गुप्त युग का मूल्यांकन (Evaluation of Gupta Age)

गुप्त युग : भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल गुप्त युग भारतीय इतिहास का एक ऐसा युग […]

गुप्त युग का मूल्यांकन (Evaluation of Gupta Age)

गुप्त युग : भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल

गुप्त युग भारतीय इतिहास का एक ऐसा युग है, जिसमें सभ्यता और संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई और भारतीय संस्कृति अपने उत्कर्ष की चरम सीमा पर पहुँची। इस काल में महान सम्राटों ने राजनीतिक एकता स्थापित की, साहित्य, विज्ञान और कला का उत्कर्ष हुआ तथा भारतीय संस्कृति का व्यापक प्रसार हुआ। गुप्त सम्राटों की धार्मिक सहिष्णुता की नीति के कारण सभी धर्मों का विकास हुआ और साम्राज्य में आर्थिक समृद्धि आई। गुप्तकाल के सर्वांगीण विकास से प्रभावित होकर कुछ इतिहासकारों ने इस युग को ‘स्वर्णयुग’ की संज्ञा दी है। इस काल में मानव जीवन के सभी क्षेत्रों में समृद्धि और प्रफुल्लता के दर्शन हुए। बार्नेट के अनुसार “प्राचीन भारत के इतिहास में गुप्तकाल का वही महत्व है, जो यूनान के इतिहास में पेरिक्लीज़ युग का है।” स्मिथ ने इस काल की तुलना ब्रिटिश इतिहास के एलिज़ाबेथन और स्टुअर्ट काल से की है।

राजनीतिक एकता

गुप्त युग में आर्यावर्त ने राजनीतिक एकता का साक्षात्कार किया। मौर्यों के बाद पहली बार बड़े पैमाने पर राजनीतिक एकता स्थापित हुई। अपने उत्कर्ष काल में गुप्त साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वत तक, तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में सौराष्ट्र तक विस्तृत था। इन क्षेत्रों पर गुप्तों का प्रत्यक्ष शासन था, किंतु उनका प्रभाव दक्षिण भारत तक फैला हुआ था। दक्षिणापथ के अनेक शासक उनकी राजनीतिक अधीनता स्वीकार करते थे। गुप्तों ने अपने पराक्रम और वीरता के बल पर प्रायः संपूर्ण भारत को एकता के सूत्र में बाँध दिया था। देश की भौतिक और नैतिक प्रगति गुप्तकालीन राजनीतिक परिस्थितियों का परिणाम थी।

महान सम्राटों का उदय

गुप्तकाल में अनेक यशस्वी और महान सम्राटों का उदय हुआ, जिन्होंने अपनी विजयों द्वारा एकछत्र शासन स्थापित किया। गुप्त सम्राट ‘धरणिबंध’ और ‘कृत्स्नपृथ्वीजय’ जैसे उच्च आदर्शों से प्रेरित थे। ‘पराक्रमांक’ समुद्रगुप्त ने न केवल आर्यावर्त के शासकों को अपने अधीन किया, बल्कि दक्षिणापथ तक अपनी विजय-पताका फहराई। उसने शक और कुषाण जैसी विदेशी जातियों को नियंत्रित किया और प्रत्यंत (सीमावर्ती) शासकों को अपनी आज्ञा मानने के लिए बाध्य किया। चंद्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिमी भारत से शक महाक्षत्रपों का उन्मूलन किया और ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि को सार्थक किया। उसके प्रताप से दक्षिण के समुद्रतट सुगंधित होते थे। ‘क्रमादित्य’ स्कंदगुप्त अंतिम प्रतापी शासक थे, जिन्होंने हूणों जैसी बर्बर जाति से भारतभूमि की रक्षा की।

