकल्प था। उसने 1934 ई. में ही कहा था कि ‘हम विश्व में किसी की परवाह नहीं करते और युद्ध तो राष्ट्र के लिए सर्वोच्च न्यायालय है।’ यद्यपि औपनिवेशिक विस्तार मुसोलिनी की विदेश नीति का एक अनिवार्य अंग था, लेकिन अन्य कई कारणों से भी वह इथियोपिया को इटालियन साम्राज्य में मिलाना चाहता था। एक तो, इटली का केवल 23 प्रतिशत भूभाग ही कृषि-योग्य था, जबकि इटली की जनसंख्या चार करोड़ हो गई थी और चार लाख प्रतिवर्ष की दर से बढ़ती ही जा रही थी। बढ़ती जनसंख्या के लिए इटली को उपनिवेशों की आवश्यकता थी। दूसरे, खनिज-संपदा से संपन्न होने के कारण कच्चे माल की आशा, व्यापार-वृद्धि, खनिज पदार्थों की उपलब्धता, उत्पादित माल की खपत आदि इटली के लिए बड़ा लालच था। तीसरे, इथियोपिया भौगोलिक रूप से सोमालीलैंड और इरीट्रिया के इटालियन उपनिवेशों के बीच में स्थित था और आंतरिक रूप से दुर्बल और अस्तव्यस्त था। इस पर अधिकार करके मुसोलिनी इटली की साम्राज्यवादी विस्तार की आकांक्षा को पूर्ण कर सकता था। चौथे, इथियोपिया में दूसरे राष्ट्रों के हितों के बीच कोई टकराव भी नहीं था। इसके अलावा, इटली के पास अंधकार में पड़े अफ्रीकनों को सभ्य बनाने और उन्हें प्रगति के रास्ते पर ले जाने का एक अच्छा बहाना भी था। सच यह है कि मुसोलिनी अडोवा की हार का प्रतिशोध लेकर इटली में प्राचीन रोमन गौरव की पुनर्स्थापना पर तुला हुआ था और विश्व में इटली की प्रतिष्ठा को स्थापित करना चाहता था।

जापान पर मंचूरिया की विजय (1931 ई.) से राष्ट्रसंघ की दुर्बलता स्पष्ट हो गई थी। 1933 ई. में हिटलर के उदय के कारण जर्मनी में पुनः शस्त्रीकरण हो चुका था और यूरोप के राष्ट्र जर्मनी की समस्याओं में उलझे हुए थे। इन दिनों मुसोलिनी का इंग्लैंड और फ्रांस से मैत्रीपूर्ण संबंध था। जर्मनी भी इटली की मित्रता के इच्छुक था। ऐसी स्थिति में मुसोलिनी को राष्ट्रसंघ या किसी बड़ी शक्ति के इटली-इथियोपिया युद्ध में हस्तक्षेप करने की आशंका नहीं थी। मुसोलिनी को जल्दी ही इथियोपिया पर आक्रमण करने का बहाना भी मिल गया। 5 दिसंबर 1934 ई. को इटालियन सोमालीलैंड और इथियोपिया की सीमा पर स्थित वालवाल नामक स्थान पर इथियोपियन और इटालियन सैनिकों की एक मुठभेड़ हो गई, जिसमें दोनों पक्ष के सैकड़ों सैनिक मारे गए। इथियोपिया ने 1928 ई. की मैत्री-संधि के अनुसार इस घटना पर विरोध प्रदर्शित किया और मध्यस्थता द्वारा शांतिपूर्ण तरीके से विवाद को सुलझाने का प्रस्ताव रखा। मुसोलिनी ने इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए इथियोपिया की सरकार से क्षमा-याचना, भारी क्षतिपूर्ति और इथियोपियन अधिकारियों को दंडित करने की माँग की। विवश होकर इथियोपिया ने 3 जनवरी 1935 ई. को राष्ट्रसंघ की शरण ली, किंतु राष्ट्रसंघ ने वालवाल की घटना के लिए किसी पक्ष को दोषी नहीं ठहराया और दोनों पक्षों को शांत करने का प्रयास किया। इसी बीच 7 जनवरी 1935 ई. को रोम में मुसोलिनी और फ्रांस के राजदूत पियरे लावाल के बीच ‘रोम पैक्ट’ हो गया और इथियोपिया के मुद्दे पर इटली को फ्रांस का अप्रत्यक्ष समर्थन मिल गया। ब्रिटेन जानता था कि इटली शीघ्र ही इथियोपिया पर अधिकार कर लेगा। चूंकि इथियोपिया में ब्रिटेन का कोई निहित स्वार्थ नहीं था। इसलिए ब्रिटेन ने भी इटली के प्रति तुष्टीकरण नीति अपनाई और मुसोलिनी की साम्राज्यवादी नीति को अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित किया। इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर मुसोलिनी ने पूरे इथियोपिया को हड़पने का निश्चय कर लिया।