आदर्श शासन-व्यवस्था

प्रतिभाशाली गुप्त नरेशों ने एक आदर्श शासन-व्यवस्था स्थापित की, जो प्रत्येक दृष्टि से उदार और लोकोपकारी थी। प्रजा के हित को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए स्कंदगुप्त ने सुदर्शन झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवाया। संपूर्ण गुप्त साम्राज्य में भौतिक और नैतिक समृद्धि व्याप्त थी तथा शांति और सुव्यवस्था स्थापित थी। चीनी यात्री फाहियान को कहीं चोरों या डकैतों का सामना नहीं करना पड़ा। उसने गुप्त प्रशासन की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। गुप्तकालीन प्रशासन में मृत्युदंड नहीं दिया जाता था; बार-बार राजद्रोह करने वालों का केवल अंग-भंग किया जाता था। जूनागढ़ लेख से पता चलता है कि उस समय कोई भी दरिद्र, दुखी या पीड़ित नहीं था। कालिदास ने इस शांति और सुशासन का काव्यात्मक वर्णन करते हुए लिखा है कि उपवनों में मदिरा पीकर सोई हुई नगर-सुंदरियों के वस्त्र को वायु भी नहीं छू सकती थी, तो उनके आभूषण चुराने का साहस कौन कर सकता था?

आर्थिक समृद्धि

गुप्तकाल आर्थिक समृद्धि का काल था। कृषि जनता की आजीविका का प्रमुख स्रोत थी और गुप्त सम्राटों ने कृषि के विकास को प्रोत्साहित किया। राज्य की ओर से सिंचाई के लिए कुओं, रहटों और झीलों का निर्माण करवाया गया। कालिदास के विवरण से पता चलता है कि इस काल में धान और ईख की खेती प्रचुर मात्रा में होती थी। कृषि के साथ-साथ विभिन्न उद्योग-धंधे और व्यापार-वाणिज्य भी उन्नत अवस्था में थे। श्रेणियों और निगमों के माध्यम से व्यापारिक गतिविधियाँ सुचारु रूप से संचालित होती थीं। पाटलिपुत्र, वैशाली, उज्जयिनी, दशपुर और भड़ौच इस काल के प्रमुख व्यापारिक नगर थे। भारत का व्यापार अरब, फारस, मिस्र, रोम, चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीप समूहों के साथ होता था। यह व्यापार थल और जल दोनों मार्गों से संचालित था। जल व्यापार के लिए बड़े-बड़े जहाजों का निर्माण किया गया। जावा के बोरोबुदुर स्तूप पर अंकित जहाजों के चित्र इसकी पुष्टि करते हैं। कला-विद्वान आनंद कुमारस्वामी के अनुसार “गुप्तकाल भारतीय पोत निर्माण कला का सर्वोत्तम युग था, जब पेगु, कंबोडिया, जावा, सुमात्रा और बोर्नियो में भारतीयों ने उपनिवेश स्थापित किए और चीन, अरब और फारस के साथ व्यापारिक संबंध थे।”

सभी धर्मों का स्वाभाविक विकास

गुप्त राजवंश के अधिकांश नरेश ‘परमभागवत’ और वैष्णव धर्मानुयायी थे, जिससे इस काल में वैष्णव धर्म की सर्वाधिक उन्नति हुई। उनकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति के कारण बौद्ध और जैन जैसे अन्य धर्मों का भी स्वाभाविक विकास हुआ। गुप्त सम्राटों ने बिना भेदभाव के विभिन्न धर्मों के अनुयायियों को उच्च प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किया। चंद्रगुप्त द्वितीय का सचिव वीरसेन शैव था, जबकि आम्रकार्दव नामक बौद्ध सेना में उच्च पदाधिकारी था। साँची लेख से पता चलता है कि चंद्रगुप्त ने काकनादबाट नामक महाविहार को एक ग्राम और पच्चीस दीनार दान दिए। कुमारगुप्त के समय बौद्ध बुद्धमित्र ने बुद्ध की मूर्ति स्थापित की और स्कंदगुप्त के काल में मद्र नामक व्यक्ति ने पाँच जैन तीर्थंकरों की पाषाण मूर्तियों का निर्माण करवाया। फाहियान के विवरण से पता चलता है कि बौद्ध धर्म उन्नत अवस्था में था। मथुरा से गुप्तकाल की अनेक जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। हिंदू मंदिरों के समीप बौद्ध मठ थे, और बुद्ध प्रतिमाओं के पास जैन मूर्तियाँ थीं। इस प्रकार गुप्तकाल धार्मिक सहिष्णुता का युग था, जिसमें सभी धर्मों का स्वाभाविक विकास हुआ।