मुसोलिनी ने राष्ट्रसंघ के शांति-प्रयासों की अनदेखी करते हुए अक्टूबर 1935 ई. में इथियोपिया पर विधिवत आक्रमण कर दिया। फ्रांस के विदेशमंत्री पियरे लावाल और ब्रिटेन के विदेश सचिव सर सैमुअल होर ने कूटनीतिक तरीके से समस्या को सुलझाने में असफल रहे। अंततः राष्ट्रसंघ ने इटली को आक्रामक मानकर उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया। इतिहास में यही पहला उदाहरण है कि जब किसी बड़े यूरोपीय राष्ट्र को राष्ट्रसंघ ने आक्रामक घोषित किया था। हिटलर ने मुसोलिनी की प्रशंसा की और उसकी कार्यवाही का समर्थन करते हुए उसे आवश्यक युद्ध-सामग्री भेजता रहा। अमेरिका भी खाद्य एवं अन्य सामानों की आपूर्ति करता रहा क्योंकि वह राष्ट्रसंघ का सदस्य नहीं था। फ्रांस और इंग्लैंड भी आर्थिक प्रतिबंध के प्रति बहुत गंभीर नहीं थे। फलतः मुसोलिनी की सेना ने इथियोपिया की राजधानी अदीस अबाबा को अधिकृत कर 1896 ई. की अपनी हार का प्रतिशोध पूरा कर लिया। 9 अप्रैल 1936 ई. में अशांगी झील के निकट हुए युद्ध में सम्राट हैले सेलासी भी पराजित हुआ और 2 मई 1936 ई. को एक ब्रिटिश जलपोत से फिलस्तीन की ओर भाग गया। तीन दिन बाद इटली की विजय-वाहिनी ने इथियोपिया की राजधानी अदीस अबाबा में प्रवेश किया और 9 मई 1936 ई. को इटली के राजा विक्टर इमैनुएल तृतीय को इथियोपिया का सम्राट घोषित कर उसे इटली के साम्राज्य में मिला लिया गया। इथियोपिया की क्रूर विजय के बाद इटली ने राष्ट्रसंघ की सदस्यता छोड़ दी और राष्ट्रसंघ ने भी अपनी निर्बलता का परिचय देते हुए इटली पर से आर्थिक प्रतिबंध का आदेश वापस ले लिया। चूंकि अबीसीनिया के मामले में जर्मनी ने इटली की पूरी सहायता की थी, इसलिए अब इटली और जर्मनी के बीच मित्रता के दरवाजे खुल गए। लैंगसम के अनुसार ‘अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में रोम-बर्लिन धुरी की संभावना यहीं से स्पष्ट हो चुकी थी।’

रोम-बर्लिन धुरी की स्थापना

प्रारंभ में हिटलर एवं मुसोलिनी के संबंध अच्छे नहीं थे। किंतु इटली-इथियोपिया युद्ध के बाद इटली की विदेश नीति बड़ी अवसरवादी हो गई थी। हिटलर जानता था कि मुसोलिनी को अपनी ओर करके ही आस्ट्रिया पर अधिकार पाया जा सकता है। अबीसीनिया के प्रति इटली के रवैये ने फ्रांस, इंग्लैंड एवं रूस को चौकन्ना कर दिया था। फ्रांस, इंग्लैंड एवं रूस के व्यवहार से भी इटली खिन्न था। इथियोपिया विजय के दौरान हिटलर द्वारा दिए गए सहयोग के कारण मुसोलिनी समझ गया था कि हिटलर सच्चा मित्र है। अतः 26 अक्टूबर 1936 ई. में इटली और जर्मनी के बीच एक एक समझौता हुआ, जो इतिहास में ‘रोम-बर्लिन धुरी’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस इस समझौते के अनुसार जर्मनी ने इथियोपिया पर इटली के अधिकार को मान्यता दे दी और इटली ने आस्ट्रिया तथा चेकोस्लोवाकिया पर हिटलर के अधिकार के प्रयास का विरोध न करने का वचन दिया। दोनों देश समाजवादी व्यवस्था का विरोध करेंगे। स्पेन की रक्षा करेंगे। दोनों देश समय-समय पर वार्ता करेंगे। शीघ्र ही इस संधि में जापान को शामिल कर लिया गया और रोम-बर्लिन-टोक्यो धुरी का निर्माण हो गया।