साहित्य और विज्ञान की प्रगति

गुप्तकाल की शांति, समृद्धि और सुव्यवस्था के वातावरण में साहित्य, विज्ञान और कला का चरमोत्कर्ष हुआ। संस्कृत राजभाषा बन गई और विशाल संस्कृत साहित्य का सृजन हुआ। महान कवि और नाटककार कालिदास इस युग की विभूति थे, जिनकी रचनाएँ संस्कृत साहित्य में अद्वितीय हैं। इसी काल में अमरसिंह ने ‘अमरकोश’ की रचना की। भारतीय षड्दर्शन इस समय विकसित हुए और प्रसिद्ध दार्शनिक वसुबंधु इस काल की देन हैं। गुप्तकाल में आर्यभट्ट, वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त जैसे गणितज्ञ, ज्योतिषाचार्य और खगोलशास्त्री उत्पन्न हुए। आर्यभट्ट ने सर्वप्रथम बताया कि “पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है।”

कलात्मक उपलब्धियाँ

साहित्य और विज्ञान की तरह कला और स्थापत्य के क्षेत्र में भी गुप्तकाल में उल्लेखनीय प्रगति हुई। वास्तु, मूर्तिकला और चित्रकला का सम्यक विकास हुआ। देवगढ़ का दशावतार मंदिर, भूमरा और नचना-कुठारा के शिव-पार्वती मंदिर, सारनाथ और मथुरा की बुद्ध एवं विष्णु मूर्तियाँ तथा अजंता की चित्रकारियाँ भारतीय कला के अद्वितीय उदाहरण हैं। अजंता की गुफाओं के चित्र इतने सजीव, करुणामय और हृदयस्पर्शी हैं कि देशी-विदेशी कला-मर्मज्ञों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। ये निश्चित रूप से भारतीय कला की सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ हैं।

बृहत्तर भारत का उदय

यद्यपि गुप्तकाल से पहले ही भारतीयों ने मध्य और दक्षिण-पूर्व एशिया में उपनिवेश स्थापित कर लिए थे, किंतु भारतीय संस्कृति का प्रसार मुख्य रूप से गुप्तकाल में हुआ। फूनान, कंबुज, मलाया, चम्पा, जावा, सुमात्रा, बाली, बोर्नियो, स्याम और बर्मा इस काल के हिंदू राज्य थे। मध्य एशिया में खोतान और कुचा हिंदू संस्कृति के प्रमुख केंद्र थे। गुप्तकाल में अनेक धर्म-प्रचारक चीन गए और तिब्बत, कोरिया, जापान तथा फिलीपीन द्वीप समूह तक भारतीय संस्कृति का प्रसार हुआ। इस सांस्कृतिक विस्तार के कारण ‘बृहत्तर भारत’ का उदय हुआ।

स्वर्णयुग की अवधारणा पर प्रश्नचिह्न

सभ्यता और संस्कृति के प्रायः सभी क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति के कारण गुप्तकाल को प्राचीन भारत का ‘क्लासिकल युग’ या ‘स्वर्णकाल’ कहा जाता है। किंतु आर.एस. शर्मा, डी.डी. कौसांबी और रोमिला थापर जैसे इतिहासकार इस स्वर्णयुग की संकल्पना को निराधार मानते हैं, क्योंकि यह युग सामंतवाद की उन्नति, नगरों के पतन, व्यापार-वाणिज्य की अवनति और आर्थिक पतन का काल था। गुप्तकाल को स्वर्णयुग केवल उच्च वर्गों के संदर्भ में माना जा सकता है, जिनका जीवन-स्तर विशेष रूप से उत्तर भारत में उच्च था। बीसवीं सदी के प्रारंभ में लिखने वाले इतिहासकारों के लिए ‘स्वर्णयुग’ एक यूटोपिया था, जो सुदूर अतीत में ही संभव था। इस दौरान हिंदू संस्कृति दृढ़तापूर्वक स्थापित हुई।

हिंदू पुनर्जागरण का काल?

गुप्तकाल को हिंदू पुनर्जागरण का काल मानना भी कठिन है। गुप्तकालीन मूर्तिकला के सर्वोत्तम उदाहरण, जैसे सारनाथ की मूर्तियाँ और अजंता की चित्रकला, बौद्ध कला के उदाहरण हैं और इनके निर्माण में गुप्तों का कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं था। आर्यभट्ट और वराहमिहिर के ज्योतिष सिद्धांत आंशिक रूप से ही भारतीय थे। वराहमिहिर के पाँच सिद्धांतों में से एक रोमन था और दूसरा पॉलिश, जो सिकंदरिया के ज्योतिषी पॉल द्वारा प्रतिपादित था। हिंदू पुनर्जागरण का एकमात्र साक्ष्य कालिदास की रचनाएँ, कुछ पुराणों का संकलन और गुप्त राजाओं द्वारा वैष्णव व शैव धर्म को प्रोत्साहन देने वाले सिक्के व शिलालेख हैं। किंतु कालिदास की रचनाएँ बौद्धिक पुनर्जागरण का प्रतीक न होकर पूर्वकाल से विकसित हो रही साहित्यिक शैली का परिष्कृत रूप हैं। पुराण भी गुप्तकाल से पहले विद्यमान थे, जिनका केवल संकलन इस काल में हुआ।

धार्मिक पुनर्जागरण?

वैष्णव और शैव धर्म के सिद्धांत पूर्वकाल से चले आ रहे विकास का परिणाम थे, न कि किसी धार्मिक पुनर्जागरण का। वस्तुतः जिसे हिंदू पुनर्जागरण कहा जाता है, वह पुनर्जागरण न होकर हिंदुत्व का द्योतक था। प्राचीन भारतीय स्वयं को ‘हिंदू’ नहीं कहते थे और यह शब्द गुप्तकाल के बहुत बाद अरबों द्वारा भारतीयों के लिए प्रयुक्त हुआ। अतः तथाकथित हिंदू पुनर्जागरण न तो पुनर्जागरण था और न ही हिंदू पुनर्जागरण।

राष्ट्रीयता की पुनरुत्पत्ति?

गुप्त शासकों ने राष्ट्रीयता की पुनरुत्पत्ति नहीं की। शक और हूणों से युद्ध के कारण, रामगुप्त को छोड़कर अन्य गुप्त सम्राटों को राष्ट्रीयता की पुनर्स्थापना का श्रेय दिया गया है, किंतु किसी भी दरबारी नाटक या काव्य में गुप्त राजाओं का प्रत्यक्ष वर्णन नहीं है। कालिदास का ‘मालविकाग्निमित्र’ शुंगों से संबंधित है, और विशाखदत्त का ‘मुद्राराक्षस’ चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य से। केवल समकालीन पुराणों में उनका उल्लेख है, जहाँ उन्हें निम्न कोटि के राजाओं में गिना गया है। गुप्त राजाओं की प्रशस्तियों, विशेषकर समुद्रगुप्त की प्रशस्ति और शिलालेखों में उनकी प्रशंसा की गई है। देवगढ़, भूमरा और नचना-कुठारा के मंदिरों को गुप्तकालीन माना जाता है, किंतु उनका गुप्तकालीन होना संदिग्ध है। यदि गुप्त शासकों ने इतने बड़े मंदिर बनवाए थे, तो राजपरिवार के लिए वैभवशाली महल भी होने चाहिए थे, किंतु गुप्तकालीन महलों के अवशेष नहीं मिले हैं। अजंता और एलोरा की चित्रकला, जिसके आधार पर गुप्तकालीन चित्रकला की उन्नति का दावा किया जाता है, उस क्षेत्र पर गुप्तों का प्रत्यक्ष नियंत्रण कभी नहीं था। स्पष्ट है कि उन्नीसवीं सदी के राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने प्राचीन भारतीय इतिहास की उज्ज्वलता सिद्ध करने के लिए गुप्तकाल को महिमामंडित किया। वस्तुतः “गुप्तों ने राष्ट्रीयता की पुनरुत्पत्ति नहीं की, बल्कि राष्ट्रीयता ने गुप्तों की पुनरुत्पत्ति की।”