इटली और इंग्लैंड के बीच समझौता

1935 ई. में इटली ने फ्रांस और इंग्लैंड के साथ स्ट्रेसा की संधि करके हिटलर के विरुद्ध एक गठबंधन बनाया था। किंतु इटली के इथियोपिया पर आक्रमण के दौरान इटली और इंग्लैंड के संबंधों में कुछ दरार आ गई थी। फिर भी, इटली और इंग्लैंड के बीच 2 जून 1937 ई. को एक समझौता हो गया, जिसे इतिहास में ‘सज्जन समझौता’ (जेंटलमेन्स एग्रीमेंट) के नाम से जाना जाता है। इस समझौते में स्पेन की तटस्थता पर जोर दिया गया और भूमध्य सागर में एक-दूसरे की स्वतंत्रता को स्वीकार किया गया। यही नहीं, इटली को संतुष्ट करने के लिए इंग्लैंड ने इटली की इथियोपिया विजय को भी मान्यता दे दी।

स्पेन के गृह-युद्ध में हस्तक्षेप

स्पेन में 1931 ई. में गणतंत्र की स्थापना हुई थी। 1931 ई. के बाद स्पेन में गणतंत्रवादी और राष्ट्रवादी नेताओं के बीच गृहयुद्ध आरंभ हो गया, जिसने 1936 ई. तक उग्र रूप धारण कर लिया। स्पेन का जनरल फ्रैंको गणतंत्र का अंत कर अपनी सत्ता स्थापित करना चाहता था, जो फासीवादी मनोवृत्ति का था। इस संघर्ष में वामपंथी गणतंत्रवादी स्पेनी सरकार का समर्थन कर रहे थे, जबकि दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी जनरल फ्रैंको का। सेना के उच्च पदाधिकारी भी फ्रैंको के साथ थे। मुसोलिनी फ्रैंको को स्पेन की सत्ता दिलाकर भूमध्य सागर में अपनी प्रधानता स्थापित करने के साथ ही इटली के औद्योगिक विकास हेतु स्पेन से लोहा, ताँबा आदि खनिज पदार्थ प्राप्त करना चाहता था। इटली और जर्मनी जनरल फ्रैंको की सहायता की, जबकि दूसरी ओर रूस फ्रैंको के विरुद्ध स्पेनी सरकार की मदद कर रहा था। इस गृहयुद्ध में इंग्लैंड ने तटस्थता की नीति अपनाई क्योंकि वह इस समय आत्मघाती तुष्टीकरण की नीति पर चल रहा था। इटली की मदद से मार्च 1939 ई. में स्पेन में फ्रैंको की फासीवादी सत्ता स्थापित हो गई, जिससे स्पेन में इटली का प्रभाव बढ़ गया और भूमध्य सागर में उसकी स्थिति सुरक्षित हो गई।

रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी

इटली और जर्मनी ने अक्टूबर 1936 ई. में ‘रोम-बर्लिन धुरी’ का निर्माण किया था। 1937 ई. में जापान भी उस कॉमिन्टर्न विरोधी संधि में सम्मिलित हो गया और रोम-बर्लिन धुरी के स्थान पर ‘रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी’ का निर्माण हुआ। वास्तव में, रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी का निर्माण साम्यवाद से यूरोपीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर की गई थी। इसके बाद 1937 ई. में मुसोलिनी ने जर्मनी की और 1938 ई. में हिटलर ने रोम की यात्रा की। अब इटली भी जर्मनी के नक्शेकदम पर चलने लगा।

इस्पात समझौता

जब इटली ने फ्रांस से ट्यूनिस, कोर्सिका, नीस और सेवॉय क्षेत्रों की माँग की, तो फ्रांस से संबंध बहुत कटु हो गए। फलतः 22 मई 1939 ई. को इटली ने जर्मनी के साथ एक राजनीतिक संधि कर ली, जो इतिहास में इस्पात समझौता (स्टील पैक्ट) के नाम से प्रसिद्ध है। इस समझौते के अनुसार युद्ध की स्थिति में दोनों देशों ने एक-दूसरे की सैनिक सहायता का निश्चय किया।