सामाजिक और आर्थिक स्थिति

गुप्तकाल में सामंतवाद, दासप्रथा, बंधुआ मजदूरी, बेगारी, अस्पृश्यता, बाल-विवाह, सती प्रथा और सामाजिक तनावों का विकास हुआ। कृषक आर्थिक रूप से बंधक बन गए और स्त्रियाँ संपत्ति का हिस्सा बनकर पुरुषों के पूर्ण अधीन हो गईं। जातिभेद और वर्ण व्यवस्था जटिल हो गई। फाहियान ने लिखा कि जनता समृद्ध थी, किंतु इसके विपरीत कुछ ऐसी परिस्थितियाँ थीं, जो उच्च वर्गों के लिए भी रुचिकर नहीं थीं। इस काल में प्रयाग में गंगा-यमुना संगम पर तथाकथित पवित्र वटवृक्ष से वृद्ध लोगों द्वारा आत्महत्या की प्रथा शुरू हुई।

कला और साहित्य उच्च वर्गों के सुखी जीवन को दर्शाते हैं, किंतु निम्न वर्गों की दशा दयनीय थी। फाहियान ने चांडालों की दुर्दशा का वर्णन किया है। अस्पृश्य वर्ग की अवनति हुई और वर्ग-विभाजित समाज को बनाए रखने के लिए धर्म को शस्त्र बनाया गया। यह आर्थिक समृद्धि का नहीं, बल्कि आर्थिक विपन्नता का युग था। नगर उजड़कर गाँव बन गए और उद्योग-धंधे व व्यापार चौपट हो गए। यद्यपि गुप्तकाल की सबसे अधिक स्वर्णमुद्राएँ प्राप्त हुई हैं, किंतु उनमें सोने की मात्रा कम थी। मगध का महान नगर पाटलिपुत्र, जो चंद्रगुप्त मौर्य की राजधानी था, एक गाँव बन गया। उज्जैन गुप्तकाल में मौर्यकालीन पाटलिपुत्र जैसा महान नगर नहीं बन सका और बाद की राजधानी कन्नौज इससे भी कम महत्वपूर्ण थी।

डी.डी. कौसांबी का कथन है : “स्वामिभक्ति ने कृषक-दासों और आश्रितों को सामंती प्रमुखों के साथ एक शृंखला में बाँध दिया।” यही भाव धर्म में भक्ति सिद्धांत के रूप में विकसित हुआ। अनेक प्रथाओं को ब्राह्मणीकरण के माध्यम से तथाकथित हिंदू धर्म में समाविष्ट किया गया, जिससे हिंदू पुनर्जागरण की परिकल्पना को ठेस पहुँचती है। बौद्ध और जैन धर्मों में भी भक्ति का पुट पहुँच गया, जो सामंती व्यवस्था को प्रतिबिंबित करता है। बुद्ध भक्त को बोधिचित्त के विकास के लिए स्वयं को समर्पित करना पड़ता था।

साहित्य और कला की वास्तविकता

कालिदास की कृतियों में साहित्यिक लालित्य के माध्यम से उच्चवर्गीय जीवन-मूल्यों और आस्थाओं को छिपाया नहीं जा सकता। कला का संरक्षण अधिकांशतः सामंतों के हाथों में था। जनसाधारण की कलाकृतियाँ, जैसे मृण्मूर्तियाँ और मिट्टी के बर्तन या तो कम दृष्टिगोचर हैं या विशिष्ट वर्ग के लिए बनाई गई प्रतीत होती हैं। इस प्रकार स्वर्णयुग की अवधारणा यथार्थ पर आधारित नहीं है। कालिदास, भारवि, वसुबंधु, देवगढ़, भीतरगाँव, अजंता और बाघ जैसी उपलब्धियों के पीछे वे लोग थे, जिनके गीत गाने के लिए कोई हरिषेण, वत्सभट्टि, या बाणभट्ट नहीं था।

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