इटली और द्वितीय विश्वयुद्ध

जर्मनी के हिटलर ने 1 सितंबर 1939 ई. को पोलैंड पर आक्रमण कर द्वितीय विश्वयुद्धों के बीच 20 वर्ष की विराम-अवधि का अंत कर दिया। यद्यपि इस्पात समझौते (स्टील पैक्ट) के अनुसार इस समय मुसोलिनी को जर्मनी का साथ देना चाहिए था, किंतु मुसोलिनी ने हिटलर की तत्काल कोई सहायता नहीं की। हेज ने लिखा है, ‘‘एक कारण इटली अशक्त था, जर्मनी के हित में उसका तटस्थ रहना ठीक था। स्पेन के गृहयुद्ध में वह पूर्णतया थक चुका था- वह युद्ध का विचार भी नहीं कर सकता था।’’ वास्तव में, हिटलर ने अपनी अधिकांश सैन्य योजनाओं को मुसोलिनी से गुप्त रखा था और यह बात मुसोलिनी को पसंद नहीं थी। अंततः 10 जून 1940 को पोलैंड और फ्रांस में जर्मनी की निर्णायक विजय के बाद मुसोलिनी ने 11 जून 1940 ई. को फ्रांस और ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। मुसोलिनी ने हिटलर को सूचित किए बिना अपने सैन्य-अधिकारियों के सलाह की अनदेखी कर सितंबर 1940 में मिस्र में अंग्रेजों के विरूद्ध आक्रमण का आदेश दिया। किंतु प्रारंभिक सफलता के बाद इटालियन सेना को जर्मन सैनिकों की सहायता लेनी पड़ी। मिस्र में अपनी सेना की असफलता से क्षुब्ध होकर मुसोलिनी ने हिटलर की सलाह के विरुद्ध 28 अक्टूबर 1940 ई. को यूनान पर आक्रमण किया और वहाँ भी जर्मनी की सेना ने मुसोलिनी को हार से बचाया।

इटली का विद्रोह

1943 ई. में जर्मनी के रूस के साथ युद्ध में उलझने के बाद मित्र देशों की सेनाओं ने रोम पर बमबारी शुरू कर दी। अब इटालियन फासीवादी परिषद के सदस्य मुसोलिनी के विरूद्ध हो गए। राजा इमैनुएल तृतीय ने अपनी संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग कर मुसोलिनी को उसके पद से हटा दिया। राजा के आदेश से मुसोलिनी को 25 जुलाई 1943 ई. को बंदी लिया गया और अब्रूजी के कैंपो इम्पेराटोर के पर्वतीय रिसॉर्ट में भेज दिया गया। किंतु 12 सितंबर 1943 ई. को ओटो स्कोर्जेनी की कमान के एक जर्मन कमांडो दल ने मुसोलिनी को कैद से छुड़ा लिया। दस दिन बाद हिटलर ने मुसोलिनी को उत्तरी इटली में एक जर्मन कठपुतली राज्य में स्थापित कर दिया।

मुसोलिनी का अंत

जब मित्रराष्ट्रों ने अप्रैल 1945 ई. में उत्तरी इटली में अंतिम जर्मन सुरक्षा को तोड़ दिया, तो मुसोलिनी 25 अप्रैल को मिलान भाग गया। 27 अप्रैल को स्विट्जरलैंड के रास्ते में कोमो झील के पास मुसोलिनी और उसकी प्रेमिका क्लारा पेटाची अपने कुछ विश्वासपात्रों के साथ पकड़ लिए गए और 28 अप्रैल को उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई। 29 अप्रैल 1945 ई. को मुसोलिनी, पेटाची और उनके समर्थकों के शव मिलान के पियात्जाले लोरेटो चौक पर फेंक दिए गए, जहाँ गुस्साई भीड़ ने उनके शवों को अपवित्र तथा क्षत-विक्षत करके उल्टा लटका दिया। ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने मुसोलिनी की मौत पर लिखा था : ‘एक शख्स, जो पुराने रोम के गौरव को वापस लाने की बात किया करता था, उसकी लाश मिलान के एक चौक में पड़ी हुई थी और हजारों लोग उसे ठोकर मारकर और उस पर थूककर उसे लानत भेज रहे थे।’ पहले मुसोलिनी को मिलान में दफनाया गया, लेकिन 31 अगस्त 1957 ई. को इटालियन सरकार की अनुमति से मुसोलिनी के अवशेषों को उसके गृहनगर प्रेडापियो के वेरानो डि कोस्टा में फिर दफना दिया गया। इस प्रकार एक तानाशाह का बहुत वीभत्स तरीके से अंत हुआ। मुसोलिनी ने जिस फासीवाद सिद्धांतों के तहत इटली को एक समृद्धशाली राष्ट्र के रूप में परिवर्तित किया था, उसी फासीवादी विदेश नीति ने अंततः उसका सर्वनाश कर दिया। मुसोलिनी की विदेश नीति पूर्णतया अवसरवादी थी और इसी कारण वह 1939 ई. तक तो सफल रहा, किंतु बाद के दिनों में वह अवसर की सही पहचान नहीं कर सका, जिससे उसका और उसके फासीवादी सिद्धांतों का पतन हो गया।

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